मुकेश गोस्वामी |
-मुकेश गोस्वामी
"...बाजारीकरण के इस दौर में किसी भी लेखक की किताब की बिक्री से उसके लेखन का कद निर्धारित होता है, न कि उसके लेखन की विषय-वस्तु के आधार उसका मूल्यांकन किया जाता है। इसमें भी बाजार अपने हितों की सुरक्षा करने वाले लेखन को प्रोत्साहित करता है। यही कारण है कि बाजार ‘बाजारु लेखक’ तैयार कर रहा है, तब कैसे उम्मीद की जा सकती है कि ये ‘बाजारु लेखक’ जनता के हितों की बात करें ?..."
जमाने के आदमखोर उस जगह तक आ पहुंचे हैं, जहां पर वे हमारी अभिव्यक्ति के तमाम साधनों को निगल जाने की फिराक में हैं। इंसान को उस गुलामी तरफ बढ़ाया जा रहा है, जहां पर भाव तो बहुत होंगे लेकिन उन्हें व्यक्त करने के लिए भाषा ही नहीं बचेगी। इसके लिए बाजार ने अपने खूनी पंजों में साहित्य को भी जकड़ने का जाल बिछा दिया है।
चूंकिजनता को अत्याचार और दमन के प्रति सचेत करने में साहित्य की अहम् भूमिका मानी जाती है, इसी वजह से चेतना के प्रवाह तंत्र को तोड़ना इनके लिए जरूरी है। बाजार ने सारी कलाओं को ‘मुनाफे’ के साथ जोड़ दिया, साहित्य, संगीत, नाटक सहित तमाम कलाएं मनोरंजन से लेकर जन जागरण व रोजगार देने का कार्य करती थी, उनका व्यापार किया जाने लगा। जिस तरह से नाटक विधा का सत्यानाश आधुनिक सिनेमा ने किया है। नाट्य कला से जुड़ा हुआ पूरा समाज आज रोजगार से बेदखल हो गया और सरकार व बाजार ने उनके वैकल्पिक रोजगार की कोई व्यवस्था नहीं की। उस समाज के लिए कला केवल मनोरंजन न होकर जीवन संचालन और सरोकारों का साधन थी। कला का एक बड़ा बाजार निर्मित करके मुनाफा कमाने की प्रवृति के तहत इसका अंतर्राष्ट्रीय बाजार भी तैयार हो चुका है। यह एक ऐसा धंधा बन गया जिसमें कोई उत्पादन ही नहीं करना पड़ता है। लोक कलाओं को नये तकनीकी साधनों से परिमार्जित करके जनता को परोसो और अथाह पैसा कमाओ।
बाजारीकरणके इस दौर में किसी भी लेखक की किताब की बिक्री से उसके लेखन का कद निर्धारित होता है, न कि उसके लेखन की विषय-वस्तु के आधार उसका मूल्यांकन किया जाता है। इसमें भी बाजार अपने हितों की सुरक्षा करने वाले लेखन को प्रोत्साहित करता है। यही कारण है कि बाजार ‘बाजारु लेखक’ तैयार कर रहा है, तब कैसे उम्मीद की जा सकती है कि ये ‘बाजारु लेखक’ जनता के हितों की बात करें ? वे तो मात्र कोरपोरेट हितों के प्रति ही स्वयं को जिम्मेदार मानेंगें। उन लेखकों को ऐसा लगता है कि केवल बाजार के प्रसार से ही विकास किया जा सकता है, किसी प्रकार के सामाजिक उत्तरदायित्व की तो वे जरुरत ही नहीं समझते। उनके लिखने का उद्देश्य भी केवल पैसा कमाना है।
राजाओं के टुकड़ों पर निर्भर लेखकों और इन ‘बाजारु लेखकों’ के चरित्र में कोई खास फर्क नहीं है, दोनों का काम, मालिक का गुणगान। इसी के कारण आज जो जनपक्षधर और मानवतावादी लेखक हैं उन पर बाजार हमला कर रहा है। उन साहित्यकारों के सामने दोहरी चुनौतियां हैं, एक तो बाजार के लालच और डर से बचने की और दूसरी लगातार जनता के सवालों को उठाते रहने की। साहित्य का एक तबका इन दोनों चुनौतियों का डटकर मुकाबला कर रहा है। उसे न पुरस्कारों का लोभ है और न ही तथाकथित ‘बेस्ट सेलर’ होने की चाहत।
बाजार के लिए साहित्य मात्र मुनाफे का सौदा ही नहीं है, वह उसके पाप धोने का जरिया भी है। इसमें कालेधन से लेकर काले कारनामे तक सब खपते हैं। शोषण करने वाले तमाम उद्यम, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और कॉरपोरेट जगत अपने आपको पाक साफ दिखाने और सताधारी वर्ग पर अपना दबाव स्थापित करने के लिए कुछ बाजारु लेखकों और कलाकारों को साथ में लेकर, बड़ी-बड़ी इवेंट मैनेजमेंट कम्पनियों को ठेके देकर साहित्य के उत्सव मनाने का ढ़ोंग करते हैं।
साहित्य और बाजार के ठेकेदारों ने जयपुर को उपयुक्त जगह के रूप में चिह्नित किया है। अब साहित्य भी पूंजी निवेश का एक माध्यम बन गया है जिसमें सालों तक लाभ कमाया जा सकता है। जिस प्रकार औपनिवेशिक समय में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक गुलाम बनाया गया उसी प्रकार वर्तमान में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां देश में आर्थिक गुलामी को साहित्य के माध्यम से स्थापित कर देना चाहती हैं। उनके साहित्य में दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर, और वंचितों के लिए कोई स्थान नहीं है, वे कुछ मुट्ठीभर लोगों के लिए लेखन करते हैं।
इस साहित्य का कार्य नई आर्थिक नीतियों के लिए ‘ओपिनियन’ बनाना हो गया है, अगर किसानों की जमीन और आदिवासियों के जंगल छीने जा रहे हैं तो यह उसके पक्ष में ‘विकास’ के तर्क गढ़कर अपने आकाओं की नमक अदायगी करता है। आज भी देश में जातिय शोषण की जड़ें मजबूत बनी हुई हैं, आर्थिक गैर बराबरी की खाई भी निरंतर बढ़ती जा रही है। ऐसे समय में हमें यह सोचना चाहिए कि संविधान के समतामूलक समाज की स्थापना के लक्ष्य की प्राप्ती में साहित्य का क्या योगदान हो सकता है?
ऐसे दौर में जनपक्षधर साहित्य को अपने वैकल्पिक मंच खड़े करने होंगे, जहां से वे बिना किसी दबाव के जनता के हकों की आवाज उठा सकें। आज दलितों, आदिवासियों और वंचितों के बीच से भी उनका साहित्य उभरकर सामने आ रहा है जिसके महत्व को समझना जरूरी है। ऐसे मंच पर इस तरह की तमाम कलाओं और लेखन को प्रस्तुत करने की कोशिश करें जिसे मुख्यधारा का मीडिया और साहित्य नजरअंदाज कर देता है।
इसमें यदि जनपक्षधरता से जुड़े लोग हस्तक्षेप नहीं करेंगे तो बरसों से चली आ रही शोषण की मानसिकता जिसमें दलितों, आदिवासियों, गरीबों व वंचितों को फिर से सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और विशेष रूप से सांस्कृतिक दासता की तरफ धकेल दिया जायेगा।
हमारा मानना है कि जनपक्षधर लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को मिलकर ऐसे आयोजन करने चाहिये जहां पर स्वतंत्र रूप से जन सरोकारों पर गंभीर बहस और विचार-विमर्श किया जा सके।
येआयोजन भले ही छोटे रूप में हों लेकिन अपने तेवर और प्रतिबद्धता को बरकरार रखें ताकि पूंजी के चाकर साहित्य को चुनौती दी जा सके और जनता के सामने एक विकल्प भी प्रस्तुत किया जा सके। हालांकि ऐसी बहसें पहले भी होती रही हैं लेकिन कोई सार्थक पहल नहीं की जा सकी। सारे अरमान हवाबाजी में फंसकर रह गये।
मुकेशसामाजिक कार्यकर्ता हैं.
mukeshgoswamirti@gmail.com पर इनसे संपर्क करें.