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उमाशंकर सिंह |
-उमाशंकर सिंह
"...बीते एक बरस के सिनेमा पर गर हम गौर करें तो हम पाते हैं कि यह करवट बदल कर उस तरफ अपना मुंह मोड़ रहा है जहां से थोड़ी दूरी से ही, थोड़ा धुधला और बदले हुए रूप में ही सही, लेकिन हिंदुस्तानी समाज दिखता है। इससे फिल्मों के विषय की कई प्रचलित वर्जनाएं बीते एक वर्ष में टूटी है।..."

बीते एक बरस के सिनेमा पर गर हम गौर करें तो हम पाते हैं कि यह करवट बदल कर उस तरफ अपना मुंह मोड़ रहा है जहां से थोड़ी दूरी से ही, थोड़ा धुधला और बदले हुए रूप में ही सही, लेकिन हिंदुस्तानी समाज दिखता है। इससे फिल्मों के विषय की कई प्रचलित वर्जनाएं बीते एक वर्ष में टूटी है। इसकी शुरूआत तिंग्मांसू धूलिया निर्देशित ‘पान सिंह तोमर’ से होती है और बरास्ते युवा निर्देशक दिवाकर बनर्जी के ‘शंघाई’ की गलियों की भूलभूलैया में खोते-भटकते प्रकाश झा के ‘चक्रव्यूह’ में फंसते-निकलते हुए मनोरंजक अंदाज में विशाल भारद्वाज के मटरू के मनडोला गांव में बिजली गिराती है। ‘पान सिंह तोमर’ ‘शांघाई’, ‘चक्रव्यूह’ और ‘मटरू की बिजली का मनडोला’ सभी फिल्में एक स्तर पर जमीन अधिग्रहण के खिलाफ है। हिंदुस्तान में जमीन का सवाल जाति के सवाल के बिना इकहरा और अधूरा है। जमीन बचाने की लड़ाई लड़ रही इन फिल्मों से छूटे जाति के अहम सवाल को उठाती है संजीव जायसवाल की ‘शूद्र’ जो बाबा साहब अंबेडकर को समर्पित है। कुछ वर्ष पहले तक इसकी कल्पना तक मुश्किल थी। दलित आंदोलन सिनेमा की अपेक्षा साहित्य में ज्यादा सघन है लेकिन यह जानकारी इन पंक्तियों के लेखक को नहीं है कि क्या हिंदी की कोई कृति बाबा साहब अंबेडकर को समर्पित है।
पिछलेसाल सबसे पहले लड़ाका धावक पान सिंह तोमर अपनी जमीन और जमीर बचाने के लिए बंदूक उठाता है और बीहड़ चला जाता है। जमीन पा लेने के बाद ‘सरेंडर’ कर आराम से जीवन जीने के विकल्प को वह चुन सकता था लेकिन उसे मालूम है ‘सरेंडर’ चाहे अपने से ताकतवर लोगों के सामने करें या सरकार के सामने जाता वह ‘जमीर’ ही खोना है जिसे प्रेमचंद ने ‘मरजाद’ कहा था। वहां उसकी जमीन कोई सांवैधानिक शक्ति या संस्था नहीं, समाज के ताकतवर लोग हड़प रहे हैं। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था वहां उस ताकतवर इंडिविजुअल के पक्ष में अपने चरित्र के अनुसार ही खड़ी थी।
‘शांघाई’तक आते आते आजाद भारत की लोकतांत्रिक सरकार खुद जमीन हड़पने वाली पार्टी बन गई। पर चूंकि लोकतंत्र है जिसका अर्थ लोगों ने भेड़ के स्वेच्छा से भेड़ियों के हाथों शिकार होने को माना है सो पहले वह ‘विकास’ के लॉलीपॉप को दिखाकर छोटे कृषकों को खुद से जमीन देने के लिए तैयार करता है। किसानों की जमीन छीनने का यह सबसे पुराना नुस्खा है। पहले उसे कर्ज में फंसाओ, फिर विकास का झांसा दो इसमें आ जाए तो ठीक नहीं तो दूसरे तरीके तो हैं ही। भूमि अधिग्रहण की पहली फिल्म 1946 में ख्वाजा अहमद अब्बास ने कृष्ण चंदर की कहानी पर ‘धरती के लाल’ नाम से बनाई थी। तब से लेकर ‘दो बीघा जमीन’, ‘शांघाई’, ‘चक्रव्यूह’ और ‘मटरू के... मनडोला’ तक यह हो रहा है।
विकासका जो सपना ‘शांघाई’, ‘चक्रव्यूह’ और ‘मटरू...’ में राजनेता दिखाते हैं वह आजादी के तुरंत बाद विमल रॉय के ‘दो बीघा जमीन’ में जमींदार ठाकुर हरनाम सिंह के शंभु महतो को दिखाए गए सड़क-बिजली के सपने का ही परिष्कृत रूप है। पर शंभू महतो ने ‘जमीन तो किसान की मां होती है हुजूर, मां को कैसे बेच दूं’ कहकर साफ मना कर दिया था। उस वक्त जमींदार ने उसकी राजनीतिक हत्या नहीं कराई, लेकिन अपने ऋण दुश्चक्र में फंसा कर हड़प लिया। लेकिन अब वैसा नहीं है। अब तो कुछ लोग और कुछ आंदोलन यदि इसमें आड़े आते हैं तो राजनीतिक हत्याएं तक की-नकराई जाती हैं ( शांघाई)।
इसक्रम में ‘चक्रव्यूह’ में नक्सलवाद का खुला शंखनाद है तो ‘मटरू...’ में उसकी उथली लेकिन काफी हद तक मनोरंजक प्रतिछाया। ‘चक्रव्यूह’ नक्सलवाद पर बेस्ड नहीं है जैसा बताया या प्रचारित किया गया। वह नक्सलवाद के बैकड्राप पर दो दोस्तों की कहानी है जो बेकेट के तर्ज पर गढी गई है।
विशालभारद्वाज ‘मटरू...’ तक फार्म के एक खास उत्कर्ष को पा चुके हैं लेकिन उनका कंटेंट उनके फार्म के साथ तालमेल नहीं बिठा पाता। वैसे ही जैसे इमरान खान और अनुष्का शर्मा पंकज कपूर और शबाना आजमी के अभिनय के साथ कदलताल नहीं बिठा कर एक विछोभ प्रस्तुत करते हैं। उनका फार्म और उनका कंटेंट एक दूसरे को को-ऑपरेट नहीं कर, कंट्राडिक्ट करता है। सिनेमा मनोरंजन का माध्यम है। इसलिए गंभीर कंटेट को मनोरंजक बनाना फिल्मकार की मजबूरी है, लेकिन ऐसा वहीं तक किया जाना चाहिए जहां तक आपकी फिल्म का प्रीमाइस इजाजत देता हो। उसके आगे यदि आप बढ़े तो फिल्म में हास्य नहीं रहता, फिल्म हास्यास्पद हो जाती है खासकर तब जब आप चीजों को ‘जाने भी दो यारों’ की तरह ब्लैक कॉमेडी से अभिव्यक्त नहीं कर रहे हैं। मटरू के साथ भी यही हुआ है।
‘शांघाई’तक आते आते आजाद भारत की लोकतांत्रिक सरकार खुद जमीन हड़पने वाली पार्टी बन गई। पर चूंकि लोकतंत्र है जिसका अर्थ लोगों ने भेड़ के स्वेच्छा से भेड़ियों के हाथों शिकार होने को माना है सो पहले वह ‘विकास’ के लॉलीपॉप को दिखाकर छोटे कृषकों को खुद से जमीन देने के लिए तैयार करता है। किसानों की जमीन छीनने का यह सबसे पुराना नुस्खा है। पहले उसे कर्ज में फंसाओ, फिर विकास का झांसा दो इसमें आ जाए तो ठीक नहीं तो दूसरे तरीके तो हैं ही। भूमि अधिग्रहण की पहली फिल्म 1946 में ख्वाजा अहमद अब्बास ने कृष्ण चंदर की कहानी पर ‘धरती के लाल’ नाम से बनाई थी। तब से लेकर ‘दो बीघा जमीन’, ‘शांघाई’, ‘चक्रव्यूह’ और ‘मटरू के... मनडोला’ तक यह हो रहा है।
विकासका जो सपना ‘शांघाई’, ‘चक्रव्यूह’ और ‘मटरू...’ में राजनेता दिखाते हैं वह आजादी के तुरंत बाद विमल रॉय के ‘दो बीघा जमीन’ में जमींदार ठाकुर हरनाम सिंह के शंभु महतो को दिखाए गए सड़क-बिजली के सपने का ही परिष्कृत रूप है। पर शंभू महतो ने ‘जमीन तो किसान की मां होती है हुजूर, मां को कैसे बेच दूं’ कहकर साफ मना कर दिया था। उस वक्त जमींदार ने उसकी राजनीतिक हत्या नहीं कराई, लेकिन अपने ऋण दुश्चक्र में फंसा कर हड़प लिया। लेकिन अब वैसा नहीं है। अब तो कुछ लोग और कुछ आंदोलन यदि इसमें आड़े आते हैं तो राजनीतिक हत्याएं तक की-नकराई जाती हैं ( शांघाई)।
इसक्रम में ‘चक्रव्यूह’ में नक्सलवाद का खुला शंखनाद है तो ‘मटरू...’ में उसकी उथली लेकिन काफी हद तक मनोरंजक प्रतिछाया। ‘चक्रव्यूह’ नक्सलवाद पर बेस्ड नहीं है जैसा बताया या प्रचारित किया गया। वह नक्सलवाद के बैकड्राप पर दो दोस्तों की कहानी है जो बेकेट के तर्ज पर गढी गई है।
विशालभारद्वाज ‘मटरू...’ तक फार्म के एक खास उत्कर्ष को पा चुके हैं लेकिन उनका कंटेंट उनके फार्म के साथ तालमेल नहीं बिठा पाता। वैसे ही जैसे इमरान खान और अनुष्का शर्मा पंकज कपूर और शबाना आजमी के अभिनय के साथ कदलताल नहीं बिठा कर एक विछोभ प्रस्तुत करते हैं। उनका फार्म और उनका कंटेंट एक दूसरे को को-ऑपरेट नहीं कर, कंट्राडिक्ट करता है। सिनेमा मनोरंजन का माध्यम है। इसलिए गंभीर कंटेट को मनोरंजक बनाना फिल्मकार की मजबूरी है, लेकिन ऐसा वहीं तक किया जाना चाहिए जहां तक आपकी फिल्म का प्रीमाइस इजाजत देता हो। उसके आगे यदि आप बढ़े तो फिल्म में हास्य नहीं रहता, फिल्म हास्यास्पद हो जाती है खासकर तब जब आप चीजों को ‘जाने भी दो यारों’ की तरह ब्लैक कॉमेडी से अभिव्यक्त नहीं कर रहे हैं। मटरू के साथ भी यही हुआ है।
उमाशंकर पत्रकार भी हैं और कहानीकार भी.
आज-कल फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिख रहे हैं.
इनसे uma.change@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं