"...अपूर्वानंद और प्रियदर्शन दोनों की चिंताओं का यही सार है जबकि समस्या सिर्फ इतनी भर नहीं है। एक खास विचारधारा और समाज बदलाव के सपने जीने वाले हम लोगों को क्या मीडिया ट्रायल, कानूनी और प्रक्रियागत बारीकियां तभी याद आती हैं जब हमारे अपने बीच का कोई खुर्शीद अनवर आत्महत्या को गले लगा लेता है, या तब जब हमारी अपनी राजनीति, वैचारिकी को इन घटनाओं से धक्का लगता है? क्या हमें इन सभी सवालों का ख़याल तब भी होता है जब निर्भया बलात्कार घटना का आरोपी राम सिंह तिहाड़ जेल में न्यायालय द्वारा तकनीकी रूप से आरोपी साबित होने से पहले ही आत्महत्या कर लेता है? क्या राम सिंह की आत्महत्या पर खामोशी की चादर ओढ़कर या इतने ही सख्त लहजे में अपनी चिंता व्यक्त नहीं कर, हम मीडिया और आक्रामकता की खतरनाक हद तक बनाये गये माहौल का हिस्सा नहीं बने- जिस माहौल और खामोशी का सन्देश यही था कि जिसे कल फांसी के फंदे पर चढ़ना था, उसका आज मर जाना ही बेहतर था। क्या हम दो व्यक्तियों की मौत से पैदा हुये दुःख और संताप में भी अंतर करेंगे?..."
खुर्शीद अनवर की आत्महत्या और फिर उससे उठे सवालों का सिलसिला अब धीरे-धीरे थमने लगा है। सोशल मीडिया और फेसबुक पर प्रतीकात्मक और कभी-कभार सीधे-सीधे अंदाज में कुछेक टिप्पणियां अब भी हो रही हैं, लेकिन कुल मिलाकर यह साफ है कि है कि इस मामले पर कई तरह के पक्ष कई तरह की बातें सामने लाकर फिलहाल शांत हो गये हैं।जनसत्ता में गये 22 दिसंबर को अपूर्वानंद और प्रियदर्शन ने अपनी विस्तृत टिप्पणियों के जरिये खुर्शीद को याद किया है और इस बहाने इस मामले से जुड़े कुछ मुद्दों की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की है। हालांकि दोनों ने जिन सवालों को जोर-शोर से उठाया और इसके अतिरिक्त भी इस बहस से जुड़े हुये जो सवाल अब तक उठे हैं, उन पर सोचने-समझने और विचारने की जरुरत अभी भी खत्म नहीं हुयी है। ये देखते हुये भी कि यह पूरा मामला कई मायनों में बलात्कार और उसकी राजनीति से जुड़े कुछ अलग और उलझे हुये सवालों की ओर भी ले जाता है। लेकिन इन गंभीर और उलझे हुये सवालों का ही ये तकाजा भी है कि एक बार फिर इस पूरे प्रकरण के बहाने उन चिंताओं की सार्थकता पर विचार किया जाये, जो प्रतिनिधि रूप में अपूर्वानंद और प्रियदर्शन ने व्यक्त की हैं।इसटिप्पणी को लिखने का उद्देश्य अपूर्वानंद और प्रियदर्शन की बातों के साथ अपनी असहमति दर्ज करवाना है। मैं शुरुआत में ही यह साफ कर देना चाहता हूं कि दोनों के प्रति किसी व्यक्तिगत विद्वेष के चलते मैंने ये टिप्पणी नहीं लिखी है। बल्कि समकालीन विमर्शों और मुद्दों पर दोनों की ही लेखकीय टिप्पणियों और हस्तक्षेप को मैंने हमेशा ध्यानपूर्वकपढ़ता रहा हूं। दरअसल दोनों की टिप्पणियों से मेरी बुनियादी असहमति और चिंतायें न सिर्फ इस प्रकरण से जुड़ा, बल्कि कई अन्य मामलों से भी जुड़ा एक ऐसा पक्ष है, जिसे संबोधित किये जाने की जरुरत मैं शिद्दत से महसूस करता हूं। ये संभव है कि मेरा ये हस्तक्षेप इस मामले पर अपनी–अपनी कलम चला चुके लेखकों को अप्रासंगिक और कुछ हद तक गैर-जरूरी भी लगे।
अपूर्वानंदऔर प्रियदर्शन, दोनों के ही लेखों में चिंताओं के स्वर लगभग एक जैसे हैं। दोनों ने ही यह याद दिलाने की कोशिश की है कि बलात्कार के किसी कथित आरोपी को कटघरे में खड़ा करने की ‘जल्दबाजी’ में कानूनी प्रक्रियाओं की संवेदनशीलता और वैज्ञानिकता का ध्यान रखा जाना चाहिये और ऐसा न करने का दुष्परिणाम कितना घातक हो सकता है। इसी आधार पर दोनों ने अपने-अपने तरह से अभियोग को भी पूरा अवसर दिये जाने और संतुलन, संयम बरतने की बात कही है। बकौल अपूर्वानंद, ‘पीड़ित’ के पक्ष में जन समर्थन जुटाने के साथ-साथ न्याय के दोनों पक्षों का ख़याल रखा जाना चाहिये।
हालांकिशुरुआती स्तर पर ये मांग और अपेक्षा बिलकुल वैसी ही है जैसे बंद कमरे में मुसीबत में पड़े किसी व्यक्ति से संयमी और संतुलित होकर अपनी मदद में पुकार की उम्मीद करना। अपूर्वानंद ने ध्यान दिलाया है कि साहस बंधाने और आवाज उठाने के क्रम में कई लोग जैसे स्वयं न्याय करने निकल पड़ते हैं और जिनका पीड़िता को न्याय दिलाने से सरोकार कम और इस बहाने आरोपी को सार्वजनिक तौर पर शर्मिंदा करने का स्वार्थ अधिक होता है-ऐसे लोग जो कथित आरोपी की ‘सार्वजनिक बेइज्जती या अपमान’ करके संतुष्ट हो जाते हैं। हालांकि ‘बेइज्जती’ या ‘अपमान’ एक ऐसा शब्द है जिसकी ठीक-ठीक व्याख्या नहीं की जा सकती। ऐसे कितने ही मामले हैं जिनमें समाज के प्रभु वर्ग से संबंध रखने वाले बलात्कार और यौन शोषण के आरोपियों को अपने खिलाफ शिकायत दर्ज करवाने के लिये बनने वाला दबाव भी अपमानजनक लगता है। पूर्व जस्टिस गांगुली का उदाहरण हम सबके सामने हैं। इससे पहले भी कई ऐसे मामले रहे हैं जिनमें आरोपियों ने अपने अपमान और बेइज्जती जैसे शब्दों को ढाल की तरह इस्तेमाल किया और जिन पर बाद में आरोप सही साबित हुये।
वास्तवमें ऐसे मामलों में अपमान या बेइज्जती की कसौटियां पद और प्रतिष्ठा के अनुरूप तय होती हैं। बल्कि यहीं से उस तर्क की रीढ़ भी तैयार होती जाती है जिसमें अक्सर संभ्रांत पृष्ठभूमि और सम्मानित पेशों से जुड़े लोग यह कहते हुये पाये जाते हैं कि उनको निशाना इसलिये बनाया जा रहा है क्योंकि उन्होंने अपने किसी बड़े उद्देश्य की पूर्ति के दौरान समाज विशेष के एक वर्ग के हितों को चोट पहुंचायी। यहां वह ‘बड़ा’ और ‘महान’ उद्देश्य असल में एक आवरण बन जाता है। आसाराम बापू मामला, तहलका प्रमुख तरुण तेजपाल पर लगा कथित बलात्कार का आरोप और अब पूर्व जस्टिस गांगुली पर लगे आरोप के मामलों में कथित आरोपियों द्वारा अपने पक्ष में दी गयी सफाई का करीने से मूल्यांकन कर इस तर्क की वैधता को जांचा-परखा जा सकता है।
हालांकिशुरुआती स्तर पर ये मांग और अपेक्षा बिलकुल वैसी ही है जैसे बंद कमरे में मुसीबत में पड़े किसी व्यक्ति से संयमी और संतुलित होकर अपनी मदद में पुकार की उम्मीद करना। अपूर्वानंद ने ध्यान दिलाया है कि साहस बंधाने और आवाज उठाने के क्रम में कई लोग जैसे स्वयं न्याय करने निकल पड़ते हैं और जिनका पीड़िता को न्याय दिलाने से सरोकार कम और इस बहाने आरोपी को सार्वजनिक तौर पर शर्मिंदा करने का स्वार्थ अधिक होता है-ऐसे लोग जो कथित आरोपी की ‘सार्वजनिक बेइज्जती या अपमान’ करके संतुष्ट हो जाते हैं। हालांकि ‘बेइज्जती’ या ‘अपमान’ एक ऐसा शब्द है जिसकी ठीक-ठीक व्याख्या नहीं की जा सकती। ऐसे कितने ही मामले हैं जिनमें समाज के प्रभु वर्ग से संबंध रखने वाले बलात्कार और यौन शोषण के आरोपियों को अपने खिलाफ शिकायत दर्ज करवाने के लिये बनने वाला दबाव भी अपमानजनक लगता है। पूर्व जस्टिस गांगुली का उदाहरण हम सबके सामने हैं। इससे पहले भी कई ऐसे मामले रहे हैं जिनमें आरोपियों ने अपने अपमान और बेइज्जती जैसे शब्दों को ढाल की तरह इस्तेमाल किया और जिन पर बाद में आरोप सही साबित हुये।
वास्तवमें ऐसे मामलों में अपमान या बेइज्जती की कसौटियां पद और प्रतिष्ठा के अनुरूप तय होती हैं। बल्कि यहीं से उस तर्क की रीढ़ भी तैयार होती जाती है जिसमें अक्सर संभ्रांत पृष्ठभूमि और सम्मानित पेशों से जुड़े लोग यह कहते हुये पाये जाते हैं कि उनको निशाना इसलिये बनाया जा रहा है क्योंकि उन्होंने अपने किसी बड़े उद्देश्य की पूर्ति के दौरान समाज विशेष के एक वर्ग के हितों को चोट पहुंचायी। यहां वह ‘बड़ा’ और ‘महान’ उद्देश्य असल में एक आवरण बन जाता है। आसाराम बापू मामला, तहलका प्रमुख तरुण तेजपाल पर लगा कथित बलात्कार का आरोप और अब पूर्व जस्टिस गांगुली पर लगे आरोप के मामलों में कथित आरोपियों द्वारा अपने पक्ष में दी गयी सफाई का करीने से मूल्यांकन कर इस तर्क की वैधता को जांचा-परखा जा सकता है।
इसबात से शायद ही कोई इंकार करे कि लेखन या सार्वजनिक जीवन के किसी भी हिस्से में सक्रिय हर व्यक्ति की अपनी नैतिक वैधता और सत्ता होती है, जो वह समाज से ही अर्जित करता है। इसी नाते समाज के पास भी ये नैतिक अधिकार होता है कि वह उसे जवाबदेह बनाये और उचित अवसर पर उससे सवाल भी करे। कोई भी ऐसा व्यक्ति अप्रश्नेय तो कतई नहीं होता। जाहिर है, कि इस बात से प्रियदर्शन और अपूर्वानंद दोनों ही इत्तेफाक रखते हैं कि खुर्शीद को कानूनी प्रक्रिया का सामना करना चाहिये था।
लेकिनइन सब बातों के बावजूद मैं निजी तौर पर इस अपेक्षा और मांग को खारिज नहीं करता कि एक सीमा के बाद सवाल उठाते हुये थोड़ा संयम और संतुलन बरता जाना चाहिये। साहस के साथ आवाज उठाने वाली शब्दावली और अपमान की शब्दावाली के बीच कहीं कोई रेखा होती है, मैं ये भी मानता हूं। इस आपत्ति को भी पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता कि सोशल मीडिया पर खुर्शीद के मामले में भी ऐसी अमान्य भाषा और तरीकों का इस्तेमाल हुआ जो संभवतः नहीं होना चाहिये था-तकनीकी रूप से जिसे अपूर्वानंद ने ‘फैसलाकुन चर्चा’ या ‘मीडिया ट्रायल’ और प्रियदर्शन ने ‘मर्दवादी चरित्र’ कहा है। ऐसा मानने के साथ ही मैं मधु किश्वर के साथ भी नहीं खड़ा हूं, जिन्होंने इस पूरे मामले को एक मुहिम की शक्ल देने की हडबडाहट में कई बुनियादी बातों का ध्यान नहीं रखा, जिसकी विस्तार से चर्चा अपूर्वानंद ने अपने लेख में की है। मुमकिन ये भी है कि मधु किश्वर की इस गलती को आपराधिक कृत्य की ही संज्ञा दी जाये।
अपूर्वानंदऔर प्रियदर्शन दोनों की चिंताओं का यही सार है जबकि समस्या सिर्फ इतनी भर नहीं है। एक खास विचारधारा और समाज बदलाव के सपने जीने वाले हम लोगों को क्या मीडिया ट्रायल, कानूनी और प्रक्रियागत बारीकियां तभी याद आती हैं जब हमारे अपने बीच का कोई खुर्शीद अनवर आत्महत्या को गले लगा लेता है, या तब जब हमारी अपनी राजनीति, वैचारिकी को इन घटनाओं से धक्का लगता है? क्या हमें इन सभी सवालों का ख़याल तब भी होता है जब निर्भया बलात्कार घटना का आरोपी राम सिंह तिहाड़ जेल में न्यायालय द्वारा तकनीकी रूप से आरोपी साबित होने से पहले ही आत्महत्या कर लेता है? क्या राम सिंह की आत्महत्या पर खामोशी की चादर ओढ़कर या इतने ही सख्त लहजे में अपनी चिंता व्यक्त नहीं कर, हम मीडिया और आक्रामकता की खतरनाक हद तक बनाये गये माहौल का हिस्सा नहीं बने- जिस माहौल और खामोशी का सन्देश यही था कि जिसे कल फांसी के फंदे पर चढ़ना था, उसका आज मर जाना ही बेहतर था। क्या हम दो व्यक्तियों की मौत से पैदा हुये दुःख और संताप में भी अंतर करेंगे?
वास्तवमें बात ये है कि अक्सर ऐसे अवसरों पर अपनी राजनीति और वैचारिकी की प्राथमिकताओं और संगठनात्मक राजनीति की रणनीतिक बाध्यताओं के चलते हम संतुलन, संयम, बराबर अवसर और प्रक्रियागत जरूरतों को कभी जानबूझकर तो कभी उस जोश में नजरअंदाज करते हैं, जिसकी शिकायत खुर्शीद के मामले में प्रियदर्शन और अपूर्वानंद को रही है। बल्कि कई अवसरों पर तो हम इन सवालों को अपनी ‘मुहिम’ को कमजोर बनाने वाली कोशिशों के तौर पर देखते हैं। ये प्रश्न बेहद असहज करने वाला हो सकता है कि आसाराम बापू की गिरफ्तारी के लिये सोशल मीडिया और तमाम ऐसे माध्यमों पर चलायी गयी मुहिम के समय हमें संतुलन और संयम के इन सवालों का ख़याल क्यों नहीं आया। इन माध्यमों पर उस समय जो टिप्पणियां की गयीं, उन्हें हम किस श्रेणी में रखेंगे? क्या मीडिया ट्रायल का सवाल तब छोटा था और आज बड़ा है?
दरअसलऐसा कहने के साथ-साथ मैं अपने स्तर पर अपूर्वानंद के उस तर्क को भी खारिज करना चाहता हूं जिसके चलते उन्होंने कहा है कि खुर्शीद क्या इतने ताकतवर थे, कि उनको कटघरे में खड़ा करने के लिये इस हद तक जाना पड़ता। प्रश्न यह नहीं है कि अपने आस-पास के लोगों की तुलना में खुर्शीद कितने कम या ज्यादा ताकतवर थे। कौन कितना ताकतवर है, इस बात का मूल्यांकन हमें इस नजरिये से नहीं, बल्कि पीड़िता के नजरिये से करना चाहिये। वैसे बलात्कार के ज्यादातर मामलों में अधिकांशतः ताकतवर और कमजोर का समीकरण क्या होता है, इस पर कुछ कहे जाने की जरुरत नहीं है।
अंततःप्रगतिशील जमात का अधिकांश हिस्सा गंभीर मुद्दों को उठाते हुये जिस तरह के चयनवाद का शिकार है, वह अपने आप में अब बहुत आम हो चला है। यह इस चयनवाद का ही नतीजा है कि अक्सर इन मुद्दों को रेखांकित करते समय हमारे पास कोई निश्चित नजरिया और दृष्टि नहीं होती। हम अपनी-अपनी सुविधा से समय और सन्दर्भ चुनते हैं और धीरे-धीरे किसी बड़े यथार्थ और उससे जुड़ी चिंताओं को टुकड़े-टुकड़े में संबोधित करने के अभ्यस्त हो जाते हैं। ठीक इसी जगह आकर अपूर्वानंद और प्रियदर्शन की मीडिया ट्रायल और कानूनी प्रक्रियाओं का ध्यान रखने संबंधी चिंतायें भी कुछ हद तक दिखावटी हो जाती हैं। इस चयनित नजरिये के साथ इन मुद्दों को संबोधित करना भी ठीक उसी तरह का प्रदर्शनप्रिय पाखण्ड है जो प्रियदर्शन के शब्दों में उन लोगों ने प्रदर्शित किया जिन्होंने खुर्शीद को पूरा मौका दिये बगैर अपनी-अपनी सजा सुना दी। इन चिंताओं का हवाला देकर प्रियदर्शन अपने लेख में जिस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं, वह भी कम दिलचस्प नहीं है।बकौल प्रियदर्शन- “...क्योंकि यह खुर्शीद को भी मंजूर नहीं होता कि यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली कोई लड़की सिर्फ इसलिये प्रताड़ित की जाए कि उसने इसे मुद्दा बनाया”।खुर्शीद के प्रति अपनेकिसी वैचारिक या व्यक्तिगत मोह या संभवतः किसी अन्य कारण सेउपरोक्त बात लिखते हुये प्रियदर्शन बलात्कार के एक कथित आरोपी की तरह इस प्रकरण में खुर्शीद की भूमिका का ठोस राजनीतिक मूल्यांकन करना भूल जाते हैं और खुर्शीद के बचाव में इस हद तक चले जाते हैं जहां जाकर उन्हें एक कथित आरोपी और पीड़िता के सामान्य संबंध का भी ख्याल नहीं रहता।बलात्कार के आरोपों के चलते स्वयं कटघरे में खड़े एक कथित आरोपी से इस अपेक्षा को कि ‘वह स्वयं किसी लड़की के प्रताड़ित किया जाने को नामंजूर करेगा’ किस किस्म के आदर्शवाद में रखना चाहिये, यह स्पष्ट करने का काम केवल प्रियदर्शन ही कर सकते हैं।
कहींप्रियदर्शन ये अपेक्षा खुर्शीद की बौद्धिक और वैचारिक पृष्ठभूमि या खुर्शीद के प्रति किसी व्यक्तिगत स्नेह के चलते तो नहीं कर रहे? वास्तव में उपरोक्त टिप्पणी इस मामले पर प्रियदर्शन के स्टैंड की वास्तविकता है- मीडिया ट्रायल, पीड़िता को साहस बंधाने और यहां तक कि खुर्शीद के जिन्दा रहने पर सजा काटने संबंधी उनकी बातें किसी राजनीतिक या वैचारिक चिंता से पैदा हो रही हैं या किसी निजी वजह से, इस पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगता है।बल्कि अगर खुर्शीद ने आत्महत्या का रास्ता नहीं चुना होता और प्राथमिकी दर्ज होने के बाद सब कुछ सामान्य ढंग से चला होता, तो मीडिया ट्रायल और प्रक्रियागत खामियों के मुद्दे विमर्श के दायरे में होते भी या नहीं, इस पर सिर्फ अटकलें लगायी जा सकती हैं।
कहींप्रियदर्शन ये अपेक्षा खुर्शीद की बौद्धिक और वैचारिक पृष्ठभूमि या खुर्शीद के प्रति किसी व्यक्तिगत स्नेह के चलते तो नहीं कर रहे? वास्तव में उपरोक्त टिप्पणी इस मामले पर प्रियदर्शन के स्टैंड की वास्तविकता है- मीडिया ट्रायल, पीड़िता को साहस बंधाने और यहां तक कि खुर्शीद के जिन्दा रहने पर सजा काटने संबंधी उनकी बातें किसी राजनीतिक या वैचारिक चिंता से पैदा हो रही हैं या किसी निजी वजह से, इस पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगता है।बल्कि अगर खुर्शीद ने आत्महत्या का रास्ता नहीं चुना होता और प्राथमिकी दर्ज होने के बाद सब कुछ सामान्य ढंग से चला होता, तो मीडिया ट्रायल और प्रक्रियागत खामियों के मुद्दे विमर्श के दायरे में होते भी या नहीं, इस पर सिर्फ अटकलें लगायी जा सकती हैं।
वास्तवमें यह शंका पूरी तरह निराधार भी नहीं है कि जब ढुलमुल और एक चयनित नजरिये के साथ हम बलात्कार और यौन शोषण जैसे मामलों में मीडिया ट्रायल, कानूनी पेचीदगियों और मुजरिम को पूरा अवसर दिये जाने जैसी मांग करते हैं तो कहीं न कहीं हम समाज के प्रभु वर्ग से संबंध रखने वाले आरोपियों को एक ढाल भी सौंप देते हैं- जो अपने नतीजे में उतना ही घातक और खतरनाक है या हो सकता है जितना खुर्शीद की आत्महत्या।
अभिनव पत्रकार हैं. पत्रकारिता की शिक्षा आईआईएमसी से.
राजस्थान पत्रिका (जयपुर) में कुछ समय काम. अभी स्वतंत्र लेखन.
इन्टरनेट में इनका पता abhinavas30@gmail.com है.
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