आखिर ऐसा क्या था जाजोर पहाड़ के अधिग्रहण में कि शिपात खान गोविन्दगढ़ तहरीक को दोहराने की चेतावनी दे रहे थे. अलवर-तिजारा-जयपुर रोड पर किथूर गांव के पास अरावली श्रंखला का महत्वपूर्ण पहाड़ है जजोर. यह पहाड़ 12 किमी लम्बा और पांच किमी चौड़ा है. 13 ग्राम पंचायतों के 42 गांव इसकी सीमा से लगे हुए हैं. इन गांवों में 65000 की आबादी रहती है. यह पहाड़ सीधे तौर पर उनकी आजीविका से जुड़ा हुआ है. DRDO को यहां 850 हैक्टेयर भूमि मिशाइल भण्डारण के लिए आवंटित की गई है. आवंटन की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा किया गया है.
शाम के साढ़े सात बज रहे हैं. मेवात किसान पंचायत के अध्यक्ष शिपात खान मैनेजर जजोर गांव में सभा को संबोधित करने वाले हैं.
पिछले पांच दिन से पैदल यात्रा कर रहे 50 किसान और उतने ही गांव के लोग इस सभा में जुटे हुए हैं.
बूढ़े लोग खाटों पर बैठे हुए हैं. मेरी नजर तीन फीट चौड़ी और छह फीट लम्बी चारपाई पर पड़ती है. मैं गिनना शुरू करता हूँ. उस चारपाई पर कुल जमा 11 लोग लदे हुए थे.
अंधेरा ढल चुका है. हर थोड़े से वक्त में भीड़ के किसी कोने से सलाई जुगनू की तरह जलती है और बीड़ी के भीतर समा जाती है.
सलाई जितनी देर तक जलती है, बीड़ी सुलगाने वाला चेहरा रोशनी के मैले से पीलेपन के साथ दिखाई पड़ता है और अगले ही पल सुलगती और धुआं छोड़ती छोटी सी नारंगी बिंदी में तब्दील हो जाता. बीच-बीच में दाहिने हाथ की चारपाई से हुक्के की गुड़गुड़ाहट तक़रीर का हिस्सा बन रही थी.
मौलाना हनीफ़ की तक़रीर के बाद शिपात खान अपनी तक़रीर शुरू करते हैं. अलवर के 12 किलोमीटर लम्बे और पांच किलोमीटर चौड़े पहाड़ को राष्ट्रीय रक्षा अनुसंधान संगठन (DRDO) को अपने मिसाइल कार्यक्रम के लिए आवंटित किया गया है.
यह पदयात्रा इसी आवंटन के खिलाफ है. कल माने 18 अक्टूबर को यह यात्रा पहाड़ा गांव में जा कर खत्म होने वाली है.
शिपात खान कल की रैली में सबको आने का आग्रह करते हुए अपनी तक़रीर इन शब्दों के साथ समाप्त करते हैं...
"इन पहाड़ों को बचाने के लिए यह तो लड़ाई की शुरुआत भर है. हमें पूरा भरोसा है कि हम अदलिया के ज़रिए इंसाफ हासिल करेंगे. लेकिन हम हमारे जंगल और पहाड़ों के लिए किसी भी हद्द तक जाने के लिए तैयार हैं. गोविन्दगढ़ तहरीक और नीमूचाणा तहरीक की यादें आपके ज़ेहन में अब भी होंगी."
शिपात खान की तक़रीर में आए शब्द "गोविन्दगढ़ तहरीक और नीमूचाणा तहरीक"मुझे यहां के किसान आन्दोलन की जड़ों तक ले गए.
किसान आन्दोलन की जड़ें
20वीं सदी की शुरुआत में जब अलवर का उलवर रियासत हुआ करता था. यहां महाराजा जयसिंह का राज था.
महाराजा जयसिंह ने 1910 से ही किसानों पर कर्ज का बोझ लादना शुरू किया. 1925 में महाराजा ने अचानक लैंड रेवन्यू में पचास फीसदी का इज़ाफा कर दिया.
इसके चलते किसानों ने विद्रोह कर दिया.
14 मई 1925 को नीमूचाणा नाम की जगह पर हो रही किसानों की सभा को अलवर राज के सैनिकों ने घेर कर गोलियां दागनी शुरू कर दीं.
इस घटना में सैंकड़ों लोगों की जान गई.
महात्मा गांधी ने उस समय इस घटना को जलियावाला बाग से भी वीभत्स करार दिया था.
इस सभा में हालांकि मेव मुस्लिम भी शामिल थे पर मारे जाने वाले किसानों में बड़ा हिस्सा राजपूतों का था.
महाराजा जयसिंह शुरुवात से ही हिन्दू महासभा के हिमायती रहे. आर्य समाज के पहली पंक्ति के नेताओं के साथ इनका सम्पर्क बना हुआ था.
आर्यसमाज को भी मलकाना के बाद शुद्धि आन्दोलन के लिए नई ज़मीन की ज़रुरत थी. राजपूताना में अलवर और भरतपुर रियासतों ने हिन्दू महासभा और आर्यसमाज को पर्याप्त संरक्षण दिया.
राजपरिवार की शह पर यहां के मुस्लिम जाटों, गुर्जरों और राजपूतों का शुद्धिकरण शुरू हो चुका था. नीमूचाणा की घटना के बाद महाराजा की छवि हिन्दू विरोधी शासक की बनने लगी थी.
इसके चलते उन्होंने मेव मुसलमानों को निशाना बनाना शुरू किया.
19 शताब्दी के अंत तक भरतपुर और अलवर की रियासतों में मुसलमानों को बड़े प्रशासनिक ओहदे हासिल थे.
महाराजा ने प्रशासन का हिन्दूकरण शुरू किया. स्कूल में उर्दू की जगह हिंदी में पढ़ाई शुरू करवाई गई.
इधर पूरे इलाके में कृषि संकट गहराता जा रहा था. मेवात के इलाके में सूखा पड़ना बहुत सामान्य घटना थी. किसान लगातार कर्जे में डूबने लगे.
महाजनी कर प्रणाली के तहत स्थानीय बनियों की तरफ से 60 फ़ीसदी सालाना की दर से ब्याज वसूला जाता.
नतीजतन हालत ये बने कि मेवों की 40 फीसदी जमीन बनियों के पास रेहन पर चली गई. 1916 की पंजाब सरकार की सालाना प्रशासनिक रिपोर्ट में मेवों की माली हालत का ब्यौरा कुछ इस तरह से दिया गया था-
"The condition of the Meos is rapidly becoming hopeless. They live so literally from hand to mouth, carelessly contracting debt for marriages, funerals and petty luxuries even in average years that when a year of drought comes they are thrown on the moneylender who can make with them what terms he likes."
महाराजा जय सिंह और भरतपुर के जाट राजा किशन सिंह ने सोची समझी रणनीति के तहत सदियों से चले आ रहे इलाके के भाईचारे को ध्वस्त करना शुरू किया ताकि रियासत में बढ़ रहे कृषि संकट से किसानों का ध्यान हटाया जा सके.
इन हालातों में जब एक तरफ शुद्धिकरण चल रहा था. प्रशासन के द्वारा मेवों से रिश्वत वसूली जा रही थी.
1932 में महाराजा जय सिंह ने लेवी में चार गुणा बढ़ोत्तरी कर दी. इसके अलावा तम्बाकू पर अलग से कर लगाना शुरू कर दिया. इस घटना ने मेवों के बढ़ते असंतोष को विस्फोटक मोड़ पर पहुंचा दिया.
मेवों ने लेवी देने से इनकार कर दिया. हालांकि उनके पास इनके अलावा कोई और विकल्प बचा भी नहीं था.
इसके अलवा उन्होंने बनियों को भी कर्ज लौटाने से इंकार कर दिया.
पेशे से वकील यासीन खान के नेतृत्व मेव किसान आन्दोलन की शुरुवात हो गई. जनवरी 1933 को गोविन्दगढ़ में हज़ारों की तादाद में मेव इक्कठा हुए.
महाराजा के सिपाहियों ने यहां भी नीमूचाणा की तर्ज पर सभा का घेराव करके गोली दागना शुरू कर दिया.
इसमें सैंकड़ों मेवों को जान गवानी पड़ी. इस घटना के ठीक बाद महाराजा ने मेव बाहुल्य वाली चार निजमातों रामगढ़,लक्ष्मणगढ़, किशनगढ़ और तिजारा में मार्शल लॉ लगा दिया. इससे स्थितिया बेकाबू हो गई.
मेवों ने सशस्त्र विद्रोह शुरू कर दिया. इस निजमातों में बनियों की दुकानों को लूटा गया. उनकी पत्रियों को आग लगा दी गई.
एक महीने के अंत तक चारों निजमातों पर मेवों का कब्ज़ा हो गया. बनियों के आर्थिक शोषण के खिलाफ शुरू हुए इस हिंसक विद्रोह ने सांप्रदायिक रंग ले लिया.
मंदिरों को तोड़ा जाने लगा. हिन्दू महासभा ने अलवर के महाराजा से अपील करते हुए कहा, "रधु के वंशज राजा को हिन्दू जनता को मेव राक्षसों से बचाना होगा."
उत्तरी अलवर में स्थितियां इतनी बिगड़ी कि ब्रिटिश हकुमत को हस्तक्षेप करना पड़ा.
मई 1933 में महाराजा को राजनीतिक निर्वासन के तहत लन्दन जाना पड़ा. वो एक निर्वासित राजा कि मौत मरे.
इस घटना की न्यायिक जांच के लिए कमिटी बनाई गई जिसने राजा को दोषी पाया.
क्या है जजोर?
आखिर ऐसा क्या था जजोर पहाड़ के अधिग्रहण में कि शिपात खान गोविन्दगढ़ तहरीक को दोहराने की चेतावनी दे रहे थे.
अलवर-तिजारा-जयपुर रोड पर किथूर गांव के पास अरावली श्रंखला का महत्वपूर्ण पहाड़ है जजोर.
यह पहाड़ 12 किमी लम्बा और पांच किमी चौड़ा है. 13 ग्राम पंचायतों के 42 गांव इसकी सीमा से लगे हुए हैं.
इन गांवों में 65000 की आबादी रहती है. यह पहाड़ सीधे तौर पर उनकी आजीविका से जुड़ा हुआ है.
DRDO को यहां 850 हैक्टेयर भूमि मिशाइल भण्डारण के लिए आवंटित की गई है. आवंटन की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा किया गया है.
पूरा मामला
मामले की शुरुवात होती है 1 जनवरी 2010 से. रक्षा मंत्रायल की तरफ से अलवर में अपनी किसी परियोजना के लिए 850 हैक्टेयर भूमि के आवंटन के लिए प्रथम पत्र भेजा गया.
प्रारभिक कार्यवाही के बाद अलवर प्रसाशान ने ग्राम पंचायत कीथूर और महरमपुर के अनापत्ति पत्र पर्यावरण मंत्रालय को भेज दिए गए.
इन अनापत्ति पत्रों के आधार पर पर्यावरण मंत्रालय ने 17 जून 2011 को पहले स्टेज की स्वीकृति जारी कर दी.
प्रथम स्टेज की स्वीकृति के लिए जरुरी शर्तों के लिए वनाधिकार कानून की अनुपालना के समस्त दावों का निपटारा करने का प्रावधान शामिल है.
इस वजह से उप वन संरक्षक किशनगढ़ बास ने 25 मई 2013 को एसडीएम किशनगढ़ बास को ग्राम पंचायत कीथूर और महरमपुर में ग्राम सभा आयोजित करवा कर प्रस्ताव भेजने का आग्रह किया.
माने पर्यावरण मंत्रालय की प्रथम स्टेज की स्वीकृति के लगभग दो साल बाद इस प्रसाशन के फर्जीवाड़े का पता ग्राम पंचायतों को लगा.
सूचना के अधिकार से पता लगा कि जिस दिन प्रशासन ग्राम पंचायत के आयोजन और पंचायतों द्वारा अनापत्ति पत्र जारी किए जाने की बात कह रहा है, उस दिन वहां किसी ग्राम सभा का आयोजन ही नहीं हुआ था.
ऐसी किसी कार्यवाही का ब्यौरा पंचायत के रजिस्टर में दर्ज नहीं है. इस बाबत ग्राम पंचायत कीथूर ने 30 मई 2013 को फर्जी अनापत्ति पत्र जारी करने की शिकायत कलेक्टर को दर्ज करवाई गई.
इस सरासर फर्जीवाड़े के बाद भी प्रशासन अपनी चाल पर अड़ा रहा. जिला प्रसाशन ने दूसरी स्टेज की स्वीकृति के लिए भेजे गए दस्तावेजों में फिर ये यही प्रक्रिया अपनाई गई. इन दस्तावेजों में ग्राम पंचायत महरमपुर की तरफ से 21 अगस्त 2013 और कीथूर की तरफ से 20 सितम्बर 2013 को नए सिरे से ग्राम सभा बुला कर सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करने के दस्तावेज संलग्न किए गए थे.
जबकि पंचायत के रजिस्टर में ऐसी किसी सभा का जिक्र तक नहीं है. प्रसाशन की तरफ से बेशर्मी के साथ की जा रही जालसाजी से साफ़ है कि इस परियोजना के पक्ष में ऊपर के स्तर से कितना बड़ा दबाव काम कर रहा है.
और सभी वनाधिकार बर्खास्त कर दिए गए....
सम्वत् 2001 माने सन 1944 तक के रेवन्यू रिकॉर्ड में यह पहाड़ शामिलाती भूमि के रूप में दर्ज है. अरावली के पहाड़ स्थानीय जलवायु के सन्दर्भ में बेहद महत्वपूर्ण हैं.
इसके चलते उच्चतम न्यायलय के निर्देश पर 1992 में अरावली नोटिफिकेशन जारी किया गया. इस नोटिफिकेशन को आधार बनाकर 1999 में अलवर जिले के लिए पर्यावरणीय मास्टर प्लान बनाया गया.
26 अगस्त 2011 में राजस्थान सरकार अधिसूचना जारी कर इस मास्टर प्लान को लागू कर दिया.
इस अधिसूचना के अनुसार कोई भी योजना अगर अलवर जिले में लाई जाती है तो उसे इसी मास्टर प्लान के अनुरूप ही लागू किया जा सकेगा. मास्टर प्लान के अनुसार अलवर में पांच किस्म की जमीनों को संरक्षित किया गया है.
गैर मुमकिन पहाड़, गैर मुमकिन राडा, गैर मुमकिन बीड, बंजर और रूंध.
मास्टर प्लान में पहाड़ों की इकोलॉजी को हो रहे नुक्सान की बात गंभीरता से उठाई गई है. इसमें इको रिस्टोरेशन की प्रक्रिया में तेजी लागे के उपाय सुझाए गए हैं.
माने इस मास्टर प्लान के प्रावधानों के अनुसार पहाड़ों का किसी भी परियोजना के लिए अधिग्रहण गैर कानूनी है.
देश भर में जंगल और ज़मीन के लड़ाई लड़ रहे लोगों के लिए वनाधिकार कानून 2006 बहुत बड़ा हथियार साबित हुआ है. इन 13 ग्राम पंचायतों के 65000 लोगों को भी जजोर के पहाड़ पर वनाधिकार प्राप्त है.
18 अप्रैल 2013 को नियमगिरि खनन परियोजना के मामले में उच्चतम न्यायलय ने ऐतिहासिक फैसला दिया. इस फैसले ने जल,जंगल और ज़मीन के सम्बन्ध में तमाम निर्णय की शक्ति ग्राम सभा के हाथ में दे दी गई.
मेवात किसान पंचायत और उप वन संरक्षक किशनगढ़ बास के बीच 15 अगस्त 2015 को संपन्न हुई वार्ता में उप वन संरक्षक ने माना कि जजोर पहाड़ से सटे दर्जनों गांव इस पहाड़ से लघु वन उपज लेते आए हैं.
साथ यह वन हज़ारों की तादाद में मवेशियों और अन्य पालतू जानवरों के लिए चारागाह का काम करता है. शमालाती भूमि की वजह से यहां के लोगों के वनाधिकारों का संरक्षण किया जाना चाहिए.
इसके अलावा राजस्थान सरकार का भूमि अधिग्रहण सम्बंधित कानून 'RIGHT TO FAIR COMPELSATION AND TRANSPARECY IN LAND ACQUISITION, REHABILITION AND RESETTLEMENT ACT 2013'अप्रैल 2014 से लागू है.
जजोर पहाड़ का आवंटन केंद्र सरकार के पत्र दिनांक 24/05/2014 और राज्य सरकार के पत्र दिनांक 24/07/2014 व 27/8/2014 के आधार पर किया गया. इस तरह यह आवंटन इस नए कानून के दायरे में आता है. नए कानून के मुताबिक किसी परियोजना की स्वीकृति के लिए सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का आंकलन करना जरुरी है.
जिला प्रसाशन ने इस कानून को ताक पर रख कर इस आवंटन के पक्ष में दस्तावेज पर्यावरण मंत्रालय को सौंप दिए. इसके बारे में अलवर प्रशासन की सफाई यह है कि उन्हें मालूम ही नहीं है कि DRDO पहाड़ के ऊपर कर क्या रहा है? ऐसी स्थिति में इस किस्म के आंकलन को अंजाम नहीं दिया जा सकता.