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एक यादगार दोस्त की याद

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-आनंद स्वरूप वर्मा
"..दिल में एक बार फिर से वे सारी सरगर्मियां शुरू हो गयी हैं जो सात साल के लंबे पतझड़ के पत्तों में ग़़र्क हो गयी थीं। तुम अगर कभी सीलन भरे जंगल में गए हो तो तुमने पतझड़ के पत्तों को उनके ज़र्द रंगों में मिट्टी होते देखा होगा। मेरे सपनों को मन के अंधेरे में सच्चाई का मुंतजिर और फिर कराहों में बिखरते हुए तुमने देखा था। अब मैं अपनी हथेलियों को फूलों सा हल्का महसूस करता हूं जो उम्मीद की नयी धूप में रक्ताभ संगीत की चमक और थिरक से भरी हैं..."

यह सवाल कई बार मन में पैदा होता है कि स्मृति सभाओं का औचित्य क्या है? क्या किसी के दिवंगत हो जाने के बाद उसे याद करने की औपचारिकता का ही नाम स्मृति सभा है? क्या यह औपचारिकता जरूरी है? इसका मकसद क्या है? होना यह चाहिए कि मृत व्यक्ति के कार्यों के बहाने हम उस काल खंड का विश्लेषण करें जिसमें उसने एक सक्रिय जीवन बिताया और अपने सामाजिक सरोकारों को किसी मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश की। 
पंकज सिंह के संदर्भ में मैं यही चाहुंगा कि उनके कई दशकों के सक्रिय जीवन के दौरान याद करें कि उस काल खंड में समाज के अंदर किस तरह के राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल हुए और उनका उनके कृतित्व पर क्या असर पड़ा। उन्होंने किस तरह सामाजिक धड़कनों को अपनी रचनाओं में स्थान दिया और कैसे उनका जीवन भी उन घटनाओं से निर्देशित या संचालित होता रहा। 
पंकज सिंह से मेरा परिचय 1971 के आसपास हुआ था। उन्हीं दिनों देश के अलग-अलग हिस्सों से काम की तलाश में मेरे जैसे बहुत सारे युवक दिल्ली आकर बस गए थे। मेरे संपर्क में जो लोग थे उनमें मंगलेश डबराल, त्रिनेत्र जोशी, इब्बार रब्बी, अजय सिंह, सुरेश सलिल, पंकज सिंह आदि जैसे बहुत सारे कवि, कथाकार, पत्रकार आदि थे। 
हम सबकी आंखों में एक सपना था और आजीविका के लिए जद्दोजहद के साथ साथ हम सामाजिक बदलाव में अपनी भूमिका निर्धारित करने के मकसद से अलग-अलग मोर्चों पर भी जूझ रहे थे। बेशक, हम सभी रोजगार की तलाश में आए थे और अलग-अलग जगहों पर या तो नौकरियां कर रहे थे या तलाश रहे थे लेकिन चेतना के स्तर पर एक सामूहिक लक्ष्य हम सबके दिमाग में था। हमारे कुछ आदर्श थे और उन आदर्शों को हासिल करने के लिए हमारे अंदर एक ईमानदार सी बेचैनी भी थी। 
ध्यान दीजिए कि यह 70 का दशक था जो भारतीय राजनीति के लिए बहुत उथल-पुथल भरा था। 1967 में पश्चिम बंगाल की नक्सलबाड़ी में एक किसान क्रांति हुई थी जिसने समूची वामपंथी राजनीति में हलचल पैदा कर दी थी। श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में उस समय की सरकार ने इस आंदोलन के दमन के लिए हर तरीके अपनाए। इन सबके बावजूद 1967 से लेकर 1972 के अंत तक यह आंदोलन उभार पर रहा। 1969 में उस कांग्रेस का विभाजन हो गया जो 1947 से ही सत्ता पर काबिज थी। 
श्रीमती गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर और देशी रजवाड़ों के प्रिवी पर्स समाप्त कर वाहवाही लूटी थी। श्रीमती गांधी ने गरीबों की हितैषी की अपनी छवि को खूब भुनाया। मेरे जैसे ढेर सारे युवकों को हैरानी होती थी कि वही सरकार जिसने नक्सलबाड़ी में किसानों के और इसके समर्थन में खड़े हुए पश्चिम बंगाल के युवकों के दमन में हर घृृणित तरीके का इस्तेमाल किया है वह कैसे गरीबों की पक्षधर हो सकती है! अगर देखें तो यह दशक उस मोह भंग का दशक था जो आजादी के बाद से ही पल रहा था। 
हमारी रचनाओं में इन अंतर्विरोधों की अभिव्यक्ति बहुत कारगर ढंग से हो रही थी। पंकज की कविताएं भी इसी पृष्ठभूमि में आकार ले रही थीं। आश्चर्य नहीं कि दिल्ली की हमारी इस मित्रमंडली के एक अन्य सदस्य आलोकधन्वा ने अपनी कुछ महत्वपूर्ण कविताओं में अत्यंत सशक्त ढंग से उन स्थितियों का चित्रण किया। आलोकधन्वा पटना में रहते थे लेकिन प्रायः दिल्ली आते रहते और हमलोगों के साथ उनकी निरंतर बैठकें होती रहतीं। मुझे वह दृश्य नहीं भूलता जब मोहन सिंह प्लेस के एक रेस्टोरेण्ट में हम लोगों के बीच आलोक ने अपनी बुलंद आवाज में अपनी दो कविताएं ‘जनता का आदमी’ और ‘गोली दागो पोस्टर’ का पाठ किया और रेस्टोरेण्ट के बाहर सुनने वाले मंत्रमुग्ध श्रोताओं की अच्छी खासी भीड़ इकट्ठा हो गयी।
आलोकधन्वा की ‘जनता का आदमी’ एक लंबी कविता थी जिसकी शुरुआत से ही लोग दहल उठते थे। यहां मैं प्रारंभिक कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगाः-
‘बर्फ काटने वाली मशीन से आदमी काटने वाली मशीन तक
कौंधती हुई अमानवीय चमक के विरुद्ध
जलते हुए गांवों के बीच से गुजरती है मेरी कविता
तेज आग और नुकीली चीखों के साथ 
जली हुई औरत के पास 
सबसे पहले पहुंचती है मेरी कविता
जबकि ऐसा करते हुए मेरी कविता
जगह-जगह से जल जाती है 
और वे आज भी कविता का इस्तेमाल मुर्दा गाड़ी की तरह कर रहे हैं
शब्दों के फेफड़ों में नए मुहावरों का ऑक्सीजन भर रहे हैं 
लेकिन जो कर्फ्यू के भीतर पैदा हुआ
जिसकी सांस लू की तरह गर्म है 
उस नौजवान खान मजदूर के मन में
एक बिल्कुल नयी बंदूक की तरह याद आती है मेरी कविता
जब कविता के वंचित प्रदेश में 
मैं एकबारगी कई करोड़ आदमियों के साथ घुसा
तो उन तमाम कवियों को
मेरा आना एक अश्लील उत्पात सा लगा
जो केवल अपनी सुविधा के लिए 
अफीम के पानी में अगले रविवार को चुरा लेना चाहते थे
अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है
भाषा और लय के बिना केवल अर्थ में 
उस गर्भवती औरत के साथ 
जिसकी नाभी में सिर्फ इसलिए गोली मार दी गयी
कि कहीं एक ईमानदार आदमी पैदा न हो जाए’
इसी तरह ‘गोली दागो पोस्टर’ की अंतिम पंक्तियां दिमाग पर हथौड़े की तरह असर करती हैः
‘जिस जमीन पर 
मैं अभी बैठकर लिख रहा हूं
जिस जमीन पर मैं चलता हूं 
जिस जमीन को मैं जोतता हूं
जिस जमीन में मैं बीज बोता हूं और
जिस जमीन से अन्न निकाल कर मैं
गोदामों तक ढोता हूं
उस जमीन के लिए गोली दागने का अधिकार
मुझे है या उन दोगले जमींदारों को जो पूरे देश को
सूदखोर का कुत्ता बना देना चाहते हैं...
यह कविता नहीं है 
यह गोली दागने की समझ है 
जो तमाम कलम चलाने वालों को 
तमाम हल चलाने वालों से मिल रही है’ 


बेचैनी का यह आलम हिन्दी में ही नहीं बल्कि बांग्ला, तेलुगु, पंजाबी आदि में लिखने वाले रचनाकारों के अंदर भी दिखायी देता था। हम लोगों का संपर्क इन भाषाओं के साथ भी बहुत जीवंत किस्म का था। बांग्ला की कविताएं कंचन कुमार के माध्यम से हम तक पहुंचती थी जिन्होंने पहले ‘मराल’ और बाद में ‘आमुख’ का संपादन किया। मुझे याद है कि किस तरह पंजाब से अमरजीत चंदन और अवतार सिंह ‘पाश’ प्रायः दिल्ली आते और एकाधिक बार मॉडल टाउन के उस छोटे से कमरे में हमलोगों की बैठकें जमतीं जिसमें मंगलेश डबराल और त्रिनेत्र जोशी रह रहे थे। कम लोगों को पता है कि पंजाब की क्रांतिकारी कविताओं का संकलन करने में पंकज सिंह ने विशेष दिलचस्पी ली और उसने चंदन, पाश, सुरजीत पातर, लाल सिंह दिल, दर्शन खटकड़ आदि की कविताओं का बहुत ही खूबसूरत अनुवाद किया। वे सारे अनुवाद आज कहां बिखरे हैं मुझे ठीक पता नहीं। लेकिन कुछ अनुवाद बाद में ‘भंगिमा’ में प्रकाशित हुए जिसका संपादन डॉ. लाल बहादुर वर्मा गोरखपुर से कर रहे थे।
मेरे जैसे बहुत सारे लोगों का पंजाबी कविता से परिचय इन रचनाओं के माध्यम से ही हुआ। बाद में तो पाश की कविताएं हिंदी में बेहद लोकप्रिय हुईं।
उस समय के लेखकों की पीढ़ी को नक्सलबाड़ी के संघर्ष ने जिस हद तक प्रभावित किया था वैसा प्रभाव बाद के किसी आंदोलन का देखने को नहीं मिला। आंध्र प्रदेश में उन्हीं दिनों ‘विप्लवी रचयितालु संगम’ नाम से एक साहित्यिक संगठन की स्थापना हुई जिसे संक्षेप में ‘विरसम’, नाम से लोग जानते हैं। इस संगठन की स्थापना के पीछे मुख्य रूप से श्री श्री की भूमिका थी जो तेलुगु के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि थे। वैसे तो श्री श्री विशुद्ध जनवादी धारा के कवि थे लेकिन बुर्जुआ क्षेत्र में भी उन्हें काफी लोकप्रियता हासिल थी। उनके कुछ गीत तेलुगु फिल्मों में लिए गए थे और इन फिल्मों की वजह से भी उन्हें काफी लोकप्रियता मिली थी। विरसम के अन्य सदस्यों में ज्वालामुखी, एम.टी.खान, निखिलेश्वर, वरवर राव, चेरबंड राजु आदि थे जिनसे हमलोगों का जीवंत संपर्क था। हिन्दी के वरिष्ठ लेखकों में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना उन विरल लोगों में थे जो बराबर इस धारा के प्रति दिलचस्पी रखते थे और गाहे-बगाहे ‘दिनमान’ के अपने बहुचर्चित स्तंभ ‘चरचे और चरखे’ में इसका उल्लेख करते थे। कहना न होगा कि पंजाबी से लेकर तेलुगु तक के साहित्य का यह जो वृत्तांत मैं बता रहा हंू इनके साथ पंकज सिंह का एक अभिन्न संबंध था और आज जब उनके जीवन के बारे में मैं याद करता हूं तो उस काल खंड की सारी तस्वीरें अनायास आंखों के सामने घूम जाती हैं। सर्वेश्वर जी बंगाली मार्केट में और पंकज सिंह त्रिवेणी कलाकेंद्र के सामने गोमती गेस्ट हाउस में रहते थे। यह उस समय की बात है जब इमरजेंसी के बाद जे.एन.यू से उनका निष्कासन हो चुका था और उन्हें पेरियार छात्रावास खाली करना पड़ा था। मंडी हाउस में शाम को हम सब कभी त्रिवेणी तो कभी श्रीराम सेंटर के सामने मिलते और देश दुनिया के हालात पर लंबी चर्चाएं होतीं।
1974 में मैं आकाशवाणी से निकाल दिया गया। मेरे निष्कासन की प्रक्रिया कई चरणों में चली। मुझे जब निकाले जाने का नोटिस मिलता तो वहां आंदोलन शुरू हो जाता और जब टेक्निकल स्टॉफ भी आंदोलन में शामिल होकर ब्लैक आउट की धमकी देता तो मुझे फिर एक्सटेंशन दे दिया जाता। यह अधिक समय तक नहीं चल सका और 1974 में अंततः मुझे निकाल ही दिया गया। मेरे निष्कासन के बाद और इससे पहले भी अनेक अखबारों ने इस मसले पर टिप्पणियां प्रकाशित की थीं और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने तो ‘दिनमान’ में पूरे दो पृष्ठ की टिप्पणी प्रकाशित की थी। मेरे निष्कासन के विरोध में एक हस्ताक्षर अभियान चला जिसकी कमान पंकज सिंह ने संभाल रखी थी। हस्ताक्षर अभियान का ड्राफ्ट तैयार करने से लेकर जे.एन.यू. और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों-अध्यापकों, लेखकों, पत्रकारों आदि के हस्ताक्षर जुटाने का सारा काम उन्होंने खुद किया। उस ड्राफ्ट पर 350 से ज्यादा लोगों ने हस्ताक्षर किए थे।
दरअसल 1974 का वर्ष आपातकाल से पहले का वर्ष था और बहुत साफ तौर पर आने वाले दिनों की आहट सुनायी पड़ने लगी थी। अप्रैल 1974 में जॉर्ज फर्नांडिज के नेतृत्व में रेलकर्मियों की ऐतिहासिक हड़ताल हुई थी जिसने इंदिरा गांधी के शासन तंत्र को हिला दिया था। उन्हीं दिनों इंदिरा गांधी की तानाशाही को लक्षित करते हुए पंकज सिंह की एक कविता प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक था ‘साम्राज्ञी आ रही है’। उस दौर की लिखी जा रही राजनीतिक कविताओं में इस कविता का बहुत महत्व है। इस कविता से पंकज सिंह की कविताओं में आए एक बदलाव की भी आहट सुनायी देने लगी थी। इसकी कुछ पंक्तियां गौर करने लायक हैंः
‘साम्राज्ञी का रथ तुम्हारी अंतड़ियों से गुजरेगा
रथ गुजरेगा तुम्हारी आत्मा की कराह और शोक से
तुम्हारे सपनों की हरियालियां रौंदता हुआ
रथ गुजरेगा रंगीन झरनों और पताकाओं की ऊब-डूब में
संभल कर, अपनी मुर्दनी और आक्रामक मुद्रा को 
मीठी रसीली स्वागत भंगिमाओं में छिपाते हुए
स्वतंत्रता की इस दोगली बहार में
झुक जाओ भद्र भाइयो 
साम्राज्ञी आ रही है’। 


1981 में अत्यंत चर्चित नक्सलवादी नेता नागभूषण पटनायक की कुछ समय के लिए पेरोल पर रिहाई की चर्चा चली। वह तकरीबन 10 साल से आंध्र प्रदेश में विशाखापटट्नम की जेल में बंद थे। वह पार्वतीपुरम षडयंत्र मामले के अभियुक्तों में से एक थे और उन्हें निचली अदालत से मौत की सजा मिली थी। उनके परिवारजनों ने और उनके वकील ने राष्ट्रपति के नाम जब एक दया याचिका भेजी तो नागभूषण ने इसका विरोध किया और कहा कि वह ऐसी सरकार से दया की अपील नहीं करेंगे जिसने देश के उत्पीड़ित किसानों-मजदूरों को अपने जुल्म का शिकार बनाया है। अपने वकील आर.के.गर्ग के नाम उन्होंने एक लंबा पत्र लिखा और बताया कि क्यों वह दया की भीख मांगने की बजाय फांसी पर झूल जाना पसंद करेंगे। 
1982 में जेल के अंदर उनका स्वास्थ्य काफी खराब हो गया और जब अधिकारियों को लगा कि शायद जेल में ही उनका निधन हो जाए तो उन्होंने सरकार से अनुरोध किया कि नागभूषण का इलाज कराया जाए। बहरहाल 1982 के मध्य में नागभूषण पटनायक ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल सांइसेज, दिल्ली में इलाज के लिए लाए गए। उनके आने की खबर हमलोगों को और दिल्ली के बहुत सारे वामपंथियों एवं मानव अधिकारकर्मियों को लगी और जिस समय उनकी ट्रेन निजामुद्दीन स्टेशन पर आने वाली थी भारी संख्या में लोग स्टेशन पहुंचे। वहां पहुंचने पर पता चला कि समूचे स्टेशन क्षेत्र को एक छोटी-मोटी सैनिक छावनी का रूप दे दिया गया है। 
चारों तरफ सशस्त्र पुलिस और अर्द्धसैनिक बल के दस्ते तैनात थे। नागभूषण पटनायक की हालत ऐसी थी कि वह अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हो सकते थे, उन्हें स्ट्रेचर पर लिटा कर एम्बुलेंस तक पहुंचाया गया और फिर पुलिस की गाड़ियों के बीच उनकी गाड़ी एम्स तक पहुंची। उस दिन विचारधारा की ताकत का सबको अहसास हुआ। पहली बार लगा कि व्यक्तियों से ज्यादा शक्तिशाली विचारधारा होती है। एम्स में भी उन्हें छठी मंजिल पर रखा गया था और उनसे कोई भी नहीं मिल सकता था। 
जिन दिनों इलाज चल रहा था उन्हीं दिनों अदालत से उनकी पेरोल पर रिहाई का फैसला आया और इलाज के बाद उन्हें हमलोग पश्चिमी दिल्ली में कीर्तिनगर के पास डी.प्रेमपति के घर लाए। वहां कुछ दिन रहकर उन्होंने स्वास्थ्य लाभ किया। उन्हीं दिनों पंकज सिंह ने उनका एक लंबा इंटरव्यू लिया और उनकी कुछ कविताओं के अनुवाद किए। कविताओं का अनुवाद उसी समय ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ में प्रकाशित हुआ और कुछ दिनों बाद वह इंटरव्यू भी प्रकाशित हुआ। 
1987 में पंकज सिंह ने बीबीसी की नौकरी ज्वाइन कर ली और लंदन चले गए। लंदन प्रवास के दौरान बीबीसी में रहते हुए उन्होंने नेपाल पर जो प्रसारण किए उनकी वजह से आज भी नेपाल के अंदर उनको जानने और सम्मान करने वाले लोगों की अच्छी खासी संख्या है। दरअसल यह वह दौर था जब नेपाल में राजतंत्र के खिलाफ और खास तौर पर पंचायती शासन प्रणाली के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन चल रहा था और जनता बहुदलीय प्रजातंत्र की मांग कर रही थी। 
1990 के अंत में उसका यह आंदोलन सफल हुआ और 30 वर्षों से चली आ रही पंचायती व्यवस्था समाप्त हुई तथा संवैधानिक राजतंत्र और बहुदलीय लोकतंत्र के युग में नेपाल ने प्रवेश किया। उस दौरान नेपाल पर केंद्रित बीबीसी के अधिकांश कार्यक्रमों के प्रोड्यूसर पंकज सिंह थे और उन्होंने जनता के पक्ष में तथा राजतंत्र के खिलाफ जिस तरह की खबरें और रपटें प्रसारित कीं उनसे वहां पंकज की अत्यंत जनपक्षीय तस्वीर लोगों के दिल में घर कर गयी। पंकज के निधन से उन लोगों को भी काफी दुख हुआ। 
1992 में बाबरी मस्जिद ध्वस्त किए जाने का हादसा हुआ। यह घटना 6 दिसंबर को हुई थी। हमलोगों के मित्र राजेश जोशी उन दिनों ‘जनसत्ता’ के संपादकीय विभाग में कार्यरत थे। उन्होंने मुझसे सलाह की कि क्यों न हमलोग ज्यादा से ज्यादा संख्या में दिल्ली से बुद्धिजीवियों की एक टीम लेकर लखनऊ जाएं और बाबरी मस्जिद गिराए जाने के विरोध में वहां कोई कार्यक्रम लें। 
आनन-फानन में इस प्रस्ताव को अमली रूप देने की कार्रवाई शुरू हुई और दस दिनों के अंदर हमारी एक टीम लखनऊ पहुंच गयी थी। इस टीम में अनेक लेखक, पत्रकार, रंगकर्मी और मानव अधिकार संगठनों से जुड़े लोग थे। इस टीम में राजेन्द्र यादव और सुरेन्द्र प्रताप सिंह से लेकर नयी पीढ़ी के बहुत सारे साहित्यकार थे। पंकज सिंह उनमें से एक थे। लखनऊ के बुद्धिजीवी मित्रों ने हमारी मेजबानी की और हमने वहां के मुख्य बाजार हजरतगंज से शुरू करते हुए कई प्रमुख इलाकों से गुजरते हुए एक जुलूस निकाला जो आगे जाकर सभा में तब्दील हो गया। 
यह बेहद सफल और सामयिक कार्यक्रम था। इस कार्यक्रम को सफल बनाने में जिन अनेक साथियों ने योगदान किया उनमें पंकज सिंह का महत्वपूर्ण ढंग से उल्लेख किया जा सकता है।
पंकज मूलतः एक कवि थे लेकिन एक पत्रकार के रूप में उनकी रचनात्मक सक्रियता काफी रही। कुछ वर्षों तक अनेक प्रमुख अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने लगभग नियमित तौर पर कला समीक्षा लिखी। उनका पहला काव्य संकलन ‘आहटें आसपास’ 1981 में प्रकाशित हुआ और इसके बाद दो या तीन संकलन और भी प्रकाशित हुए। 
देखा जाय तो अपने समकालीनों की तुलना में उन्होंने कविताएं कम ही लिखी हैं। शैली की दृष्टि से उनका गद्य भी उल्लेखनीय था हालांकि उनके लेखों का कोई संकलन सामने नहीं आया। मेरे पास उनके ढेर सारे पत्र हैं और उन पत्रों की भाषा भी कविता पढ़ने का सुख देती है। 26 जून 1979 को पेरिस से उन्होंने मुझे एक लंबा पत्र लिखा था जिसकी कुछ पंक्तियां साझा करना चाहूंगा-‘...दिल्ली से चला तो इतना थका था कि नेहरू विश्वविद्यालय की रोशनियों को देखने के तुरत बाद जहाज में आंखें बंद होने लगी। 
प्यास लगी थी सो जहाज के एक अधिकारी से पानी मंगवाकर पिया और सो गया। यह एक अजीब सी नींद थी जिसमें भविष्य, वर्तमान और अतीत हजारों फीट की ऊंचाई पर मेरे बदरंग सपनों में गड्डमड्ड हो रहे थे... यह तुमसे बेहतर कौन जानता है कि मेरी हंसी और मेरे आंसुओं के रंग क्या हैं-और कैसे मेरे वजूद में कहीं बहुत गहरे समय बिल्कुल स्थिर हो गया है-या इतना गतिमान कि उसकी गति मेरे मन की ग्रहणशीलता के बहुत पार है-जहां सब कुछ उदास रंगों के एक भूमिसात संसार में बंद है-सारे स्वर, शब्द, गंध, स्पर्श, रंग और चेहरे...’। 
लंबे समय तक बेरोजगार रहने के बाद 1977 में उन्हें जयपुर विश्वविद्यालय में एक नौकरी मिली थी लेकिन यह नौकरी उनकी स्वच्छंद प्रकृति के बिल्कुल अनुकूल नहीं थी। 20 अगस्त 1977 को उन्होंने जयपुर से एक पत्र लिखा-‘...इलाहाबाद की सड़कों पर पतझड़ के सूखे पत्तों पर, झमाझम बारिश में भीगते भटकने की बहुत सारी यादें मुझे अब तक नॉस्टेलजिक कर देती हैं। युवा वर्षों की उदास शामों का, अनगिनत जागने की रातों का साक्षी वह शहर रहा है। मैं फिर कब आ रहा हूं यह निश्चित नहीं। आर्थिक अभावग्रस्तता चल रही है। 
नौकरी सिर्फ यह सुविधा देती है कि अपनी आजादी के बदले पाए गए करेंसी नोटों को अपने हाथ से खर्च करते हुए लगातार तबाही और बर्बादी का अहसास किया जाए।’ एक दूसरे पत्र में उन्होंने लिखा-‘...एक विचित्र सी जड़ता के भीतर ज्वारों सी उठती बेचैनी है जिसमें मैं जी रहा हूं। यहां नौकरी करने की जो मेरी यातना है उसमें जितनी स्थानीय स्थितियां जिम्मेदार हैं उतनी ही मेरे भावनात्मक अतीत का जहर। 
चूंकि यहां आकर अचानक बहुत अकेला हो गया इसलिए वे सारी यादें, बिना किसी अपराध के पायी गयी क्रूरताएं और अमानवीयताएं एक-एक कर मेरे एकांत में प्र्रेतों सी उतरती हैं जिनसे तुम लोंगों के मध्य रहते हुए काफी हद तक उबरा महसूस करता था। ...विज्ञापन बांटने का काम उलझनों भरा है। आज दोपहर को एक स्थानीय गुंडा पत्रकार घुमा-फिरा कर धमकियां दे गया है। बुरी बात तो यह है कि चाहे जितना क्रोध आए किसी गुंडे को मार नहीं सकता। उत्तेजना तो बहुत हुई पर मैंने खुद को किसी तरह शांत कर लिया... लिखना-पढ़ना खटाई में पड़ा है। जेब खाली है। अक्सर लगता है दिल्ली की फकीरी ज्यादा अच्छी थी।’ 
ऊपर से चट्टान की तरह सख्त दिखायी देने वाला पंकज अंदर से कहीं बहुत कोमल और भावुक था। मैंने उसे फूट-फूट कर रोते हुए भी देखा है। पंकज के ढेर सारे पत्रों में उसके जीवन की विभिन्न पीड़ाओं को अभिव्यक्ति मिली है और उन पत्रों को देखने से एक-दूसरे ही पंकज सिंह की छवि बनती है। उन पत्रों को पढ़कर मन उदास और बोझिल हो जाता है। हां, केवल एक पत्र ऐसा है जो उल्लास के लम्हों में लिखा गया है और जिसे पढ़ते समय मुझे भी सचमुच बहुत राहत महसूस हुई थी। 
यह पत्र भी अगस्त 1979 में पेरिस से लिखा गया था। पत्र लंबा है, अलग-अलग तारीखों में कई किस्तों में लिखा गया है जिसकी कुछ पंक्तियां- 
‘दिल में एक बार फिर से वे सारी सरगर्मियां शुरू हो गयी हैं जो सात साल के लंबे पतझड़ के पत्तों में ग़़र्क हो गयी थीं। तुम अगर कभी सीलन भरे जंगल में गए हो तो तुमने पतझड़ के पत्तों को उनके ज़र्द रंगों में मिट्टी होते देखा होगा। मेरे सपनों को मन के अंधेरे में सच्चाई का मुंतजिर और फिर कराहों में बिखरते हुए तुमने देखा था। अब मैं अपनी हथेलियों को फूलों सा हल्का महसूस करता हूं जो उम्मीद की नयी धूप में रक्ताभ संगीत की चमक और थिरक से भरी हैं।
... समुद्र तट पर ठंडी रेत में रातें गुजारी हैं, धूप वाले दिनों में ‘भद्र’ सम्पन्न पर्यटकों को चौंकाते हुए सड़कों के किनारे गाता बजाता रहा हूं, दर्जनों नए दोस्त बनाये हैं, कविताएं लिखी हैं, बहसें की हैं, आंखों और दांतों के इलाज के लिए अस्पताल गया हूं, महीने भर फ्रेंच भाषा की कक्षाओं में गया हूं और अच्छी चीजें पढ़ी हैं।
...आनंद, यह अतीत भी क्या चीज है! सबको परेशान करता रहता है। तुम्हें तो फुर्सत ही नहीं होती कि साले अतीत को घास डालो। तुम शानदार आदमी हो, इसीलिए... पैसे-वैसे होते तो सारा शहर लिये आता। मगर अब सिर्फ एक पार्कर पेन तुम्हारे लिए खरीदा है।’ 
जिन्दगी के अनेक हादसों और थपेड़ों से गुजरने वाले इस कवि के अंदर एक अदम्य जिजीविषा और आशावादिता थी। उसका इस बात में पक्का यकीन था कि ‘कभी खत्म नहीं होते आदमी के स्वप्न। मृत्यु के अंधकार में। वे। लगातार। भविष्य की ओर यात्राएं करते हैं।’ ऋत्विक घटक की फिल्मों के प्रशंसक पंकज की कविताओं में उसी आशावाद और नयी दुनिया की झलक मिलती है जो ऋत्विक की हर फिल्मों में उपस्थित है। यह संस्मरण पंकज की कविताओं पर केन्द्रित नहीं है लेकिन उसकी ‘दिखूंगा’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैंः
‘...उठूंगा मैं उम्मीद की अदृश्य भाप सरीखा। 
ऋतुओं की आवाजाही में। चिड़ियों और वृक्षों के संसार में। 
सफ़ेद ख़रगोशों के खेल में।
प्रेमियों और पागलों की सोहबत में। वर्षा के 
संगीत में। हवाओं के हमलावर शोर में।
उस दुस्साहस सरीखा जो जीवन को मृत्यु से बड़ा बनाता है।
जो जीवितों की आत्मा को धब्बों और कोड़ों से 
बचाता है। 
मैं बार-बार दिखूंगा। गली के बच्चों की किसी आदत में 
शरारत में। आवाज बदल कर। किसी दोस्त को 
उसके बचपन में खोये नाम से बुलाऊंगा।
उतरता हुआ नयी बांहों। नये पांवों में।
नयी आंखों के स्वप्न-घर में।’

इसमें कोई संदेह नहीं कि पंकज अनेक विसंगतियों और अंतर्विरोधों के भी शिकार थे। उनके मिजाज में जो अक्खड़पन था उससे भी कइयों को दिक्कत होती थी। उनके बहुत सारे संपर्क ऐसे थे जिन्हें आम तौर पर जनवादी धारा से जुड़े लोग पसंद नहीं करते थे लेकिन इन सबके बावजूद 1970-71 में जिस राजनीतिक विचारधारा के संपर्क में आकर उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत की और जिस मार्क्सवाद-लेनिनवाद को उन्होंने अपने जीवन का आदर्श माना उसे जीवन के अंतिम क्षण तक उन्होंने अपनाए रखा। पिछले कुछ वर्षों से ‘जन हस्तक्षेप’ के साथ उनके जुड़ाव और संगठन के कार्यों में उनकी सक्रियता ने उनकी उन खामियों को भी लगातार कम कर दिया था जिनसे बहुत सारे लोगों को एतराज होता था। उनके जीवन और व्यवहार में एक अनुशासन भी आ गया था। समग्र रूप से कहें तो पंकज का जीवन एक ऐसे कवि और संस्कृतिकर्मी का जीवन था जिसने अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने समय की विसंगतियों, क्रूरताओं और विद्रूपों को अभिव्यक्ति दी तथा जनता के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश की। इसे मैं निश्चित तौर पर एक सार्थक जीवन मानता हूं।

'बया'के ताज़ा अंक (जन.-मार्च) में प्रकाशित


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