-अविनाश कुमार चंचल
अविनाश कुमार चंचल |
"...लोकसभा चुनाव नजदीक होने की वजह से और उद्योगपतियों का झुकाव मोदी की तरफ होता देख कांग्रेस ने कॉरपोरेट घरानों को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया, जिसका असान माध्यम बना- पर्यावरण मंत्रालय। यही वजह है कि आनन-फानन में पर्यावरण मंत्रालय में मोईली को बैठाया गया और मोईली ने आते ही कंपनियों के प्रोजेक्ट्स को क्लियरेंस देना शुरू कर दिया है। अखबारों में इस क्लियरेंस की खबर “हैप्पी न्यू ईयरः मोईली टू इंडिया इंक” शीर्षक से छपी। एकदम साफ है कि किस तरह सिर्फ इंडिया इंक को खुश करने के लिए इन पर्यावरण क्लियरेंस नामक रेवड़ी को बांटा गया है।..."
मीडिया और राजनीतिक दलों के द्वारा हर रोज एक नया मुद्दा गढ़ा जा रहा है। ये मुद्दे कभी प्राइम टाइम एंकर सेट करते हैं तो कभी अपने भाषणों में राजनेता। बड़े ही साफगोई से मीडिया और राजनीतिक दल किसी भी मुद्दे को मनमुताबिक आकार देकर लोगों के सामने परोस देते हैं। पर्दे के पीछे जाने की जहमत कोई नहीं उठाना चाहता। हाल ही में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी द्वारा "जयंति टैक्स"को लेकर की गई टिप्पणी ने खूब सूर्खियां बटोरी। मोदी का यह बयान कांग्रेस के उस फैसले के बाद आया जिसके तहत पर्यावरण मंत्रालय से जंयति नटराजन को हटा वीरप्पा मोइली को लाया गया है। वीरप्पा मोईली ने आते ही सिर्फ 20 दिनों में 70 प्रोजेक्ट को क्लियरेंस बांट दिया है लेकिन इस पूरी बहस में यह बात गौण कर दी गई कि पर्यावरण मंत्रालय का काम पर्यावरण की चिंताओं को उपर रखना है न कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले प्रोजेक्टों को आंख बंद कर क्लियरेंस देना।
दरअसल, कांग्रेस और बीजेपी ने पर्यावरण को प्रोडेक्ट बनाकर बेचना सीख लिया है। भले ही जयंति को हटाने के पीछे पार्टी को मजबूत करने का तर्क दिया जा रहा हो लेकिन अटकले लगाई जा रही हैं कि पर्यावरण क्लियरेंस के कई लटकते मामले की वजह से उनकी मंत्रालय से विदाई की गई है। आकड़े भी इन्हीं अटकलों को पुख्ता कर रहे हैं। आकड़े बताते हैं कि मंत्रालय ने करीब 35 बड़े प्रोजेक्ट को रोक रखा था , जो कम से कम 1000 करोड़ और अधिकतम 5000 करोड़ तक के हैं। जयंति की विदाई के ठीक पहले राहुल गांधी फिक्की के मंच से भारतीय उद्योगपतियों द्वारा पर्यावरण क्लियरेंस को लेकर उठायी गयी आपत्तियों को स्वीकार करते हुए उन्हें भरोसा दिला रहे थे कि बड़े प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने के लिए पर्यावरणीय चिंताओं को दरकिनार किया जाना चाहिए। यह अलग मसला है कि यही राहुल गांधी खुद को आदिवासियों का सिपाही घोषित करते रहे हैं। सिपाही राहुल भूल गए कि आदिवासियों और पर्यावरण के बीच सदियों से पारस्परिक संबंध रहे हैं और पर्यावरणीय चिंताओं को दरकिनार करने का मतलब होगा विकास के हाशिये पर खड़े आदिवासियों के अधिकारों और चिंताओं को भी दरकिनार करना। मोईली द्वारा पदभार संभालने के बाद लगभग 1.5 लाख करोड़ के जिन प्रोजेक्ट को क्लियरेंस दिया गया उसमें उड़ीसा में स्थापित होने वाला 12 बिलियन डॉलर का पोस्को स्टील प्लांट भी शामिल है। पोस्को के खिलाफ स्थानीय लोगों का आंदोलन एक दशक से चल रहा है लेकिन वहां के लोगों की चिंताओं पर कॉरपोरेट की चिंताएँ भारी साबित हुई।
फिक्कीसे लेकर तमाम औद्योगिक संगठन पर्यावरण मंत्रालय पर इकोनॉमिक ग्रोथ को नुकसान पहुंचाने के आरोप लगाते रहे हैं। इसलिए जब जयराम रमेश ने कुछ बड़े प्रोजेक्ट्स को नो-गो जोन में डालने का प्रयास किया तो औद्योगिक घरानों ने उनका विरोध शुरू किया था। नतीजा हुआ कि जयराम को हटा कर "डेवलपमेंट माइंडसेट"वाले मंत्री जयंति नटराजन को पर्यावरण मंत्रालय का कार्यभार सौंपा गया लेकिन जंगलों और पर्यावरण जीवन पर पड़ने वाले गंभीर परिणामों को देखते हुए जयंति के कार्यकाल में भी कई बड़े प्रोजेक्ट को क्लियरेंस नहीं दिया जा सका। इसके बाद भारतीय उद्योगपतियों ने सरकार पर दबाब बनाना शुरू कर दिया। लोकसभा चुनाव नजदीक होने की वजह से और उद्योगपतियों का झुकाव मोदी की तरफ होता देख कांग्रेस ने कॉरपोरेट घरानों को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया, जिसका असान माध्यम बना- पर्यावरण मंत्रालय। यही वजह है कि आनन-फानन में पर्यावरण मंत्रालय में मोईली को बैठाया गया और मोईली ने आते ही कंपनियों के प्रोजेक्ट्स को क्लियरेंस देना शुरू कर दिया है। अखबारों में इस क्लियरेंस की खबर “हैप्पी न्यू ईयरः मोईली टू इंडिया इंक” शीर्षक से छपी। एकदम साफ है कि किस तरह सिर्फ इंडिया इंक को खुश करने के लिए इन पर्यावरण क्लियरेंस नामक रेवड़ी को बांटा गया है।
पेट्रोलियमऔर प्राकृतिक गैस मंत्रालय के मंत्री वीरप्पा मोईली को पर्यावरण मंत्रालय का कार्यभार सौंपना हितों के टकराव का भी मामला है। पर्यावरण मंत्रालय का कार्यभार संभालने से पहले खुद मोईली ने निवेश के लिए बनाए गए कैबिनेट कमिटि से कहा था कि वो जल्द से जल्द पर्यावरण मंत्रालय को 8000 करोड़ के तेल और गैस प्रोजेक्ट के क्लियरेंस के लिए आदेश दे। अब मोईली आसानी से उन प्रोजेक्टों को क्लियरेंस दे देंगे।
दूसरीतरफ बीजेपी और मोदी इस पूरे हेरफेर को अलग रंग देने की कोशिश में हैं। गोवा में मोदी ने भाषण देते हुए आरोप लगाया था कि जयंति टैक्स (घूस) न देने की वजह से कई प्रोजेक्ट अटकी पड़ी हैं। मोदी इतने भी भोले नहीं हैं कि उन्हें यह समझाने की जरुरत पड़े कि अगर मामला सिर्फ जयंति टैक्स (घूस) का होता तो कॉरपोरेट घराने उसे कब का अदा कर अपने अरबों के प्रोजेक्ट को चालू करवा लिये होते। 2 जी स्कैम से लेकर कोयला घोटाले तक कई उदाहरण भरे पड़े हैं जब कॉरपोरेट घरानों ने पर्दे के पीछे लेन-देन कर प्रोजेक्ट को हासिल किया है। दरअसल मोदी भी वही कांग्रेस की तरह पर्यावरण मंत्रालय को कॉरपोरेट हित में साधने का माध्यम भर मानते हैं और उन्हें पता है कि अगर वे सत्ता में आना चाहते हैं तो देश के औद्योगिक घरानों को खुश करना जरुरी होगा। खुद मोदी कई बार इस बात को दुहरा चुके हैं कि प्राकृतिक संसाधनों के सहारे इकोनोमिक ग्रोथ हासिल किया जा सकता है। मोदी पर गुजरात में पर्यावरण की चिंताओं को दरकिनार करने का आरोप भी लगता रहा है। मोदी भी प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी के एवज में औद्योगिक घरानों को खुश करने का संकेत दे रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस सरकार पीछे नहीं छूटना चाहती। अटकले हैं कि आने वाले दिनों में औद्योगिक घरानों को खुश करने के लिए पर्यावरण क्लियरेंस के नियम-कायदों को भी बदला जा सकता है। देश के औद्योगिक संगठन लंबे समय से पर्यावरण क्लियरेंस को उदार और लचीला बनाने की मांग करते रहे हैं।
हाल ही में कोयला घोटाले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि बड़ी रकम आधारित निवेश पर्यावरण क्लियरेंस का आधार नहीं हो सकते। औद्योगिक घरानों की हित साधने से ज्यादा जरुरी है पूरी प्रक्रिया में कानून का निष्पक्ष पालन हो। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर इन सारे पक्षों को जानने के बाद भी कंपनियां निवेश करती हैं तो इसके जिम्मेदार वे खुद हैं। बीजेपी और कांग्रेस समेत तमाम सरकारों और राजनीतिक दलों को समझने की जरुरत है कि किसी भी प्रोजेक्ट के लिए पर्यावरण क्लियरेंस सिर्फ कॉरपोरेट घरानों का ही मसला नहीं है बल्कि उसमें पर्यावरण की चिंता और लोगों के अधिकार भी हिस्सेदार होते हैं। कानून को चाहिए कि इन सभी पक्षों के साथ न्याय करे न कि सिर्फ कॉरपोरेट हित पूर्ती के लिए फटाफट क्लियरेंस देना शुरू कर दे।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इकोनोमिक ग्रोथ किसी भी सरकार की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है लेकिन साथ ही, पर्यावरण क्लियरेंस के बाद खनन क्षेत्र में रहने वाले सामुदाय के मानवाधिकारों और पर्यावरण की चिंताओं को भी हाशिये पर नहीं धकेला जा सकता है। सरकार की जिम्मेदारी है कि उसके लिए फैसले से लोगों के अधिकारों की रक्षा हो न कि उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाये।
अविनाश युवा पत्रकार हैं. पत्रकारिता की पढ़ाई आईआईएमसी से.
अभी स्वतंत्र लेखन. इनसे संपर्क का पता- avinashk48@gmail.com है.