सत्येंद्र रंजन |
-सत्येंद्र रंजन
"क्या शी ने जिस चीनी सपने को जगाने की कोशिश की है, उसके जरिए वे चीन को वैचारिक एवं राजनीतिक-कार्यक्रम संबंधी गतिरोध से निकाल सकेंगे? अभी जिस अर्थ में वहां संपन्नता की बात होती है, वह पूंजीवादी व्यवस्थाओं की ट्रिकल डाउन (ऊपर से रिस कर लाभ के नीचे तक पहुंचने) सिद्धांत से अलग नजर नहीं आती। अब शी जिस सपने और ली जिन सुधारों की बात कर रहे हैं, क्या उससे यही दिशा और आगे बढ़ेगी,या उससे कोई नया रास्ता सामने आएगा?"
शीजिनपिंग के राष्ट्रपति और ली किछियांग के प्रधानमंत्री चुने जाने के साथ चीन में क्रांति के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की पांचवीं पीढ़ी के हाथ में नेतृत्व आने की प्रक्रिया पूरी हो गई है। चीनी सत्ता तंत्र में कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव/राष्ट्रपति के हाथ में व्यापक नीति निर्धारण की ताकत होती है, जबकि प्रधानमंत्री का पद प्रशासनिक महत्त्व का है- खासकर आर्थिक नीतियों के निर्माण एवं उन पर अमल की मुख्य जिम्मेदारी प्रधानमंत्री की होती है। इस अर्थ में महासचिव/राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की जोड़ी सत्ता के मुख्य पद हैं, जो कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यरो की स्थायी समिति के साथ मिल कर देश की नीति एवं प्रशासनिक दिशा तय करते हैं। 1989 में थ्येन-आन-मन चौराहे की घटना के समय हुई हलचल के बाद पार्टी में दस-दस साल तक एक टीम के सत्ता में रहने की रवायत बनी। 2002 के बाद अब 2012 में ऐसा हुआ, जब बिना किसी बड़ी उथल-पुथल के सत्ता हस्तांतरण का काम पूरा हो गया।
तीव्रआर्थिक विकास और उसके परिणामस्वरूप चीन के विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के अलावा निवर्तमान हू जिन ताओ और वेन जिआबाओ के पिछले दस साल के दौर को मुख्य रूप दो दूसरे रुझानों के लिए याद रखा जाएगा। पहला यह कि इस दौर में कल्याणकारी कार्यों के संदर्भ में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका पर फिर से जोर बढ़ा, जिससे जियांग जेमिन के युग में स्वास्थ्य एवं आवास जैसे क्षेत्रों में बढ़े निजीकरण की दिशा पलटी। दूसरा रुझान विषमता में भारी वृद्धि तथा बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के मामलों के खुलासे का रहा, जिससे न सिर्फ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की छवि खराब हुई, बल्कि उसकी जन-वैधता को लेकर कठिन प्रश्न भी खड़े हुए। हू जिनताओ ने देश के अंदर “सद्भावपूर्ण समाज” के निर्माण और बाहरी मामलों में चीन के “शांतिपूर्ण उत्थान” को अपना घोषित लक्ष्य बनाया था। दूसरा लक्ष्य तो चीन ने हासिल किया, लेकिन सद्भावपूर्ण समाज बनाने की दिशा में कितनी कामयाबी मिली, यह विवादास्पद है। अब जबकि चीन की सत्ता शी-ली की जोड़ी के हाथ में है, दुनिया की सबसे ज्यादा दिलचस्पी यही देखने में है कि इन दोनों के पास देश के लिए क्या एजेंडा है?
हालके महीनों में इन दोनों नेताओं के दिए भाषणों एवं बयानों से इसका कुछ आभास हुआ है। ली किछियांग ने कुछ समय पहले कहा था- “सुधार धारा में ऊपर तरफ नौकायन की तरह है। अगर आप आगे नहीं बढ़े, तो मतलब नीचे गिरना होगा। जो लोग सुधरने से इनकार करते हैं, हो सकता है कि उनसे कोई गलती नहीं हो, लेकिन उन पर अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को स्वीकार ना करने का इल्जाम लगता है।”इस बीच शी जिनपिंग के “चीनी सपने” का जुमला खूब चर्चित हुआ है। अतीत में अमेरिकन ड्रीम दुनिया में चर्चित रहा। मार्टिन लूथर किंग जूनियर का ‘आई हैव अ ड्रीम’ भाषण अलग संदर्भों में एक ऐतिहासिक दस्तावेज बना। शी ने कुछ उसी तर्ज पर अपने’ झोंगुओ मेंग’ (चीनी सपने) को चर्चित बनाने की कोशिश की है। पिछले नवंबर में कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव बनने के बाद जब उन्होंने अपना पहला नीति-वक्तव्य दिया, तो उसमें उन्होंने कहा- “हर व्यक्ति का अपना आदर्श है, उसे अपने सपने की तलाश है। मुझे पूरा विश्वास है कि जब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी अपनी 100वीं सालगिरह मनाएगी (2021 में), तब तक हम बेशक एक संपन्न समाज बनाने का काम पूरा कर चुके होंगे। और जब चीनी जन गणराज्य अपनी 100वीं वर्षगांठ (2049 में) मनाएगा, हम एक समृद्ध, मजबूत, लोकतांत्रिक, सभ्य एवं सद्भावपूर्ण समाजवादी आधुनिक देश बन चुके होंगे और चीनी राष्ट्र पुनर्यौवन के पथ पर होगा। आधुनिक इतिहास में चीनी राष्ट्र का यह सबसे बड़ा सपना है।”
कहाजा सकता है कि एक दशक बाद (बीच में अगर कोई बड़ी उथल-पुथल नहीं हुई तो) शी जब अपने उत्तराधिकारी को सत्ता सौपेंगे, तब इसी सपने के साकार होने की कसौटी पर उनके कार्यकाल का मूल्याकंन किया जाएगा। बहरहाल, संपन्न समाज का अर्थ क्या है, इस मौके पर यह एक बड़ा सवाल है। क्यों? इसे समझने के लिए कुछ समय पहले ब्रिटिश पत्रिका द इकॉनोमिस्ट में दुनिया में बढ़ती विषमता पर छपी एक रिपोर्ट के इस हिस्से पर गौर करना उपयोगी होगा- “पिछले 30वर्षों में चीनी अर्थव्यवस्था का रूपांतरण इतिहास की सबसे असाधारण विकास कथा है। लेकिन जिस बात पर कम ध्यान गया है वो यह कि चीन ने विषमता में सबसे बड़ा और सबसे तीव्र गति से बढ़ोतरी भी देखी है। चीन ने सन् 2000से आधिकारिक रूप से जिनी को-इफिसिएंट (विषमता मापने की कसौटी) को प्रकाशित नहीं किया है। लेकिन चाइना डेवलपमेंट रिसर्च फाउंडेशन के एक अध्ययन से संकेत मिलता है कि यह 1978में यह 0.3था, जो अब 0.48से भी ज्यादा हो गया है। माओ के समतावादी आतंक-राज्य के एक पीढी से कुछ ही अधिक समय बाद चीन में आमदनी का बंटवारा अमेरिका से भी अधिक विषम हो गया है।”यहां आतंक-राज्य जैसे शब्द को बहुराष्ट्रीय पूंजी की पैरोकार पत्रिका की अपनी राय मान कर हम नजरअंदाज कर सकते हैं, लेकिन विषमता के जिस तथ्य का जिक्र इसमें हुआ है, उसका आज चीन के बड़े से बड़ा समर्थक भी खंडन नहीं करता।
हालांकियह स्वीकार करते हुए भी इस तरफ ध्यान दिलाया जाता है, जो उचित भी है, कि चीन की मूल व्यवस्था आज भी समाजवादी है। द मन्थली रिव्यूमें अपने ताजा लेख में समीर अमीन ने लिखा है- “चीन ने एक खास रास्ते का अनुपालन 1980 से नहीं, बल्कि 1950 से ही किया है, हालांकि यह रास्ता ऐसे दौरों से गुजरा है, जो कई मामलों में अलग हैं। चीन ने एक सुसंगत, संप्रभु परियोजना विकसित की है, जो उसकी अपनी जरूरतों के लिए उपयुक्त है। यह निश्चित रूप से यह पूंजीवादी नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था में कृषि भूमि का माल (कॉमोडिटी) के रूप में इस्तेमाल उसकी तार्किक आवश्यकता है। (ऐसा चीन में नहीं है)। चीन की परियोजना तब तक संप्रभु बनी रहेगी, जब तक वह वित्तीय भूमंडलीकरण से बाहर रहता है।”अमीन ने लिखा- “सामाजिक सुरक्षा और पेंशन सिस्टम का साया 50 फीसदी शहरी आबादी को मिला हुआ है और योजना (जो आज भी चीन में प्रचलित है) के तहत आने वाले वर्षों में यह संरक्षण 85 फीसदी जनसंख्या तक प्रदान करने का अंदाजा लगाया गया है।”अमीन ने ध्यान दिलाया है कि चीन ने अपनी विकास परियोजना में सामाजिक (समाजवादी नहीं) आयामों को सम्मिलित किया है। उनके मुताबिक, “ये उद्देश्य माओवादी काल में भी मौजूद थेः निरक्षता का खात्मा, सबके बुनियादी स्वास्थ्य की देखभाल आदि। उत्तर माओवादी काल के पहले दौर में रुझान बेशक इन प्रयासों की अनदेखी का रहा। लेकिन इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि परियोजना के सामाजिक आयाम को वापस लाने की जद्दोजहद में जीत हासिल हो गई है। सक्रिय और ताकतवर सामाजिक आंदोलनों को देखते हुए यह अनुमान है कि यह दिशा आगे बढ़ेगी।”
अबदेखने की बात यही है कि ऐसा सचमुच किस हद तक होता है। बहरहाल, अगर ऐसा हुआ, तब भी एक बुनियादी सवाल बचा रह जाएगा, जिस पर हम बाद में आएंगे। उसके पहले चीन की हकीकत के बारे में समीर अमीन के इस दावे पर ध्यान देना उचित होगा- “निश्चित रूप से विषमता में वृद्धि चीन समेत हर जगह जाहिर होती है, लेकिन यह कथन सतही और भ्रामक है। एक ऐसे मॉडल से प्राप्त लाभों का बंटवारा, जिसमें किसी को बाहर नहीं रखा जाता (और जिसमें गरीबी में कमी आती है- जैसाकि चीन में है) एक बात है, और ऐसे आर्थिक विकास से जुड़ी विषमता जिसका लाभ सिर्फ अल्पजन (आबादी के पांच से 30 प्रतिशत हिस्से तक) को मिलता है और बाकी लोगों की स्थिति हताशा-भरी बनी रहती है, बिल्कुल दूसरी बात है।”
दरअसल,चीन अगर आज दुनिया में बहुत से लोगों की दिलचस्पी का विषय है, तो इसीलिए कि वहां मानव विकास का अनोखा प्रयोग हुआ, जिसकी अद्भुत उपलब्धियां हैं। इसलिए वो प्रयोग जिन दौरों से गुजरा, फिलहाल जिस दिशा में है और उसकी जो संभावनाएं नजर आती हैं, उस पर चर्चा, बहस और आलोचना से बचा नहीं जा सकता। बुनियादी सवाल यह है कि क्या आज का चीनी नेतृत्व सामाजिक कल्याण की योजनाओं पर खर्च के आंकड़े देकर जन-वैधता प्राप्त कर सकता है? या उसे वो अभिनव पथ भी ढूंढना होगा, जो समाजवाद/साम्यवाद की तरफ जाता दिखे? माओ जे दुंग ने “मुख्यालय पर बमबारी” के नारे साथ सांस्कृतिक क्रांति (जिस पर बाद में अराजकता में तब्दील हो जाने का आरोप है) की शुरुआत क्यों की थी? क्या इसलिए नहीं कि तब उन्होंने महसूस किया था कि पार्टी नेतृत्व पर दक्षिणपंथी रुझान वाले लोग हावी हो गए हैं? आज के पार्टी नेतृत्व का चरित्र आखिर क्या है? क्या उनकी भाषा और उनका कार्य-व्यवहार में दक्षिणपंथी रुझान जाहिर नहीं होते?
बो शिलाई को जैसा जन समर्थन मिला था, उससे साफ है कि चीन में वामपंथी रुझान के प्रति बड़ा जन समर्थन है। माओ का नाम आज भी लोगों को एकजुट करता है। बल्कि समाज में बढ़ती गैर-बराबरी, शहरीकरण और विकास योजनाओं को लागू करने में आमजन की राय की पूरी अनदेखी से पैदा हुए असंतोष के बीच यह नाम अतीत-मोह पैदा करने लगा है। यह स्थिति वहां एक तरह के गतिरोध की तरफ इशारा करती है, जिसमें विकास एवं सामाजिक सुरक्षा के तमाम दावों के बावजूद आज चीनी समाज फंस गया है। पिछले साल बो शिलाई प्रकरण ने पार्टी के भीतर गहराए भ्रष्टाचार और आपराधिक प्रवृति से परदा हटाया। वेन जियाबाओ सहित की नेताओं की अकूत संपत्ति संबंधी रपटों ने कम्युनिस्ट नेताओं के लालच को जाहिर किया, तो पार्टी के भीतर चारित्रिक पतन की कथाएं भी सामने आईं। उनसे सबसे अलग यह सवाल अहम है कि हू जिनताओ के सत्तारोहण के साथ पार्टी के भीतर सत्ता के विकेंद्रीकरण की जो योजना तैयार हुई थी, वह बिना अमल के क्यों रह गई? नव-जनवादी क्रांति के साठ साल बाद चीन के अपने लोकतंत्र का क्या स्वरूप है, अगर कम्युनिस्ट पार्टी इसे स्पष्ट नहीं कर पाती है, तो जैसे पश्चिमी मीडिया (देशों) द्वारा चीन (या किसी कम्युनिस्ट व्यवस्था पर) लगातार प्रहार एक अवांछित प्रवृत्ति के रूप नजर आता है, वैसे ही (कम्युनिस्ट) समाजवादी व्यवस्था का असली जनतंत्र होने का दावा भी खोखला ही माना जाएगा।
तो मुद्दा यही है कि क्या शी ने जिस चीनी सपने को जगाने की कोशिश की है, उसके जरिए वे चीन को वैचारिक एवं राजनीतिक-कार्यक्रम संबंधी गतिरोध से निकाल सकेंगे? अभी जिस अर्थ में वहां संपन्नता की बात होती है, वह पूंजीवादी व्यवस्थाओं की ट्रिकल डाउन (ऊपर से रिस कर लाभ के नीचे तक पहुंचने) सिद्धांत से अलग नजर नहीं आती। अब शी जिस सपने और ली जिन सुधारों की बात कर रहे हैं, क्या उससे यही दिशा और आगे बढ़ेगी, या उससे कोई नया रास्ता सामने आएगा? सुधारों का एक मतलब चीन का पश्चिमी ढंग से जनतंत्र की तरफ बढ़ना है। दूसरा मतलब अर्थव्यवस्था को अधिक से अधिक से सरकारी या योजना के नियंत्रण से मुक्त करना है। लेकिन एक वैकल्पिक मतलब पार्टी को जन आंकाक्षांओं से जोड़ना और सरकरी नीतियों की उस दिशा को पलटना भी है, जिसके परिणामस्वरूप समाज में विषमता और धन का पैदा हुआ मोह है। चीन आगे किस विकल्प को अपनाता है, उसमें पूरी दुनिया के समता एवं लोकतंत्र में आस्था रखने वाले लोगों की रुचि रहेगी। फिलहाल, वैकल्पिक रास्ते की उम्मीद कमजोर ही मालूम पड़ती है।
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.