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विवेक पर मीडिया का प्रहार

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...टीवी के एंकर और वहां जुटाए गए कथित विशेषज्ञ इतनी जोर-जोर से चीन या पाकिस्तान की “शैतानियों” की चर्चा करते हैं कि उनके बीच यह कहना भी राष्ट्रद्रोह जैसा लगने लगता है कि दो देशों के बीच युद्ध हमेशा आखिरी विकल्प होता है। चर्चा इतने संकीर्ण दायरे में समेट दी गई है कि दूरदृष्टि भरी बातें और स्थितियों का समग्र आकलन कायरता का पर्याय दिखने लगते हैं।..."

देकी सरहद पर अगर कोई समस्या खड़ी हो, तो उसका समाधान निकालने का क्या तरीका होना चाहिए? मसलन, अगर पाकिस्तान से लगी नियंत्रण रेखा पर दोनों देशों की सेना के बीच गोलीबारी हो या पाकिस्तानी सेना जानबूझ कर या अनजाने में नियंत्रण रेखा पार करे, तो उस पर पहला जवाब क्या होना चाहिए? या चीन से लगी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर लद्दाख के दौलत बेग गोल्डी जैसी घटना हो, तो भारत सरकार को तुरंत क्या करना चाहिए? या सरबजीत सिंह जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना हो जाए तो क्या तात्कालिक प्रतिक्रिया होनी चाहिए? रणनीतिक एवं सामरिक विशेषज्ञों तथा कूटनीतिक दायरे में ये प्रश्न भले गंभीर विचार-विमर्श का विषय हों, लेकिन भारतीय मीडिया- खासकर टीवी चैनलों के मशूहर एंकरों के पास कोई दुविधा नहीं है। उनके पास हर समस्या का सीधा समाधान है- युद्ध। राष्ट्रवाद- बल्कि उग्र राष्ट्रवाद- की उनकी गलाफाड़ प्रतिस्पर्धा ने न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर चर्चा को ऐसे शोर में बदल दिया है, जिसके बीच विवेक या तर्क की बातों की गुंजाइश लगातार खत्म होती जा रही है।

नतीजाहै कि सरकार (आज वो कांग्रेस नेतृत्व वाली है, कल किसी भी पार्टी की हो सकती है) अगर संयम या समझदारी भरा रास्ता चुने, तो वह नपुसंक नजर आने लगती है। टीवी के एंकर और वहां जुटाए गए कथित विशेषज्ञ इतनी जोर-जोर से चीन या पाकिस्तान की “शैतानियों” की चर्चा करते हैं कि उनके बीच यह कहना भी राष्ट्रद्रोह जैसा लगने लगता है कि दो देशों के बीच युद्ध हमेशा आखिरी विकल्प होता है। चर्चा इतने संकीर्ण दायरे में समेट दी गई है कि दूरदृष्टि भरी बातें और स्थितियों का समग्र आकलन कायरता का पर्याय दिखने लगते हैं।

सवालयह है कि किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया की आखिर क्या भूमिका होनी चाहिए? क्या उससे यह अपेक्षा उचित नहीं है कि वह पूरी सूचना दे, विवाद से संबंधित सभी पक्षों की राय पेश करे, संदर्भ से जुड़े तमाम पहलुओं को सामने लाए, उस पर अपनी राय भी पेश करे लेकिन अपनी स्वतंत्र राय बनाने के दर्शकों या पाठकों के अवसरों को संकुचित ना करे? इसी तरह माहौल को उतना दूषित या एकतरफा अभियान से उन्माद भरा न बनाया जाए, जिससे सरकार या नीति निर्माताओं के लिए उपलब्ध सभी विकल्पों को आजमाना कठिन हो जाए?

हालके किसी एक मामले को लें, तो यह स्पष्ट होगा कि मीडिया (खासकर इलेक्ट्रॉनिक) ने इन अपेक्षाओं के विपरीत आचरण किया है। यह मुमकिन है कि ऐसे शोर से अधिक टीआरपी या प्रसार संख्या हासिल करना आसान होता हो। लेकिन उससे सूचित एवं शिक्षित करने के कर्त्तव्य से मीडिया नीचे गिरता है। उससे जनता के दीर्घकालिक हितों को चोट पहुंचती है- इसलिए कि किसी भी समय में समाज का हित अंतिम समय तक युद्ध टालने और विवेकपूर्ण फैसले लेने में निहित होता है। फिर सिक्के के दूसरे पहलू से जनता को अंधेरे में रखना और अज्ञानता आधारित विमर्श को फैला देना आखिर किस रूप में देश या जनता के हित में हो सकता है?

पाकिस्तान की जेल में भारतीय कैदी सरबजीत सिंह पर हमला और उसकी मौत के बाद विवेकहीनता और बेतुकेपन के बनाए गए माहौल ने राजनेताओं के लिए अपनी राय रखने के अवसर किस तरह संकुचित कर दिए, यह इसी की मिसाल है कि प्रधानमंत्री ने सबरजीत को भारत का वीर सपूत करार दिया। क्या यह हकीकत नहीं है कि सरबजीत को पाकिस्तान में आतंकवाद के आरोप में मौत की सजा हुई थी? अगर सरबजीत के परिवार का पक्ष भी मान लें कि वह जासूस नहीं था, बल्कि कबड्डी के मैच में जीतने के बाद शराब के नशे में गलती से सीमा पार कर गया, तब भी वह वीर सपूत कैसे हो सकता है? उसकी मौत दुखद थी। लेकिन दुख की घड़ी में विवेक खो देना किसी आधुनिक समाज का लक्षण नहीं हो सकता। बहरहाल, जिस समय ऐसे राजनेताओं का नितांत अभाव हो जो लोकप्रियता- अलोकप्रियता का ख्याल किए बिना अपना नजरिया रखते हुए देश को उचित नेतृत्व दे सकें, उस समय मीडिया का बनाया माहौल क्या गजब ढा सकता है, सरबजीत का मसला उसकी एक उम्दा मिसाल है, लेकिन यह इसका अकेला उदाहरण नहीं है।

प्रधानमंत्रीमनमोहन सिंह ने अपने नौ साल के शासनकाल में देश की विदेश नीति को सब्र और दूरदृष्टि का परिचय देते हुए तथा राष्ट्र-हित को सर्वोपरि रखते हुए यथासंभव सही दिशा में रखा है। मगर मीडिया के बनाए माहौल का मुकाबला करने में कई बार विफल रहे हैं। कुछ महीने पहले जब नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सैनिक एक भारतीय फौजी का सिर काटकर ले गए, तब हकीकत यह थी कि गोलीबारी में दोनों तरफ के जवान मारे गए थे। मगर भारत में भारतीय सैनिक की मौत की खबर पर भावनाएं ऐसी भड़काई गईं कि डॉ. सिंह भी सब ‘कुछ सामान्य ढंग से नहीं चल सकता’- वाला बयान देने पर विवश हो गए। उस माहौल की समाज में दूसरी प्रतिक्रियाएं क्या हुईं, उनकी चर्चा यहां अप्रासंगिक है। जो बात यहां महत्त्वपूर्ण है, वो यह कि ऐसे माहौल में विदेश नीति संबंधी या प्रकारांतर में किसी भी मामले में नीति संबंधी ऐसे निर्णय लेना किसी भी सरकार के लिए कठिन हो सकता है, जिसके दूरगामी परिणाम होने वाले हों और जिसमें देश को लेन-देन के आधार पर कोई समझौते करने हों।     

राजनीतिया कूटनीति संबंधी किसी मसले को सफेद-स्याह के सरलीकृत नजरिए ना तो समझा जा सकता है, और ना ही उसे उस रूप में देखने की कोशिश होनी चाहिए। उससे जुड़ी बारीकियों और परतों से अगर मीडिया परदे हटा पाए, तो वह वास्तव में लोकतंत्र की अपेक्षाओं के मुताबिक अपनी भूमिका निभाएगा। लेकिन भारत में गंगा उलटी बह रही है।

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