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मुद्दों पर मुखोटों की राजनीति का दौर

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...तोक्या सचमुच भाजपा ने अपने उस कथानक को अलविदा कह दिया है, जिसमें अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, समान नागरिक संहिता पर अमल और धारा 370 की समाप्ति को मुख्य मुद्देबताया जाता था?इन मुद्दों से जो राजनीतिक कार्यक्रम जाहिर होता है, उसके पीछे का संदेश कहीं अधिक गहरा है..."

कांग्रेस का वो कथानक अब सामने है, जिसे लेकर वह इस वर्ष के आम चुनाव में जनादेश मांगने जाएगी। पार्टी ने अपनी शक्ति को आधार बनाया है। जिस वक्त वर्तमान संकट से भरा और संभावनाएं धूमिल हों, अपने इतिहास की तरफ मुड़ना अस्वाभाविक नहीं है। तो कांग्रेस मतदाताओं को बताएगी कि वो उस भारत के विचारकी सबसे मजबूत नुमाइंदा है, जो हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में विकसित हुआ और जिसको लेकर स्वतंत्रता के बाद आधुनिक भारतीय राष्ट्र का निर्माण हुआ है। इसी प्रयास में उसने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया। ऐसा करने पर मुकाबला राहुल बनाम नरेंद्र मोदी में तब्दील होता और अब तक के जनमत सर्वेक्षणों से साफ है कि इस मोर्चे पर कांग्रेस कमजोर विकेट पर है। तो कांग्रेस अगले आम चुनाव को धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता के संघर्ष में चित्रित करना चाहेगी। इस रूप में वह 2004 की परिस्थितियों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करेगी ताकि मोदी के नेतृत्व में भाजपा के सत्ता में आने से आशंकित मतदाताओं और पार्टियों को गोलबंद किया जा सके। रणनीति सफल रही तो यूपीए-3 की संभावना बन सकती है। 


प्रधानमंत्रीपद का उम्मीदवार घोषित ना कर कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव को व्यक्तियों के संघर्ष में बदलने की भाजपा की इच्छा पूरी नहीं की। तो भाजपा ने अपने कथानक से कांग्रेस की मंशाओं पर पानी फेरने की तैयारी की है। दिल्ली में राष्ट्रीय परिषद की बैठक और उसके अंत में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के भाषण से यह साफ हुआ कि भाजपा का जतन धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ध्रुवीकरण रोकने का है। इसलिए मोदी के लगभग डेढ़ घंटे के भाषण में हिंदुत्व के किसी मुद्दे की चर्चा नहीं हुई। उसके पहले पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने धारा 370 पर कुछ समय पहले जम्मू में मोदी के भाषण से पैदा हुए भ्रम को बने रहने दिया। मोदी और सिंह दोनों के भाषणों का सार है कि पार्टी इस मुद्दे पर पुनर्विचार को तैयार है। परोक्ष संकेत है कि अगर वो ऐसा धारा 370 के सवाल पर कर सकती है तो अन्य विभाजक मुद्दों पर भी कर सकती है। कुल मिलाकर भाजपा के कथानक में जोर कांग्रेस की कमजोरियों पर हमला, अति साधारण पृष्ठभूमि से उभरे निर्णायक नेता के रूप में नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व उभारने और अपने-अपने राज्यों के राजनीतिक समीकरणों के कारण कांग्रेस विरोध को मजबूर दलों एवं क्षत्रपों को जोड़ने पर है।

येकहानी कुछ इस तरह बनती है- यूपीए के भ्रष्टाचार और अनिर्णय के कारण अर्थव्यवस्था बिगड़ी, महंगाई बढ़ी, लोगों का जीना मुहाल हुआ और भारत के विकसित देश बनने का सपना चकनाचूर हो गया। दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी ने अपने निर्णायक नेतृत्व से गुजरात में विकास का वह मॉडल तैयार किया, जिस पर आज कॉरपोरेट जगत से लेकर मध्य वर्ग तक मोहित है। फिर पार्टी बताएगी कि कांग्रेस एक परिवार की थाती है, जबकि भाजपा में वह व्यक्ति भी सर्वोच्च स्तर तक पहुंच सकता है, जिसका जन्म पिछड़ी जाति में हुआ, जिसकी मां घरों में सफाई-बरतन का काम करती थी और जिसने चाय बेचने वाले लड़के रूप में अपनी जिंदगी शुरू की। यह यूं ही नहीं था कि मोदी ने संभवतः पहली बार अपने पिछड़ी जाति से आने की चर्चा इतने विस्तार से की। यानी भाजपा खुद को कांग्रेस से ज्यादा लोकतांत्रिक परंपरा का वाहक बताएगी और मंडल राजनीति की विरासत हथियाने की कोशिश करेगी। उसका संदेश होगा कि वास्तविक लोकतंत्र के रास्ते में असली बाधा वंशवादी कांग्रेस है, जिसके नेता अपनी सामंती मानसिकता के कारण चाय बेचने वालोंके प्रति अपमान-भाव रखते हैं। विकास और लोकतंत्र के अलावा भाजपा तीसरा मुद्दा फेडरलिज्म (संघवाद) है। इसके जरिए कोशिश जयललिता, लेकर नवीन पटनायक और ममता बनर्जी तक को अपने पाले मे लाने की है।

तोक्या सचमुच भाजपा ने अपने उस कथानक को अलविदा कह दिया है, जिसमें अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, समान नागरिक संहिता पर अमल और धारा 370 की समाप्ति को मुख्य मुद्देबताया जाता था?इन मुद्दों से जो राजनीतिक कार्यक्रम जाहिर होता है, उसके पीछे का संदेश कहीं अधिक गहरा है। पृष्ठभूमि में राष्ट्रवाद की एक विशिष्ट धारणा है, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहता है। मूल रूप से यही हिंदुत्व का विचार है। स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद के दशकों में यह विचार की राष्ट्रवाद की उस धारणा से सीधी प्रतिस्पर्धा रही, जिसकी नुमाइंदी प्राथमिक रूप से कांग्रेस- लेकिन व्यापक रूप से कई दूसरी विचारधाराओं से जुड़ी पार्टियों एवं संगठनों ने की। आर्थिक हितों पर आधारित, सर्व-समावेशी, लोकतांत्रिक, एवं सबसे न्याय का वादा करने वाले राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्र बनाने का वादा करने वाली विचारधारा तब से भारतीय राजनीति में सबसे प्रमुख विभाजक रेखा बनी हुई है। अब जाहिर रणनीतियों से साफ है कि कांग्रेस इसी अंतर पर ध्यान खींचते हुए चुनाव मैदान में उतरेगी, जबकि भाजपा की कोशिश इस बिंदु पर ध्रुवीकरण रोकने, हिंदुत्व के मुद्दों को पृष्ठभूमि में रखने, और खुद को विकास तथा क्षेत्रीय आकांक्षाओं की मित्र शक्ति के रूप में पेश करने की है। क्षेत्रीय आकांक्षाएं हाल के दशकों में मजबूत होकर उभरी हैं। राष्ट्रीय प्रसार वाले दलों के सिकुड़ने और राज्यों में क्षत्रपों के उदय के साथ भारतीय राज्य-व्यवस्था के स्वरूप में बदलाव आया है। यहां तक कि आज विदेश नीति के मुद्दे भी क्षेत्रीय दबाव में तय होने लगे हैं। अपने मूल विचार में संघ परिवार संघीय व्यवस्था के खिलाफ रहा। अब राजनीतिक जरूरतों के कारण भाजपा का उसे अपना प्रमुख मुद्दा बनाना सचमुच दिलचस्प घटनाक्रम है।

क्या इससे भाजपा के मुख्य समर्थन आधार पर असर पड़ेगा?ऐसा संभवतः नहीं होगा। इसलिए कि नरेंद्र मोदी की राजनीतिक विरासत के साथ एक खास तरह का पैगाम जुड़ा हुआ है। सत्ता में रहते हुए हिंदुत्व की राजनीति का प्रयोग उनसे बेहतर भारत में किसी दूसरे नेता नहीं किया। इसलिए हिंदुत्व समर्थक समूहों को उत्साहित करने के लिए सिर्फ उनका नाम ही काफी है। फिर भाजपा पर आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जितना नियंत्रण है, उतना पिछले चार दशकों में कभी नहीं रहा। ऐसे में भाजपा के साथ संघ की मूल विचारधारा का संदेश अंतर्निहित है। बिना उसे सामने लाए, जिन मुद्दों से राजसत्ता तक पहुंचने की राह निकलती है उन्हें प्रचार अभियान का हिस्सा बनाने को असल में एक होशियार रणनीति माना जाएगा। 

क्याकांग्रेस इस अंतर्कथा को विश्लेषित कर जनता के सामने रख पाएगी? वो ऐसा कर पाई तो उसकी नई चुनावी रणनीति के कामयाब होने की संभावना है। वरना, भाजपा के पास यूपीए के दस साल के शासन से पैदा हुए असंतोष को भुनाने का मौका है जिसके बीच वह अपने संदेश को अधिक प्रभावी ढंग से पेश करने की स्थिति में है। बहरहाल, आप चाहे मोदी के समर्थक हों या विरोधी- उनकी इस बात से कम ही लोग असहमत होंगे कि अगला चुनाव साधारण नहीं है। संग्राम दो विचारों के बीच है और उनका कथानक तैयार है।
 
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

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