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मीडिया नियंत्रण बनाम नियमन की उलटबांसियां

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भूपेन सिंह
-भूपेन सिंह
मीडिया के नियमन के लिए अधिकार संपन्न वैधानिक नियामक का होना ज़रूरी है. इसमें मीडिया मालिकों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए.  
-पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमेटी ऑन इनफॉर्मेशन टैक्नोलजी[i]
नियमन के लिए बनने वाली संस्था से अगर मीडिया को बाहर राखा जाएगा तो पत्रकार उसका विरोध करेंगे
-राजदीप सरदेसाई, प्रधान संपादक और मालिक, सीएनएन-आइबीएन, आइबीएन 7, आइबीएन लोकमत[ii]
स्वनियमन के लिए बनी मीडिया संगठनों की कमेटी को ही वैधानिक अधिकार मिलें
-उदय शंकर, सीईओ, स्टार इंडिया[iii]

रकार पेड न्यूज़ जैसे अपराध से निपटने में पूरी तरह नाकाम रही है, इस बात को अब सूचना तकनीक पर बनी संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने भी मान लिया है. इस कमेटी ने प्रेस परिषद की भूमिका को भी बेमतलब बताया है और सुझाव दिया है कि अब मीडिया नियमन के लिए एक वैधानिक अधिकारों वाली संस्था बनानी ज़रूरी हो गई है जिसमें प्रिंट के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नियमन का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. कमेटी ने इसके लिए एक नई मीडिया काउंसिल बनाने का सुझाव दिया है और किन्हीं वजहों से ऐसा न हो पाने की स्थिति में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए अलग-अलग वैधानिक अधिकार प्राप्त कमेटी बनाने पर ज़ोर दिया है. महत्वपूर्ण बात यह है कि कमेटी ने नियमन के लिए प्रस्तावित किसी भी तरह की संस्था से मीडिया मालिकों को पूरी तरह बाहर रखने को कहा है. कमेटी ने साथ में यह भी जोड़ा है कि पेड न्यूज़ सिर्फ़ चुनावों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसका इस्तेमाल उत्पादों की बिक्री, व्यक्तियों और संस्थाओं को फ़ायदा पहुंचाने के लिए भी हो रहा है.

संसदकी स्टैंडिंग कमेटी भारतीय मीडिया की दशा पर पिछले तीन साल से काम कर रही है. इसका गठन सन दो हज़ार दस में कांग्रेसी सांसद राव इंद्रजीत सिंह की अध्यक्षता में किया गया था जिसमें अलग-अलग पार्टियों के कुल इकतीस सांसद शामिल हैं. कमेटी ने 6 मई को संसद में रिपोर्ट पेश करते हुए कहा कि अब तक नियमन/स्वनियमन के सारे प्रयोग पूरी तरह असफल रहे हैं. उसने माना है कि भारतीय प्रेस परिषद, एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया, न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन और ब्रॉडकास्ट न्यूज़ एडिटर्स जैसी संस्थाएं पेड न्यूज़ को रोकने में पूरी तरह नाकाम साबित हुई हैं. इसलिए अब किसी अधिकारसंपन्न मीडिया नियामक की ज़रूरत से ज़्यादा दिनों तक नहीं बचा जा सकता. वैसे भी अगर  देखा जाए तो उपरोक्त चारों संस्थाएं संरचनात्मक तौर पर मालिकों के ही पक्ष में झुकी हुई हैं. इसलिए इनका असफल होना स्वाभाविक ही है.

स्टैंडिंगकमेटी की इस रिपोर्ट को निजी मीडिया घराने और उनके समर्थक सिरे से ख़ारिज कर रहे हैं, वे दोहरा रहे हैं कि स्व नियमन ही सबसे बेहतर तरीक़ा है और उनकी तरफ़ से बनायी गई स्वनियमन की  संस्थाएं इसको बख़ूबी अंजाम दे रही हैं. स्टैंडिंग कमेटी की सिफ़ारिशों को वे मीडिया की स्वतंत्रता के लिए ख़तरा बता रहे हैं. उन्होंने  एक बार फिर नियमन के विचार को मीडिया नियंत्रण की तरह प्रचारित करना शुरू कर दिया है. मीडिया मालिकों के आगे हमेशा से समर्पण की मुद्रा में खड़ी सरकार भी संसद की स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट को ज़्यादा तवज्जो देने के इरादे में नहीं लग रही हैं. रिपोर्ट के संसद में पेश होने के बाद सूचना और प्रसारण मंत्रालय के सचिव उदय कुमार वर्मा ने कमेटी की इस बात को  ग़लत बताया है कि उनका मंत्रालय मीडिया नियमन के लिए कुछ नहीं कर रहा है. उन्होंने सफ़ाई दी कि पेड न्यूज़ के ख़िलाफ़ तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में एक मंत्रीमंडलीय समूह बनाया गया था लेकिन मुखर्जी के राष्ट्रपति बन जाने के बाद वो समूह काम नहीं कर पाया. जल्द ही नए अध्यक्ष का गठन होने पर यह फिर से काम करना शुरू कर देगा. वर्मा यह भी कहते हैं कि मीडिया के नियमन का मामला काफ़ी जटिल है और स्वनियमन और वैधानिक नियमन को लेकर काफ़ी बहस है, सरकार पर मीडिया को नियंत्रित करने का आरोप लगाया जाता है, इसलिए सभी पक्षों को ध्यान में रखकर ही मंत्रालय कोई फ़ैसला लेगा[iv]. वर्मा के इस बयान से पता चलता है कि स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट को सरकार ज़्यादा गंभीरता से लेने के इरादे में नहीं है.

स्टैंडिंगकमेटी ने पेड न्यूज़ को रोकने के लिए चुनावी नियमों में भी  सुधार और चुनाव आयोग को और ज़्यादा अधिकार देने की बात कही है. कमेटी ने नियमन के लिए ब्रिटेन की लेवसन रिपोर्ट से भी सबक लेने पर ज़ोर दिया है. इसके अलावा इस रिपोर्ट में मीडिया कंपनियों से उनकी वार्षिक आय को सार्वजनिक किए जाने और  पत्रकारों की काम करने की स्थितियों में सुधार किये जाने की भी वकालत की गई है. इन बातों से लगता है कि कमेटी ने चलताऊ रवैया अपनाने के बजाय भारतीय मीडिया की वर्तमान हालत को गंभीरता से समझने की कोशिश की है. इसलिए उसने सिर्फ़ पेड न्यूज़ का ही मुद्दा नही उठाया बल्कि मीडिया नियमन के लिए समग्रता में कुछ करने के रास्ते सुझाए हैं.  कमेटी ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अलावा टेलीकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (ट्राइ) से भी कहा है कि वह मीडिया के मालिकाने को नियमित करने के लिए भी कानून बनाए. इस वजह से कमेटी की रिपोर्ट से सबसे ज़्यादा नाराज़ मीडिया मालिक ही लगते हैं क्योंकि रिपोर्ट इस बात पर चर्चा करती है कि किस तरह मीडिया का मालिकाना उसकी विषयवस्तु को प्रभावित करता है और उसमें अनैतिक कामों को बढ़ावा देता है. यही वजह है कि रिपोर्ट में इस बाबत कानून बनाने के लिए कहा गया है कि कोई पूंजीपति अपने बाक़ी धंधों को चमकाने के लिए मीडिया में पैसा लगाकर उसका इस्तेमाल अपने हित में न कर सके. क्रॉस मीडिया ऑनरशिप की बात पर भी कमेटी ने चिंता दर्शाई है.

ऐसानहीं है कि मीडिया के मालिकाने के नियमन की बात पहली बार उठी हो. इससे पहले भी यूपीए-दो की सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ट्राइ[v]और हैदराबाद के एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ़ कॉलेज ऑफ़ इंडिया[vi]से मीडिया के मालिकाने पर रिपोर्ट तैयार करवा चुका है लेकिन मीडिया मालिकों के दबाव में  उन रिपोर्ट को लागू करने का मामला अधर में लटका हुआ है. संसदीय स्टैंडिंग कमेटी को भी इन दोनों रिपोर्ट की पूरी जानकारी है. वैसे यह मामला  सिर्फ़ हाल फिलहाल का ही नहीं है. पचास के दशक में पहले और अस्सी के दशक में दूसरे प्रेस आयोग ने भी मीडिया स्वामित्व के कुछ ही बड़े पूंजीपति घरानों के  हाथों में केंद्रित हो जाने पर चिंता जताई थी लेकिन नब्बे के बाद मुक्त बाज़ार के चलते मीडिया का जो असीम विकास हुआ है उसने मीडिया मालिकाने की अराजकता को चरम पर पहुंचा दिया है. तमाम रिपोर्ट/अध्ययनों के बाद सरकार इस बात को अच्छी तरह जानती है कि मीडिया के संकेद्रण का ख़तरा कितना गहरा है. उसके पास भारत में मीडिया संकेंद्रण की विभिन्न प्रवृत्तियों के बारे में भी पूरी जानकारी है. वह जानती है कि भारत में मीडिया सकेंद्रित होकर मीडिया एकाधिकार जैसे हालात पैदा  होने जा रहे हैं.

बेनबैगडिकियान जैसे अमेरिकी मीडिया स्कॉलर मीडिया मोनोपॉली के ख़तरों के बारे में काफ़ी पहले से ही आगाह करते रहे हैं[vii].बैगडिकियान मीडिया में एकाधिकार की तरफ़ ले जाने वाले ख़तरे को दो तरह से समझाते हैं. वे मीडिया मालिकाने में उर्ध्वाधर केंद्रीकरण (हॉरीजॉन्टल इंटीग्रेशन) और लंबवत संकेद्रण (वर्टीकल इंटीग्रेशन) की प्रवृत्तियों की चर्चा करते हैं. अगर एक ही मीडिया कंपनी का सभी तरह के मीडिया यानी रेडियो, टीवी, इंटरनेट, सिनेमा आदि में स्वामित्व रखने की इजाज़त जारी रहेगी तो इससे देश के मीडिया के एक ही मालिक के कब्ज़े में आने का ख़तरा बढ़ जाएगा या वह बाक़ी मीडिया समूहों को किनारे लगाकर सबसे बड़ा और प्रभावी मीडिया समूह बन जाएगा (टाइम्स ग्रुप को इस्का एक उदाहरण कहा जा सकता है). इस तरह बहुत सारे माध्यमों को एक ही मालिक या कंपनी के तहत केंद्रित हो जाने को उर्ध्वाधर केंद्रीकरण (हॉरीजॉन्टल इंटीग्रेशन) कहते हैं. इसके अलावा अगर मीडिया कंपनी का उसके वितरण और प्रसारण करने के साधनों पर भी मालिकाना  होता है तो इसे लंबवत संकेद्रण (वर्टीकल इंटीग्रेशन) कहते हैं. ऐसी स्थिति में भी मीडिया कंपनी का मीडिया पर एकाधिकार का ख़तरा बढ़ता जाता है और ये अनैतिक तरीकों को बढ़ाया देता है. उदाहण के लिए ज़ी ग्रुप के चैनलों में हॉरीजॉन्टल और वर्टीकल दोनों तरह का संकेद्रण देखा जा सकता है. एक तरह ज़ी समूह समाचार, मनोरंजन, फिल्म, इंटरनेट, अख़बार जैसे कई माध्यमों में सक्रिय है तो वहीं उसके पास अपने चैनलों को सीधे दर्शकों तक पहुंचाने के लिए डिश टीवी सरीखी डायरेक्ट टू होम सुविधा भी है. इन हालात को देखकर स्टैंडिंग कमेटी की सिफ़ारिशें कई हद तक वक़्त की ज़रूरत लगती हैं. मीडिया संकेंद्रण विचारों की विविधता और लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है क्योंकि मीडिया मालिक अपने हितों के मुताबिक़ मीडिया का इस्तेमाल कर जनमत तैयार करते रहते हैं.

संसदीय कमेटी की रिपोर्ट के सामने आने के बाद पत्रकार से एक बड़ी मीडिया कंपनी के मालिक बन चुके राजदीप सरदेसाई एक बार फिर मालिकों के हितों को बचाने के लिए वही पुराना मालिकों का राग अलाप रहे हैं कि अगर नियमन में मीडिया (मालिकों) को शामिल नहीं किया गया तो पत्रकार उसका विरोध करेंगे. मीडिया मालिक हमेशा पत्रकारों की आड़ लेकर ही मीडिया नियमन का विरोध करते हैं. राजनीतिक वर्ग में रौब डालने में कामयाब हो जाते हैं कि यह मीडिया (पत्रकारों) के हितों के खिलाफ़ है जबकि मीडिया नियमन के अगर कदम उठाए जाते हैं तो उसका सबसे ज़्यादा सकारात्मक असर आम पत्रकारों की स्थिति में पड़ेगा. सही नियमन लागू होने की स्थिति में उन पर मालिकों और प्रबंधन का दबाव कम होगा. काम करने की स्थितियों में सुधार होगा और श्रम का उपयुक्त पैसा और काम की सुरक्षा  रहेगी. लेकिन बड़ी कंपनियों के मालिक के भेस में पत्रकार का चोगा पहनने वाले राजदीप सरदेसाई जैसे लोग और उनके पिछलग्गू पत्रकार यह नहीं चाहते  कि आम पत्रकारों की हालत में कोई सुधार आए और उनके मुनाफ़े पर कोई कमी आए. ठीक यही बात, कभी पत्रकार रहे और अब भारत में स्टार इंडिया (दुनिया के भ्रष्टतम मीडिया मालिक रुपर्ड मुर्डोक की कंपनी) के सर्वेसर्वा बन चुके उदय शंकर के बयानों में भी देखी जा सकती है. वे तो सारी हदें पार पर एक बेशर्म बयान देते हैं कि अगर नियमन के लिए वैधानिक संस्था बनानी ही है तो सरकार मालिकों की तरफ से बनाई  गए न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी (एनबीएसए) जैसी संस्थाओं को ही वैधानिक संस्था की मान्यता दे दे. यह तर्क ठीक इसी तरह है जैसे कोई कहे कि देश में अपराध को अंजाम देने वाले लोग ख़ुद को सुधारने के लिए एक कमेटी बना लें और उसे संवैधानिक मान्यता देने की मांग करने लगें. 

इसबात को नेताओं से बेहतर कौन  समझ सकता है कि चुनावों के वक़्त मीडिया का इस्तेमाल किस-किस तरह  किया जा सकता है इसलिए स्टैंडिंग कमेटी ने सुझाव दिया है कि ख़ास तौर पर पेड न्यूज़ रोकने को लेकर उसने जो सुझाव दिए हैं उन्हें दो हज़ार चौदह में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले पूरा कर लिया जाना चाहिए. यह एक आम तथ्य है कि जब भी किसी राज्य में विधान सभा के चुनाव  होते हैं और देश में आम चुनाव होने होते हैं तो अचानक कई नए अख़बार और टीवी चैनल कुकुरमुत्ते की तरह  उग आते हैं. इन अख़बारों/चैनलों को चलाने वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं कि चुनावों में मीडिया खड़ा करना सबसे फ़ायदे का सौदा है. चुनाव के दौरान नेताओं के अवैध धन का प्रवाह उनकी तरफ़ बड़ी तेज़ी से आता है. ऐसी हालत में कुछ मीडिया संगठन अपने लिए कुछ और वक़्त पर बाज़ार में टिके रहने लायक स्थिति पैदा कर लेते हैं और कुछ वक़्त के साथ दम तोड़ देते हैं. ऐसा नहीं कि सरकारें चुनाव के दौरान खुलने वाले ऐसे मीडिया कंपनियों के धंधों से अनजान रहती हैं वे जानबूझकर उन्हें फलने-फूलने का मौक़ा देती है और जहां तक संभव  हो उन्हें अपने अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश करती हैं. चिट-फंड, ठेकेदार, बिल्डर्स और कई छोटे-बड़े धंधों में जुटे लोग ज़्यादातर इसी दौरान अपने अख़बार और चैनल शुरू करते हैं. इस तरह भारतीय मीडिया के मालिकाने के कई रंग देखने को मिलते हैं जिसका दायरा बड़े-बड़े पूंजीपतियों से लेकर राजनीतिक पार्टियों/नेताओं और छोटे-मोटे धंधेबाज़ों तक फैला है. जब भी जन दबाव में मीडिया के नियमन की बात की जाती है तो ये सभी एकजुट होकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन और मीडिया पर सरकारी नियंत्रण का डर दिखाने लगते हैं.

अबअगर संसद की स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिशों पर गौर किया जाए तो एक लिहाज़ से लगता है कि कमेटी ने सिफ़ारिशें तो बड़ी अच्छी की है. जैसे सरकार या देश की संसद सचमुच में देश की जनता की फिक्र करती है और वह उनके पक्ष में कोई रास्ता निकालने की कोशिश कर रही है लेकिन अगर सत्ताधारी वर्ग की इस भल-मनसाहत पर आसानी से भरोसा कर लिया जाए तो यथास्थिति में कोई बदलाव की संभावना उतनी ही कठिन लगती है. हां, जन जागरूकता ज़रूर सरकारों और सांसदों को कुछ हद तक जनपक्षीय फ़ैसले लेने पर मज़बूर कर सकती है. इसके लिए सत्ताधारी वर्ग की आर्थिक-राजनीतिक नीतियों से लेकर उसके छद्मों को भी अच्छी तरह समझने की ज़रूरत है. आर्थिक उदारीकरण का मतलब  ही नियमन में ढील देना और बाज़ार के तर्कों के सामने समर्पण करना होता है. एक तरफ़ सरकार बाज़ार की अर्थव्यवस्था को लागू कर उसका  गुणगान करते नहीं थकती, ट्रेड यूनियन आंदोलनों को ख़त्म करती है, लोगों के अधिकारों को कुचलकर कॉरपोरेट के पक्ष में नीतियां बनाती है और जब सवाल उठने लगते हैं तो सबकुछ ठीक करने के लिए नियमन की वकालत करने लगती है. सत्ता के भीतर से ही असहमति की आवाज़ें सुनाई देने लगती हैं और असहमति से पैदा होने वाले प्रतिरोध को मैनेज करने की कोशिश की जाती है. वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि कांग्रेस की यूपीए सरकार पेड न्यूज़ केस में फंसे महाराष्ट्र के अपने चहेते पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट मे हलफ़नामा दे रही है कि चुनाव आयोग के पास पेड न्यूज़ छापने पर या चुनावी ख़र्च का ग़लत ब्यौरा दिखाने वाले की सदस्यता को रद्द करने का कोई हक़ नहीं है और वहीं दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के एक नेता की अगुवाई में बनी एक संसदीय कमेटी चुनाव आयोग को और ज़्यादा अधिकार देने और पेड न्यूज़ पर पाबंदी के लिए ठोस क़दम उठाने की वक़ालत करती है. भारतीय मीडिया नियमन की पूरी बहस सत्ता पक्ष की इन्हीं उलटबांसियों में फंसी हुई है.  


नोट्स:


[i] 6 मई 2013 को भारतीय संसद में पेश पार्लियामेंटरी कमेटी ऑन इन्फॉर्मेशन टैक्नोलॉजी की रिपोर्ट
[ii] अंग्रेजी अख़बार द मिंट की वेबसाइट में पार्लियामेंट पैनल कॉल्स फॉर मीडिया वॉचडॉग नाम से सोमवार, 6 मई 2013 को 11.40 मिनट पर अपलोडेड और 21 मई को रिट्रीव्ड. (http://www.livemint.com/Politics/zcygRgFikOFQv89l8T5hOL/Parliamentary-panel-calls-for-media-watchdog.html?facet=print)[iii]9 मई 2013 को गिव स्टचुअरी अथॉरिटी टू सेल्फ़ रेग्युलेटरी बॉडी:उदय शंकर नाम से ऐक्सचेंज फॉर मीडिया नाम की वेबसाइट में उद्धृत और 21 मई को रिट्रीव्ड. (http://www.exchange4media.com/50885_give-statutory-authority-to-self-regulatory-body-uday-shankar.html)
[iv]9 मई 2013 को इट्स इनकरेक्ट टु से एमआइबी इज नॉट डीलिंग विद पेड नेयूज़: उदय वर्मा नाम से ऐक्सचेंच फॉर मीडिया नाम की वेवसाइट में उद्धृत और 21 मई को रिट्रीव्ड. (http://www.exchange4media.com/50886_its-incorrect-to-say-mib-is-not-dealing-with-paid-news-uday-varma.html)
[v]कनसल्टेशन पेपर ऑन इश्यूज रिलेटिंग टु मीडिया ऑनरशिप नाम से जारी ट्राइ (2013) का पेपर (http://www.trai.
gov.in/ConsultationDescription.aspx? CONSULT _ID=675&qid=0).
[vi]स्टडी ऑफ़ क्रॉस मीडिया ऑनरशिप नाम से एडमिनिस्ट्रेटिव कॉलेज ऑफ़ इंडिया ने संसदीय स्टैंडिंग केमेटी के सामने 2 मई 2012 को अपनी रिपोर्ट पेश की थी.

[vii] बेन बैगडिकियान की किताब मीडिया मोनोपॉली विस्तार से एकाधिकार के ख़तरों के बारे में बताती है. पहली बार यह किताब 1983 में अमेरिका में बेकन प्रेस से प्रकाशिति हुई थी.
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भूपेन पत्रकार और विश्लेषक हैं। कई न्यूज चैनलों में काम। 
अभी आईआईएमसी में अध्यापन कर रहे हैं। 
इनसे bhupens@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।  


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