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नेहरू, विज्ञान और मोदी युग

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-आशुतोष उपाध्याय

"...आज नेहरू को खारिज करने की मुहिम चल रही है. चालू मीडिया विमर्श लगभग समवेत स्वर में उन्हें गांधी और पटेल से जुदाकर देश की मौजूदा तमाम बीमारियों का जनक बता रहे हैं. इस आश्वासन के साथ कि पृथ्वीराज चौहान के बाद पहली बार एक सच्चा दमदार शासक देश को सारी मुसीबतों से छुटकारा दिलाने के लिए आ गया है..."

साभार- The Hindu
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की विज्ञान दृष्टि का अंदाजा उस मशहूर जुमले से लगाया जा सकता है, जिसे उन्होंने 1946 में अपनी पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में पेश किया. नेहरू को 'साइंटिफिक टेम्पर' वाक्यांश का जनक न भी मानें तो भी इसे लोकव्यापी बनाने का श्रेय तो उन्हें देना ही होगा. उनके मुताबिक यह "एक जीवन शैली, सोचने का खास ढंग और सामाजिक बर्ताव की एक विधि है." 


देश को आईआईटी, सीएसआईआर और अनेक राष्ट्रीय प्रयोगशालाएं देने वाले नेहरू की वैचारिक बुनावट में वैज्ञानिक सोच व संशयवाद महत्वपूर्ण स्थान रखते थे. लोकप्रिय राजनेता होने के बावजूद वे विज्ञान और टेक्नोलॉजी के बीच फर्क को समझते थे और इसीलिए देश को आगे ले जाने के लिए टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के साथ-साथ वैज्ञानिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार पर भी खासा जोर देते थे. यह कहना गलत न होगा कि नेहरू के लिए टेक्नोलॉजी हार्डवेयर और वैज्ञानिक सोच सॉफ्टवेयर था, देश की प्रगति के लिए वे इन दोनों का तालमेल जरूरी समझते थे. नेहरू के शब्दों में:

"आज सभी देशों व लोगों के लिए विज्ञान का इस्तेमाल अपरिहार्य और ज़रूरी है. लेकिन कुछ बातें इसके इस्तेमाल से भी ज्यादा अहम हैं. वैज्ञानिक सोच, विज्ञान का जोखिमभरा किन्तु आलोचनात्मक नजरिया, सत्य व नए ज्ञान की खोज, प्रमाण एवं परीक्षा के बिना किसी बात को स्वीकार न करने का साहस, नए प्रमाणों के सामने आने पर पुरानी मान्यताओं को बदल डालने का दमखम, प्रेक्षणीय तथ्यों न कि पूर्व-निर्धारित धारणाओं पर भरोसा, कठोर मानसिक अनुशासन- ये सब बेहद ज़रूरी हैं; सिर्फ विज्ञान के इस्तेमाल के लिए ही नहीं बल्कि हमारी तमाम दूसरी समस्याओं के समाधान के लिए भी."

आज नेहरू को खारिज करने की मुहिम चल रही है. चालू मीडिया विमर्श लगभग समवेत स्वर में उन्हें गांधी और पटेल से जुदाकर देश की मौजूदा तमाम बीमारियों का जनक बता रहे हैं. इस आश्वासन के साथ कि पृथ्वीराज चौहान के बाद पहली बार एक सच्चा दमदार शासक देश को सारी मुसीबतों से छुटकारा दिलाने के लिए आ गया है. 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अतिविस्तारित छवि के पीछे खुद उनकी पार्टी और उसके दूसरे कद्दावर नेता भी गुम हो रहे हैं. पिछली सदी के अंतिम दशक में कांग्रेस सरकार की आर्थिक उदारवाद की नीतियों से उपजे खाते-पीते मध्यवर्ग के चेहरे पर आश्वस्ति और आत्ममुग्धता का भाव देखा जा सकता है- हमारी सुख-सुविधाओं पर अब कोई डाका नहीं डालेगा. अब हम दिन दूनी रात चौगुनी रफ़्तार से सम्पन्नता की सीढ़ियां चढ़ सकेंगे.

प्रधानमन्त्री मोदी की अतिप्रचारित छवियां चमत्कार का आश्वासन देती हैं. अपने लोक-लुभावन भाषणों में वह स्वयं विज्ञान की जादूगरी छवि गढ़ते हैं. बड़ी कुशलता से वह विज्ञान को उसकी विधि व चिंतन प्रक्रिया से काटते हैं. एक अस्पताल के उद्घाटन के मौके पर डाक्टरों की भीड़ को संबोधित करते हुए वह उन्हें भारत की प्राचीन चिकित्सा परंपरा पर गर्व करने की सलाह देते हैं. वह समझाते हैं कि भगवान गणेश किस तरह प्लास्टिक सर्जरी का कमाल थे. या महाभारत के कर्ण किराए की कोख की औलाद थे. प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में:

"मेडिकल साइंस की दुनिया में हम गर्व से कह सकते हैं कि हमारा देश किसी समय में क्या था. महाभारत में कर्ण की कथा हम पढ़ते हैं. लेकिन कभी हम थोड़ा और सोचना शुरू करें तो ध्यान में आएगा कि महाभारत का कहना है कि कर्ण मां की कोख से पैदा नहीं हुआ. इसका मतलब ये हुआ कि उस समय जेनेटिक साइंस मौजूद था. तभी तो कर्ण,मां की कोख के बिना जन्मा हुआ होगा. हम गणेशजी की पूजा किया करते हैंकोई तो प्लास्टिक सर्जन होगा उस जमाने मेंजिसने मनुष्य के शरीर पर हाथी का सर रख कर के प्लास्टिक सर्जरी प्रारंभ किया होगा."

विज्ञान दावों को स्वीकार नहीं करता. उसके लिए दावों तक पहुंचने की प्रक्रिया ज्यादा महत्वपूर्ण है. इस प्रक्रिया को हम वैज्ञानिक विधि के नाम से जानते हैं. समूची दुनिया विज्ञान के जिन फलों को आज चख रही है, वे वैज्ञानिक विधि की ही देन हैं. वैज्ञानिक विधि में किसी अवधारणा की समय एवं स्थान से स्वतंत्र प्रयोगों के जरिये बार-बार पुष्टि आवश्यक है. प्राचीन भारत में यदि स्टेम सेल, प्लास्टिक सर्जरी या किसी अन्य अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी की जानकारी थी तो प्रक्रियागत पुष्टि किये बिना दुनिया इसे स्वीकार नहीं करेगी. भले ही हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गाड़े इसका कितना भी ढोल क्यों न पीटते रहें.

प्रधानमंत्री मोदी के विज्ञान सम्बन्धी नजरिये की एक और बानगी उनके हाल के विदेश दौरे के एक भाषण में देखी जा सकती है. आस्ट्रेलिया की क्वीन्सलेंड यूनिवर्सिटी में उन्होंने जीएम फसलों की जबरदस्त हिमायत करते हुए ऐसे केले की खोज का आह्वान किया जो भारत की गरीब महिलाओं और बच्चों में विटामिन ए और आयरन की कमी को दूर कर सके. बहुराष्ट्रीय निगमों की पसंदीदा जीएम फसलें इस कदर विवादों से घिरी हैं कि कोई भी जिम्मेदार राष्ट्राध्यक्ष इनकी खुलेआम वकालत नहीं करता. लेकिन टेक्नोलॉजी के चमत्कारों को ही विज्ञान समझने वाले हमारे प्रधानमंत्री के बयान पर हैरान होने की ज़रूरत नहीं.

मगर हैरानी पैदा करती है मोदी युग में भारत की वैज्ञानिक बिरादरी की चुप्पी. मौके-बेमौके विज्ञान और वैज्ञानिक सोच का झंडा बुलंद करने वाले देश के शीर्ष वैज्ञानिक प्रधानमंत्री के विज्ञान सम्बन्धी बयानों पर खामोश हैं. रंग-बिरंगी सरकारों की छात्र छाया में विज्ञान शिक्षा की ठेकेदारी करने वाली विद्वतमंडली खामोश है. और वे भी खामोश हैं जो टैक्सी से भी सस्ते किराए में मंगल ग्रह पहुंचकर अब वहां जनता कालोनियां बसाने का ख़्वाब देख रहे हैं. गनीमत है प्रधानमंत्री को किसी ने यह याद नहीं दिलाया कि ग्रहों को तो छोड़िए, हमारे पुरखे सूर्य तक पहुंचने और उसको समूचा निगल जाने में सक्षम थे.

आशुतोष उपाध्याय पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं .
अभी बच्चों के बीच वैज्ञानिक शिक्षा के क्षेत्र में काम  करते हैं. 

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