-डॉ. शेख शौकत हुसैन
(Afzal Guru Hanging : A Kashmiri Perspective शीर्षक से मूल आलेख अंग्रेजी में प्रकाशित किया गया था. हिंदी के पाठकों के लिए इसका अनुवाद अभिनव श्रीवास्तवने किया है. -मॉडरेटर)
"...अफजल गुरु को दी गयी फांसी का तरीका और समय भारतीय राजनीति की उस मानसिकता की झलक देता है जो विभाजन से पहले ही उसकी विशेषता रही है. पंडित नेहरू ने प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी को बिना किसी रुकावट के बिल्कुल सुनिश्चित करने के लिए कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकृत कर दिया था. वह प्रधानमंत्री बन गए लेकिन ब्रिटिश भारत दो रियासतों में बंट गया..."
विवादितक्षेत्र अक्सर खुफिया एजेंसियों की गंदी चालों और क्रियाकलापों के अखाड़े में तब्दील हो जाते हैं जहां नैतिकता, कानून और मानव जीवन गर्त में चले जाते हैं और सब कुछ रणनीतिक बातों को ध्यान में रखते हुये तय किया जाता है. बिल क्लिंटन के कश्मीर आगमन पर कश्मीरी मुस्लिमों को विदेशी और अजनबी से डरने वाले समुदाय के रूप में दिखाने के लिये घाटी में कुछ सिक्ख ग्रामीणों के जनसंहार को अंजाम दिया गया था. इस कार्रवाई को छिपाने के लिये कुछ मुस्लिम लड़कों को पकड़ा गया और अपराधी बताकर उनकी हत्या भी कर दी गयी. इस तथ्य की पुष्टि पांडियन कमीशन ने भी की. इससे पहले साल 2010 में सोपोर गांव के कुछ लड़कों को सेना में कुली की भर्ती का लालच दिया गया और बाद में कुछ ‘बहादुर सैनिकों’ के लिये वीरता पुरस्कार हासिल करने के मकसद से उन्हें घुसपैठिया बनाकर सीमारेखा के पास मार दिया गया.
ऐसेमाहौल में रहते हुये कश्मीर की जनता अगर संशयग्रस्त हो गयी, तो इस पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिये. इसी संशयवाद के चलते उन्होंने संसद हमले को गुप-चुप और योजनाबद्ध ढंग से हुयी घटना के तौर पर देखा. घाटी के अधिकांश लोग इसेसाल 1971के युद्ध से पहले हुई उस घटना की तरह देख रहे थे जिसमें नई दिल्ली से एक विमान का अपहरण किया गया और फिर उसे लाहौर हवाई अड्डे के पास लाकर जला दिया गया था. इस घटना ने उस वक्त लगभग अपरिचित और प्रभावहीन जेकेएलएफ कैम्प के बीच एक उत्साह पैदा कर दिया. आलम ये था कि इस घटना को उन दिनों मीडिया में सुर्खियां बटोर रहे फिलीस्तीनियों और उनके द्वारा किये जा रहे विमानों के अपहरण की घटनाओं के दोहराव के रूप में देखा गया. मकबूल भट्ट ने तब हाशिम कुरैशी का स्वागत किया लेकिन इसके साथ-साथ एक पाकिस्तानी अदालत ने यह भी बताया कि इस घटना को सुरक्षा एजेंसियों ने अंजाम दिया था.
भारतमें ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो चाहते थे कि भारत भी (इस घटना की प्रतिक्रिया में) वैसे ही दुस्साहसी कार्रवाई करे जैसे अमेरिका ने 9/11हमले के बाद अफगानिस्तान पर निशाना साधने के बहाने की थी. कमोबेश इसी पृष्ठभूमि में संसद पर हमला हुआ और किसी भी कश्मीरी सैन्य संगठन ने इसकी जिम्मेदारी नहीं ली. भाजपा संसद हमले को पाकिस्तान पर हमला करने के बहाने के रूप में इस्तेमाल करना चाहती थी.एक परमाणु संपन्न उपमहाद्वीप में इस तरह की कार्रवाई के नतीजों से महरूम भाजपा सरकार ने संसद हमले के बाद पांच हजार से अधिक सैनिकों को पाकिस्तान की सीमा रेखा पर इकठ्ठा कर दिया था. सीमा पर यह लामबंदी करीब 22 महीनों तक बगैर किसी नतीजे के चली.
अफजलगुरु ने अपने वकील को जो पत्र लिखा था उसमें एक कश्मीरी की भावना की पुष्टि नहीं तो कम से कम एक झलक तो जरूर मिलती है. पत्र में उसने साफ लिखा है कि जिन लोगों को हमलावरों के रहने-खाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है वे जम्मू कश्मीर की कुख्यात पुलिस बलों के सदस्य हैं. सैन्य बलों के मोबलाइजेशन दो साल से लंबे चले अभियान की असफलता को छिपाने के लिये कुछ कश्मीरियों को फंसाकर फांसी देना जरूरी था. इस काम के लिये अफजल गुरु को बलि का बकरा बनाया गया. एक ऐसा व्यक्ति जिसका अपराध साबित नहीं हो सका और जिसको न्याय से ज्यादा ‘सामाजिक अंतःचेतना की संतुष्टि’ के लिये निशाना बनाया गया.
जेकेएलएफ के अन्य उग्रवादियों की तरह वह आत्मसमर्पण कर सामान्य जीवन बिताना चाहता था. कश्मीर में विभिन्न इलाकों में पूर्व उग्रवादियों के पुनर्वास के लचर इंतजाम ऐसे लोगों के नहीं बस पाने का प्रमुख कारण बनते हैं. किसी छोटे से रोजगार के लिये पुलिस से किसी पूर्व घटना में शामिल नहीं होने संबंधी प्रमाण पत्र लेना होता है,जो कभी-कभार ही मिल पाता है. तब कमजोर और रोजगारविहीन पूर्व उग्रवादियों का इस्तेमाल सुरक्षा एजेंसियों द्वारा अपने गंदे और प्रासंगिक-अप्रासंगिक कामों को पूरा करवाने में किया जाता है.
अफजल ने भी ऐसी ही स्थितियों का सामना किया. राजद्रोह में उसकी भगीदारी और भारतीय सुरक्षा तंत्र से उसकी खुफिया ने उसको बदल दिया और वह एक कट्टर इस्लामी बन गया. एक ऐसे उग्रवादी को फांसी की ओर धकेल दिया गया जिसने बंदूक का रास्ता छोड़ दिया था. इसीलिये अपने राष्ट्र के लिये वह शहीद बन गया. एक राज्य जिसे अपने लोकतंत्र और मनावाधिकारों पर गर्व है, इतनी उदारता का परिचय नहीं दे सका कि एक शहीद के शरीर के दाह-संस्कार का इंतजाम पूरी शिष्टता और सभ्यता के साथ करवा सके. इस अधिकार का उल्लंघन और अफजल के परिवार को कोई भी सूचना नहीं देना मानवता के खिलाफ अपराध है. भारत के मानवाधिकार रिकार्ड पर यह एक धब्बा है. वे उन हालातों में धकेल दिये जाते हैं जहां अमानवीयता और अपमानित किया जाने वाले व्यवहार ही उनकी किस्मत बन जाता है. कश्मीरी जनता की एक पूरी पीढ़ी ही ऐसे हालातों में ढल गयी है.
अफजलगुरु को दी गयी फांसी का तरीका और समय भारतीय राजनीति की उस मानसिकता की झलक देता है जो विभाजन से पहले ही उसकी विशेषता रही है. पंडित नेहरू ने प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी को बिना किसी रुकावट के बिल्कुल सुनिश्चित करने के लिए कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकृत कर दिया था. वह प्रधानमंत्री बन गए लेकिन ब्रिटिश भारत दो रियासतों में बंट गया. इन्द्रा गांधी ने पंजाब में अकाली से खिलाफ वोटबैंक में बढ़त पाने के लिए अतिवाद को बढ़ावा दिया और इसी में खप गईं. भारत को पंजाब के उग्रवाद के रूप में भारी कीमत चुकानी पड़ी. राजीव गांधी ने श्रीलंका में ऐसे ही दुस्साहस का सहारा लिया और उसका शिकार बन गए. उन्होंने बाबरी मस्जिद के दरवाजे खोले और कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना सुनिश्चित कर दिया.
निकटभविष्य में चुनावों के चलते राजनीतिक मकसद से प्रेरित अफजल गुरु की फांसी ने कश्मीर के सुप्त ज्वालामुखी को भड़का दिया है, राज्य (भारतीय) के प्रति मजबूत हुआ अविश्वास पूरे उपमहाद्वीप के लिए तात्कालिक और दूरगामी अप्रत्याशित नतीजे सामने लाएगा.
अंग्रेजी में मूल आलेख यहाँ पढ़े- Afzal Guru Hanging : A Kashmiri Perspective
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