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समाचार, विज्ञापन और चिट-फंड की नैतिकता

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भूपेन सिंह
-भूपेन सिंह

एक गुलाम और नागरिक के बीच का फ़र्क यही है कि गुलाम मालिक के मातहत होता है और नागरिक कानून के. हो सकता है कि मालिक बहुत विनम्र हो और कानून बहुत सख्त, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है. असल बात सनक और नियम के बीच के अंतर की है.

-ग्रेविटी ऐंड ग्रेस में फ्रांसीसी दार्शनिक 

और ऐक्टिविस्ट सिमोन वेल

कार्टून साभार- http://www.thehindu.com


विज्ञापनबनामसूचना

भारतके दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राइ) ने टेलीविजन चैनलों से एक घंटे में बारह मिनट से ज़्यादा विज्ञापन न दिखाने के नियम का पालन करने को कहा तो वे बौखला गए और उन्होंने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यापार करने के अपने संवैधानिक अधिकारों के हनन का मामला बताकर आसमान सर पर उठा लिया. अधिकांश दर्शक ट्राइ की इस पहलकदमी से ख़ुश हैं लेकिन टेलीविजन मालिकों के पक्ष में बोलने वाली संस्थाएं और व्यक्ति इसका विरोध कर रहे हैं. एक साल पहले भी ट्राइ ने इस सिलसिले में एक अधिसूचना जारी की थी लेकिन तब टेलीविजन चैनल इसको लटकाने में कामयाब हो गए थे. इस बार भी अगर चैनल मालिक कामयाब हो गए तो यह बहुसंख्यक दर्शकों के लिए ख़तरनाक होगा. सरकार फिलहाल हवा का रुख भांप रही है.

ट्राईने क़रीब एक साल पहले मार्च दो हज़ार बारह में एक विस्तृत कंसल्टेशन पेपर जारी किया था. उसमें टेलीविजन से जुड़े हर पक्ष के विचारों को आमंत्रित किया गया. दर्शकों से लेकर मालिकों तक का पक्ष सुना गया. सारे सुझाव आने पर दो महीने बाद ट्राइ ने टेलीविजन चैनलों में विज्ञापनों की समय सीमा निर्धारित करने के लिए स्टैंडर्स्ड्स ऑफ़ क्वालिटी ऑफ़ सर्विस (ड्यूरेशन ऑफ एडवर्टीजमेंट इन टेलीविजन चैनल्स) रेग्युलेशन, 2012जारी किया. तब भी टेलीविजन मालिकों ने इसका खुलकर विरोध किया और वे टेलीकॉम से जुड़े विवादों को सुलझाने के लिए बने टेलीकॉम डिस्प्यूट सेटलमेंट एंड अपीलेट ट्राइब्यूनल (टीडीएसएटी)में अपील के लिए चले गए. आख़िरकार टीडीएसएटी ने भी टीवी दर्शकों के हक़ में फैसला दिया और उसके बाद ट्राई ने फिर से अधिसूचना जारी की. इस साल बाईस मार्च को जारी नई अधिसूचना स्टैंडर्स्ड्स ऑफ़ क्वालिटी ऑफ़ सर्विस (ड्यूरेशन ऑफ एडवर्टीजमेंट इन टेलीविजन चैनल्स) (एमेंडमेंट) रेग्युलेशन, 2013 के नाम से है. 

ट्राइ की कोशिश

ट्राईने कहा है कि टेलीविजन चैनल हर तिमाही में अपने टीवी विज्ञापनों का हिसाब उसे दिखाएं. बारह मिनट से ज्यादा विज्ञापन दिखाने पर उन पर कार्रवाई की जा सकती है. ट्राई के फैसले से बौखलाए मालिक सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश में लगे हैं. वे सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी से मिलकर अपना रोना रो चुके हैं. फिलहाल सरकार ने इस पर कोई निर्यण नहीं लिया है लेकिन उसका ढुलमुल रवैया टीवी देखने वाली जनता के लिए निराशा और मालिकों के लिए ख़ुशी का सबब बन सकता है. टेलीविजन मालिकों के इंडियन ब्रॉडकास्टिंग फाउंडेशन और न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) जैसे संस्थान अपने पक्ष में लॉबिंग करने का कोई रास्ता नहीं छोड़ रहे हैं. समाचार माध्यमों से जुड़े होने की वजह से एनबीए मालिकों की अगुवाई कर रहा है. उसने अपने कई पिट्ठू संपादकों और पत्रकारों को भी पर्दे के पीछे से इस काम में लगा रखा है. इसी का नतीजा है कि मध्य अप्रैल के बाद सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने  इस सिलसिले में सार्वजनिक बयान दिया जो इस सिलसिले में सरकार की मंशा पर सवाल उठाता है, उनका कहना है कि क्या आप नियम लागू करने की प्रक्रिया में उसी को ख़त्म कर देना चाहते हैं जिसके लिए नियम बनाने जा रहे हैं(आर यू रियली गोइंग टु किल द गूज इन द प्रोसेस ऑफ़ इम्प्लीमेंटिंग रूल्स?द हिंदू, 18अप्रैल). 

टेलीविजनमालिक मुख्य तौर पर तीन बातों पर ट्राई के नियमन का विरोध कर रहे हैं. उनका कहना है कि ट्राई के नियम संविधान प्रदत्त उनके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यापार करने के अधिकार, 19 (1) (ए) और (जी) का उल्लंघन करते हैं. ऐसा बोलकर वे सफेद झूठ बोल रहे हैं. ट्राई चैनलों के कार्यक्रमों और उनकी विषयवस्तु के नियमन की बात कर ही नहीं रहा है. इस लिहाज़ से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का मामला यहां सिरे से ख़ारिज हो जाता है. ट्राई तो सिर्फ़ उपभोक्ताओं को बेहतर सेवा देने की वकालत कर रहा है. जिससे वे आराम से टीवी के कार्यक्रम देख पाएं, बीच में अनावश्यक तौर पर बड़े-बड़े विज्ञापनों से उन्हें दिक्कत न हो. कुल मिलाकर दर्शकों को एक उपभोक्ता के तौर पर बेहतर सेवा मिले. ट्राई इसमें कुछ नया भी नहीं कह रहा है. इसके लिए उसने सरकार की तरफ़ से उन्नीस सौ चौरानबे से चले आ रहे केबल टेलीविजन नेटवर्क रूलः1994 को आधार बनाया है. जिसमें स्पष्ट तौर पर टेलीविजन उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखते हुए एक घंटे में बारह मिनट के विज्ञापनों की समय सीमा तय की गई है. इन बारह मिनटों में भी दस मिनट विज्ञापनों के लिए और दो मिनट चैनल के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं. इतने साल तक सारे निजी चैनल इस नियम की अवहेलना करते हुए एक तरह से अपराध करते रहे हैं. अब, जब उन्हें इस अपराध की याद दिलाई जा रही है तो इसे स्वीकारने के लिए ही तैयार नहीं. वे उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की तर्ज पर ख़ुद को सही ठहराने की कोशिशों में लगे हैं. यह पूरी तरह हास्यास्पद तर्क है कि ट्राई का नियम मालिकों के व्यापार करने के अधिकारों का उल्लंघन है. क्योंकि मालिक जब सारी सरकारी औपचारिकताओं को पूरा करते हैं तभी उन्हें चैनल चलाने का लाइसेंस मिलता है. इस लिहाज़ से टेलीविजन चैनल का लाइसेंस लेने से पहले केबल टेलीविजन नेटवर्क रूल की शर्तों को मानना मालिकों की बाध्यता रही है लेकिन उन्होंने कभी उन्हें माना नहीं.

चैनलमालिकों को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो नज़र आती है लेकिन एक घंटे में तीस से चालीस मिनट विज्ञापन दिखाकर वे जिस तरह दर्शकों के अधिकारों का हनन करते हैं वह उन्हें दिखाई नहीं देता. अब अपने ऊपर ख़तरा देख टीवी मालिक कहने लगे हैं कि ट्राई के पास इस तरह के नियमन का कोई अधिकार नहीं है. इसमें भी झूठ के अलावा और कुछ नहीं है. सन् दो हजार चार में संचार और सूचना तकनीक मंत्रालय ने अपनी एक अधिसूचना में कहा कि प्रसारण सेवाएं और केबल सेवाएं, दूससंचार सेवाएं होंगी. इस लिहाज़ से टेलीविजन पर दिखाये जाने वाले विज्ञापनों की अवधि दर्शकों के देखने के अनुभव की गुणवत्ता से जुड़ती हैं और यह अनुभव, उन्हें मिलने वाली सेवा की गुणवत्ता से जुड़ा है. जिसका पालन उपभोक्ता को सेवा प्रदान करने वाले प्रसारकों को करना होगा. इससे साफ़ हो जाता है कि ट्राई को विज्ञापनों की अवधि तय करने का पूरा अधिकार है. यही वजह है कि टीडीएसएटी ने भी ट्राई को उपभोक्ताओं के पक्ष में नियमन करने की हरी झंडी दी है. ट्राई की अधिसूचना के ख़िलाफ़ टेलीविजन मालिक एक और तर्क देते हैं कि विज्ञापन से ही उनके व्यापार का मुख्य आधार हैं. विज्ञापन कम होने पर उनके लिए धंधा चलाना मुश्किल हो जाएगा. वे बहाने बनाते हैं कि प्रसारण का पूरी तरह से डिजटलीकरण न होने की वजह से केबल ऑपरेटरों को उन्हें बहुत सारा पैसा चुकाना पड़ता है. पूरा उद्योग मंदी की मार झेल रहा है, वगैरह-बगैरह. कुल मिलाकर वे ऐसा दिखाने की कोशिश करते हैं कि जैसे पूरे भारतीय समाज में उनसे ज़्यादा असहाय और दुखी और कोई नहीं. अपने हितों के लिए इस तरह की चालबाज़ी दिखा रहे इन प्रसारकों के कामों का अगर पंचनामा किया जाया तो पता चलेगा कि किस तरह यह पूरे देश की जनता को बेवकूफ़ बना रहा हैं और सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति पर अमल कर रहे हैं, विज्ञापनों की समय सीमा निर्धारित करने का मामला तो इसका बहुत छोटा उदाहरण है.
यह स्थापित तथ्य है कि मीडिया जनता की राय बनाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में हमारे निजी चैनल क्या दिखाते हैं?ज़रूरत तो इस बात की है कि टेलीविजन समेत पूरे मीडिया में विषयवस्तु से लेकर मालिकाने तक पर ठोस कायदे-क़ानून बनें. लेकिन जब भी नियमन की बात होती है चालाक़ मालिक नियमन का अर्थ बदलकर उसे सरकारी नियंत्रण बना देते हैं और पूरी बहस को सरकारी नियंत्रण बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बदल देते हैं. अगर टेलीविजन चैनलों को अंधविश्वास और साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने, फूहड़ कार्यक्रम दिखाने से रोका जाए तो इसमें क्या गलत हैं?  असली बात तो यह है कि निजीकरण के दौर में सरकारें भी अपने नियमों को कड़ा नहीं करना चाहती. उदारीकरण की अर्थव्यवस्था का मतलब ही यही है कि इसमें उद्योगपतियों के हितों को ध्यान में रखकर कायदे-कानून की बात कम से कम हो.  कुछ नियम हों भी तो वे सिर्फ़ दिखावे के हों और ऐसा लगे कि सरकार और निजी उद्योगपति एक दूसरे से संघर्ष कर रहे हैं. लेकिन यह दोनों के बीच होने वाली नूरा कुश्ती से ज़्यादा कुछ भी नहीं होती. वरना टेलीविजन को लेकर, ऐसा नहीं है कि कोई कायदे-कानून नहीं हैं, केबल टेलीविजन नेटवर्क रूल के मुताबिक़ कोई भी चैनल अपने कार्यक्रमों और विज्ञापनों में अंधविश्वास फैलाने, जाति, धर्म, लिंग और उम्र के आधार पर भेदभाव फैलाने वाली विषयवस्तु नहीं दिखा सकता है. वास्तविकता यह है कि हमारे टेलीविजन चैनलों में जनविरोध पर आधारित इस सब की ही भरमार ज्यादा देखने को मिलती है. हर चैनल नियमों का खुलेआम उल्लंघन करता है, अपराध करता है. उनके कार्यक्रमों में भविष्य बताने वाले पाखंडी जोगियों से लेकर गोरेपन की क्रीम बेचने वाले रंगभेदी विज्ञापन धड़ल्ले से दिखाए जाते हैं और हमारी लोकतांत्रिक सरकार के कानों में इस पर जूं तक नहीं रेंगती है. स्वनियमन की वेशर्म वकालत करने वाले मालिकों की जेबी संस्थाएं भी इस स्थिति से हमेशा आंखें मूंदे रहती हैं. लेकिन जब-जब इन स्थियों में बदलाव की मांग उठने लगती है तो सरकार और उद्योगपतियों की तरफ़ से यही सुनने को मिलता है कि जैसे इन हालात पर उनसे ज़्यादा चिंतित और कोई नहीं.

समाचारमाध्यमों में कितने विज्ञापन होने चाहिए भारत में यह बहस काफ़ी पुरानी है. टीवी के देश में इतना प्रचलित होने से बहुत पहले प्रिंट माध्यम को लेकर भी यह बहस रही है. पचास के दशक की शुरुआत में पहले प्रेस आयोग ने पाठकों के हितों को  ध्यान में रखते हुए अख़बार में कम से कम साठ फीसदी समाचार और ज़्यादा से ज़्यादा चालीस फ़ीसदी से ज़्यादा विज्ञापन छापने की वकालत की थी. इसे ध्यान में रखकर बाद में द न्यूज़पेपर (प्राइस एंड पेज़) ऐक्ट 1956 बनाया गया. मीडिया मालिकों ने तब भी तमाम किस्म की जोड़तोड़ के बाद, यहां तक कि कोर्ट का सहारा लेते हुए भी इसे लागू नहीं होने दिया. यही वजह है कि आज यह बीमारी सारे संचार माध्यमों में फैल चुकी है. जब-जब भी मीडिया के नियमन की बात की जाती है मालिक लोग तुरंत ही अभिव्यक्ति की स्वत्त्रता समेत कई किस्म के विचित्र बहानों को लेकर सामने आ जाते हैं और पैसे के बल पर ख़ुद को सही साबित  करने में कामयाब भी रहते हैं जिससे मीडिया की अराजकता में कोई कमीं नहीं आने पाती. आज जिस तरह से प्रिंट, टीवी, रेडियो और  इंटरनेट का जितना असीम विस्तार हुआ है. इस मीडिया परिदृश्य के लिए कुछ ठोस कायदे कानूनों का  होना ज़रूरी हो गया है लेकिन लेकिन मीडिया को  दुधारू गाय समझने वाले मीडिया मालिक ऐसा किसी हालत में नहीं होने  देना चाहते हैं. आज मीडिया के हर पहलू को ध्यान में रकते हुए उसके सम्पूर्ण नियमन की ज़रूरत है. हाल के दौर में बड़े-बड़े मीडिया संगठन सभी तरह के मीडिया में पैसा लगाकर उस पर कब्ज़ा करने या एकाधिकार जमाने की कोशिश कर रहे हैं. इस साल ट्राइ ने ही मीडिया के मालिकाने के नियमन के लिए दूसरी बार एक और कंसल्टेशन पेपर जारी किया था. इसमें बड़े-बड़े मीडिया कंग्लोमरेट की तरफ़ से क्रॉस मीडिया ऑनरशिप पर कुछ रोक लगाने की वकालत की गई है. मध्य फरवरी में जारी किए गए इस पेपर पर सभी हिस्सेदारों की तरफ़ से जवाब देने की आख़िरी तारीफ़ बाईस को ख़त्म हो गई है. एक बार फिर मीडिया मालिक मालिकाने के नियमन के ख़िलाफ़ एकजुट हैं. इससे पहले भी ट्राइ मई दो हज़ार आठ में एक कंसल्टेशन पेपर जारी कर चुका है और मालिक उसे ग़लत ठहराने की कोशिश करते रहे हैं. अगर जनता का दबाव रहा तो एक न एक दिन सरकार को अपना ढुलमुल रवैया छोड़कर नागरिकों के पक्ष में नियम बनाने के ले बाध्य होना पड़ेगा लेकिन फिलहाल ऐसी कोई सूरत नहीं दिखती है.

उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर कहा जा सकता है कि मीडिया को बाज़ार और मुनाफ़े का पर्याय बनाये जाने की वजह से ही वर्तमान मीडिया परिदृश्य बना है. जिसमें लोगों को एक नागरिक के तो छोड़ दीजिए उपभोक्ता अधिकार पाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रह़ा है.

चिट फंड घोटाला और समाचार

पश्चिम बंगाल में सक्रिय शारदा चिट फंड कंपनी की वजह से राज्य की राजनीति में तूफ़ान मचा हुआ है. कंपनी हज़ारों जमाकर्ताओं के ख़ून पसीने की कमाई डुबा चुकी है. उसके मालिकों पर धोखाधड़ी और बेईमानी का आरोप है. गिरफ़्तारी से बचने के लिए भागकर कश्मीर पहुंचे कंपनी के चेयरमैन सुदीप्तो सेन को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया है. लोग राज्य में ममता बनर्जी सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं. इस मामले में भी राडिया टैप कांड की तरह ही आर्थिक घोटाले, मीडिया और राजनीति का घातक घालमेल सामने आया है. बाज़ार में अपनी छवि बनाए रखने के लिए इस चिट फंड ग्रुप ने निर्माण और टूर्स एंड ट्रेवल्स समेत कई धंधों में पैसा लगा रखा था. अवैध काम आसानी से चलाने के लिए जनता से वसूले गए पैसे का बड़ा हिस्सा इसने समाचार माध्यमों में लगाया था. अंग्रेजी अख़बार बंगाल पोस्ट समेत यह कंपनी, सकालबेला, आज़ाद हिंद, प्रभात वार्ता, सेवन सिस्टर्स पोस्ट, तारा न्यूज़, तारा म्यूज़िक और तारा बंगला जैसे कई अख़बार और टेलीविजन चैनल चलाती थी.

भारतीयप्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने कंपनी के क़रीब चालीस बैंक अकाउंट को फ्रीज कर दिये हैं लेकिन जांच करने पर पता चला कि उनमें कोई पैसा जमा नहीं है. सेबी ने तत्काल कंपनी से सारी स्कीमें बंद करने को कहा है और तीन महीने के भीतर जमाकर्ताओं को उनका पैसा लौटाने का निर्देश दिया है. कंपनी की हालत देखकर जमाकर्ताओं को पैसा वापस मिल पाना असंभव मालूम पड़ता है. कंपनी के मुख्य कर्ता-धर्ता सुदीप्तो सेन के तृणमूल कांग्रेस से गहरे ताल्लुकात रहे हैं और पार्टी का एमपी कुनाल घोष शारदा ग्रुप के मीडिया सेक्शन का प्रभारी था. इसके अलावा खेल मंत्री मदन मित्रा समेत पार्टी के और भी कई नेताओं के नाम शारदा ग्रुप से गहरे संबंधों के लिए जाने जाते हैं. तृणमूल और शारदा के संबंधों को निशाना बनाकर कांग्रेस और सीपीएम उसे कटघरे में खड़ा कर रहे हैं लेकिन तृणमूल बड़ी बेशर्मी से सारे आरोप सीपीएम पर मढ़ रही है. उसका कहना है कि सीपीएम सरकार के वक़्त ही राज्य में चिट फंड कंपनियों की बाढ़ सी आ गई थी. कुल मिलाकर देखा जाए तो पूरे मामले में जो भी पार्टी पार्टी सरकार में रही हो उसने चिट फंड कंपनियों के फ़रेब से निपटने की कोशिश कभी नहीं की. शारदा ग्रुप की गतिविधिय़ों लेकर भी कई बार सरकार को आगाह किया जा चुका था. सेबी, रिजर्ब बैंक और इनकम टैक्स विभाग कई बार शिकायतें करते रहे लेकिन सरकारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी, क्योंकि इस तरह के मामलों में कंपनी के कर्ताधर्ता इस कदर सत्ताधारी नेताओं से साथ घुले-मिले रहते हैं कि उनके ख़िलाफ़ तुरंत कार्रवाई कतई संभव नहीं हो पाती. जब तक पानी सर के ऊपर से नहीं गुजरता चिट फंड कंपनियां सबको मैनेज करते रहती हैं और सरकारें भी मैनेज होती रहती हैं.

कंपनीके अंग्रेजी अख़बार बंगाल पोस्ट के दिल्ली ब्यूरो में काम कर चुकी सीमा गुहा ने दू हूट वेबसाइट में अपने अनुभवों को विस्तार से लिखा है. उनका कहना है कि मालिक सुदीप्तो सेन खुलेआम उनको तृणमूल का पक्षधर होने की अपनी बाध्यता बताता था और तृणमूल एमपी कुनाल घोष के माध्यम से वह मीडिया संस्थान के लिए पैसा जुटाने की कोशिश कर रहा था. अब भले ही कुनाल घोष का कहना हो कि वह  सिर्फ़ कंपनी का पेड कर्मचारी था लेकिन  इस पत्रकार ने अपने अनुभवों से बताया है कि घोष इस ग्रुप के साथ बहुत गहराई से जुड़ा था.

शारदा का तो आख़िरकार भाड़ाफोड़ हो गया है और उसके मालिक अब कानून की गिरफ़्त में हैं. लेकिन एक और चिट फंड कंपनी, सहारा समूह के ख़िलाफ़ भी सेबी लगातार आवाज़ उठा रही है. शारदा की तरह ही छोटे निवेशक सहारा से अपना पैसा वापस मांग रहे हैं. कोर्ट ने भी उसे छोटे जमाकर्ताओं का चौबीस हज़ार करोड़ रुपया लौटाने को कहा है लेकिन सहारा का मालिक अब भी जोड़-तोड़ कर बचने की कोशिश में लगा हुआ है. इस घटना को देखकर साफ़ हो जाता है कि सरकार को ऐसी चिट फंड कंपनोयों की गतिविधियों के बारे में सब मालूम रहता है लेकिन ऐसी फ़र्जी कंपनियों के साथ मिलीभगत की वजह से वह कोई कार्रवाई करने में हिचकती है. शारदा की तरह ही सहारा ने भी विश्वसनीयता हासिल करने के लिए मीडिया में बड़ा निवेश किया है. उसके भी कई चैनल और अख़बार चलते हैं. फिलहाल कानून के साथ उसका चूहे-बिल्ली का खेल चल रहा है. सरकारें सब कुछ जानते हुए भी अनजान बनकर तमाशा देख रही हैं. इससे पहले भी नब्बे के दशक में कुबेर और जेवीजी जैसी चिट फंड कंपनियां जनता की गाड़ी कमाई को लूटकर ग़ायब हो गई थीं. उन्होंने भी मीडिया का इस्तेमाल करने के लिए कुबेर टाइम्स और जेवीजी टाइम्स जैसे अख़बार शुरू किए थे. चिट फंड का साम्राज्य डूबने के साथ ही ये अख़बार भी डूब गए. जिसके बाद बड़ी संख्या में पत्रकार बेरोजगार हो गए थे. उसी तरह अब शारदा ग्रुप में काम करने वाले क़रीब डेढ़ हज़ार पत्रकार बेरोजगार हो चुके हैं.

इसघटना के सामने आने से निजी मीडिया स्वामित्व के नियमन का मुद्दा एक बार फिर महत्पपूर्ण हो जाता है. आख़िर चिट फंड कंपनियों को मीडिया में निवेश करने की इजाज़त क्यों होनी चाहिए या किसी भी दूसरे धंधे में जुटी कंपनी को मीडिया, ख़ास तौर पर समाचार मीडिया में निवेश की इजाज़त क्यों होनी चाहिए?क्या ऐसा होने पर समाचार मीडिया की स्वतंत्रता संभव है?क्या व्यापारी घराने मीडिया का इस्तेमाल निजी स्वार्थों के लिए इस्तेमाल नहीं करेंगे? करते?जैसे, क्या शारदा ग्रुप के पत्रकार अपने मालिक की करतूतों के ख़िलाफ़ अपने मीडिया में रिपोर्ट कर सकते थे? क्या वे मालिक के क़रीबी तृणमूल कांग्रेस की नीतियों का आलोचना कर सकते थे?  इस तरह मीडिया में मालिकाने के नियमन का सवाल राजनीति और आर्थिक कारोबार के कायदों से भी जुड़ा है. इस असलियत की अनदेखी की जाती रही तो वह दिन दूर नहीं होगा जब देश के सबसे बड़े पूंजीपति घरानों का मीडिया पर पूरी तरह कब्ज़ा होगा और उन घरानों और उनके सहयोगी राजनीतिक पार्टियों के ख़िलाफ़ कभी कोई ख़बर नहीं आ पाएगी. इस बात की शुरूआत मुकेश अंबानी ने नेटवर्ट 18 और इनाडु टीवी को हथिया कर और आदित्व बिड़ला ग्रुप ने टीवी टुडे ग्रुप के सत्ताईस फ़ीसदी शेयर ख़रीदकर कर दी है. मुकेश के छोटे भाई अनिल अंबानी का भी कई मीडिया संगठनों में पैसा लगा है. पत्रकारों की एकजुटता बहुत हद तक इस स्थिति से उन्हें और पत्रकारीय नैतिकता को बचा सकती है, उनकी सांगठनिक ताक़त मालिकों के सामने झुकने से मना कर सकती है. लेकिन हाल के दौर में जिस तरह मालिकों ने कुछ पत्रकारों को बड़ी-बड़ी तनख़्वाह देकर ख़रीद लिया है, इस स्थिति ने पत्रकारों के संगठन बनाने की बात को ही हास्यास्पद बना दिया है. यही वजह है कि आज ज़्यादातर मीडिया संस्थानों में पत्रकार संगठन की बात करना पूरी तरह वर्जित है. ठेके पर काम करने की वजह से उन्हें हमेशा नौकरी जाने के डर लगा रहता है और वे न्याय के पक्ष में कोई आवाज़ नहीं उठा पाते. पत्रकारों के अधिकारों की रक्षा करने वाले वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट का नाम भी आज कई पत्रकार नहीं जानते. पत्रकार संगठनों को अवांछित घोषत कर निजी मीडिया संस्थानों और सरकार ने मिलकर एक तरह से पत्रकारों को रीढ़ विहीन बना छोड़ा है.

मीडियाके नियामक (नॉर्मेटिव) सिद्धांतों के मुताबिक़ किसी भी देश का मीडिया उसके आर्थिक और राजनीतिक नीतियों का प्रतिबिंब मात्र होता है. इस बात को ध्यान में रखते हुए मीडिया का स्वामित्व उसके चरित्र निर्धारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. अब अगर भारतीय मीडिया पर नज़र डाली जाए तो ज़्यादतर मीडिया संगठनों का स्वामित्व लगातार निजी हाथों में सीमित  होता जा रहा है. नियमन की कोई ठोस व्यवस्था न होने के कारण तमाम तरह के धंधों में जुटे हुए लोग मीडिया में पैसा लगाते हैं. ख़ास तौर पर समाचार मीडिया में पैसा लगाना धंधेबाज़ों के लिए हर तरह से फ़ायदेमंद हैं. समाज और राजनीति में मीडिया को मिली वैधता का इस्तेमाल करने के लिए ही वे एक रणनीति के तहत इसमें पैसा लगाते हैं. इससे उनके बाक़ी धंधों में जब भी संकट आता है और उन्हें थोड़ी बहुत  हेर-फेर करनी  होती है तो मीडिया संगठन का रुतबा और संपर्क उसमें काम आते हैं. चिट फंड कंपनियों  और उनके मीडिया प्रतिष्ठानों की व्याख्या भी  इन्हीं संदर्भों  में की जा सकती है. कुबेर, जेवीजी टाइम्स और शारदा के बाद अब सहारा का क्या होगा यह सवाल अभी अनुत्तरित है. या फिर ऐसा भी हो सकता है कि कबी चिट फंड कंपनी से शुरू करने वाले इनाडु जैसै मीडिया हाउस की तरह सहारा भी बीच का कोई रास्ता अपने लिए निकाल ले और बड़े पूंजीपति और सरकारें सहारा को भी बचा लें. यदि ऐसा होता है तो इससे सबसे बड़ा नुक़सान पत्रकारिता का ही होगा.

भूपेन पत्रकार और विश्लेषक हैं। कई न्यूज चैनलों में काम। अभी आईआईएमसी में अध्यापन कर रहे हैं। इनसे bhupens@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। 


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