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सौ साला सिनेमा और बांबे टाकीज

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उमाशंकर सिंह
-उमाशंकर सिंह

"...क्या चारों निर्देशकों का चयन निर्माता ने फिल्म निर्देशकों, फिल्म लेखकों या फिल्म के अन्य विभाग से जुड़े पंजीकृत लोगों या फिर दर्शकों के बीच सर्वे कर किया था? या फिर चुनाव का आधार व्यक्तिगत पसंद या निर्देशकों की उपलब्धता थी अगर दूसरा विकल्प सही है तो फिल्म निर्माता का व्यक्तिगत रूप से भारतीय सिनेमा को ट्रिब्यूट है ना कि फिल्म इंडस्ट्री का।..." 


तीनमई 2013 को भारतीय सिनेमा ने अपने शानदार सौ साल पूरे कर लिए। इस दरम्यान सिनेमा ने हमारे समाज में राजनीति, शिक्षा जैसे बदलाव के दूसरे बड़े माध्यमों-कारकों से ज्यादा अहम योगदान दिया। हालांकि सिनेमा देखना बहुत अच्छा काम नहीं माना जाता था और इसके लिए पिटाई से लेकर पॉकेट मनी में कटौती तक आम सजा थी। इसलिए हममें से अधिकंशों ने यह काम शुरूआत में चोरी छिपे घर-स्कूल से भाग कर किए। उन दिनों हम जब स्कूल फीस की रकम सिनेमा हॉलों के काउंटर पर न्योछावर कर दिया करते थे, तब हमें मालूम नहीं था कि असल में एक स्कूल की फीस हम दूसरे स्कूल में ही दे रहे हैं।

इसतरह हमारे समाज के बड़े हिस्से ने वर्जनाओं को तोड़ने की शुरूआत सिनेमा से ही की। हम सब ने सिनेमा से ही बालों-कपड़ों को पहनने का ढब सीखा था और बोलने का सलीका या स्टाइल भी। पर इस स्कूल ने सबसे ज्यादा प्रेम के ढाई आखर का पाठ पढ़ाया था। हिंदुस्तानी समाज में यदि प्रेम आज कुछ हद तक स्वीकार्य है तो इसके लिए हमें सिनेमा का ऋणी होना चाहिए। यह सिनेमा ही था जिसने हमें किस्से-कहानी में हंसते-हंसते यह सिखा दिया था कि अमीर आदमी बुरा होता है और खुद्दार गरीब ज्यादा बेहतर। यह भी कि अमीर बनने के लिए स्मगलिंग या ऐसे ही दबे-छुपे दूसरे बड़े काम करने पड़ते हैं। बहरहाल सिनेमा की सीखों को छोड़ते हुए हम आते हैं इसकी सौवीं सालगिरह पर। इतिहास का यह ऐसा मौका है जिसमें हर कोई व्यक्ति, संस्था या प्रोडक्शन हाउस इसे अपने तई सेलीब्रेट कर सकता है और भारतीय सिनेमा को आदरांजलि दे सकता है। इस तरह देखें तो नेटवर्क 18 और आशी दुआ की ‘बांबे टाकीज’ अच्छा प्रयास लग सकता है लेकिन दिक्कत वहां शुरू हो जाती है जब फिल्म का प्रचार-प्रसार हमारे दौर के चार ‘प्रतिनिधि’ फिल्मकारों की चार शॉट फिल्म के संकलन के रूप में इसे हिंदी फिल्म उद्योग की आधिकारिक ट्रिब्यूट की तरह किया जाए।   

बांबेटाकीज के चारों निर्देशक करण जौहर, जोया अख्तर, दिवाकर बनर्जी और अनुराग कश्यप हमारे वक्त के महत्वपूर्ण फिल्मकार हैं और चारों अपनी-अपनी खास शैली के लिए भी जाने जाते हैं लेकिन चारों ना तो हमारे दौर के प्रतिनिधि फिल्मकार हैं ना ही वर्तमान में जिसे बॉलिवुड कहते हैं उसके स्तंभ। इसमें कोई एतराज की बात नहीं है कोई इन्हें महान मानें या न मानें। लेकिन जब कोई इन्हें या किसी और को हमारे प्रतिनिधि फिल्मकार के रूप में हम पर और जमाने पर इसे थोपे तो यह निश्चित रूप से एतराजजनक है। /क्या चारों निर्देशकों का चयन निर्माता ने फिल्म निर्देशकों, फिल्म लेखकों या फिल्म के अन्य विभाग से जुड़े पंजीकृत लोगों या फिर दर्शकों के बीच सर्वे कर किया था? या फिर चुनाव का आधार व्यक्तिगत पसंद या निर्देशकों की उपलब्धता थी अगर दूसरा विकल्प सही है तो फिल्म निर्माता का व्यक्तिगत रूप से भारतीय सिनेमा को ट्रिब्यूट है ना कि फिल्म इंडस्ट्री का। 

अगरबांबे टाकीज की चारों लघु फिल्मों को देखें तो यह फिल्म कंटेट और फार्म दोनों स्तर पर भारतीय सिनेमा के मिजाज, प्रभाव, उपलब्धियों और मैकनिज्म-मैनिरिज्म को बता पाने में बुरी तरह विफल रहती है। ना ही कोई यह नया प्रयोग है। इस तरह के प्रयोग हिंदी सिनेमा में पिछले एक दशक से हो रहे हैं। बांबे टाकीज की पहली लघु फिल्म करण जौहर की ‘अजीब दास्तां है ये’ उपषीर्षक वाली है जो पुरूष समलैंगिकता पर आधारित है। करण जौहर की तमाम फिल्मों में समलैंगिकता होती है। लेकिन वह पुरूषों की समलैंगिकता ही होती है स्त्रियों की नहीं। पुरूष-स्त्री सभी को अपने निज पसंद और रूझान के हिसाब से जीने की आजादी होनी चाहिए। लेकिन पुरूषों की समलैंगिकता बहुधा भोग के विस्तार के रूप में सामने आती है। चाइल्ड एब्यूज भी इसीका घिनौना विस्तार है। वहीं स्त्री-समलैंगिकता जेंडर हेजिमनी के खिलाफ प्रतिरोध की इबारत लिखती है। दीपा मेहता की ‘फायर’ कलात्मक उत्कर्ष के साथ इसे दिखाती है। यह अनायास नहीं है कि समलैंगिकता पर बनी दीपा मेहता के ‘फायर’ का तो भारतीय समाज विरोध करता है लेकिन करण जौहर की समलैंगिकता पर बनी फिल्मों से उसका कोई विरोध नहीं है। पुरूष-स्त्री समलैंगिकों के अपनी मर्जी से जीवन जीने के अधिकार के पक्ष में खड़े होने के बावजूद हमें यह सोचना चाहिए कि हम जिस समाज में रह रहे हैं उसमें प्रेमी जोड़ों को भी बचा नहीं पा रहे हैं। ऐसे में कुछ फिल्मकारों के पुरूष समलैंगिकता पर अतिरिक्त जोर के मायने समझ सकते हैं। जोया की लघु फिल्म करण की फिल्म का प्रीक्वेल लगती है लेकिन वह आती तीसरे नंबर पर है। फिल्मों से जुड़ा हर कोई व्यक्ति जानता है कि स्टारडम ने भारतीय सिनेमा का कुछ भला नहीं किया है।  नायकों के स्टार बन जाने ने फिल्म को निर्देषक का माध्यम नहीं रहने दिया है। अनुराग की फिल्म अमिताभ के स्टारडम और लोगों में उनके क्रेज की कहानी है। यह अस्वाभाविक तो लगती ही है काफी लंबी खिंची हुई भी लगती है। इसमें अमिताभ बच्चन के क्रेज को बयां करने वाला गाना तो अमिताभ बच्चन का ऐसा महिमामंडन है कि खुद वे भी झेंप जाएं। यह गाना अपने बोल ‘भरे पड़े है ंतमाम हीरो, रिष्ते में तो यह सबका बाप है’ तक पहुंचते-पहुचंते अष्लील हो जाती है। फिल्म के इस खंड का गाना दिवाकर बनर्जी की लघु फिल्म बांबे टाकीज की उपलब्धि कही जा सकती है। इसमें एक निम्नमघ्यवर्गीय अभिनेता अपनी बीमार बच्ची को फिल्मों के किस्से सुनाकर उसका मनोरंजन करता है। पर उसके किस्से बासी हो गए हैं और अब उसकी बेटी को उसमें स्वाद नहीं आता। ऐसे में उसके जीवन के साथ एक वाकया होता है जो अभिनय के द्वंद्व और अभिनेता के संघर्ष को उजागर करता हुआ हमारे सिनेमा को आत्मीय, विनम्र और सच्ची आदरांजलि देता है। इस फिल्म के अंत में अपनी बच्ची को वह आज का किस्सा सुनाकर ऐसी ही खुषी दे रहा है जो सिनेमा हमें सौ सालों से दे रही है।

(यह आलेख फारवर्ड प्रेस पत्रिका के ताज़ा अंक में भी प्रकाशित है) 

उमाशंकर पत्रकार भी हैं और कहानीकार भी। 
 आज-कल फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिख रहे हैं।
इनसे uma.change@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।

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