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मायने निदा फ़ाज़ली के

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-अभिनव श्रीवास्तव

"...ऐसे समय में निदा फ़ाज़ली को समझना खुद उन्हीं के शब्दों में ‘आवाजों के बाजारों में खामोशी’ को पहचानने जैसा है। इसी खामोशी के भीतर निदा फ़ाज़ली की ग़ज़लें और उनकी नज़्में पूरी ऊर्जा, हिम्मत और ताज़गी के साथ बोलती हुयी नज़र आती हैं..."

तस्वीर veethi.com से साभार

निदा फ़ाज़ली हमारे बीच नहीं रहे, यूं उनका गुजरना एक घटना भर नहीं है, लेकिन इस भागती-दौड़ती ज़िन्दगी में ये खतरा बराबर बना रहता है कि उनके जैसे शायर की मौत को भी हम आयी-गयी ख़बरों का हिस्सा भर मान लें। जाहिर है कि कोई भी समाज अपने बीच रहने वाले कवियों, शायरों और कलाकरों के चले जाने का मर्म तभी समझ पाता है, जब हम उनकी मौत को सिर्फ एक घटना की तरह न लें, बल्कि हमारे भीतर उन्हें ‘खोने’ का एहसास हो। 
निदा फ़ाज़ली के रूप में हमनें क्या खोया है, ये जानना आज जितना मुश्किल है, उतना ही जरूरी भी। मुश्किल इसलिये क्योंकि गुजरते सालों में हमनें ख़ास तौर पर शायरों का इस्तेमाल महज अपनी बातों में तड़का लगाने भर के लिये किया है। हमें उनकी विचार द्रष्टि और चिंतन से कोई सरोकार नहीं रहा। शायद लोकप्रियता की इस चाह में कई ऐसे शायर और कवि भी आये, जिन्होंने बेहिचक खुद को चिंतनविहीन और विचारविहीन कहा। ऐसे समय में निदा फ़ाज़ली को समझना खुद उन्हीं के शब्दों में ‘आवाजों के बाजारों में खामोशी’ को पहचानने जैसा है। इसी खामोशी के भीतर निदा फ़ाज़ली की ग़ज़लें और उनकी नज़्में पूरी ऊर्जा, हिम्मत और ताज़गी के साथ बोलती हुयी नज़र आती हैं।
निस्संदेह, उनकी गज़लों और नज्मों में जिस स्तर की सहजता और गहराई साथ-साथ दिखायी देती है, वह बहुत दुर्लभ है। अपने बेतकल्लुफ़ अंदाज़ और उसके सादेपन से कई बार वे हमारी कल्पनशीलता को इतना आसानी से छूकर चले जाते हैं कि जीवन की ऊंची-नीची राहों में उनके अशआर हमसे बातें करते हुये नज़र आते हैं, लेकिन शायद निदा की रचनाओं की परवाज इससे कहीं ऊंची थी, उसका जादू और प्रभाव कहीं अधिक व्यापक था।
निदा की सबसे बड़ी ख़ासियत उनकी ग़ज़लों और नज्मों में दिखायी देने वाली हिंदुस्तानी विचार द्रष्टि थी, इस चलते उनके काम में जो सोंधापन आया, वह हमें बरबस भक्तिकाल के कवियों की दार्शनिक गहराई की याद दिला देता था। निदा हिंदुस्तानी विचार की छाया में बड़े हुये शायर थे और अपनी इस समझ को जाहिर करने में वे कभी हिचकिचाये नहीं। अपनी नज़्म ‘एक लुटी हुयी बस्ती की कहानी’ में उन्होंने बहुत साफगोई और सशक्त अंदाज में लिखा-
ख़ुदा की हिफाज़त की खातिर, पुलिस ने पुजारी के मंदिर में मुल्ला की मस्जिद में पहरा लगाया..ख़ुदा इन मकानों में लेकिन कहां था..सुलगते मुहल्ले की दीवारों-दर में..वही जल रहा था, जहां तक धुंआ था..
दरअसल यही द्रढ़ता उर्दू शायरी की दुनिया में उनको एक अलग मुकाम देती है, इस द्रढ़ता के चलते ही वे साल 1996 में मुम्बई में हुये रमेश किणी हत्याकांड के बाद शिव सेना के खिलाफ बहादुरी से लड़ने वाली उनकी पत्नी शीला किणी के लिये नज़्म लिखते हुये बतौर शायर ख़ुद को भी कटघरे में खड़ा करने से नहीं चूके। उनकी इस नज़्म में गुस्सा भी झलकता है और एक आह्वाहन भी..
ये सच है जब तुम्हारे कपड़े भरी महफ़िल में छीने जा रहे थे..उस तमाशे का तमाशाई मैं भी था और मैं चुप था..मेरी खामोशी मेरे ज़ुर्म की जिन्दा शहादत है..मैं उनके साथ था जो जुल्म को ईजाद करते हैं..मैं उनके साथ हूं जो हंसती गाती बस्तियों को बर्बाद करते हैं..
आख़िर खुद को कटघरे में खड़ा करने का ये नैतिक बल निदा में कहां से आता है? ये कुछ और नहीं अपने चिंतन के प्रति उनकी ईमानदारी और समर्पण के चलते ही था। इस समर्पण ने उनकी शायरी को प्रगतिशील मूल्यों के रंग में रंगा, इसी रंग के चलते उनकी ‘सहर’ में ‘धुंधलकों से झगड़ने’ की हिम्मत आ पाती है। बावजूद इसके निदा के लेखन में कोई सपाटपन या इकहरापन नहीं आता। बाजार और शहरी जीवन मूल्यों के अंर्तविरोधों को उकेरते हुये वे हमें बार-बार ज़िन्दगी के फलसफे से परिचित तो करवाते हैं, लेकिन निराश नहीं होने देते। सपने और बेहतर समाज की उम्मीदें उनकी रचनाओं के भीतर बराबर जिंदा रहते हैं। इसी जिंदादिली और उम्मीद ने उनसे एक वियतनामी जोड़े की तस्वीर के लिये ये ख़ूबसूरत नज़्म लिखवायी-


तस्वीर online-instagram.com से साभार
आओ, हम-तुम
इस सुलगती खामोशी में
रास्ते की
सहमी-सहमी तीरगी में
अपने बाजू, अपनी सीने, अपनी आँखें
फड़फड़ाते होंठ
चलती-फिरती टाँगें
चाँद के अन्धे गड्ढे में छोड़ जायें
कल
इन्हीं बैसाखियों पर बोझ साधे
सैकड़ों जख़्मों से चकनाचूर सूरज
लड़खड़ाता,
टूटता
मजबूर सूरज
रात की घाटी से बाहर आ सकेगा
उजली किरणों से नई दुनिया रचेगा
आओ
हम !
तुम !




वास्तव में, निदा फ़ाज़ली ने अपने समय के यथार्थ को बहुत गहराई और फैलाव के साथ समझते भी रहे और उसे अपने सादे और सरल अंदाज से साधते भी रहे। वे शायरी की उस प्रगतिशील परंपरा के आख़िरी शायर थे, जिनमें लुटी हुयी बस्तियों से लेकर पर्वतों पर सोने वाली हवाओं और जर्रा-जर्रा बिखरते सूरज का जिक्र मिलता है। उनकी मौत से उर्दू जुबान और हिंदुस्तानी परंपरा की शायरी की उम्र कुछ कम जरूर हो गयी है।

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