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आइये, धूमिल को फिर पढ़ें...

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सुदामा पांडे 'धूमिल'


'धूमिल' के संग्रह 'संसद से सड़क' तक के प्रथम संस्करण को प्रकाशित हुए भी अब 40 साल से ज्यादा हो गए हैं. इसी कविता संग्रह में संकलित दूसरी कविता 'बीस साल बाद' हर साल फिर जी उठती है, जब देश आजादी का जश्न मना रहा होता है. आजादी प्राप्ति के सातवें दशक में आजादी के प्रतीक तीन रंगों का फीकापन लगातार बढ़ता गया है. आइये धूमिल को, इस कविता को फिर पढ़ें... 



                                        बीस साल बाद

-'धूमिल'
बीस साल बाद
मेरे चेहरे में
वे आँखें वापस लौट आई हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं.

और जहाँ हर चेतावनी 
खतरे को टालने के बाद 
एक हरी आँख बनकर रह गई है.



बीस साल बाद 
मैं अपने आप से एक सवाल करता हूं
जानवर बनने के लिए कितने सब्र की जरूरत होती है?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हूं.
क्योंकि आजकल मौसम का मिजाज यूँ है 
कि खून में उड़ने वाली पत्तियों का पीछा करना  
लगभग बेमानी है.

दोपहर हो चुकी है
हर तरफ ताले लटक रहे हैं.
दीवारों से चिपके गोली के छर्रों 
और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है
हवा से फडफडाते हुए हिन्दुस्तान के नक़्शे पर
गाय ने गोबर कर दिया है.

मगर यह वक्त घबराए हुए लोगों की शर्म 
आंकने का नहीं है
और न यह पूछने का- 
कि संत और सिपाही में 
देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है?

आह! वापस लौटकर  
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए 
अपने-आप से सवाल करता हूं-

क्या आज़ादी 
सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है 
जिन्हें एक पहिया ढोता है 
या इसका कोई खास मतलब होता है?

और बिना किसी उतर के आगे बढ़ जाता हूं
चुपचाप.

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