सत्येंद्र रंजन |
-सत्येंद्र रंजन
"...खुफिया ब्यूरो (आईबी) के बचाव में जैसी मुहिम चलती दिखी, उससे यह सवाल खड़ा होता है कि कानून के राज और नागरिक अधिकारों की मूल धारणा पर आधारित संविधान के लागू होने के तकरीबन साढ़े छह दशक बाद भी क्या इस देश में संवैधानिक मूल्यों की कोई कद्र है? क्या अदालत में साक्ष्यों के आधार पर तय हुए बिना किसी को सार्वजनिक विमर्श में बार-बार आतंकवादी बताया जा सकता है? और अगर मान लें कि कोई आतंकवादी है तब भी उसे सजा आपराधिक न्याय व्यवस्था के प्रावधानों के तहत मिलेगी या खुफिया और पुलिस बल तुरंत इंसाफ के सिद्धांत पर उसे निपटा देंगे?..."
हालांकि यह बेहद देर से हुई पहल है, फिर भी अगर अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री रहमान खान के सुझाव पर केंद्र सरकार ने कदम उठाया तो उससे उस मर्ज की रोकथाम की राह निकल सकती है, जो अब नासूर बन चुका है। वैसे यह ध्यान में रखने की बात है कि रहमान खान के पास सिर्फ रोकथाम का फॉर्मूला है। उससे उन जख्मों का इलाज नहीं होगा, जो देश की मुस्लिम आबादी एक बड़े हिस्से में पीड़ा और आक्रोश की वजह बने हुए हैं। फिर यह अहम सवाल भी है कि प्रस्तावित उपाय सचमुच समस्या के किसी गहरे विश्लेषण और अब उसका समाधान ढूंढने के ईमानदार प्रयास का परिणाम है, या यह अगले आम चुनाव से पहले अल्पसंख्यक वोटरो को लुभाने के लिए उछाला गया शिगूफा है?
रहमानखान चाहते हैं कि सरकार एक शक्तिशाली कार्यदल बनाए, जो अनेक मुसलमानों पर चल रहे आंतकवाद के मामलों की निगरानी और समीक्षा करेगा। केंद्रीय मंत्री ने यह माना है कि "निर्दोष मुस्लिम युवाओं"को आतंकवाद के आरोपों में गलत ढंग से फंसाया गया है और उन्हें इंसाफ दिलाना जरूरी है। खान चाहते हैं कि इस कार्यदल की अध्यक्षता प्रधानमंत्री करें, ताकि इस व्यवस्था को आवश्यक राजनीतिक वजन मिल सके। लेकिन यह अभी महज एक मंत्री के मन में आया विचार भर है, जिसके बारे में वे प्रधानमंत्री और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखने का इरादा रखते हैं। इस दिशा में कोई पहल होगी, इसकी उम्मीद रखने का फिलहाल कोई ठोस आधार नहीं है। वैसे एक अंग्रेजी अखबार से बातचीत में रहमान खान ने अपने इस प्रस्ताव के साथ इस मसले से जुड़ा एक बुनियादी सवाल जरूर उठा दिया। कहा- "अगर लोग लंबे समय तक हिरासत में रहने के बाद बरी होते हैं तो उन्हें इंसाफ कहां मिलता है?खासकर तब अगर उन्हें मुआवजा नहीं मिलता। जेल में लंबे समय तक रहने का मतलब है कि उनका जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।"
इससंदर्भ में हैदराबाद की मक्का मस्जिद में मई 2007 में हुए विस्फोट का मामला एक मिसाल बना था। जैसाकि पहले अक्सर होता रहा है, विस्फोट होते ही पुलिस ने धड़ाधड़ 20 मुस्लिम नौजवानों को गिरफ्तार कर लिया। न्यायिक कार्यवाही से साबित हुआ कि वे निर्दोष थे। उन्हें बरी कर दिया गया। इसके बाद आंध्र प्रदेश सरकार ने उन्हें आर्थिक मुआवजा दिया। यह रकम 20 हजार से तीन लाख रुपए तक थी। साथ ही आतंकवाद के लगे धब्बे को धोने के लिए पीड़ितों को निर्दोष होने का प्रमाणपत्र दिया गया। तब से यह मुद्दा नागरिक अधिकार आंदोलन के एजेंडे पर है।
दिल्लीमें मोहम्मद आमिर जब 14 साल जेल में रहने के बाद आतंकवाद के आरोप से बरी हुए, तब भी यह प्रश्न उठा कि क्या एक निर्दोष को सिर्फ बरी कर दिया जाना काफी है?लेकिन यह सवाल भी पूरा नहीं है। इसके साथ महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या किसी की जिंदगी को लगभग बर्बाद कर देने के बाद सिर्फ आर्थिक मुआवजा देना काफी है?क्या यह भी अहम मुद्दा नहीं है कि जिन पुलिसकर्मियों या खुफिया एजेंसियों की वजह से बिना ठोस और पर्याप्त साक्ष्य के किसी को सिर्फ उसकी धार्मिक पहचान के आधार पर पकड़ कर मानसिक या शारीरिक यातना दी गई और फिर वर्षों जेल में रखा गया, उनकी जवाबदेही तय होनी चाहिए?क्या उनसे यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर किस आधार पर उन्होंने गिरफ्तारी की थी?अगर वे संतोषजनक जवाब देने में नाकाम रहे तो क्या उनके खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए?
अगरअभी भारतीय दंड संहिता में ऐसे मुकदमे का प्रावधान नहीं है तो क्या नया कानून बनाने का वक्त अब नहीं आ गया है?इस संदर्भ में रहमान खान से विनम्र प्रश्न है कि क्या वे इस बहस को इस तार्किक मुकाम तक ले जाने को तैयार हैं?
मामलेअगर इक्का-दुक्का होते तो शायद समस्या के एकांगी हल की कोशिश को राहत की बात माना जाता। लेकिन ऐसी घटनाओं का एक अटूट सिलसिला बन गया है। बल्कि यह एक रुझान बन गया है। मक्का मस्जिद की घटना का ऊपर जिक्र हुआ। अब मालेगांव विस्फोट कांड पर गौर कीजिए। यहां जांच और कार्रवाई इतनी बेतुकी है कि किसी न्यायप्रिय व्यक्ति को वह दहला सकती है। 2006 में यह घटना होते ही 13 मुस्लिम नौजवान गिरफ्तार किए गए। लेकिन मक्का मस्जिद की तरह यहां भी आगे की जांच इस निष्कर्ष पर पहुंची कि इस कांड को हिंदू चरमपंथियों ने अंजाम दिया था।
राष्ट्रीयजांच एजेंसी (एनआईए) एक हिंदू उग्रवादी समूह से जुड़े चार लोगों के खिलाफ चार्जशीट पेश कर चुकी है। लेकिन हैरतअंगेज है कि उन 13 मुस्लिम युवकों को बरी नहीं किया गया है। क्या यह मुमकिन है कि मालेगांव में विस्फोट हिंदू और मुस्लिम चरमपंथियों ने मिलजुल कर किया हो?अगर उनमें से किसी एक ने किया तो दूसरे समूह के लोगों को (अगर वे किसी गुट से संबंधित हों तब भी) किस आधार पर आरोपी बनाए कर रखा गया है?अपनी जांच एजेंसियां आम नागरिक की पीड़ा के प्रति इतनी असंवेदनशील हैं कि उन्हें ऐसी विसंगतियों और उसके परिणामों से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन ये सवाल अहम है कि उन दोनों गुटों में से जिसके भी सदस्य अंततः बरी हो जाएंगे, उन्हें हुए माली और प्रतिष्ठा के नुकसान की भरपाई कैसे की जाएगी और क्या इसके लिए जिम्मेदार जांचकर्मियों की जवाबदेही तय होगी?
अगरउत्तर प्रदेश के मामलों पर गौर करें तो प्रश्न और भी प्रासंगिक हो जाता है। मसलन, खालिद मुजाहिद की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत ने राज्य के स्पेशल टास्क फोर्स को जनमत के कठघरे में खड़ा रखा है। यह मौत तब हुई जब यह खबर चर्चा में थी कि 2007 के बम धमाकों के आरोप में खालिद की गिरफ्तारी की जांच के लिए बने निमेश आयोग ने गिरफ्तारी के हालात को संदेहजनक बताया है। गिरफ्तारी और मौत दोनों की संदिग्ध परिस्थितियों ने न सिर्फ राज्य के आतंकवाद विरोधी स्पेशल टास्क फोर्स और पुलिस बल के कार्य-व्यवहार पर सवाल खड़े किए, बल्कि राजनीतिक नेतृत्व के रुख को भी संदिग्ध बनाया है।
निमेशआयोग की रिपोर्ट अगर समय पर स्वीकार कर उसके मुताबिक कार्रवाई की गई होती तो शायद खालिद के जिंदा रहते इस मामले की सही तस्वीर सामने आ सकती थी। राज्य सरकार इतने गंभीर मामले में कितनी अगंभीर है, इसकी मिसाल इसी साल अप्रैल में देखने को मिली, जब उसने बिना पूरी तैयारी के खालिद और उसी मामले में गिरफ्तार तारिक कासमी पर से मुकदमे वापस लेने की याचिका बहराइच कोर्ट में पेश की। अन्याय के शिकार आरोपियों को न्याय दिलाने का यह विचित्र तरीका था। कोर्ट ने उचित ही सरकार की याचिका को ठुकरा दिया।
अगरसरकार गंभीर होती तो वह संबंधित मामले की तीव्र सुनवाई की व्यवस्था करती। इससे उन सबूतों की न्यायिक जांच होती, जिनके आधार पर दोनों आरोपियों को गिरफ्तार किया गया था। अगर सबूत नहीं ठहरते तो दोनों बरी हो जाते। उसके बाद यह दायित्व सरकार पर आता कि वह उनकी क्षतिपूर्ति करती और उन्हें हुए नुकसान के लिए जिम्मेदार अधिकारियों और पुलिसकर्मियों की जवाबदेही तय कर उनके लिए उचित दंड का प्रावधान करती। मगर सरकार ने शॉर्टकट अपनाने की कोशिश की, जो ना तो उचित है और ना ही संभवतः कानून-सम्मत है।
दरअसल, आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों में बिना पर्याप्त साक्ष्य के गिरफ्तारी और सुस्त अदालती कार्यवाही के कारण अनगिनत लोग बिना सजा हुए जेलों में पड़े हुए हैं। इन प्रकरणों के निहितार्थ अत्यंत गंभीर हैं। अगर निर्दोष लोगों को पकड़ा जाता है तो उनके साथ जो होता है वह तो अपनी जगह है, लेकिन उससे यह भी होता है कि असली आतंकवादी तक जांच एजेंसियां नहीं पहुंच पातीं। मतलब, ऐसे गुट और लोग मौजूद हो सकते हैं जो आतंकवादी वारदात को अंजाम देने के बाद बेखौफ घूम रहे हों और उनके कारनामों की सजा वैसे नौजवान भुगत रहे हों, जो मनोगत कारणों से खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों के शक के दायरे में आ गए, या कुछ करते दिखाने का भ्रम पैदा करने के लिए पुलिस ने जानबूझ कर जिन्हें फंसा दिया।
हैदराबादऔर मालेगांव की मिसालों, निमेश आयोग के निष्कर्ष, मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्टों और अब केंद्रीय मंत्री रहमान खान की स्वीकारोक्ति सिर्फ इसी तरह इशारा करती है कि अब ये समस्या विकट रूप ले चुकी है। लेकिन राष्ट्रीय राजनीति और मीडिया के एक हिस्से में बढ़ते दक्षिणपंथी/सांप्रदायिक झुकाव के कारण इस सवाल पर ना तो खुल कर चर्चा होती है और ना ही इसके समाधानों पर गंभीरता से सोचा जाता है। बल्कि तथ्यों को धुंधला करन की कोशिश होती है, जैसी मिसाल हमने इशरत जहां के मामले में देखी। अहमदाबाद हाई कोर्ट ने सीबीआई को दिए आदेश में साफ कर दिया कि जांच का असली मुद्दा यह है कि क्या इशरत और उसके साथ मारे गए अन्य लोग फर्जी मुठभेड़ में मारे गए? इसके बावजूद चर्चा पर इशरत के आतंकवादी होने या ना होने के प्रश्न को बार-बार उछाला गया है।
खुफियाब्यूरो (आईबी) के बचाव में जैसी मुहिम चलती दिखी, उससे यह सवाल खड़ा होता है कि कानून के राज और नागरिक अधिकारों की मूल धारणा पर आधारित संविधान के लागू होने के तकरीबन साढ़े छह दशक बाद भी क्या इस देश में संवैधानिक मूल्यों की कोई कद्र है?क्या अदालत में साक्ष्यों के आधार पर तय हुए बिना किसी को सार्वजनिक विमर्श में बार-बार आतंकवादी बताया जा सकता है?और अगर मान लें कि कोई आतंकवादी है तब भी उसे सजा आपराधिक न्याय व्यवस्था के प्रावधानों के तहत मिलेगी या खुफिया और पुलिस बल तुरंत इंसाफ के सिद्धांत पर उसे निपटा देंगे?
जब आतंकवाद को धार्मिक चश्मे से देखने का चलन मजबूत होता गया हो, उपरोक्त प्रश्न देश एवं संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के आगे गहरी चुनौती पेश करते दिखते हैं। याद कीजिए कुछ समय पहले पी चिदंबरम जब गृह मंत्री थे, भगवा आतंकवाद की अपनी टिप्पणी को लेकर कैसे भारतीय जनता पार्टी, संघ परिवार के दूसरे संगठनों और मीडिया के एक हिस्से के निशाने पर आ गए थे। पुलिस महानिदेशकों और सुरक्षा बलों के अधिकारियों के सम्मेलन में चिदंबरम ने देश की सुरक्षा के लिए मौजूद चुनौतियों का जिक्र करते हुए उन्हें ‘भगवा’ आतंकवाद के खतरे से भी आगाह किया।
इसपर कहा गया कि चिदंबरम ने ‘भगवा’ आतंकवाद की बात कह कर भारतीय संस्कृति का अपमान किया है, क्योंकि साधु-संत भगवा कपड़े पहनते हैं। हिंदू वोट गंवाने की चिंता ने कांग्रेस को भी बचाव की मुद्रा में डाल दिया। पार्टी ने सार्वजनिक बयान जारी कर खुद को चिदंबरम के बयान से अलग किया। वही घिसी-पिटी बात दोहराई कि किसी महजब का आतंकवाद से कोई रिश्ता नहीं होता। बहरहाल, मुद्दा यह नहीं है कि चिदंबरम ने जिस शब्द का इस्तेमाल किया, वह सही है या नहीं? मुद्दा यह है कि जिस संदर्भ का उन्होंने जिक्र किया, वह आज एक हकीकत है या नहीं?
मालेगांव,हैदराबाद की मक्का मस्जिद, अजमेरशरीफ दरगाह, नांदेड़ और गोवा की घटनाएं क्या उन्होंने जो कहा, उसे कहने के ठोस सबूत नहीं हैं? फिर भी भगवा आतंकवाद शब्द वर्जित है, लेकिन इस्लामी आतंकवाद उतना ही प्रचलित है। आतंकवादी घटनाओं के बाद मुस्लिम नौजवानों की अंधाधुंध गिरफ्तारी या इशरत जहां जैसे मामलों में होने वाली चर्चा को इस राजनीतिक संदर्भ से अलग कर नहीं देखा जा सकता। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वामपंथी दलों को छोड़ कर देश की कोई राजनीतिक शक्ति इस संदर्भ से सीधे टकराने को तैयार नहीं है। इसीलिए रहमान खान के सुझाव भरोसा पैदा करने के बजाय महज शिगूफे का संदेह पैदा करते हैं। क्या खान, मनमोहन सिंह सरकार, कांग्रेस और यूपीए इस शक को गलत साबित कर पाएंगे?
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सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.