Quantcast
Channel: पत्रकार Praxis
Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

आपदा पीड़ितों के मानसिक स्वास्थ का सवाल

$
0
0
बिमल रतूड़ी
-बिमल रतूड़ी

"...इस बार की आपदा में उत्तराखंड ने बहुआयामी मार झेली है, हजारों लोग मरे हैं, हजारों की तादात में लोगों के घर टूटे हैं, कई गायब हैं इतनी बड़ी विपत्ति के बाद लोगों के मानसिक पटल पर जो अंकित हुआ है उस से मानसिक अस्थिरता आना कोई बड़ी और अचरज की बात नहीं है. पर अचरज उस सोच पर है जिस में मानसिक स्वास्थ्य पर कोई ध्यान नहीं है. उलट हमारे यहाँ तो आलम यह है कि इसे सीधे पागलपन से जोड़ दिया जाता है और इसी सोच की वजह से कोई भी उत्तराखंड में आई इतनी बड़ी आपदा के बाद हुई मानसिक अस्थिरता पर बात करने तक को भी तैयार नहीं है. हमारे पास न मनोचिकित्सक है न ही मनोवैज्ञानिक न ही मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों का सही एजेंडा कैसे हम इतनी बड़ी आपदा से पूरी तरह से पार पाएंगे?..."


"मीनि बग्नु चांदू....हे माँ मी तें बचे ले..हे पिताजी मी तें बचे ले..."गढ़वाली भाषा में कहे गये इस वाक्य का मतलब है कि मैं नहीं बहना चाहता...हे माँ मुझे बचा ले...हे पिताजी मुझे बचा लो, यह बात अस्पताल में भर्ती वो लड़की रह रह कर कह रही है जब भी वह सोने की थोडा भी कोशिश कर रही है.इस ने इस आपदा में माँ, बाप, घर परिवार सब कुछ गंवाया और इस वक़्त मानसिक अस्थिरता की स्थिति में है.

यहएक छोटी कहानी भर है जिसे शायद इतने बड़े देश में नज़रंदाज़ किया जा सकता है जहाँ लाखों बच्चे कुपोषण से मरते हो, सर्दी, गर्मी, बरसात, ट्रैफिक हर चीज से ही तो मरते हैं. क्या-क्या तो गिनाया जाये?
परइसे नज़रंदाज़ तब नहीं किया जा सकता जब ये एक बड़े हिस्से की कहानी बन जाए, उत्तराखंड में 16, 17 जून को जो कुछ भी हुआ उस से आधे से ज्यादा उत्तराखंड को कई तरह से नुकसान हुआ है, इसमें जान-माल का नुकसान तो है ही परन्तु स्मृतियों में भी वो कुछ अंकित हुआ है जिसे दुबारा से हटा कर सामान्य स्थिति पाना एक चुनौती से कम नहीं है.

उत्तराखंडके चमोली, रुद्रप्रयाग, अगस्तमुनी, उत्तरकाशी, आंशिक रूप से टिहरी के कईयों गावों ने इस आपदा में बहुत कुछ गंवाया है. इसमें एक पहलू मानसिक स्वास्थ्य का भी प्रमुख है, जिस पर चर्चा कम है. डर, दहशत, अनिद्रा, डरावने सपने, निराशा, जड़ता, उदासी, मायूसी, अफसोस, अपराधबोध, स्तब्धता अवसादपानी से भय लगना, अजीब-अजीब सी आवाजें सुनाई देना, शरीर में कंपकंपी रहना कुछ लक्षण भर हैं जिन से बाहर वे लोग बिना किसी मानसिक रोग विशेषज्ञ की देख रेख में इलाज़ के बिना शायद ही निकल पायें.

उत्तराखंडसरकार का चेहरा हम इस आपदा में अच्छे से देख चुके हैं, विभिन्न तरह की लापरवाहियां अलग-अलग स्तर पर देखी गयी हैं, तब चाहे वो यात्रियों को निकालने में हुई देरी हो, खाद्य सामग्रियां पहुँचाने में लेट-लतीफी हो या पुनर्निर्माण के लिए बनाये जाने वाले मास्टर प्लान की खामियां हों या मुआवजे की रकम के बंटवारे को लेकर, हर स्तर पर खामियां ही खामियां नज़र आती हैं. पर फिर भी चर्चा के स्तर पर कम से कम सरकार की तरफ से सस्ते राशन, बैंक का कर्ज लौटने का समय बढ़ाने, रोजगार, वैज्ञानिक ढंग से पुनर्निर्माण और साथ ही ‘मंदिर के पुनर्निर्माण’ करने आदि-आदि की बातें तो हो रही हैं. पर मुझे न मुख्यमंत्री का कोई बयान याद आता है न ही किसी और मंत्री का, कि यह बड़ा इलाका जो आपदा के बाद मानसिक रूप से भी अव्यवस्थित हुआ है उसे पटरी पर लाने का क्या रोड मैप है? क्यूंकि हम मकान आज नहीं तो कल साल दो साल में बना सकते हैं पर मानसिक रूप से जो उन्हें क्षति पहुंची है उसे ठीक करना ज्यादा जरुरी है|

यूनाइटेडस्टेट्स में 2007-2009 के बीच आई आर्थिक मंदी ने नोर्विच–न्यू लन्दन, ब्रुन्सविक, एब्लेने, फ्लिंट, उर्बना, कार्सन सिटी जैसे बड़े शहरों को पूरी तरह बरबाद कर दिया था, लाखों लोगों की नौकरियां चली गयी थी और बड़े-बड़े कारोबार ख़त्म हो रहे थे, यह तबाही चाहे भले ही प्राकृतिक नहीं थी परन्तु इस आर्थिक मंदी के बाद अचानक फार्मा इंडस्ट्री में बड़ा बूम देखने को मिला और मुख्य रूप से उन दवाइयों की मांग बढ़ गयी जो मानसिक रोगों में ली जाती थी, मानसिक अस्पतालों में भीड़ बढ़ गयी मनोचिकित्सक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों की मांग बढ़ गयी और सरकार के सहयोग से हालातों पर काबू पाया गया.

इसबार की आपदा में उत्तरखंड ने बहुआयामी मार झेली है, हजारों लोग मरे हैं, हजारों की तादात में लोगों के घर टूटे हैं, कई गायब हैं इतनी बड़ी विपत्ति के बाद लोगों के मानसिक पटल पर जो अंकित हुआ है उस से मानसिक अस्थिरता आना कोई बड़ी और अचरज की बात नहीं है. पर अचरज उस सोच पर है जिस में मानसिक स्वास्थ्य पर कोई ध्यान नहीं है. उलट हमारे यहाँ तो आलम यह है कि इसे सीधे पागलपन से जोड़ दिया जाता है और इसी सोच की वजह से कोई भी उत्तराखंड में आई इतनी बड़ी आपदा के बाद हुई मानसिक अस्थिरता पर बात करने तक को भी तैयार नहीं है. हमारे पास न मनोचिकित्सक है न ही मनोवैज्ञानिक न ही मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों का सही एजेंडा कैसे हम इतनी बड़ी आपदा से पूरी तरह से पार पाएंगे?

डब्लू.एच.ओ के अनुसार स्वास्थ्य की परिभाषा “
दैहिक, मानसिक और सामाजिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ होना है. भारत में दैहिक यानि शारीरिक रूप से स्वस्थ आदमी को ही स्वस्थ मान लिया जाता है पर हम कभी मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देते और तत्काल परिस्थितियों के अनुसार देखा जाये तो अगर उत्तराखंड में मानसिक स्वास्थ्य पर कार्य नहीं किया गया तो भविष्य क्या होगा कल्पना करना भी हमारे बस में नहीं है.

मानसिकअस्थिरता और मानसिक रोगों को जड़ से दूर किया जा सकता है और अगर सरकार मानसिक स्वास्थ्य को भी अपने एजेंडे में शामिल करती है तभी हम पूर्ण रूप से उत्तराखंड का पूर्ण पुनर्निर्माण कर सकते हैं और दुबारा ज़िन्दगी के सही सपने संजो सकते हैं|     


बिमल पत्रकारिता के छात्र हैं. सामाजिक मुद्दों पर दखल.
  bimal@nazariya.in पर इनसे संपर्क करें.

Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

Trending Articles