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पुलिस सुधारों की मृग-मरीचिका

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए हमें पुलिस सुधारों के पूरे परिप्रेक्ष्य पर समग्रता से विचार करना होगा। असल में पुलिस सुधारों की बहस में दो ऐसे पहलू हैं जिनकी वजह से सुप्रीम कोर्ट की पहल बहुत आगे नहीं बढ़ी। इनमें एक पहलू कुछ राज्यों की तरफ से उठाए गए एक वाजिब सवाल से जुड़ा है और दूसरा इस कोशिश के पीछे की बुनियादी सोच पर सवाल उठाता है।..."


सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से पुलिस सुधारों का मुद्दा फिर चर्चा में है। सात साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस सुधारों के बारे में व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए थे। लेकिन उसका क्या अंजाम हुआ यह इस मामले में न्यायमित्र (एमिकस क्यूरे) की भूमिका निभा रहे अटार्नी जनरल जीएम वाहनवटी द्वारा कोर्ट को दी गई इस सूचना से जाहिर है कि राज्य सरकारों ने पुलिस सुधारों पर मामूली या ना के बराबर अमल किया। तोअब कोर्ट ने राज्यों से पूछा है कि आखिर क्या बाधा क्या है

कोर्टनेकहा कि उसके निर्णय पर समग्र अमल हो, इसके लिए वह और इंतजार नहीं करेगा। बात आगे बढ़ाने से पहले यह याद कर लेना उचित होगा कि 2006 में प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त दिशा-निर्देश जारी किए थे। उसके प्रमुख बिंदु थे- पुलिस महानिदेशक का कार्यकाल न्यूनतम दो वर्ष तय करना, आपराधिक जांच एवं अभियोजन के कार्यों को कानून-व्यवस्था लागू करने के दायित्व से अलग करना, हर राज्य में एक प्रदेश सुरक्षा परिषद और एक पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन। 

तबकई राज्यों ने यह रुख लिया था कि दिशा-निर्देश के कई बिंदुओंपर अमल नामुमकिन है। तब सिर्फ चार छोटे राज्यों- अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, मेघालय और हिमाचल प्रदेश ने सभी दिशानिर्देशों को लागू करने पर सहमति जताईथी। बाकी ज्यादातर राज्यों के एतराज व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों थे। तब कुछ हलकों से यहदलील देते हुए आपत्ति की गई थी कि संविधान के तहत कानून-व्यवस्था राज्य सूची काविषय है और यह कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है। इस मामले में सुप्रीमकोर्ट का आदेश देना इस अधिकार क्षेत्र में दखल में है। मसलन, गुजरात सरकार ने जोरदिया था कि सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश संविधान के तहत शक्तियों के बंटवारे के सिद्दांत कासीधा उल्लंघन हैं। साथ ही ये संविधान के संघीय स्वरूप और उसके बुनियादी ढांचे कीअनदेखी भी है। 

अबएक बार फिर सख्त रुख अपनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के मुख्य सचिवों को निजी रूप से अदालत में बुलाया। इन अधिकारियों ने वादा किया कि वे एक हफ्ते के अंदर कोर्ट को बताएंगे कि उसके आदेश पर पालन करने की राह में रुकावटें क्या हैं। लेकिन जो कुल परिदृश्य है, उसमें नहीं लगता कि बात कहीं आगे बढ़ेगी।  एक अच्छा उद्देश्य प्रक्रियागत आपत्तियों की भेंट चढ़ जाएगा, यह आशंका गहरी है।

पुलिससुधार आजादी के बाद से उपेक्षित मुद्दा है, जबकि मानव अधिकारों कीलड़ाई से जुड़े लोग इसकी जरूरत शिद्दत से महसूस करते हैं। 1977 में जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी तो पहली बारये विषय व्यापक चर्चा का हिस्सा बना। मोरारजी देसाई की सरकार ने तब प्रतिष्ठितपुलिस अधिकारी डॉ. धर्मवीर की अध्यक्षता में पुलिस आयोग का गठन किया। धर्मवीर आयोगने पुलिस सुधारों के बारे में महत्त्वपूर्ण और विस्तृत सिफारिशें कीं। लेकिन आयोगकी रिपोर्ट सरकार की अलमारियों में धूल चाटती रही। 

उसकेबाद से कांग्रेस, अपने कोतीसरे मोर्चे का हिस्सा कहने वाले दल और भारतीय जनता पार्टी एवं उसकी सहयोगीपार्टियां केंद्र और विभिन्न राज्यों की सत्ता में आती और जाती रहीं, लेकिनकिसी सरकार ने लोकतंत्र की इस बेहद बुनियादी जरूरत पर ध्यान नहीं दिया। सात वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने जब दिशा-निर्देश जारी किए तो उम्मीद बंधी कि आखिरकार अब इस दिशा में प्रगति होगी। लेकिन जैसाकि खुद कोर्ट की कार्यवाही से साफ है, इस उम्मीद पर भी पानी फिर गया। 

गौरतलब यह है कि इस मुद्दे पर जनतांत्रिक दायरे में कोई हलचल नहीं है। ना ही ऐसा लगता है कि पुलिस सुधार लागू कराने की सुप्रीम कोर्ट की पहल से देश की जनतांत्रिकशक्तियों में ज्यादा उत्साह पैदा हुआ। आखिर क्यों? इसके लिए सरकारों परसार्वजनिक दबाव इतना क्यों नहीं बना कि वो पुलिस को स्वायत्त एजेंसी बनाने और आमलोगों की शिकायत सुनने की संस्थागत व्यवस्था करने जैसे वांछित सुझावों को मानने परमजबूर हो जातीं?

इनसवालों के जवाब ढूंढने के लिए हमें पुलिससुधारों के पूरे परिप्रेक्ष्य पर समग्रता से विचार करना होगा। असल में पुलिससुधारों की बहस में दो ऐसे पहलू हैं जिनकी वजह से सुप्रीम कोर्ट की पहल बहुत आगे नहीं बढ़ी। इनमेंएक पहलू कुछ राज्यों की तरफ से उठाए गए एक वाजिब सवाल से जुड़ा है और दूसरा इसकोशिश के पीछे की बुनियादी सोच पर सवाल उठाता है। पहली वजह यह है कि सुप्रीम कोर्ट का उद्देश्य चाहे जितना अच्छा हो, लेकिन उसने उस दायरे में कदम रखा जो उसका नहीं है। अपनी संवैधानिक व्यवस्था में कोर्ट कार्यपालिका को अपने मनमाफिक विधेयक पेश करने और विधायिका को उसे पास करने के लिए न्यायपालिका मजबूर नहीं कर सकती। जबकि ऐसी विधायी प्रक्रिया के बिना पूरा हुए कोर्ट के संबंधित दिशा-निर्देश लागू नहीं हो सकते। दरअसल, कोर्ट बड़े नौकरशाहों को तो तलब कर सकता है, लेकिन निर्णय राजनीतिक नेतृत्व लेता है और वह कोर्ट के वैसे आदेश मानने को विवश नहीं है जिसका वैधानिक आधार ना हो। पुलिस सुधार कभी मजबूत राजनीतिक मुद्दा नहीं बने तो इस खालीपन को सुप्रीम कोर्ट अपनी सदिच्छा से नहीं भर सकता।

बहरहाल,पुलिस सुधार का एक और मौजूदासंदर्भ है, जिस कारण इसको लेकर लोकतांत्रिक जनमत में ज्यादा जोश पैदा नहीं हुआ।सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार लागू करने संबंधी आदेश एक जन हित याचिका पर दिया था। इसयाचिका से जो नाम जुड़े थे, उनके साथ नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष की साखनहीं जुड़ी हुई है। बल्कि वो नाम सिक्युरिटी एस्टैबलिशमेंट की उस सोच के ज्यादाकरीब हैं, जो बुनियादी तौर पर नागरिक अधिकारों के खिलाफ जाता है। अगर आप लंबे समय सेमानव अधिकार संगठनों के खिलाफ रहे हों, सख्ती को विभिन्न प्रकार के असंतोष से भड़केसंघर्षों से निपटने का सबसे सही तरीका मानते हों, फांसी जैसी अमानवीय और अपराधसमाजशास्त्र के गहरे अध्ययन से बेमतलब साबित हो चुकी सजा के समर्थक हों, तो आपकी ऐसी किसी पहल को संदेह से देखने का पर्याप्त आधार मौजूद रह सकताहै। ऐसी पहल की निष्पक्षता संदिग्ध रहतीहै और यह सवाल कायम रहता है कि क्या इस पहल के पीछे सचमुच जन अधिकारों की वास्तविकचिंता है?

वैसेभी पुलिस महानिदेशक का तय कार्यकाल जैसा निर्देश नौकरशाही मानस से निकले सुझावों पर मुहर लगाने जैसा है, जिसका औचित्य संदिग्ध है। प्रश्न है कि क्या लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए राजनीतिक नेतृत्व के प्रति पुलिस की कोई जवाबदेही नहीं होना एक वांछित स्थिति होगी? राजनीतिक हस्तक्षेप से पुलिस को मुक्त करने के लिएकेंद्र और राज्यों के स्तर पर सुरक्षा आयोग बनाने, पुलिसकर्मियों की सेवा संबंधीसभी मामलों पर फैसला लेने के लिए पुलिस एस्टैबलिशमेंट बोर्ड गठित करने और पुलिससंबंधी जनता की शिकायतों पर विचार के लिए पुलिस शिकायत प्राधिकरण बनाने के निर्देशों पर अमल से पुलिस के प्रबंधन और प्रशासन में बेशक फर्क आ सकता है।लेकिन इस संदर्भ में कुछ राज्यों की यह शिकायत भी जायज है कि आखिर उस हालतमें पुलिस की जवाबदेही किसके प्रति होगी? क्या तब पुलिस सीधे विधायिका के प्रति जवाबदेहरहेगी?कार्यपालिका अगर सुरक्षा संबंधी मामलों में फौरन फैसले लेना चाहेगी तोक्या उसके रास्ते में नई संस्थाएं रुकावट नहीं बनेंगी?

गौरतलबहै किराजनीतिक कार्यपालिका के तहत पुलिस के रहने के नुकसान हैं, तो कुछ फायदे भी हैं।यह ठीक है कि राज्यों में मौजूद सरकारों के हित में पुलिस का उपयोग और कई बारदुरुपयोग भी होता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि पुलिस के कार्यों के लिएकार्यपालिका की जवाबदेही बनी रहती है। एक स्वायत्त पुलिस के कार्यों के लिए आखिरजवाबदेह कौन होगा? यहां यह ध्यान में रखने की बात है कि हम एक निरपेक्ष माहौल मेंनहीं रहते। पुलिस विभाग भी समाज के व्यापक सत्ता ढांचे के बीच बनता और काम करताहै। सामाजिक पूर्वाग्रह पुलिसकर्मियों में उतना ही देखने को मिलता है, जितना की आमलोगों में। पुलिस की कार्रवाइयों में अक्सर जातीय, वर्गीय और सांप्रदायिकपूर्वाग्रह के लक्षण देखने को मिलते हैं। पुलिस के अंदरूनी ढांचे में मौजूदासामाजिक विषमता का प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है। 

जनतांत्रिक संदर्भ मेंपुलिस सुधारों की बात होती है तो इस अंदरूनी ढांचे में सुधार भी एजेंडे में शामिलरहता है। सदियों से शोषित और सत्ता के ढांचे से आज भी बाहर समूहों को कैसे उनकीआबादी के अनुपात में पुलिस के भीतर नुमाइंदगी दी जाए और कैसे उन्हें निर्णय लेने कीप्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाए, पुलिस सुधारों का यह भी एक अहम पहलू है। अल्पसंख्यकों कीनुमाइंदगी पुलिस में कैसे बढ़े और पुलिसकर्मियों की कैसे ऐसी पेशेवर ट्रेनिंग हो, जिससे वो सांप्रदायिक तनाव के वक्त निष्पक्ष रूप से काम करें, यह पुलिस सुधार काबहुत अहम बिंदु है।

लेकिनदुर्भाग्य से न तो पुलिस सुधारों के लिए दायर याचिकामें इन बातों की जरूरत समझी गई और न सुप्रीम कोर्ट ने इन असंतुलनों को दूर करनेके लिए कोई आदेश दिए। पुलिस की सामाजिक जवाबदेही तय करने का कोई उपाय भी नहींबताया गया, सिवाय पुलिस शिकायत प्राधिकरण के गठन की बात को छोड़कर। लेकिन यह गौरतलब है कि अगरमानव अधिकार सरंक्षण कानून-1993पर अमल करते हुए हर राज्य में मानव अधिकार आयोग बनजाएं और जिलों के स्तर पर मानवाधिकार अदालतें स्थापित हो जाएं तो ऐसे प्राधिकरण कीशायद कोई जरूरत नहीं रहेगी। 

दरअसल,इस संदर्भ में गौर करने की सबसे अहम बात यहहै कि पुलिस सुधार एक राजनीतिक एजेंडा है। यह जन अधिकारों के संघर्ष से अभिन्न रूपसे जुड़ा हुआ है। सामाजिक और आर्थिक सत्ता का ढांचा निरंकुश हो और पुलिस पेशेवर एवंलोकतांत्रिक ढंग से काम करे, ऐसा भ्रम सिर्फ दक्षिणपंथी आदर्शवाद का ही हिस्सा होसकता है, जिसमें हवाई मूल्यों की बात दरअसल व्यवस्था में अंतर्निहित शोषण और विषमताको जारी रखने के लिए की जाती है। या अधिक से अधिक यह मध्यवर्गीय फैन्टेसी का हिस्साहो सकता है, जो अपने समाज के यथार्थ से कटे रहते हुए समस्याओं के मनोगत समाधनढूंढती रहती है। हकीकत यह है कि भारत या दुनिया के विभिन्न समाजों में जिस हद तकलोकतंत्र स्थापित हो सका है और आम लोगों ने अपने जितने अधिकार हासिल किए हैं, वोराजनीतिक संघर्षों के जरिए संभव हुआ है।


पुलिससुधारों के लिए भी राजनीतिक संघर्षसे अलग कोई और रास्ता नहीं है। संघर्ष औऱ उससे पैदा होने वाली जन चेतना सरकारों परवो दबाव पैदा करती हैं, जिससे वो कोई सकारात्मक पहल करने को मजबूर होती हैं। पिछलेदो दशकों का अनुभव कि लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार के लिए अगर मुस्लिम वोट अहम होते हैंतो उनके सत्ता काल में पुलिस दंगों को रोकने का कारगर औजार साबित होती है। वही पुलिस नरेंद्रमोदी के राज में दंगों के समय मूक-दर्शक बन जाती है। और जब मायावती सत्ता में होतीहैं तो उत्तर प्रदेश के दलितों के प्रति पुलिस का एक अलग ढंग का रुख देखने को मिलता है। 

इन मिसालों कोअभिजात्य मानसिकता पुलिस के दुरुपयोग के सबूत के रूप में भी पेश कर सकती है, लेकिन उससे इस तथ्य को ढका नहीं जा सकता कि पुलिस दरअसल राजनीतिक ढांचे के मुताबिक ही काम करती है। वहतभी जनतांत्रिक ढंग से पेश आती है, जब सत्ता का ढांचा ज्यादा जनतांत्रिक होता है।बेशक, पुलिस को एक हद तक स्वायत्ता मिलनी चाहिए, मगर यह स्वायत्तता पूरे राजनीतिकसंदर्भ से अलग नहीं हो सकती। चूंकि सुप्रीम कोर्ट का मूल आदेश इस संदर्भ से कटा हुआ था, इसीलिए उससे ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ। आगे भी कुछ होगा, यह संभवतः एक मृगमरीचिका ही है।

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

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