"...ऐसे में ईआईयू जैसी इकाई का लोकतंत्र का सूचकांक एवं श्रेणी तैयार करना एक विडंबना ही है। इसे सहजता से नजरअंदाज कर दिया जाता, अगर इस परिघटना के अन्य पक्ष नहीं होते। लेकिन लोकतंत्र एवं शासन-व्यवस्था से संबंधित मसलों पर ऐसे सूचकांक, श्रेणियां और अनुसंधान रिपोर्ट तैयार करने का सिलसिला इतना व्यापक हो चुका है कि उसे बिना चुनौती दिए नजरअंदाज करना उसमें निहित खतरों से आंख चुराना साबित हो सकता है।..."
क्यामनोगत मानदंडों के आधार पर तैयार सूचकांकों से विभिन्न समाजों एवं उनकी समस्याओं को समझा जा सकता है? मसलन, पारदर्शिता और लोकतंत्र ऐसे प्रश्न हैं जिन पर अनेक, बल्कि परस्पर विरोधी समझ भी हो सकती है। उन्हें संबंधित समाजों के विशेष संदर्भों से अलग करके देखना तार्किक और वांछित नहीं हो सकता। इसलिए ये सवाल अहम है कि क्या ऐसे मुद्दों पर देश और काल से निरपेक्ष सूचकांक (इंडेक्स) बनाए जा सकते हैं? ऐसे सूचकांकों पर आधारित विभिन्न देशों की सूची को आखिर कितना महत्त्व दिया जाना चाहिए?
प्रसांगिक मुद्दा इकॉनोमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (ईआईयू) का लोकतंत्र सूचकांक-2012 है। ईआईयू ने सर्वप्रथम 2006 में इस सूचकांक पर आधारित देशों की सूची जारी की थी। तब भारत उसमें 35वें नंबर पर था। 167 देशों की ताजा लिस्ट में वह गिर कर 38वें नंबर पर पहुंच गया है। इसके पहले की बात आगे बढ़ाएं, ईआईयू के बारे में थोड़ी जानकारी यहां रख लेना उचित होगा। इस इकाई का संबंध ब्रिटिश पत्रिका द इकॉनोमिस्ट से है। उसकी वेबसाइट पर कहा गया है कि उसका काम देशों, उद्योग एवं प्रबंधन के लिए विश्लेषण प्रस्तुत करना है। ये इकाई बड़ी कंपनियों के लिए किसी खास बाजार या कारोबार क्षेत्र का अध्ययन करती और उनकी जरूरत के मुताबिक आंकड़े उपलब्ध कराती है। इकॉनोमिस्ट पत्रिका घोषित रूप से बहुराष्ट्रीय पूंजी की समर्थक है। स्वाभाविक रूप से वह अनियंत्रित बाजार व्यवस्था एवं अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की समर्थक है। ये संस्थान आज दुनिया भर में- खासकर यूरोप में किफायत की नीतियों को थोपने के क्रम में लोकतंत्र को नियंत्रित करने का जरिया बने हुए हैं। ग्रीस, इटली, स्पेन से लेकर साइप्रस आदि इसके उदाहरण हैं, जहां कई बार यह प्रवृत्ति क्रूर रूप में भी दिखी है। बाकी जगहों पर भी लोकतांत्रिक जनभावना के साथ इसका अंतर्विरोध बढ़ता गया है।
ऐसेमें ईआईयू जैसी इकाई का लोकतंत्र का सूचकांक एवं श्रेणी तैयार करना एक विडंबना ही है। इसे सहजता से नजरअंदाज कर दिया जाता, अगर इस परिघटना के अन्य पक्ष नहीं होते। लेकिन लोकतंत्र एवं शासन-व्यवस्था से संबंधित मसलों पर ऐसे सूचकांक, श्रेणियां और अनुसंधान रिपोर्ट तैयार करने का सिलसिला इतना व्यापक हो चुका है कि उसे बिना चुनौती दिए नजरअंदाज करना उसमें निहित खतरों से आंख चुराना साबित हो सकता है।
मसलन,अपने देश में अक्सर ऐसी रपटें मीडिया में खूब सनसनी पैदा करती हैं कि कितने जन- प्रतिनिधि आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, कितने करोड़पति हैं और राजनीतिक दलों के खातों में पारदर्शिता की कितनी कमी है। मगर इस तरफ शायद ही कभी ध्यान दिया जाता है कि ऐसी रिपोर्टों को तैयार करने वाले संगठनों के वित्तीय स्रोत कहां हैं? नव-उदारवादी विदेशी दाताओं और बड़े देशी पूंजीपतियों के न्यासों से प्राप्त धन से संचालित इन संगठनों की वर्ग दृष्टि और उद्देश्यों पर कभी खुल कर चर्चा नहीं होती। उन संगठनों का मकसद लोकतंत्र को अंतिम व्यक्ति का हथियार बनाना है या समाज के उत्तरोत्तर लोकंत्रीकरण को अवरुद्ध करना- यह प्रश्न अनुत्तिरत रह जाता है। इस बीच वर्ग-विभाजित समाज के यथार्थ से कटा विमर्श लोकतंत्र के विकासक्रम की अवस्थाओं को सामने लाने के बजाय समाज की प्रगतिशील धाराओं को बदनाम करने का माध्यम बन जाता है।
मसलन,अपने देश में अक्सर ऐसी रपटें मीडिया में खूब सनसनी पैदा करती हैं कि कितने जन- प्रतिनिधि आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, कितने करोड़पति हैं और राजनीतिक दलों के खातों में पारदर्शिता की कितनी कमी है। मगर इस तरफ शायद ही कभी ध्यान दिया जाता है कि ऐसी रिपोर्टों को तैयार करने वाले संगठनों के वित्तीय स्रोत कहां हैं? नव-उदारवादी विदेशी दाताओं और बड़े देशी पूंजीपतियों के न्यासों से प्राप्त धन से संचालित इन संगठनों की वर्ग दृष्टि और उद्देश्यों पर कभी खुल कर चर्चा नहीं होती। उन संगठनों का मकसद लोकतंत्र को अंतिम व्यक्ति का हथियार बनाना है या समाज के उत्तरोत्तर लोकंत्रीकरण को अवरुद्ध करना- यह प्रश्न अनुत्तिरत रह जाता है। इस बीच वर्ग-विभाजित समाज के यथार्थ से कटा विमर्श लोकतंत्र के विकासक्रम की अवस्थाओं को सामने लाने के बजाय समाज की प्रगतिशील धाराओं को बदनाम करने का माध्यम बन जाता है।
येकहने का यह कतई मतलब नहीं है कि भारतीय लोकतंत्र में कोई कमी या खामी नहीं है। मगर हर खामी को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए। इस बिंदु पर यह सवाल अहम हो जाता है कि लोकतंत्र कोई स्थूल ढांचा है या एक प्रक्रिया है? क्या यह ऐसा ढांचा है जो हर समाज में समान रूप से लागू हो सकता है? उपनिवेश बने और उपनिवेश बनाने वाले देशों के इतिहास में फर्क को बिना ध्यान में रखे क्या उनकी आंतरिक व्यवस्थाओं के बीच तुलना हो सकती है? चूंकि ईआईयू का डेमोक्रेसी इंडेक्स इन सवालों के जवाब नहीं देता, इसलिए उसका भारत को “दोषपूर्ण लोकतंत्र” बताना आपत्तिजनक है।
ईआईयूके मुताबिक चुनाव प्रक्रिया एवं बहुलवाद, सरकार के कामकाज के ढर्रे, राजनीतिक व्यवस्था में जन भागीदारी, राजनीतिक संस्कृति, और नागरिक स्वतंत्रताओं की स्थिति को आधार बना कर यह इंडेक्स तैयार किया गया है। विभिन्न देशों को मिले अंकों के आधार पर उनकी चार श्रेणियां बनाई गई हैं। इस तरह पूर्ण लोकतंत्र, दोषपूर्ण लोकतंत्र, संकर लोकतंत्र और तानाशाही व्यवस्था की श्रेणियां सामने आई हैं। चूंकि भारत को पूर्णांक 10 में से 7.52 अंक मिले हैं, इसलिए वह दोषपूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी में आया है। 53 और देश इस श्रेणी में हैं। आठ या उससे ज्यादा अंक पाने वाले 25 देश पूर्ण लोकतंत्र होने का सम्मान पा सके हैं, जिनमें नॉर्वे 9.93 अंकों के साथ अव्वल है।
ईआईयूके मुताबिक चुनाव प्रक्रिया एवं बहुलवाद, सरकार के कामकाज के ढर्रे, राजनीतिक व्यवस्था में जन भागीदारी, राजनीतिक संस्कृति, और नागरिक स्वतंत्रताओं की स्थिति को आधार बना कर यह इंडेक्स तैयार किया गया है। विभिन्न देशों को मिले अंकों के आधार पर उनकी चार श्रेणियां बनाई गई हैं। इस तरह पूर्ण लोकतंत्र, दोषपूर्ण लोकतंत्र, संकर लोकतंत्र और तानाशाही व्यवस्था की श्रेणियां सामने आई हैं। चूंकि भारत को पूर्णांक 10 में से 7.52 अंक मिले हैं, इसलिए वह दोषपूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी में आया है। 53 और देश इस श्रेणी में हैं। आठ या उससे ज्यादा अंक पाने वाले 25 देश पूर्ण लोकतंत्र होने का सम्मान पा सके हैं, जिनमें नॉर्वे 9.93 अंकों के साथ अव्वल है।
ईआईयूसे यह विनम्र प्रश्न हो सकता है कि लोकतंत्र सिर्फ एक व्यवस्था है या इसके कुछ उसूल भी हैं? अगर उसूल हैं तो अंतरराष्ट्रीय मामलों में ताकत का जोर चलाने वाले या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अलोकतांत्रिक ढांचे के आधार पर विश्व जनमत के बहुमत की अक्सर अनदेखी करने वाले देशों को पूर्ण लोकतंत्र कैसे कहा जा सकता है? बहरहाल, अगर दूसरे देशों का लोकतंत्र भी दोषपूर्ण हो, तो उससे हमें अपनी व्यवस्था को सही ठहराने का तर्क नहीं मिलता। लेकिन भारत में कभी किसी समझदार व्यक्ति या समूह ने यह दावा नहीं किया कि हमारा लोकतंत्र पूर्ण है। बल्कि इसके मूल स्वरूप और इसकी समस्याओं के प्रति तो सबसे पहले आगाह उसी शख्स ने कर दिया था, जिसकी भारत के आधुनिक धर्मनिरपेक्ष गणराज्यीय संविधान को बनाने में सबसे बड़ी भूमिका थी।
भारतीय संविधान सभा के समापन सत्र में दिए अपने ऐतिहासिक भाषण में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने कहा था- “26 जनवरी 1950 को हम एक अंतर्विरोधी जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। हमारी राजनीति में समानता होगी और हमारे सामाजिक व आर्थिक जीवन में असमानता। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और हर वोट का समान मूल्य के सिद्धांत पर चल रहे होंगे। परंतु अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में अपने सामाजिक एवं आर्थिक ढांचे के कारण हम हर व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकार रहे होंगे। इस विरोधाभासी जीवन को हम कब तक जीते रहेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? यदि हम इसे नकारना जारी रखते हैं तो हम केवल अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डाल रहे होंगे।”
भारतीय संविधान सभा के समापन सत्र में दिए अपने ऐतिहासिक भाषण में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने कहा था- “26 जनवरी 1950 को हम एक अंतर्विरोधी जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। हमारी राजनीति में समानता होगी और हमारे सामाजिक व आर्थिक जीवन में असमानता। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और हर वोट का समान मूल्य के सिद्धांत पर चल रहे होंगे। परंतु अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में अपने सामाजिक एवं आर्थिक ढांचे के कारण हम हर व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकार रहे होंगे। इस विरोधाभासी जीवन को हम कब तक जीते रहेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? यदि हम इसे नकारना जारी रखते हैं तो हम केवल अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डाल रहे होंगे।”
हमआज भी यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि उन अंतर्विरोधों को हमने खत्म कर दिया है, जिनका उल्लेख डॉ. अंबेडकर ने किया था। लेकिन लोकतंत्र की प्रक्रिया ने उन सपनों को जिंदा रखा है। चुनावी राजनीति में बढ़ती जन भागीदारी, सामाजिक रूढि़यों के खिलाफ बढ़ती जन चेतना और नागरिक या संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता के प्रसार ने यह आशा जीवित रखी है कि निरंकुश सामाजिक एवं आर्थिक ढांचे को सामूहिक जन-शक्ति चेतना से नियंत्रित किया जा सकेगा। इतिहास के इस बिंदु पर भारत में लोकतंत्र का यही अर्थ और यही प्रासंगिकता है। यह दोषपूर्ण या अधूरा है, यह कहने में तब तक कोई आपत्ति नहीं हो सकती, जब तक ऐसा आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य के उदय एवं लोकतंत्र के ऐतिहासिक संदर्भों को ध्यान में रखते हुए किया जाए। लेकिन ऐसा जब अभिजात्यवादी दृष्टि से कहा जाता है, तो वैसे विचारों और उनमें अंतर्निहित मंशाओं को चुनौती देना आवश्यक हो जाता है।
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सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.