-संदीप सिंह
नबारुण भट्टाचार्य |
मुक्तिबोध मदद करते हैं. दोनों ने सिखाया, नफरत करनी क्यों आनी चाहिए और किससे. और इसके आये बिना सब मनुष्यता,पेड़-प्रेम, जंतु-प्रेम, प्रेम-प्रेम नकली है,अधूरा है, झांसा है और मनुष्यता की जंजीरों को तोड़ने में, खोलने में कोई मदद नहीं करता.
ऐसे समय में जब रीढ़विहीन, गलदश्रु, बेहूदे, औरतखोर, नकलची, दलाल और लिजलिजे किस्म के लोग भी कवि का तमगा सीने पे लगाकर सत्ता संस्थानों की आँखों का तारा बने हुए हैं और दिन-रात आत्म प्रचार में लगे हुए हैं. कवियों की ये जमात प्लेटो के समय में हो गयी होती तो कुलीनशाही का समर्थन करने वाले उस विराट दार्शनिक को यह स्थापित न करना पड़ता कि "कविता और कवियों को राज्य (Polis) से बाहर कर देना चाहिए."जालिब ने शायद ऐसे ही लोगों को देखकर लिखा था "हुक्मरां हो गये कमीने लोग, खाक में मिल गये नगीने लोग."
नवारुण दा की कविताएँ और जीवन, हमारा हौसला बनाये रखते हैं, उम्मीद जगाये रहते हैं. वे कहती हैं कि इस दुधर्ष और मायावी समय में भी जमीन पर खड़े रहकर रचा जा सकता है, बिना झुके, बिना बिके. इतिहास "हमें"सही साबित करेगा'.
जिस 'सभ्यता-समीक्षा'ने मुक्तिबोध का सारा खून चूस लिया उसी राह पे चलते हुए नवारुण दा 'बांग्ला के मुक्तिबोध'बने. हममें से कुछ ने उनको बोलते, बतियाते, कविता पढ़ते, गरियाते और बहुत कुछ करते देखा है, सुना है. वह हमारी थाती है. प्राणवायु की तरह.
समझ में नहीं आता कि अभी क्या लिखा जाये, मुक्तिबोध की दो कविताओं के ये दो हिस्से बोलेंगे, नवारुण दा के लिए भी, हमारे लिए भी, तुम्हारे लिए भी..
1.
मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
'तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।
मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता साथ है,
अकेले में साहचर्य का हाथ है,
उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं
किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं, पुरस्कृत हैं
इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है !!
सबके सामने और अकेले में.'
...................
2.
पूंजीवादी समाज के प्रति
'इतने प्राण, इतने हाथ, इतनी बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद –
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल.
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ'दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे ह्रास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र.
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ.'
नवारुण के शब्दों में...
"ज्वालामुखी के मुहाने पर
रखी हुई है एक केतली
वहीं निमंत्रण
है आज मेरा
चाय के लिए।
हे लेखक, प्रबल पराक्रमी क़लमची
आप वहाँ जाएँगे?
(संदीप सिंह की फेसबुक वॉल से साभार..)
संदीप सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.
जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष.
इनसे सम्पर्क का पता है- sandeep.gullak@gmail.com