-एस. वी. नरायणन
एक लोकतान्त्रिक समाज से धर्म, जाति और लिंग आधारित सामाजिक विभेदों से निपटने के जिम्मेदार तरीके खोज निकालने की अपेक्षा की जाती है।
लेकिन, कोई समाज गैर-बराबरी और भेदभाव से निपटने में लम्बे समय तक अगर लगातार असफल रहे, तो लोकतन्त्र और उसे टिकाने वाली सामाजिक सहमति की बुनियाद हिलने लगती है।
बहरहाल, तथ्य यही है कि संवैधानिक सुरक्षा और सकारात्मक भेदभाव यानी आरक्षण की सरकारी व्यवस्था के बावजूद, हम भारत में बराबरी हासिल करने की मंजिल से कोसों दूर हैं।
उच्च शिक्षा के एक नवीनतम सर्वेक्षण ने, जिसका अस्थाई मसौदा 2012 में जारी हुआ था, एक बार फिर इसकी पुष्टि कर दी है, और जाति व धर्म विभाजित समाज में सामाजिक न्याय के भविष्य पर हमें सोचने के लिए मजबूर कर दिया है।
यह मानव संसाधन मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा आनलाइन कराया गया सर्वेक्षण है, जिसमें 633 (सरकारी व निजी) विश्वविद्यालय, 24,120 कालेज और 6,772 विशिष्ट संस्थाएँ शामिल की गई थीं।
सर्वे के नतीजों से साफ जाहिर है कि 68 साल की आजादी के बाद भी उच्च शिक्षा के शिक्षकों में मुसलमानों, अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों की संख्या उनकी आबादी के अनुपात से काफी कम हैं।
2011 की जनगणना के मुताबिक अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 16.6 फीसदी, अनुसूचित जनजाति की 8.6 फीसदी और मुसलमानों की 14.2 फीसदी है।
पिछडे वर्गों के नवीनतम जनगणना सम्बन्धी आँकड़े अनुपलब्ध हैं, लेकिन 1931 की जनगणना के आधार पर मंडल आयोग ने हिन्दू व गैर-हिन्दू पिछड़े वर्गों की संख्या को देश की जनसंख्या का 52 फीसदी बताया था।
एनएसएसओ की 2006 की रपट में उन्हें जनसंख्या का 41फीसदी बताया गया है। नीचे की तालिका से इन समुदायों की राज्यवार उपस्थिति में मौजूद भारी विविधताओं का पता चलता हैं।
2011 की जनगणना में एस सी/एस टी और मुसलमानों की स्थिति
जैसा इस पाई चार्ट से स्पष्ट है, राष्ट्रय स्तर पर उच्च शिक्षा के शिक्षकों में सवर्ण हिन्दुओं का दबदबा है।
इस सर्वे के अनुसार उच्च शिक्षण संस्थानों के शिक्षकों में एस सी, एस टी, ओबीसी, मुसलमानों और महिलाओं का प्रतिशत इस प्रकार हैः
उच्च शिक्षा में विभिन्न सामाजिक वर्गो के शिक्षकों और महिला शिक्षकों की संख्या (प्रतिशत)
शिक्षकों के लिहाज से उच्च शिक्षा में लैंगिक समानता हासिल करने वाले राज्यों में केवल केरल का नाम लिया जा सकता है, तमिलनाडु और पंजाब दूसरे पायदान पर हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर महिला शिक्षकों का अनुपात 39 फीसदी है, जबकि उसे 50 फीसदी से ज्यादा होना चाहिए था, इनमें एस.सी, एस.टी, ओबीसी और मुसलमान महिलाओं की संख्या तो और भी कम है, जिससे स्पष्ट है कि पितृसत्तात्मक भेदभाव जाति और धर्म के विभाजनों के आरपार सक्रिय हैं।
मुसलमानों का प्रतिनिधित्व महज 3.09 फीसदी है, जो सच्चर कमेटी के उस निष्कर्ष के अनुरूप है, जिसमें भारतीय नौकरशाही में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व महज 2.5 फीसदी बताया गया है।
यहाँ तक कि वर्षों तक ‘‘प्रगतिशील‘‘ राजनीतिक ताकतों के सत्तारूढ़ रहने के बावजूद पश्चिम बंगाल और केरल की उच्च शिक्षा में एस.सी, एस.टी, ओबीसी और मुसलमानों के लिए पर्याप्त अवसर नहीं पैदा हो सके। देश के विकास के लिए माडल बताया जाने वाला गुजरात इस मामले में पूरी तरह फिसड्डी है, वहाँ शिक्षकों में मुसलमानों की संख्या महज 1.18 फीसदी है।
तथाकथित ‘गुजरात माडल‘ व्यवस्थागत भेदभाव की समग्र तस्वीर का उग्र रूप पेश करता है, जहाँ मुसलमान हाशिए पर धकेले जा चुके हैं और ताकतवर जातियों को आरक्षण का दावा ठोकने के लिए पीछे से प्रोत्साहित किया जा रहा है।
उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में, जहाँ ओबीसी ताकतवर हैं, एस.सी, एस.टी और मुसलमानों को हाशिए में डाल दिया गया है।
यह तस्वीर हमें डा. बी. आर. अम्बेडकर की इस चेतावनी की याद दिलाती है कि, गैर-बराबरी की दर्जाबन्दी गैर बराबरी के खिलाफ आम विरोध का विस्तार रोकती है और इसकी परिणति सामाजिक न्याय की क्रान्ति में कभी नहीं हो सकती।
एस.सी, एस.टी, ओबीसी और मुसलमानों के अखिल भारतीय और राज्यवार प्रतिनिधित्व के बीच फर्क गौरतलब हैं।
मसलन, तमिलनाडु में सामाजिक सशक्तीकरण के लिए चले सामाजिक न्याय के आन्दोलन का ज्यादातर लाभ ओबीसी वर्ग को मिला है, इसलिए उच्च शिक्षा में वहाँ ओबीसी शिक्षकों की उपस्थिति 54.47 फीसदी है, लेकिन एस.सी, एस.टी और मुसलमान इस लाभ से वंचित रह गए हैं।
ओबीसी की जनगणना के लिए अगर एनएसएसओ (2006) के आँकड़ों को भी हम आधार बनाएं तो भी यह स्पष्ट है कि प्रतिनिधित्व के मामले में वे तमिलनाडु को छोड़कर देश के हरेक राज्य में पीछे हैं।
कोई अचरज नहीं कि उच्च शिक्षा के छात्रों में भी इन सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व कम है, यहाँ एस.सी छात्र 12.2 फीसदी, एस.टी 4.4 फीसदी, ओबीसी 3.05 फीसदी और मुसलमान महज 3.9 फीसदी हैं। छात्राओं के नामंाकन में प्रगति होने के बावजूद लैंगिक समानता की मंजिल अभी काफी दूर है।
विभिन्न सामाजिक वर्गों और लैंगिक आधार पर छात्रों का प्रतिशत
शिक्षकों के लिहाज से उच्च शिक्षा में लैंगिक समानता हासिल करने वाले राज्यों में केवल केरल का नाम लिया जा सकता है, तमिलनाडु और पंजाब दूसरे पायदान पर हैं। राष्ट्रीय स्तर पर महिला शिक्षकों का अनुपात 39 फीसदी है, जबकि उसे 50 फीसदी से ज्यादा होना चाहिए था, इनमें एस.सी, एस.टी, ओबीसी और मुसलमान महिलाओं की संख्या तो और भी कम है, जिससे स्पष्ट है कि पितृसत्तात्मक भेदभाव जाति और धर्म के विभाजनों के आरपार सक्रिय हैं। मुसलमानों का प्रतिनिधित्व महज 3.09 फीसदी है, जो सच्चर कमेटी के उस निष्कर्ष के अनुरूप है, जिसमें भारतीय नौकरशाही में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व महज 2.5 फीसदी बताया गया है।
यहाँ तक कि वर्षों तक ‘‘प्रगतिशील‘‘ राजनीतिक ताकतों के सत्तारूढ़ रहने के बावजूद पश्चिम बंगाल और केरल की उच्च शिक्षा में एस.सी, एस.टी, ओबीसी और मुसलमानों के लिए पर्याप्त अवसर नहीं पैदा हो सके। देश के विकास के लिए माडल बताया जाने वाला गुजरात इस मामले में पूरी तरह फिसड्डी है, वहाँ शिक्षकों में मुसलमानों की संख्या महज 1.18 फीसदी है।
तथाकथित ‘गुजरात माडल‘ व्यवस्थागत भेदभाव की समग्र तस्वीर का उग्र रूप पेश करता है, जहाँ मुसलमान हाशिए पर धकेले जा चुके हैं और ताकतवर जातियों को आरक्षण का दावा ठोकने के लिए पीछे से प्रोत्साहित किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में, जहाँ ओबीसी ताकतवर हैं, एस.सी, एस.टी और मुसलमानों को हाशिए में डाल दिया गया है।
यह तस्वीर हमें डा. बी. आर. अम्बेडकर की इस चेतावनी की याद दिलाती है कि, गैर-बराबरी की दर्जाबन्दी गैर बराबरी के खिलाफ आम विरोध का विस्तार रोकती है और इसकी परिणति सामाजिक न्याय की क्रान्ति में कभी नहीं हो सकती।
एस.सी, एस.टी, ओबीसी और मुसलमानों के अखिल भारतीय और राज्यवार प्रतिनिधित्व के बीच फर्क गौरतलब हैं। मसलन, तमिलनाडु में सामाजिक सशक्तीकरण के लिए चले सामाजिक न्याय के आन्दोलन का ज्यादातर लाभ ओबीसी वर्ग को मिला है, इसलिए उच्च शिक्षा में वहाँ ओबीसी शिक्षकों की उपस्थिति 54.47 फीसदी है, लेकिन एस.सी, एस.टी और मुसलमान इस लाभ से वंचित रह गए हैं।
ओबीसी की जनगणना के लिए अगर एनएसएसओ (2006) के आँकड़ों को भी हम आधार बनाएं तो
‘‘योग्यता‘‘ और ‘‘गुणवत्ता‘‘ की दुहाई देने वाले आरक्षण विरोधी समूह समाज के बहुसंख्यक वंचित वर्गों के सामाजिक अलगाव के तथ्य को सिरे से नकार देते हैं। ओबीसी की ‘‘मलाईदार परत‘‘ द्वारा आरक्षण के सारे फायदे हजम कर लेने का उनका तर्क भी अनुचित है, क्योंकि उनके द्वारा निर्धारित 27 फीसदी आरक्षण की कानूनी सीमा आज भी हासिल नहीं की जा सकी है। इस सर्वेक्षण में निजी विश्वविद्यालय और कालेज शामिल हंै, जहाँ आरक्षण की व्यवस्था लागू नहीं है, लेकिन सर्वे के नतीजों से पता चलता है कि वहाँ वंचित वर्गों का प्रतिनिधित्व कम है।
सर्वे के समग्र नतीजों से स्पष्ट है कि हमारी व्यवस्था निम्न जातियों और अल्पसंख्यकों को विकास प्रक्रिया से बाहर रखकर हिन्दू समाज की वर्चस्ववादी यथास्थिति को बनाए रखने के लिए कटिबद्ध है। अन्य लोगों को ज्ञान बाँटने की उच्च जातियों की योग्यता और क्षमता का महिमामन्डन करके वह जातिवादी धारणाओं को फिर से मजबूत बनाना चाहती है। वर्तमान दौर में, जबकि राज्य लोगों को शिक्षा उपलब्ध कराने की अपनी जिम्मेदारी से हाथ खींच रहा है, और खुद को निजी खिलाडियों के ‘‘सहायक‘‘ की भूमिका तक सीमित कर चुका है, सामाजिक न्याय की मंजिल बहुत दूर लगने लगी है।
एस वी नरायणन दिल्ली स्थित स्वतन्त्र शोधार्थी हैं।