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'काल तुझसे होड़ है मेरी', मानो यही कह रहे वीरेन दा...

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-भास्‍कर उप्रेेती

(कल कवि वीरेन डंगवाल का जन्‍मदिन था. पिछले कुछ समय से अपनी खराब तबियत से जूझ रहे वीरेन दा इधर इंद्रापुरम (गाजियाबाद) में रहने लगे हैं. खूब लिख रहे हैं.. पढ रहे हैं.. 'समकालीन तीसरी दुनिया', 'कबाडखाना'और कुछ अन्‍य जगहों में छपी उनकी ताजा कविताएं बता रही हैं कि बीमार देह हो सकती है कवि नहीं. बीमार वीरेन दा से मिलने उनके चाहने वाले अक्‍सर मिलने चले आते हैं.. परसों हल्‍द्वानी से भास्‍कर उप्रेती और दीप भट्ट भी उनका हाल-चाल जानने और गप्‍पें मारने पहुंच गए. लौटकर भास्‍कर उप्रेती ने इसी मुलाकात पर एक छोटा टुकडा लिखा है.. प्रैक्‍िसस में आज यही....      सं.)


(वीरेन दा को जन्मदिन की ढेरों-ढेर शुभकामनाएं)

सुनीता ने 'कबाड़खाना'और 'समकालीन तीसरी दुनिया'में छपी वीरेन दा की कविता पढ़ाई तो दिल उनसे मिलने को बेताब हो उठा. "पिछले साल मेरी उम्र पैसठ की थी, तब मैं तकरीबन पचास साल का रहा होऊंगा, इस साल मैं पैसठ का हूँ. मगर आ गया हूँ गोया पचहत्तर के लपेटे में.."कई मित्रों संग उनसे मिलने जाने की योजनायें बनीं. लेकिन अंततः गत रविवार को मिलना हो पाया, इन्द्रापुरम दिल्ली स्थित उनके आवास पर. वीरेन दा तो वीरेन दा हुए. हमारे पहुँचने से पहले ही हमारा खाना तैयार करवा रक्खा था. हम उनका स्वास्थ्य पूछते इससे पहले ही उन्होंने हमारे लिए कई सवाल तैयार रख छोड़े थे. काया तो उनकी एकदम बदल गयी है लेकिन दिलोदिमाग और जवां हो उठा है. 

उन्होंने बताया कि वे अपने इस आवास पर दो दिन पहले ही आये हैं. इससे पहले अपनी बड़ी बहू के तीमारपुर स्थित सरकारी आवास पर थे. उस आवास पर मेरा जाना तब हुआ था जब उनका इस पारी का पहला ऑपरेशन हुआ था. (रायगढ़, छत्तीसगढ़ के वाकये के बाद). उन्होंने बताया वे यहाँ वे कविताएँ लिखने आये हैं. और जमकर लिखना चाहते हैं. जैसे गिर्दा कहते थे, 'बब्बा मरोड़ उठ रही है भीतर', वैसे ही वे भी व्यक्त करने को बेचैन थे. वे इतने चुस्त हो रखे थे कि हमें जिस बेड रूम में आराम के लिए रक्खा था, वहां खुद ही कुछ न कुछ सुनाने के बहाने चले आ रहे थे. बहुत बोल-बता रहे थे. हँसी-ठट्टा जमकर और फिर कह रहे थे अब मुझे चुप हो जाना चाहिए. ज्यादा बोलने से फीवर हो जाता है. दिल्ली में इतवार का दिन होने से बहुत से मित्रगण वहां मिलने पहुँच रहे थे. हमसे पहले आशुतोष, मंगलेश दा, डॉ. आशुतोष मिलकर जा चुके थे. 

इस दरम्यान पत्रकार पंकज श्रीवास्तव और उनकी पत्नी पहुँचीं. वीरेन दा ने उनकी पत्नी से कोई बनारसी गाना सुनाने की फरमाइश की और हमें उनकी गायकी कला के बारे में विस्तार से बताया. इस जोड़े के बारे में भी उनके पास बताने के लिए बहुत कुछ था. उन्हें तो वे जैसे बचपन से ही जानते थे. गाना वाकई कमाल का था. वीरेन दा की जिद थी कि हम रात को वहीँ रुकें, लेकिन नौकरी हम दोनों को डरा रही थी और वीरेन दा इस डर को पढ़ पा रहे थे. उनकी आखें चेतावनी दे रही थीं- "इतने भले मत बन जाना साथी, जितने भले होते हैं सर्कस के हाथी, गदहा बनने में लगा दी सारी कूबत सारी प्रतिभा, किसी से कुछ लिया नहीं, न किसी को कुछ दिया, ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया."उन्होंने सुनीता के लिए दो किताबें पहले से बाँध रक्खी थी..और आते-आते भी हमसे डटकर जिंदगी जीने के लिए कह रहे थे. उन्होंने गाजा पट्टी हमले पर इतवार की सुबह ही लिखी लम्बी कविता हमें सुनाई, बिना लिखे हुए को देखे. चित्रकार अशोक भौमिक ने अपनी जो पेन्टिंग उन्हें भेंट की थी, उसके अर्थ करती एक और ताजा कविता उनके मन में थी. कहीं से नहीं लगा वीरेन दा भयानक व्याधि की जद में हैं. यही लगा वे पल-पल बीमारी को मात दे रहे हैं. उनसे मिलना हमेशा की तरह नया जीवन मिल जाने जैसा था.


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