भारत --
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए
बाक़ी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते है
इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में है
जो आज भी वृक्षों की परछाइओं से
वक़्त मापते है
उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते है
उनके लिए ज़िन्दगी एक परम्परा है
और मौत के अर्थ है मुक्ति....
-पाश
वो संगमरमर घिस रहा था ताकि उसकी किताब पर जिल्द बची रह सके....
जालौन जिले की कालपी तहसील का गांव सरसैला. मुझे शिवदत्त का घर खोजने में काफी समय इसलिए लग गया क्योंकि गांव के लोग उसे खचोरे के नाम से जानते थे. विश्वकर्मा जाती के शिवदत्त जालौन के 59 फीसदी सीमान्त किसानों में से एक थे. उनके पास दो बीघा पैतृक जमीन की मिल्कियत है. इसमें उनके दो विकलांग भाई भी साझीदार हैं.
जालौन में 4,37,205 हैक्टेयर के रकबे में से 44 फीसदी भूमि सिंचित है. सिंचित क्षेत्रों में किसानों को सिलसिलेवार तरीके से नकदी फसलों की तरफ धकेला गया.
शिवदत्त ने अपनी दो बीघा जमीन में से एक बीघा पर काश्त की थी. उनके भाई कहते हैं कि हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि पूरी जमीन बोई जा सकती.
नकदी फसलों के मामले में दिक्कत यह है कि यह मौसम के प्रति बहुत संवेदनशील होती हैं. यानी जोखिम की प्रायिकता काफी अधिक होती है जबकि बुवाई का खर्च गेंहू के मुकाबले दोगुने तक बैठ जाता है.
2 और 3 मार्च को हुई ओलावृष्टि ने शिवदत्त की 1 बीघे में बोई हुई मटर की फसल को 50 फीसदी तबाह कर दिया. 15 तारीख की ओलावृष्टि में शेष आधी भी चली गई. उनके भाई बताते हैं कि शिवदत्त की मौत के बाद मैंने कटाई को आधा ही छोड़ दिया. एक बीघा में अगर 20 किलो मटर भी ना निकले तो कटाई करने का क्या फायदा?
15 तारीख को सुबह से ओले गिर रहे थे. शिवदत्त की 13 साल की बेटी अंजलि बताती है, 'सुबह सात बजे से ओले गिरने शुरू हो गए. पापा के पास मैं चाय ले कर गई तो उन्होंने पीने से मना कर दिया. घर के आंगन में इधर-उधर चक्कर लगाते रहे. दोपहर को जब बारिश रुकी तो पापा और मम्मी खेत की तरफ चले गए. शाम सात बजे पता चला कि दोनों मर गए.'
दोपहर बाद पांच बच्चों के अभिभावक शिवदत्त और भाग्यवती जब खेत में पहुंचे तो खेत की तबाही उनके लिए असहनिय थी. आखिर इसी फसल पर उनकी सारी उम्मीदें टिकी थीं. अंजलि और तेजप्रताप को इस साल दसवीं का इम्तिहान देना था. पांच साल के अर्जुन को इसी साल स्कूल भेजना शुरू किया था. पांच बच्चों और दो विकलांग भाइयों की जिम्मेदारी इस दंपत्ति के कंधे पर थी.
शिवदत्त ने आसान तारीका अपनाया. उसने अपनी पत्नी को जहर दिया और बाद में खुद भी जहर पी लिया. शिवदत्त शायद अपनी पत्नी से प्रेम करता था इसलिए उसे इतना जहर ना दे पाया कि वो तुरंत मर जाए. भाग्यवती की मौत कालपी के अस्पताल में हुई. इसलिए उसका पोस्टमार्टम संभव हो पाया. शिवदत्त की जान खेत में चली गई. इसलिए उसकी लाश को चीराघर ले जा कर पोस्टमार्टम करवाने की जहमत नहीं उठाई गई.
शिवदत्त का 13 साल का लड़का तेजप्रताप इस दुर्घटना के समय जालौन से 900 किलोमीटर दूर राजस्थान के जयपुर में था. वो दो दिन पहले ही जयपुर पहुंचा था. इसी समय मुझे याद आया कि मैं पिछले साल अप्रैल के महीने में दिल्ली विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन के बाहर महोबा के एक 15 साल के लड़के से मिला था जोकि दिल्ली में इसलिए रिक्शा चला रहा था ताकि वो अपनी 11वीं की पढ़ाई का साल भर का खर्च जुटा सके.
तेज प्रताप जैसे अभाव में शिक्षा हासिल करने वाले लड़कों के लिए गर्मी की छुट्टियाँ मनाली के पहाड़ घूमने के लिए नहीं होती हैं. ये लोग दिल्ली, मुंबई, जयपुर,ग्वालियर में मौसमी मजदूर में तब्दील हो जाते हैं ताकि उनके पिता पैसे के अभाव के चलते उन्हें तालीम से महरूम ना कर पाएं. तेज प्रताप को जयपुर में मार्बल की घिसाई का काम करना था. ताकि फर्श में काच की चमक पैदा की जा सके.
शिवदत्त के बच्चों को कालपी के नेकदिल पुलिस अधिकारी महेंद्र कुमार ने गोद लिया है. उन्होंने इस परिवार को वचन दिया है कि वो पांच हजार रूपए माहवार का खर्च अपनी तनख्वाह से देते रहेंगे ताकि ये बच्चे पढ़ सकें. महेंद्र कुमार से जब मैंने इस प्रकरण के बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि 'सरकार के अनुसार इस दंपत्ति ने पारिवारिक कलह के कारण जान दी. लेकिन आप खुद सोचिए जब गरीबी होगी,अभाव होगा तो कलह तो होगी ही.'
बहरहाल सरकारी जांच रिपोर्ट में लिखा है कि शिवदत्त की फसल पहले ही कट चुकी थी. जबकि शिवदत्त के भाई हरी ओम के अनुसार यह दंपत्ति फसल काटने के लिए ही खेत पर गया था. रिपोर्ट में लिखा हुआ है कि दंपत्ति कलह का शिकार थे. मैंने बच्चों से पूछा कि क्या मम्मी-पापा में झगड़ा हुआ था? तो अंजली ने जवाब दिया हमारे सामने तो नहीं हुआ था. पापा सुबह से किसी से बात नहीं कर रहे थे. बस आंगन में चक्कर लगाते जा रहे थे. खाना भी नहीं खाया.
मैं शिवदत्त के घर से निकला तो गांव के नुक्कादा पर चाय की दुकान पर रुक गया. चाय पीने के साथ ही मैंने वहां पर मौजूद लोगों से शिवदात की शराबनोशी के बारे में पूछा. बाबूराम मेरे को बताते हैं कि होली के दिन उन्होंने शिवदत्त को पिलानी चाही थी. शिवदात ने यह कहते हुए माफ़ी मांग ली कि वो पांच बच्चों के पिता हैं. बहरहाल सरकारी रिपोर्ट के अनुसार शिवदात शराब का लती था. और इस तरीके से पूरे मामले को कागजों में दफ़न कर दिया गया.
कोऊ नृप होय हमें क्या हानि, चेरी छोड़ी ना होइ हैं रानी....
कालपी तहसील का गांव चमारी. बम्हौरी और चमारी से यह मेरी पांचवी मुठभेड़ है. मैं गांव के बीच में मौजूद दूकान पर रुक्मेश पाल का पता पूछने के लिए रुकता हूँ. दूकान टीवी पर प्रचारित सामानों की घटिया नक़ल से अटी पड़ी है. नारंगी रंग के पैकट जो देखने में कुरकुरे जैसा दिखता है वास्तव में कुडकुड है. निरमा साबुन की जगह नीमरा. पार्ले-जी का देहाती संस्करण पर्ल-जी. फ़ूड इंस्पेक्टर सबसे मलाईदार नौकरी में से एक है.
34 साल के रुक्मेश पाल बिरादरी से आते थे. उनके पास 10 बीघा पैतृक जमीन थी. इसके अलावा उन्होंने 40 बीघा जमीन बलकट पर ली थी. इस जमीन के लिए उनको 7 सात हजार रूपए बीघा के हिसाब से 2 लाख 80 हजार रूपए का चुकाने थे. इसके लिए उन्होंने 1 लाख रूपए किसान क्रेडिट कार्ड से कर्ज उठाया. पचास हजार रूपए सहकारी सोसाइटी से लोन लिया. इन पचास बीघा में रुक्मेश ने मसूर,गेंहू और मटर की फसल उगाई. यह बड़ा जुआ था. रुक्मेश के लिए 'आर या पार'वाली लड़ाई जैसा था.
2 और 3 साल तारीख की बारिश ने सबसे ज्यादा नुक्सान जालौन के इसी क्षेत्र में किया था. रुक्मेश ने 'आर या पार'वाले इस मामले में हार मान ली. उसने खेत के बगल से गुजर रही रेल लाइन पर ट्रेन के सामने छलांग लगा दी. उसकी लाश ट्रेन के साथ 800 मीटर तक घिसटती रही. इसके बाद जो मांस का लोथड़ा घर वालों को सुपुर्द किया गया घर वालों ने उसे रुक्मेश की लाश मान कर दाह संस्कार कर दिया.
आखिर रुक्मेश ने आत्महत्या क्यों कि? इस सवाल का जवाब देते हुए उनके चाचा जगदीश पाल बताते हैं कि रुक्मेश के पिता का देहांत हुए साल भर भी नहीं हुआ था. उनके पिता पर 4 लाख के लगभग का कर्ज था. फसल की चिंता ने उनकी जान ले ली थी. इसके बाद पिता की त्रयोदशी के लिए रुक्मेश ने 2 लाख का कर्ज स्थानीय महाजन से ले लिया था. कर्ज धीरे-धीरे कब पहाड़ बन जाता है पता भी नहीं चलता.
जब जगदीश पाल मुझे त्रयोदशी के खर्च के बारे में बता रहे थे बरबस ही उरई में काम कर रहे वरिष्ट पत्रकार केपी सिंह की सुध आ गई. पिछली शाम ही उन्होंने किसान आत्महत्या के लिए सामाजिक खर्च की भूमिका को रेखांकित किया था. उनका कहना था,
"नकदी फसलें जब यहां आई तो शुरुवात में किसानों के हाथ में बड़ी रकम आई. इसके चलते सामाजिक खर्ज में तेजी से बढ़ोत्तरी आप ये मानिए पांच साल में सभी सामाजिक कार्यक्रमों में होने वाला खर्च दोगुने पर पहुंच गया. नकदी फसल के भरोसे लोगों ने बड़ी रकम कर्जे पर ले कर खर्च करनी शुरू कर दी. त्रयोदशी का खर्च 2 से 5 लाख पर पहुंच गया. चपरासी और कांस्टेबल के दहेज़ की दर 9-10 लाख पर पहुंच गई. कर्ज पर ले कर किए गए सामाजिक खर्च अब किसान की मौत की वजह बन रहा है".
सरकारी जांच रिपोर्ट में लिख हुआ है कि रुक्मेश जानवर चराते हुए रेल की चपेट में आ गए थे. जगदीश पाल बताते है कि रुक्मेश कभी जानवर नहीं चराते थे. जानवर की देखभाल का काम दरअसल यहां महिलाओं के जिम्मे रहता है. रुक्मेश की माँ यह काम करती हैं. वो उस समय भी जानवर चराने के लिए ही गई हुई थीं जब मैं रुक्मेश के घर पहुंचा था. जांच रिपोर्ट कितनी सतही है इसकी बानगी इस बात से लग जाती है कि रिपोर्ट में रुक्मेश की जाती चमार लिखी हुई है. जगदीश पाल सफाई देते हैं , 'हमारे खेत के करीब से रेल की पटरी गुजरती है. कोई रेल पटरी के पास जानवर क्यों चराएगा जबकि उनके वहां मरने की संभावना हो?'
बातचीत खत्म होने के बाद चाय आई. जगदीश पाल ने चाय पीने के बाद खैनी मलना शुरू किया. बारीकी से तम्बाखू के बीच से डंठल छांटते हुए जगदीश पाल में कहा, 'इस साल हमने बीजेपी को भरपूर बहुमत दिया. मैंने अपनी जिंदगी में पहली बार बीजेपी को वोट दिया था. सोचा था मोड़ी कुछ करेगा. लेकिन वो तो विदेश में घूम रहे हैं कभी लंका तो कभी अमेरिका.
उन्होंने गुस्से से कहा, 'सरकार कह रही है कि हमसे कर्ज वसूलने ने बैंक कड़ाई से काम नहीं लें. अब वो इस साल कर्ज नहीं वसूल रहे हैं. इससे हमें क्या राहत है. अगले साल हो या उससे अगले साल कर्जा तो हमें ही चुकाना पड़ेगा ना.'
इसके आगे वो कहते हैं,
इसके आगे वो कहते हैं,
'कोई सरकार हो हमें तो उसी तरह से मरना-खपना है. सपा हो चाहे बसपा हो चाहे मोदी. जब मंथरा कैकई को कहती है कि भरत को राजा बनवाओ तो कैकई मंथरा पर बिगड़ जाती है. इस पर मंथरा कहती है "कोऊ नृप होय हमें क्या हानि, चेरी छोड़ी ना होइहैं रानी."बस हमारी स्थिति वही है मंथरा वाली. "
मैं अपना सामान पैक कर रहा हूँ. रुक्मेश का पाच साल का बेटा दिलीप मेरी कुर्सी के चारों चक्कर काटने लगता है. मैं उसकी फोटो खींच कर उसे दिखाता हूँ. वो हंसने लगता है. इसी दौरान पास ही खड़े संदीप मुझसे पूछते हैं कि यह किस चैनल पर चलेगा? मेरे पास देने के लिए कोई जवाब नहीं था. मेरे पास इस रिपोर्ट को छापने के जो माध्यम वो उनकीं पहुंच से बहुत दूर हैं. जिन माध्यमों की पहुंच उन तक है वो इस रिपोर्ट को छापने की जहमत नहीं उठाने वाले. मुझे इस सवाल ने हर जगह असहज किया है. मैंने संदीप को जवाब दिया ,'मुझे नहीं लगता कोई इसे दिखाएगा.अगर कोई इसे दिखाना चाहता तो अब तक यहां पहुंच चुका होता.'
और इस तरह से एक भी किसान नहीं मारा....
जालौन में किसानों की आत्महत्या पर बनी सरकारी जांच कमिटी की जिस रिपोर्ट का हवाला में देता आ रहा हूँ उसमें 20 मार्च तक हुई किसान आत्महत्या की स्थलीय जांच की बात कही गई थी. डीएम की अध्यक्षता वाली इस कमिटी के सदस्यों में पाँचों तहसीलों के उप-जिलाधिकारी, अपर मुख्य चिकित्सा अधिकारी, और नगर मजिस्ट्रेट उरई शामिल थे. इस जांच दल में दो दिन के भीतर अपनी रिपोर्ट तैयार की. रिपोर्ट का मजमून कुछ इस तरह से है-
"महोदय,
कृपया जनपद में दिनांक 02 एवं 03 एवं 14 एवं 15 मार्च को हुई बेमौसम वर्षा एवं ओलावृष्टि के कारण घटित दैवी आपदा जिसमें विभिन्न क्षेत्रों में कृषकों की फसल तबाह हुई. इस अवधी में जनपद के कतिपय व्यक्तियों की विभिन्न कारणों से मृत्यु हुई. जिसमें समाचार पत्रों द्वारा प्रायः सभी मौतों को दैवी आपदा के कॉलम में प्रकाशित किया जा रहा है. इसका संज्ञान लेते हुए महोदय के पत्रांक क्रमांक 1210 एस.टी. कैम्प दिनांक 20 मार्च 2015 द्वारा समाचार पत्रों में प्रकाशित और प्रश्नगत अवधि में जनपद के विभिन्न क्षेत्रों में हुई मौतों की जांच करने हेतु कमिटी गठित की गई है. जिसके अनुपालन में समस्त प्रकरणों की स्थलीय जांच की गई है. जांच के उपरान्त प्रत्येक मृत्यु के प्रकरण पर गंभीरता पूर्वक जांच की गई है. जो बिन्दुवार निम्न प्रकार प्रस्स्तूत है.'
ये पूरी रिपोर्ट झूठ का पुलिंदा है. इसके इतर इसे कुछ नहीं कहा जा सकता. बलकट के कॉलम में नहीं को कॉपी-पेस्ट कर दिया है. सिर्फ शिवदत्त विश्वकर्मा के प्रकरण को छोड़ दें तो बाकी के सभी किसानों ने लीज पर जमीन ली थी. जांच किए गए 27 केसों में से सिर्फ एक को दैवी आपदा के तहत मृत पाया गया. यह 20 साल की युवती पूजा पटेल का मामला था जिसमें उनकी जान बिजली गिराने की वजह से हुई थी. इसके अलावा एक भी किसान के आत्महत्या को स्वीकार नहीं किया गया.
इसके अलावा 27 में से सिर्फ 6 किसानों के ऊपर कर्ज दिखाया गया है. रुक्मेश पाल जिनके केसीसी ऋण के दस्तावेज मैं खुद देख कर आया हूँ उनके खाते में कर्ज के नाम पर शून्य लटका हुआ है जबकि उन पर 8 लाख से अधिक का कर्ज है. इसी तरह से महज 6 किसानों की फसल क्षति को 50 फीसदी माना गया है.
इस रिपोर्ट का सबसे हास्यास्पद पहलू कोच तहसील के दाढ़ी गांव के लाखन सिंह के मामले में सामने आता है. चमार बिरादरी के लाखन सिंह की आर्थिक स्थिति के कॉलम में 'राजमिस्त्री था, आर्थिक स्थिति दयनीय है. मकान कच्चा है.'दर्ज किया हुआ है. वहीँ मृत्यु का कारण कॉलम में 'ब्रेन हैमरेज से दिल्ली में इलाज के दौरान हुई मृत्यु हुई.'अब आप ही बताइए कि एक अनुसूचित जाती का राजमिस्त्री जिसके पास पक्का माकन भी नहीं है. जमीन के नाम पर .785 हैक्टेयर जमीन है. उसकी दिल्ली में इलाज करवाने की क्षमता है क्या? लेकिन कर लीजिए जो कर सकते हैं. ये रिपोर्ट नहीं बदलने वाली आखिर स्थलीय जांच के बाद गंभीरता से हर प्रकरण की जांच की गई है. बजाइए ताली एक भी किसान नहीं मर रहा. सब तरफ खुशहाली है. टोटल समाजवाद. कोई मिलावट नहीं.
उसने सरकार की गाड़ी के आगे बलिदान दे दिया...
जालौन पहुंचने के साथ ही अखबार के जरिए मेरी जिन 9 किसान आत्महत्याओं की रिपोर्ट से मुठभेड़ हुई उसमें सियाराम का मामला प्रसाशन की धांधलेबाजी पर करारा तमाचा है. जालौन जिले की कालपी तहसील का गांव मरगाया. 60 साल के सियाराम के दो एकड़ जमीन के काश्तकार थे. इतनी जमीन के किसान को इस देश में सीमान्त किसान कहा जाता है. उन्होंने 25 बीघा जमीन बलकट पर ली थी. इसमें उन्होंने गेंहू, मसूर और मटर की फसल बोई थी.
आठ हजार प्रति बीघा की दर से ली गई इस जमीन का दो लाख रूपया सियाराम को फसल कटने के बाद अदा करना था.
इसके अलावा उन्होंने 80 हजार का ऋण इलाहाबाद बैंक से बतौर केसीसी उठाया था. साल भर भी नहीं हुआ जब उनके बड़े बेटे राजेश देहांत एक दुर्घटना में हो गया. राजेश के बाद उसकी बेवा और दो छोटी बेटियों की जिम्मेदारी सियाराम के घीसे हुए कन्धों पर आ गई.
ओलावृष्टि के बाद मटर की फसल तो पूरी तरह से तबाह हो गई. गेहूं से उम्मीद थी कि वो मौसम की मार झेल जाएगा और इस बुरे वक्त में सियाराम के साथ खड़ा रहेगा. लेकिन गेहूं ने भी सियाराम को धोका दे दिया. मड़ाई के बाद गेहूं की फसल सामने आई तो वो औसत से तीन गुना कम थी. सियाराम इस झटके के लिए तैयार नहीं थे.
मड़ाई करवा कर शाम को घर लौटे तो एकदम बुझे हुए थे. पास ही के गांव छौंक में एक रिश्तेदार के यहां जाने का बहाना करके घर से निकल गए. पत्नी कुसमा देवी कहती हैं-
'परेशान तो काफी दिन से थे. ठीक से खाना भी नहीं खा रहे थे. पोतियों को देखते तो रुवांसे हो जाते. मड़ाई करवा कर लौटे तो चेहरा एकदम बुझा हुआ था. फिर कहने लगे छौंक जाना है. मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा था. मैंने रोकने की कोशिश की. डरी हुई थी. हर तरफ आदमी मर रहा है कहीं ये भी कुछ कर ना लें. लेकिन वो नहीं माने. आखिर चले ही गए. क्या पता था भाग इस तरह फूटेंगे. अब घर में दो बेवा बची हैं गुजारा होना मुश्किल है.'
देर रात सियाराम की लाश जाल्दूपुर रेलवे क्रासिंग के पास मिली. यह मौत भी रुक्मेश की मौत की तरह सामान्य सा रेल हादसा साबित कर दी जाती अगर सियाराम का सुसाईड नोट पुलिस से पहले मीडिया के हाथों में नहीं पड़ जाता. सियाराम ने जो सुसाईड नोट में टूटी-फूटी लिपि में यह मजमून लिखा है...
". खेती की पैदावारी से तंग आकर मैं सरकार की गाड़ी से मैं अपना बलिदान दे रहा हूँ.
सियाराम
ग्राम- मरगाया
थाना- कदोरा
जिला- जालौन '
सियाराम
ग्राम- मरगाया
थाना- कदोरा
जिला- जालौन '
सियाराम का सुसाईड नोट किसानों की आत्महत्या को ना स्वीकार करने के सरकार के शुतुरमुर्गी रवैय्ये को आइना दिखाने वाला दस्तावेज है. इस घटना के गवाह बनने के बाद इस सीरिज का नाम 'सुसाईड नोट'रखा गया. एक लाइन का यह सुसाइड नोट मानों कह रहा था, 'बोलो अब क्या करोगे? कैसे झुठलाओगे मेरी मौत को?"
सियाराम को इस बात का कोई इल्म नहीं रहा होगा कि उनकी आत्महत्या के एक पखवाड़े के भीतर ही देश की राजधानी इस किस्म की एक और घटना का गवाह बनेगी. दौसा का रहने वाला गजेन्द्र सिंह इस तरह ही जंतर-मंतर पर जान दे देगा.
इसके बाद 17 बीघे के इस काश्तकार को धन्ना सेठ बता कर कहा जाएगा कि सबकुछ ठीक था. किसानी की जलालत को चीख-चीख कर बयान करता उसका सुसाइड नोट जाली करार दे दिया जाएगा. इसके बाद 'पिपली लाइव'किस्म की पत्रकारिता शुरू हो जाएगी. 'गजेन्द्र की मौत का पूरा सच'किस्म के पैकेज काटे जाएंगे.
सारा मुद्दा एक नेता की नैतिकता पर केन्द्रित कर दिया जाएगा और किसान आत्महत्या के मामले को हाशिए पर लगा दिया जाएगा......