कृष्ण सिंह |
"...यदि स्टॉक एक्सचेंज अंबानी को बेनकाब करने की हिम्मत करता है, वह कहते हैं, 'मैं अपनी कंपनी के शेयर निकाल लूंगा और तुम्हें ढहा दूंगा। मैं तुम्हारे एक्सचेंज से बड़ा हूं।' यदि अखबार आलोचना करते हैं तो वह याद दिलाते हैं, 'तुम हमारे विज्ञापनों पर निर्भर हो।' हैं, और उनके विभागों में उनके "अपने" पत्रकार हैं। यही नहीं शायद ही कोई बड़ा अखबार हो जहां उनके `अपने` पत्रकार न रहे हों। यदि राजनीतिक दल उनके खिलाफ खड़े होते हैं, तो हर दल में उनके आदमी हैं, जो डोर खींच सकते हैं और सरकारों को ढहा सकते हैं। कुछ नहीं तो नेताओं को शर्मिंदा कर उनकी विश्वसनीयता मिट्टी में मिला सकते हैं। व्यवस्था उनके लिए है। आज वह अजेय हैं।..."
इस बार हुए मंत्रिमंडलीय हेर-फेर ने कांग्रेसी नेतृत्ववाली सरकार और उसके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की शक्ति और क्षमता को पुनर्स्थापित किया हो या न हो, पर इस सच्चाई को बहुत ही मोटे-मोटे शब्दों में स्थापित कर दिया कि आज के भारत में सरकार से ज्यादा ताकतवर अंबानी बंधु हैं। वे जब चाहें किसी भी मंत्री को हटा या बना सकते हैं और उनकी इस ताकत से प्रधानमंत्री भी परे नहीं हैं।
दुनियाके सबसे बड़े पूंजीवादी देश संयुक्त राज्य अमेरिका में आज भी आप सुपर कॉरपोरेशन बना सकते हैं, लेकिन राजनीतिक व्यवस्था अभी भी इनसे बड़ी है। पर भारत में जो हो रहा है वह उस भयावह निकट भविष्य का संकेत देता है जब हमारी यह कमजोर व्यवस्था लातिन अमेरिकी कुख्यात `बनाना रिपब्लिक` से भी बद्दतर स्थिति में पहुंच जाएगी। कैसे ? तो देखिए।
यदिस्टॉक एक्सचेंज अंबानी को बेनकाब करने की हिम्मत करता है, वह कहते हैं, ``मैं अपनी कंपनी के शेयर निकाल लूंगा और तुम्हें ढहा दूंगा। मैं तुम्हारे एक्सचेंज से बड़ा हूं।``यदि अखबार आलोचना करते हैं तो वह याद दिलाते हैं, ``तुम हमारे विज्ञापनों पर निर्भर हो।' हैं, और उनके विभागों में उनके ``अपने``पत्रकार हैं। यही नहीं शायद ही कोई बड़ा अखबार हो जहां उनके `अपने` पत्रकार न रहे हों। यदि राजनीतिक दल उनके खिलाफ खड़े होते हैं, तो हर दल में उनके आदमी हैं, जो डोर खींच सकते हैं और सरकारों को ढहा सकते हैं। कुछ नहीं तो नेताओं को शर्मिंदा कर उनकी विश्वसनीयता मिट्टी में मिला सकते हैं। व्यवस्था उनके लिए है। आज वह अजेय हैं।
पॉलिएस्टर राजकुमार की कहानी
जोआज हम देख रहे हैं वे बाते आज से लगभग डेढ़ दशक पहले धीरुभाई अंबानी के संदर्भ में कही गई थीं। किताब थी पॉलिएस्टर प्रिंस : द राइज ऑफ धीरुभाई अंबानी।सरकारों, मीडिया और अफसरशाही में जबरदस्त घुसपैठ के जरिए किस तरह से उन्होंने अपनी और रिलायंस की ``प्रगति की मंजिल``तैयार की उसका ब्यौरा ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार हेमिश मेकडॉनाल्ड ने 1998 में प्रकाशित अपनी इस पुस्तक में दिया है। इसको धीरुभाई के बेटों मुकेश और अनिल अंबानी ने भारत के बाजार तक नहीं पहुंचने दिया था। अंबानी बंधु अपने पिता और रिलायंस इंडस्ट्रीज के प्रगति के कारनामों की कहानी को भारत की जनता के सामने बेनकाब नहीं होने देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कानूनी दांवपेच का सहारा भी लिया। बाद में हेमिश मेकडॉनाल्ड ने ``अंबानी एंड सन्स``पुस्तक लिखी जो भारत के बाजारों में उपलब्ध है। जाहिर है इस पुस्तक का स्वर पॉलिएस्टर प्रिंस से एकदम भिन्न था। पर पुस्तकों को प्रतिबंधित करने या रोकने से सच्चाई बदल नहीं जाती है। धीरुभाई के बेटों ने उनकी ही ``परंपरा``को आगे बढ़ाया। इस ``परंपरा``के सबसे ताजा शिकार बने हैं केंद्रीय मंत्री जयपाल रेड्डी। उन्हें पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कैबिनेट फेरबदल-विस्तार में पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाकर एक बहुत मामूली मंत्रालय में इसलिए दंडस्वरुप पटक दिया क्योंकि वह आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र में कृष्णा गोदावरी-डी 6 गैस ब्लॉक के मामले में रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) के मालिक मुकेश अंबानी की शर्तों के आगे झुकने को तैयार नहीं थे।
सीएजीभी केजी बेसन रिपोर्ट में गंभीर सवाल उठा चुकी है। कृष्णा गोदावरीडी-6 ब्लॉक से संबंधित ऑडिट रिकॉर्डों और सूचनाओं को देने में आरआईएल आनाकानी करती रही है। उसके रवैये से नाराज सीएजी ने पेट्रोलियम मंत्रालय को कहा था कि वह मुकेश अंबानी के स्वामित्व वाली कंपनी को दी गई मंजूरियों (आपातकालीन स्थितियों को छोड़कर) को रोक ले। सीएजी रिलायंस से ऑडिट के लिए जो रिकॉर्ड मांग रहा है उसे कंपनी नहीं दे रही है। अंग्रेजी दैनिक`` द हिंदू`` ने 17 नवंबर को सरकारी सूत्रों के हवाले से लिखा कि सीएजी ने मंत्रालय से कहा है, ``रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड को तुरंत निर्देश दे कि 2012 तक के केजी डी-6 ब्लॉक के सभी कागजात ऑडिट के लिए जमा करे, क्योंकि पूंजीगत व्यय में किसी भी प्रकार की बढ़ोतरी सरकार के हित में नहीं होगी। नवंबर के शुरू में सीएजी ने रिलायंस द्वारा ऑडिट के लिए रखी गयी प्रतिबंधक शर्तों पर गहरी आपत्ति की थी। पेट्रोलियम मंत्रालय से जयपाल रेड्डी को हटाने से दो दिन पहले सीएजी ने पेट्रोलियम सचिव जीसी चतुर्वेदी को 26 अक्टूबर को लिखे पत्र में कहा था कि उसे शर्तें अस्वीकार्य हैं।``
दरअसल, जयपाल रेड्डी के प्रभार के दौरान पेट्रोलियम मंत्रालय ने रिलायंस के केजी-डी 6 गैस ब्लॉक में गैस के उत्पादन में कमी का मुद्दा उठाया था और एक अरब डॉलर का दंड लगाया था। मंत्रालय का आकलन था कि रिलायंस का उत्पादन प्रतिदिन औसतन 70 मीलियन मीट्रिक स्टेंडर्ड क्यूबिक मीटर्स (एमएमएससीएमडी) होना चाहिए था, लेकिन वित्तीय वर्ष 2011-12 में यह 42 एमएमएससीएमडी था। मंत्रालय ने इंगित किया कि इसके कारण सरकारी खजाने को प्रत्यक्ष 20 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। आने वाले वर्षों में सरकारी खजाने को 45 हजार करोड़ रुपए के नुकसान होने की बात कही थी। पर रिलायंस कह रहा है कि वह सीएजी की परिधि में नहीं आता है। उसका कहना है कि सरकार के साथ उसका अनुबंध केवल गैस फील्ड के वित्तीय ऑडिट की बात करता है और परफॉरमेंस ऑडिट के लिए कोई शर्त नहीं है। हालांकि मंत्रालय ने 2007 में विशेष मामले के तहत आठ ब्लॉकों के अनुबंध के सीएजी द्वारा ऑडिट के आदेश दिए थे, इनमें रिलायंस भी शामिल था। सीएजी ने ऑडिट की पहली रिपोर्ट 2011 के अगस्त में सौंपी थी। इसमें 2006-07 और 2007-08 के रिकॉर्डों का निरीक्षण किया गया था। सीएजी ने आरोप लगाया था कि सरकार का रुख रिलायंस के प्रति बहुत ही नरम है।
बढ़ी लागत का रहस्य
तमाम विवादों के वाबजूद रिलायंस गैस की कीमत वर्तमान 4.2 डॉलर प्रति यूनिट मूल्य से सीधे तीन गुना से भी ज्यादा 14. 2 डॉलर से लेकर 14.5 डॉलर प्रति यूनिट करना चाहता है। वह लगातार सरकार पर दबाव डाल रहा है। इसके लिए ऑपरेशनल लागत में बढ़ोतरी को आधार बनाया जा रहा है। मजेदार यह है कि कंपनी ऑपरेशनल लागत का ऑडिट नहीं होने देना चाहती है। जयपाल रेड्डी के बाद पेट्रोलियम मंत्री बने वीरप्पा मोइली का यह बयान कि हम रिलायंस या सरकार और सीएजी के लिए समस्याएं पैदा नहीं करना चाहते हैं, अपने आप में बहुत कुछ इशारा करता है। मीडिया की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी की निगरानी में तैयार किया गया एक नोट वापस ले लिया गया है। इस नोट में कहा गया था कि मंत्रालय रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड द्वारा अपने आंध्र के तटीय गैस फील्ड में गैस की कीमतों में समय से पहले बढ़ोतरी करने के प्रयासों का विरोध करता है। आरआईएल पर आरोप है कि उसने केजी-डी 6 गैस ब्लॉक में जानबूझकर उत्पादन कम किया है, ताकि वह कीमतों के फिर से निर्धारण होने पर अधिक मुनाफा कमा सके। जैसा कि इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के अरविंद केजरीवाल का कहना है कि यदि गैस की कीमतों को बढ़ाया जाता है तो उत्पादन के वर्तमान स्तर पर कंपनी को 43 हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त मुनाफा होगा। असल में आरआईएल के साथ सरकार का यह ऐसा अजीबोगरीब अनुबंध है जिसमें सरकार घाटे की हिस्सेदार है और रिलायंस बड़े स्तर पर मुनाफे का हकदार बना हुआ है। जाहिर है यह रिलायंस की ताकत को दर्शाता है। वह सरकार से जैसा चाहे वैसा करा सकता है। जब मुरली देवड़ा पेट्रोलियम मंत्री थे तो स्थितियां रिलायंस के पक्ष में थी। देवड़ा ने आरआईएल को पूंजीगत व्यय 2.39 अरब डॉलर से बढ़ाकर 8.8 अरब डॉलर करने की अनुमति दे दी थी और गैस की कीमत 2.43 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू से बढ़ाकर 4.2 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू कर दी थी। सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में इस पर आपत्ति जतायी थी।
मुकेशअंबानी यही चाहते थे कि जिस तरह से मुरली देवड़ा रिलायंस के प्रति हमदर्दी वाला रवैया रखते थे वैसा ही जयपाल रेड्डी भी करें। असल में, मुरली देवड़ा और रिलायंस का काफी पुराना साथ रहा है। तब धीरूभाई का व्यापारिक साम्राज्य इतना बड़ा नहीं था। देवड़ा भी उतने बड़े नेता नहीं थे औरपॉलिएस्टर के व्यापारी थे। वह बंबई में कांग्रेस पार्टी संगठन में अपना रास्ता बना रहे थे। बाद में वह मेयर बने और उसके बाद दक्षिण बंबई संसदीय क्षेत्र से कई वर्षों तक कांग्रेस के सांसद रहे और केंद्र में मंत्री भी बने। देवड़ा और धीरुभाई की व्यावसायिक दोस्ती का जिक्र पॉलिएस्टर प्रिंस पुस्तक में बढ़ा ही मजेदार है। उन दिनों धीरुभाई अक्सर बंबई (मुंबई) से दिल्ली आते थे। बहुत सारी यात्राओं में उनके साथ मुरली देवड़ा भी होते थे। धीरुभाई और देवड़ा दिल्ली के लिए सुबह-सुबह की फ्लाइट पकड़ते थे। दिल्ली में दोनों आयात के लाइसेंसों के फैसलों को जल्दी से जल्दी कराने के लिए नेताओं और अफसरशाहों के पास चक्कर लगाते थे। शाम को ही बंबई लौट जाते थे। बाद में धीरूभाई दिल्ली के अशोक होटल में पहले से ही कमरा बुक करा लेते थे। अब उनका भतीजा रसिक मेसवाणी भी सक्रिय लॉबिंग के लिए दिल्ली आने लगा था। बाद के दिनों में उन्होंने दिल्ली में रिलायंस के पूर्णकालिक लॉबिस्ट के रूप में एक चतुर दक्षिण भारतीय वी. बालसुब्रमण्यम को रख लिया था। विभिन्न तरीकों से अंबानी की कंपनी के हितों में मदद करने वाले छोटे अफसरशाहों, पत्रकारों और अन्य लोगों को वह अपनी फैक्टरी में बने सूट और साड़ी देते थे। उन्होंने ही बड़े पैमाने पर राजनीतिक चंदा देने का रास्ता अपनाया। इससे साफ है कि लॉबिंग का यह खेल वर्षों पहले से चला आ रहा था। उन दिनों टाइम्स ऑफ इंडियाके संपादक गिरीलाल जैन भी विवाद में फंसे थे, जिसका कारण उन्हें सस्ते में दिए गए रिलायंस के शेयरों का प्रकरण था। कॉरपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया प्रकरण इसका नया अध्याय है।
मां बदौलत की सेवा में
धीरुभाईअंबानी ने लाइसेंस राज और आर्थिक उदारीकरण, दोनों में ही हर तरह के रास्ते से जमकर फायदा उठाया। रिलायंस को इतनी ऊंचाई तक पहुंचाने में राजनीतिक दलों, अफसरशाहों, मंत्रियों, नेताओं, सरकारों और मीडिया ने धीरुभाई का पूरी वफादारी से साथ दिया। धीरुभाई का एक जुमला काफी चर्चित हुआ था। यह अस्सी के दशक का वाकया है। उस समय धीरुभाई अंबानी और नुस्ली वाडिया के बीच कॉरपोरेट लड़ाई चरम पर थी। उसी दौरान इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका के साथ एक मुलाकात में धीरुभाई अंबानी ने कहा था कि उनके एक हाथ में सोने का और दूसरे हाथ में चांदी का जूता होता है। व्यक्ति की औकात के हिसाब से वह जूता उस पर मारते हैं। हालांकि इस तरह की बात से धीरुभाई ने इनकार किया था। सच्चाई जो भी हो, पर सरकारों में उनके आदमी उनके लिए सकारात्मक माहौल तैयार करने में पूरी मदद करते हैं। जो अवरोध बनता है वह बाहर हो जाता है। अफसरशाहों को रिटायरमेंट के बाद नौकरी देने, उनके बेटों के करिअर में मदद करने की लुभावनी पेशकश भी काफी मदद करती है। इसका नवीनतम उदाहरण कांग्रेस सांसद अनु टंडन के पति संदीप टंडन का है। इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल ने जिन स्विस बैंक खातों में काले धन का खुलासा किया है उनमें अनु टंडन और संदीप टंडन के भी खाते हैं। दोनों के खातों में 125-125 करोड़ रुपए होने का खुलासा केजरीवाल ने किया। संदीप टंडन ज्यूरिख में रहते थे और कुछ समय पहले उनका वहां देहांत हो गया था। जिस सॉप्टवेयर कंपनी मोटेक के संदीप टंडन निदेशक थे उसमें अंबानी के 21 सौ करोड़ रुपए के शेयर थे। केजरीवाल का कहना है कि संदीप टंडन प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) में अधिकारी थे और उन्होंने रिलायंस इंडस्ट्रीज पर छापे डाले थे। बाद में वह मुकेश अंबानी के काफी आ गए थे। अब उनके दो बेटे आरआईएल में काफी वरिष्ठ पदों पर हैं। संदीप टंडन, जो कि राजस्व सेवा के अधिकारी थे, आरआईएल को टैक्स संबंधी मामलों में सलाह देते थे।
कुछइसी तरह का एक वाकया अस्सी के दशक के शुरू का है। वाडिया और अंबानी की जंग में जब नुस्ली ढाई साल के प्रयासों के बाद 1981 में डीएमटी प्लांट के लिए लाइसेंस पाने में कामयाब हुए तो उनका शिपमेंट बंबई पहुंचा। लेकिन सीमा शुल्क विभाग ने इसे हरी झंडी देने में चार हफ्ते लगा दिए थे। उस समय बंबई के सीमा शुल्क कलेक्टर एस श्रीनिवासन थे। उन्होंने सभी चीजों का सौ फीसदी निरीक्षण का आदेश दिया था। कुछ वर्षों बाद सीमा शुल्क की नौकरी छोड़ने के बाद वह रिलायंस में सलाहकार के तौर पर रख लिए गए थे। उन्हें धीरुभाई की स्वामीभक्ति का प्रतिफल मिला था।
कांग्रेसके कद्दावर नेता और वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को भी रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड का काफी करीबी माना जाता रहा है। जैसा कि मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि वित्त मंत्री और ईजीओएम के मुखिया के तौर पर प्रणव मुखर्जी ने पेट्रोलियम मंत्रालय पर लगातार यह दबाव डाला कि वह रिलायंस को केजी बेसिन में उसकी लागत को वसूल करने में मदद करे। पॉलिएस्टर प्रिंस के लेखक हेमिश मेकडॉनाल्ड ने आउटलुक पत्रिका के 2 जुलाई 2012 के अंक में एक साक्षात्कार में कहा, `` बहुत समय पहले जब वह (प्रणव मुखर्जी) वाणिज्य मंत्री थे तब वह धीरुभाई अंबानी के मित्र थे और सारे आयात-निर्यात के लाइसेंस (रिलायंस को) दिया करते थे। और फिर इंदिरा गांधी की सरकार में एक वित्त मंत्री के रूप में - आइल ऑफ मैन कंपनियों ( 1979-82), डमी कंपनियों और रिलायंस के शेयर रहस्यमय रूप से चढ़ते हैं। यह सब पॉलिएस्टर में इस्तेमाल होने वाले कच्चले माल पर आयात शुल्कों को लेकर तरजीह व्यवहार के रूप में भी देखा गया। जैसे कि बॉम्बे डाइंग बनाम रिलायंस का मामला... वो सब अब एक पुराना इतिहास हो गया है। फिर राजीव का दौर आया। जब राजीव ने 1984-85 में कांग्रेस की एक शाखा बनाई ; उन्होंने मुखर्जी को कांग्रेस के पुराने सरदर्द के रूप में देखा। पर अंतत:मुखर्जी पार्टी में दोबारा लौटे और पार्टी के निष्ठावन भालाबरदार बन गए। और जाहिर है 1990 के दशक और उसके बाद उन पर सोनिया की काफी दृष्टि रही। साझेदारी का दूसरा बड़ा आरोप तब लगा जब मुखर्जी उस मंत्रिमंडलीय समिति के प्रमुख बने जो बंगाल की खाड़ी के गैस फील्ड और गैस की कीमतों को संचालित कर रहे थे। इस स्तर के बाद सारा तार मुकेश अंबानी के समूह में जा मिला था। तो लोग मुखर्जी और मुरली देवड़ा ( जो तब पेट्रोलियम मंत्री थे) को रिलायंस की दूसरी पीढ़ी के मित्रों के रूप में देखने लगे थे।``
चमत्कारिक उत्थान
धीरुभाईकी कंपनी का 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों में जिस तरह से चमत्कारिक उत्थान हुआ उससे यही कहा जा सकता है कि जनता पार्टी की सरकार के पतन के बाद इंदिरा गांधी की सत्ता वापसी में उनके लिए स्वर्णिम साबित हुई। वर्ष 1979 में उनकी कंपनी मुश्किल से भारत की पचास बड़ी कंपनियों में अपनी जगह बना पाई थी। लेकिन 1984 तक रिलायंस की हर तरफ चर्चा थी। अक्टूबर 1980 में पॉलिएस्टर फिलमेंट यार्न के उत्पादन के सरकार ने जो तीन लाइसेंस दिए थे उनमें से एक धीरुभाई को मिला था। कहा जाता है कि जनता पार्टी के शासनकाल में धीरुभाई अंबानी ने इंदिरा गांधी और अन्य कांग्रेसी नेताओं का विश्वास हासिल कर लिया था, जिसका बाद में उन्होंने भरपूर फायदा उठाया। कहा यह भी जाता है कि जनता पार्टी की सरकार को चरण सिंह के जरिए गिरवाने में कांग्रेस के साथ धीरुभाई अंबानी ने भी काफी मशक्कत की थी। अस्सी के दशक में इंदिरा के कार्यकाल में राजनीतिक और अफसरशाही के गलियारों में इस तरह की चर्चा सुनाई देती थी कि वित्त मंत्रालय में किसी दस्तावेज या फाइल पर हस्ताक्षर होने से पहले ही धीरुभाई को सूचना मिल जाती थी, क्योंकि प्रणव मुखर्जी को रिलायंस के काफी करीब माना जाता था। मुखर्जी और धीरुभाई की करीबी को उस समय अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका की एक स्टोरी के शीर्षक- `प्रणव मुखर्जीस स्लोगन : ऑनली विमल` ( प्रणव मुखर्जी का नारा : सिर्फ विमल) से भी समझा जा सकता है।
इसकेअलावा उस समय प्रधानमंत्री कार्यालय में आरके धवन की काफी तूती बोलती थी। वह इंदिरा गांधी के निजी सचिव थे। उन्हें भी धीरुभाई का काफी करीबी माना जाता था। धवन से उनकी नजदीकी का कारण यशपाल कपूर थे। यशपाल कपूर भी इंदिरा गांधी के निजी सचिव रहे थे। पहले वह चाय बनाने का काम करते थे। 1971 के बाद कपूर की भूमिका में चमत्कारिक परिवर्तन हुआ था। पीएमओ में कपूर का भ्रष्टाचार एक दंतकथा बन चुकी थी। यहां तक कहा जाता था कि कपूर चाहें किसी भी पेपर पर इंदिरा के हस्ताक्षर करवा सकते हैं। कपूर ने संजय गांधी का विश्वास भी हासिल कर लिया था। यशपाल जब पीएमओ से बाहर हुए तो उन्होंने अपने भांजे आरके धवन की अपनी जगह पर बैठा दिया। धवन ने तेजी से अपने मामा से ज्यादा ताकत हासिल करने में देरी नहीं लगाई। दोनों ने मिलकर इस व्यापक देश में संरक्षण को चालाकी से इस्तेमाल किया था। पॉलिएस्टर प्रिंस में इसका जिक्र कुछ इस तरह से है कि धीरूभाई ने न केवल यशपाल कपूर का इस्तेमाल किया, बल्कि एक पुराने परिचित का कहना था कि अंबानी ने कपूर को खरीद लिया था। बाद में यह संबंध आरके धवन तक पहुंचा। धवन इंदिरा और बाद में राजीव के समय पीएमओ में थे। वह मंत्री भी बने। इन वर्षों में धीरुभाई ने विभिन्न दलों के नेताओं के साथ संबंध विकसित कर लिए थे। लेकिन उनके मजबूत संबंध हमेशा कांग्रेस के भीतर गांधी मंडली के साथ रहे।
स्विट्जरलैंड पहुंचे तार
हालांकिराजीव के प्रधानमंत्रित्व काल का शुरू का समय धीरुभाई अंबानी के लिए काफी प्रतिकूल था। राजीव सरकार में विश्वनाथ प्रताप सिंह (वीपी सिंह) वित्त मंत्री थे। उन्होंने रिलायंस के गड़बड़ घोटालों की छानबीन शुरू कर दी थी। दूसरी तरफ रामनाथ गोयनका के अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने भी अंबानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। वीपी सिंह के निर्देश में जो जांच चल रही थी उसमें एक ऐसा मोड़ आया जिसके बारे में कहा जाता है कि इसने राजीव और वीपी सिंह को एक-दूसरे से काफी दूर कर दिया। कहा जाता है कि जांच के तार स्विट्जरलैंड में अमिताभ बच्चन के भाई अजिताभ बच्चन तक पहुंच रहे थे। अमिताभ राजीव के बचपन के मित्र थे और गांधी परिवार के काफी करीबी थे। कांग्रेसियों ने मामले को कुछ इस तरह का रंग दिया कि वीपी सिंह राष्ट्र की संप्रभुता को खतरे में डाल रहे हैं। उन्हें वित्त मंत्रालय से हटाकर रक्षा मंत्रालय में भेज दिया गया था। कहा जाता है कि इस सब के बीच अमिताभ बच्चन ने धीरुभाई अंबानी की मुलाकात राजीव गांधी से करवाई। वीपी सिंह ने रक्षा मंत्रालय में पहुंचकर बोफोर्स तौप सौदे में दलाली का मामला उजागर करना शुरू कर दिया था। जिसके तार बाद में राजीव गांधी तक पहुंचे। हालांकि वह कानूनी कार्यवाही में निर्दोष साबित हुए, लेकिन उस समय भ्रष्टाचार के मामले में कांग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ा था। कहा जाता है कि इसका पूरा फायदा धीरुभाई ने उठाया। उन्होंने केंद्र में वीपी सिंह की सरकार को गिराने और सत्ताधारी दल जनता दल को तोड़ने में राजीव गांधी के साथ मिलकर अहम भूमिका निभाई थी। जिसमें कांग्रेस और धीरुभाई सफल भी हुए। जनता दल में विभाजन हुआ और कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। एक बार फिर धीरुभाई कांग्रेस के खास आदमी हो गए थे।
उदारीकरण के उदय के दौर में
बादका इतिहास जगजाहिर है। नरसिंह राव की सरकार से आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ। राव के उदारीकरण के प्रमुख लोगों में से एक मनमोहन सिंह ( जो राव सरकार में वित्त मंत्री थे) वर्ष 2004 से देश के प्रधानमंत्री हैं।
आर्थिकउदारीकरण वाले भारत में बहुत सारे पर्यवेक्षकों के मन-मस्तिष्क में दो छवियां इसकी प्रतीक हैं कि यहां कारोबार कैसे होता है। ये छवियां दिखाती हैं कि मुकेश और अनिल अंबानी दिल्ली के लुटियन के बलुआ पत्थरों से बने कार्यालयों में शीर्ष अधिकारियों से मिलने आते ( और जाते) हैं। इस तरह की ``शिष्टाचार मुलाकातें``अरबों डॉलर के स्वामित्व वाले दो उद्योगपतियों की अपने व्यवसायों को बढ़ाने के वास्ते ``वातावरण को अपने अनुकूल करने``के लिए परंपरागत रूप से राजनीति और सरकार पर बहुत अधिक पकड़ की ओर इशारा करती हैं। ( आउटलुक पत्रिका, 26 नवंबर 2012)।
आजरिलायंस का कारोबार भारत में सबसे बड़ा है। इसका इस समय रिलायंस का मार्केट कैपिटलाइजेशन ( बाजार पूंजीकरण) 47 अरब डॉलर का है। आरआईएल के मालिक मुकेश अंबानी भारत में अरबपतियों के क्लब में पहले नंबर पर हैं। मुकेश अंबानी के कारोबारी हित पेट्रोकेमिकल्स, तेल, प्राकृतिक गैस, पॉलिएस्टर फाइबर, सेज, फ्रेश फूड रिटेल, हाई स्कूल, लाइफ सांइसेज रिसर्च और स्टेम सेल स्टोरेज सर्विसेज से जुड़े हैं। रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने हाल ही में इंफोटेल में 95 प्रतिशत शेयर खरीदे हैं। यह एक टेलीविजन कॉनसोर्टियम (संकाय) है जो कि 27 टीवी न्यूज और मनोरंजन चैनलों को नियंत्रित करता है। वह हर तरफ हैं। मुकेश अंबानी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य ( जो कि एनडीए के शासनकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय में कॉनी कैपिटलिजम के सिरमौर बन गए थे) से सच ही कहा था कि कांग्रेस तो उनकी दुकान है। यदि कहा जाए कि लगभग हर राजनीतिक दल उनकी दुकान बन चुका है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह अजब है कि जो मीडिया अपने को लोकतंत्र का चौथा पाया कहता है वह केजी बेसन के मामले में एक तरह से खामोश ही रहा। सीएजी द्वारा उठायी गयी आपत्तियों के बाद भी किसी मीडिया हाउस ने रिलायंस के मामले में पत्रकारीय पड़ताल क्यों नहीं की। रिलायंस को बेनकाब क्यों नहीं किया गया। उधर राजनीतिक दलों, खासकर विपक्षी दलों, ने केजी बेसन मामले में रिलायंस का पर्दाफाश क्यों नहीं किया ?क्यों नहीं इस मुद्दे पर संसद में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव आया ?सिर्फ वामपंथ की ओर से माकपा सांसद तपन सेन ने पिछले दस महीनों में प्रधानमंत्री को आठ पत्र लिखे थे। हकीकत यह है कि राजनीतिक दल अगर रिलायंस के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे तो उनके बहुत सारे नेता बेनकाब हो जाएंगे। जैसा कि कहा जाता है कि रिलायंस के हर दल में हितैषी हैं। रिलायंस धीरुभाई के इस मंत्र पर चलता है- ``कोई स्थायी दोस्त नहीं होता है। कोई स्थाई दुश्मन नहीं होता है। हर किसी का अपना स्वार्थ होता है। एक बार जब आप यह मान लेते हैं, तो हर कोई खुशहाल होगा।``
अगरऐसा नहीं होता तो चोरवाड़ से एक शिपिंग कंपनी में अदनी सी नौकरी से सफर शुरू करने वाले धीरुभाई अंबानी भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का अपने हित में इतने नग्न रूप में दोहन नहीं कर पाते। व्यवस्था की कमजोरियों का फायदा उठाना तो उन्होंने अपने शुरुआती दिनों से शुरू कर दिया था। वाकया कुछ इस तरह का है। 1950 के दशक के शुरू में अरेबियन किंगडम ऑफ यमन के ट्रेजरी के अधिकारियों ने गौर किया कि उनके देश की मुद्रा के साथ कुछ विचित्र हो रहा है। ठोस चांदी का सिक्का, जिसे रियाल कहा जाता है, प्रसार से गायब हो रहा है। वे गायब हो रहे सिक्कों की खोज करते हुए अदन के व्यापारिक पोर्ट तक पहुंचे। जांच पड़ताल से पता चला कि एक भारतीय क्लर्क, जिसका नाम धीरूभाई अंबानी है और जो कि बीस साल की उम्र के आसपास है, ने अदन के बाजार से जितने भी रियाल थे उन्होंने खरीदने का खुला ऑर्डर दिया है। अंबानी ने यह पाया था कि रियाल का ब्रिटिश पाउंड और अन्य विदेशी मुद्राओं से विनिमय मूल्य से ज्यादा की चांदी है। इसके बाद उन्होंने रियाल को खरीदना शुरू कर दिया। उन्होंने इन सिक्कों की पिघलाया और इसकी चांदी को लंदन में सोने-चांदी के डीलरों को बेच दिया। इससे उन्होंने कुछ लाख रुपए बनाए।
यमनके खजाने के अधिकारियों ने उस समय हो रही गड़बड़ी की खोजबीन की थी, लेकिन भारत में खजाने के रखवाले सब कुछ जानते हुए भी खामोश रहे और रिलायंस की प्रगति में अपनी प्रगति देखी। इसका प्रतिफल सामने है : धीरुभाई के बेटे भी भारत सरकार से ज्यादा ताकतवर हो चुके हैं। धीरुभाई की तरह ही व्यवस्था के लिए अजेय।
कृष्ण सिंह पत्रकार हैं. लंबे समय तक अखबारों में काम.
अभी पत्रकारिता के अध्यापन में.
इनसे संपर्क का पता krishansingh1507@gmail.com है.
अभी पत्रकारिता के अध्यापन में.
इनसे संपर्क का पता krishansingh1507@gmail.com है.