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आपदा के बहुआयाम

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मदन मोहन चमोली
-मदन मोहन चमोली

"...अब तक आपदाओं को लूट के अवसर में बदलती रही सरकारें, इस बार और भी बड़े पैमाने पर सक्रिय हो चुकी हैं. इसलिए उत्तराखंड से लेकर केंद्र सरकार तक केदारनाथ धाम को फिर से पहले जैसे खड़ा करने को जितना कृत संकल्प दिखते हैं, वैसा जनता के सुख-चैन और स्वाभाविक विकास की बहाली के लिए नहीं. केदारनाथ धाम में शमशान की शांति है,लेकिन शंकराचार्य से लेकर रावल-पुजारी,मंदिर समिति ‘पूजा’ फिर से शुरू करने की कवायद में जुटे हैं.पूजा का यह खेल धर्म और सत्ता की तिजारती वह व्यवस्था जो स्वयं आपदा के लिए जिम्मेदार है..."


मंदाकिनी की बाढ़ में बह गए चंद्रपुरी गाँव
की जगह अब बस मलवे का ढेर है
.
15, 16और 17  जून को 72घंटों की बारिश ने उत्तराखंड के सीमान्त जिलों-चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ में तबाही का अकल्पनीय मंजर रच डाला.आस्था के चारों केन्द्रों-बदरीनाथ,केदारनाथ,गंगोत्री,यमनोत्री के आधार और अधिरचना पहली बार न केवल भौतिक रूप से बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी विनाश की चपेट में आये. मात्रा,मौतें और मुसीबत के लिहाज से केदारनाथ धाम और समूची केदार घाटी(रुद्रप्रयाग जनपद) महाविनाश का केंद्र बने तो वृत्त का अस्तित्व भी(आस्था,आर्थिकी और पारंपरिक अभियान के अर्थ में) बेरीढ़,दूसरे शब्दों में पंगु होने की स्थिति में आ चुका है.इसे फिर से अपने पैरों पर खड़े होने में वर्षों लगेंगे. 

कश्मीरसे कन्याकुमारी तक और गुजरात से बंगाल तक सम्पूर्ण भारत के लोग पूजा,पर्यटन,पिकनिक या अन्य किसी भाव से पहाड़ के चारों धामों में हजारों-हज़ार की संख्या में मौजूद थे.लेकिन यह भी पहली बार हुआ कि समय से पहले आये मानसूनी विक्षोभ ने महाविनाश की अविश्वसनीय अति बरपा दी. भगवान,नुक्सान और इंसान तीनों राष्ट्रीय मीडिया के ‘फोकस’ में आ गए. केंद्र और राज्य की सरकारें भी यहाँ आपदा की भाषा बोलने लगी. कहा गया कि यह ‘राष्ट्रीय आपदा’ है लेकिन इसे आज तक घोषित नहीं किया गया. ऊपर से देखने पर लगा कि सरकार के सभी अंग महाविनाश से निपटने में युद्धस्तर पर सक्रीय हैं, चारों धामों में फंसे हुए लोगों को सुरक्षित निकालने में यह सक्रियता(सेना की वजह से) दिखी भी. लेकिन स्थिति यहाँ भी भगवान भरोसे की तरह सेना के भरोसे जैसी बनी रही. सरकारों पर भरोसा कायम नहीं हो पाया. 

अगस्तमुनि से केदारनाथ जाती यह सड़क जगह जगह टूटी है.
इसकी जगह मंदाकिनी बह रही है.
टीवी चैनलों ने पूरे दस दिन तक ‘हॉरर’ रिपोर्टिंग करने के साथ-साथ तथ्यों का चीरहरण करने में शेयर मार्केट वाली तेजी दिखाई. धर्म बनाम विज्ञान की बहस को भी जनता को भरमाने का जरिया बनाया गया (खासकर केदारनाथ के प्रसंग में आपदा को पाप से और पाप को आपदा से जोड़ने तथा स्थाने निवासियों के साथ-साथ मजदूरी करने वाली पूरी नेपाली जमात को लूटपाट,मारपीट,बलात्कार जैसे कृत्यों को लोमहर्षक तरीके से गढे गए सत्यों को कतिपय टीवी चैनलों ने सनसनी के साथ परोसा. जैसे कि यही सब देखने के लिए उनमें सबसे पहले वहाँ होने की होड लगी हो. कुल मिलाकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के एक हिस्से ने बड़ी कवरेज के बावजूद बड़ी गैरजिम्मेदारी का भी परिचय दिया. एक उदाहरण से इसको बखूबी जाना जा सकता है.’आज तक’ चैनल में पुण्य प्रसून वाजपेयी ने 16जून को केदारनाथ से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर श्रीनगर(गढ़वाल) में जी.वी.के.कंपनी द्वारा बनायीं जा रही जलविद्युत परियोजना के दायरे में आने वाले धारी देवी मंदिर की मूर्ति को मूल स्थान से हटाये जाने को, 17जून को केदारनाथ में होने वाली विध्वंश लीला से जोड़ते हुए,इस बहस को निष्कर्ष तक पहुंचाने के लिए ज्योतिर्पीठ पर दावा जताने वाले तीन शंकराचार्यों में से एक शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती का सर्टिफिकेट प्राप्त कर लिया. 

लेकिनदूसरा पहलू यह भी है कि मीडिया के जरिये ही सार्थक बहस भी सामने आई और व्यवस्था का चेहरा भी. यह भी कह सकते हैं कि मीडिया में बहस का स्तर रिपोर्टिंग से बढ़िया था.इसको समग्रता में इस तथ्य के साथ देखे जाने की आवश्यकता कि राष्ट्रीय मीडिया तंत्र भी शासक वर्गीय पार्टियों की तरह कारपोरेट का औजार है,जिन्हें मुद्दे से ज्यादा मुनाफे के पक्ष में लोकतंत्र का इस्तेमाल करना है,फिर चाहे जनता आपदाग्रस्त हो अथवा मंगाई-भ्रष्टाचार-लूट-दमन या अन्य संकट में. इसलिए अक्सर बहस तो लोकतंत्र के पक्ष में होती है लेकिन बाकी लूटतंत्र के पक्ष में. संतुलन की इस बाजीगरी में केंद्र और राज्य सरकारें इस महाविनाश लीला के समय और आज तक भी पूरी तरह बेनकाब हो चुकी हैं. जिस गंभीरता,संवेदनशीलता और जिम्मेदारी के साथ इस चुनौती से निपटने की इच्छाशक्ति की जरुरत थी, वह ना सोच में जाहिर हुई, ना कार्यवाही में. लेकिन जब आपदा की भयावहता का अंदाजा हुआ तो सोनिया-मनमोहन-शिंदे से लेकर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा,आपदा प्रबंधन मंत्री यशपाल आर्य,कृषि मंत्री हरक सिंह रावत, सुबोध उनियाल आदि कांग्रेसी नेताओं के लिए आपदा-‘डिजास्टर टूरिज्म’ का नया पैकेज बन गयी. यह भी है कि विभिन्न राज्यों की सरकारों ने अपने लोगों की खातिर हेलिकॉप्टर सेवा के साथ बड़ी आर्थिक मदद की घोषणाएं की.कांग्रेस-भाजपा राहत राजनीति का खेल भी खेलती रही.

पानी से धारदार कोई हथियार नहीं होता
सबसेदर्दनाक दास्तान केदारनाथ धाम और केदार घटी यात्रा मार्ग की है. यहीं सबसे ज्यादा मौतें हुईं और सबसे ज्यादा लोग फंसे,जिन्होंने स्थाने जंगलों,गावों में मौत से बदतर हालातों में जिंदगी गुजारी.दोनों की संख्या हज़ारों के हिसाब से आंकी जा रही है.रुद्रप्रयाग जनपद,इस लिहाज से सर्वाधिक क्षतिग्रस्त जिला बना.

यहतथ्य जाहिर हो चुका है कि केदारनाथ मंदिर के पीछे मंदाकिनी नदी के मुहाने गांधी सरोवर(चौराबाड़ी ताल) के क्षेत्र में भारी बारिश,बादल फटने,ग्लेशियर पिघलने-टूटने के सभी संयोगों की परिणिति के फलस्वरूप ग्यारह हज़ार फीट की ऊँचाई पर स्थित,तीन वर्ग किलोमीटर में फैला केदार (केदार यानि दलदल) क्षेत्र जलप्रलय का प्रारंभिक बिंदु बना, जिसका ट्रेलर 16जून की ही रात को घटित हो चुका था और लगभग केदारनाथ मंदिर के 25मीटर पिछले हिस्से में बने ढांचों को तबाह कर तीस जाने ले चुका था.लगातार मूसलाधार बारिश में यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि प्रलय का प्रचंडतम रूप आना तो बाकी है.फिर भी 17जून की सुबह चार बजे से परम्परागत विधान के अनुसार अभिषेक और आरती का कार्यक्रम निर्बाद्ध आगे बढ़ता रहा.

ठीक6.55  पर गाँधी सरोवर से मंदाकिनी नदी की अकल्पनीय बाढ़ ने केदारनाथ के सर्वस्व को ध्वस्त करते हुए हज़ारों लोगों को अपनी चपेट में लेते हुए आगे बढ़ने के क्रम में क्रमशः रामबाड़ा,गौरीकुंड,सोनप्रयाग को संपूर्ण रूप से जमींदोज करते हुए लगभग अस्सी किलोमीटर की लम्बाई तक भीषण तबाही मचाई. रामबाड़ा और गौरीकुंड में हज़ारों लगों का जमावड़ा था. इसलिए बच कर निकलने वालों की संख्या बहुत कम है और मरने वालों का आंकडा बहुत बड़ा क्यूंकि मंदाकिनी के साथ आये लाखों-लाख टन गाद,पत्थरों,बोल्डरों ने लोगों को अपने नीचे हमेशा के लिए दफ़न कर दिया है.ऐसा स्थानीय  लोग भी कह रहे हैं और सम्बंधित सूत्र भी (लेकिन सरकार अभी तक हज़ार से कम लोगों को ही मृत मान रही है). 

तिलवाड़ा की तबाही
मात्रदो घंटे के अंदर रुद्रप्रयाग जनपद के अंतर्गत आस्था के व्यापार की आर्थिकी तहस-नहस हो गयी. गौरीकुंड से केदारनाथ तक 14किलोमीटर पैदल मार्ग और गौरीकुंड से सोनप्रयाग तक 7किलोमीटर राजमार्ग मात्र  1प्रतिशत ही शेष बचा है.गौरीकुंड में मंदाकिनी का जलस्तर सामान्य दिनों की अपेक्षा 50 मीटर ऊपर तक चढ़ा हुआ था,जिसने अपने किनारे से काफी दूर तक के 50-60छोटे-बड़े भवनों को भी ढहा दिया, रामबाड़ा में इससे अधिक क्यूंकि वहाँ कुछ भी शेष नहीं है.सोनप्रयाग की दशा भी यही है. सोनप्रयाग से आगे मंदाकिनी का जल तो बढते हिसाब में रहा. लेकिन सड़क और आवासीय क्षेत्र तो उच्चावच होने के कारण बच गए.लेकिन हज़ारों हैक्टेयर कृषि भूमि को लीलते हुए- सीतापुर, रामपुर, फाटा, ब्यूंग, गुप्तकाशी, उखीमठ, भीरी, चन्द्रापुरी, अगस्त्यमुनि,सौडी,बनियाडी सिल्ली, तिलवाडा-रामपुर-सुमाडी और रुद्रप्रयाग नगर क्षेत्र तक मंदाकिनी नदी की बाढ़ से क्षत-विक्षत हो गए हैं. 

यात्रा-पर्यटन,व्यापार,रोजगार,सुविधाएँ,साजो-सामान,संपर्क सब कुछ आपदा की भेंट चढ गए.सरकारों का ध्यान प्रमुख तौर पर चारों धामों में फंसे यात्रियों,पर्यटकों को निकलने में रहा और हवाई सेवा भी उन्ही के लिए समर्पित रही. यह एक कटु सत्य है कि स्थानीय जनता 17जून से  27जून गौरीगांव से लेकर जाल-चौमासी, कालीमठ, कोटमा, स्यूंर-कंडारा, जलई, फलासी और सुमाडी सहित दर्जनों गावों में किस हाल में हैं-शासन-प्रशासन को यह जानने में अधिक दिलचस्पी नहीं थी.रुद्रप्रयाग के औसतन प्रत्येक गांव के लोगों का सम्बन्ध केदारनाथ की यात्रा से जुड़ा है. सीतापुर से आगे मंदाकिनी नदी पर बनायीं जा रही जलविद्युत परियोजना,जिस लेंको कम्पनी बना रही है,के सभी ढांचों ने भी टूटकर जलप्रलय को बढाने में सहायक की भूमिका निभाई. ब्यूंग-फाटा जलविद्युत परियोजना के नाम से बनायीं जा रही इस परियोजना का स्थानीय जनता शुरू से विरोध कर रही थी क्यूंकि इसके निर्माण में न सिर्फ बहुत सारी अनियमितताएं बरती जा रही थी बल्कि जल-जंगल-जमीन और जीवन सभी को खतरे में डाल दिया गया था. निर्माण का सारा मलबा मंदाकिनी की गोद में डाले जाने ने, प्रलय की तीव्रता को कई गुणा बढ़ा दिया. आगे तीस किलोमीटर पर फिर एक नयी जलविद्युत परियोजना-सिंगोली-भटवाडी पर ठीक इसी तरह की आपराधिक लापरवाही ने कोढ़ में खाज का काम किया. कुंड नामक स्थान पर जहां सिंगोली-भटवाडी परियोजना की मुख्य साईट है, मन्दाकिनी ने वहाँ भी निर्माण कंपनी एल एंड टी के सभी ढांचों को तहस-नहस कर दिया. कुंड में कंपनी ने सुरंगों का निर्माण करने के अलावा आवासीय और कार्यालय भवनों का भी बड़ी संख्या में निर्माण किया है. यह स्थान बहुत ही तंग घाटी जैसा है,जिसमें दोनों तरफ से भूस्खलन लगातार जारी है.

राहत सामग्री के लिए सिल्ली के पास बंद सड़क
से दूसरी तरफ जाते लोग
 
चाहेसुरंग हो या बाकी निर्माण,कंपनी ने मंदाकिनी को मलबे से पाट दिया था.16 और 17जून की अतिवृष्टि में उपरोक्त दोनों परियोजनाओं की सभी प्रकार के निर्माणों के साथ-साथ निर्माण कार्य हेतु लायी गयी बड़ी-बड़ी मशीनों समेत सब कुछ बह कर नष्ट हो गया और तबाही को बढाते हुए आगे आने वाली बस्तियों भीरी, चन्द्रपुरी, सौडी, अगस्त्यामुनि, सिल्ली,तिलवाडा नामक स्थानों पर राजमार्ग को सपाट बनाते हुए सैकड़ों की तादाद में मकानों, यात्रा आवासों, खेतीबाड़ी, संपर्क पुलों को नेस्तनाबूद कर दिया. विनाशलीला का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि मंदाकिनी नदी अपने सामान्य प्रवाह की अपेक्षा 200 से 500मीटर तक अपने दोनों तरफ की जमीन को काटते हुए सब कुछ लीलती चली गयी. 

संभवतःचन्द्रपुरी और अगस्त्यमुनि जैसे कस्बे बड़ी से बड़ी बरसात में भी कभी मन्दाकिनी का शिकार नहीं हुए थे क्यूंकि ये नदी से पर्याप्त सुरक्षित दूरी पर थे.चन्द्रापुरी कस्बे के स्थानीय  लोगों का कहना है कि उनकी तबाही के लिए नब्बे फ़ीसदी उपरोक्त दोनों जलविद्युत परियोजनाएं जिम्मेदार हैं,जिनकी वजह से मंदाकिनी में बीस मीटर तक गाद भरने से नदी का जलस्तर असीमित रूप से ऊंचा उठा और उसने अतिरिक्त विस्तार के साथ सुरक्षित स्थानों को असुरक्षित कर दिया, ना सिर्फ आज बल्कि भविष्य के लिए भी. कुंड से लेकर तिलवाडा तक (लगभग पच्चीस किलोमीटर) मंदाकिनी नदी ने अपनी बायीं ओर शिफ्ट करना आरम्भ कर दिया है, जिसकी जद में राजमार्ग समेत सभी दस-बारह कस्बे भी होंगे.सभी रेतीली जमीन पर खड़े हैं. आपदाओं के आदि हो चुके केदारघाटी के लोग अपने समूचे अर्थतंत्र के नष्ट हो जाने के साथ आस्था पर खड़ी व्यापारिक बहुलता के विकल्पहीन होने की आशंका से ग्रस्त हैं, जिसके लिए सरकारों का कोई आश्वासन नहीं है,ना उन्हें भगवान पर भरोसा रह गया है.

अबतक आपदाओं को लूट के अवसर में बदलती रही सरकारें, इस बार और भी बड़े पैमाने पर सक्रिय हो चुकी हैं. इसलिए उत्तराखंड से लेकर केंद्र सरकार तक केदारनाथ धाम को फिर से पहले जैसे खड़ा करने को जितना कृत संकल्प दिखते हैं, वैसा जनता के सुख-चैन और स्वाभाविक विकास की बहाली के लिए नहीं. केदारनाथ धाम में शमशान की शांति है,लेकिन शंकराचार्य से लेकर रावल-पुजारी,मंदिर समिति ‘पूजा’ फिर से शुरू करने की कवायद में जुटे हैं.पूजा का यह खेल धर्म और सत्ता की तिजारती वह व्यवस्था जो स्वयं आपदा के लिए जिम्मेदार है.

सड़क का काम जारी है 

दूसरीतरफ राहत का खेल भी बड़े पैमाने पर चल रहा है.लेकिन सरकार की वितरण प्रणाली का अता-पता नहीं है.लगभग भिखारियों की तरह राहत पाने की नियति से लोगों में खासा असंतोष है. उखीमठ, अगस्त्यमुनि और जखोली विकासखंड के सैकड़ों गावों में से चुनिन्दा गावों तक ही पर्याप्त राहत सामग्री पहुँच पा रही है और आपदा के एक पखवाड़े बाद भी सुदूरवर्ती गावों तक राहत पहुंचाने में कोई एजेंसी सक्रीय नहीं दिखती. अब हेलिकॉप्टर सिर्फ केदारनाथ में धार्मिक क्रियाकलापों को अंजाम देने की कवायद में जुटी मशीनरी तक सीमित हो चुके हैं. 

अभीरामबाड़ा, गौरीकुंड, सोनप्रयाग तथा स्वयं केदारनाथ में अनगिनत लाशों के दफ़न होने की स्थिति में महामारी का तांडव भी शुरू हो चुका है. हैजा, डायरिया जैसे बीमारियों ने दस्तक देना शुरू कर दिया है. अभी जबकि इन स्थानों पर मौत का राज है,फिर भी सौदागर हैं कि भविष्य में आपदाओं से निपटने की मानवीय क्षमता,प्रतिभा,प्रयास और संसाधनों को वैज्ञानिक नजरिये से देखने के बजाय मिथ्याचार और भ्रष्टाचार के नव उदारवादी विकास मॉडल के इर्द-गिर्द ही सोच को सीमित करने पर उतारू हैं. जबकि यह समय स्वयं चीख-चीख कर कह रहा है कि हिमालय और पहाड़ों को नयी वैकल्पिक विकास नीति की अपरिहार्य आवश्यकता है, चाहे पर्यटन हो, यात्रा हो, विकास के विभिन्न आयाम हों, वैज्ञानिकों के नजरिये को अहमियत के साथ जमीन पर उतरा जाए, और सारी चीजों पर नियंत्रण के नियमों का ठोस रूप से पालन हो ताकि प्रकृति से तादात्म्य और तालमेल बिठाया जा सके. 

लेकिनइस संभव को ही हमारे शासक वर्गों ने असंभव बनाने की हद तक निरीह बना दिया है,ताकि लोग ‘भगवान भरोसे’ बने रहें.यही लगातार होता रहा है और कम से कम केदारघाटी की जनता तो इसकी सबसे बड़ी गवाह है.यहाँ पिछले 25सालों में आई यह पांचवीं बड़ी आपदा है और हर आपदा के बाद वही सब चीजें शुरू  हो जाती हैं,जिन्हें आपदा के कारणों में गिना जाता है.बस संपत्ति के नुक्सान के साथ जान से हाथ धोने वालों पर मुआवजे और राहत का फौरी छिडकाव कर सारे नागरिक अधिकारों से जुड़े सवालों से कन्नी काट ली जाती है.
उमींद की छतरी  
तस्वीरें- रोहित जोशी

नब्बेके दशक से उत्तराखंड में पुराने राजमार्गों के चौडीकरण और नए राजमार्गों के निर्माण के केंद्र में जनता नहीं,जलविद्युत परियोजनाओं के विशालकाय उपकरण और मशीनें थी, जिन्हें चारों धाम की नदियों के मुहाने तक पहुँचाना था. इस कवायद में उन सभी मानकों को ताक पर रखा जाता रहा है जो खतरों पर नियंत्रण रख पाते. विकास के ऐसे बुलडोजर ने संपन्न शहरी समाज के साथ यहाँ के संपन्न तबके को और अधिक संपत्ति और सुविधाएँ अधिकतर टूरिज्म पैकेज)आलीशान कारें,आलीशान बसें,आलीशान लॉजिंग, आलीशान जीवन स्तर तो प्रदान किया लेकिन आलीशान की सभी अतियों ने पहाड़ों के साथ-साथ यहाँ के भविष्य की नींव को जड़ों तक उखाड दिया है.इसके अलावा यात्रा पर सिर्फ संपन्न और शोषक वर्गों का कब्जा बढ़ा दिया है,जिन्हें शासक वर्गों का संरक्षण प्राप्त है.   
    


मदन मोहन चमोली वरिष्ठ पत्रकार हैं. 
इनसे संपर्क का पता m.m.chamoli@gmail.com है.

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