अविनाश कुमार चंचल |
-अविनाश कुमार चंचल
"...दरअसल बात यह भी है कि हमारे समाज में मिल्खा जैसों के लिए काफी इज्जत, सम्मान तो है लेकिन ये सब सिर्फ एक जीते हुए सफल मिल्खाओं के लिए है- हारे या कोशिश कर रहे मिल्खाओं के हिस्से गुमनामी, संसाधन की कमी का रोना ही बंधा है।..."
रात 'भाग मिल्खा भाग' देख आया। बिहार में अपने एक साली खेल पत्रकारिता के अनुभव से यही जाना है कि इस देश में, देश के गांवों और सुदूर कस्बों-जिलों में न जाने कितने मिल्खा सिंह दौड़ रहे हैं, जिन्हें मंजिल नहीं मिलती।
बिहारके बेगूसराय की वो लड़की जिसे मैं जलपरी कहता हूं- बेबी कुमारी। एक मछुआरे परिवार में जन्मी बेबी तलाबों में तैरने का अभ्यास करके कॉमनवेल्थ गेम्स के क्वालिफाईंग तक पहुंची, सांई सेन्टर में ट्रेनिंग लिया। उसके परिवार वाले मछली पकड़ने जैसे सीमित आय वाले पेशे में हैं। नतीजा, बेबी को पैसे की वजह से अपनी ट्रेनिंग पूरी करने में मुश्किलें आ रही हैं।
बिहारमें ही मोकामा एक जगह है। बिल्कुल पिछड़ा और सुदूर दियारा क्षेत्र। वहां भी एक मुस्लिम परिवार की बच्चियां कबड्डी-हॉकी जैसे खेलों में लगातार राष्ट्रीय प्रतियोगिता जीत रही हैं वो भी बिना किसी ट्रेनिंग के। प्रशिक्षण गांव के मैदानों पर ही पा रही हैं। अब तो उनकी देखा-देखी आस-पास के गैर मुस्लिम परिवार के बच्चे भी उनके पास ट्रेनिंग के लिए आ रहे हैं। मोकामा बिहार की अपराधी छवि का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है और है। एक दम घोर सामंती समाज में कुछ मिल्खा भाग रही हैं लगातार अपनी मंजिल के लिए लेकिन इन मिल्खों को न तो कोई आर्मी मिली है और न ही लोकल मीडिया में कोई खबर ही। और अगर खबर आ भी जाती है तो उनकी मदद के लिए कोई हाथ नहीं उठता दिखता।
दरअसलबात यह भी है कि हमारे समाज में मिल्खा जैसों के लिए काफी इज्जत, सम्मान तो है लेकिन ये सब सिर्फ एक जीते हुए सफल मिल्खाओं के लिए है- हारे या कोशिश कर रहे मिल्खाओं के हिस्से गुमनामी, संसाधन की कमी का रोना ही बंधा है।
पटनामें एक लड़की है अनामिका- बैडमिंटन खिलाड़ी। मां पंचायत शिक्षक जो पांच हजार रुपये में अपना घर चलाती हैं। अनामिका भी कई बार बिहार की तरफ से खेल चुकी है लेकिन सच बात यह है कि उसके पास न तो सही ट्रैक सूट है और न ही ढंग का रैकेट। कई बार पैसे के अभाव में टूर्नामेंट में भाग नहीं ले पाती। तो दूसरी ओर उस शास्त्री नगर गर्ल्स हाईस्कूल की लड़कियां भी हैं जो बिना घास के मैदान पर खेलती हैं और राष्ट्रीय मुकाबलों में टर्फ मैदान होने की वजह से हार जाती हैं।
कमोबेशयही हाल फुटबॉल का भी है। जहां जिलों-कस्बों के मिल्खाओं के पास ढंग के जूते नहीं होते कि वो राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में शामिल हो पाएं।
सरकारी आयोजन रस्म आदयगी भर
बिहारमें एक साल के खेल पत्रकारिता के दौरान देखा कि ज्यादातर सरकारी आयोजन मसलन, प्रमंडल गेम्स, स्टेट गेम्स के नाम पर सिर्फ और सिर्फ पैसे का बंदरबांट होता रहता है। किसी-किसी खेल में तो सभी जिलों से टीमें भी नहीं आ पाती। अगर कोई भूले-भटके आ भी जाता है तो उसे किसी तरह खेल-खिला कर वापिस कर दिया जाता है। ज्यादातर संघों में राज्य स्तरीय टीमों के लिए नाती-पोते-दोस्त-रिश्तेदार जैसे पैरवी ही काम आते हैं। बिहार सरकार ने भागलपुर में एक एकलव्य केन्द्र खोली है- खिलाड़ियों के प्रशिक्षण के लिए। लगभग एक साल तक इसमें ट्रेनिंग दे रहे प्रशिक्षकों को वेतन तक नहीं दिया जा सका था।
असुरक्षा की भावना में कैसे दौड़े मिल्खा
कुछदिन पहले एक राष्ट्रीय स्तर की महिला खिलाड़ी को ट्रेन से धक्का दे दिया गया था। उसकी टांगे कट गई। आज सच्चाई यह है कि वो कहां है, किस हाल में है किसी को कुछ पता नहीं। ऐसे ही मेरे पटना में खेल रिपोर्टिंग के दौरान रोजाना ऐसे लोगों से सामाना होता रहा जिन्होंने अपना सबकुछ दांव पर लगा सिर्फ खेल को खेला। खेल में भागते इन मिल्खाओं में कई चाय की दुकान या फिर साईकिल पंक्चर बनाने की दुकान पर काम करते भी दिखे।
एकतरफ ओलंपिक से लेकर एशियाड तक भारत को पदक न मिलने का रोना आम जनता भी रोती है और मीडिया-सरकारें भी। लेकिन सच्चाई है कि हम अपने मिल्खाओं को अभी तक यह दिलासा दिलाने में सफल न हो पाएं हैं कि- तू सिर्फ भाग मिल्खा..भाग ..बांकि तेरी सारी परेशानियों को हम देख लेंगे..हमारी सराकारें देख लेंगी। शायद इसलिए भी जब फिल्म भाग मिल्खा भाग में खुद भारत के प्रधानमंत्री मिल्खा को प्यार से समझाते और दिलासा देते नजर आते हैं तो मन को अच्छा लगता है- काश, वर्तमान सरकारें भी अपने पूर्व प्रधानमंत्री की परंपरा को निभाते और देश के तमाम मिल्खाओं से कहते- भाग मिल्खा भाग!
अविनाश युवा पत्रकार हैं. पत्रकारिता की पढ़ाई आईआईएमसी से.
अभी स्वतंत्र लेखन. इनसे संपर्क का पता- avinashk48@gmail.com है.