-अंशु शरण
"...बहुमत लेकर आई यह सरकार अपने शुरुआत में ही एक अलोकतांत्रिक जमीन तैयार कर रही है. और असहमति की आवाजों को लगातार कुचलने की तैयारी की जा रही है…"
साभार- बामुलाहिज़ा |
सत्तापक्ष द्वारा संवैधानिक पदों को खाली करने की जल्दीबाज़ी में १७ राज्यपालों से और विभिन्न आयोगों के अध्यक्षों का इस्तीफा मांगा जाना, जबकि २००४ मे सत्ता परिवर्तन के बाद भाजपा के नेताओं ने इस तरह की कारवाई को असंवैधानिक बताया था . संसद मे महिला सुरक्षा पर बोलते प्रधानमंत्री का अपने मंत्री निहाल चंद के बलात्कार की घटना मे आरोपी होने पर चुप्पी साधे रहना, भाजपा शाषित मध्य प्रदेश का लगातार बलात्कार के मामले में शीर्ष पर होना, ये सारी घटनाएं ना सिर्फ भाजपा का दोहरा चरित्र उजागर करती हैं बल्कि उनके वरिष्ठ नेताओं की सत्ता लोलुपता भी दर्शाती है .
इसकेअलावा भी भाजपा को वैचारिक खुराक देने वाले संघ के नेताओं द्वारा "महिलाओं को विवाह के सामाजिक अनुबंध के तहत घर में रहना"या "फिर बलात्कार तो इंडिया मे होते हैं भारत मे नहीं"जैसे बयान और भाजपा नेता प्रमोद मुतालिक का पब में घुसकर महिलाओ की पिटाई करना, इनकी महिलाओं के प्रति सोच को दर्शाता है .
सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ टिप्पणी करने के मामले में गोवा के देवू चोडानकरऔर कर्नाटक के सैयक वकासको भारी मुसीबतों से गुजरना पड़ा. वहीँ मोहसिन सादिक को भी अपनी अभिव्यक्ति की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी.इन घटनाओं में भी सरकार की तरफ से कोई जिम्मेदार टिप्पणी न करना जहाँ एक और खुली अभिव्यक्ति को लेकर दहशत पैदा करता है. वहीँ यह अल्पसंख्यकों को असुरक्षा के भाव से घेर देता है.
सरकारकी गैर सरकारी संगठनों पर नकेल लगाने की कवायद लोकतंत्र मे दबाव-समूह को खत्म करने की दिशा मे एक कदम है. यह सरकार उस ओर भी अग्रसर है. विकास के नाम पर लोगों को बेघर करती रही सरकार अब लोगों के हक़ के लिये लड़ने वाले संगठनो को विकास-विरोधी बता कुचलने की तैयारी में है. राजनैतिक दल भरपूर कॉर्पोरेट चंदे के दम पर चुनाव लड़ रहे हैं. ऐसे में हम कैसे विश्वास करें कि कार्पोरेट के चंदे पर चुनाव लड़ने वाली पार्टी निष्पक्ष काम करेगी. ख़ास कर उन इलाकों में जहाँ जनता के प्रतिरोध से इन कॉर्पोरेट्स की कई मुनाफा बटोरू परियोजनाएं लटकी पड़ी हैं. सरकार इन प्रतिरोधों का दमन कर कॉर्पोरेट्स का रास्ता साफ़ करने की तैयारी में हैं. इसी क्रम में गैर सरकारी संगठनों को उन पर विदेशी फंडिंग का आरोप लगा कर उन्हें ख़त्म करने की कवायद की जा रही है. हद तो तब हो गयी जब विकास के समकालीन मॉडल को विभिन्न आन्दोलनों के जरिये चुनौती दे रहे गांधीवादी संगठन और उनसे जुड़े लोग भी आइ. बी. की निगरानी सूची में शामिल हो गये.
बहुमत लेकर आई यह सरकार अपने शुरुआत में ही एक अलोकतांत्रिक जमीन तैयार कर रही है. और असहमति की आवाजों को लगातार कुचलने की तैयारी की जा रही है.