Quantcast
Channel: पत्रकार Praxis
Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

मीडिया को बस 'फांसी' लुभाती है...

$
0
0

 

Dilip Khan
दिलीप ख़ान

"...सवालये है कि ऐसे मामलों को कवर कर रहा मीडिया अगर अपना नज़रिया भी ख़बरों में लादता है तो उसकी दिशा क्या होनी चाहिए? मीडिया हाउस में या फिर समाज के इर्द गिर्द यदि ‘लिंग काट लेने’, ‘चौराहे पर फ़ांसी देने’, ‘सामूहिक रूप से पीट-पीट कर मार डालने’ की बात उठती है तो उनको आधार बनाकर क्या मीडिया को उसे लगातार उछालते रहना चाहिए?..."

 
फोटो - प्रकाश के. राय 
क्षिणी दिल्ली में मेडिकल छात्रा से चलती बस में सामूहिक बलात्कार का मामला अमानवीय, हिंसक, बर्बर और मर्दवादी समाज से लगातार रिसते मवाद की तरह है। किसी भी समाज में इस तरह की घटना का विरोध होना चाहिए, इस लिहाज से देखे तो बीते हफ़्ते भर से देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहा प्रतिरोध जायज़ है। लेकिन, प्रतिरोध की दिशा, मांग और राजनीति पर भी बहस ज़रूरी है। देश के अधिकांश शहरों में नौजवानों के स्वाभाविक जुटान की परिणति के तौर पर ये प्रदर्शन हो रहे हैं। यह देश का वो युवावर्ग है जो टीवी, अख़बारों और सोशल मीडिया से जुड़ा है। इनके हाथों में मोबाइल है और ये देश-दुनिया की ख़बरों पर मीडिया के मार्फ़त नज़र भी रखता है। तहरीर चौक से ये वाकिफ़ हैं और अन्ना आंदोलन के बाद से सड़कों पर उतरने की आदत भी इन्हें लग चुकी हैं। लेकिन क्या ऐसी हर घटना पर देशभर के युवा सड़क पर उतरने की सोच रखते हैं? जब से सामूहिक बलात्कार की घटना घटी है तब से देश को छोड़ दीजिए दिल्ली के आस-पास के राज्यों में ही बलात्कार के दो और मामले सामने आए। 
दूसरा सवाल- क्या किसी घटना की अमानवीयता की मात्रा यह तय करती है कि इसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन हो? ‘स्वत:स्फूर्त आंदोलन’ कहां से शुरू होता है? मीडिया किस आधार पर किसी घटना को कवर करता है? लोगों की संख्या तो इसका आधार कतई नहीं है और न ही घटना की गंभीरता और न ही विषय। अलग-अलग उदाहरण इन तीनों आधारों को ख़ारिज करते हैं। इसके साथ-साथ दो-तीन सवाल और हैं। मीडिया पहले घटना को बड़ा बनाता है या फिर लोग आकर पहले जुटते हैं? पिछले कुछ ‘बड़े आंदोलनों’ के साथ मीडिया का ट्रीटमेंट कैसा रहा?

बीते कुछ वर्षों का अनुभव यह बताता है कि संगठनात्मक ढांचे के बग़ैर कोई आंदोलन स्वत:स्फूर्त तरीके से बिना मीडिया कवरेज के नहीं चल सकता। मेरी इस बात पर कोई आपत्ति नहीं है कि आंदोलन का मीडिया में कवरेज नहीं होना चाहिए, बल्कि मेरा तो सुझाव है हर मीडिया घराने में एक स्थाई ‘आंदोलन बीट’ होना चाहिए जो देश भर में चल रहे अलग-अलग प्रतिरोधों को अपने पन्नों और स्क्रीनों पर जगह दे। आपत्ति ये है कि ज़्यादातर टीवी समाचार चैनल और हिंदी के ज़्यादातर अख़बार पूरे मामले को सनसनी बनाकर पेश कर रहे हैं और अपनी बात लोगों के मुंह में चालाकी से ठूंस रहे हैं और अगर इसमें उनके हाथ असफ़लता लगती है तो अपनी बात को जनता की बात बताकर पेश करने में वो लग जाते हैं। एक टीवी पत्रकार लोगों के बीच जाता है और सवाल उछालता है-आप तालिबानी अंदाज़ में सज़ा चाहते हैं कि नहीं?ज़ोर देकर वो बार-बार यही सवाल पूछता है। टीवी स्क्रीन पर जो एंकर कमेंटरी कर रहा होता (रही होती) हैं वो पूरे दिन लगातार ‘वारदात’,’क्राइम रिपोर्टर’ देखने का एहसास ताजा करावता (करवाती) है। अपनी समूची सहनशीलता को समेटकर ये सब झेलने के बावज़ूद अगर आपके आगे रोज़-रोज़ कोई अख़बार प्रोपेगैंडा बंद नहीं करे तो आप क्या कर सकते हैं? हद से हद अख़बार पढ़ना बंद कर सकते हैं। कीजिए, उनकी बला से। 
 
दैनिकभास्कर समय-समय पर महाअभियान चलाता रहता है। अब देश-दुनिया में अभियान से बात नहीं बनती। लिहाजा ‘महा’ शब्द का चलन पिछले कुछ वर्षों में बढ़ गया है। पत्रिकाओं का विशेषांक धीरे-धीरे ‘महाविशेषांक’ में तब्दील हो गया। तो, इस मामले में भी दैनिक भास्कर ने महाअभियान चलाया। इसका स्लग रखा है- ‘देश को इस ग़ुस्से का अंजाम चाहिए’। भास्कर के पन्नों पर लगातार ग़ुस्सा तैर रहा है। उसकी रिपोर्टिंग में, भाषा में, चित्रों में, लेखों में। हर जगह। उसको नहीं बल्कि ‘देश को अंजाम चाहिए’। (टाइम्स ग्रुप की इतनी नकल ठीक नहीं है भास्कर, पहले ‘महा’ शब्द में और फिर ‘देश के लिए अंजाम’ मांगने में। थोड़ा अपना भी भेजा लगाओ) बीते कुछ दिनों का भास्कर पढ़ेंगे तो दिलचस्प नतीजे तक आप पहुंचेंगे। रविवार के पहले पन्ने (जैकेट पेज) की पहली स्टोरी से बात शुरू करते हैं। भास्कर ने उपशीर्षक दिया है:सबकी बस एक ही मांग- आरोपियों को फांसी दे सरकार।नीचे ख़बर में लिखा है- यह प्रदर्शन पूरी तरह अप्रत्याशित और स्वत:स्फूर्त था। कई मायनों में अभूतपूर्व भी। जत्थों में सुबह 7 बजे से इंडिया गेट पर एकत्र हो रहे इन नौजवानों का न कोई नेता था, न ही वे अपनी मांगों को लेकर एकमत और स्पष्ट थे। 

यानीरिपोर्टिंग ये कह रही थी कि आंदोलन कर रही जनता के बीच सज़ा को लेकर आम-सहमति नहीं है, लेकिन शीर्षक में भास्कर ये तय कर ले रहा है कि सब के सब फांसी मांग रहे हैं। भास्कर अपनी राय को जनता की राय बताकर लगातार पेश कर रहा है। पहले पन्ने पर अख़बार के राष्ट्रीय संपादक कल्पेश याज्ञनिक ने विशेष संपादकीय लिखा है। ‘धोखा’ शीर्षक वाले इस एक पैराग्राफ के संपादकीय में सरकार द्वारा फांसी की सज़ा का प्रावधान नहीं करने के विरोध में जो तड़प है उसके बल पर ऐसा लगता है कि कल्पेश याज्ञनिक को ‘अंतरराष्ट्रीय फांसी दिलाओ संगठन’ का कम से कम सचिव ज़रूर बना दिया जाना चाहिए। जैकेट के बाद अख़बार के पहले पन्ने पर भास्कर ने गृहमंत्री के बयान के हवाले से जो ख़बर छापी है उसका शीर्षक है- कड़े कानून की बात कही पर फांसी का ज़िक्र नही। इसी अख़बार में पेज नंबर 9 पर के हरियाणा-पंजाब पेज पर एक फोटो छपी है। हिंदू सिख जागृति सेना से जुड़ी महिलाओं की ये फोटो है जो सामूहिक बलात्कार मामले के विरोध में सड़क पर प्रदर्शन कर रही है। अख़बार ने फोटो का कैप्शन लगाया है-महिलाओं ने आरोपियों को जल्द से जल्द फांसी देने की मांग की। फोटो में कोई प्लेकार्ड नही, कोई पोस्टर नहीं है और न ही कोई बैनर है जिसमें इस तरह की एक भी मांग हो, लेकिन अख़बार ने फांसी देने की अपील जारी कर दी। इन महिलाओं के हाथ में सैंडल ज़रूर है और जहां तक मेरी समझदारी है सैंडल दिखाने का मतलब फ़ांसी नहीं होती। सैंडल का मतलब सैंडल होता है लेकिन भास्कर के संपादक को ये पता नहीं। 
 
इससेपहले अख़बार ने 109 सांसदों और 9 मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा था जिसमें फांसी की वकालत की गई थी। अब अख़बार ने आह्वान किया है कि वो अपने पाठकों से सांसदों को चिट्ठी लिखवाएगा जो फांसी के समर्थन में होंगी। भास्कर के साथ-साथ और भी कई हिंदी अख़बार इस पूरी मुहिम को हवा दिए हुए हैं। पंजाब केसरी, नवभारत टाइम्स के साथ-साथ दुनिया में सबसे ज़्यादा पढ़ा जाने वाला अख़बार दैनिक जागरण भी ख़बर की पूरी एंगल को इसी तरफ़ मोड़ रहे हैं। जागरण ने पहले ख़बर चलाई –रेप के सभी आरोपियों को मिलेगी फांसी। ये ख़बर फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की मांग पर आधारित थी। अख़बार सहित टीवी समाचार चैनलों ने लगातार इस बात को उछाला। जब मामला जनता के बीच पूरी तरह पक गया तो टीवी जनित उन्माद में सड़क पर उतरे लोग भी इस मांग को ज़ोर-शोर से उठाने लगे। अब मीडिया के लिए ये जनता का वक्तव्य बन गया लिहाजा अब शीर्षक सीधे-सीधे नारों की शक्ल में उभरने लगा-रेप के आरोपियों को फांसी दो। 
सवालये है कि ऐसे मामलों को कवर कर रहा मीडिया अगर अपना नज़रिया भी ख़बरों में लादता है तो उसकी दिशा क्या होनी चाहिए? मीडिया हाउस में या फिर समाज के इर्द गिर्द यदि ‘लिंग काट लेने’, ‘चौराहे पर फ़ांसी देने’, ‘सामूहिक रूप से पीट-पीट कर मार डालने’ की बात उठती है तो उनको आधार बनाकर क्या मीडिया को उसे लगातार उछालते रहना चाहिए? तिस पर मिर्च-मसाला का पूरा कारखाना तो मीडिया के लिए बना ही है! आख़िरकार सज़ा के जिस पुराने रूप को इन अख़बारों और टीवी चैनलों के संपादक देश में स्वीकार्य बनाना चाहते हैं वे उसे अपनी राय न बताकर जनता की आवाज़ क्यों करार दे रहे है? इससे अलग एक सवाल है कि मीडिया को घटना-घटना ऐसे औचक ख़याल क्यों आता रहता है और घटना पुरानी हो जाने के बाद वह उसे ठंडे बस्ते में लादकर क्यों फेंक आता है? कुछ हफ़्ते पहले अंग्रेज़ी अख़बार द हिंदू ने दिल्ली में छेड़छाड़ और यौन शोषण के मुद्दे पर श्रृंखला में स्टोरी चलाई। इसमें पत्रकारों के निजी अनुभव तक शामिल थे।
 
बाक़ी अख़बार या चैनल मुद्दे को ट्रेस करके क्यों नहीं अपने पन्नों या एयर टाइम में जगह देते हैं? क्या बलात्कार का मामला महज इस एक घटना तक सीमित है या फिर समाज में हमेशा सुसुप्त अवस्था में यह मौजूद रहता है? मीडिया इन बातों की पड़ताल क्यों नहीं करता और बलात्कार के बाद महिला सशक्तिकरण के मुद्दे पर बहस कराने के लिए टीवी चैनल अपने पैनल में अर्चना पूरण सिंह जैसे मेहमानों को क्यों बुलाता है जिनके पूरे करियर का अहाता ही स्त्रीविरोधी हल्के, फूहड़ चुटकुलों पर हंसने तक सीमित है। 
लाइवदिखाने और ग़ुस्से को इनकैश करने के लिए टीवी चैनल जिस तड़प के साथ अपने रिपोर्टर को सड़क पर तैनात करता है उसमें कई बार रिपोर्टर यह तक भूल जाता है कि वह ऑन एयर है। ‘आजतक’ के संवाददाता ने इंडिया गेट पर लाइव रहते हुए आह्वान किया- ‘मारे, मारो’। उसी चैनल पर एक लड़की ने अपने ग़ुस्से को जताया- ‘सरकार कुछ करती क्यों नहीं बहन***’। यानी एक महिला की ज़ुबान से गाली के रूप में भी महिलाविरोधी शब्द ही निकलते हैं। मीडिया इसे भी सारी महिलाओं की राय क्यों नहीं करार दे देता?

दिलीपपत्रकार हैं. अभी राज्यसभा टीवी से जुड़े हैं. 
इनसे संपर्क का पता dilipkmedia@gmail.com है.

Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

Trending Articles