"...शूट आउट एट वडाला संजय गुप्ता की हालिया फिल्म है. ये महाशय पहले भी जिंदा, प्लान, कांटे, मुसाफिर जैसी वाहियात फिल्म दे चुके हैं. इनसे इस फिल्म में भी ऐसी ही आशा की गई थी और ये इस पर खरे उतरे हैं..."
विष्णु खरे सिनेमा पर दिए अपने आख्यानो में लोगो से अक्सर डपटते हुए पूछते हैं कि “क्या आपको किसी डाक्टर ने ख़राब सिनेमा देखने की सलाह दी है? आप पालिका बाज़ार की फलां दुकान जाइये वहां पर आपको दुनिया भर का सार्थक सिनेमा मिल जायेगा.” लेकिन दूसरी और जब आप देखते हैं की मुख्य-धारा के सिनेमा में रचनात्मकता सिर्फ दो आयामों, सेक्स और अपराध के बीच ही नाच रही हो तब इन फिल्मों पर सवाल खड़े करने के लिए, इन्हें सिरे से नकार देने के लिए, इनकी बखिया उधेड़ देने के लिए आपको किसी डाक्टर के सलाह की कोई जरूरत नहीं है.
शूटआउट एट वडाला संजय गुप्ता की हालिया फिल्म है.ये महाशय पहले भी जिंदा, प्लान, कांटे, मुसाफिर जैसी वाहियात फिल्म दे चुके हैं. इनसे इस फिल्म में भी ऐसी ही आशा की गई थी और ये इस पर खरे उतरे हैं. फिल्म में सेक्स और अपराध का जोरदार तड़का है जो कि इसकी व्यावसायिक सफलता की गारंटी देता है.
गलती किसकी?
फिल्मकी कहानी मुंबई में 1982 हुए पहले एनकाउंटर पर आधारित है. इसमें मनोहर सुर्वे उर्फ़ मान्य सुर्वे को पांच गोली लगी थी और वो मारा गया. यह एक सच्ची घटना है और इसके बाद ही मुंबई पुलिस की कुख्यात “ एनकाउंटर सेल “ की उत्पत्ति हुई थी. प्रदीप शर्मा (104एनकाउंटर) और दया नायक (82एनकाउंटर) जैसे हीरे इसी फैक्ट्री की पैदाइश हैं. अब तक इस सेल द्वारा 622लोगो को मौत के घाट उतरा जा चूका है.
मनोहरसुर्वे रत्नागिरी का रहने वाला था. बाद में वो अपनी माँ के साथ मुंबई में रहने लगा. वो एक होनहार छात्र था जिसने 78फीसदी अंको के साथ अपनी ग्रेजुएसन की. मुंबई पुलिस ने उसे हत्या के एक झूठे मुकदमे में गिरफ्तार किया और उसे आजीवन कारावास की सजा हुई. इसके बाद वो रत्नागिरी जेल से फरार हो गया. वहां से वह मुंबई आया और और अपराध की दुनिया की और मुड गया.
अपराधका अपना समाज-शास्त्र होता है. कोई आदमी शौकिया अपराधी नहीं हो जाता. सामाजिक नियमों और कानून के प्रति इतना खूंखार विद्रोह पैदा होने के लिए शोषण पर आधारित ये व्यवस्था भी उतनी ही अहम् होती है. जो इस व्यवस्था के आखिरी पायदान पर होता है उसके व्यक्तित्वा में विद्रोह का आना बहुत सहज घटना है. अब इस विद्रोह को स्वर कैसे मिलाता है ये भी सामाजिक परिवेश पर ही निर्भर करता है. जब आप व्यवस्था द्वारा शोषित होते हो तब आपके जीवन में नैतिकता और अनैतिकता की बहस बेईमानी हो जाती है क्यों की शोषण करने वाली व्यवस्था के पास भी शोषण करने का कोई नैतिक आधार नहीं होता है. मैं यहाँ अमानवीय अपराधो को जायज नहीं ठहरा रहा पर क्या किसी अपराधी को पैदा करने में समाज की भूमिका को नाकारा जा सकता है ? आप मान्य सुर्वे का वाकिया ही ले लीजिये एक मेधावी छात्र को बिना किसी कसूर के अगर आजीवन कारावास की सजा मिल जाती है तो क्या इसमे दोष हमारी पुलिस और न्याय-व्यवस्था का नहीं है. अगर वो इतना खूंखार अपराधी बना तो इसमे गलती किसकी थी?
दूसरीबात बतौर फ़िल्मकार क्या संजय गुप्ता की यह जिम्मेदारी नहीं थी की कैद के दौरान इस नौजवान के मन में चल रही कशमकाश को उभारते? उन्होंने उसकी जगह जॉन अब्राहिम की देह की नुमाइश को ज्यदा जरूरी समझा. बैनडीड क्वीन की फूलन जब बेमही गाँव के ठाकुरों पर गोली चलाती है या दो बीघा ज़मीन में जब कन्हैया जेब काटता है तो उसके अपने सामाजिक निहितार्थ होते हैं.
सेन्सलेस सेंसर
विद्या (कंगन रानौत) इस फिल्म में नायिका की भूमिका में है. नायिका किसी भी फिल्म के लिए महत्वपूर्ण होती है. पर जब पूरी फिल्म में नायिका सिर्फ 10से 12 मिनट में लिए परदे पर आये और उसमे भी वो ज्यादातर समय नायक के साथ बिस्तर पर फिल्माई जाये तो नायिका के अस्तित्व का औचित्य समझ से परे है. इसके अलावा फिल्म में तीन आइटम सोंग डाले गए हैं (मुझे शब्द आइटम सोंग से भीषण असहमति है). इसमें से एक सन्नी लियोने पर भी फिल्माया गया है जिनकी पोर्नोग्राफी पर ये समझ है की यह समाज की यौन कुंठाओ को ख़त्म करता है और लैंगिकता के स्तर पर खुलापन लाता है. बाज़ार के द्वारा दिया गया खुलेपन का यह घटिया तर्क स्त्री को उपभोग की वस्तु बनाने के लिए अक्सर इस्तेमाल किया जाता है.
दूसरागाना "बबली बदमाश है" को "मुन्नी बदनाम हुई" परिवार का सदस्य माना जा सकता है. ये सिनेमा की फार्मूलेबाज़ फितरत का एक और उदाहरण है. इन तीनो गानों में नृत्यांगना के स्तन, कूल्हों और कमर को विभिन्न कमरा एंगल से दिखा पर पुरुष कुंठाओं को तुष्ट करने की पुरजोर कोशिश की गई है.
पिछलेकई साल भर से जिस तरीके से औरतों की आज़ादी के विषय पर संघर्ष चल रहे हैं और चेतना नयी करवट ले रही है , उसका रत्ती भर प्रभाव सेंसर बोर्ड ने अपने ऊपर नहीं पड़ने दिया है. सेंसर बोर्ड इस फिल्म को वयस्क प्रमाण-पत्र दे कर अपनी जवाबदेही ख़त्म नहीं कर सकता.
सितारा रेटिंग का खेल
मुख्यधाराका मीडिया फिल्मों के स्तर को तय करने के लिए सितारा पद्धति का इस्तेमाल करता है. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले रिव्यु को हम पेड न्यूज़ के रूप में भी देख सकते हैं. रेटिंग के इस खेल को समझने के लिए आप इस फिल्म की रेटिंग को देखिये –
टाइम्स ऑफ़ इंडिया: 4 बॉलीवुड हंगामा: 4इंडिया टुडे: 3 जी न्यूज़: 3.5 Ibn 7: 2Ndtv : 2
यहाँकोई भी आदमी ये बता सकता है की ये रेटिंग सिस्टम फिल्म के स्तर को बताने के बजाय इस बात की चुगली कर रहा है कि प्रमोशन पर खर्च किये जाने वाले धन में से किस-किस को पैसा मिला है और कौन-कौन वंचित रह गया. टेलीविज़न पर भी प्रमोशन की ये कवायद बड़े पैमाने पर चलती है. रियल्टी शो फिल्मो को प्रमोशन के लिए मंच मुहैय्या करवाते हैं. इस प्रकार के शो के पीछे विज्ञापन से बड़ा अर्थशास्त्र प्रमोशन का है. फिल्म कलाकारों से होने वाले करार में निर्माता यह बात पहले ही तय कर लेता है की कलाकार फिल्म के प्रमोशन के लिए इतने कार्यक्रमों में जायेगा.
भलेही इस फिल्म ने पैतालीस करोड़ का व्यवसाय कर लिया हो पर इतना यथार्थवादी प्लाट होने के बाद भी इस कहानी को जिस हातिमताई तरीके से कहा गया उसका स्पष्टीकरण व्यावसायिकता के तर्क से भी नहीं दिया जा सकता. यहाँ सिनेमा की बुनियादी समझ में आ चुका विकार उघड़ कर सामने आ जाता है.
विनय स्वतंत्र पत्रकार हैं.
इनसे vinaysultan88@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.