"...बीते दो हफ़्तों के दरम्यान आईएसआईएस जैसे चरमपंथी संगठन का किसी इतने बड़े देश की सत्ता और सैन्य ताक़त को चुनौती देना बेहद चौंकाने वाली बात है. दरअसल आईएसआईएस आतंकी संगठन अलक़ायदा की इराक़ इकाई से ही पैदा हुआ संगठन है जिसका नेतृत्व जॉर्डनवासी अबु मुसाब अल ज़रकावी था. ज़रकावी 2006 में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया जिसके बाद अबुबक्र अल बग़दादी ने उसकी विरासत संभाली. बाद में चलकर बग़दादी ने ही आईएसआईएस की बुनियाद रखी..."
मुल्के शाम यानि पश्चिमी एशिया का वो हिस्सा जो इन दिनों आंतरिक विद्रोह से बिखरने के कगार पर है. दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में एक मेसोपोटामिया यानि आधुनिक इराक में युद्ध के हालात ने वहां के ही कुछ नागरिकों को असभ्य बना दिया है जो कि आईएसआईएस के लड़ाकों के रूप में उभरकर सामने आएं हैं.
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इसकेबाद क्षेत्र में तेज़ी से अागे बढ़ते हुए आईएसआईएस ने उत्तरी इराक़ के बैजी स्थित प्रमुख तेल रिफाइनरी को अपने नियंत्रण में ले लिया. राजधानी बग़दाद से महज़ 150 मील दूरी पर स्थित रिफाइनरी पर सुन्नी विद्रोहियों के कब्ज़े का नतीजा ये है कि इराक़ी नागरिक आज ख़ौफ़ज़दा हैं. 15 दिनों से जारी ख़ूनी संघर्ष में अबतक करीब एक हज़ार से ज़्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं. लाखों इराक़ी नागरिक अपने ही देश में शरणार्थी बनकर सुरक्षित ज़मीन और छत तलाश रहे हैं. इराक़ी सेना और नागरिक लड़ाके मिलकर भी आईएसआईएस के जिहादियों का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं. हालत ये है कि देश में एक ही धर्म के दो विरोधी मतावलंबियों (शिया-सुन्नी) के बीच नागरिक युद्ध के आसार पैदा हो गए हैं.
आईएसआईएस का वजूद और मक़सद
बीते दो हफ़्तों के दरम्यान आईएसआईएस जैसे चरमपंथी संगठन का किसी इतने बड़े देश की सत्ता और सैन्य ताक़त को चुनौती देना बेहद चौंकाने वाली बात है. दरअसल आईएसआईएस आतंकी संगठन अलक़ायदा की इराक़ इकाई से ही पैदा हुआ संगठन है जिसका नेतृत्व जॉर्डनवासी अबु मुसाब अल ज़रकावी था. ज़रकावी 2006 में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया जिसके बाद अबुबक्र अल बग़दादी ने उसकी विरासत संभाली. बाद में चलकर बग़दादी ने ही आईएसआईएस की बुनियाद रखी.
आईएसआईएसके ख़तरनाक मंसूबों और तेज़ी से बढ़ते उसके अभियान से ये अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि संगठन इराक, सीरिया, जॉर्डन, फिलस्तीन और लेबनान (लेवेंट) जैसे मुल्कों में इस्लामिक राष्ट्रवाद की स्थापना के मक़सद के काम कर रहा है. हालांकि आईएसआईएस की पृष्ठभूमि से ऐसा कहा जा सकता है कि वो कट्टर इस्लामिक राष्ट्र की स्थापना चाहता है लेकिन आईएसआईएस के मौजूदा अभियान को देखकर ये पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाता कि ये राष्ट्रवादी जिहादियों का ही समूह है. संगठन में तकरीबन 1 लाख से ज़्यादा जिहादी शामिल हैं. जिसमें ब्रिटेन समेत यूरोप के कई देशों से आयातित भाड़े के लड़ाके शामिल हैं.
आईएसआईएसलड़ाकों की विविधता और केवल संघनित तेल उत्पादन वाले क्षेत्रों को ही निशाना बनाया जाना इस बात का संकेत करता है कि इसके पीछे का एजेंडा कुछ और भी है. इसके अलावा जानकार ये भी मानते हैं कि इराक़ी सुन्नी भेदभावपूर्ण सरकारी नीतियों के बावजूद चरमपंथियों के बजाए राजनीतिक प्रक्रिया के ज़रिए अपनी दिक्कतों का हल चाहते हैं. इस स्थिति में ये कहा जा सकता है कि चरमपंथियों को जनसमर्थन प्राप्त नहीं हैं.
आईएसआईएस के उदय के पीछे की वजह
मौजूदा संकट दरअसल इराक़ और सीरिया में तेज़ी से बदले राजनीतिक हालात की वजह से अचानक से सामने आया. सीरिया में बशर-अल-असद के ख़िलाफ़ संयुक्त मोर्चाबंदी के बावजूद असद को 80 फ़ीसदी मतों के साथ भारी सफलता मिली. इस तरह सीरिया में अमेरिकी नीति को भारी झटका लगा. परिणामतः सीरिया में असद की मुख़ालिफ़त कर रहे चरमपंथियों और इराक़ी सत्ता से असंतुष्ट विद्रोहियों को एकजुट कर एक प्रायोजित विद्रोह का मार्ग प्रशस्त किया गया.
अचानक से शुरू हुआ ये विद्रोह अपने आप में एकदम अलग और नए क़िस्म का है। आईएसआईएस का सीरिया और इराक़ के सीमावर्ती इलाके से देश के भीतरी हिस्से में प्रवेश करना इराक़ की जिस सरकार के लिए आज परेशानी का सबब बन गया है उसकी ज़िम्मेदार भी बहुत हद तक वो ख़ुद है.
शियाबाहुल्य इराक़ में अप्रैल में हुए चुनाव के बाद देश की बागडोर शिया नेता नूरी-अल-मलिकी के हाथों गई। चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल नहीं होने के बावजूद भी अमेरिका समर्थित मलिकी, सरकार बनाने में कामयाब रहे। सरकार बनाने के ठीक बाद मलिकी ने साम्प्रदायिक नीति, ख़ासकर सुन्नी अलपसंख्य कों के ख़िलाफ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाकर चरमपंथियों के उदय को और ज़्यादा उग्र किया जिसकी बुनियाद सऊदी अरब-अमेरिकी गठजोड़ बहुत पहले ही रख चुका था. खबरों में आई जानकारी के मुताबिक पिछले साल भी मलिकी सरकार ने ऐसे ही एक घटनाक्रम में करीब 800 से ज़्यादा सुन्नी अलगाववादियों को बंदी बना लिया था. जिसके बाद उन सुन्नी क़ैदियों के बारे में कुछ पता नहीं चल सका.
2003 में इराक़ में अमेरिकी आक्रमण और सद्दाम हुसैन के सत्ता के अंत के बाद अमेरिका ने पूरे क्षेत्र पर अपना प्रभाव लगातार दस साल तक क़ायम रखा. पिछले साल अमेरिकी सेना की वतन वापसी जिसके पीछे कई मजबूरियां रही हैं. ख़ुद अमेरिका में वहां के नागरिकों के विरोध के बाद अमेरिका को इस क्षेत्र में अपने प्रभुत्व को क़ायम रखना एक चुनौती रही. हालांकि अमेरिका ने शुरू से ही मलिकी सरकार का समर्थन किया लेकिन मलिकी सरकार की आंतरिक नीतियों से अमेरिका ख़ुद जाल में उलझता गया. एकतरफ इराक़ में लंबे समय तक लोकतंत्र बहाली के नाम पर अरबों डॉलर पानी की तरह बहाने और अपने सैनिकों की क़ुर्बानी देने वाले अमेरिका ने अंततः अपनी पसंद की सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई. वहीं दूसरी तरफ अमेरिका ऐसा करके अपने पुराने साथी सऊदी अरब की नज़रों में चुभने सा लगा. क्योंकि सऊदी अरब सीधे तौर पर इराक़ में शिया हुकूमत की मुख़ालिफ़त करता रहा है.
सऊदी अरब की भूमिका
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सऊदीअरब की इराक़ में शिया हुकूमत की मुखालिफत के पीछे दो अहम वजहें हैं. एक तो सऊदी अरब का व्यापारिक हित और दूसरी वजह है धार्मिक अंतर्विरोध. सुन्नी बाहुल्य सऊदी हुकूमत जो सुन्नी सम्प्रदाय के ही अलग फिरक़े (उपवर्ग) वहाबी और सलफ़ी फिरक़े से ताल्लुक रखती है और इस हुकूमत का शियाओं और सुन्नियों के ही दूसरे फिरक़े सूफ़ी सुन्नियों से गहरा धार्मिक मतभेद है. इराक़ में इस्लाम धर्म के कुछ महत्वपूर्ण स्मारक या धार्मिक स्थल मसलन कई सूफ़ियों, ख़लीफ़ाओं की दरगाह आदि है. सऊदी सरकार दरगाह संस्कृति के सख्त ख़िलाफ है और किसी भी इस्लामिक गणराज्य में ऐसी विचारधारा के प्रभुत्व को कभी बरदाश्त नहीं कर सकती है.
दूसरीमहत्वपूर्ण वजह सऊदी का व्यापारिक हित है. इराक कच्चे तेल के उत्पादन में वेनेज़ुएला. सऊदी अरब और पड़ोसी ईरान के बाद चौथे नंबर पर है. पिछले दस सालों में युद्ध से क्षतिग्रस्त इराक़ का तेल उत्पादन इस दरम्यान लगातार कम हुआ है. अब चूंकि देश में नए सिरे से सरकार और व्यवस्था क़ायम हुई है ऐसे में ये स्वभाविक है कि अपने विशाल तेल भंडार के बूते इराक़ सऊदी अरब सहित पेट्रलियम निर्यातक देशों के समूह (ओपेक) के बीच दोबारा मज़ूबूती से वैश्विक तेल बाज़ार में अपने पांव जमा सकता है. इस बात के डर से सऊदी अरब इस क्षेत्र को अशांत बनाए रखने में अहम भूमिका अदा कर रहा है.
अमेरिका की चुप्पी
इराक़ी सरज़मीं पर तेज़ी से अपना विस्तार कर रहे आईएसआईएस के लड़ाकों और उनके द्वारा जारी हिंसा को रोकने के लिए अमेरिकी सरकार ने अबतक बड़ी ही निष्क्रिय प्रतिक्रिया दी है. मलिकी सरकार की तरफ़ से अमेरिकी सैन्य मदद की गुहार के बावजूद ओबामा प्रशासन का इसमें हस्तक्षेप नहीं करना कई तरह के सवाल पैदा करता है. अंतरराष्ट्रीय मामलों के कई जानकार सीधे तौर पर ये मानते हैं कि आईएसआईएस का अभ्युदय अमेरिका के हित में है. विशेषज्ञ तो सीधे तौर पर ये आरोप लगाते हैं कि आईएसआईएस को खड़ा करने में अमेरिका का ही हाथ है. इतने कम सनय मेंआईएसआईएस के लड़ाकों की बड़ी तादाद, अत्याधुनिक हथियारों की मौजूदगी और उनका बेख़ौफ़ आगे बढ़ना इन संदेहों को पुख़्ता करता है.
मौजूदा समय में इराक़ में शियाओं की सरकार है. ऐसे में ईरान की इराक़ के साथ दोस्ती के आसार प्रबल हुए हैं. वैसे भी इन सब घटनाक्रमों के दरम्यान ही ईरान ने आईएसआईएस के ख़िलाफ इराक़ को मदद देने की पेशकश भी की है. ऐसे हालात में अमेरिका अपने पुराने प्रतिद्वंदी ईरान को इराक़ में अपना प्रभाव जमाने का कोई मौक़ा नहीं देना चाहता.
साभार- http://www.themalaysianinsider.com/ |
अबहालात ये हो गए हैं कि इराक़ टुकड़ों में बंटने के कगार पर है. दो अलग-अलग सम्प्रदायों के बीच नागरिक युद्ध (सिविल वार) जैसे हालात पैदा हो गए हैं. सुन्नी समुदाय मलिकी की पिछली सरकार और मौजूदा हुकूमत के साम्प्रदायिक रवैये से तंग आ चुका है तो वहीं इराक़ की डेमोग्राफी में एक अहम जगह रखने वाले कुर्दों का अपना अलग राग है. कुर्दों ने क्षेत्रीय स्वायत्ता और तेल के ख़ज़ानों पर अपना ध्यान केंद्रित किया हुआ है. कुर्दों का क्षेत्रीय शासन पहले ही संघीय सरकार के राय मशविरे के बिना अमेरिका के क़रीबी दोस्त इज़रायल को तेल का खेल चला रहा है. अरब जगत के कई देश इज़रायल को तेल की आपूर्ति के पक्ष में नहीं हैं ऐसे में असीमित तेल भंडार वाले क्षेत्र को क्षेत्रीय स्वायत्ता दिलाने के नाम पर टुकड़ों में बांटने का खतरा पैदा होता जा रहा है.
इसतरह मौजूदा संकट से ख़तरा सिर्फ इराक़ को ही नहीं बल्कि सीरिया, जॉर्डन और आसपास के कई क्षेत्रों पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं. सीरिया में भी उतने ही बुरे हालात हैं जितने कि इराक़ में. पिछले दो सालों से सीरिया में जारी संघर्ष की वजह से तकरीबन 6 लाख लोग जॉर्डन में राजनीतिक शरण ले रहे हैं जिसकी वजह से जॉर्डन भी चरमपंथियों के निशाने पर है.
इनसब हालात के बीचों-बीच इराकी नागरिक हिंसा के इस दौर में ख़ौफ की चादर ओढ़े अपने ही वतन में मुहाजिरों की तरह कोई सुरक्षित ठिकाना ढूंढ रहे हैं. इनमें जवान लड़कियां हैं, नवयुवक हैं, मासूम बच्चे हैं, बूढ़े मां-बाप हैं. वे पढ़ना चाहते हैं, खेलना, चाहते हैं, बेख़ौफ़ होकर चैन की सांस लेना चाहते हैं, अपनी तहज़ीब को ज़िदा रखना चाहते हैं और एक दशक से ये ख्बाव देख रहे हैं मुल्के शाम की भी कभी नई सुबह होगी.