इस दौर में वैज्ञानिक सोच की बात करना एक दुस्साहस महसूस हो सकता है। जब देश के प्रधानमंत्री डॉक्टरों के सामने कथित भारतीय अतीत का महिमामंडन यह करते हुए यह कहते हों कि प्राचीन काल में भारत में प्लास्टिक सर्जरी होती थी और कर्ण (महाभारत के पात्र) का जन्म बताता है कि गर्भाधान की कैसी सूक्ष्म तकनीक उस युग में थी, तो मिथक और इतिहास का फर्क करने का विवेक कैसे खतरे में है, इसका अंदाजा सहज ही कोई विवेकशील व्यक्ति लगा सकता है।
मिथक को इतिहास के रूप में पढ़ाने और बिना तार्किक मूल्यांकन के परंपरा एवं अतीत की गौरव-गाथाओं को पुनर्स्थापित करने की परियोजना जब सरकारी स्तरों पर तेजी से आगे बढ़ाई जा रही हो, तब महज कुछ बदनाम हो चुके बाबाओं और संतों में अंधविश्वास की संस्कृति को ढूंढना निरर्थक हो जाता है।
बाबा रामपाल संविधान और कानून के शासन की धारणा को चुनौती देते रहे और उनके हजारों भक्त इस दौरान उनमें अंध-आस्था बनाए रहे, तो इस पर आखिर हैरत क्यों होनी चाहिए? दीनानाथ बत्रा के “इतिहास” या हेजेलबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धांत वेद पर आधारित होने के दावे को आखिर देश के वैज्ञानिक समुदाय और बौद्धिक जगत में से कितने लोगों ने चुनौती दी है? तात्पर्य यह कि जब बाबाओं-संतों के प्रति अंध-आस्था के चलन पर विचार हो रहा हो, तो उसके व्यापक संदर्भ को भी अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिए।
सबसे पहले इस तथ्य को स्वीकार करने की आवश्यकता है कि आज हम वैचारिक प्रति-क्रांति के दौर में हैं। 19वीं और 20वीं सदी में समाज सुधार आंदोलनों, राष्ट्रीय नव-जागरण और प्रगतिशील मूल्यों के संचार से जिस आधुनिक भारत का जन्म हुआ, आज प्रतिगामी शक्तियां उसकी बुनियाद पर आक्रमण कर रही हैं।
इतिहास में पहले भी ऐसे दौर आए हैं। सामाजिक रूढ़ियों और अंध-आस्थाओं के खिलाफ तर्क एवं विद्या की संस्कृति का सूत्रपात कर गौतम बुद्ध प्राचीन भारतीय संस्कृति को नए मुकाम पर ले गए थे। लेकिन शंकराचार्य के दौर में उस पूरी चेतना को पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया।
मध्य काल में भक्ति आंदोलन से जुड़े संतों ने अपने उदार, सर्वसमावेशी और मानवीय संदेशों के जरिए एक बार फिर अज्ञान एवं रूढ़ियों पर टिकी धार्मिक-सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ अलख जगाई। राजा राममोहन राय से लेकर उस दौर के अन्य समाज-सुधारकों और महर्षि दयानंद से लेकर अन्य धर्म-सुधारकों ने प्रश्न पूछने, सामाजिक परंपराओं को तार्किक कसौटियों पर कसने तथा शिक्षा एवं ज्ञान के प्रसार के लिए जो योगदान किया, उसका आधुनिक भारत के जन्म में अहम योगदान रहा। यही चेतना हमारे स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा रही। अंततः उसी से प्रेरित उसूल भारतीय संविधान की बुनियाद बने। आज उन्हीं उसूलों को चुनौती दी जा रही है।
“आठ सौ साल बाद दिल्ली पर हिंदू विजय” की घोषणा के इस दौर में इस तथ्य को नहीं भुलाया जाना चाहिए कि ऐसे जयघोष करने वाली शक्तियां चाहे आसाराम हों या बाबा रामपाल- पहले उनके बचाव में खड़ी होती हैं। जब ऐसे बाबाओं की करतूतों का पूरा कच्चा चिट्ठा सामने आ जाता है, तब वे चुप भले हो जाती हैं। लेकिन गुजरे वर्षों में आबादी के बहुत बड़े हिस्से के मन में वे यह बात बैठाने में कामयाब रही हैं कि किसी विदेशी साजिश के तहत भारतीय परंपरा और इसके प्रतीक पुरुषों को बदनाम किया गया है।
इस विमर्श में वैज्ञानिक सोच, इतिहास को वैज्ञानिक पैमानों पर परखने और परंपरा की आलोचनात्मक समीक्षा की वकालत करने वाले लोग खलनायक बता दिए जाते हैं। समाज की सारी बुराइयों का दोष विदेशी आक्रमणकारियों पर डाल कर भारतीय अतीत को आदर्श एवं स्वर्णिम युग के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
यहां उल्लेखनीय है कि ऐसी चर्चाओं में भारतीय अतीत को असल में हिंदू अतीत के समानार्थी ही पेश किया जाता है। तथ्य और औचित्य की कसौटियों पर इनमें से किसी दावे को सिद्ध नहीं किया जा सकता। लेकिन इन शक्तियों का यह उद्देश्य भी नहीं है। उनका मकसद विवेक की संस्कृति को नष्ट करना है, ताकि पुरातन मान्यताओं का वर्चस्व फिर से कायम किया जा सके। सिर्फ ऐसा करके की परंपरागत जातीय, लैंगिक और आर्थिक गैर-बराबरी तथा शोषण को चिर-स्थायी बनाया जा सकता है, जिनकी जड़ें आधुनिक ज्ञान एवं तर्क-वितर्क संस्कृति के कारण हिलने लगी थीं।
आधुनिक काल में सामाजिक संस्कृति को स्वरूप देने में राजसत्ता की भूमिका पहले के किसी दौर की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है। इसलिए कि आज शिक्षा और संचार का सबसे सशक्त स्रोत राज्य है। आजादी के बाद भारतीय राज्य-व्यवस्था का नेतृत्व स्वतंत्रता संग्राम के उदार और आधुनिक मूल्यों से प्रेरित नेताओं के हाथ में आया। इससे अशिक्षा, अंधविश्वासों और पुरातन परंपराओं के सामाजिक वर्चस्व के बावजूद देश में वैज्ञानिक सोच को स्थापित करने की दिशा में कदम बढ़ाए गए।
इस महति प्रयास में जवाहर लाल नेहरू और बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर की खास भूमिका रही। उन दोनों अपने-अपने स्तरों पर भारतीय परंपराओं की आलोचना प्रस्तुत की थी। उसकी अभिव्यक्ति संविधान में हुई। नेहरू के नेतृत्व में विज्ञान और तकनीक का ढांचा बनाने के साथ-साथ समाज में वैज्ञानिक सोच को स्थापित करने की पहल हुई। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि प्रतिगामी ताकतों के निशाने पर इन दोनों शख्सियतों की विरासत रही है। हर परंपरा और पहल को विवेक से परखने की इस विरासत के बिना न्याय और बराबरी की लड़ाई को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। इसीलिए प्रतिगामी शक्तियों ने इस विरासत- दरअसल मानवीय विवेक पर ही- हमला बोल दिया है।
इस पूरे संदर्भ पर बिना ध्यान दिए बेनकाब हो गए कुछ बाबाओं तक तमाम चर्चा को सीमित रखने से कुछ हासिल नहीं होगा। प्रकारांतर में देखें तो बाबा रामपाल या आसाराम के अंध-भक्तों और भारत के स्वर्णिम अतीत में अंध-विश्वास रखने वाले लोगों के बीच कोई गुणात्मक फर्क नहीं है। बाबा रामपाल के भक्त विवेक का परिचय देते तो वे उनके गैर-कानूनी कृत्यों और दूसरी अस्वीकार्य हरकतों के समर्थन में खड़े नहीं होते। लेकिन ऐसा ही परिचय इस समाज के पढ़े-लिखे लोग तथा समाचार माध्यम दें, तो मिथक और इतिहास को मिलाने के प्रयासों पर भी उन्हें उतना ही आहत महसूस करना चाहिए। अगर इस बिंदु पर समाज का आक्रोश व्यक्त हो, तो ढोंगी बाबाओं-संतों में सकून तलाशने की संस्कृति स्वतः कमजोर पड़ेगी। इसीलिए आज असली सवाल है सामाजिक विवेक की रक्षा का, जिसके लिए अभूतपूर्व खतरा खड़ा हो चुका है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल जामिया मिल्लिया
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.