"...सपा के साल भर के शासनकाल में उत्तर प्रदेश में संप्रदायिक दंगों का दौर लौटता दिखा है। आम मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक बेहतरी के कोई कदम उठाए गए, कहना कठिन है। इससे मुसलमानों में नाराजगी के संकेत मिले हैं। तो अब आजम खान की इज्जत को जज्बाती सवाल बना कर सपा की कोशिश मुस्लिम समुदाय के गुस्से को अमेरिका और प्रकारांतर में कांग्रेस की तरफ मोड़ने की है ताकि वो अपना वोट बैंक बचा सके।..."
क्यामुलायम सिंह यादव आग से खेल रहे हैं? उनकी समाजवादी पार्टी हाल में जिस तरह की भड़काऊ राजनीति करती नजर आई है, उससे ये सवाल खड़ा होता है। भावनाओं को भड़काना मुलायम सिंह की कार्यशैली में कोई नई बात नहीं है। ऐसे ही तौर-तरीकों से 1990 के दशक में वे खुद को मुसलमानों के संरक्षक के रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुए थे, हालांकि तब संघ परिवार के उग्र मंदिर आंदोलन ने भी इसमें बड़ा योगदान किया था। बहरहाल, इस बार वे एक साथ प्रतिस्पर्धी जज्बातों को छेड़ते दिख रहे हैं। इसमें वे कामयाब होंगे या नहीं- कहना कठिन है (हालांकि ऐसे जोखिम भरे खेल में अधिक संभावना नाकामी की ही रहती है)। लेकिन खतरा यह है कि इस सियासत की कुछ चिंगारियां उत्तर प्रदेश के सामाजिक ताने-बाने को क्षतिग्रस्त कर सकती हैं।
सपाका ताजा मुद्दा अमेरिका में उत्तर प्रदेश के मंत्री आजम खान का हुआ कथित अपमान है। अगर उचित संदर्भ में देखें तो बोस्टन हवाई अड्डे पर जांच के क्रम में आजम खान को दस मिनट तक ज्यादा रोकना सीमित रूप में आपत्तिजनक हो सकता है, लेकिन सपा ने जैसा ड्रामा खड़ा किया है, उसके लिए सटीक कथानक के तत्व उसमें मौजूद नहीं हैं। आजम खान में वीआईपी होने का गुरुर कूट-कूट कर भरा है, इसका इजहार तो वे अतीत में भी करते रहे हैं। पिछले दिसंबर में उन पर एक रेल कर्मचारी से गाली-गलौच और मारपीट करने का आरोप लगा था। शिकायत यह थी कि पंजाब मेल में दी गई चादर उन्हें साफ-सुथरी नहीं लगी। ऐसे में अमेरिका में बोस्टन हवाई अड्डे पर सुरक्षाकर्मी ने द्वितीयक (सेकंडरी) जांच के क्रम में उनसे दस मिनट अधिक पूछताछ की तो उससे उनका अहं चोटिल हो गया तो यह असमान्य नहीं है। लेकिन इस पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की प्रतिक्रिया जरूर अवांछित है। अखिलेश यादव और आजम खान कुंभ मेले के सफल आयोजन पर हारवर्ड में व्याख्यान देने गए थे। लेकिन हवाई अ्डडे की घटना के बाद उन्होंने वहां जाने से इनकार कर दिया। यहां तक कि विरोध जताने के लिए अखिलेश यादव ने न्यूयॉर्क में भारतीय महावाणिज्य दूत द्वारा दिए गए भोज का भी बहिष्कार कर दिया।
इधरउत्तर प्रदेश में सपा समर्थक अमेरिका को मुस्लिम विरोधी एवं नस्लवादी बताते हुए सड़कों पर उतर आए हैं। कहा जा सकता है कि आजम खान के अहंकार को मुस्लिम समुदाय के आत्म-सम्मान के साथ जोड़ कर सपा मुस्लिम समुदाय की भावनाओं को भड़काने में जुट गई है। असली कोशिश इस घटना को सियासी मुद्दा बनाकर कांग्रेस नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को घेरने की है। सपा प्रवक्ता ने कहा कि यूपीए सरकार की कमजोरी के कारण भारत एवं भारतीयों की इज्जत पर बट्टा लगा है। सपा के साल भर के शासनकाल में उत्तर प्रदेश में संप्रदायिक दंगों का दौर लौटता दिखा है। आम मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक बेहतरी के कोई कदम उठाए गए, कहना कठिन है। इससे मुसलमानों में नाराजगी के संकेत मिले हैं। तो अब आजम खान की इज्जत को जज्बाती सवाल बना कर सपा की कोशिश मुस्लिम समुदाय के गुस्से को अमेरिका और प्रकारांतर में कांग्रेस की तरफ मोड़ने की है ताकि वो अपना वोट बैंक बचा सके।
मुस्लिमसमाज- बल्कि लगभग तमाम सियासी हलकों में हैरत मुलायम सिंह में कुछ समय पहले अचानक जगे आडवाणी प्रेम से भी हुई है। वरिष्ठ भाजपा नेता की मुक्त कंठ से तारीफ कर उन्होंने जो संकेत दिए उसका एक परिणाम प्रदेश भाजपा की चित्रकूट बैठक में आडवाणी द्वारा डॉ. राम मनोहर लोहिया की उतनी ही रहस्यमय और खुलेआम प्रशंसा के रूप में सामने आया। हालांकि इसके आधार पर किसी उभरते राजनीतिक समीकरण का अनुमान लगाना जल्दबाजी हो सकती है, मगर इससे यह अंदाजा तो जरूर लगा कि मुलायम सिंह सवर्ण एवं भाजपा समर्थक तबकों में अपनी स्वीकार्यता बनाने की कोशिश में हैं। कोई सत्ताधारी पार्टी अपने कार्यों से समाज के विभिन्न- यहां तक कि प्रतिस्पर्धी तबकों में भी सद्भाव पैदा कर सकती है। मगर लगभग तमाम मोर्चों पर नाकाम दिखती एक सरकार के संरक्षक नेता जब प्रतिस्पर्धी सामाजिक समूहों की भावनाओं को उकेरने में जुटें तो उससे कैसी बेतुकी बातें सामने आ सकती हैं, यह गौरतलब है।
सीधेजातियों को गोलबंद करने की रणनीति पर पहले खुलेआम सिर्फ मायावती चलती थीं। लेकिन अब सपा उनका अनुकरण कर रही है। लखनऊ में उसने प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन के नाम ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश की। ब्राह्मणों के प्रशस्ति गान में मुलायम सिंह ये कहने की हद तक चले गए कि मंगल पांडे ने समाजवाद को आगे बढ़ाया! 1857 के इस स्वतंत्रता सेनानी के सम्मान में और उनके ऐतिहासिक योगदान पर लंबी चर्चा हो सकती है। मगर वे समाजवाद की विचारधारा से प्रेरित थे, यह राज़ तो नेताजी के पहले शायद ही किसी को मालूम हुआ हो! 1848 में काल मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिख लिया था, लेकिन उसकी कॉपियां मंगल पांडे तक पहुंच गई थीं- अगर इसकी पुष्टि मुलायम सिंह कर दें तो इतिहास लेखकों की वे बड़ी सेवा करेंगे!
आजमखान के साथ हुई घटना के क्रम में यह बात महत्त्वपूर्ण है कि सामंती अवशेषों वाले भारतीय समाज में सत्ता और धन के साथ विशेषाधिकार की परंपरा बनी हुई है। उसमें जीने वाले लोग यह मान कर चलते हैं कि हर जगह उनके साथ विशेष व्यवहार किया जाएगा। लेकिन दुनिया में हर जगह यह विशेषाधिकार मिले ये अपेक्षा अवास्तविक है। इसके आधार पर राजनीति चमकाने की कोशिश सामंतवादी मानसिकता को बल प्रदान करती है। आखिर सपा ने कभी अमेरिका जाने वाले आम भारतीयों के साथ होने वाले व्यवहार के आधार पर ऐसा मुद्दा नहीं उठाया। बहरहाल, सपा से ऐसी अपेक्षाएं ऐसे लोग भी बहुत पहले छोड़ चुके हैं जो खुद को लोहियावाद की परंपरा से जोड़ कर देखते हैं। अपने पिछले शासनकाल में पूंजीपतियों और फिल्म सितारों को साथ लेकर क्रोनी कैपिटलिज्म का जो मुजाहिरा सपा ने किया, वह भूला नहीं है। अब वह खुलेआम सामंती और सांप्रदायिक जज्बातों को अपनी प्रशासनिक विफलता को ढकने का जरिया बना रही है तो यह उस रास्ते की एक स्वाभाविक परिणति हो सकती है। लेकिन यह आग से खेलना है, जिसके संभावित परिणाम हमें जरूर परेशान करते हैं।
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सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.