दिन- 7,8 और 9 दिसंबर / स्थान- कालिदास रंगालय
इस बार भारतीय सिनेमा के सौ साल और दलित प्रश्नों पर केंद्रित
-पटना से सरोज कुमार
ऐसे समय में जब समाज से प्रतिरोध के स्वर खत्म करने की साजिशें चल रही हैं। अभिव्यक्ति और संचार के माध्यमों से सामाजिक संघर्षों को गायब किया जा रहा है। कला और सिनेमा में भी इन्हें हाशिए पर ढकेला जा रहा है। ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ फिल्मोत्सव का लगातार आयोजन प्रतिरोध के लिए स्पेस बनाने की बड़ी कोशिश है। देश के विभिन्न शहरों गोरखपुर, पटना, इलाहाबाद, बनारस, नैनीताल जैसे शहरों के अलावा बलिया और आजमगढ़ जैसे छोटे कस्बाई शहरों में इसका आयोजन खासकर बड़ी बात है।
पटनाजैसे शहर में जनसंघर्षों की जमीन तो है। लगातार आम लोगों के संघर्ष और प्रतिरोध होते रहते हैं। चाहे वह दलित-आदिवासी-मजदूर प्रतिरोध हो या स्त्रियों की लड़ाई। इसके बरअक्स बिहार में सामंतवादी-साम्राज्यवादी दमन और उसके राजनीतिक पोषण का दौर चल रहा है। संचार के माध्यमों से इन्हें गायब कर दिया गया है। मीडिया सरकार की गोद में जा बैठी है। प्रतिरोध के स्वर को पूरी तरह से गायब कर आमजन को गुमराह किया जा रहा है।
ऐसेयहां कला और सिनेमा में भी प्रतिरोध का स्वर दिखाई नहीं पड़ता। मुख्य धारा की हिन्दी सिनेमा तो पूंजी पर टिकी विकृत होती ही जा रही है। इसकी नकल करते-करते स्थानीय भोजपुरी सिनेमा भी विकृत हो चुका है। साहित्य और नाटकों से भी बिहार का वर्तमान प्रतिरोध कमता जा रहा है। ऐसे हाल में पटना में लगातार चौथे साल प्रतिरोध का सिनेमा फिल्मोत्सव को होना उम्मीद जगाता है। खासकर पटना में नाटकों के आयोजन की तो समृद्ध परंपरा रही है पर प्रतिरोध के स्वर के सिनेमा और डॉक्यूमेंट्री का कोई पंरपरा नहीं नजर आई है। इसलिए 2009 से शुरु हुए इस फिल्मोत्सव का 2012 में इस बार 7 दिसंबर से चौथा आयोजन उम्मीद जगाता है।
इस फिल्मोत्सव की स्वागत समिति में बिहार के प्रतिष्ठित 21 कलाकर्मी, साहित्यकार और समाजशास्त्री शामिल हैं। इस समिति की अध्यक्ष प्रो. डेजी नारायण ने एक बड़ी चिंता यह जाहिर की कि युवाओं के बीच इन चीजों का स्पेस लगातार कम हो रहा है। उन्हें इससे दूर रखने की साजिशें चल रही है। ऐसे में युवाओं को इससे जोड़ने की कोशिश बहुत जरुरी सवाल है।
इसफिल्मोत्सव की बड़ी बात यह है कि इसका आयोजन जसम की हिरावल बिना किसी सरकारी, एनजीओ या कॉर्पोरेट की सहायता से होता रहा है। पटना में हिरावल इस तरह के आयोजन बिना किसी गैरसरकारी या सरकारी सहायता से करती आ रही है। कला के माध्यम से इसने लगातार बिहार की दमनकारी राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों के खिलाफ प्रतिरोध को आवाज दिया है।
हाल ही में ब्रह्मेश्वर मुखिया के खात्मे से लेकर बथानी टोला पर हाइकोर्ट के फैसले का जो मामला है वह दलितों के दमन की ओर साफ ध्यान दिलाता है। ब्रह्मेश्वर की मौत के बाद सामंतवादियों ने जो हंगामा सरकारी मूक सहमति में मचाया वह किसी से छिपा नहीं है। दलितों की बेटियों के साथ लगातार बालात्कार की घटनाएं सामने आ रही हैं तो कहीं उन्हें तेजाब से जलाया जा रहा है। राजनीतिक और सरकारी मशीनरी सामंतवादी तत्वों को संरक्षण दे रही है। ऐस में इसबार इस फिल्मोत्सव का दलितों की अभिव्यक्ति पर केंद्रित होना बिल्कुल समयानुकूल और वर्तमान प्रतिरोध को कायम रखने की बेहतरीन कोशिश है।
शिरकत करने वाले प्रमुख कलाकर्मी-
निर्देशक - अजय भारद्वाज, नकुल साहनी, संजय जोशी
कवि बल्ली सिंह चीमा सहित बिहार के जानेमाने साहित्यकार और कलाकर्मी
दिखाई जाने वाली प्रमुख फिल्में-
मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते (निर्देशक अजय भारद्वाज)-
देश के बंटवारे के बाद पंजाब धार्मिक आधार पर बंट गया था। साझी जीवनशैली-पंजाबियत हाशिए पर चली गई। ऐसे में भी लेकिन पंजाबियत खत्म नहीं हुई। वह प्रत्येक पंजाबी के जीवन, भाषा, संस्कृति, स्मृति और चेतना का हिस्सा बनी रही। यह इसी केंद्रीय बिन्दु पर घूमती फिल्म है। यह सांस्कृति सह-अस्तित्व तथा आदान-प्रदान की समृद्ध परंपरा की दुनिया है जहां हिन्दु, मुस्लिम और सिक्ख के ठस धार्मिक पहचानों के बीच की सीमाएं धुंधली पड़ जैती हैं।
पार (निर्देशक गोतम घोष)-
यह फिल्म बिहार के ग्रामीण इलाकों में शोषण और अत्याचार की कहानी कहती है। जमींदार (उत्पल दत्त) के लोग गांव के प्रगतिशील विचारों वाले शिक्षक की हत्या कर देते हैं। मजदूर नौरंगिया (नसीरुद्दीन शाह) प्रतिरोध कर जमींदार के भाई की हत्या कर बदला लेता है। फिर उसे अपनी बीबी रामा (शबाना आजमी) के साथ गांव छोड़ कलकत्ता भागना पड़ता है। लेकिन रोजी रोटी कमाने में विफल रहने पर वापस लौटने का फैसला करते हैं। रेल किराया जुटाने के लिए वे सूअरों के झुंड को नदी पार कराने का काम स्वीकार करते हैं। बेहद मुश्किल भरे काम में गर्भवती रामा का बच्चा गर्भ में ही मर जाता है। इस दौरान वे डूबते-डूबते बचते हैं। फिल्म के आखिर में नौरंगिया राम के पटे पर कान लगाकर अपने अजन्में बच्चे की धड़कन सुनने की कोशिश करता है।
भुवन शोम (निर्देशक मृणाल सेन)
भुवन शोम (उत्पल दत्त) एक अकेला. बूढ़ा, मेहनती और सख्त अनुशासन वाला अफसर है। इस सख्त अफसर का नजरिया तब बदलता है जब एक बार छुट्टियों में शिकार के सिलसिले में एक गांव में पहुंच जाता है। वहां उसे गांव के लोग, संस्कृति और गौरी नाम की युवती मिलती है। मरती हुई दुनिया को जैसे गौरी के रुप में एक ताजा सांस मिल गई हो। अचानक सबकुछ बदला-बदला सा दिखने लगता है...
मालेगांव का सुपरमैन( फ़ैजा अहमद खान)
बालीवुड से करीब 250 किमी दूर ही मालेगांव इलाके में फिल्म की एक अलग ग्रामीण इंडस्ट्री बन गई है। वहां ग्रामीण अपने संसाधनों और पुरानी तकनीक से ही स्थानीय फिल्में बना रहे हैं। ये फिल्में वहां खूब लोकप्रिय हैं। वहीं की प्रशंसित फिल्म है- मालेगांव का सुपरमैन है।
एक डॉक्टर की मौत(निर्देशक तपन सिन्हा)
अपनी जान की बाज़ी लगाकर, सालों की कड़ी मेहनत और शोध के बाद डॉ. दीपंकर राय (पंकज कपूर) कुष्ठरोग से बचाव का टीका खोज निकालता है। अचानक उसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिल जाती है। पेशागत ईर्ष्या में डूबे लोग और सरकारी अधिकारी उसके खिलाफ साजिशें करने लगते हैं। उसे दिल का दौरा पड़ता है। उसकी बीबी (शबाना आजमी) और अमूल्य (इरफान ख़ान) उसके समर्थन में डटे रहते हैं। उसका तबादला सूदूर गाव में कर दिया जाता है और आविष्कार का श्रेय अमरीकी डॉक्टरों को दे दिया जाता है। वह टूट जाता है। फिर वह वैज्ञानिकों के एक महत्वपूर्ण संस्थान में काम करना स्वीकार कर लेता है क्योंकि वह मानवता की सेवा का कायल है।
हरिश्चंद्राची फैक्ट्री (निर्देशक परेश मोकाशी)
यह फिल्म भारतीय फिल्म उद्योग के आरंभ होने की कहानी है। यह भारतीय सिनेमा के जनक कहे जाने वाले दादा साहेब फाल्के की भी कहानी है। परिवार चलाने के लिए संघर्ष करते-करते फाल्के मोशन पिक्चर बनाने का फैसला करते हैं। वह इस नई कला तकनीक को सीखने के लिए इंग्लैंड तक की यात्रा करते हैं। वहां से वह टेक्निशियंस की एक टीम ले आते हैं और अनेक परेशानियों को झेलते हुए अपनी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाते हैं। कड़ी मेहनत से बनाई गई यह फिल्म हिट साबित होती है। इस तरह दुनिया के सबसे बड़े फिल्म उद्योग का सफर शुरु होता है।
इज़्जतनगरी की असभ्य बेटियां (निर्देशक नकुल साहनी)
इसी साल बनी यह फिल्म खाप के पितृसत्तात्मक और चरम जातिवादी विचारों के खिलाफ होने आवाज करने वाली पांच जाट युवतियों की कहानी है। ताकतवर खाप से भिड़ने के एवज में इन्हें ऑनर अपराध, अन्याय और सामाजिक बहिष्कार तक का सामना करना पड़ता है।
इसमें अहलावत खाप के मुखिया जय सिंह अहलावत कहता है- जो हमारे रीति-रिवाजों को चुनौती देने की कोशिश करते हैं, वे पढ़े लिखे नौजवान या दलित अफसर हैं जो हर चीज में बराबरी चाहते हैं।....और हां हमारी असभ्य बेटियां भी, जो हमारी युगों पुरानी परंपरा को खत्म करने के लिए जानवरों-सी आजादी की कल्पना करती हैं।
फिल्मोत्सवमें बल्ली सिंह चीमा का एकल काव्य पाठ भी आयोजित है। साथ ही चर्चित लघु फिल्में भी दिखाई जाएंगी। सिनेमा के सौ साल पर प्रदर्शनी के साथ ही भारतीय डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण की यात्रा पर ऑडियो-विजुअल प्रस्तुति भी होगी।साथ ही फिल्मोत्सव की पहली फिल्म मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते का भारत में पहला प्रदर्शन भी है। बथानी टोले के हाइकोर्ट के फैसले के बाद संबंधित जगहों-लोगों पर विचार करती महत्वपूर्ण वीडियों भी है।
सरोज युवा पत्रकार हैं. पत्रकारिता की पढ़ाई आईआईएमसी से.
अभी पटना में एक दैनिक अखबार में काम .
इनसे krsaroj989@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.