"...गोविन्दघाट पहुँचने पर जब हमने इन सिख तीर्थ यात्रियों से बात करनी शुरू की तो हमें घेर कर ये कहने लगे कि आप पहले सरकारी लोग हैं,जो यहाँ पहुंचे हैं. हमने उन्हें बताया कि हम सरकारी लोग नहीं,आम जनता का हिस्सा हैं. इन सिख तीर्थ यात्रियों की मुसीबत यह है कि ये अपने वाहनों समेत गोविन्दघाट में फंसे हुए हैं. इनमें से बहुतों की आजीविका का आधार इनके वाहन ही हैं, इसलिए वाहनों को लावारिस छोड़ कर,अपने घरों को लौटने के लिए ये तैयार नहीं हैं..."
उत्तराखंड इस समय भीषण विभीषिका की चपेट में है. विगत तीन दिनों से,जब से भारी बारिश शुरू हुई हम लगातार जोशीमठ में आपदा की जानकारी लेने,सुझाव देने और नागरिकों की ओर से मदद करने तक,स्थानीय प्रशासन से निरन्तर संपर्क बनाए हुए थे.लेकिन प्रशासन की तरफ से आपदा के संदर्भ में जितनी आधी-अधूरी,कच्ची-पक्की जानकारी मिल रही थी,उससे हम संतुष्ट नहीं हो पा रहे थे.
इसलिए कल 19जून 2013 को भाकपा(माले) के गढ़वाल कमेटी के सदस्य कामरेड अतुल सती,मैं और आइसा के साथी महादीप पंवार नजदीक से हालात का जायजा लेने के निकल पड़े.जोशीमठ से गोविन्दघाट बमुश्किल बीस-पचीस किलोमीटर है.लेकिन दस-पन्द्रह किलोमीटर मोटर साईकिल से तय करने के बावजूद हमें गोविन्दघाट पहुँचने में हमें तकरीबन दो घंटे लग गए.दो जगहों पर सड़क का बड़ा हिस्सा बह चुका है और तीखी ढाल पर ऊपर चढ कर ही दूसरी तरफ पहुंचा जा सकता है.पहाड़ के निवासी होने के चलते हमारे लिए तो यह अपेक्षाकृत कम मुश्किल था,लेकिन सेना और आई.टी.बी.पी. के जवानों द्वारा लोगों को चढ़ने-उतरने में मदद किये जाने के बावजूद, बाहरी यात्रियों के लिए,तीखी पहाड़ी ढाल की ऊपर तक चढ कर नीचे उतरना बेहद कष्टकारी और डरावना अनुभव है.
गोविन्दघाट का मंजर बेहद भयानक था.जिस जगह कभी बाजार हुआ करता था,वहाँ तक अलकनंदा नदी अपने तट का विस्तार कर चुकी है और गोविन्दघाट के मुख्य बाज़ार की यह जगह बड़े-छोटे बोल्डरों से अटी पडी थी.गुरूद्वारे के सभी कक्षों में लगभग चार-पांच फीट ऊँचे रेत की टीले बने हुए हैं.इसके पीछे की दुकाने और खोखे भी रेत से भरे हुए हैं.अब रेत में दबे हुए सामान को दुकानदार निकाल रहे हैं.गुरूद्वारे के परिसर में मौजूद पुलिस चौकी में भी रेत ही रेत है.गुरूद्वारे के कुछ कक्षों में पेड़ों के तने भी घुसे हुए हैं.गुरद्वारे और मुख्य बाजार से बद्रीनाथ मार्ग तक पहुँचने वाली सड़क आधी से ज्यादा गायब हो चुकी है.सपरिवार बद्रीनाथ यात्रा पर निकले और बीते तीन-चार दिनों से गोविन्दघाट में फंसे हुए डी.बी.एस.(पी.जी)कॉलेज,देहरादून में जिओलौजी के असिस्टंट प्रोफ़ेसर,डा.प्रदीप भट्ट तबाही की रात का सिहरा देने वाला वाकया सुनाते हैं.वे बताते हैं कि रात में दो-तीन बजे के आसपास नदी में तेज गड़गाहट सुन वे अपने होटल से पत्नी,बुजुर्ग सास और दो बच्चों को गोद में लेकर ऊपर की तरफ भागे.ऊपर सड़क में पहुँचने के बाद उन्हें ख़याल आया कि उनकी कार तो नीचे पार्किंग में खड़ी है.वे बताते हैं कि जैसे ही वे कार लेकर,ऊपर सड़क में पहुंचे,उनके पीछे की सड़क बह गयी.यानी कुछ पलों की देर होती तो वे भी नदी में समा गए होते.
यहाँ पर होटलों और पार्किंग के साथ सैकड़ों मोटर साईकिल और कारें भी अलकनंदा नदी की प्रचंड लहरों में समा गयी.कारों के बहने के बेहद भयावह अनुभव यहाँ मौजूद लोग सुना रहे हैं.लोग बताते हैं कि जब एक कार बहने लगी तो उसका ड्राइवर(जो संभवत उसका मालिक भी रहा होगा)पीछे-पीछे नदी की उफनती लहरों में,यह कहते हुए कूद गया कि जब दस लाख की गाडी नहीं रही तो मैं जीवित रह कर क्या करूँगा.दो बच्चे,जिनके माँ-बाप हेमकुंड की यात्रा पर गए हैं,उन्हें ड्राइवर ने कार में सुलाया हुआ था,वे भी कार समेत नदी में समा गए.कतिपय कारों में सोये हुए ड्राईवरों के बह जाने की बात भी लोग कहते हैं.
राहत और बचाव कार्य जोर-शोर से चलाने के दावे समाचार माध्यमों से किये जा रहे हैं.जोशीमठ में बचाव कार्यों में लगे हैलीकाप्टरों की गडगडाहट सुबह 6 बजे से शाम 6 बजे तक सुनाई दे रही है. दूरस्थ इलाकों में फंसे लोगों को जोशीमठ लाने का काम ये हैलीकाप्टर कर रहे हैं. लेकिन 6-6 सीट वाले दो हैलीकाप्टर दिन में कई चक्कर लगाने पर भी,चौदह हज़ार के करीब फंसे हुए लोगों में से,कितने फंसे हुए लोगों को निकाल पायेंगे,यह समझा जा सकता है. इसलिए गोविन्दघाट में फंसे सिख तीर्थ यात्री बेहद आक्रोशित हैं कि ना तो उन्हें निकालने का कोई बंदोबस्त हो रहा है और ना ही उन तक किसी तरह की कोई राहत ही पहुँच रही है.
गोविन्दघाट पहुँचने पर जब हमने इन सिख तीर्थ यात्रियों से बात करनी शुरू की तो हमें घेर कर ये कहने लगे कि आप पहले सरकारी लोग हैं,जो यहाँ पहुंचे हैं. हमने उन्हें बताया कि हम सरकारी लोग नहीं,आम जनता का हिस्सा हैं. इन सिख तीर्थ यात्रियों की मुसीबत यह है कि ये अपने वाहनों समेत गोविन्दघाट में फंसे हुए हैं. इनमें से बहुतों की आजीविका का आधार इनके वाहन ही हैं, इसलिए वाहनों को लावारिस छोड़ कर,अपने घरों को लौटने के लिए ये तैयार नहीं हैं. इन सिख तीर्थ यात्रियों ने बताया कि दो दिन से इन्हें कुछ खाने को नहीं मिला. दो दिन के बाद कल इन्होने खुद ही गुरुद्वारे के मलबे में दबे हुए अनाज और अन्य खाद्य सामग्री को निकाला,उसे धोया और फिर उसी को पका कर लंगर में सभी को खिला रहे हैं. कोई मदद ना मिल पाने के लिए ये सिख तीर्थ यात्री उत्तराखंड सरकार से तो खफा हैं ही,पंजाब सरकार और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा भी कोई सुध ना लिए जाने को लेकर भी ये बेहद क्षुब्ध हैं.
सिख तीर्थ यात्रियों में इस बात को लेकर भी बेहद आक्रोश था कि संकट की घडी में भी कुछ लोग लूट मचाने से बाज नहीं आ रहे हैं. मोहाली,चंडीगढ़ के मंजीत सिंह,चरणजीत सिंह और पटियाला के लखबीर सिंह बेहद गुस्साए स्वर में बताते हैं कि बीते दो दिनों में यहाँ एक साबुन की टिकिया चालीस रुपये में बिकी,सौ रुपये में चावल की प्लेट और सौ ही रुपये में दस रुपये में मिलने वाला मैगी का पैकेट बिका.वे तो यह भी आरोप लगाते हैं कि गुरूद्वारे का दान पात्र तोड़ कर रुपये चुराए गए और खडी गाड़ियों के शीशे तोड़ कर भी सामान चुरा लिया गया.एक तरफ खड़ी चढाई पार कर नीचे उतरने वालों को कुछ लोग शरबत पिलाने और खाना खिलाने के लिए खड़े हैं और दूसरी ओर इस संकट की घडी में लूट करने का अवसर भी कुछ लोग नहीं चूकना चाहते.आपदा को अवसर मानने और उस दौरान तिजोरियां भरने की यह दुष्प्रवृत्ति सत्ता के शीर्ष से नीचे तक पहुँच चुकी है.फर्क इतना है कि जब सत्ता ऐसी लूट को अंजाम देती है तो इसे भ्रष्टाचार कहा जाता है और आम आदमी करे तो यह अमानवीयता कहलाती है.
गोविन्दघाट से नदी के पार घंघरिया,हेमकुंड साहिब जाने वाला पुल बह चुका है.अलकनंदा नदी के पार लगभग दो सौ तीर्थ यात्री फंसे हुए हैं,जिनके पास खाने को कुछ नहीं है.कल शाम तक उन्हें नहीं निकाला जा सका था.आई.टी.बी.पी. के जवान रस्सी डाल कर इन्हें निकालने की कोशिश कर रहे थे.लेकिन नदी की उफनती लहरों के बीच यह संभव प्रतीत नहीं हो रहा था.गोविन्दघाट में साफ़-सफाई के अभाव में जिस तरह गन्दगी के ढेर,दुर्गन्ध और मक्खियों का साम्राज्य नजर आ रहा है,अगर जल्द ही इन हालातों को ठीक ना किया गया तो वहाँ लोग बीमारियों की चपेट में आ जायेंगे.
जोशीमठ में विभिन्न विद्यालयों और नगरपालिका के विश्राम गृह को अस्थायी राहत कैम्पों में तब्दील किया गया है,जहां आपदा प्रभावित तीर्थ यात्रियों और ग्रामीणों को ठहराया गया है.हेमकुंड साहिब जाने के रास्ते में पड़ने वाले भ्यूंडार गाँव के लोग नगरपालिका परिषद जोशीमठ के विश्रामगृह में हैं.इस गांव की बुजुर्ग महिलायें बताती हैं कि आपदा में उनका सब कुछ तबाह हो गया.उनके मकान,खेत,गौशालाएं सब टूट गयी हैं.किसी का दो मंजिला मकान टूटा,किसी का एक मंजिला.इन बुजुर्ग महिलाओं को इस बात का बेहद अफ़सोस है कि वे अपनी जान बचा कर तो जोशीमठ चले आये पर उनके पालतू पशु गांव में ही छूट गए.वे कहती हैं कि उन्होंने अपने पालतू पशुओं को खुला छोड़ दिया है ताकि वे घास चरने और संकट के समय प्राण बचाने के लिए कहीं भी जा सकें.कुछ लोग जिनके पशु हाल ही में गाभिन हुए हैं और दुधारू हैं,वे अभी भी गांव में ही रुके हुए हैं.
तीर्थ यात्रियों और स्थानीय ग्रामीणों के अलावा कुछ और लोग हैं,जो आपदा की चपेट में आने की आशंका हैं.ये स्थानीय लोग हैं,जो हर बार गर्मियों के मौसम में ऊंचे बुग्यालों में कीड़ा जड़ी की तलाश में जाते हैं.कीड़ा जड़ी(cordyceps sinesis)जिसे कुछ क्षेत्रों में यारसा गम्बू भी कहा जाता है,ऊँचे बुग्यालों(Alpine meadows) में बर्फ पिघलने पर मिलने वाला, कीड़े जैसा दिखने वाला फंगस है,जो औषधि निर्माण में काम आता है.अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इसकी कीमत 5-6 लाख रूपया प्रति किलो है.सरकारी व्यवस्था यह है कि इसके दोहन की इजाजत वन पंचायतें देंगी तथा दोहन करने वाला व्यक्ति इसे वन पंचायत को देगा.वन पंचायती इसे बेचेंगी,पांच प्रतिशत रॉयल्टी स्वयं के लिए रख कर बाकी संग्रहकर्ताओं में संग्रहण के अनुपात में वितरित कर दिया जाएगा.उक्त बातों का अनुपालन सुनिश्चित करवाना जिलों के जिलाधिकारी और प्रभागी वनाधिकारियों(डी.एफ.ओ.) की जिम्मेदारी है.लेकिन यह व्यवस्था जमीन पर कहीं नजर नहीं आती.हर बार हज़ारों लोग बुग्यालों में कीड़ा जड़ी की तलाश में जाते हैं और फिर अवैध रूप से तस्करों को लाखों रुपये में बेच दिया जाता है,जबकि इसकी सरकारी दर पचास हज़ार रुपये प्रति किलो है.इस बार की भारी बारिश में कीड़ा जड़ी के दोहन के लिए ऊँचे बुग्यालों में गए लोगों की चिंता बचाव एवं राहत अभियान चलाने वालों के एजेंडे में नहीं है.जोशीमठ की उर्गम घाटी में कीड़ा जड़ी निकालने गए दस लोगों के भारी बारिश की चपेट में आकर जान से हाथ धो बैठने और कई लोगों के लापता होने की खबर है.
इस भयावह विनाशलीला के बाद कई सवाल हैं,जिनका जवाब राहत की बंदरबांट के बीच से कैसे मिलेगा,समझ नहीं आता.गोविन्दघाट में सौ से अधिक वाहनों के साथ फंसे लोगों को कैसे निकाला जाएगा?पुलिस उद्घोषणा कर रही है कि सड़क बनने में कम से कम पन्द्रह दिन लग जायेंगे,इसलिए लोग अपनी कार इत्यादि को वहीँ छोड़ कर अपने घरों को लौट जाएँ.अपनी गाड़ियों की सुरक्षा को लेकर आशंकित सिख यात्री गाडियां छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हैं.सवाल यह भी है कि जो सैकड़ों छोटे बड़े वाहन बह गए हैं,उनका मुआवजा कौन देगा और कैसे देगा? भ्यूंडार गांव के ग्रामीणों का कहना है कि गांव में सब तबाह होने के बाद वे वहाँ कैसे रहेंगे,लेकिन साथ ही वे इस उहापोह में भी हैं कि जोशीमठ में वे कितने दिन तक रहेंगे.सब कुछ तबाह हो जाने के बाद उनके बच्चों की पढाई-लिखाई का क्या होगा ये सवाल भी उन्हें साल रहा है.
इस विभीषिका के बीच सेना,अर्द्धसैनिक बलों के प्रयास की तारीफ़ लोग करेंगे,वे प्रयास कर भी रहे हैं.लेकिन तीखे पहाड़ी ढाल पर,जहां अपने शरीर का भार संभालना भी मुश्किल है,वहाँ यात्रियों के भारी बैगों,सूटकेसों आदि को पीठ पर लादे हुए नेपाली मजदूर,इस राहत-बचाव अभियान के ऐसे खामोश सिपाही हैं,जिनके श्रम को ना कहीं दर्ज किया जाएगा,ना कोई प्रशंसा वे पायेंगे.लेकिन इनके द्वारा दुष्कर चढाई पर यदि यात्रियों का बोझा ना ढोया जाए तो यात्रियों की बहुतायत के लिए आपदा प्रभावित क्षेत्रों से निकालना लगभग मुमकिन हो जाए.
यह प्राकृतिक आपदा थी,लेकिन इस आपदा की विभीषिका को बढाने में मनुष्य की प्रकृति से छेडछाड की बड़ी भूमिका थी.हमारी सरकारों द्वारा छल-कपट,प्रलोभन और दमन के दम पर लागू किया जा रहा विकास का आक्रमणकारी मॉडल,जो मुनाफे के अलावा सब कुछ ध्वस्त कर देना चाहता है,उसने प्रकृति के कहर की तीव्रता को कई गुणा बढ़ा दिया.जोशीमठ से ऊपर की ओर जलविद्युत परियोजना निर्माण के लिए किये गए विस्फोटों,सुरंग निर्माण,मलबा नदी में डालना और परियोजनाओं के बैराजों से छोड़े गए पानी और बैराजों के टूटने ने आपदा को और अधिक मारक बना दिया.प्रकृति के कहर का शिकार हुए भ्यूंडार गांव के ग्रामीण बताते हैं कि लगभग पन्द्रह दिन पहले ही वे लक्ष्मणगंगा पर बन रही जलविद्युत परियोजना की निर्माता- सुपर हाइड्रो कंपनी के पास यह शिकायत लेकर गए थे कि कंपनी द्वारा किये जा रहे विस्फोटों से उनके मकान हिल रहे हैं.सीमा तक सड़क पहुँचाने के लिए उत्तरदायी सीमा सड़क संगठन(बी.आर.ओ.) ने भी विभीषिका को बढाने का इंतजाम पहले ही किया हुआ था.सड़क चौड़ा करने के लिए डाइनामाइट से किये गए विस्फोटों और सडक की खुदाई में निकलने वाले मलबे को नदी में बहाने जैसे बी.आर.ओ. के कारनामों ने कभी तो कहर बरपाना ही था,इस बरसात में एक बार फिर वह कहर दिखा.इसके अलावा अनियंत्रित,अनियोजित तरीके से होता शहरीकरण भी प्रकृति की विनाशलीला को बढाने वाला सिद्ध होता है. गोविन्दघाट में जो मुख्य बाज़ार,होटल,पार्किंग आदि बहे,वे लगभग नदी में घुस कर बनाए गए .गोविन्दघाट का गुरुद्वारा जो आज रेत और पेड़ों के तनों से पटा हुआ है,वह भी एकदम अलकनंदा से सट कर बना हुआ है.नदी के किनारे इस पांच मंजिला इमारत को बनने की इजाजत देने वाले प्रशासन के सुधिजनों को नहीं समझ आया होगा कि नदी में पानी का स्तर बढते ही यह एक आसान शिकार होगा?नदी से एकदम लगी हुई वे पार्किंग,जिनमें कार पार्किंग का 600 रूपया तक लिया जाता था,आज बह गयी हैं.यह धनराशि वाहनों की सुरक्षा के लिए ही ली जाती होगी.असुरक्षित जगह पर वाहनों की सुरक्षा के नाम पर खूब चांदी काटने वाले पार्किंग स्वामी क्या गाड़ियों के बहने की जिम्मेदारी लेंगे,या फिर वे पुलिस या प्रशासन के लोग जिम्मेदारी लेंगे,जिनकी जेबें इन पर्किंगों की कमाई के हिस्से से भरती थी?
इन्द्रेश भाकपा (माले) के सक्रिय कार्यकर्ता हैं.
इनसे इंटरनेट पर indresh.aisa@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.