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सरोकारी सिनेमा का सफल उत्सव : आठवां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल

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Manoj Kumar Singh
मनोज कुमार सिंह
-मनोज कुमार सिंह

"...संजय काक ने कहा कि "कई चीजों के बारे में मुख्यधारा की सिनेमा में एक जो चुप्पी है, डाक्यूमेंटरी फिल्मों ने उसे तोड़ा है। हमारी दिलचस्पी इसमें है कि हम जो दिखा रहे हैं, लोग उसके बारे में सोचें और समझें।" उन्होंने कहा कि फिल्म निर्माण के क्षेत्र में पूंजी के प्रवाह को समझना जरूरी है। जो लोग 15-20 करोड़ लगाते हैं, वे कोई रिस्क नहीं ले सकते।..."

 

झारखंड से कश्मीर तक जनता के संघर्षो का सच दिखाया फिल्मों ने  

ठवां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल, जो प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का 29 वां आयोजन था, इस मायने में खास रहा कि यह सिनेमा की राजनीति की समझ को बढ़ाने में कामयाब रहा। फेस्टिवल की शुरुआत प्रो. रामकृष्णमणि त्रिपाठी सभागार (गोकुल अतिथि भवन) में चर्चित डाक्यूमेंटरी फिल्मकार संजय काक की नई फिल्म ‘माटी के लाल’ के प्रदर्शन से हुई, जिसमें बस्तर, उड़ीसा और पंजाब में गैरबराबरी और अन्याय के खिलाफ लोहा लेती जनता के संघर्षों और परिवर्तन की उनकी उम्मीद से दर्शकों का साक्षात्कार कराया गया है और उन्हें जनता की एक बड़ी लड़ाई से जुड़ने के लिए प्रेरित किया गया है।

इसकेपहले फेस्टिवल के उद्घाटन सत्र में संजय काक ने कहा कि जनविरोधी शक्तियां कितनी भी शक्तिशाली हों, हम उनके खिलाफ लड़ाई में डटे हुए हैं, हम उस लड़ाई से हटने वाले नहीं हैं। हम ऐसी फिल्में बनाते हैं, जो लोगों के जेहन में रहें। ‘जश्ने आजादी’ एक जटिल मुद्दे पर बनाई गई फिल्म थी, अब जो कश्मीर के अंधेरे पर थोड़ी रोशनी पड़ रही है, उसमें कहीं न कहीं उस फिल्म की भी भूमिका है।
22 से 24 फरवरी को आयोजित इस तीनदिवसीय फिल्म फेस्टिवल के दूसरे दिन प्रेस से मुलाकात के दौरान भी संजय काक ने कहा कि "कई चीजों के बारे में मुख्यधारा की सिनेमा में एक जो चुप्पी है, डाक्यूमेंटरी फिल्मों ने उसे तोड़ा है। हमारी दिलचस्पी इसमें है कि हम जो दिखा रहे हैं, लोग उसके बारे में सोचें और समझें।" उन्होंने कहा कि फिल्म निर्माण के क्षेत्र में पूंजी के प्रवाह को समझना जरूरी है। जो लोग 15-20 करोड़ लगाते हैं, वे कोई रिस्क नहीं ले सकते। अगर हम इस तरह फिल्में बनाएंगे तो उसमें प्रतिरोध का वह नजरिया नहीं रहेगा, जो हमारी डाक्यूमेंटरी फिल्मों में होता है। बॉलीवुड का सिनेमा सिर्फ नए-नए स्वाद और सनसनी की तरह किसी विषय को उठाता है। मसलन कभी वहां अपराध की दुनिया और 'भाई' थे, बाद में वह बदला और आतंकवाद की दुनिया आ गई। कश्मीर भी वहां उसी रूप में आया, जिसमें खुद कश्मीरियों का अपना नजरिया कहीं नहीं था। समानांतर सिनेमा के बारे में एक सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि समानांतर सिनेमा लगभग खत्म हो गया है। अब जिसे बॉलीवुड में ‘कुछ हट के’ बनाई गई फिल्में कहा जाता है, वो भी बॉलीवुड की व्यवस्था का हिस्सा हैं। इसके विपरीत वैकल्पिक राजनैतिक सिनेमा का भविष्य काफी बेहतर लग रहा है। महिला प्रश्नों पर भी इस धारा के फिल्मकारों ने काफी महत्वपूर्ण काम किया है।" शिलांग से आए फिल्मकार-संपादक तरुण भारतीय का कहना था कि मुख्यधारा अपने आप में एक विचारधारा है। वहां तो अपने भीतर का डर सबसे ज्यादा सेंसर का काम करता है। किस विषय को लोग पसंद नहीं करेंगे, फिल्मकार पहले ही सोच लेते हैं। लेकिन राजनीतिक फिल्मकारों ने कई ऐसे विषयों को पकड़ा, जिन्हें मुख्यधारा के फिल्मकार नहीं उठाते। राजनीतिक फिल्में बनाना आसान है, पर राजनीतिक तरीके से बनाना बहुत कठिन है। हम राजनीतिक तरीके से फिल्में बनाने की कोशिश कर रहे हैं और जब तक वैकल्पिक राजनीति है, तब तक वैकल्पिक सिनेमा का खात्मा नहीं हो सकता।

‘सच्चाई का सच’: सिनेमा को देखने के तरीके पर विचारोत्तेजक संवाद

फेस्टिवलके दूसरे दिन तरुण भारतीय ने डाक्यूमेंटरी फॉर्म के प्रयोग और दुरुपयोग पर दर्शकों की समझदारी को उन्नत करने वाली एक बेहद महत्वपूर्ण प्रस्तुति दी। ‘सच्चाई का सच’ नामक प्रस्तुति में उन्होंने डाक्यूमेंटरी के प्रति बनी इस आम धारणा को तोड़ा कि वे हमेशा सच की ही दास्तान होती हैं। किस तरह जनता को जल, जंगल, जमीन पर उनके अधिकार से बेदखल करने के लिए उनका उत्पीड़न-दमन और हत्या करने वाली कंपनियां डाक्यूमेंटरी का इस्तेमाल अपनी विश्वसनीयता का कायम करने के लिए करती रही हैं, इस सच से तरुण भारतीय ने दर्शकों को रूबरू कराया। पहले उन्होंने एक आदिवासी तीरंदाज लड़की पर केंद्रित एक छोटी सी डाक्यूमेंटरी फिल्म दिखाई और फिर बताया कि किस तरह टाटा स्टील ने अपने प्रचार के लिए उस वक्त इसका इस्तेमाल किया, जब सिंगूर और कलिंगनगर में उसके द्वारा लोगों पर जुल्म किए जा रहे थे।

फिल्मकारऔर दर्शकों के बीच संवाद के दौरान सच की कई परतें खुलती गईं, दर्शकों ने भी अपनी समझ और अनुभवों को बांटा। तरुण ने दो मशहूर फीचर फिल्मों के अंशों के जरिए बताया कि फीचर फिल्मों में भी सच्चाई हो सकती है और यथार्थ को विश्वसनीयता के साथ निर्मित किया जा सकता है। इसलिए यह मानकर डाक्यूमेंटरी फिल्मों को नहीं देखा जाना चाहिए कि उसमें हमेशा यथार्थ ही दिखाया जाता है। दर्शकों को हमेशा शक करना चाहिए। भ्रष्टाचार और दमन के लिए कुख्यात कंपनियां क्यों डाक्यूमेंटरी का इस्तेमाल करती हैं, इसके बारे सोचना जरूरी है। उन्होंने लुजियाना स्टोरी नामक एक पुरानी डाक्यूमेंटरी का अंश दिखाते हुए बताया कि इस फिल्म को देखने के बाद लगता है कि तेल निकालने वाले दोस्त भी हो सकते हैं। इस फिल्म में प्रोड्यूसर का कहीं जिक्र नहीं है, पर तथ्य यह है कि इसे बनाने के लिए फिल्मकार को धन स्टैंडर्ड आॅयल कंपनी ने दिया था।

इसप्रस्तुति के दौरान स्त्री सशक्तीकरण पर आईआईएमसी के छात्रों द्वारा बनाई गई एक डाक्यूमेंटरी के अंत में वेदांता जैसी कंपनी के नाम को देखकर दर्शक चैंके और तुरत उड़ीसा में इस कंपनी के विरोध में चल रहे आंदोलनों का संदर्भ फिल्मकार और दर्शकों की जुबान पर आ गया। फिर यह समझ बनी कि किसी भी फिल्म, डाक्यूमेंटरी या न्यूज चैनल पर आंख मूंदकर भरोसा करना उचित नहीं, क्योंकि वे सच्चाई नहीं, बल्कि अपना नजरिया पेश करते हैं। इस कारण हर चीज को सवालिया निगाह से देखना जरूरी है। एक दर्शक ने स्वाइन फ्लू के नाम पर आतंकित करके मास्क बेचने के कारोबार और दूसरी ओर इन्सेफ्लाइटिस जैसी गंभीर बीमारी के प्रति शासन-प्रशासन की संवेदनहीनता के संदर्भ को सामने रखा, तो दूसरे दर्शक ने फिल्म स्टारों और एनजीओ द्वारा कारपोरेट कंपनियों के हित में काम करने का आरोप लगाया। तीसरे दर्शक ने सवाल उठाया कि जब सबकुछ छद्म है तो विश्वास किस पर किया जाए?

तरुण भारतीय ने कहा कि अविश्वास का उल्टा विश्वास नहीं होता, बल्कि अविश्वास का उल्टा सवाल पूछने वाले लोग हैं। सवाल पूछने का रास्ता कठिन और लंबा है। पर यह जरूरी है क्योंकि हम झूठ पर लंबा जी नहीं सकते। मोहभंग और सवालों से डरना नहीं चाहिए। 

मॉडरेटर संजय काक ने कहा कि हम अविश्वास से नहीं अंधविश्वास से कतराते हैं। जब मैंने अपने पिता को कश्मीर की खबरों के बारे में कई बार कहा कि उन पर आप विश्वास न करें, तो वे बिगड़ गए, पर सच तो यही है कि दिल्ली के अखबारों के जरिए कश्मीर की खबरें नहीं जानी जा सकतीं। उन्होंने एक फिल्म अभिनेता से जुड़ी घटना बताते हुए कहा कि वे अपने लाव-लश्कर के साथ एक आंदोलन के समर्थन में आए, पर उस आंदोलन ने एक शीतल पेय कंपनी के विरोध की अपनी वजहों से अवगत कराया तो वे झूठ बोल गए कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं है कि उस कंपनी की वजह से किसान ताबाह हो रहे हैं। बाद में वह अभिनेता एक विज्ञापन में यह कहते हुए दिखे कि वे वह शीतल पेय इसलिए पीते हैं कि उस पर उनका विश्वास है।
संजयकाक ने कहा कि हम जिस माहौल में है वहां तकलीफ झेलकर भी सवाल उठाने होंगे। धार्मिक अंधविश्वास के खिलाफ जैसे लोग लड़ते थे, उसी तरह मीडिया के अंधविश्वास के खिलाफ भी लड़ना होगा।


‘यह कठपुतली कौन नचावे’: आस्कर अवार्ड्स की राजनीति पर किताब

फेस्टिवलके उद्घाटन सत्र में बलिया के लेखक-प्राध्यापक रामजी तिवारी की पुस्तक ‘आस्कर अवाड्र्स: यह कठपुतली कौन नचावे’ का लोकार्पण हुआ। इस पुस्तक में लेखक ने यह दिखाया है कि ऑस्कर अवाड्र्स प्रायः अमेरिकी राजनीतिक-आर्थिक हितों के लिहाज से संचालित रहे हैं और उसके सांस्कृतिक वर्चस्व का एक जरिया रहे हैं, जबकि जिन फिल्मों को वहां से जब पुरस्कृत किया गया, उसी दौर में दुनिया में एक से एक बड़े फिल्मकारों ने महान फिल्में बनाई। यह किताब यह भी दिखाती है कि किस तरह आस्कर अवार्डेड फिल्में अमेरिकी साम्राज्यवाद के बर्बर युद्ध सैन्यनीति और उसके जरिए की गई जन हत्याओं के मामले में चुप्पी साधे रही हैं। यह पुस्तक प्रतिरोध का सिनेमा के अभियान के तहत ही द गु्रप और जसम द्वारा प्रकाशित की गई है और आस्कर अवार्ड के बारे में आंख खोल देने वाले कई तथ्यों से पाठकों को अवगत कराती है।

दमन और प्रतिरोध के कई दास्तानों से रू ब रू हुए दर्शक

फेस्टिवलमें दूसरे दिन की शुरुआत तपन सिन्हा निर्देशित बहुचर्चित फिल्म ‘एक डॉक्टर की मौत’ से हुई, जो मौजूदा तंत्र में प्रतिभाओं के उत्पीड़न के यथार्थ को दिखाती है। एक डॉक्टर जो कोढ़ का इलाज विकसित कर लेता है, किस तरह नौकरशाही से प्रताडि़त होकर भारत छोड़कर दूसरी जगह काम करने के प्रस्ताव को मंजूर कर लेता है, इस फिल्म में यह दिखाया गया। 

बीजू टोपोनिर्देशित फिल्म ‘प्रतिरोध’ ने रांची के निकट नगड़ी गांव में जमीन के लिए चल रहे आंदोलन से दर्शकों को रूबरू कराया। एक ओर अमोल, अनुराग, अर्पिता, अवधूत और श्वेता निर्देशित ‘भारत माता की जय’ में मुंबई के मिल मजदूरों के इलाके में स्थित एकल परदे वाले भारत माता सिनेमा हाॅल से जुुड़ी कहानियों के जरिए दर्शक मजदूरों के संस्कृति और जीवन से गुजरे तो दूसरी ओर लखनऊ फिल्म सोसाइटी और जन संस्कृति मंच की ओर से बनाई गई फिल्म ‘अतश’ में वे शायर तश्ना आलमी से मिले। ‘अतश’ के निर्देशक अवनीश सिंह हैं और प्रोड्यूसर बीएस. कटियार हैं। आजादी’ और ‘लोकतन्त्र’ के मायने किसी कश्मीरी के लिए क्या होते हैं, आमिर बशीर निर्देशित फिल्म ‘हारुद’ इस सवाल से वाबस्ता थी। इस फिल्म ने दर्शकों को काफी संवेदित किया। 

फिल्मों में पुराने श्वेत-श्याम फिल्मों के फुटेज के इस्तेमाल तथा उनके संग्रहण और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाने वाली दिलचस्प प्रस्तुति थी ‘खोया पाया फुटेज’, जिसे अमेरिका से आई फिल्म स्काॅलर ललिथा गोपालन ने पेश किया।

तीसरेदिन की शुरुआत बच्चों की फिल्म ‘गट्टू’ से हुई। उसके बाद विश्वप्रसिद्ध निर्देशक रॉबर्ट ब्रेस्सों की क्लासिक फिल्म ‘मुशेत’ दिखाई गई, जिसने पितृसत्तात्मक परिवार और समाज में एक स्त्री की त्रासद जिंदगी के यथार्थ को दर्शाया। आठवां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल स्त्री संघर्ष और स्त्री मुक्ति के नाम समर्पित था। स्त्रियों की मुक्ति और बराबरी के संघर्ष के प्रति शुरू से ही प्रतिरोध का सिनेमा अभियान अपनी एकजुटता जाहिर करता रहा है। इस बार फेस्टिवल में प्रतिरोध का सिनेमा अभियान और जन संस्कृति मंच से जुड़े फोटोग्राफर विजय कुमार की कैमरा डायरी ‘दिसंबर 16’ और इमरान द्वारा दिल्ली गैंगरेप के बाद के आंदोलन के विडियो का कोलाज ‘रोड टू फ्रीडम’ दिखाया गया, जो महिलाओं के संघर्ष और प्रतिरोध के प्रति इस अभियान की प्रतिबद्धता को जाहिर करता है। 

साहित्यऔर सिनेमा के परस्पर रिश्ते की झलक भी प्रतिरोध का सिनेमा आयोजन के दौरान दिखती रही है, चाहे भाषा और क्षेत्र कोई भी हो, पर जीवन की मुश्किलों और संघर्ष की समानता उन पात्रों से आम दर्शकों को बड़ी सहजता से जोडती है। पंजाबी के विख्यात उपन्यासकार गुरदयाल सिंह के उपन्यास ‘अन्हे घोरे दा दान’ पर इसी नाम से बनाई गई फिल्म को देखना दर्शकों के लिए खास अनुभव था। 2012 में प्रदर्शित गुरविंदर सिंह निर्देशित यह फिल्म झूमते सरसों के खेतों और हवेलियों वाली बॉलीवुडिया छवि के विपरीत जातिवाद के जहर से जूझते पंजाब के गांवों के छोटे और दलित किसानों की व्यथा-कथा को आवाज देती है। 

नई दुनिया का स्वप्न देखने वाले शायर को अली सरदार जाफरी को याद किया गया

तीन दिवसीय आठवें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के आखिर में उर्दू के तरक्कीपसंद शायर अली सरदार जाफरी की जन्मशताब्दी पर डॉ. अजीज अहमद ने उनकी नज्मों को प्र्रस्तुत किया। भारत प्रगतिशील साहित्य-संस्कृति और मिली जुली तहजीब को ताकत प्रदान करने वाली उनकी अदबी शख्सियत के बारे में भी बताया गया।

किताबों की खरीद और कविता पोस्टरों का अवलोकन 

आयोजन स्थल पर लेनिन पुस्तक केंद्र, गोरखपुर फिल्म सोसाइटी, गार्गी प्रकाशन की ओर से किताबों और फिल्मों के सीडी के स्टॉल भी दर्शकों का आकर्षण थे। आरिफ अजीज लेनिन की स्मृति में एक गैलरी बनाई गई थी, जिसमें कविता-चित्र प्रदर्शनी लगाई गई थी। फेस्टिवल के दौरान गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के पूर्व अध्यक्ष प्रो. राममणि कृष्ण त्रिपाठी और संस्थापक सदस्य आरिफ अजीज लेनिन की स्मृति में एक मिनट का मौन रखा गया।

इस फिल्म फेस्टिवल में जर्मनी के फिल्मकार मैक्स क्रामर और दक्षिण भारत के फिल्मकार आर.बी.रमणी भी मौजूद थे। प्रतिरोध का सिनेमा अभियान को और व्यापक और शक्तिशाली बनाने के संदर्भ में आयोजकों और दर्शकों के बीच उत्साहजनक बातचीत के साथ आठवां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल संपन्न हुआ। आठवें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के संयोजक चंद्रभूषण अंकुर थे।


मनोज  गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संयोजक हैं.

manojkumar.singh.96@facebook.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

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