कृष्ण कुमार |
-कृष्ण कुमार
"...बनारस से जब फिल्म निकलती है तो उसकी पृष्ठभूमि में अलीगढ़ से जोया का जेएनयू आना है. जोया जेएनयू यूं ही नहीं आ गई है. इसकी भी एक पृष्ठभूमि है जो फिल्म में नहीं बल्कि यथार्थ में कहीं है. जेएनयू के पास अपना भरपूर इतिहास है जो समाज के गंभीर संघर्षों से नियमित रूप से जुड़ा रहा है. संभवतः स्क्रिप्ट राइटर ने पिछले दिनों दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ हुये व्यापक आंदोलन में जेएनयू का नाम भर सुन लिया हो. और निर्देशक मानो जेएनयू एक बार घूम भर आया हो (क्यूंकि आईसा वगैहरा छात्रसंगठनों के पोस्टर्स फिल्म में दिखाई देते हैं). जैसा फिल्म में जेएनयू को दर्शाया गया है उससे तो यही लगता है. सो बहुत ही सतही दृष्टि के साथ जेएनयू फिल्म में है..."
खालिस देशीपन, गवईंपन , अल्हड़पन महज... विशेषण नहीं बल्कि पहचान है उस अद्भुत शहर की जिसका नाम बनारस है . बनारस के बारे में कहा जाता है आदमी की जेब में 10रूपए न हो पर आदमी का कॉन्फिडेंस 10करोड़ से कम नहीं होता. अब बात राँझना की ...कुंदन शंकर (धनुष ) इस बनारस के 10करोड़ के आदमी पूरी तरह परदे पर दिखता है. जोया हैदर (सोनम कपूर) से खफा होकर उसे गंगा में स्कूटर समेत लेकर ले कूदता है वहीँ उसका नाम पूछने के लिए 16चपेट खाने का माद्दा रखता है. और आत्मबलभी इतना मजबूत कि किसी के ब्लाउज के बटन में उतनी ताकत नहीं उसकी पतलून ढीली कर दे. फिल्म का यह संवाद पड़ते हुए असहज लग सकता है, फिल्म में वस्तुतः यह एक चरित्र को बताता है, जो समाज में मौजूद है. इस संवाद की प्रेरणा संभवतः सामाजिक प्रशिक्षण की गुड़ी-मुड़ी कई परतों के भीतर होती हो लेकिन इसका एक सहज पुट नायिका के इंतज़ार की शिद्दत में भी है. जो उसे अन्दर ही अन्दर ख़ुशी देता है .
बचपन वाला प्यार-
बचपनवाला प्यार, उसमें कोई भारी चाह नहीं होती बस एक ही चाह होती है, उसे एक बार देख भर लेने की... कुंदन कुछ वैसा ही चाहता है, बचपन में उसे पहली बार देखना और मंदिर में आकर भोलेनाथ के सामने डमरू को इस तरह बजाना कि बस अब और कुछ नहीं चाहिए महादेव! जो चाहा वो मिल गया.
हिन्दुस्तानके अस्पतालों के ढेरों अनुभव हैं, प्यार में बौराकर अपनी हाथ की नस काट लाये मरीजों के.... यह कितना जायज है इस पर बहस के क्या माने. हर किसी का अपना सच है. जैसा कुंदन है वो ये कर ही सकता है. बचपन में शिव बने कुंदन को सफ़ेद लिबास में नमाज करती हुयी जोया भा जाती है उसके पीछे पागलों की तरह फिरता कुंदन उसका नाम जानने के लिए 16थप्पड़ खाता है. और प्यार के इजहार और रेस्पोंस जानने के लिए हाथ की नस काट डालता है. सरेराह की इस घटना की परिणति में जोया को अलीगढ़ भेज दिया जाता है. और प्यार की इस जटिल कहानी को 8 साल का ब्रेक लग जाता है.. यहाँ तक भरपूर कसावट की फिल्म की कसावट को भी साथ ही ब्रेक लगता है.
इंतज़ार और बेकार-
कुंदन, जोया के लिए आठ साल तक इंतज़ार करता है. वो वापस आती है पर कुंदन को नहीं पहचानती (यह कैसे संभव है?). अब तक इतनी मजबूती से फिल्माई गई फिल्म आगे अचानक भरभराने लगती है. और यह भरभराना अंत तक नहीं संभलता. लगता है कहानीकार से खुद की कहानी नहीं संभाली. जब तक बनारस था तो निभा लेकिन जब फिल्म दिल्ली जेएनयू पहुँचती है तो इतनी हलकी हो जाती है कि भान पड़ता है कि ना ही स्क्रिप्ट राईटर ने जेएनयू देखा है न ही निर्देशक ने. वरना जेएनयू प्रेसिडेंट केंडिडेट से नक़ल करवाने का ख़याल शायद ही उपजा होता और तल्ख़ अंदाज में नायिका की बांह मरोड़ना इतनी मामूली घटना की तरह नहीं दर्शा दिया जाता. इसी कम समझ की परिणति शायद वह दृश्य भी था जिसमें कुंदन जेएनयू के एक होस्टल में जोया से मिलने एक पाईप पर चढा है. इतने में कुछ “जेएनयू बुद्धिजीवी” उसे घेर लेते है और पूछते हैं – अरे..ये पाइप पर क्यों चढ़ रहे हो?
कुंदन कहता है – चोरी करने के लिए.
बुद्धिजीवी – चोरी क्यों कर रहे हो?
कुंदन- क्योंकि मैं गरीब हूँ.
उसके बाद उसे नीचे उतारकर एक लम्बी बहस शुरू होती है जो सुबह तक चलती है. कुंदन गरीब है इसलिए चोरी कर रहा है, इस बात पर चर्चा रात में शुरू होती और अलसुबह इस बात पर ख़तम होती है की कुंदन गरीब है इसलिए चोरी कर रहा है.... संभवतः यह दृश्य सार्थक हो पाता यदि छद्म बौद्धिकता पर मार करता. मगर यह चिंतनशीलता पर ही व्यंग्य करता एक फूहड़ दृश्य जान पड़ता है.
बनारससे जब फिल्म निकलती है तो उसकी पृष्ठभूमि में अलीगढ़ से जोया का जेएनयू आना है. जोया जेएनयू यूं ही नहीं आ गई है. इसकी भी एक पृष्ठभूमि है जो फिल्म में नहीं बल्कि यथार्थ में कहीं है. जेएनयू के पास अपना भरपूर इतिहास है जो समाज के गंभीर संघर्षों से नियमित रूप से जुड़ा रहा है. संभवतः स्क्रिप्ट राइटर ने पिछले दिनों दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ हुये व्यापक आंदोलन में जेएनयू का नाम भर सुन लिया हो. और निर्देशक मानो जेएनयू एक बार घूम भर आया हो (क्यूंकि आईसा वगैहरा छात्रसंगठनों के पोस्टर्स फिल्म में दिखाई देते हैं). जैसा फिल्म में जेएनयू को दर्शाया गया है उससे तो यही लगता है. सो बहुत ही सतही दृष्टि के साथ जेएनयू फिल्म में है.
फिल्म की एक और बुनियाद है. जोया जेएनयू में जसजीत (प्रेसिडेंट जेएनयूएसयू) से प्रेम कर बैठती है. जसजीत सिख है. मुस्लिम से उसकी शादी कैसे हो? जोया उसे ‘अकरम’ बना अपने घर ले चलती है (यूं तो यह भी हास्यास्पद है कि अकरम चला भी जाता है). दीवाना कुंदन उसे मदद करता है अकरम से शादी करवाने में. लेकिन शादी के दिन कुंदन को पता चलता है अकरम तो जसजीत है. यह उससे नहीं सहा जाता. वह बिफर पड़ता है और वहां हंगामा खड़ा कर देता है. जोया के परिवार वालों से जसजीत को बुरी तरह पीटना पड़ता है. कुंदन उसका दोस्त और जसजीत की बहन, जसजीत को अस्पताल लाते हैं. यहाँ होश में आकार जसजीत, कुंदन को जेएनयू की बाकी बची कहानी सुनाता है. फिर पंजाब से आकार जसजीत का परिवार उसे ले जाता है.
यहजसजीत, अभय देवल हैं. अभय देवल की संभवतः इससे कमजोर एक्टिंग आपने न देखी हो. फिल्म में उनकी उपस्थिति यूं भी कम है लेकिन उनकी उपस्थिति का एक भी दृश्य मजबूत/आकर्षक नहीं बन पड़ा है. साफ़ समझ आता है कि अभय से निर्देशक काम ढंग से न ले पाए. जबकि स्कोप बहुत था.
कुंदनजोया को भगाकर पंजाब ले आता है. जसजीत से मिलाने. पर यहाँ जसजीत की मौत हो चुकी है. अब फिल्म कुछ यूं भागती है कि मानो सिर पर गेंद रखे कोई खिलाड़ी आधे रस्ते में ही गेंद का बैलेंस खो चुका हो और तेजी से भागकर गेंद के गिरने से पहले सीमा रेखा को पार कर लेना चाहता हो.
फिल्म फिर वापस दिल्ली लौटती है. जसजीत के बाद जेएनयू में जोया उसकी पार्टी ‘एआईसीपी’ का नेतृत्व संभाल रही है. दिल्ली इलेक्शन की जोरशोर से तैयारी है. कुंदन भी जेएनयू पहुँचता है. वहां चाय की दुकान में काम करने लगता है. धीरे-धीरे ‘एआईसीपी’ के लोगों से उसकी करीबी बढ़ती है. बड़े ही नाटकीय अंदाज में वह उनका लीडर बन जाता है. जोया का उसे लेकर गुस्सा बढ़ता जाता है और वह उसे सत्तारूढ़ सीएम से हाथ मिला मरवा देती है.
अतिनाटकीयताफिल्म में लगातार बरकरार है. शुरुवाती जगहों में यह निभा ली गई है लेकिन बाद के हिस्से में इसे संभालना न ही स्क्रिप्ट राइटर के बस में रहा है न ही निर्देशक के.
फिल्ममें एक संवाद है “ये बनारस है ....साला प्यार में लड़का यहाँ फेल हो गया तो फिर पास कहाँ होगा” लेकिन क्लाइमेक्स आते–आते प्यार में बनारस का लौंडा भी फेल ही हो जाता है...
तकनीकी झोल -
फिल्ममें काशी हिन्दू विवि. का सेट उदय प्रताप कॉलेज में लगाया गया है. शॉट में उदय प्रताप कॉलेज का नाम दिखाने में सीन अजीबोगरीब हो गया है... हुआ कुछ ऐसा की काशी विश्वविद्यालय का बैनर दिखाने के साथ ही यूपी कॉलेज का बैनर भी दिखा दिया है.
दूसरासीन तब का जब जोया के माँ बाप को कुंदन से उनके प्यार के बारे में पता चलता है और वे उसे वाराणसी स्टेशन छोड़ने आते हैं. ट्रेन चलती तो वाराणसी से है पर प्लेटफोर्म के आखिरी में “काशी” स्टेशन होता है . हकीकत में फिल्म की शूटिंग काशी स्टेशन पर हुयी है ...
जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी में अकरम / जसजीत (अभय देओल) का रोल बेहद सतही तौर पर दिखाया गया है. फिल्म का पहला हाफ जितनी खूबसूरती के साथ दिखाया गया है जसजीत (JNUpresident)का रोल उतनी जल्दी समेटकर दिखाने की कोशिश की गयी है. उसका एजेंडा क्या है, वह किस विचारधारा से सम्बन्ध रखता है. सब तुरत-फुरत में दिखाया गया है. और कमजोर भी.
मजबूत हिस्सा-
फिल्ममें बनारस को बेहद संजीदगी के साथ दिखाया गया है. निर्देशक आनंद एल राय ने लोकेशन पर खूब कसरत की है. काशी की पहचान अस्सी घाट, दुर्गाकुंड, रामनगर किला, खुद रामनगर और गंगा के अन्य घाट बेहद ख़ूबसूरती के साथ दिखाए गये हैं. बीच-बीच में काशी के उत्सव भी इसमें नजर आते हैं. वह चाहे रामलीला के लिए चंदा जुटाने का सीन हो या यहाँ की अलमस्त कपड़ाफाड़ होली... राय साहब तनु वेड्स मनु में कानपुर और लखनऊ दिखा चुके हैं. इस बार बारी बनारस और दिल्ली की थी. बनारस तो खूब दिखाया लेकिन दिल्ली (जेएनयू) चूक गए..
बावजूदइस सब के यह सोनम कपूर की अब तक की सबसे बेहतर फिल्म कही जा सकती है, वहीँ धनुष पूर्वांचल छोरे के गेटअप में जीवंत लगे हैं. चाहे उनका १६ साल वाला अवतार रहा हो या उसके ८ साल बाद वाला रूप. धनुष फिल्म में कहीं भी यह नहीं लगा की वो बनारसी नहीं हैं. लेकिन कई जगह साउथ इन्डियन वाला अंदाज भी हिलोरे मारता ही है. जिसके जस्टिफिकेशन के लिए उन्हें मूल साउथ का ही दर्शाया गया है.
अंत में-
गजबहै कि पहले हफ्ते में यह फिल्म 20.88 करोड कमा चुकी है. अपने समग्र रूप में सिनेमा शिल्प में कमजोर यह फिल्म बिजनेस के मामले में एक सफल फिल्म है लेकिन असल में इससे बड़ी असफलता बॉलिवुडी सिनेमा के लिए कुछ नहीं है.
----------------
कृष्ण युवा पत्रकार हैं. अभी बनारस में एक दैनिक अखबार में काम.
इनसे संपर्क का पता है- krishan.iimc@gmail.com