-अरविंद शेष
अरविंद शेष |
पिछले साल मई में सरकार ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया था कि 2008 से 2010 के बीच डायन के संदेह में पांच सौ अट्ठाईस महिलाओं की हत्या कर दी गई। इसमें मारपीट और यातना देने के मामले शामिल नहीं हैं।
- पिछले साल जुलाई में राष्ट्रीय महिला आयोग ने बताया था कि देश के अलग-अलग राज्यों में पचास से साठ जिले ऐसे हैं जहां डायन बता कर महिलाओं को अपमानित-प्रताड़ित करने, उन्हें निर्वस्त्र करके गांव में घुमाने या उनकी हत्या कर देने जैसी विकृतियां गहरे पैठी हुई हैं।
पिछले साल मई में सरकार ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया था कि 2008 से 2010 के बीच डायन के संदेह में पांच सौ अट्ठाईस महिलाओं की हत्या कर दी गई। इसमें मारपीट और यातना देने के मामले शामिल नहीं हैं।
- पिछले साल जुलाई में राष्ट्रीय महिला आयोग ने बताया था कि देश के अलग-अलग राज्यों में पचास से साठ जिले ऐसे हैं जहां डायन बता कर महिलाओं को अपमानित-प्रताड़ित करने, उन्हें निर्वस्त्र करके गांव में घुमाने या उनकी हत्या कर देने जैसी विकृतियां गहरे पैठी हुई हैं।
त्रासद अंधेरे की आग...
दो साल पहले गांव गया था तो एक दिन पड़ोस में रहने वाली एक तकरीबन सत्तर-बहत्तर साल की वृद्ध महिला घबराई हुई मेरे घर में घुसी और कमरे में रखी चौकी के नीचे बिल्कुल कोने में दुबक गई। इससे पहले उसने मेरे सामने हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाते हुए कहा था कि "बउआ रे बउआ, हम कुछो न कलियइ ह...!" (मैंने कुछ नहीं किया है। मुझे बचा लो।)
मैं कुछ समझ पाता, इससे पहले उस वृद्ध महिला के घर के सामने गली से जोर-जोर से गाली-गलौच की आवाज आने लगी। निकला तो देखा कि लाठियों से लैस दर्जनों लोग मां-बहन की वीभत्स गालियां बकते हुए वृद्धा को घर से निकालने की मांग कर रहे थे। उन सबका कहना था कि वे उस महिला का सिर मूंडेंगे, उसे पाखाना पिलाएंगे, तभी आगे की बात होगी।
वहीं जमी भीड़ में से एक व्यक्ति से मैंने पूछा कि क्या हुआ है तो उसने बताया कि चौक पर वीरेंद्र शर्मा की मिठाई की दुकान है। वहीं चूल्हे पर बड़ी-सी कढाई चढ़ी थी जिसमें तेल था। "भगवानपुर वाली" (वृद्ध महिला) ने हलवाई से कहा कि आज क्या बना रहे हो, कढ़ाई में तेल ज्यादा है। यह कह कर वह वहां से चली गई। इसके बाद कढ़ाई में फटाक-फटाक की आवाज के साथ तेल चारों तरफ उड़ने लगा। दो लोगों के हाथ और गाल पर पड़ गया, जिससे फफोले निकल आए। उसने यह भी बताया कि भगवानपुर वाली "डायन" है और वही कुछ जादू-टोना करके चली आई थी।
लोग बहुत ज्यादा तैश में थे। मैंने उन्हें शांत करने की कोशिश की, लेकिन उनमें से कुछ ने मुझे धमकाना शुरू किया। हार कर मैंने कहा कि ठीक है, मैं पुलिस को फोन करता हूं। इसके बाद अचानक लोग छंटने लगे। तब मैंने जोर से चिल्ला कर धमकी दी कि अगर इस बुजुर्ग महिला को कोई भी नुकसान हुआ तो सबको जेल भिजवा दूंगा। थोड़ी देर में सभी वहां से चले गए। उनमें से कुछ लोग मुझे गालियां भी दे रहे थे।
कितने त्रासद अंधेरे में मरने-सड़ने के लिए छोड़ दिया दिया गया है उन लोगों को जो इतना भी समझ सकने लायक नहीं हैं कि पानी से भीगे ठंडे बर्तन में तेल डाल कर चूल्हे पर चढ़ा देने और बर्तन के गर्म होने पर फटाक-फटाक की आवाज के साथ पानी उड़ेगा ही। उनकी बेअक्ली की सजा एक कमजोर बुजुर्ग महिला को भुगतनी पड़ेगी, जिसे "डायन" मान लिया गया है।
महज संयोग से उस दिन मेरी वजह से भगवानपुर वाली बच गई। लेकिन ऐसी खबरें आम हैं, जिसमें किसी महिला को डायन कह कर सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र कर समूचे गांव में घुमाया गया, जबर्दस्ती पाखाना खिलाया गया, या फिर उसकी हत्या कर दी गई।
मैं अपने में घर लौटा। वह वृद्ध महिला मेरे गले लग कर जोर से रो पड़ी और बार-बार यह कहने लगी कि "बउआ रे बहुआ..., हम कुछो न कलियइ ह...!" वह थर-थर कांप रही थी और मेरी आंखों से आंसू निकल पड़े। गुस्सा इतना ज्यादा था कि लग रहा था कि "डायन" का खयाल पैदा करने या उसे बनाए रखने के जिम्मेदार लोग मिल जाएं तो उन्हें जिंदा जला दूं।
हां, उन धर्माधीशों, पंडों, गुरुओं, महंथों, ओझाओं और तांत्रिकों को, जिन्होंने दिमागी अंधापन फैला कर मर्दवाद और ब्राह्मणवाद की अपनी दुकानदारी बनाए रखने के लिए एक मोहरा "डायन" को भी बनाया था। सदियों पहले अपने जो एजेंट उन्होंने समाज में छोड़े थे, वे आज भी बड़ी शिद्दत से उनके उस अपराध और कुकर्म की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। कोई यह दलील न दे कि "डायन" की धारणा एशिया-अफ्रीका से लेकर यूरोप तक के समाजों में भी पाई जाती है, फिर इसके लिए ब्राह्मणवाद पर सवाल क्यों? सभी समाजों के अपने-अपने ब्राह्मणवाद हैं और अपने मूल व्यवहार में वे वही हैं। बस सबकी शक्ल थोड़ी अलग-अलग होती है। जहां भी पारलौकिक हवाई घोड़े, भगवान या धर्म की व्यवस्था के जरिए समाज के मुट्ठी भर लोगों के शासन, मजे और ऐय्याशी के इंतजाम होंगे, वहां शासितों को काबू में रखने के लिए "डायन" जैसे तमाम अंधविश्वासों के इंतजाम भी होंगे।
अंधविश्वासों के जहरीले दलाल...
बहरहाल, उसी छल आधारित व्यवस्था के बहुत सारे नए और आधुनिक दल्लों में विशाल भारद्वाज और एकता कपूर भी हैं, जिन बेईमान पाखंडियों (संदर्भः विशाल भारद्वाज की "मकड़ी") को "एक थी डायन" फिल्म की दुकानदारी से पहले शायद एक बार भी यह खयाल नहीं आया होगा कि यह एक शब्द "डायन" किसके लिए और कितनी बड़ी त्रासदी रहा है।
हालांकि जब आप किसी को दुकानदार कहते हैं तो यह मान लेना पड़ता है कि मुनाफा कमाना उसका "धर्म" है। लेकिन क्या किसी दुकान से कोई सामान खरीदते हुए कोई व्यक्ति मुफ्त में अपने खाने के लिए जहर भी लेता है? अगर उसे पता हो तो वह कतई ऐसा नहीं करेगा।
तो "एक थी डायन" के जरिए विशाल भारद्वाज और एकता कपूर ने इसके अलावा और क्या किया है कि मनोरंजन के बहाने अंधविश्वासों के जहर के असर को थोड़ा और गहरा किया है। पहले से ही गैरजानकारी या अज्ञानता के अंधेरे में डूबते-उतराते दर्शक वर्ग की चेतना को थोड़ा और कुंद किया, जो आखिरकार यथास्थितिवाद को बनाए रखने का सबसे बड़ा हथियार है।
कोई यह दलील दे सकता है कि एकता कपूर या विशाल भारद्वाज ने कोई पहली बार इस तरह की फिल्म नहीं बनाई है। हो सकता है, यह सही हो। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में जब दुनिया के वैज्ञानिक ब्रह्मांड की गुत्थियों को खोलने के करीब पहुंच चुके हैं, बॉलीवुड ही नहीं, हॉलीवुड में भी धड़ल्ले से भूत-प्रेत या शैतान की कहानियों पर फिल्में बनाई जा रही हैं। मगर रामसे बंधुओं से लेकर आज तक की तमाम हॉरर फिल्मों का हवाला होने के बावजूद विशाल भारद्वाज और एकता कपूर की "एक थी डायन" भारतीय संदर्भों में ज्यादा आपराधिक है, बनिस्बत इसके कि वह कुछ "मनोरंजन" करती है। किसी शातिर चोट्टे ने "काला जादू और डायन" नाम की किताब लिखी और उसके सहारे चलते हुए किस्से में इन दोनों फिल्मकारों ने उन तमाम खामखयालियों की दुकानदारी की, जो "डायन" को लेकर एक अक्ल से हीन समाज में पाई जाती है। "डायन बारह बजे रात से अपनी तंत्र-साधना शुरू करती है; डायन के पांव उल्टे होते हैं; डायन अपने सबसे प्रिय बच्चे की बलि लेकर या उसे "खाकर" ही जिंदा रहती है...!!!" ये सारी बातें गांव से लेकर शहर-महानगर तक अनपढ़ या फिर पढ़े-लिखे चेतनाविहीन अक्ल के दुश्मनों की कल्पना में हर वक्त रहती हैं।
हाईटेक काहिली-जाहिली...
गांव में भगवानपुर वाली को "डायन" कह कर मारपीट पर उतारू वे लोग अनपढ़ और जाहिल थे। मगर इस मामले में शहरों-महानगरों के पढ़े-लिखों की क्या औकात है? कुछ साल पहले दुनिया के एक हाईटेक घोषित शहर गाजियाबाद की एक घटना चर्चा में आई थी। "ऊपरी असर" से परेशान तीन बेटों ने एक तांत्रिक का सहारा लिया, तांत्रिक ने "गहनतम" तंत्र-मंत्र साधना के बाद बेटों की अत्यंत वृद्धा मां को "डायन" घोषित किया और उसकी सलाह से बेटों ने मिल कर अपनी बेहद वृद्ध हो चुकी मां को चप्पलों से तब तक पीटा, जब तक उसकी मौत नहीं हो गई। बर्बरता और मूर्खता का सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। इन तीन बेटों में से एक डॉक्टर और एक इंजीनियर था। यानी विज्ञान की पढ़ाई-लिखाई भी उनकी अक्ल पर पड़े परदों को हटा नहीं सकी।
लेकिन इससे एकता कपूर या विशाल भारद्वाज को क्या फर्क पड़ता है। बल्कि यों कहें कि जिस त्रासदी के कायम रहने से ही एकता कपूरों और विशाल भारद्वाजों की दुकानदारी चमकती है, बल्कि इससे उनके सामाजिक सत्ताधारी वर्ग की सत्ता की कुर्सी के पाए और मजबूत होते हैं, उससे उन्हें क्या फर्क पड़ेगा। अब तो लगता है कि "एक थी डायन" जैसी तमाम फिल्में बनाने वाली एकता कपूरों और विशाल भारद्वाजों का मुख्य मकसद जितना इन फिल्मों से पैसा कमाना होता है, उससे ज्यादा ये उन साजिशों को अमल में लाने का जरिया होते हैं, जिनसे इस समूचे समाज को काहिली-जाहिली के अंधेरे में डुबोए रखा जा सके। "मकड़ी" के जरिए "चुड़ैल" की कल्पना के झूठ को सामने रखने वाले "विशाल" पर पता नहीं क्यों उनका "भारद्वाज" चढ़ बैठा और वे "एक थी डायन" के झूठ को बतौर सच पेश करने में लग गए जो एक मर्दवादी और ब्राह्मणवादी सत्ता और उसके प्रभाव को स्थापित करने और विस्तार देने के लिए रचा गया था।
लाचार मायावी-रूहानी ताकतें...
इस फिल्म में पहली "डायन" का नाम "डायना" रखने से लेकर बच्चे की बलि, चोटी में जान जैसे वे सभी तुक्के आजमाए गए और "डायन" के कुछ "करिश्मे" भी दिखाए गए जो एक पिछड़ी हुई चेतना के आम अंधविश्वासी के भीतर पाई जाती है। दिक्कत यह है कि जब इस तरह के खिलवाड़ को "आधुनिक" ट्रीटमेंट दिया जाता है, तो वह चुपके-से अपनी वास्तविक क्षमता के मुकाबले हजार गुणा ज्यादा घातक असर करता है। "एक थी डायन" में महानगर में रहने वाले एक उच्चवर्गीय परिवार में अपनी "मादकता" के सहारे घुसने वाली वह "डायन" पता नहीं उससे पहले मुंबई के ताज होटल में रहती थी या अमेरिका के ह्वाइट हाउस में...! इससे पहले उसे फिल्म के बच्चा बोबो जैसा "हीरो" मिला था या नहीं, जो चुटिया काट कर उसे खाक कर देता है। वही चुटिया, जिससे वह आखिर में चमत्कारी फंदे का काम लेती है! लेकिन वह चमत्कारी फंदा और तमाम चमत्कारी रूहानी शक्तियां उसकी जान बचाने के काम कहां आती हैं? उसकी तो चुटिया बस एक बच्चा बोबो के हाथों साधारण से चाकू से काट दी जानी है, उस खौफनाक और सबको हवा में नचा-नचा कर मारने वाली "डायन" की सभी रूहानी ताकतों को लाचार मुंह ताकते रह जाना है। ठीक उसी तरह, जैसे शहर से गांव तक में किसी लाचार और निचली कही जाने वाली जाति की महिला को "डायन" कह कर बाल मुंड़ दिए जाते हैं, दांत तोड़ दिए जाते हैं, पाखाना घोल कर पिला दिया जाता है, निर्वस्त्र करके पीटते हुए समूचे गांव या बस्ती में घुमाया जाता है या कभी जिंदा जला दिया जाता है, लेकिन "डायन" की "शैतानी" और "मायावी" शक्तियां उसकी कोई मदद नहीं करतीं!
विज्ञान के दुश्मन...
सवाल है कि इस महान सांस्कृतिक अनुष्ठान को अंजाम देने या इसके प्रति श्रद्धाभाव से भरे अक्ल के हीन लोगों के माइंडसेट में परदे पर आधुनिक स्वरूपा "डायन" और उसकी वही पुरानी "करस्माएं" और कैसा जहर घोलेंगी? यह साधारण-सा सच है कि पोंगापंथी, दिमाग से बंद, कूपमंडूक अंधविश्वासी पुजेड़ी जब यह देखता है कि भारत केअंतरिक्ष प्रक्षेपण अनुसंधान संगठन यानी इसरो का मुखिया विज्ञान पर केंद्रित किसी कार्यक्रम में शिरकत करते हुए या किसी उच्च क्षमता के अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण से पहले घंटों किसी मंदिर में घंटा डोलाता है तो उसे कैसा लगेगा? एक औसत दिमाग का आदमी भी यह समझ सकता है कि इस तरह के उदाहरण एक अंधविश्वासी मन की कुंठाओं, हीनताओं और विकृतियों को "जस्टीफिकेशन" देते हैं। बल्कि मेरा दावा है कि इससे किसी भी पोंगापंथी व्यक्ति के भीतर मौजूद अंधविश्वासी पगलापन एक सबसे मजबूत खुराक पाएगा और वह किसी को भी अंगुली दिखा कर कह सकता है कि जब माधवन नायर या राधाकृष्णन जैसे इसरो अध्यक्ष और विज्ञान के पहरुए मंदिर में घंटा हिला कर अंतरिक्ष यानों का कामयाब प्रक्षेपण सुनिश्चित करते हैं तो हम तो सिर्फ "भगवान" की एक "सामान्य व्यवस्था" को ही निबाहते हैं, "डायन" को निर्वस्त्र करके घुमाते हैं, मैला पिलाते हैं या उसे उसकी "हैसियत" दिखाते हैं!
"एक थी डायन" जैसी फिल्में उसी इसरो अध्यक्षों जैसी भूमिका बनाते हैं, जिनमें विज्ञान और आधुनिक तकनीकी के जरिए उन तमाम खयाली घोड़ों और हवा-हवाई बातों को मूर्त देकर परदे पर पेश किया जाता है और पहले से ही चारों तरफ से अंधे विश्वासों में मरता-जीता उसका एक आम दर्शक "डायन" के झूठ को थोड़ा और साकार रूप देने लगता है। इसकी वजह भी वही "जस्टीफिकेशन" है जो विज्ञान और तकनीकी के जरिए उसके सामने साकार की गई, लेकिन जिसका कोई भी आधार नहीं है। और "डायन" अब तक सिर्फ उसकी धारणा थी। (आखिर एक अंधविश्वासी व्यक्ति भी विज्ञान की ताकत को तो समझता ही है।) उन धारणाओं में जो भी बातें शामिल थीं, एकता कपूर और विशाल भारद्वाज ने उन सबका शोषण किया और परदे पर बेचा। ऐसे व्यापारियों को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि "डायन" की समूची कल्पना किस कदर आज भी महिलाओं और खासतौर पर दलित-जनजातीय या निचली जाति की कितनी महिलाओं के लिए त्रासदी की वजह बन चुकी है, या बन रही है। सामाजिक सत्ताधारी वर्गों के मूल से उपजे इन व्यापारियों को इस बात की फिक्र आखिर हो भी क्यों? जो समस्या अपने या अपने वर्गों के सामने होती है, फिक्र उसी की की जाती है!
इस फिल्म की साजिश सबसे ज्यादा खुल कर तब सामने आती है जब इसमें एक पात्र के रूप में मौजूद मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक को पहले "डायन" को खारिज करते और फिर उसी "डायन" की मायावी ताकत के जरिए बुरी तरह मारे जाते दिखाया जाता है। यानी अंधविश्वासों के खिलाफ लड़ाई के लिए जो सबसे मजबूत तर्क मनोविज्ञान मुहैया कराता है, उसे हारता हुआ, अंधविश्वासों के सामने, उसके हाथों मुंह की खाता हुआ दिखाया जाए। कल्पना करिए कि एक औसत दिमाग और अपने घोर अंधविश्वासों-पूर्वाग्रहों के साथ सिनेमा हॉल में बैठा दर्शक किसी भी इस तरह की कहानी के इस पहलू से किस तरह प्रभावित होगा। यानी, लोग अंधविश्वासों के अंधेरे में डूबते-उतराते रहें, समाज की यथास्थिति बनी रहे, इसके लिए एकता कपूर या विशाल भारद्वाज जैसे धनपशुओं ने एक जड़ व्यवस्था के संचालकों-कर्णधारों की दलाली में निर्लज्जता की सारी सीमाएं तोड़ दीं।
"डायन" वही क्यों...
दरअसल, "एक थी डायन" में एकता कपूर और विशाल भारद्वाज का पूरा "लोकेशन" बिल्कुल साफ है। उनकी फिल्म का पुरुष जादूगर है, जो सिर्फ सबका मनोरंजन करता है, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता। दूसरी ओर, फिल्म में मुख्य रूप से तीन स्त्री पात्र हैं जिनमें दो साफ तौर पर "डायन" हैं, तीसरी "लगभग" "डायन" के रूप में दर्शकों के लिए खुला अंत छोड़ जाती है। फिल्म में "डायन" का स्वरूप वही है, जो गांव-शहर के अंधविश्वासी लोगों के दिमाग में पाया जाता है। यानी वह सिर्फ नुकसान पहुंचा सकती है। यानी जादूगर के रूप में पुरुष मनोरंजन करता है, तांत्रिक के रूप में वह ("डायन" के) "ऊपरी" हमलों से बचाता है। दिलचस्प है, जादू-टोना करने वाली स्त्री बच्चों को "खा" जाने वाली "डायन" हो जाती है और जादू-टोना अगर पुरुष करेगा तो वह तांत्रिक होगा। और तांत्रिक होना बचाने वाले की भूमिका है।
पितृसत्ता, पुरुषवाद और ब्राह्मणवाद के खेल बड़े निराले हैं। इस खेल में यह कोई नहीं पूछता कि इस साजिश का शिकार हमेशा और सौ फीसद स्त्री ही क्यों होती है? और किसी अजूबे अपवाद को दलील के तौर पर पेश न किया जाए तो "डायन" स्त्री हर बार दलित या निचली कही जाने वाली जाति की ही क्यों होती है?
तो...! एक व्यापक की त्रासदी को खत्म या कम करने की औकात विशाल भारद्वाज या एकता कपूर के पास नहीं है, तो उस दुख को मनोरंजन बना कर बेचना और इस तरह "डायन" की झूठी अवधारणा को आधुनिक तकनीकी के जरिए मूर्त बना कर पेश करने का उन्हें क्या हक है? क्या उन्हें यह मामूली बात समझ में नहीं आती कि समाज का माइंडसेट या मानस तैयार करने या उसे बनाए रखने में आज का सिनेमा कितनी अहम भूमिका में आ चुका है? अगर वे सब कुछ जानते-समझते हैं तो क्या वे ऐसा जान-बूझ कर रहे हैं?
व्यवस्था के शातिर और छिपे हुए अपराधियों ने कभी आम जन की मजबूरी और उनके अज्ञान का फायदा उठा कर "डायन" की कल्पना को सामाजिक धारणा के रूप में स्थापित किया होगा। तब किसी अकेली या संपत्ति की वारिस स्त्री पर अत्याचार ढाने या उसे लूट लेने के लिए उस काल्पनिक सामाजिक धारणा में कहानियां गूंथी गई होंगी और फिर जनमानस में उसका प्रचार किया गया होगा। आज के दौर में "एक थी डायन" जैसी तमाम व्यवस्थावादी फिल्में समाज में यही भूमिका निभा रही हैं।
राजनीति का परदा...
अब यह किसी से छिपा नहीं है कि पिछले कुछ सालों में समाज में सोचने या विश्लेषण करने की प्रक्रिया को बाधित करने, अंधविश्वास फैलाने, स्त्री की स्थिति को हीनतर बनाने, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण या आम लोगों के सांप्रदायीकरण के एजेंडे पर फिल्में बन रही हैं। और अगर इसमें कोई दक्षिणपंथी कट्टर धार्मिक समूह बड़े पैमाने पर पैसा लगा रहा हो तो हैरान होने की बात नहीं होगी। अंधविश्वासों को विस्तार देना या धार्मिक-सामाजिक और लैंगिक पूर्वाग्रहों-विद्रूपों को मजबूत करना यथास्थितिवाद की नियामक ताकतों की असली राजनीति है। और चूंकि एक सबसे ज्यादा असर डालने वाले "मनोरंजन" कला माध्यम के रूप में सिनेमा की आम जनता के बीच व्यापक पहुंच है, इसलिए अथाह पैसा लगा कर इसे नियंत्रित और अपने मुताबिक संचालित करने की कोशिशों की रफ्तार बहुत तेज है। शीतयुद्ध के दौरान और आज भी खासतौर पर अमेरिका ने दुनिया के मानस तैयार करने के लिए फिल्मों का कैसा इस्तेमाल किया है, यह किसी से छिपा नहीं है।
मुश्किल यह है कि अगर कोई व्यक्ति सिनेमा के सामाजिक पहलू या सिनेमा के सामाजिक असर की बात करता है तो व्यवस्थावादियों की ओर से एक झटके में उसे शुद्धतावादी घोषित कर दिया जाता है। दलील दी जाती है कि सिनेमा बदलते सामाजिक ढांचे और भावनाओं को दर्शाता है, और समाज में बदलाव से ही सिनेमा में बदलाव आते हैं। फिलहाल सिर्फ "एक थी डायन" का ही संदर्भ लें तो क्या सच केवल यह है कि समूचा समाज आज भी "डायन" की गिरफ्त में है और उसी की गिरफ्त में रहना चाहता है? क्या "डायन" प्रथा के खिलाफ कहीं भी कोई स्वर नहीं है? क्या अंधविश्वासों के बरक्स विज्ञान और तर्क इस समाज में बिल्कुल अनुपस्थित है? सिनेमा में समाज का यथार्थ परोसने के नाम परोसा गया विभ्रम ऐसे ही विद्रूप रचता है।
दरअसल, सिनेमा के समाज के हिसाब से चलने की बात इतनी चालाक दलील है कि इसके सहारे वे एक जड़ व्यवस्था को बनाए रखने में एक कला-माध्यम के इस्तेमाल करने के अपने तमाम कुकर्मों को ढकना चाहते हैं। क्या किसी समाज का अध्ययन और उसके निष्कर्ष उसे टुकड़ों में बांट कर देखने से सही-सही सामने आएगा? सेलेक्टिव तरीके से एक व्यापक जनसमुदाय के बीच जड़ता को बनाए रखने के इन अपराधियों की इस बेहद उथली साजिश को समझना इतना मुश्किल नहीं है, बस इनकी बोलियों के हर्स्व और दीर्घ मात्राओं पर ध्यान रखिए...!
मधुमाला देवी की अदालत में...
थोड़े समय पहले बिहार से एक खबर आई कि मधेपुरा जिले के एक गांव मिठाही की मुखिया ने यह घोषणा की कि समूचे पंचायत क्षेत्र में अगर किसी ने किसी महिला को "डायन" कहा तो उसे इक्कीस सौ रुपए जुर्माना देना होगा। गांव में रहने वाली, कम पढ़ी-लिखी, कम आधुनिक और कम पैसे वाली मधुमाला देवी संघर्ष के बाद पंचायत की मुखिया के एक छोटे-से पद पर किसी तरह पहुंचते ही इतना बड़ा क्रांतिकारी फैसला लेती है। लेकिन बहुत पढ़ी-लिखी, बेहद धनाढ्य, "अति आधुनिक" एकता कपूर और बौद्धिक परदाधारी विशाल भारद्वाज अक्ल से पैदल या शातिर पंडों-तांत्रिकों की साजिश के नतीजे में उपजी "डायन" के सिर पर एक हथौड़ा और मारते हैं। पद और हैसियत का इस्तेमाल मधुमाला देवी ने भी किया है और एकता कपूर और विशाल भारद्वाज ने भी। मगर मधुमाला देवी के बरक्स एकता कपूर और विशाल भारद्वाज को कैसे देखा जाए? क्या एकता कपूर और विशाल भारद्वाज को मधुमाला देवी की पंचायत-अदालत में खड़ा करके इक्कीस सौ रुपए जुर्माने के अलावा और सख्त सजा देने की जरूरत नहीं है? अगर "एक थी डायन" जैसी फिल्मों के जरिए समाज की मूर्खता और हजारों स्त्रियों की त्रासदी की दुकानदारी करने वाली एकता कपूरों और विशाल भारद्वाजों को जेल में बंद करने के लिए कोई कानून नहीं है तो भारत सरकार से मैं मांग करता हूं कि वह इस मसले पर सख्त से सख्त कानून बनाए और ऐसे तमाम एकता कपूरों और विशाल भारद्वाजों को गिरफ्तार करके जेल में सड़ने के लिए छोड़ दे, क्योंकि "एक थी डायन" के जरिए इन लोगों ने वैसे ठगों, बाबाओं और तांत्रिकों से अलग कोई काम नहीं किया है जो समाज को दिमागी तौर पर अंधा और चेतना से हीन बनाए रखने के अपराधी हैं...!
अरविंद शेष पत्रकार हैं. अभी जनसत्ता (दिल्ली) में नौकरी.
इनसे संपर्क का पता- arvindshesh@gmail.com
arvind.shesh@facebook.com