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जनमत और चुनाव नतीजों का फर्क

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-सत्येंद्र रंजन

"...राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो कांग्रेस को इस बार दस करोड़ 69 लाख वोट मिले। 2009 की तुलना में उसके वोटों में लगभग एक करोड़ 22 लाख की गिरावट आई है। लेकिन यह अंतर इतना नहीं हैजिससे तब 206 सीटें पाने वाली पार्टी इस बार महज 44 पर सिमट जाती। भाजपा को 17 करोड़ से ऊपर यानी 2009 की तुलना में करोड़ 32 लाख 22 हजार से अधिक वोट मिले। लेकिन यह बढ़ोतरी भी उतनी नहीं थी,जिससे पिछली बार 116 सीटें पार्टी को 282 सीटें मिलना तार्किक लगे। दरअसलइस बार कांग्रेस को जहां हर 24 लाख वोट पर एक सीट मिलीवहीं भाजपा को हर छह लाख वोटों पर एक सीट मिल गई। कारण वही है। भाजपा को वोट जहां मिले वहां खूब मिले। कांग्रेस के वोट बिखरे-बिखरे मिले। बहरहालसवाल यह है कि क्या हालिया चुनाव नतीजे जनमत की सही अभिव्यक्ति हैं?..."

Illustration by Shyamal Banerjee/mint
साभार-http://www.livemint.com/

सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में मतदान का रिकॉर्ड बना। 66 प्रतिशत से अधिक मतदाता वोट डालने पहुंचे। यानी 55 करोड़ से अधिक लोग। इनमें से 1.1 एक प्रतिशत यानी साठ लाख से ज्यादा लोगों ने नोटा- यानी उपरोक्त में से कोई नहीं (नन ऑफ द एबॉव)- का बटन दबाया। ये वे लोग हैं, जिन्हें भारतीय राजनीति में उपलब्ध विकल्पों के बीच कोई अपने माफिक नहीं लगा। उन असंतुष्ट या लोकतंत्र की वर्तमान प्रणाली को भ्रष्ट मानने वाले बहुत से दूसरे लोगों से चुनाव सुधारों के बारे में से पूछें, तो वे वोटिंग मशीन पर नोटा का विकल्प मिलने को सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम बताएंगे। 

इसकेबाद अब उनकी मांग है कि प्रतिनिधि वापसी का अधिकार दिया जाए। यानी अपने प्रतिनिधि को बदलने के लिए मतदाताओं को पांच वर्ष इंतजार नहीं करना पड़े। बीच में भी जब एक खास संख्या में लोग ऐसा करना चाहें तो उन्हें इसका अवसर मिलना चाहिए। कुछ दूसरे लोग प्रातिनिधिक जनतंत्र के बजाय प्रत्यक्ष लोकतंत्र की वकालत करते मिलेंगे। वे सीधे जनमत संग्रह से देश का शासन चलाने के पक्ष में दलील देंगे। उनका तर्क है कि हर गांव में इंटरनेट कियोस्क लगा दिए जाएं तो हर नीतिगत या दूसरे अहम मसलों पर इंटरनेट आधारित मतदान से देश का शासन चलाया जा सकता है। यानी वे जनता और सरकार के बीच संसद या विधानसभाओं की जरूरत नहीं समझते। 

मुमकिनहै कि एक युग ऐसा आए, जब सचमुच इस तरह का लोकतंत्र स्थापित करना संभव हो जाए। परंतु आज के दौर में ये बातें रूमानी ही ज्यादा हैं। कोई व्यवस्था किसी देश की सामाजिक-आर्थिक यथार्थ और मानव विकास-क्रम के स्तर से अनुरूप ही हो सकती है। भारत में वर्तमान लोकतंत्र क्रमिक रूप से अधिक जन-भागीदारी की तरफ बढ़ा है। इसका प्रमाण लोगों की मतदान और राजनीतिक चर्चाओं में बढ़ती भागीदारी है। जिस सहजता एवं शीघ्रता से यहां सत्ता परिवर्तन हो जाता है, वह भी इसी बात को पुष्ट करता है।

इसलिएभारतीय लोकतंत्र के सामने फिलहाल असली चुनौती इसके प्रातिनिधिक स्वरूप को बदलने की नहीं है। बल्कि यह है कि इस व्यवस्था में अधिकतम जन-भागीदारी और चुनावों में जन-भावनाओं की अधिकतम अभिव्यक्ति को कैसे सुनिश्चित किया जाए। इस संदर्भ में मिले वोटों के अनुपात में सीटें ना मिलना एक ठोस समस्या मानी जा सकती है। हाल के वर्षों में चुनावों में पार्टियों को मिलने वाले वोट प्रतिशत और सीटों के बीच विसंगति कुछ ज्यादा खुल कर सामने आने लगी है। 

2010में बिहार में सिर्फ 39 प्रतिशत वोट के साथ नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 241 सदस्यों वाली विधानसभा में दो सौ से ऊपर सीटें जीत लीं। उधर 2012 में उत्तर प्रदेश में 30 प्रतिशत वोट के साथ समाजवादी पार्टी ने भारी जीत हासिल कर ली। उसके पहले 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने भी वोटों के लगभग इतने ही प्रतिशत के आधार पर 403 सदस्यों की विधानसभा स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया था।

यह तो निर्विवाद है कि हाल के लोकसभा चुनाव के नतीजे कई अर्थों में अप्रत्याशित और चौंकाने वाले रहे। इससे भारतीय राजनीति को लेकर पिछले ढाई दशकों में बनी कुछ धारणाएं ध्वस्त हो गईं। मसलनयह राय कि अभी लंबे समय तक केंद्र में बगैर गठबंधन के कोई सरकार नहीं बन सकती। मगर इसके साथ ये विसंगति भी खुल कर उभरी कि कुछ इलाकों में संकेंद्रित समर्थन आधार के जरिए कम वोट पाकर भी अधिक सीटें जीत लेने का चलन अपने देश में बढ़ता जा रहा है। 

भारतीयजनता पार्टी ने सिर्फ 31प्रतिशत वोट पाकर पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लिया। इसके पहले के 15 आम चुनावों में कभी ऐसा नहीं हुआ जब किसी पार्टी को 40 फीसदी से कम वोट पर स्पष्ट बहुमत मिला हो। इसके पहले सबसे कम 41.3फीसदी वोट पर जनता पार्टी को 1977 में पूरा बहुमत मिला था। दरअसलयह राजनीति के लगातार होते विखंडन का ही परिणाम है कि वोटों और सीटों के बीच विसंगति बढ़ती जा रही है।

ऐसाहोने की वजह अपनी फर्स्ट पास्ट द पोस्ट की चुनाव प्रणाली है। इस प्रणाली के तहत उस उम्मीदवार को विजेता माना जाता हैजिसको किसी सीट पर सबसे ज्यादा वोट मिलते हैंभले वो वोट कितने ही कम क्यों ना हों। ऐसे में जहां मुकाबला बहुकोणीय हो वहां पर किसी सीट पर सिर्फ 20 या उससे भी कम फीसदी वोट पाने वाला उम्मीदवार भी विजेता बन सकता हैक्योंकि बाकी वोट अलग-अलग उम्मीदवारों में बंट जाते हैं। अपने देश में राजनीति के बढ़ते विखंडन यानी राजनीतिक दलों की बढ़ती संख्या और उनके बीच वोटों के बढ़ते बंटवारे के कारण इस प्रणाली के तहत मिल रहे नतीजे धीरे-धीरे बेतुके स्तर पर पहुंचते जा रहे हैं। प्रश्न यह है कि क्या इससे जनमत की सही अभिव्यक्ति हो रही है?

तो क्या अब वक्त आ गया हैजब फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम में बदलाव पर विचार किया जाए? इसका विकल्प क्या हो सकता है? सीधे आनुपातिक मतदान प्रणालीया सिंगल ट्रांफरेबल आनुपातिक प्रणालीया फर्स्ट पास्ट दो पोस्ट और आनुपातिक प्रणाली का मिला-जुला रूपजैसाकि कई देशों में अपनाया जाता है। गौर कीजिए। बहुजन समाज पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर 4.1 प्रतिशत वोट पाकर भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरे नंबर पर रही। लेकिन उसे सीट एक भी नहीं मिली। उत्तर प्रदेश में इस बार बहुजन समाज पार्टी को एक करोड़ 59 लाख से अधिक वोट मिलेजो 2009 की तुलना में तकरीबन सवा सात लाख ज्यादा हैं। मगर तब उसे लोकसभा की 20 सीटें मिली थीइस बार खाता नहीं खुला। राज्य में समाजवादी पार्टी को करीब 1 करोड़ 80 लाख वोट मिलेजबकि 2009 में उसे तकरीबन एक करोड़ 29 लाख वोट ही मिले थे। किंतु तब उसे 23 सीटें मिली थींइस बार वह पांच पर सिमट गई। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे को 30 प्रतिशत वोट मगर सिर्फ दो सीटें मिलीं। दूसरी तरफ कांग्रेस ने सिर्फ 9.6 प्रतिशत वोट पा कर चार सीटें जीत लीं।

राष्ट्रीयस्तर पर देखें तो कांग्रेस को इस बार दस करोड़ 69 लाख वोट मिले। 2009 की तुलना में उसके वोटों में लगभग एक करोड़ 22 लाख की गिरावट आई है। लेकिन यह अंतर इतना नहीं हैजिससे तब 206 सीटें पाने वाली पार्टी इस बार महज 44 पर सिमट जाती। भाजपा को 17 करोड़ से ऊपर यानी 2009 की तुलना में करोड़ 32 लाख 22 हजार से अधिक वोट मिले। लेकिन यह बढ़ोतरी भी उतनी नहीं थी,जिससे पिछली बार 116 सीटें पार्टी को 282 सीटें मिलना तार्किक लगे। दरअसलइस बार कांग्रेस को जहां हर 24 लाख वोट पर एक सीट मिलीवहीं भाजपा को हर छह लाख वोटों पर एक सीट मिल गई। कारण वही है। भाजपा को वोट जहां मिले वहां खूब मिले। कांग्रेस के वोट बिखरे-बिखरे मिले। बहरहालसवाल यह है कि क्या हालिया चुनाव नतीजे जनमत की सही अभिव्यक्ति हैं?

साभार- http://ianwoolford.wordpress.com/
सिर्फसीटों पर गौर करें तो ऐसी धारणा बनती है कि 2014 के चुनाव नतीजों ने भारतीय राज्य-व्यवस्था के संघीयकरण (Federalization of Polityकी परिघटना पर विराम लगा दिया। मगर क्या यह सच है? ध्यान दीजिए। 2009 के आम चुनाव में कांग्रेस को 206 और भाजपा को 116 सीटें मिली थींजिनका योग 322 बनता है। इस बार भाजपा को 282 और कांग्रेस 44 सीटें मिली हैंजिनका योग 326 होता है। यानी पांच वर्ष पहले 221 सीटें बाकी दलों को गई थींइस बार ये आंकड़ा 217 है। 2006 में कांग्रेस ने28.6 और भाजपा ने 18.82 फीसदी वोट हासिल किए थे। इसका जोड़ 47.42 प्रतिशत बनता है। इस बार भाजपा ने 31 और कांग्रेस ने 19.3 प्रतिशत वोट प्राप्त किए। यानी दोनों को मिला कर 50.3 फीसदी वोट मिले। मतलब यह कि दोनों राष्ट्रीय दलों के सम्मिलित वोटों में 2.88 फीसदी का इजाफा हुआ। उनकी चार सीटें बढ़ीं। क्या इस आधार पर यह कहने का आधार बनता है कि 1989 के बाद से राज्य-व्यवस्था के संघीयकरण) की जो प्रक्रिया शुरू हुई थीवह 2014 में निर्णायक रूप से पलट गई है? लेकिन चुनाव परिणामों के स्वरूप से ऐसी ही धारणा बनी।

दरअसल, भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलने का कारण यह है कि उसके मजबूत आधार वाले राज्यों (गुजरात,राजस्थानमध्य प्रदेशछत्तीसगढ और झारखंड) में भी उसकी एकतरफा आंधी चली। उधर उत्तर प्रदेश,बिहार और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में उसके वोटों में जबरदस्त उछाल आया। वहां दूसरे तमाम दलों का लगभग सफाया हो गया। लेकिन ऐसा होने का एक कारण यह भी रहा कि भाजपा ने सहयोगी दल चुनने में बुद्धिमत्ता दिखाई। इसी कौशल से आंध्र प्रदेश में भी उसे सफलता मिली। असम में उसने अनपेक्षित कामयाबी हासिल की। परंतु ध्यान देने की बात यह है कि इनमें से ज्यादातर जगहों पर उसे सफलता कांग्रेस की कीमत पर मिली। क्षेत्रीय दलों के वोटों में वह ज्यादा सेंध नहीं लगा पाई। तमिलनाडुकेरल,पश्चिम बंगालओडीशा आदि में मोदी लहर का असर दिखालेकिन यह इतनी ताकतवर नहीं थी कि भाजपा को सीटों का महत्त्वपूर्ण लाभ होता।

इसके अलावा चुनाव सुधार से जुड़े जो मुद्दे हैंउनका संदर्भ सिर्फ तकनीकीकानूनी या प्रक्रियागत नहीं है। मतलब यह कि उनका राजनीतिक संदर्भ है। वे सुधार जनता की जागरूकता और सक्रिय भागीदारी से जुड़े हुए हैं। महज कानून या संहिताएं बना कर उन मोर्चों पर ज्यादा कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। मसलन चुनाव सुधारों पर चर्चा में आदर्श चुनाव आचार संहिता एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। इस संदर्भ में हमें यह याद करना चाहिए कि 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय जब चुनाव आचार संहिता को कानूनी आधार देने की बात आईतो निर्वाचन आयोग ने इसका कड़ा विरोध किया था। मतलब यह कि चुनाव आयोग की आज की स्थिति को बेहतर माना। आयोग की राय है कि आचार संहिता को विधायी रूप दे दिया जाए तो उससे संबंधित विवाद अदालतों के दायरे में चले जाएंगे, और फैसले वर्षों तक लटके रहेंगे। जाहिर है, इसे निर्वाचन आयोग स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के लिहाज से माफिक नहीं मानता। ये बात क्या यह जाहिर नहीं करती कि कम से कम सियासी मामलों में जनमत का दबाव कानून से मिलनी वाली ताकत से ज्यादा कारगर होता हैआखिर आचार संहिता के मामले में चुनाव आयोग की ताकत क्या हैपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने एक चर्चा के दौरान कहा था कि आयोग चुनाव आचार संहिता को लागू कर पाता हैतो इसलिए कि राजनीतिक दल उससे सहयोग करते हैं। स्पष्टतः राजनीतिक दल ऐसा करते नहींबल्कि जनमत के दबाव में उन्हें ऐसा करना पड़ता है।

यहमिसाल चुनाव सुधारों को लेकर जारी चर्चा में इसलिए महत्त्वपूर्ण हैक्योंकि जिन सुधारों की कल्पना की जाती है या इस बारे में जो भी ठोस सुझाव दिए जाते हैंउनकी सफलता इसी पर निर्भर करती है कि आखिरकार लोग उस अमल के लिए कितने निगहबान होंगे। भारतीय चुनावों की आज उच्च विश्वसनीयता कायम हो पाई हैतो इसका श्रेय चुनाव आयोग को तो जाता हैलेकिन टीएन शेषन से लेकर आज तक के दौर में निर्वाचन आयोग इसीलिए सफल हैक्योंकि उसके साथ जनमत की ताकत है। आज लगभग पूरे भरोसे के साथ यह कहा जा सकता है कि अपने यहां चुनाव भले स्वच्छ ना रह पाते हों, लेकिन परिणाम लोगों के वोट से ही तय होते हैं। मुमकिन है कि कई संदर्भों में वोट देने के पीछे जो प्रेरक कारण रहते हैं, उन्हें स्वस्थ ना माना जाए। लेकिन उनकी जड़ें हमारे अपने समाज में हैं। लेकिन इन कारणों को समझने के लिए हमें अपने सामाजिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमियों पर गौर करना होगा। मतदाता जातीय या सांप्रदायिक भावनाओं से प्रेरित होते हैंया कोई धन देकर उनके वोट खरीद लेता है- तो इन बुराइयों को चुनाव संबंधी कानून या नियमों में किसी परिवर्तन से दूर नहीं किया जा सकता।

हां, धन का प्रभाव एक बड़ा मुद्दा है। चुनावों में गैर-कानूनी धन के इस्तेमाल की शिकायत बढ़ती गई है। इससे पेड न्यूज और मतदाताओं को सीधे नकदी के भुगतान या शराब की बिक्री आदि जैसे चलन सामने आए हैं। यह आशंका बढ़ती जा रही है कि अगर इस पर नियंत्रण नहीं हुआतो लोकतंत्र असल में धन तंत्र में तब्दील हो जाएगा। हालांकि ऐसी आशंकाएं भी अक्सर लोकतंत्र के वर्गीय चरित्र की अनदेखी करके ही जताई जाती हैं। उनमें अपने लोकतंत्र के वास्तविक चरित्र की समझ का अभाव रहता हैइसके बावजूद इस आशंका को पूरी तरह निराधार नहीं कहा जा सकता। मगर इसे कैसे रोका जाएइस बारे में चुनाव आयोग जो कदम उठाता रहा हैउसका व्यवहार में कम ही असर हुआ है। बल्कि कुछ राजनीति शास्त्रियों का यह कहना बिल्कुल सही है कि पहले चुनावों में जो धन खुलकर खर्च होता थाअब वह परदे के पीछे से होने लगा है। परिणाम यह है कि प्रचारझंडेबैनर आदि पर जो पैसा खर्च होताउसे उम्मीदवार अब नकद या शराब के रूप में बांट देते हैं। ऐसे ही अनुभवों के आधार पर यह कथन अब आम हो गया है कि चुनाव आयोग पिछले डेढ़ या दो दशकों में चुनावों से गुंडागर्दी खत्म करने में तो काफी हद तक सफल है,लेकिन धन का प्रभाव वह नहीं रोक पाया है। तो इसे कैसे रोका जा सकता है?


आयोगचुनावों के दौरान खर्च पर नियंत्रण के लिए जिन कानूनों की जरूरत बताता हैउससे यह होने पाने की उम्मीद नहीं हैक्योंकि बिना कानूनी प्रावधान के भी चुनाव आयोग के पास आज पर्याप्त अधिकार हैं। आखिर कानून बन जाने से कितना फर्क पड़ जाएगाफिर राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदों में पारदर्शिता के उपायों की जो मांग की जाती हैउससे सरकारों की निर्णय या नीतियों संबंधी जवाबदेही तय करने में तो काफी मदद मिल सकती हैलेकिन उससे चुनाव खर्च नियंत्रित हो सकेगा- यह मानना कठिन है। दरअसलअगर चुनावों पर धन का प्रभुत्व हैतो उसका सीधा नाता अपने समाज के ढांचे से है। एक वर्ग विभाजित और विषम समाज में महज कानून के जरिए ताकतवर के प्रभाव को नियंत्रित करने की कोशिशें कभी पूरी तरह सफल नहीं हो सकतीं। इसलिए जो लोग लोकतंत्र बनाम धनतंत्र की बहस में पड़ते हैंउन्हें धन एवं ताकत के वर्चस्व को समग्रता में समझने और समाज में उसे नियंत्रित करने के उपायों पर विचार करना चाहिए। वैसेमौजूदा परिस्थितियों में सामाजिक यथार्थ से परिचित राजनीति शास्त्रियों का यह सुझाव जरूर गौरतलब है कि चुनाव में गैर-कानूनी धन को रोकने के लिए उपाय करने के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि इसमें अच्छे धन के लिए गुंजाइश बनाई जाए। यानी कोई धन के अभाव में चुनाव लड़ने से वंचित ना हो जाएऐसा नहीं होना चाहिए। इसलिए चुनाव के लिए सरकारी धन दिए जाने का सुझाव दिया जाता है। यह तथ्य है कि सिर्फ धन चुनाव परिणाम को तय नहीं करता। ऐसा होताहर चुनाव वही लोग जीतते जिनके पास सबसे ज्यादा धन है। फिर भी यह हकीकत जरूर है कि धन के अभाव में लोग चुनावी मुकाबले में नहीं आ पाते। ईमानदारी से समाज सेवा करने या विचारधारात्मक आग्रहों के कारण राजनीति में आने वाले लोगों के साथ अक्सर यह समस्या रहती है। अगर उनके लिए वैध धन उपलब्ध होतो अपने सामाजिक कार्यों या विचारों के कारण समाज में पहचान बनाने वाले लोगों के लिए न सिर्फ चुनाव लड़नाबल्कि धीरे-धीरे मुकाबले में अपनी उपस्थिति बनाना भी संभव हो सकता है।

यह महज संयोग नहीं है कि चुनाव सुधारों के प्रति प्रशंसनीय उत्साह दिखाने वाले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी चुनाव लड़ने के लिए सरकारी धन दिए जाने के प्रति अनुत्साहित रहे। जबकि यह चुनाव सुधारों की दिशा में एक बुनियादी कदम साबित हो सकता है। इसके विपरीत कुरैशी ने प्रक्रियागत बदलाव के अनेक सुझाव दिए। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखे पत्र में उन्होंने प्रस्तावित सुधारों का विस्तार से जिक्र किया। कहा जा सकता है कि आयोग के अनुभवों के आधार पर ये सुझाव तैयार किए गए। यानी कुरैशी के सुझाव अहम हैं। उन पर गौर किया जाना चाहिए। लेकिन यह बेहिचक कहा जा सकता है कि ये सुझाव पर्याप्त नहीं हैं। बल्कि कुछ मामलों में वे नौकरशाही नजरिए से निकले लगते हैंजिनमें चिंता व्यवस्था को अधिक से अधिक लोकतांत्रिक बनाने के बजाय राजनीतिक दलों एवं उनकी गतिविधियों को नियंत्रित करने की लगती है। मसलनराजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए सुझाए गए उपायों को लिया जा सकता है।

अपराधी राजनीति में नहीं आएंयह सही दिशा में सोचने वाले हर व्यक्ति की इच्छा होगी। मगर ऐसा करने की कोशिश में सामाजिक संघर्षों की पृष्ठभूमि से राजनीति में आए नेताओं का रास्ता बंद कर दिया जाएयह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ होगा। अक्सर दलितपिछड़े एवं आर्थिक रूप से शोषित समूहों के हित में संघर्ष करने वाले लोगों पर अनेक तरह के मुकदमे थोप दिए जाते हैं। अगर कुरैशी के सुझावों को मान लिया जाएतो ऐसे तमाम लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक लग जाएगीजिन के खिलाफ कोर्ट में आरोप तय हो चुके हों। फिलहाल यह रोक सजायाफ्ता होने पर लगती है। भारत के सामाजिक यथार्थ को देखते हुए क्या कोई न्यायप्रिय व्यक्ति इस सुझाव की तरफदारी कर सकता है

साभार - http://www.timeslive.co.za/
दरअसल, सिर्फ कानून या नियमों में बदलाव से चुनाव स्वच्छ हो जाएंगेयह आशा भी नहीं की जा सकती। ऐसे सुझाव सिर्फ उन समूहों की तरफ से आते हैंजो राजनीति की धूल-धक्कड़ से दूर हैं। यह उन लोगों की सोच है जो एक व्यक्ति- एक वोट- एक मूल्य” की व्यवस्था ने भारतीय समाज में सदियों से उत्पीड़ित समूहों को जो राजनीतिक ताकत दी हैउससे नावाकिफया खफा या खौफजदा हैं। इसीलिए चुनाव सुधारों की चर्चा में जनतांत्रिक विषयवस्तु को जोड़ना अब बेहद जरूरी हो गया है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसा करने वाली ताकतें पर्याप्त संख्या में मौजूद नहीं हैं। अपने को जन-आंदोलन कहने वाले संगठनों से ऐसी उम्मीद जरूर की जा सकती थी। लेकिन ये संगठन संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति एक गजब किस्म के द्रोह भाव से ग्रस्त नजर आते हैं। चुनावों की साख और प्रकारांतर में लोकतंत्र के विकासक्रम की सीढ़ी के रूप में संसदीय व्यवस्था की वैधता को संदिग्ध बनाने में वे और आम शासक एवं मध्य वर्ग के लोग समान धरातल पर हैं। ऐसे संगठनों या उनके कार्यकर्ताओं से संवाद करेंतो मौजूदा चुनाव प्रणाली की खामियों की एक लंबी फेहरिश्त वहां उभरती है। लेकिन इसकी बारीकी में जाएंतो यह साफ होगा कि उनकी शिकायत असल में चुनाव प्रणाली से नहींबल्कि मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था से है। इस संदर्भ में शासकसवर्ण एवं आम मध्यवर्ग की अपने लोकतंत्र से शिकायत समझी जा सकती है। वोट के अधिकार ने व्यवस्था में संख्या बल को जो ताकत दी हैउससे उनकी परेशानी स्वाभाविक है। अपनी तमाम खामियों के साथ हमारी संवैधानिक व्यवस्था ने सामाजिक लोकतंत्र का जो आधार तैयार किया है,उससे सुविधाओं एवं अधिकारों का उन समूहों तक प्रसार शुरू हुआ हैजिसकी पूर्व-व्यवस्थाओं में कोई गुंजाइश नहीं थी। जाहिर हैऐसा कुछ वर्गों के विशेषाधिकारों की कीमत पर हुआ है। इसलिए ऐसे समूहों की चर्चा में चुनाव सुधार का मतलब या मकसद राजनीति के इस लोकतांत्रिक स्वरूप को नियंत्रित करना होतो इसे समझा जा सकता है। मगर इस ऐतिहासिक प्रक्रिया के प्रति कथित जन आंदोलनों एवं उनके कार्यकर्ताओं का नकारात्मक दृष्टिकोण चुनाव सुधारों की चर्चा में जनतांत्रिक आयाम जोड़ने की राह में रुकावट बन जाएतो इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।

फिलहाल असली मुद्दा यह है कि चुनाव सुधारों की चर्चा को महज नकारात्मक उपायों तक सीमित न रहने दिया जाए। इसमें सकारात्मक पहल की संभावना को अधिक से अधिक जगह दी जाए। एनजीओ संचालित जन आंदोलन और नौकरशाहों से इस संदर्भ में उम्मीद जोड़ने का कोई आधार नहीं हैजिनके लिए चुनाव सुधार का मतलब लोकतांत्रिक राजनीति को बदनाम करना और उसकी प्रक्रियाओं पर नियमों तथा कानूनों का ऐसा शिकंजा कसना है, जो लोकतंत्र के आगे बढ़ने का रास्ता अवरुद्ध कर दे। ऐसा संभवतः वे लोग या समूह ही कर सकते हैंजो भारतीय लोकतंत्र के प्रति सकारात्मक नजरिया रखते हैं। उन लोगों को फिलहाल उन विकल्पों पर सोचना चाहिए जिनसे भारतीय चुनावों जनमत की वास्तविक अभिव्यक्ति हो सके।





लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही 
फिलहाल जामिया मिल्लिया 
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

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