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सुशासन बाबू की चाटुकारिता और वाम से किनारा करता मीडिया

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विनय सुल्तान 

-विनय सुल्तान 



"...राष्ट्रीय मीडिया की चिंता में आया ये बदलाव यह भ्रम भी पैदा करता है कि  कहीं  प्रेस काउन्सिल  की रिपोर्ट "प्रेशर टेक्टिस"  तो नहीं बन गई। जिंदल कांड में हम मीडिया के इस गुण-धर्म को देख चुके हैं।..."
बिहार के मीडिया पर लम्बे समय से सवाल उठ रहे हैं। राज्य में सुशासन सरकार की सेंशरशिप इतनी तगड़ी है की संस्थागत अपराध भ्रष्टाचार,सामाजिक अन्याय और लैंगिक अत्याचार की खबरे या तो छपती ही नहीं हैं या फिर उन्हें मसालेदार कोणों से मनोरंजन के उद्देश्यों से छापा  जाता है।12 मार्च को आई प्रेस काउन्सिल की रिपोर्ट बिहार की मीडिया और सुशासन सरकार पर गंभीर प्रश्न खड़े करती है। रिपोर्ट के अनुसार बिहार के अख़बार सत्ता के अघोषित मुखपत्र की तरह काम कर रहे हैं। राष्ट्रीय मीडिया ने इस खबर को प्रमुखता से छापा। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर गहरी चिंताए जताई गई।


इस रिपोर्ट के आने के  महज पांच दिन बाद नितीश कुमार ने रामलीला मैदान में अधिकार रैली की। ये रैली सूबे को 'विशेष दर्जा' दिलाने को ले कर थी। ना ही सिर्फ खबरिया चैनलो ने इस रैली को बड़े पैमाने पर कवर किया बल्कि दुसरे दिन ये खबर प्रमुखता से छपी। देश के न्यूज़ चैनलों का कवरेज इस स्तर का था की वो लगातार दिखा रहे थे की जनता दल (यूनाइटेड) के नेता किस तरह ढोल नगाड़े के साथ रैली में आ रहे हैं और ये बिहारियों के लिए कितने बड़े गौरव का क्षण है।


टाइम्स, दी हिन्दू, इंडियन एक्सप्रेस, भास्कर, जनसत्ता, सहारा, जागरण, हिंदुस्तान समेत मुख्यधारा के तमाम अखबारों ने इसे पहले पन्ने पर जगह दी। हिंदुस्तान और जागरण ने तो अन्दर का एक पूरा पेज इस रैली को समर्पित कर दिया। इतना ही नहीं हिंदुस्तान बिहार ने विशेष दर्जे को लेकर सक्रीय रूप से लगभग एक महीने से अधिक विशेष कम्पैन चलाई। राष्ट्रिय मीडिया की चिंता में आया ये बदलाव यह भ्रम भी पैदा करता है की कंही  प्रेस काउन्सिल की रिपोर्ट "प्रेशर टेक्टिस"  तो नहीं बन गई। जिंदल कांड में हम मीडिया के इस गुण-धर्म को देख चुके हैं।

नितीश की अधिकार रैली के दो दिन बाद ही एक और बड़ा राजनैतिक जमावड़ा हुआ। यह 'विशेष दर्जा' की मांग से अधिक प्रासंगिक और जरुरी मांगो को ले कर था। माकपा की संघर्ष संदेश यात्रा में भूमि सुधार ,लैंगिक  समानता, शिक्षा, स्वास्थ, भ्रष्टाचार,खाद्य सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे उठाये गए थे। ये यात्रा देश के चार कोनो से से शुरू हो कर लगभग 11 हजार किलोमीटर का सफ़र तय करते हुए दिल्ली जुटी थी। इस यात्रा में  50 हजार से अधिक की संख्या में लोग थे जिसे किसी भी सियासी जलसे के लिहाज से कम नहीं कही जा सकता। दी हिन्दू को छोड़ कर किसी भी समाचार माध्यम ने इस राजनैतिक कार्यक्रम को कवर करने की जहमत नहीं उठाई। दी हिन्दू में ये खबर अंदरूनी पृष्ठों में जगह इस लिए पा गई क्योंकि इसका एक बड़ा पाठक वर्ग वामपंथी रुझानो वाला है। ऐसे में ये कवरेज विश्वसनीयता  का तकाजा भी थी। वामपंथ की न्यूज़ वैल्यू  इतनी कम होने का कारण मीडिया के स्वमित्व की संरचना है।

एक प्रतिष्ठित दैनिक में काम करने वाला मित्र बताता है की वामपंथी दलों की रिलीज बिना पढ़े ही कूड़ेदान में डाल दी जाती है। वामपंथ की नकारात्मक छवि का निर्माण करने वाली खबरों को खास तव्वजो दी जाती है। मसलन सीपीआई (माले) के कार्यकर्ताओं और पुलिस के बीच हुई झड़प को आई बी एन 7 ने " माले कार्यकर्ताओं ने काटा बवाल "  के नाम से पेश किया। ऐसा ही हाल में हुई आम हड़ताल में हुआ जब नोएडा की हिंसक घटनाए आम हड़ताल से ज्यादा छाई रही। अक्सर मजदूरों की हड़तालो को  जन- जीवन अस्त-व्यस्त करने वाली बताया जाता हैं। मीडिया का यह दोगला चरित्र दरअसल अपने हितो की रक्षा की कवायद है। पर यहाँ एक बात साफ हो जाती है कि  अभिव्यक्ति  के आज़ादी का तर्क असल में किसके उल्लू सीधे कर रहा है। क्या यह उन लोगो के हित में नहीं है जिनके हित सेंशरशिप से साधे जा रहे थे?


विनय  स्वतंत्र पत्रकार हैं. 
इनसे vinaysultan88@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है 

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