सत्येंद्र रंजन |
"...यह नहीं कहा जा सकता कि वह पूरा संदर्भ अब बदल गया है। भाजपा आज भी देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी है। उसने उन मु्द्दों को नहीं बदला है, जिनके आधार पर वह अपनी खास पहचान परिभाषित करती है। उन मुद्दों में अयोध्या में राम मंदिर का भव्य निर्माण सर्व-प्रमुख है। इसके अलावा समान नागरिक संहिता और संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म करने के मुद्दों का सांप्रदायिक चरित्र भी स्पष्ट है।..."
बीस साल पहले आज के दिन आधुनिक भारतीय गणतंत्र के बुनियादी उसूलों पर गहरा प्रहार हुआ था। उस रोज अयोध्या में सिर्फ एक 465 साल पुरानी इमारत ही नहीं गिराई गई थी- ना ही यह केवल किसी एक मजहब की पहचान पर हमला था। बल्कि उसके जरिए भारत की उस धारणा को नष्ट करने कोशिश की गई, जो उपनिवेशवाद के खिलाफ लंबे संघर्ष के दौरान विकसित हुई थी। निशाने पर उदार, सर्व-समावेशी, आधुनिक, लोकतांत्रिक एवं विकास की खास समझ पर आधारित भारतीय राष्ट्र की अवधारणा थी, जिसका मूर्त रूप हमारा वर्तमान संविधान है। उसके बरक्स सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर धर्म-आधारित राष्ट्र निर्माण की परियोजना तब एक वास्तविक आशंका नजर आने लगी थी। इसलिए 6 दिसंबर 1992 को जो हुआ, उसे महज एक दुखद या दुर्भाग्यपूर्ण घटना के रूप में ही नहीं देखा जा सकता। बल्कि उसे उसके संपूर्ण ऐतिहासिक एवं राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत लगातार बनी हुई है।
यहनहीं कहा जा सकता कि वह हमला अचानक हुआ। बल्कि जिस दौर में आधुनिक भारतीय राष्ट्र का विचार स्वरूप ग्रहण कर रहा था, तभी से उसके प्रतिद्वंद्वी विचार के रूप धर्म आधारित राष्ट्रवाद ने भी अपना प्रसार किया। पाकिस्तान हासिल कर लेने की मुस्लिम लीग की सफलता आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद की एक विफलता थी। (एक मुस्लिम देश के रूप में) पाकिस्तान की स्थापना ने हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थकों द्वारा वैधता एवं जन समर्थन प्राप्त करने की कोशिश को नए तर्क प्रदान किए। इसके बावजूद यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य विचारधारा और उसके मनीषियों की लोकप्रियता का ही परिणाम था कि भारत ने एक स्वतंत्र देश के रूप में अपनी यात्रा उस संविधान के साथ शुरू की, जिसका उद्देश्य आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना है और जो लोकतंत्र, न्याय एवं समता के मूल्यों पर खड़ा है।
यहभी नहीं कहा जा सकता कि 6 दिसंबर 1992 को जो हुआ, वह पूरी तरह हिंदुत्ववादी शक्तियों के संयोजन का नतीजा था। बल्कि 1980 के दशक में खालिस्तानी आतंकवाद के दौर में बहुसंख्यक समुदाय की भावनाएं जिस तरह उभारी गईं, उन्होंने हिंदुत्ववादी ताकतों के लिए वो जमीन तैयार की, जो वे हिंदू कोड बिल या गौ-हत्या विरोधी अपने आंदोलनों तथा अन्य प्रयासों से नहीं कर पाए थे। कांग्रेस पार्टी ने- खासकर राजीव गांधी के शासनकाल में बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को वोट बैंक में तब्दील करने की जो कोशिश की, वह इस तरह की राजनीति को अधिक स्वीकार्यता दिलाने में मददगार बनी। जब जनता के एक बड़े हिस्से के समर्थन से ताकतवर हुई इस राजनीति की कमान उसके असली वारिसों ने संभाल ली, तो आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद के लिए खतरा विकराल रूप में सामने आ गया। भारतीय राष्ट्र-राज्य की सांप्रदायिक आधार पर पुनर्रचना की कोशिश जितने उग्र रूप में बाबरी मस्जिद को तोड़कर “मंदिर वहीं बनाने” के नारों के साथ हुई, वैसी मिसाल आजाद भारत में और नहीं है। राम मंदिर आंदोलन ने भारतीय राजनीति की दिशा बदलने की कोशिश की थी। कहा जा सकता है कि एक छोटी अवधि में वो प्रयास सफल भी रहा था। 1984 के आम चुनाव में लोकसभा की दो सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी का 1998-2004 के दौर में देश की सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति बन जाना उस दौर में इस परिघटना की कामयाबी की मिसाल है।
यहनहीं कहा जा सकता कि वह पूरा संदर्भ अब बदल गया है। भाजपा आज भी देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी है। उसने उन मु्द्दों को नहीं बदला है, जिनके आधार पर वह अपनी खास पहचान परिभाषित करती है। उन मुद्दों में अयोध्या में राम मंदिर का भव्य निर्माण सर्व-प्रमुख है। इसके अलावा समान नागरिक संहिता और संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म करने के मुद्दों का सांप्रदायिक चरित्र भी स्पष्ट है। लोकतंत्र में किसी राजनीतिक शक्ति का चरित्र इससे ही तय होता है कि वह किस आधार पर अपने पक्ष में बहुमत जुटाना चाहती है। रोजी-रोटी, आम आदमी की बेहतरी, विकास, सामाजिक न्याय, नागरिक स्वतंत्रता, राष्ट्र की उदार व्याख्या एवं अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सैद्धांतिक आधार वो मुद्दे हैं, जो मोटे तौर पर धर्मनिरपेक्ष राजनीति को परिभाषित करते हैं। इसके विपरीत अगर कोई पार्टी भावनात्मक एवं कथित सांस्कृतिक मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाती हो और किसी वास्तविक अथवा काल्पनिक ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने को अपना एजेंडा बताती हो, तो वह एक अलग किस्म की राजनीति करती है- यह खुद जाहिर है। इन दो तरह की सियासतों के बीच एक विभाजन रेखा है, जो कई काल-खंडों में राजनीतिक रुख तय करने के लिहाज से सबसे अहम भी साबित हो सकता है। राम मंदिर आंदोलन और उस क्रम में बाबरी मस्जिद के ध्वंस ने इस विभाजन रेखा को सर्व-प्रमुख बना दिया था।
आजबीस साल बाद क्या वो स्थिति बदल गई है? इस सवाल पर विचार करते समय हमें कुछ पहलुओं पर जरूर गौर करना चाहिए। इनमें पहला तथ्य तो वही है, जिसका ऊपर जिक्र हुआ- यानी यह कि जो पार्टी (जिसके पीछे सहमना संगठनों का एक पूरा जाल है) अपनी राजनीति को धर्म-आधारित (या कथित सांस्कृतिक) मुद्दों से तय करती है, वह आज भी देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति है, कई राज्यों में सत्ता में है और जिसके केंद्रीय सत्ता में लौटने की संभावनाएं बनी हुई हैं। दूसरा पहलू अपनी न्यायिक व्यवस्था है, जिसमें देर का आलम यह है कि 6 दिसंबर 1992 को कानून की धज्जियां उड़ाने वालों और सर्वोच्च न्यायालय में दिए वचन को न निभाने वालों का जुर्म बीस साल बाद भी तय नहीं हो सका है। तीसरा पहलू अयोध्या में विवादित स्थल का मसला है, जिस पर अंतिम न्यायिक निर्णय का अभी इंतजार है। चौथे पहलू का संदर्भ सांप्रदायिक राजनीति के उद्देश्यों से जुड़ा है। आखिर इसकी सीमा कहां तक है? बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद 1993 में उपासना स्थल कानून बना था, जिससे अयोध्या के विवादित स्थल को छोड़कर बाकी तमाम धर्मस्थलों की 15 अगस्त 1947 को जो स्थिति थी, उसे कानूनी मान्यता दी गई। यानी अब उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। लेकिन राम मंदिर आंदोलन से जुड़े तमाम पक्षों ने कभी यह बेलाग नहीं कहा कि वे इस कानून का पालन करेंगे। इसके अलावा प्रस्तावित सांप्रदायिक हिंसा कानून को लेकर जैसा विरोध जताया गया, कला-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमलों की निरंतर होती घटनाएं एवं आम लोगों रहन-सहन पर रू़ढ़िवादी प्रतिबंधों की लगातार जारी कोशिशों ने इस बारे में कोई संदेह नहीं छोड़ा है कि 6 दिसंबर1992 के ध्वंस के जरिए जो राजनीतिक मकसद हासिल करने की कोशिश की गई, उसके लिए वे ताकतें आज भी प्रयासरत हैं और उनके लिए मुद्दों की कोई कमी नहीं है।
इसलिएबाबरी मस्जिद ध्वंस के बीस साल बाद भी आज हम उस राजनीतिक विभाजन रेखा को नजरअंदाज करने का जोखिम नहीं उठा सकते, जो उस रोज भारत के आधुनिक एवं सांप्रदायिक विचारों के बीच बड़ी खाई बनकर उभर आई थी। हमारे सामने मुद्दे और भी हैं। समाज को बेहतर बनाने की लड़ाइयां अनेक हैं। इनमें किसी को नजरअंदाज करने की जरूरत नहीं है। लेकिन उन्हें लड़ते हुए इस विभाजन रेखा को भूल जाना उस भारतीय राष्ट्र के अस्तित्व के लिए खतरनाक है, जिसने न्याय एवं समता को संवैधानिक मूल्य के रूप स्थापित किया है। बाबरी मस्जिद की बीसवीं बरसी पर अगर हम इस यथार्थ के प्रति फिर से सचेत हो पाए, तो यह उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन को याद करने का सबसे उचित तरीका होगा।
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.