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उमेश पन्त |
-उमेश पन्त
"...फिल्म में तीन कहानियां क्यूं हैं इसके पीछे की वजह भी आनन्द गांधी बताते हैं। वो कहते हैं कि जिन्दगी को अलग-अलग पर्सपेक्टिव से देखना उन्हें असल में समझने के लिए जरुरी है। ये ठीक उसी तरह है जैसे वो हाथी और सात अंधों वाली कहानी। उनमें से हर एक हाथी के अलग-अलग हिस्सों को छूकर बता रहा है कि वो हिस्सा कैसा है ? और इस तरह सब मिलकर हाथी ठीक ठीक कैसा दिखता है उसकी असलियत के ज्यादा नजदीक आ पाते हैं। दार्शनिक विषयों को समझना भी ठीक ऐसा ही है।..."
एक शहर के रुप में मुम्बई की आईरनी यही है कि उसकी बसावट में खुलेपन का अभाव है। पहली बार जब मैं मुम्बई आया था तो मुम्बई को देखकर गहरी निराशा हुई थी। एक शहर इतना बदसूरत कैसे दिख सकता है ? संकरी गलियों में किसी तरह आपस में चिपके हुए उखड़े पलस्तर वाले मकान। फिल्मों में देखे मुम्बई की माया टूट सी गई थी उस वक्त। पर यही कोई तीन साल बाद इस शहर में रहने के लिये आया तो इस शहर को दूसरी तरह से देखना शुरु किया। और फिर ये शहर जैसे बिल्कुल बदल गया। मेरे लिये ये अब वही संकरा सा शहर नहीं था जिसे पहली बार देखा था। क्या उन 3 सालों में शहर बदल गया था या जो बदला वो मेरा नजरिया था। ऐसा क्या बदलता है असल में जिससे सबकुछ बदल जाता है ?
शिप ऑफ थीसियस देखने के बाद इसी तरह के सवालों के जवाब मिलने लगते हैं। इस फिल्म ने मुम्बई को तीन तरह से देखा है। उसकी बरसातों में, उसकी गर्मियों में और उसकी सर्दियों में। इस फिल्म ने इस शहर को उसकी आईरनी से परे जाकर देखा है। और उस पार से ये शहर सचमुच बहुत खूबसूरत नजर आता है। यहां तक कि वो संकरी सी गलियां भी जिससे एक आदमी भी मुश्किल से निकल पाता है।
शिपआफ थीसियस देख लेने के बाद जब आप सिनेमा हॉल से लौट रहे होते हैं तो लौटना उन घटनाओं में से लगता है जिनको आप कुछ देर के लिये टाल देना चाहते हैं। इसलिये नहीं कि लौटने की वो घटना कोई कष्ट दे रही हो बल्कि इसलिये कि जो बीता है आप उसमें कुछ देर और ठहर जाना जाहते हैं और वो लौटना उस ठहराव के रास्ते में आ रहा होता है।

कईफिल्में ऐसी होती हैं जो दो अनुभवों में बंट जाती है। एक फिल्म देखते हुए मिले अनुभव और दूसरा फिल्म देखने के बाद उस फिल्म के बारे में मंथन और अध्ययन से जुटाये अनुभव। ज्यादातर फिल्में इस दूसरे स्तर तक पहुंच ही नहीं पाती। शिप आॅफ थिसियस जैसी कुछ फिल्में होती हैं जिनको और गहराई से जानने के लिये ये दूसरा अनुभव कमोवेश जरुरी हो जाता है। इस जरुरत को पूरा करते हुए आप अपनी जानकारी को किसी दूसरे आयाम तक पहुंचा रहे होते हैं।
शिपऑफ थिसियस का जन्म एक अवधारणा से होता है जिसे थीसियस पैराडोक्स के नाम से भी जाना जाता है। इस अवधारण के मुताबिक एक विरोधावासी सवाल खड़ा होता है कि यदि किसी वस्तु के उन सारे तत्वों को बदल दिया जाये जिनसे वो बनी है तो क्या उस तत्व का मूलभूत रुप वही रह पायेगा जो पहले था या फिर उसका मूल रुप बदल जायेगा। मसलन यदि कोई जहाज जिन तत्वों से मिलकर बना हो उन सारे तत्वों को बदल दिया जाये तो क्या वो जहाज अब भी अपनी मूल प्रकृति का रह पायेगा ?
इसमूलभूत दार्शनिक जिज्ञासा से उपजी आनंद गांधी की इस पूरी फिल्म में तीनों कहानियां कुछ ऐसे ही सवाल करती हैं।

अपनेकैमरे से खींची तस्वीरों के बीच अपने कैमरे से खिंच गई उस तस्वीर के विपक्ष में खड़े होकर वो पात्र उन सवालों को उठाता है जिससे हम अक्सर अपनी निजी जिन्दगी में अस्वीकार करते हैं। एक कलाकार के तौर पर कौन्सियस या सचेतन अभिव्यक्ति जरुरी है या उस कला के दौरान घटे संयोग से उपजी अभिव्यक्ति भी कलाकार की क्षमताओं में गिनी जानी चाहिये. फिल्म का ये हिस्सा उन सवालों से जूझता है। हमारी कला में हमारी उपलब्धियों की हिस्सेदारी शायद इसी सवाल के जवाब से तय होती है।
आंखिरमें कौर्निया ट्रांसप्लांट हो जाने के बाद उस लड़की को जब दिखाई देने लगता है तो वो महसूस करती है कि उस न दिखाई देने की आईरनी के परे एक कलाकार के रुप में वो सहज महसूस नहीं कर रही। एक कमी जो पूरी हो गई उसके बाद एक अहसास कि वो कमी ही दरअसल अपने में एक पूरापन था। उस अधूरेपन के बिना भी कुछ ऐसा है जो अधूरा है अपने में ये खयाल बहुत खूबसूरत है।


फिल्म के तीनों हिस्से आंखिर में जिस तरह जुड़ते हैं वो भी प्रभावशाली है।
फिल्म में तीन कहानियां क्यूं हैं इसके पीछे की वजह भी आनन्द गांधी बताते हैं। वो कहते हैं कि जिन्दगी को अलग-अलग पर्सपेक्टिव से देखना उन्हें असल में समझने के लिए जरुरी है। ये ठीक उसी तरह है जैसे वो हाथी और सात अंधों वाली कहानी। उनमें से हर एक हाथी के अलग-अलग हिस्सों को छूकर बता रहा है कि वो हिस्सा कैसा है ? और इस तरह सब मिलकर हाथी ठीक ठीक कैसा दिखता है उसकी असलियत के ज्यादा नजदीक आ पाते हैं। दार्शनिक विषयों को समझना भी ठीक ऐसा ही है। उसे आप जितने चरित्रों के दृश्टिकोण से समझेंगे आप सच्चाई के उतने ही नजदीक जा पाएंगे। फिल्म अलग अलग कहानियों के जरिये यही कोशिश करती है।
फिल्मके बारे में बात करते हुए अपने एक इन्टरव्यू में आनन्द गांधी इन्सान के अस्तित्व के बारे में कई दार्शनिक तर्क देते हैं। वो कहते हैं हमारा शरीर कई बैक्टीरिया से मिलकर बना है। हमारी सोच में उन करोड़ों बैक्टीरियाज़ की भी अपनी हिस्सेदारी है। हमारे शरीर में लगातार ऐसे माईक्रोबायोलौजिकल और साईकोलोजिकल बदलाव होते रहते हैं, शरीर में कई कोशिकाएं जुड़ती है और कई खत्म हो जाती हैं, जिनके चलते हर 6-7 सालों एक इन्सान के तौर पर हम पूरी तरह बदल जाते हैं। ठीक उसी तरह वक्त के साथ हमारी सोच भी बदलती रहती है। ऐसे में सीधा सवाल हमारे सार्वभौमिक अस्तित्व पे खड़ा होता है। ऐसे में क्या जीवन के प्रति हमारे सिद्धान्त मायने रखते हैं ? हमारे शरीर में होने वाले ये बदलाव ठीक उसी तरह के हैं जैसे थीसियस का वो जहाज जिसके सारे पुर्जे बदल गये हैं। जो अब भी वही है जबकि वो पूरी तरह बदल गया है या वो दिखता तो वैसा ही है पर असल में अब वो वैसा नहीं रहा जैसा पहले था। दोनों में से कौन सी बात सच है ये कहना मुश्किल है। और यही मुश्किल जिन्दगी है। यही मुश्किल जिन्दगी की खूबसूरती भी तो है।
उमेश' लेखक हैं. कविता-कहानी से लेकर पत्रकारीय लेखन
तक विस्तार. सिनेमा को देखते, सुनते और पढ़ते रहे हैं.
mshpant@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.