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फार्मूले का ‘इनकार’ नहीं...

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उमाशंकर
-उमाशंकर सिंह

"...इस बदली हुई सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक स्थिति का श्रेय बाजार लेता है और कहता है उसने लड़कियों को पुराने खांचे से लिबरेट किया है। स्त्रियों के इस ‘बंधे हुए लिबरेशन’ का लाभ भी पुरूषों को मिला है क्योंकि वे ही बाजार के बड़े खिलाड़ी हैं और उसे ऑपरेट करते हैं। सविता सिंह की कविता है ‘अच्छा है मुक्त हो रही हैं स्त्रियां, मिल सकेंगी स्वच्छंद संभोग के लिए।’..."

http://4.bp.blogspot.com/-vPjdY-gz97E/UNrTRMtnHkI/AAAAAAAAIh4/sJD1l3Zj_5Y/s1600/Inkaar-Poster.jpgप्रेम हिंदी फिल्मकारों के लिए एक ऐसा कुआं है जिसमें वे किसी भी ज्वलंत, संवेदनशील और गंभीर विषय को डुबा कर उसकी जान ले सकते हैं। प्रेम के कुएं का यह विध्वंसक दुरूपयोग न केवल मसाला फिल्मकार करते हैं बल्कि उतने ही संजीदा कहे जाने वाले फिल्मकार भी करते हुए दिख जाते हैं। होना तो ये था कि प्रेम के संजीवनी जल का इस्तेमाल उन्हें समाज की विद्रपताओं के खिलाफ एक हथियार के रूप करना था पर हो ये रहा है कि वे प्रेम के हथियार से गंभीर मसलों का गला रेत देते हैं। आप राजनीतिक फिल्म देख रहे हों, आतंकवाद पर फिल्म देख रहे हों, सामाजिक मसले पर फिल्म देख रहे हों, पर आखिर में आपको पता चलता है कि आप तो एक स्टीरियो टाइप प्रेम कहानी देख रहे थे। सुधीर मिश्रा की सेक्सुअल हैरेसमेंट पर बनी बहुप्रचारित फिल्म ‘इनकार’ भी इसी अनिवार्य बॉलीवुड फिल्मी गति को प्राप्त हुआ है।

'दामिनी'रेप कांड के बाद उपजे जनाक्रोश के बाद रिलीज हुई या की गई फिल्म ‘इनकार’ सेक्सुअल हैरेसमेंट के लेबल में दी गई एक साधारण प्रेम की गोली निकलती है। वैसे तो महिलाओं के साथ सेक्सुअल असॉल्ट कोई नया मसला नहीं है, लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ सालों में लड़कियों ने बड़े पैमाने पर घर की दहलीज को अपनी नियति मानने से इनकार कर बाहर की दुनिया में अपनी हिस्सेदारी करनी शुरू की है, सैक्सुअल हैरेसमेंट का दायरा काफी फैल गया है। इस बदली हुई सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक स्थिति का श्रेय बाजार लेता है और कहता है उसने लड़कियों को पुराने खांचे से लिबरेट किया है। स्त्रियों के इस ‘बंधे हुए लिबरेशन’ का लाभ भी पुरूषों को मिला है क्योंकि वे ही बाजार के बड़े खिलाड़ी हैं और उसे ऑपरेट करते हैं। सविता सिंह की कविता है ‘अच्छा है मुक्त हो रही हैं स्त्रियां, मिल सकेंगी स्वच्छंद संभोग के लिए।’

कहनान होगा कि पुरूषों की इस मानसिकता की वजह से वर्किंग प्लेस स्त्री उत्पीड़न के नए जोन बन गए हैं। साथ ही यह एक बड़े मुद्दे के रूप में उभरा है। जाहिर यह विषय एक फिल्मकार के रूप में आपसे ज्यादा होमवर्क, रिसर्च, विजन और संवेदनशील स्त्री आंख की मांग करता है। वैसे भी इस विषय पर बन रही फिल्म से उम्मीद भी ज्यादा होती है। तब तो और ज्यादा जब इसे बनाने वाले ’ये वो मंजिल तो नहीं’, ‘इस रात की सुबह नहीं’ और ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ जैसी फिल्म बनाने वाले सुधीर मिश्रा हों। पर इस विषय के फिल्मकार से जो अनकहीं मांगे हैं निर्देशक के रूप में सुधीर मिश्रा उसे पूरा करने में असफल रहते हैं। 

फिल्मशुरू होती है नायिका के अपने बॉस पर लगाए गए बोल्ड और साहसिक सैक्सुअल हैरेसमेंट के इल्जाम की सुनवाई से। सुनवाई के विभिन्न हर्फों से कहानी की विभिन्न शाखाएं फूटती हैं। विभिन्न कोणों से वह अलग-अलग भी नजर आती है पर नजरिये के फर्क से कहानी बदल सकती है पलट नहीं सकती, जैसा कि निर्देशक दिखाता है। फिल्मकार असल में अपने नायक के साथ खड़ा नजर आता है। यह फिल्मकार की पुरूष मानसिकता भी है और अपने नायक को डिफेंड करने और डिग्रेस होने से बचाने की निर्देशकीय मजबूरी भी।

हालांकिफिल्मकार अपने तई और हमारे समाज के एक तबके के मुताबिक स्त्रीवादी भी है। लेकिन फिल्मकार के स्त्रीवाद की सीमा भी है। वह वेश्यावृति को लीगलाइज करने को महिला अधिकार मानते हैं और इसे पेशे के चुनाव की आजादी से जोड़ के देखते हैं। फिल्म में नायक सरेआम इतनी बार और इतनी तरह से नायिका के कैरियर बनाने का श्रेय लेता है आपको कोफ्त हो सकती है। मानों उसने मिट्टी के पुतले में जान फूंका हो या नायिका की अपनी कोई प्रतिभा ही नहीं। 

एकस्तर पर यह फिल्म अपनी मातहत लड़की कर्मचारी या प्रेमिका के कद्दावर होने से हर्ट हुए मेल ईगो की कहानी लगती है तो एक लेवल पर अपने बॉस को यूज कर आगे बढ़ने वाले लड़की की। लड़की चूंकि अपने बॉस के साथ पहले सो चुकी है इसलिए वह ‘आगे क्या हैरेसमेंट करेगा’ के तर्क से कहानी आगे बढ़ती है और हम पाते हैं कि असल में यह एक कॉरपोरेट हाउस के पावर स्ट्रगल की कहानी है। फिल्म इस निष्कर्ष पर थोड़ा सा ठहरती हुई आगे बढ़ती है और अंत में आपको पता चलता है कि असल में ‘दो लड़ने वाले लड़के-लडकी की यह लड़ाई असल में प्यार है’ के पुराने फार्मूले का मामला है जिसे सूत्रबद्ध करते अभिनेता-निर्माता आमिर ने अपनी फिल्म ‘डेल्ही बेल्ही’ में ‘आई हेट यू, लाइक आई लव यू’ का नाम दे दिया था। 

इसतरह फिल्म अपने ढलान को पहुंचती है कि फिल्मकार सहसा याद आता है कि वह अपने तई नारीवादी है सो वह नायिका को ‘तुम मर्द...’.जैसे दो-एक डायलॉग दे देता है और कुछेक लड़कियों की कुछेक तालियां बटोरने की कोशिश करता है लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी होती है। पुराने-नए सभी किस्म के दर्शक ऊब चुके होते हैं। फिल्म यहां भी खत्म की जा सकती थी पर फिल्मकार को अपने नायक की गरिमा की याद आती है। उसे पीछे कई दफा नायक के स्त्री-विरोधी हो जाने को भी बैलेंस करना है सो तब जब नायिका लगभग हार चुकी होती है वह थप्पड़ नुमा रिजाइन मेल करता है और एक साथ नायिका और दर्शकों की निगाह में ऊपर उठ जाता है। 

समाजमें ‘महाजनो येन गतः स पंथा’ का मुहावरा जरूर है पर फिल्म का मुहावरा ‘नायक येन गतः स नायिका पंथा’ है। सो नायिका भी नायक के नक्शेकदम पर निकल पड़ती है। दृश्य तो नहीं पर फिल्म के क्लाइमेक्स पर बज रहा गीत संकेत करता है कि दोनों मिलेंगे। वे इसी के लिए बने हैं। सैक्सुअल हैरेसमेंट का अभियोग तो असल में उनके प्रेम की एक परीक्षा ही थी जो वे कभी अपने मन से और थोड़ा औरों के हाथों यूज होकर दे रहे थे। हो गई सेक्सुअल हैरेसमेंट पर आधारित फिल्म की प्रेममय परिणति। 


उमाशंकर पत्रकार भी हैं और कहानीकार भी. 
 आज-कल फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिख रहे हैं.
 इनसे uma.change@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं


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