-कविता कृष्णपल्लवी
"...भारतीय भाषाओं में शासकीय कामकाज और अध्ययन शोध का सवाल भारतीय समाज के जनवादीकरण (डेमोक्रेटाइजेशन) का अहम मुद्दा है। साथ ही, यह हमारी सर्जनात्मक क्षमता और कल्पनालोक की मुक्ति के लिए अनिवार्य है। स्वप्न और कल्पनाओं की मौलिक भाषा अपनी मिट्टी और हवा पानी से उपजी और उन्हीं के रंग-गंध में रची-पगी अपनी मातृभाषा ही हो सकती है, औपचारिक शिक्षातंत्र द्वारा सिखाई गई कोई भाषा कतई नहीं हो सकती। स्वप्न, कल्पना और सर्जना की मुक्ति के बिना सामाजिक मुक्ति की संकल्पना का खाका तैयार नहीं हो सकता। इसलिए अंग्रेजी की मानसिक-भौतिक गुलामी से मुक्ति का प्रश्न हमारी सामाजिक मुक्ति के प्रश्न से नाभिनालबद्ध है।..."
भाषा का अपना वर्गचरित्र नहीं होता, लेकिन वर्ग-समाज में भाषा अपने आप में वर्ग संघर्ष का क्षेत्र बन जाती है। प्राय: सभी उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में, भूतपूर्व औपनिवेशिक स्वामियों की भाषा आज भी इन समाजों के शासकों और उच्च मध्यवर्गीय कुलीनों की भाषा बनी हुई है।
भारत में शासन का सारा कामकाज मूलत: अंग्रेजी में होता है, प्रकृति विज्ञान और समाज विज्ञान की सारी उच्चस्तरीय पढ़ाई और शोध अध्ययन अंग्रेजी में होते हैं। जो अनुवाद के जरिए अपनी भाषा में पढ़ते हैं, उनकी अपनी रही-सही भाषा भी (घटिया और फूहड़ अनुवाद के कारण) चौपट हो जाती है। ज्ञानी होना एक 'स्टेटस सिंबल'है और आप राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर के ज्ञानी तभी हो सकते हैं जब अंग्रेजी़दाँ हों।
अंग्रेजी अंग्रेजियत की कुलीन संस्कृति की रीढ़ है। साथ ही, अंग्रेजी शासन और राजकाज की भाषा के रूप में शासक वर्गों की कूट भाषा का काम करती है। वह शासन और विधि के रहस्यों को जन समुदाय के लिए अबूझ बनाये रखने का काम करती है।
इत्तफ़ाक से आज की दुनिया के मुख्य साम्राज्यवादी महाप्रभु अमेरिका की भाषा भी अंग्रेजी है। अंग्रेजी भारत के विदेश जाने को लालायित जमातों के लिए अमेरिका, इंगलैण्ड, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड जाना सुगम बना देती है। हालाँकि इसके लिए उच्च अध्ययन-शोध की भाषा अंग्रेजी होना ज़रूरी नहीं है। विदेश जाने के लिए कोई भाषा अलग से सीखी जा सकती है, जैसे चीन, जापान, रूस और पूर्वी यूरोपीय देशों के लोग करते हैं। लेकिन मुख्य बात यह है कि अंग्रेजी की औपनिवेशिक विरासत को बनाये रखकर कुलीन उच्च मध्यवर्ग अपने विशेषाधिकारों और आम जनों से अपनी दूरी को बनाये रखना चाहता है तथा आम लोगों के हीनताबोध को बनाये रखना चाहता है ताकि शासक वर्गीय वर्चस्व की स्वीकार्यता के लिए उनके दिमाग को आसानी से अनुकूलित किया जा सके।
भारतीय भाषाओं में शासकीय कामकाज और अध्ययन शोध का सवाल भारतीय समाज के जनवादीकरण (डेमोक्रेटाइजेशन) का अहम मुद्दा है। साथ ही, यह हमारी सर्जनात्मक क्षमता और कल्पनालोक की मुक्ति के लिए अनिवार्य है। स्वप्न और कल्पनाओं की मौलिक भाषा अपनी मिट्टी और हवा पानी से उपजी और उन्हीं के रंग-गंध में रची-पगी अपनी मातृभाषा ही हो सकती है, औपचारिक शिक्षातंत्र द्वारा सिखाई गई कोई भाषा कतई नहीं हो सकती। स्वप्न, कल्पना और सर्जना की मुक्ति के बिना सामाजिक मुक्ति की संकल्पना का खाका तैयार नहीं हो सकता। इसलिए अंग्रेजी की मानसिक-भौतिक गुलामी से मुक्ति का प्रश्न हमारी सामाजिक मुक्ति के प्रश्न से नाभिनालबद्ध है।
मातृभाषा में अध्ययन और सभी शासकीय कामकाज की लड़ाई जनता के बुनियादी अधिकारों की लड़ाई का एक बुनियादी मुद्दा है और इस रूप में हम इस माँग का पूरी तरह समर्थन करते हैं कि न्यायपालिका और नौकरशाही के सभी कामकाज भारतीय भाषाओं में होने चाहिए। चूँकि भारत एक बहुभाषी देश है, इसलिए जाहिरा तौर पर, ऐसा करने के लिए बड़े पैमाने पर अनुवाद, अनुवादकों और दुभाषियों की ज़रूरत होगी। शिक्षा में अपनी भाषा के अतिरिक्त एक या दो भारतीय भाषाओं और एक विदेशी भाषा की शिक्षा का प्रावधान करके इस काम को आसानी से किया जा सकता है, यदि शासक वर्ग चाहे तो!
लेकिन सवाल यही है। शासक वर्ग ऐसा चाहेगा ही क्यों? यदि वह किसी हद तक ऐसा करेगा भी तो जन दबाव से बाध्य होकर ही करेगा। शिक्षा और शासकीय कामों में फूहड़ और बोझिल अनुवाद अंग्रेजी को अनिवार्य विवशता के रूप में स्थापित करने की साजिश का हिस्सा है। अखबारों और मनोरंजन उद्योग द्वारा हिन्दी में बाजारू सस्तापन लाने की कोशिशें और 'हिंगलिश'को चलन में लाने की कोशिशों, गहन विचार, अमूर्तन और अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में हिन्दी को पंगु बना देने की एक गहरी सांस्कृतिक भाषाई कपट-परियोजना का एक अंग है।
आम बोलचाल की भाषा और दार्शनिक-वैज्ञानिक चिन्तन की भाषा में, इस अंतर को यदि सम्भ्रांत ज्ञानी समाज की भाषा और आम लोगों की भाषा के अंतर के रूप में जड़ीभूत कर दिया जाये, तो यह भी एक ओर भाषाई कुलीनतावादी षड्यंत्र है और दूसरी ओर भाषा की सजीवता और गतिमानता का गला घोंटकर उसकी मृतप्राय और अश्मीभूत बना देने का षड्यंत्र है।
जैसा कि हमने ऊपर कहा है, शासन और न्याय की भाषा भारतीय भाषाएँ ही होनी चाहिए -- यह जनता का जनवादी अधिकार है। इसलिए नौकरशाहों के चयन-परीक्षा और प्रशिक्षण भी भारतीय भाषाओं में ही होना चाहिए। वे सारा शासकीय कामकाज आम जनों की भाषा में करें, इसे भी कानूनी तौर पर अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।
इसी दृष्टिकोण से हम सिविल सर्विसेज की प्रारम्भिक परीक्षा से सी सैट हटाये जाने की प्रतियोगी छात्रों की माँग का समर्थन करते हैं और बस इसी दृष्टिकोण से समर्थन करते हैं। सारे शासकीय कामकाज भारतीय भाषाओं में हो, इसके लिए यह ज़रूरी भी है कि नौकरशाहों की चयन-परीक्षा और प्रशिक्षण भी भारतीय भाषाओं में ही हो। हम जनहित और जनअधिकार के पक्ष से यह माँग उठाते हैं। यह भाषा के प्रश्न पर जनता की व्यापक लड़ाई का एक सीमित और छोटा मुद्दा है। हमें यह मुगालता नहीं है कि भारतीय भाषाओं के छात्र यदि कलक्टर और एस.पी. बन जायेंगे तो बुर्जुआ व्यवस्था को थोड़ा अधिक लोक कल्याणकारी बना देंगे, आंदोलनरत जनता पर कम लाठी-गोली बरसायेंगे, टॉर्चर-एनकाउण्टर कम कर देंगे, या यदि वे मंत्रालयों में सचिव आदि बन जायेंगे तो शासक वर्ग की नीतियों में कुछ बदलाव ला देंगे।
बुनियादी नीतिेयों और अमल के स्तर पर वे एक विराटकाय सत्ता मशीनरी के नट-बोल्ट और दाँते-चक्के-पट्टे ही होंगे। यदि आम घरों के कुछ नेकदिल लोग नौकरशाह बन भी जायें तो बुनियादी नीतियाँ तो वे बुर्जुआ वर्ग की ही लागू करेंगे, भ्रष्टाचार और गैरजरूरी अत्याचार कम करेंगे। लेकिन सत्ताधारी भी भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और अनावश्यक दमन नहीं चाहते। ये चीज़ें उनकी इच्छा से स्वतंत्र व्यवस्था के भीतर से पैदा होती है। व्यवस्था में हमेशा ही कुछ शेषन, खैरनार, भूरेलाल, लिंगदोह आदि-आदि निजी तौर पर भ्रष्टाचार न करने वाले नौकरशाह पैदा होते रहते हैं, कभी-कभी कुछ भ्रष्ट नेता उन्हें सताते भी हैं, लेकिन कुल मिलाकर व्यवस्था के सिद्धांतकार और नीति निर्माता ऐसे ''सदाचारी बुर्जुआ जेंटलमैनों''की कीमत समझते हैं और उन्हें अध्ययन एवं नीति निर्माण के कामों में लगा दिया जाता है।
दूसरे, प्राय: ऐसे सदाचारी बुर्जुआ सज्जन लोग व्यवस्था में आमूलगामी बदलाव की किसी कोशिश को कट्टर प्रतिबद्ध विरोधी होते हैं और उसे लोहे के हाथों से कुचलने तथा सुधार-कार्य के सेफ्टीवॉल्व तैयार करने की दोहरी नीति की पुरजोर पैरोकारी करते हैं। तीसरे, ''सदाचारी''ईमानदार नौकरशाह अपने सदाचरण के डिटरजेण्ट से पूँजीवादी व्यवस्था के दामन पर लगी गंदगी और खून के धब्बों को धोने का ही काम करते हैं। आमूलगामी बदलाव का पक्षधर किसी व्यक्ति की इस बात में भला क्या दिलचस्पी हो सकती है कि किसी आम घर का लड़का कलक्टर या एस.पी. बनकर आम जनता पर लाठी-गोली चलवाने का और खूनी बुर्जुआ राज्यसत्ता की रीढ़ की हड्डी (नौकरशाही) का हिस्सा बनने का काम करे? यह कौन सी जनवादी अधिकार की माँग हुई कि भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले शहर-देहात के आम घरों के युवाओं को भी बुर्जुआ वर्ग की ताबेदारी करने, जनता को चूसने लूटने में मददगार बनने और उसपर लाठी-गोली बरसाने का उतना ही मौका मिलना चाहिए, जितना कि अंग्रेजीदाँ कुलीन घरों के लड़कों को।
इसलिए कलक्टर-एस.पी. के नौकरियों तक आम घरों के युवाओं की पहुँच को आसान बनाने के स्थितिबिन्दु से हम सी सैट हटाये जाने की माँग का कत्तई समर्थन नहीं करते और इसे एक नितान्त प्रतिक्रियावादी स्थितिबिन्दु समझते हैं। हम जनता के जनवादी अधिकार की लड़ाई के एजेण्डे पर भाषा के प्रश्न की मौजूदगी के स्थितिबिन्दु से, शासन और न्याय का सारा कामकाज जनता की भाषा में किये जाने की माँग की स्थितिबिन्दु से ही सी-सैट हटाये जाने की माँग का समर्थन करते हैं।
निश्चय ही इस माँग को लेकर आंदोलनरत छात्रों पर लाठियाँ बरसाकर और उनके साथ धोखाधड़ी भरी वायदाखिलाफी करके सरकार ने अपना 'चाल-चेहरा-चरित्र'एक बार फिर नंगा कर दिया है। इसकी कठोर भर्त्सना की जानी चाहिए। लेकिन एक बात और साफ है। जो लोग सी सैट हटाये जाने के प्रश्न पर लाठियाँ खा रहे हैं, उनमें से अधिकांश भाषा या भारतीय भाषाओं में शासकीय कामकाज के बारे में न तो कोई जनोन्मुख नज़रिया रखते हैं, न ही उनकी सोच का कोई वृहत्तर परिप्रेक्ष्य है। वे कलक्टर-एस.पी., कमिश्नर-आई.जी., सेक्रेटरी वगैरह-वगैरह बनने के समान अधिकार के लिए लाठियाँ खा रहे हैं।
मैं अपना व्यक्तिगत अनुभव बताऊँ। बरसों से हमलोग लगभग हर साल मुखर्जी नगर इलाके में भी प्रगतिशील पुस्तकों की प्रदर्शनियाँ लगाते रहे हैं। चूँकि ज्यादातर पुस्तकें हिन्दी में होती हैं, इसलिए आम छात्रों के अतिरिक्त सिविल सर्विसेज की तैयारी हिन्दी में करने वाले ज्यादातर युवा ही स्टॉल पर ज्यादा आते थे। बातचीत, बहस-मुबाहसे के दौरान ऐसे युवाओं के विचारों से अवगत होने का खूब अवसर मिलता था। यदि उनके कुल विचारों को थोड़े में समेटा जाये तो वे इस प्रकार होते थे: 'भारत को तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ाने के लिए तानाशाही ज़रूरी है', 'भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, नेताशाही -- सबकुछ तानाशाही से ठीक हो जायेगा', 'समाजवाद भी फासीवाद का ही एक रूप था जो फेल हो गया', 'सबकी बराबरी सम्भव नहीं', 'योग्य को आगे बढ़ने का अधिकार है' -- 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट', 'मज़दूर कामचोर होते हैं', 'हड़तालें देश की तरक्की में बाधक हैं', उन्हें सख्ती से कुचल देना चाहिए और यूनियनों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए'... वगैरह-वगैरह, इसी किस्म की निरंकुशतापूर्ण और मध्यवर्गीय कूपमण्डूकतापूर्ण बातें।
ऐसे कई युवा मिले जिन्होंने ईमानदारी से बताया कि आपलोगों से बहस करने से हम लोगों का जनरल नॉलेज बढ़ता है और तर्क-वितर्क का अभ्यास होता है जो ग्रुप डिस्कशन और साक्षात्कार में काम आता है। ज्यादातर ऐसे छात्र इतिहास, राजनीति विज्ञान, राजनीतिक अर्थशास्त्र और साहित्य की किताबें भी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की दृष्टि से ही खरीदते थे। अपवादों को छोड़ दें, तो बहुतायत इन्हीं विचारों वाले युवाओं की होती थी। कुछ ऐसे आदर्शवादी भी मिलते थे कि जिनका मानना होता था कि यदि अच्छे लोग नौकरशाही में आ जायें तो काफी हद तक व्यवस्था को दुरुस्त कर देंगे, हर व्यक्ति यदि स्वयं को ठीक कर ले तो सबकुछ ठीक हो जायेगा। ऐसे लोग तो क्रांति और आंदोलनों के प्रति और अधिक वितृष्णा का नजरिया रखते थे और ऐसी किसी भी सामाजिक कार्रवाई को घोर अराजकता मानते थे।
तो ऐसे तमाम भाई लोगों, आसानी से कलक्टर-कप्तान बनकर आप हमारे ही ऊपर लाठी-गोली चलवायें, हमें ही चूसने-पीसने-रौंदने-पछीटने-निचोड़ने में शासक वर्ग की मदद करें, आपके इस ''जनवादी अधिकार''के संघर्ष में तो हम आपके साथ नहीं हैं, साफ-साफ बता दें।
हाँ, सारी शिक्षा और सभी शासकीय काम भारतीय भाषाओं में हों, जनता की इस व्यापक जनवादी माँग की दृष्टि से हम सी सैट हटाये जाने की माँग का समर्थन करते हैं और आपके ऊपर हुए बर्बर सरकारी दमन का विरोध करने में पूरीतरह आपके साथ हैं।