सत्येंद्र रंजन |
-सत्येंद्र रंजन
"...इस बीच माकपा के बड़े नेताओं ने देश के चार स्थानों से संघर्ष संदेश जत्थे निकाले हैं। इन जत्थों की यात्रा उन्नीस मार्च को दिल्ली में एक रैली के साथ पूरी होगी। तब यह मूल्यांकन का वक्त होगा कि दस हजार किलोमीटर तक संघर्ष का संदेश देने के बाद आखिर में ठोस क्या हासिल हुआ?..."
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने अगले आम चुनाव से पहले किसी तीसरे मोर्चे के गठन की संभावना से इनकार कर वाजिब रुख जताया है। इसलिए कि देश को इस वक्त जरूरत ऐसे मोर्चों की नहीं है, जिनमें विचारधारा का कोई साम्य नहीं हो। अगर विकल्प का मतलब सत्ता से सिर्फ नेताओं या पार्टियों का बदल जाना है, तो ऐसे अनुभवों से अनेक बार गुजर चुकने के बाद देश की प्रगतिशील एवं जनतांत्रिक शक्तियों को ऐसे परिवर्तन का संभवतः कतई इंतजार नहीं होगा। प्रश्न यह है कि क्या देश में किसी ऐसे विकल्प की गुंजाइश है, जो राजनीतिक विमर्श एवं नीतियों में वाम झुकाव का प्रेरक बने?
इस बीच माकपा के बड़े नेताओं ने देश के चार स्थानों से संघर्ष संदेश जत्थे निकाले हैं। इन जत्थों की यात्रा उन्नीस मार्च को दिल्ली में एक रैली के साथ पूरी होगी। तब यह मूल्यांकन का वक्त होगा कि दस हजार किलोमीटर तक संघर्ष का संदेश देने के बाद आखिर में ठोस क्या हासिल हुआ? बहरहाल, कसौटी अगर मध्यवर्गीय बहस एवं मुख्यधारा मीडिया में मिला महत्त्व ही हो, यह अंदाजा लगाना आसान है कि ये यात्राएं राजनीतिक विमर्श एवं नीतियों पर बिना कोई फर्क डाले महज एक घटना बन कर रह जाएंगी।
इससंदर्भ में यह बात इसलिए अहम है, क्योंकि मीडिया में इन यात्राओं में उठे जिन मुद्दों की चर्चा हुई है, वो मोटे तौर पर वे नहीं हैं, जिनके आधार पर बुनियादी तबकों की गोलबंदी हो सकती है। इसके विपरीत महंगाई, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता जैसे मुद्दे हैं, जो अक्सर मध्य वर्ग को आकर्षित करते हैं। खासकर भ्रष्टाचार और नारी स्वतंत्रता के मुद्दों पर हाल में मध्य वर्ग में हलचल दिखी है। अनेक जानकारों की राय है कि मध्य वर्ग की बढ़ी सांख्यिक ताकत ने अब उसे किसी भी संघर्ष में अपिहार्य बना दिया है। मौजूदा हालात में परिवर्तन के लिए उसमें उभरती बेचैनी एक सकारात्मक घटनाक्रम है। फिर भी यह सवाल अपनी जगह कायम है कि क्या वाम राजनीति के लक्ष्य में निहित आमूल बदलाव की संभावना के साथ अपेक्षाकृत संपन्न एवं सुविधाप्राप्त पृष्ठभूमि से आए मध्य वर्ग के अधिकांश हिस्सों का तारतम्य बनने की जमीन तैयार हो गई है?
अगरहम जनतांत्रिक दायरे में संभव वाम मुद्दों की पहचान करें, तो उपरोक्त प्रश्न का उत्तर ढूंढना आसान हो सकता है। महंगाई, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता आबादी के ज्यादातर हिस्सों को प्रभावित करने वाले बड़े मुद्दे हैं। लेकिन ये वाम राजनीति के विशिष्ट मुद्दे हो सकते हैं, यह कहना कठिन है। इन मुद्दों पर आखिर असहमत कौन है? विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों महंगाई और भ्रष्टाचार के सवाल पुरजोर ढंग से उठाती हैं। जबकि यह सबको मालूम है कि दोनों के पास इन बुराइयों से जनता को निजात दिलाने का कोई कार्यक्रम नहीं है। कांग्रेस उनके साथ सांप्रदायिकता को भी जोड़ लेती है, जबकि इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट या निष्ठावान रुख अपनाने से वह अक्सर कतरा जाती है। फिर भी यह हकीकत है कि इन मुद्दों पर सियासी पहल अक्सर इन पार्टियों के हाथ में ही रहती है।
स्पष्टहै, इन मुद्दों पर आधारित राजनीतिक गतिविधियों के जरिए वाम राजनीति को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। बहरहाल, माकपा की मांगें सिर्फ इन तक सीमित नहीं हैं। बल्कि पार्टी ने साथ-साथ भूमि सुधार एवं आवास स्थल के अधिकार, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के अधिकार, रोजगार के अधिकार, सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति-जनजातियों के लिए आरक्षित खाली पदों को भरने और महिला अधिकार के संरक्षण सहित सामाजिक न्याय से जुड़ी मांगों को भी उठाया है। ये वो मांगें हैं, जो मध्य वर्ग और मीडिया को आकर्षित नहीं करतीं। इन मांगों से जुड़ा संघर्ष जैसे ही दस्तक देता है, संघर्ष के मुद्दे खबर या चर्चा से गायब हो जाते हैं और संघर्ष के कारण महानगर के संपन्न लोगों को होने वाली कथित दिक्कतें सुर्खियों पर छा जाती हैं। इसकी बेहतरीन मिसाल फरवरी में ट्रेड यूनियनों की अपील पर हुई दो दिन की राष्ट्रीय हड़ताल है। जिस हड़ताल ने आम जन-जीवन पर व्यापक असर डाला और जिसमें श्रमिक वर्ग के लाखों लोगों ने भागीदारी की, वह आखिर मीडिया और मध्य वर्ग का कितना ध्यान खींच पाया? व्यापकता और गहराई दोनों लिहाज से अहम यह संघर्ष सत्ता प्रतिष्ठान पर उसी अनुपात में प्रभाव नहीं छोड़ सका, तो उसका कारण यही है कि राजनीतिक स्तर पर उसकी नुमाइंदगी करने वाली ताकतें कमजोर हैं, जबकि मीडिया जैसे माध्यमों की उस संघर्ष के उद्देश्यों से सहमति नहीं है।
यहकहना सही नहीं होगा कि वाम पार्टियां वर्ग-दृष्टिकोण के इस अंतर को नहीं समझती हैं। इसके बावजूद संघर्ष के लिए मुद्दों एवं स्थान के चयन में स्पष्टता क्यों नहीं झलकती, यह समझना कठिन है। असली सवाल है कि वाम मोर्चा राष्ट्रीय राजनीति में बेहतर दखल की स्थिति में फिर कैसे वापस आ सकता है? क्या देश भर में उन मुद्दों पर संघर्ष का संदेश फैलाना इसका रास्ता है, जो जुबान की ताकत रखने वाले वर्गों को आकर्षित कर सके? या फिर इसका रास्ता यह है कि वाम पार्टियां पहले उन जगहों पर संघर्ष को संकेद्रित करें, जहां उन तबकों के बीच उनका आधार है, जिन्हें लेफ्ट राजनीति की जरूरत है और जो स्वाभाविक रूप से वाम पार्टियों के लिए सियासी लड़ाई के बुनियादी वर्ग हैं?
उन्हीं आधार वर्गों और आधार इलाकों के जरिए वाम मोर्चे ने 2004 में अपनी वो हैसियत बनाई, जिससे वह सामाजिक जनतांत्रिक कार्यकर्मों को न सिर्फ राष्ट्रीय एजेंडे पर ला सका था, बल्कि उनके अनुरूप दूरगामी महत्त्व के कई कानूनों को बनवाने में भी उसने प्रमुख भूमिका निभाई। वो कानून अपने-आप में उद्देश्य नहीं हैं, बल्कि वे समता एवं न्याय के दीर्घकालिक संघर्ष में एक छोटा मुकाम हैं। अगर उनसे इस विचारधारत्मक समझ को काट दिया जाए, तो मनरेगा या वनाधिकार कानून या मुफ्त एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का अधिकार कानून या प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून अथवा सभी बुजुर्गों को पेंशन के लिए अब उठी मांग नव-उदारवादी दायरे में महज खैरात नजर आने लगते हैं। फिर भी ये कदम या उनके लिए संघर्ष बदलाव की बड़ी लड़ाई की राह में आरंभिक बिंदु अवश्य हैं। इसीलिए ऐसे मुद्दों लेकर संघर्ष के मैदान में उतरना सकारात्मक है, लेकिन इनका संदर्भ सीमित है। जब तक वाम राजनीति की ताकत प्रभावी हस्तक्षेप की नहीं बनती, यह संदर्भ समग्र रूप ग्रहण नहीं कर सकेगा।
इसताकत को प्राप्त करने की क्षमता आज भी भारत में सिर्फ संगठित वामपंथ के पास है, जिसका व्यावहारिक स्वरूप माकपा के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा है। इसीलिए इस मोर्चे की सोच और गतिविधियों पर प्रगतिशील एवं जनतांत्रिक लोगों की निगाह रहती है। संघर्ष संदेश यात्रा की शुरुआत पर माकपा ने कहा- “संघर्ष संदेश जत्थे आगे और अधिक बड़े आंदोलनों तथा वाम और जनतांत्रिक शक्तियों के एकजुट होने का पूर्व-संकेत देंगे। ये जत्थे यह पैगाम देंगे कि सिर्फ वाम और जनतांत्रिक aशक्तियां ही बुर्जुआ-जमींदार राज का वास्तविक विकल्प बन सकती हैं।” क्या ऐसा सचमुच होगा? यह बात पक्के भरोसे के साथ कही जा सकती है कि ऐसा तब तक नहीं होगा, जब तक पश्चिम बंगाल और केरल में वाम मोर्चा अपनी खोयी जमीन फिर से पाता न दिखे, क्योंकि आज भी त्रिपुरा के अलावा वही इसके मुख्य आधार इलाके हैं। क्या जिन मुद्दों को लेकर पार्टी संघर्ष यात्रा निकाली है, वे इसमें सहायक बनेंगे? बहरहाल, जब तक ऐसा नहीं होता, तीसरे मोर्चे जैसे प्रयोजनों की बात वाम राजनीति के लिए लिहाज से अप्रासंगिक है।
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.