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मीडिया और विज्ञान का भगवाकरण

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अतुल आनंद
-अतुल आनंद

"मैं अपने धर्म की शपथ लेता हूँ, मैं इसके लिए अपनी जान दे दूंगा. लेकिन यह मेरा व्यक्तिगत मामला है. राज्य का इससे कुछ लेना-देना नहीं. राज्य का काम धर्मनिरपेक्ष कल्याण, स्वास्थ्य, संचार, आदि मामलों का ख़याल रखना है, ना कि तुम्हारे और मेरे धर्म का."

- महात्मा गाँधी


भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, ऐसा हमारे संविधान में कहा गया है. संक्षेप में कहे तो धर्मनिरपेक्षता का अर्थ होता है धर्म का राज्य से अलग होना. कई बार इस धर्मनिरपेक्षता शब्द का कोई अर्थ नहीं रह जाता है जब राष्ट्रीयता, मीडिया और विज्ञान के मामलों में देश के बहुसंख्यक धर्म का विशेष ख़याल रखा जाता है. आज से लगभग दस साल पहले भाजपा के शासन वाली सरकार में एनसीईआरटी के इतिहास के किताबों से छेड़छाड़ कर उनका भगवाकरण करने की कोशिश की गयी थी. जिसका देश भर के शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों ने विरोध किया था. इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय को भी हस्तक्षेप करना पड़ा था. समय के साथ दक्षिणपंथी समूहों और उनके “इतिहासकारों” और “बुद्धिजीवियों” द्वारा हिंदुत्व का प्रचार और भगवाकरण की कोशिशें बढ़ी हैं.
  
भारत माता, जो एक हिन्दू देवी दुर्गा का प्रतिरूप लगती है, को दक्षिणपंथी समूहों ने एक “राष्ट्रीय” प्रतीक के रूप में लगभग स्थापित कर लिया है. भारत माता गौरवर्णा है. भारत माता का रंग-रूप से लेकर उनका पहनावा तक एक हिन्दू देवी की तरह है, जो आधे से अधिक भारतीय महिलाओं के रंग-रूप और पहनावे से मेल नहीं खाता. वह दुर्गा की तरह शेर पर सवार है. दिलचस्प बात यह है कि देश का एक प्रमुख दक्षिणपंथी संगठन भारत माता की इस छवि को अपने प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करता आया है. भारत माता की जय के नारे हिन्दू संगठनों के कार्यक्रमों से लेकर भारतीय सेना में समान रूप से गूँजते है.

मीडियाका जितना कवरेज हिन्दू धर्म के पर्व-त्योहारों को मिलता है, उतना कवरेज दूसरे धर्मों के पर्व-त्योहारों को शायद ही नसीब होता है. हिन्दू पर्व-त्योहारों के समय प्रमुख हिंदी अखबार अपने ‘मास्टहेड’ को उन पर्व-त्योहारों के रंग से रंग देते हैं. त्योहार विशेष पृष्ठों और खबरों से अखबारों को भर दिया जाता है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी बहुसंख्यक धर्म के त्योहारों में पूरी तरह डूब जाती है. वैसे भारतीय मीडिया सालभर हिन्दू धर्मग्रंथों के पात्रों और मिथकों को उद्धृत करती रहती है. भीम जैसे धार्मिक पात्रों को लेकर कार्टून-शो बनाए जाते हैं. हिंदी फिल्मों के नायक भी अधिकतर हिन्दू पात्र ही होते हैं, भले ही उस पात्र को निभाने वाले अभिनेता किसी दूसरे धर्म के हो. हाल ही में इतिहास से छेड़छाड़ का एक और उदाहरण देखने को मिला. टीवी पर शुरू हुए एक नए “ऐतिहासिक” कार्यक्रम में जानबूझकर अकबर को एक मुस्लिम आक्रान्ता और खलनायक के रूप में दिखाने की कोशिश की गयी है. यह अकबर जैसे उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष शासक का गलत चित्रण कर नयी पीढ़ी को भ्रमित करने की कोशिश है.

दूसरीतरफ हमारे शासक वर्ग ने (खासकर भाजपा के शासन-काल के दौरान) विज्ञान, स्वदेशी तकनीक और आविष्कारों को हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार का साधन बना दिया. भारत में विकसित तकनीकों और मिसाइलों का नामकरण हिन्दू मिथकों और पात्रों के नाम पर किया जाने लगा. “अग्नि”, “इंद्र”, “त्रिशूल”, “वज्र”, “पुष्पक” आदि इसके उदाहरण हैं. दिलचस्प बात यह है कि हिन्दू मिथकों के नाम पर रखे गए इन मिसाइलों के विकास और निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले ‘मिसाइलमैन’ डॉ कलाम एक अल्पसंख्यक समुदाय से है.

इतना ही नहीं, खेल के क्षेत्र में मिलने वाले पुरस्कारों के नाम “अर्जुन”, “द्रोणाचार्य” आदि भी हिन्दू धर्मग्रंथों से लिए गए हैं. मध्यप्रदेश में “गो-रक्षा कानून” जैसे अनूठे कानून लागू है. अब वहाँ निचली कक्षा के बच्चों को स्कूलों, मिशिनिरियों और मदरसों में गीता पढ़ाये जाने की कोशिश की जा रही है. यहाँ यह सवाल उठाना बेकार है कि यह कृपा सिर्फ हिन्दू धर्मग्रंथों पर ही क्यूँ की जा रही है? ईसाई और मुस्लिम धर्म के धर्मग्रंथों पर यह कृपा क्यूँ नहीं की जा रही?जब नरेन्द्र मोदी खुद के हिन्दू राष्ट्रवादी होने की घोषणा करते है तो हम भारतीयों को आश्चर्य नहीं होता क्योंकि यह देश तो पहले ही आधे हिन्दू-राष्ट्र में बदल चुका है. सावरकर और गोलवलकर के “हिन्दू-राष्ट्र” की संकल्पना को यथार्थ में बदलने की पूरी कोशिश की जा रही है.

दुर्भाग्य है कि बुद्धजीवियों और वैज्ञानिकों का एक वर्ग आधे-अधूरे और बेबुनियाद तथ्यों के आधार पर हिन्दू मिथकों को स्थापित करने और हिंदूत्व का प्रचार-प्रसार करने का प्रयास कर रहा है. हाल ही में मीडिया और विज्ञान के भगवाकरण का एक बेमिसाल उदाहरण देखने को मिला. दिनांक 29-07-2013, सोमवार के दैनिक भास्कर, झारखंड संस्करण में पृष्ठ संख्या 12 को ‘सोमवारी’ विशेष पृष्ठ बना दिया गया था[1]. दूसरे पृष्ठों पर भी श्रावण महीने में शिव अराधना और सोमवारी से जुड़ी ख़बरें हैं, लेकिन इस विशेष पृष्ठ पर “विशेषज्ञ” शिव और शिव-अराधना के महत्व का बखान कर रहे हैं. एक विशेषज्ञ जहाँ शिव की उपासना विधि बता रहे है वहीँ दूसरी तरफ एक दूसरे विशेषज्ञ यह दावा कर रहे है कि “शिवजी की उपासना से अपमृत्यु योग से मिल सकता है छुटकारा”. इस तरह के विशेष पृष्ठ और विशेषज्ञ विश्लेषण दूसरे धर्मो के त्योहारों के लिए नहीं दिखते हैं.

सबसेदिलचस्प लेख तो इस पृष्ठ के निचले भाग पर “एक वैज्ञानिक विश्लेषण” के रूप में है. शायद अखबार ने दूसरे लेखों की अवैज्ञानिकता को संतुलित करने के लिए इस “वैज्ञानिक विश्लेषण” को जगह दी है. हालांकि यह लेख भी दूसरे लेखों की ही तरह अवैज्ञानिक है. इस लेख का शीर्षक है “न्यूक्लियर रिएक्टर की बनावट है शिवलिंग के जैसा”. आश्चर्य नहीं कि इस तरह के बेसिरपैर की खबरों के कारण हिंदी मीडिया की यह दुर्गति हुई है. इस लेख को लिखने वाले रांची के एक जाने माने भूवैज्ञानिक डॉ. नीतीश प्रियदर्शी है. उन्होंने शिवलिंग और परमाणु संयंत्र में समानता स्थापित करने के लिए अजीबोगरीब तथ्य दिए हैं. जैसे कि परमाणु संयंत्र और शिवलिंग की सरंचना बेलन कीतरह होती है. यह साबित करने के लिए लेखक ने भाभा परमाणु संयंत्र का उदाहरण दिया है. लेकिन लेखक यह बताना भूल गए कि विश्व के लगभग सभी परमाणु संयंत्रों की बनावट बेलन की तरह ही होती है. 

इससेयह साबित नहीं हो जाता कि परमाणु संयंत्रों का शिवलिंग से कोई रिश्ता है. अगर ऐसा होता तो परमाणु संयंत्र का आविष्कार विदेश की जगह भारत में किसी शिवभक्त ने किया होता. ऐसे कामचलाऊ विश्लेषण को वैज्ञानिक विश्लेषण बोल कर आप खुद अपनी फ़जीहत करवा रहे है. लेखक आगे कहते है कि नाभिकीय संयंत्र में भी जल का प्रयोग किया जाता है और शिवलिंग पर भी जल प्रवाहित की जाती है. नाभिकीय संयंत्र में जल का प्रयोग नाभिकीय छड़ों को ठंडा करने के लिए किया जाता है. वहीँ शिवलिंग पर जल के अलावा दूध भी डाला जाता है, लेकिन ये सब शिवलिंग को ठंडा करने के लिए तो नहीं किया जाता. लेखक महोदय भी ऐसा कोई दावा करते नज़र नहीं आते.
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यहलेख बेबुनियाद तथ्यों और सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है, जिसका एक ही उद्देश्य है- हिन्दू धर्म और इसके “इतिहास” की श्रेष्ठता को साबित करना. लेखक "स्यामंतक" नाम के किसी “रेडियोएक्टिव” पत्थर का जिक्र भी करते है जो सोमनाथ मंदिर में हुआ करता था. लेखक ने यह बताने की जरुरत नहीं समझी कि उस “रेडियोएक्टिव” पत्थर के संपर्क में आने वाले लोग कैंसर का शिकार होकर मरे थे या नहीं?

डॉ.नीतीश प्रियदर्शी के ब्लॉग पर और भी दिलचस्प चीजें मिलती हैं. इस लेख के अखबार में छपने के दिन ही डॉ. नीतीश प्रियदर्शी अपने ब्लॉग पर एक स्लाइड शो डालते है. प्राचीन “भारतीय” संस्कृति में नाभिकीय हथियारों के प्रयोग पर उनके शोध पर आधारित लगभग तेरह मिनट की इस स्लाइड शो का नाम है “डीड इंडिया हैव द एटॉमिक पॉवर इन एन्शिएन्ट डेज?” (क्या भारत के पास प्राचीन काल में परमाणु शक्ति थी?)[2]. अपने शोध से वह यह निष्कर्ष निकालते हैं कि महाभारत के युद्ध में नाभिकीय हथियारों का प्रयोग हुआ था. वह अपने इस इस स्लाइड शो की शुरुआत कणाद द्वारा अणु के अस्तित्व को लेकर खोज से करते है. इस स्लाइड शो में वह हिन्दू धर्मग्रंथों से ऐसे हथियारों के उदाहरण देते है जिसका नाभिकीय हथियारों से कोई संबन्ध नहीं दिखता. जैसे राम द्वारा शिव का बाण तोड़ा जाना, मोहनास्त्र, आग्नेयास्त्र, ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, इंद्र का वज्र, आदि. 

इस स्लाइड शो में पौराणिक कथाओं के नागास्त्र, जिसके प्रयोग से नागों की बारिश होती थी, के जैविक हथियार होने की संभावना व्यक्त की गयी है. डॉ. नीतीश प्रियदर्शी यहाँ हिन्दू संस्कृति की महानता और श्रेष्ठता सिद्ध करने के चक्कर में कुछ जरुरी सवालों का जवाब देना भूल जाते हैं. क्या इन अस्त्रों में नाभिकीय पदार्थों का प्रयोग हुआ था? सिर्फ कुछ मन्त्रों के सहारे आप नाभिकीय अस्त्र कैसे बना सकते है? अगर महाभारत के युद्ध में नाभिकीय हथियारों का प्रयोग हुआ भी था तो पांडव और दूसरे लोग जीवित कैसे बच गए? अगर कोई जीवित बचा भी तो विकिरण का प्रभाव आनेवाली पीढ़ियों पर रहता, कई तरह की अनुवांशिक बीमारियाँ और विकृतियाँ होती. जिस कुरुक्षेत्र में इन नाभिकीय हथियारों का इस्तेमाल हुआ था, वह जगह रहने लायक नहीं रहती, विकिरण का प्रभाव हजारों सालों तक रहता है. इन ग्रंथों में परमाणु हथियार या परमाणु संयंत्र बनाने की विधि लिखी होनी चाहिए थी. 

अपनेइस शोध में डॉ. नीतीश प्रियदर्शी ने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की संस्कृति को भी नहीं छोड़ा है जिनका हिन्दू सभ्यता-संस्कृति से कोई रिश्ता नहीं है. इस स्लाइड शो के अंत में डॉ. नीतीश प्रियदर्शी अपने इस शोध की जिम्मेदारियों से खुद को बचाते हुए नज़र आते है. वह बड़ी चालाकी से यह कह कर निकल जाते है कि इस शोध से उन्होंने कुछ साबित करने की कोशिश नहीं की है, यह शोध उन्होंने कुछ इंटरनेट वेबसाइटों और किताबों की मदद से किया है. हालांकि वह उन इंटरनेट वेबसाइटों और किताबों का कोई संदर्भ नहीं देते है. डॉ. नीतीश प्रियदर्शी इन धर्मग्रंथों का वैज्ञानिक और तार्किक विश्लेषण करने की जगह इनका महिमामंडन करते दिखते है.

डॉ. नीतीश प्रियदर्शी अपने एक दूसरे हालिया “शोध” में झारखंड के आदिवासी गाँवों में राम-लक्ष्मण के “पद-चिन्ह” खोज रहे है, जिसकी खबर झारखंड के एक अंग्रेजी अखबार ने छापी है.[3]उनके इस “शोध” का तरीका भी हिन्दू धर्मग्रन्थों के अध्ययन तक सीमित है.  इस “शोध” में वह गाँव में प्रचलित महाभारत और रामायण से जुड़ी किवदंतियों का जिक्र भी करते है. यहाँ पेंच यह है कि आदिवासियों के खुद के आदि-धर्म हैं, उनका हिन्दू धर्म से कोई लेना-देना नहीं तो फिर ये महाभारत और रामायण की किवदंतियाँ कहाँ से आई? इस बाबत जब डॉ. नीतीश प्रियदर्शी से सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि वह भूवैज्ञानिक है और वहाँ पत्थरों और “पद-चिन्हों” पर शोध करने गए थे, उन्होंने गाँववालों से ज्यादा बातचीत नहीं की.

“अल्पसंख्यक तुष्टिकरण”जैसे जुमलों को उछालने वाले यह आसानी से भूल जाते हैं कि इस देश में बहुसंख्यक धर्म का तुष्टिकरण कैसे कई स्तरों पर होता रहता है. इस मामले में मीडिया, बुद्दिजीवी, प्रशासन तो अपनी भूमिका निभाते ही हैं, यहाँ तक कि अदालतें भी कई बार हिन्दू मिथकों के आधार पर फैसलें सुनाती है. 
 संदर्भ:[1] http://epaper.bhaskar.com/ranchi/109/29072013/jarkhand/12/[2] http://nitishpriyadarshi.blogspot.in/2013/07/did-india-have-atomic-power-in-ancient.html[3]http://www.telegraphindia.com/1130812/jsp/jharkhand/story_17221656.jsp 
अतुल, रांची से जनसंचार में स्नातक करने के बाद 
अभी टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (TISS), मुंबई 
से मीडिया में स्नातकोत्तर कर रहे है.
इनसे संपर्क का पता है- thinker.atul@gmail.com

राजस्थान में चुनावों से पहले पत्रकारों को लैपटॉप का तोहफा

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विनय सुल्तान
-विनय सुल्तान
"...बहरहाल तमाम बहस के बावजूद आप छात्रों में लैपटॉप वितरण को एक बार स्वीकार भी कर लें पर चुनावी साल में पत्रकारों को एक साथ लैपटॉप बांटना कैसे पचा पाएंगे। राजस्थान की गहलोत सरकार ने यह कमाल कर दिखाया है। सरकार ने पंद्रह सौ सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकारों की सूचि जारी की है जिन्हें मुफ्त लैपटॉप दिए जाने की घोषणा की गई है। इससे पहले पत्रकारों के लिए औने-पौने दामो पर आवासीय भूखंडो का वितरण अजमेर और जयपुर में हुआ है. अचानक चुनावी साल में बेचारे झोलाछाप पत्रकारों पर महान मुख्यमंत्री की  इस असीम अनुकम्पा का कारण क्या साफ़ नजर नहीं आता?..." 

शासक वर्ग विकास के उन्ही पैमानों को गढ़ता या मान्यता देता है जिसमे उसके हित निहित हों। मसलन यदि सड़क बनाने में उसका फायदा है तो वो अच्छी सड़को को विकास के पैमाने के रूप में प्रचारित करेग। वाजपेयी सरकार के समय जिस धुँआधार गति से सड़को का निर्माण हुआ था वो आम जनता से अधिक सत्तापोषित निर्माण क्षेत्र के दैत्यों के हित में था। इतिहास के पन्ने पलटने पर हम देखते हैं दूरसंचार और रेल परिवहन का शुरुवाती विकास भारतियों को सभ्य बनाने के नाम पर साम्रराज्यवादी सत्ता को मजबूत करने के लिए हुआ। 
          
मेधावी छात्रो को लैपटॉप देना स्वागतयोग्य कदम है। सूचना क्रांति की जड़ में जितने अधिक लोग आएंगे यह सूचनाओं के लोकतंत्रीकरण के लिए उतना ही बेहतर होगा। लेकिन क्या छात्रो को लैपटॉप बाँट देने को विकास का पर्याय बनाया जा सकता है? एक उदहारण से अपनी बात स्पष्ट करता हूँ। अखिलेश सरकार द्वारा लैपटॉप वितरण के २ रोज बाद ही दैनिक अखबारों में खबर आती है की बच्चे लैपटॉप बेचने के लिए दुकानों पर पहुचने लगे। लैपटॉप उनके जीवन की बुनियादी जरुरत नहीं है।सूचना क्रांति से जुड़ने से ज्यादा महत्वपूर्ण मसाला  उनके लिए स्कूल बैग, वर्दी और स्टेशनरी है। लेकिन सत्ता के लिए लैपटॉप बांटना फायदे का सौदा है।  सरकारें ये सोचती हैं की जनता लैपटॉप और चुनावी साल की आर्थिक सहायताओं की चकाचौंध में पड़ कर उनको कायम रखेगी। इससे शिक्षा और रोजगार जैसे बुनियादी मसलों से मुठभेड़ यदि टाली जा सके तो इससे अधिक फायदेमंद उनके लिए क्या हो सकता है? इस लिए अब उत्तर प्रदेश से शुरू हो कर राजस्थान, मध्य-प्रदेश, असाम जैसे पिछड़े और बीमारू राज्यों में विकास की डिजिटल इबारत लिखी जा रही हैं। यहाँ सीधा सा सवाल यह खड़ा होता है की विकास किसे माना जाए, स्तरीय मुफ्त सार्वभौम शिक्षा को या फिर मुफ्त लैपटॉप वितरण को जिसका बड़ा हिस्सा निजी स्कूल में पढ़े सुविधा संपन्न तबके के छात्रों के पास जा रहा है?
        

बहरहालतमाम बहस के बावजूद आप छात्रों में लैपटॉप वितरण को एक बार स्वीकार भी कर लें पर चुनावी साल में पत्रकारों को एक साथ लैपटॉप बांटना कैसे पचा पाएंगे। राजस्थान की गहलोत सरकार ने यह कमाल कर दिखाया है। सरकार ने पंद्रह सौ सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकारों की सूचि जारी की है जिन्हें मुफ्त लैपटॉप दिए जाने की घोषणा की गई है। इससे पहले पत्रकारों के लिए औने-पौने दामो पर आवासीय भूखंडो का वितरण अजमेर और जयपुर में हुआ है. अचानक चुनावी साल में बेचारे झोलाछाप पत्रकारों पर महान मुख्यमंत्री की  इस असीम अनुकम्पा का कारण क्या साफ़ नजर नहीं आता? 
          
लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ मीडिया को माना जाता रहा है. क्योंकि जनमत निर्माण में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है।  ऐसे में सरकारें हमेशा मीडिया को खरीद लेने के प्रयास में लगी रहती है (और इसमें ज्यादा मशक्कत की जरुरत नहीं पड़ती क्योंकि मीडिया खुद बिकने को तैयार रहती है). लोकतंत्र में मीडिया की निष्पक्षता को बनाये रखने के लिए दूसरे प्रेस आयोग ने अपनी सिफारिशों में सख्त लहजे में कहा था कि पत्रकारों को सरकार की तरफ से मुहैय्या करवाई जाने वाली सरकारी रियायतों और सुविधाओं को बंद कर दिया जाना चाहिए। सस्ते भूखंड, रियायती दरों पर मकान और प्रेस कॉन्फ्रेंसों में मिलने वाले उपहार इन्हें किस नज़रिए से देखा जाए? क्या ये सरकार की तरफ से मीडियाकर्मियों को दी जाने वाली रिश्वत नहीं है?
           
इसबंदरबांट का एक और पहलू भी है,लैपटॉप वितरण में पत्रकारों के चुनाव का कोई निश्चित पैमाना भी नहीं तय है. राजस्थान के एक बड़े अख़बार के मालिक के परिवार के सात सदस्यों का नाम सूचि में है। इसके अलावा कई अवकाशप्राप्त जनसंपर्क अधिकारी भी इस सूचि की शोभा बढ़ा रहे हैं। वितरण का आधार, बजट और प्रक्रिया में भारी झोल है। 

वैसेचुनावी साल होने के कारण राज्य में पिछले छः महीनो से भरपूर आर्थिक सहायता बांटी जा रही हैं। पेंशन, छात्रवृति, लैपटॉप और अन्य आर्थिक सहायताओं के नाम बेतरतीबी से खजाने खाली किये जा रहे है। इन प्रक्रियाओं में इतनी अनियमितताएं हैं कि जाँच के डर से प्रशासनिक तबका अभी से सहमा हुआ है। 
            
अपनीविजय सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक खजाने को जिस गति से खली किया जा रहा है उसके राज्य की अर्थव्यवस्था पर कैसे दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे? राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली हम सब जानते हैं। जिसमे राजस्थान बिमारू राज्यों की क़तार में खड़ा है। ऐसे में अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए जिस अश्लीलता से सार्वजनिक धन का दुरूपयोग हो रहा है वो किसकी मिल्कियत है? क्या यह उस मेहनतकश जनता की मिल्कियत नहीं जो कि माचिस की डिबिया पर भी कर की अदायगी कर रही है?   
             
आजादीमें लगभग सात दशक के बाद राजनैतिक विकास के चरण में जिस लोकतंत्र पर खड़े हैं वहां अक्सर आजादी और लोकतंत्र दोनों के बेमायने हो जाते हैं। चुनाव हमारे यहाँ वोट खरीदने की मंडी बनते जा रहे हैं।साथ ही जिस तेजी से ये प्रक्रिया आगे बढ़ रही वो और अधिक चिंता का विषय है। शिक्षा, रोजगार, खाद्य-सुरक्षा, जैसे बुनियादी मुद्दे इस लोकतंत्र के इतिहास में कितने दफे बहस के मुद्दे बने। दलितों, आदिवासीयों, महिलाओं को हम कितना हिस्सा सत्ता में दे पाए? आज अगर सरकारे चुनावी साल में लोक-लुभावन वायदों और उपहारों और आर्थिक सहायताओं का इंद्रजाल बुन कर खुद कायम रखने के सपने देखती हैं और सत्तर फीसदी आबादी बुनियादी सुविधाओं से नाशाद है तो इस लोकतंत्र के बारे में फिर से सोचे जाने की जरुरत है। 

विनय, पत्रकार praxis से सक्रिय रूप में जुड़े हैं. 
इनसे  vinaysultan88@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है .

CNN IBN के बेचारे पत्रकार, लें मानेसर से सबक !

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                                                                       -दिलीप ख़ान


दिलीप खान 

"दूसरी बात ये कि न्यूज़रूम के भीतर चापलूसी की संस्कृति लगातार पसरती गई और प्रबंधन से रिसकर आने वाले लाभ में हिस्सेदारी के लिए क्रमश: ऊपर से लेकर नीचे के लोग कोशिश करने में जुट गए। ऐसे हालात में जाहिर तौर पर पत्रकारों के भीतर से मज़दूर चेतना लगभग ग़ायब हो गई। नहीं तो, मानेसर में मारुति-सुज़ुकी के मज़दूरों की तरह आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन के भी पत्रकार तंबू डालकर बाहर धरने पर बैठ जाते!"





जिसदिन आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन के पत्रकारों ने सुबह-सुबह लालक़िले से प्रधानमंत्री
द विलेन: मुकेश अंबानी
के रस्मी संबोधन और ठीक उसके बाद गुजरात से नरेंद्र
 मोदी के 'ओवर-रेटेड' भाषण के साथ भारत की स्वाधीनता की सालगिरह मनाई, तो उनमें से कई लोगों को मालूम नहीं था कि इस स्वाधीनता के ठीक बाद का अगला दिन, यानी 16 अगस्त 2013, भारतीय टीवी उद्योग के काले दिनों की सूची में शामिल होने वाला है। उनको ये नहीं मालूम था कि उनके 'त्यागपत्र' की चिट्ठी कुछ इस तरह तैयार हो चुकी है कि उस पर उसी दिन हस्ताक्षर करके झटके में सड़क पर आ जाना है। ईएमआई पर जो गाड़ी ख़रीदी थी उसकी क़िस्त के पैसे का स्रोत इस तरह अचानक बिला जाएगा, ये शायद उसने नहीं सोचा था। और वो, जो गर्भवती थीं और अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लगातार डॉक्टर के संपर्क में थीं, उनको नहीं मालूम था एक ट्रॉमा जैसी स्थिति की शुरुआत उसी दिन हो जाएगी।

फ़िल्मसिटी, नोएडा की उस गली में नीम ख़ामोशी थी, बोलते हुए लोगों के मुंह से निकल रही आवाज़ बिखरकर हवा में कहीं गुम हो जा रही थी। कोई रो रहा था, तो कोई दिलासा पा रहा था, कोई नई योजना पर विचार कर रहा था तो कोई सिगरेट के सुट्टे के साथ अपने टेंशन को हवा में कहीं दूर उड़ा देना चाहता था। लेकिन ग़ुस्सा कहीं नहीं था। मजबूरी चारों तरफ़ थी। बेचारगी का भाव था सबके चेहरे पर। निस्सहाय ढंग से दुनिया देखी जा रही थी। चारों तरफ़ जो लोग आ-जा रहे थे वो वही थे जो दूसरे उद्योगों के मुद्दे पर टीवी में ख़बर चलाते हैं। लेकिन उस दिन हर कोई जानता था कि किसी टीवी चैनल पर यह ख़बर नहीं चलने वाली। 

कोईमीडिया समूह अपने दर्शकों/पाठकों को ये नहीं बताएगा कि लगभग 350 पत्रकारों को झटके में एक ही समूह के दो बड़े टीवी चैनलों ने जबरन 'त्यागपत्र' दिलवा कर नौकरी से निकाल दिया। लेकिन जिनको निकाला गया उनके मुंह से प्रतिरोध का एक शब्द नहीं निकला। सैंकड़ों पत्रकारों में से किसी ने भी मैनेजमेंट के बनाए गए त्यागपत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार नहीं किया! वजह क्या है? किस चीज़ का डर है? दैनिक भास्कर ने हाल ही में दिल्ली की एक पूरी टीम को निकालने का फ़ैसला लिया। ठीक इसी तरह उसमें भी त्यागपत्र तैयार किया गया था। 16 में से दो पत्रकारों, जितेन्द्र कुमार और सुमन परमार, ने उस पर हस्ताक्षर नहीं किए। भास्कर ने उन दोनों को 'निकाल' दिया। फ़र्क सिर्फ़ इतना रहा कि उन दोनों को बाक़ी पत्रकारों की तरह अगले कुछ महीनों का अग्रिम वेतन नहीं मिल सका, जो कि उस हस्ताक्षर से मिल सकता था। अब इन दोनों ने मामले को कोर्ट में खींचा है। शायद, टीवी-18 के इन दोनों चैनलों के पत्रकारों को 'त्यागपत्र देने' और 'निकाले जाने' का ये नज़ीर मालूम हो।

मीडियाउद्योग में प्रबंधन के ऐसे किसी भी फ़ैसले पर न तो भुक्तभोगी पत्रकार और न ही उस फ़ैसले से बच गए ईमानदार पत्रकार (बॉस के यसमैनों और प्रो-मैनेजमेंट पत्रकारों को छोड़कर) अपनी ज़ुबान खोलने की स्थिति में दिखते हैं। कारण साफ़ है। बीते कुछ वर्षों में, ख़ासकर टीवी न्यूज़ चैनलों के उगने के बाद से, मीडिया हाऊस के भीतर प्रबंधन के ख़िलाफ़ किसी भी तरह की आवाज़ को बर्दास्त करने का चलन ख़त्म हो गया है। अपनी तमाम खूबियों और क्षमताओं के बावजूद मीडिया हाऊस में टिकने की गारंटी बॉस की गुडबुक में नाम लिखा देना ही होता है। किसी भी तरह की यूनियन की सुगबुगाहट को मीडिया के भीतर तकरीबन अपराध जैसा घोषित कर दिया गया है। यूनियन को ख़त्म करने की प्रबंधन की चाह को ऊपर के पदों पर बैठे पत्रकारों/संपादकों का भी लगातार समर्थन हासिल हुआ है। 

दूसरी बात ये कि न्यूज़रूम के भीतर चापलूसी की संस्कृति लगातार पसरती गई और प्रबंधन से रिसकर आने वाले लाभ में हिस्सेदारी के लिए क्रमश: ऊपर से लेकर नीचे के लोग कोशिश करने में जुट गए। ऐसे हालात में जाहिर तौर पर पत्रकारों के भीतर से मज़दूर चेतना लगभग ग़ायब हो गई। नहीं तो, मानेसर में मारुति-सुज़ुकी के मज़दूरों की तरह आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन के भी पत्रकार तंबू डालकर बाहर धरने पर बैठ जाते!

राघव बहल
लेकिनमामला इतना सपाट भी नहीं है। मसला ये है कि जिस तरह पिछले सितंबर में एनडीटीवी से निकाले गए 50 से ज़्यादा पत्रकार, दैनिक भास्कर से 16 पत्रकारों, आउटलुक समूह की तीन पत्रिकाओं (मैरी क्लेयर, पीपुल इंडिया और जियो) के बंद होने से पीड़ित 42 पत्रकार झटके में बेरोज़गार हुए, वो अपनी बाक़ी की ज़िंदगी कहां गुजारेंगे? क्या वो पत्रकारिता को अलविदा कह देंगे? शायद नहीं। वो एक ग्रुप से दूसरे ग्रुप का रुख करेंगे। वो उस समूह में कोशिश करेंगे, जहां उन्हें लगेगा कि नौकरी की गुंजाइश शेष है। बस यहीं पर दोतरफ़ा मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। पहला, अगर दूसरे समूह में नौकरी करनी है तो उसके प्रबंधन को लड़ाकू पृष्ठभूमि वाले पत्रकार की डिग्री आपके रिज़्यूमे के साथ नहीं चाहिए। सो अपने रिज़्यूमे को दुरुस्त रखने के लिए आपको ऐसे किसी भी प्रतिरोध से ख़ुद को हर संभव अवसर तक बचाए रखना ज़रूरी है। दूसरा, जिसे आप 'दूसरा समूह' समझ रहे हैं, असल में उनमें से कई 'दूसरा' है ही नहीं। 

मीडिया कॉनसॉलिडेशन, मर्जर और क्रॉस मीडिया ओनरशिप का जो पैटर्न भारत में है उसमें निवेशकों को ये छूट मिली हुई है कि वो एक साथ कई चैनलों, अख़बारों, पत्रिकाओं, पोर्टलों, रेडियो और डीटीएच में पैसा लगा सके। मुकेश अंबानी जैसे बड़े निवेशकों ने तो मीडिया में गुमनाम तरीके से निवेश का नया अध्याय शुरू किया है, जिसमें वो अपने दूसरे भागीदारों के मार्फ़त पैसा लगाते हैं। जिन दो चैनलों में निकाले गए पत्रकारों से बात शुरू की गई थी, उसमें भी अंबानी के निवेश का क़िस्सा दिलचस्प है। 2007-08 में जब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी की नीतियों के दबाव में अमेरिकी कंपनी ब्लैकस्टोन ने इनाडु समूह की फादर कंपनी उषोदया इंटरप्राइजेज में से अपने 26 फ़ीसदी शेयर खींच लिए, तो इस कंपनी की हालत बेहद पतली हो गई थी। तभी जे एम फायनेंसियल के अध्यक्ष नीमेश कंपानी ने ई टीवी चलाने वाली उषोदया इंटरप्राइजेज में 2,600 करोड़ रुपए लगातर कंपनी को डूबने के बचा लिया। बाद में पता चला कि कंपानी के मार्फ़त यह निवेश असल में अंबानी का है। दरअसल मुकेश के साथ नीमेश कंपानी का पुराना संबंध है। 

रिलायंस के बंटवारे के बाद जब पेट्रोलियम ट्रस्ट बनाया गया तो नीमेश कंपनी और विष्णुभाई बी. हरिभक्ति उसके ट्रस्टी थे। नागार्जुन फायनेंस घोटाले के बाद जब नीमेश कंपानी को ग़ैर-जमानती वारंट निकलने के कारण देश छोड़कर भागना पड़ा, तब जाकर मालिक के तौर पर अंबानी का नाम खुलकर सामने आया। बाद में टीवी-18 के मालिक राघव बहल ने मुकेश अंबानी से उस ईटीवी समूह को ख़रीद लिया। इस ख़रीद पर 2,100 करोड़ रुपए ख़र्च करने के बाद बहल पर आर्थिक बोझ इतना ज़्यादा हो गया कि उनके पुराने चैनल, आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन सहित सीएनबीसी आवाज़ को चलाने में दिक़्क़त आने लगी। जब इस बोझ ने राघव बहल को पस्त कर दिया, ठीक तभी मुकेश अंबानी ने एक बार फिर एंट्री मारी और इसमें 1,600 करोड़ रुपए लगाकर समूह को बचा लिया। यानी पहले अंबानी ने ईटीवी ख़रीदा फिर उसे राघव बहल को बेच दिया और राघव बहल को जब टीवी-18 को चलाने में मुश्किलें आने लगीं तो उसमें फिर पैसे लगा दिए! इसके बाद राघव बहल ने सार्वजनिक तौर पर दावा किया था कि अब उनका समूह बुलंद स्थिति में पहुंच गया है। पूरी घटना को महज डेढ़ साल हुए हैं। इस डेढ़ साल में ही टीवी-18 समूह ने कटौती के नाम पर पत्रकारों को निकाल दिया!

अब सवाल है कि पत्रकारों के निकाले जाने के कारण क्या हैं? जो दावे छनकर लोगों तक पहुंच रहे हैं उनमें कुछ निम्नलिखित हैं-
1. टीवी-18 समूह घाटे में है और कंपनी इससे उबरना चाहती हैं।
2. ट्राई ने अक्टूबर 2013 से एक घंटे में अधिकतम 10 मिनट व्यावसायिक और 2 मिनट प्रोमोशनल विज्ञापन दिखाने का दिशा-निर्देश दिया है। लिहाजा टीवी चैनल का राजस्व कम हो जाएगा।
3. हिंदी और अंग्रेज़ी में एक ही जगह पर रिपोर्टिंग के लिए अलग-अलग पत्रकारों (संसाधनों) को भेजने से लागत पर फ़र्क़ पड़ता है जबकि कंटेंट में कोई ख़ास बढ़ोतरी नहीं होती।

सच्चाईये है कि ये तीनों ही झूठे और खोखले हैं। टीवी-18 की बैलेंस शीट पहले दावे को झुठलाती है। वित्त वर्ष 2012-2013 में टीवी-18 समूह को 165 करोड़ रुपए का सकल लाभ हुआ है। बीते साल यही आंकड़ा 75.9 करोड़ रुपए का था। यानी एक साल में इस समूह ने अपना मुनाफ़ा दोगुना कर लिया है। 1999 में जब सिर्फ़ सीएनबीसी-18 और सीएनबीसी आवाज़ चैनल थे तो इस समूह का कुल राजस्व महज 15 करोड़ रुपए का था।  2005 में आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन की शुरुआत के समय इसका कुल राजस्व 106 करोड़ रुपए का था। यानी 10 साल पहले इस समूह का जितना राजस्व था उससे ज़्यादा मुनाफ़ा इसने अकेले बीते साल कमाया है। 

यहतर्क अपने-आप में खोखला है कि इन दोनों चैनलों पर लागत कम करने की ज़रूरत कंपनी को महसूस हो रही है। 2005 में 106 करोड़ रुपए वाली कंपनी का राजस्व इस समय 2400.8 करोड़ रुपए है। 24 गुना विस्तार पाने के बाद अगर मालिक (मैनेजमेंट) की तरफ़ से घाटे और कटौती की बात आ रही है तो झूठ और ठगी के अलावा इसे और क्या कहा जा सकता है? दिलचस्प ये है कि ये सारे आंकड़े खुद अपनी बैलेंस शीट में टीवी-18 समूह ने सार्वजनिक किए हैं। जहां तक ऑपरेटिंग लॉस की बात है, तो वो भी पिछले साल के 296 करोड़ के आंकड़े से घटकर 39 करोड़ रुपए पर आ ठहरा है। यानी लागत में और ज़्यादा कटौती की कोई दरकार काग़ज़ पर नज़र नहीं आती। अगर हम इस समूह के मनोरंजन चैनलों को हटा दें और सिर्फ़ सीएनबीसी टीवी18, सीएनबीसी आवाज़, सीएनएन-आईबीएन और आईबीएन-7 की बात करे, तो भी आंकड़े मैनेजमेंट की दलील से मेल नहीं खाते। वित्त वर्ष 2011-12 में इन चारों चैनलों को टैक्स चुकाने के बाद 9.2 करोड़ रुपए का मुनाफ़ा हुआ था जबकि यही आंकड़ा 2012-13 में घटने की बजाय बढ़कर 10.2 करोड़ रुपए जा पहुंचा। कहां है घाटा? कहां है कटौती की दरकार?

राजस्व का ग्राफ देखिए! [ताज़ा आंकड़ा 2400.8 करोड़ रुपए का  है]


अब आते हैं दूसरे दावे पर। ट्राई ने जब चैनलों को विज्ञापन प्रसारित करने के संबंध में दिशा-निर्देश जारी किया तो उसमें ये साफ़ कहा गया था कि यह कोई नया क़ानून नहीं है, बल्कि केबल टेलीविज़न नेटवर्क्स रूल्स 1994 के तहत ही वो चैनलों को ये हिदायत दे रहा है। इससे महत्वपूर्ण यह है कि ट्राई ने साल भर पहले ही सारे चैनलों को ये चेतावनी दे दी थी कि वो यह बाध्यता लाने जा रहा है। अक्टूबर 2013 से ट्राई ने इसे किसी भी हालत में लागू करने की बात कही थी। लेकिन चैनलों की संस्थाओं की तरफ़ से सूचना प्रसारण मंत्रालय में लगातार संपर्क साधा गया और ताज़ा स्थिति ये है कि मंत्रालय सिद्धांत रूप से इस बात पर तैयार हो गया है कि इसे अक्टूबर 2013 से टालकर दिसंबर 2014 कर दिया जाए। इस समय न्यूज़ चैनलों में एक घंटे में औसतन 20-25 मिनट तक विज्ञापन दिखाए जाते हैं। अब सवाल ये है कि चैनलों को इस पर आपत्ति क्या है? पहली आपत्ति ये है कि चूंकि भारतीय टेलीविज़न इंडस्ट्री का रेवेन्यू मॉडल कुछ इस तरह का है कि इसकी 90 फ़ीसदी आमदनी का स्रोत विज्ञापन है। सिर्फ़ 10 प्रतिशत आमदनी सब्सक्रिप्शन से आ पाती है। 

इसव्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए डिजिटाइजेशन का विकल्प लाया गया। इसमें तकरीबन हर टीवी चैनल की स्वीकृति हासिल थी। डिजिटाइजेशन का एक चरण पूरा हो चुका है और दूसरे चरण का काम दिसंबर 2014 तक ख़त्म करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। डिजिटाइजेशन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद आमदनी के लिए चैनलों की निर्भरता विज्ञापन पर कम हो जाएगी और सब्सक्रिप्शन से होने वाली आय ज़्यादा हो जाएगी। शायद डिजिटाइजेशन पूरी नहीं होने की वजह से ही मंत्रालय ने दिसंबर 2014 तक ट्राई के फैसले को टालने की बात कही है, क्योंकि यही डिजिटाइजेशन की भी डेडलाइन है। अब अगर विज्ञापन में 12 मिनट की कड़ाई का नियम अगले डेढ़ साल के लिए टल जाता है तो इसको आधार बनाकर पत्रकारों को निकाला जाना सराकर बेईमानी और धोखा है। दूसरी बात, विज्ञापन की समय-सीमा कम होने से विज्ञापन की दर में भी उछाल आएगा और इस तरह 25 मिनट में जितने पैसे वसूले जाते हैं कम-से-कम उसका 70 फ़ीसदी पैसा तो 10 मिनट के विज्ञापन में वसूले ही जा सकते हैं।
'अन्ना क्रांति' पर किताब विमोचन के वक़्त
लेखक आशुतोष (बाए से दूसरे) और
राजदीप सरदेसाई (दाएं से दूसरे)

अबतीसरा तर्क। पत्रकारिता के लिहाज से यह ऊपर के दोनों तर्कों के बराबर और कई मायनों में उससे ज़्यादा विकृत तर्क है। यह एक बड़ी आबादी का निषेध करता हुआ तर्क है जोकि द्विभाषिया नहीं है। यह भाषा को माध्यम के बदले ज्ञान करार दिए जाने का तर्क है। यह एक ऐसा तर्क है जिसका एक्सटेंशन प्रिंट में नवभारत टाइम्स का हुआ। हिंदी और अंग्रेज़ी में अलग-अलग पत्रकारों के बदले एक ही पत्रकारों से दोनों की रिपोर्टिंग और पैकेजिंग कराने की बात असल में उस भाषाई संस्कार और जातीयता को सिरे से दबा जाती है। भाषाई खिचड़ी का जो तेवर टीवी चैनलों ने अबतक हमारे सामने पेश किया है उसे और ज़्यादा गड्ड-मड्ड करने की कोशिश है ये। नवभारत टाइम्स का सर्कुलेशन इस प्रयोग से बढ़ने की बजाय घटा है। तो ऐसा नहीं है कि इससे लागत कम हो जाएगी। और इस मुद्दे पर तो कम-से-कम भाषाई विमर्श तक खुद को महदूद कर लेने वाले बड़े पत्रकारों/संपादकों को मुंह खोलना ही चाहिए। सीएनएन-आईबीएन और आईबीएन-7 की ये परिपाटी अगर बाज़ार में और ज़्यादा फॉलो की गई तो इसी तर्ज पर आज-तक और हेडलाइंस टुडे भी छंटनी कर सकता है।

मुकेशअंबानी या राघव बहल किसी भी तरह के घाटे में नहीं है। मीडिया अगर उनके लिए घाटे का सौदा होता तो मुकेश अंबानी अभी एपिक टीवी में 25.8 प्रतिशत शेयर नहीं ख़रीदे होते। इस नए चैनल में मुकेश के बराबर ही आनंद महिंद्रा ने भी 25.8 प्रतिशत शेयर ख़रीदे हैं। चार साल तक डिज़्नी इंडिया के हेड रहने वाले महेश सामंत इसकी कमान संभालने वाले हैं। सामंत साहब इससे पहले जॉनसन एंड जॉनसन कंपनी में लंबी पारी खेल चुके हैं। जाहिर है पत्रकारिता से उनका कोई वास्ता नहीं है। उनके लिए कंटेंट कैसे महत्वपूर्ण हो सकता है? पत्रकारों की चिंता उन्हें क्यों होगी? और ग़ौरतलब यह है कि भारतीय मीडिया उद्योग के लिए ऐसी मालिकाना संरचना कोई नई परिघटना नहीं है। 1950 के दशक में पहले प्रेस आयोग ने अपनी सिफ़ारिश में लिखा था, "अख़बारों का आचरण अब न तो मिशन और न ही प्रोफेशन जैसा रह गया है, यह पूरी तरह उद्योग में तब्दील हो चुका है। इसका मालिकाना हक़ अब उन लोगों के हाथों में आ गया है जिन्हें पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है, यहां तक कि कोई पृष्ठभूमि भी नहीं है। इसलिए उनका आग्रह अब किसी भी तरह की बौद्धिक चीज़ों में नहीं है, बल्कि वो ज़्यादा-से-ज़्यादा मुनाफ़ा बटोरना चाहते हैं।" (अध्याय-12, पेज 230)

तेरा क्या होगा कालिया?
जाहिरहै ये मालिकानों की नीयत में आया बदलाव नहीं है। उनका ध्येय बिल्कुल साफ़ है। वो किसी भी हद तक जाकर अपना मुनाफ़ा बढ़ाना चाहते हैं। अब आख़िरी सवाल। जिन पत्रकारों की छंटनी हुई है उनकी चुप्पी का संदेश क्या है? एक कारण शुरू में ही बताया गया है कि मीडिया में प्रतिरोधी आवाज़ का मतलब बाकी मीडिया घरानों में भी अपनी संभावित नौकरी से हाथ गंवाना है। लेकिन, उनमें से कुछ फेयरवेल पार्टी के बाद सुख-दुख के भाव को तय नहीं कर पा रहे। बड़े पदों पर रहे लोगों को एकमुश्त 5-10 लाख रुपए मिल गए। इस स्थिति को कुछ लोग 'ठीक है' की शक्ल में टालना चाहते हैं। बाकी कुछ ऐसे लोग हैं जो चाहते हैं कि उनको लेकर विरोध तो दर्ज़ हो, लेकिन उसमें उनके हस्ताक्षर न हो। अपना पूरा जीवन मज़दूर विरोधी ख़बरों को लिखने-दिखाने में लगाने वाले ऐसे लोगों के साथ कोई हमदर्दी भी मुश्किल से दिखाई जा सकती है जोकि रैली या आंदोलन को 'जाम' के फ्लेवर में टीवी स्क्रीन पर परोसने में आनंद पाते हों। लेकिन इन सबके बावज़ूद अगर व्यापक चुप्पी बाहर वालों की तरफ़ से भी बरकरार रही तो ये साफ़ हो जाएगा कि पत्रकारों से ज़्यादा कमज़ोर, लोलुप और असुरक्षित क़ौम शायद इस देश में कोई नहीं है।
                                                                           दिलीप पत्रकार हैं. अभी राज्यसभा टीवी से जुड़े हैं. 
इनसे संपर्क का पता dilipkmedia@gmail.com है.

इस 'डर के आगे'... कौन है?

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आशीष भारद्वाज

-आशीष भारद्वाज

"....छंटनी के आर्थिक वज़हों की आड़ में बड़े पूंजीपति और उनके शोहदे संपादक जो काम सबसे शिद्दत से करना चाह रहे थे, वो यही था : पत्रकारों में डर पैदा करना! नौकरी खोने का डर, फिर कहीं भी नौकरी ना मिल पाने का डर, विरोध करने पर ब्लैक-लिस्टेड हो जाने का डर! पत्रकारों के अन्दर का यही डर कॉरपोरेट घरानों को खाद-पानी देता है और फिर उगती है कॉरपोरेट मीडिया में डरते हुए काम कर रहे पत्रकारों की फ़सल! आज मीडिया में अगर दोयम दर्जे की वाहियात ख़बरों या ख़बरों की शक्ल में विज्ञापन की बहुलता है तो इसके पीछे भी डरे हुए पत्रकारों की भूमिका है..." 


The Scream by Edvard Munch. 
क ही झटके में तकरीबन साढ़े तीन सौ पत्रकारों की छंटनी ने दिल्ली के पत्रकारों को अन्दर और बाहर से हिला कर रख दिया है. जब एक-एक करके पत्रकार, कैमरामैन और अन्य कर्मचारियों को मैनेजमेंट अन्दर बुलाकर इस्तीफे पर दस्तख़त करवा रहा था, दफ़्तर के अन्दर एक मायूस सा सन्नाटा पसरा हुआ था. जो बच गए और बचा लिए गए, उनके अन्दर भी वही डर पैबस्त था, जो निकाल दिए गए लोग महसूस कर रहे थे. अन्दर के ही सूत्रों ने बताया कि स्क्रीन पर दहाड़ने वाले संपादकों के चेहरे पर मुर्दनी छाई हुयी थी और वे सर झुकाकर मैनेजमेंट वालों के पीछे लगी कुर्सियों पर धंसे हुए थे. 
ऐसे अद्भुत पत्रकार-संपादकनुमा अदाकार ही इस कॉरपोरेट मीडिया के वो स्पिन-मैनेजर हैं जिनकी सहमति से सैंकड़ों पत्रकारों को पलक झपकते सड़क पर उतार दिया गया. जैसे भेड़ के वेश में भेड़िया होता है, वैसे ही ये पत्रकार के वेश में मालिक या मालिकों के दलाल है! मुनाफ़ा निचोड़ने के लिये ये किसी भी हद तक जा सकते हैं. सरोकार इनके लिये एक वर्जित शब्द है और डर पैदा करना इनका पसंदीदा शगल. सन्दर्भ और हैं जिन पर चर्चा हो सकती है पर मेरा सुझाव है कि छंटनी की घटना को इसी सन्दर्भ में समझा जाना चाहिये. 

छंटनी के आर्थिक वज़हों की आड़ में बड़े पूंजीपति और उनके शोहदे संपादक जो काम सबसे शिद्दत से करना चाह रहे थे, वो यही था : पत्रकारों में डर पैदा करना! नौकरी खोने का डर, फिर कहीं भी नौकरी ना मिल पाने का डर, विरोध करने पर ब्लैक-लिस्टेड हो जाने का डर! पत्रकारों के अन्दर का यही डर कॉरपोरेट घरानों को खाद-पानी देता है और फिर उगती है कॉरपोरेट मीडिया में डरते हुए काम कर रहे पत्रकारों की फ़सल! आज मीडिया में अगर दोयम दर्जे की वाहियात ख़बरों या ख़बरों की शक्ल में विज्ञापन की बहुलता है तो इसके पीछे भी डरे हुए पत्रकारों की भूमिका है. 

पत्रकारकाम करना भी चाहें तो उन्हें हतोत्साहित किया जाता है. जुमला चलता है कि “कृपया ज्ञान ना बाँटें-यहाँ सब ज्ञानी हैं!” अब इन्हें कौन समझाए कि ज्ञान बांधता नहीं, मुक्त करता है-निर्भीक बनाता है. मालिकों का सीधा समीकरण ये है कि पढने-लिखने और काम करने की आज़ादी देने की बजाय एक “फीयर साइकोसिस” में काम कराया जाय. इसी शाश्वत-सनातन डर की पृष्ठभूमि में पत्रकारों का एक बड़ा हिस्सा मुख्यधारा की मीडिया में काम करने को मजबूर है. पिछले दो दशकों में हमारे मुल्क की गति भी ऐसी ही रही है. पत्रकारिता से इतर भी तकरीबन हर सेक्टर में काम कर रहे नौजवानों में यही “इनबिल्ट डर” काम कर रहा है. 

अपनेचारों तरफ देखते हुए महसूस होता है मानो हम डरे हुए नौजवानों के मुल्क में रह रहे हों. जहाँ हर तरफ डर और खामोशी हो. मानो नौजवानों में ज़िन्दगी और भरोसे का कोई मतलब ना बच गया हो. दो जून की रोटी जुगाड़ने के लिए अपने हौसले और आत्मसम्मान को गिरवी रख देने का चलन इस “नव-उदार भारत” के नौजवानों के दैनिक जीवन का हिस्सा हो चला है. ये देख-समझकर कर घबराहट होती है कि आने वाले दौर में जब हर तरह का दमन और शोषण और बढ़ने की ही संभावना है, तब नौजवान क्या अपनी ज़िन्दगी और अपने मुल्क को बचाने भी सामने नहीं आयेंगे? या फिर वही नौकरी छीने जाने के बाद वाली चुप्पी और डर का निज़ाम होगा?

जब“युवराज” ग़रीबी को महज़ एक मानसिक स्थिति बता रहे हों, मैं आपको बता दूं कि असल में डर एक “मानसिक स्थिति” है. एक ऐसी मानसिक स्थिति जिसे सिर्फ लड़ कर ही दूर किया जा सकता है. वरना ये डर नौजवानों और उनकी तमाम संभावनाओं को खतम कर देगा. एक बार डर के दायरे से बाहर कदम तो रखिये, फिर देखिये नौजवान होना कितना सुंदर होता है! इस मुल्क में अब भी बहुत कुछ ऐसा है जिस पर अम्बानी जैसों का कब्ज़ा नहीं है और उन्हीं में से एक है आपका नौजवान होना! आपका बेख़ौफ़ नौजवान होना!

आशीष आईआईएमसी में पत्रकारिता अध्यापन में हैं.
इनसे ashish.liberation@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

IBN 7 और CNN-IBN में छंटनी के विरोध में जुटें आज...

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प्रेस विज्ञप्ति 

  • पत्रकारिता और पत्रकारों के सरोकारों के लिए पत्रकार एकजुटता मंचयानी ‘Journalist Solidarity forum’का गठन
  • बुधवार 21 अगस्त को IBN 7 और CNN-IBNके दफ्तर के बाहर होगा 300 से भी अधिक पत्रकारों के निकाले जाने के विरोध में प्रदर्शन
  • समय - दोपहर 2 बजे, स्थान- IBN 7 और CNN-IBNदफ्तर, फिल्म सिटी,नोएडा सेक्टर-16.
  • विभिन्न संगठनों का समर्थन 
  • मालिकों और उनके दलाल संपादकों की मनमानी के पूरजोर विरोध और जनता के सामने उनकी असलियत उजागर करने की योजना
16 अगस्त की सुबह के पहले तक IBN 7 और CNN-IBN से निकाले गए पत्रकारों को नहीं मालूम था कि जिस कंपनी में वे बड़ी शिद्दत से काम करते हैं वे एक झटके में उन्हें निकाल बाहर करेगी. इस ग्रुप में भारी पैमाने पर छंटनी होने की सूचना एक माह पहले से ही छन-छन कर बाहर आ रही थी. लेकिन कहीं कोई हलचल नहीं थी. यहां काम करने वाले पत्रकारों में अंदेशा जरूर था कि किस-किस को निकाला जाएगा. लेकिन इस बारे में सवाल करने या प्रतिरोध की कोई ध्वनि कहीं नहीं दिख रही थी. और आखिरकार वही हुआ. 16 अगस्त को जब हटाए जाने वाले पत्रकार दफ्तर आए तो मैनेजमेंट और संपादकों की टीम ने उन्हें बुला कर बस इतना कहा कि आप इस्तिफा किस तरह देंगे- इमेल करके या प्रिंट आउट पर हस्ताक्षर करके? कंपनी की टीम ने पहले से ही इन पत्रकारों का इस्तिफ़ा तैयार कर रखा था बस हस्ताक्षर बाकी थे.

मीडियासंस्थानों की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि निकाले जा रहे किसी भी पत्रकार ने कोई सवाल नहीं किया और भारी मन से हस्ताक्षर कर गए. सबमें बस यही डर था कि कहीं उनके बकाए पैसे या रिलैक्शेसन मनी में भी अडंगा न डाल दिया जाए. या यही नौकरी तो जा ही रही है,सवाल करने या प्रतिरोध करने पर कहीं उन्हें टारगेट न कर लिया जाए और बाकी संस्थानों में भी नौकरी न मिले. इस बात से साफ है कि मीडिया संस्थानों में काम कर रहे लोगों की रीढ़ कैसे तोड़ दी गई है. जहां एक सवाल करने की तक कि आज़ादी नहीं उसकी हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है. इससे पहले भी ऐसा ही होता आ रहा है. पिछले 10 सालों में सुनियोजित तरीके से जबरन इस्तिफ़ा लेकर या बंदी करके हजारों मीडियाकर्मियों को निकाल बाहर कर दिया गया है. टीवी 18 ग्रुप के पहले हाल ही में दैनिक भास्कर ने दिल्ली की एक पूरी टीम को निकालने का फैसला लिया है. पिछले सितंबर में एनडीटीवी से 50 से ज़्यादा पत्रकार, दैनिक भास्कर से 16 पत्रकारों, आउटलुक समूह की तीन पत्रिकाओं (मैरी क्लेयर, पीपुल इंडिया और जियो) के बंद होने से पीड़ित 42 पत्रकार झटके में बेरोज़गार हुए. शारदा ग्रुप के भी करीब 1000 से भी अधिक मीडियाकर्मी बेरोजगार हुए. पूरे देश में फुटकर छंटनी होती ही रहती है. लेकिन कहां से कोई प्रतिरोध का स्वर दिखाई नहीं पड़ता है.

टीवी 18 ग्रुप की इस भारी पैमाने पर करीब 300 से भी अधिक पत्रकारों की छंटनी के बाद भी मालिकों और उनके दलाल संपादकों के खिलाफ कोई आवाज या प्रतिरोध का स्वर दिखाई नहीं पड़ रहा था. मीडिया संस्थानो में पत्रकारों को इस कदर रीढ़ विहीन कर दिया गया है कि किसी प्रकार की सांगठनिक एकजुटता या स्वर बिल्कुल नहीं है. मीडिया के नाम पर बनाए गए तमाम संस्थाएं (मसलन BEA, NBSA, EDITORS GUILD, PRESS COUNCIL)का कोई सरोकार नहीं और ये निष्क्रिय पड़ी रहती हैं. इसमें सरकार और मीडिया मालिकों (पूंजीपतियों) के गठजोड़ ने ही ऐसी स्थिति पैदा की है. से हाल में जरूरी है कि एक प्रतिरोध की संस्कृति को खड़ा करने की कोशिश की जाए. इसी सोच के तहत 17 तारीख की आधी रात को कुछ पत्रकारों ने इस मसले पर बातचीत की आवश्यकता को महसूस करते हुए रविवार यानी कि 18 अगस्त को दोपहर 2 बजे जंतर-मंतर पर पत्रकार बंधुओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को सांकेतिक विरोध में जुटने और बातचीत के लिए आमंत्रित किया.

इसछोटे से समय में ही पहले जंतर-मंतर और फिर कॉफी हाउस में 35 पत्रकार-सामाजिक कार्यकर्ता जमा हुए और उन्होंने पत्रकारों के अधिकारों के साथ-साथ पत्रकारिता की हालत को बेहतर बनाने की कोशिशों के लिए उनके बीच एकजुटता होने की जरूरत महसूस की. फलस्वरूप पत्रकार एकजुटता मंच यानी ‘Journalist Solidarity forum’ का गठन किया गया. इस बैनर तले फिलहाल IBN7 और CNN-IBN के सवालको उठाने का फ़ैसला किया गया. बुधवार को 2 बजे नोएडा, फ़िल्म सिटी में इनकेदफ़्तर के सामने प्रदर्शन तय हुआ है. फिर इसके चार दिनों के बाद एक मीटिंगकी जाएगी. इसके अलावा अगले हफ्ते एक पब्लिक मीटिंग की योजना है जिसकी घोषणा इस मीटिंग में की जाएगी. इस मीटिंग में सरोकारी पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को आंमत्रित करने की योजना है.

एजेंडे में क्या-क्या...मांग क्या है...
रविवार 18 अगस्त की बैठक में जिन बातों पर सहमति बनी-
-हमारी तत्काल मांग यह है कि IBN 7 और CNN-IBNसे निकाले गए पत्रकारों को वापस नौकरी पर रखा जाए.
-देश भर के मीडिया संस्थानों से निकाले जा रहे पत्रकारों का डाटाबेसतैयार करने की योजना है.
- मीडिया के मुद्दों पर लिखने-पढ़ने-बोलने वाले लोगों को इस पहलसे जोड़ना.
- मीडिया संस्थानों के भीतर यूनियन बनाने के अधिकार की बहाली.
-सभी मीडिया हाउसों में श्रमिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए तुरंत वर्किंगजर्नलिस्ट ऐक्ट लागू करें.
- इन तमाम मुद्दों पर संबंधित संस्थानों/विभागों को ज्ञापन सौंपने के अतिरिक्त इन प्रश्नों केसाथ छात्र संगठनों के    अलावा PUCL और PUDR जैसे संगठनों को जोड़ना प्रमुखहै.
- अलग-अलग मीडिया संस्थाओं (मसलन BEA, NBSA, EDITORS GUILD, PRESS COUNCIL) से भी ऐसे हर मुद्दे पर न सिर्फ़ रायशुमारी की जाएगी बल्कि ऐसे हरमुद्दे पर उनके स्टैंड को लोगों के सामने लाया जाएगा.



घाटे का बहाना मालिकों की ओर से उछाला गया धोखा है...
IBN-7 और CNN-IBN से पत्रकारों को निकाले जाने का तर्क जो छन कर बाहर आ रहा है, वह यह है कि कंपनी घाटे में है. जबकि यह सरासर झूठ है. वित्त वर्ष 2012-2013 में टीवी-18 समूह को 165 करोड़ रुपए का सकल लाभ हुआ है जबकि बीते साल यही आंकड़ा 75.9 करोड़ रुपए का ही था. 2005 में 106 करोड़ रुपए वाली कंपनी का राजस्व इस समय 2400.8 करोड़ रुपए है। 24 गुना विस्तार पाने के बाद अगर मालिक (मैनेजमेंट) की तरफ़ से घाटे और कटौती की बात आ रही है तो झूठ और ठगी के अलावा इसे और क्या कहा जा सकता है. दूसरी बात यह कही जा रही है कि ट्राई ने अक्टबूर 2013 से एक घंटे में अधिकतम 10 मिनट व्यावसायिक और 2 मिनट प्रोमोशनल विज्ञापन दिखाने का दिशा-निर्देश दिया है. लिहाजा टीवी चैनल का राजस्व कम हो जाएगा. जबकि यह निर्देश 1994 के कानून के तहत ही है और इस निर्देश की समयसीमा टाल कर सितंबर 2014 कर दिया गया है. लिहाजा इन आधारों पर पत्रकारों को हटाना टीक नहीं है.
यह सिर्फ 350 लोगों को नौकरी से निकाले जाने का मसला नहीं...
यह मुद्दा केवल सीएनएन-आईबीएनके लगभग 350 मीडियाकर्मियों को रातों-रात नौकरी से निकाल दिए जाने का ही नहीं है. बल्कि मीडिया के लोकतांत्रीकरण का मुद्दा है. आम जनता से लेकर सरोकार से जुड़े लोगों, पूंजी और सत्ता के गठजोड़ में पीस रहे दलित-दमित लोगों को पत्रकारिता की वर्तमान हालत और पत्रकारों से हज़ार शिकायतें होंगी. इन में सैकड़ों खोट नजर आती होंगी. जो कि जायज भी होती हैं. लेकिन ये खामियां इसी कारण से हैं क्योंकि मीडिया संस्थान मुनाफे की होड़ में घोर अलोकतांत्रिक बना दी गई हैं. लिहाजा वहां काम कर रहे पत्रकारों की हालत से लेकर उनके द्वारा की जा रही पत्रकारिता में भी विरूपताएं भरी पड़ी हैं. मीडियाकर्मियों की छंटनी को केवल उनके जीवन-यापन के संकट में नहीं देखा जाना चाहिए. यह पूरी पत्रकारिता का संकट है. इन छंटनियों के जरिए पत्रकारों के मनोबल को तोड़ा जा रहा है और असुरक्षा की भावना बढ़ाई जा रही है ताकि वे जन सरोकार भूल कर अपने स्वामित्व के प्रति भी रीढ़विहीन होकर काम करें. पत्रकारों में असुरक्षा की भावना से लेकर मालिकों और दलाल संपादकों की मनमानी इनके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार है. ऐसे में मीडिया संस्थानों के लोकतांत्रीकरण के बगैर चीजों को सुधारा नहीं जा सकता. यह सोचना अभी असंभव-सा दिखता हो लेकिन इस मंच की कोशिश इसी ओर जाने का है. समान भागीदारी और प्रतिनिधित्व की बातें तभी संभव हो सकती हैं. हमारा संघर्ष केवल छँटनी के मसले तक सीमित नहीं रहेगा. हमें अनुबंध मेंमनचाही शर्तें डालकर नौकरी पर रखने की व्यवस्था का भी विरोध करना है.हालांकि अभी हमें अपना ध्यान छंटनी के मुद्दे को उठाना है.
विभिन्न जन-सरोकारी संगठनों का समर्थन...
इस मुहिम में हर तरह से जनसरोकारी व्यक्तियों और समूहों का समर्थन मिल रहा है. Delhi Union Of Journalists(DUJ) और People Uinoin For Democratic Rights (PUDR)  ने इस मुहिम को समर्थन दिया है. साथ ही छात्र संगठनोंमें जेएनयू छात्रसंघ (JNUSU),All India Students’ Association ( AISA) , Democratic Students' Union (DSU),All India Students Federation (AISF), Students For Resistance(SFR) (JNU) ने इस मुहिम में हमें समर्थन दिया है. इन सभी ने बुधवार के प्रदर्शन में आने की हामी भरी है. बाकियों से भी हम संपर्क करने की कोशिश कर रहे हैं.
तो आएं और विरोध दर्ज करें...
पहले कदम के रूप में बुधवार 21 अगस्त को दोपहर 2 बजे IBN 7 और CNN-IBN के दफ्तर के बाहर प्रदर्शन आयोजित है. इसमें तमाम पत्रकारों, जन-सरोकारी लोगों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का सहयोग अपेक्षित है और ऐसे कई लोगों ने आने की सहमित दी है. तो आप आएं और पत्रकारिता के लोकतांत्रीकरण में हमारा सहयोग करें. एक बेहतर समाज के निर्माण में भूमिका निभाएं.



पत्रकार एकजुटता मंच (Journalist Solidarity forum) की ओर से जारी

कॉरपोरेट संपादकों के नाम गिर्दा का पत्र : गिर्दा की तीसरी पुण्यतिथि पर विशेष

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जनकवि गिर्दा की आज तीसरी पुण्यतिथि है. इन बीते तीन सालों में हम, लगातार उन्हें, उनकी कविता-गीतों के जरिये याद करते रहे हैं. इस बीच एक खबर यह है कि सीएनएन, आईबीएन में 350 पत्रकारों की छटनी कर दी गई. गिर्दा व्यापक सामाजिक सरोकारों के कवि थे. उनकी कविताओं के दायरे में समाज के विविध आयाम गुथे हुए हैं. ‘संपादकों के नाम पत्र’, यह कविता जाने गिर्दा ने किस विशेष सन्दर्भ पर लिखी थी. लेकिन अभी इस छटनी की घटना के बाद यह फिर प्रासंगिक हो गई है. इसे गिर्दा की इस तीसरी पुण्य तिथि में पढ़ा जाना चाहिए... 
-संपादक





इस वक्त जब मेरे देश में
पेश किये जा रहे हैं
पेड़, पेड़ों के खिलाफ
पानी, पानी के खिलाफ
और पहाड़, पहाड़ों के खिलाफ

भगत सिहों के खिलाफ भगत सिंह
प्रेमचंदों के खिलाफ प्रेमचंद
किसानों के खिलाफ किसान
जनता के खिलाफ जनता
नक्सलियों के खिलाफ
रुपहले परदे पर नक्सलवादी
ख़बरों के खिलाफ अखबार.

ओह, मेरे देश के संपादको !
तब तुम इस वक्त
जो हो, जैसे हो
हम जानते हैं,
तुम समझते हो

इसके खिलाफ क्यूँ नहीं हो रहे हो?

'आरक्षण'के खिलाफ 'योग्यता'का लचर तर्क

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...भारतीय समाज में अवसरों को सीमित करने वाले जो पहलू हैं, उनमें जाति प्रमुख है। इसके कारण करोड़ों लोग शिक्षा एवं रोजगार में समान अवसर पाने से वंचित रह जाते हैं। आरक्षण की अवधारणा इसी सामाजिक हकीकत को ध्यान में रखते हुए विकसित हुई। यह समझना कठिन है कि आखिर न्यायपालिका इसे नजरअंदाज कर देती है। विडंबना ही है कि जिस सिद्धांत को जाति-व्यवस्था को कमजोर करने के लिए संविधान में शामिल किया गया, उसे समाज का प्रभु-वर्ग जातिवाद बढ़ाने का कारण मानता है।..."

स्टिस अल्तमस कबीर भारत के प्रधान न्यायाधीश पद से रिटायर होने के पहले दो ऐसे न्यायिक फैसलों में सहभागी बने, जिनको अगर साथ लेकर न्यायपालिका के सामाजिक दर्शन पर विचार किया जाए, तो न्याय एवं अवसर की समानता का कोई समर्थक बेचैन हो सकता है। जस्टिस कबीर की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में अति-विशेषज्ञता (सुपर-स्पेशियलिटी) स्तर पर आरक्षण को खारिज कर दिया। इसके लिए इस बेंच ने मंडल मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को आधार बनाया, जिसमें कहा गया था कि कुछ मामलों में सिर्फ योग्यता (मेरिट) को ही महत्त्व दिया जाना चाहिए। जस्टिस कबीर की अध्यक्षता वाली बेंच ने टिप्पणी की- आरक्षण की अवधारणा में ही मध्यम प्रतिभा को महत्त्व मिलना अंतर्निहित है। 



उधरन्यायमूर्ति कबीर, जस्टिस विक्रमजीत सेन और जस्टिस अनिल आर. दवे की खंडपीठ ने 2-1 के बहुमत से देशभर के मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए साझा प्रवेश परीक्षा आयोजित करने की हुई शुरुआत को अवैध ठहरा दिया। इस फैसले से असहमत न्यायमूर्ति दवे ने कहा कि अगर साझा परीक्षा के आधार पर दाखिला मिले तो शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय अनैतिक और धन को सर्वोपरि मानने वाले व्यापारियों के भ्रष्ट आचरणों पर रोक लग सकती है। मगर वे अल्पमत में थे। आलोचकों ने ध्यान दिलाया है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से छात्रों और मरीजों के अलावा बाकी सबको लाभ होगा। साझा परीक्षा होने पर छात्र अलग-अलग कॉलेजों के लिए अलग प्रवेश परीक्षा देने से बच जातेदेश भर में दाखिले का समान मानदंड लागू होता और कैपिटेशन फीस पर रोक लगतीजो अब कई जगहों पर करोड़ रुपयों में वसूली जा रही है। यह जानकर आप चिंतित हो सकते हैं कि प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों से पास हुए डॉक्टरों में तकरीबन 20 फीसदी ऐसे होते हैंजिनका वहां दाखिला योग्यता के आधार पर नहीं हुआ होता है। ये लोग धन के जोर से मैनेजमेंट कोटा की सीटें खरीद कर डॉक्टर बन जाते हैं। हैरतअंगेज है कि आरक्षण के कारण कथित रूप से मध्यम प्रतिभाओं के आगे बढ़ने से चिंतित सुप्रीम कोर्ट को धन के जोर से आगे बढ़ने वाली अयोग्यता से कोई परेशानी नहीं हुई। बहरहाल, इन दोनों मामलों ने मौजूदा समाज में अंतर्निहित विषमता और विशेष अवसर के सिद्धांत के संदर्भ में योग्यता बनाम अयोग्यता की बहस को फिर से प्रासंगिक कर दिया है।

मुद्दा यह है कि क्या उच्च शिक्षा संस्थानों तक पहुंच एवं वहां सफलता सिर्फ योग्यता से तय होती रही है?क्या योग्यता सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से निरपेक्ष कोई चीज है? अगर इंजीनियरिंग संस्थानों के एक हालिया आंतरिक विश्लेषण पर गौर करें तो हमें इन सवालों के जवाब ढूंढने में मदद मिल सकती है। 2012 में इंजीनियरिंग कॉलेजों के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) में भाग लेने वाले छात्रों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के इस अध्ययन सामने आया कि इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए संपन्न पृष्ठभूमि और बड़े शहरों में निवास- ये दो सबसे प्रमुख तत्व हैं। कोचिंग की सुविधा और अनुकूल पारिवारिक पृष्ठभूमि हो तो काम और आसान हो जाता है। यानी अगर परिवार में पहले से कोई डॉक्टर या इंजीनियर या अन्य उच्च प्रोफेशनल हो, तो उसका लाभ अगली पीढ़ी को मिलता है। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जो बात इंजीनियरिंग कॉलेजों के लिए सच है, वह अधिकांश उच्च तकनीकी शिक्षा- बल्कि तमाम शैक्षिक क्षेत्रों पर भी लागू होती है। 

इस अध्ययन के मुताबिक 2012 में 5,06,484 छात्रों ने जेईई में हिस्सा लिया, जिनमें से 24,112 सफल रहे। सफल छात्रों में लगभग आधे सिर्फ 11 शहरों के थे। जहां महानगरों में रहने वाले जहां 5.8 प्रतिशत छात्र सफल हुए, वहीं छोटे शहरों के 4.2 और देहाती इलाकों के सिर्फ 2.7 फीसदी छात्र ही पास हो सके। आमदनी के लिहाज से जिन परिवारों की वार्षिक आय 4.5 लाख रुपए से ज्यादा है, उनके 10.3 फीसदी छात्र पास हुए, जबकि 1 से 4.5 लाख की बीच आय वाले परिवारों के 4.8 प्रतिशत और एक लाख रुपए से कम सालाना आमदनी वाले परिवारों के मात्र 2.6 फीसदी छात्र ही उतीर्ण हो सके। फिर जहां प्रवेश परीक्षा में शामिल छात्रों में 20 प्रतिशत को कोचिंग की सुविधा मिली थी, वहीं जो पास हुए उनमें ऐसे छात्रों का हिस्सा लगभग 50 फीसदी था। इन आंकड़ों के आधार पर क्या यह कहना गलत होगा कि योग्यता असल में सामाजिक-आर्थिक अवसरों से तय होती है और बहुत से साधन संपन्न छात्र सिर्फ इसलिए सफल हो जाते हैं, क्योंकि उनके प्रतिद्वंद्वी छात्रों को उनकी तरह सुविधाएं और अवसर नहीं मिल पाते हैं?

भारतीयसमाज में अवसरों को सीमित करने वाले जो पहलू हैं, उनमें जाति प्रमुख है। इसके कारण करोड़ों लोग शिक्षा एवं रोजगार में समान अवसर पाने से वंचित रह जाते हैं। आरक्षण की अवधारणा इसी सामाजिक हकीकत को ध्यान में रखते हुए विकसित हुई। यह समझना कठिन है कि आखिर न्यायपालिका इसे नजरअंदाज कर देती है। विडंबना ही है कि जिस सिद्धांत को जाति-व्यवस्था को कमजोर करने के लिए संविधान में शामिल किया गया, उसे समाज का प्रभु-वर्ग जातिवाद बढ़ाने का कारण मानता है। जबकि भारतीय समाज में आज भी जातिवाद की परंपरागत जकड़न कितनी गहरी है, यह किसी भी सामाजिक व्यवहार में देखा जा सकता है। वैवाहिक विज्ञापनों का अध्ययन कर कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के तीन अनुसंधानकर्ता हाल में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जो लोग वैवाहिक विज्ञापनों में जाति की सीमा नहीं लिखने का खुलापन दिखाते हैं उनमें भी अधिकांश की प्राथमिकता पहले अपनी जाति में ही जीवनसाथी चुनने की होती है। इस क्रम में एक मैट्रीमोनियल वेबसाइट द्वारा दी गई यह जानकारी महत्त्वपूर्ण है कि जो अपने विज्ञापन में जाति की सीमा नहीं लिखते हैं, उनमें 90 फीसदी लोग इश्तहार में अपनी जाति का उल्लेख जरूर कर देते हैं। पिछले राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण से सामने आया था कि भारत में अंतर-जातीय विवाहों की संख्या में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। यह संख्या कुल विवाहों के 10 प्रतिशत पर सीमित है। इन 10 फीसदी में अधिकांश विवाह वो हैं, जिन्हें प्रेम विवाह की श्रेणी में रखा जाता है।

प्रश्न यह है कि आखिर जज इस सामाजिक यथार्थ से अनजान क्यों बने हुए हैंयह तो स्वागतयोग्य है कि सरकार ने उपरोक्त दोनों फैसलों पर पुनर्विचार याचिका देने का निर्णय किया है और ये घोषणा की है कि अगर फैसला अनुकूल नहीं रहा तो वह संविधान संशोधन का रास्ता अपनाएगी। इससे मुमकिन है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से पैदा हुई तात्कालिक समस्या हल हो जाए। लेकिन इससे योग्यता की समाज-निरपेक्ष और अमूर्त अवधारणा को तोड़ने में बहुत मदद नहीं मिलेगी। इसके लिए सायास और सक्रिय प्रयासों की जरूरत होगी। इस निराधार धारणा को चुनौती देना एक बड़ा काम है। ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को यह जरूर बताया जाना चाहिए कि मुमकिन है कि वे अपनी योग्यता से नहीं, बल्कि अपने परिवार की सामाजिक-आर्थिक हैसियत के कारण मिली विशेष सुविधाओं और अवसरों के जरिए वहां पहुंचे हों। सदियों से जो समूह इन सुविधाओं और अवसरों से वंचित हैं, उनके विकास एवं प्रगति की राह में अब विषम सामाजिक व्यवस्था के कारण लाभ पा रहे लोग योग्यता की अयथार्थ एवं मनोगत दीवार खड़ी नहीं कर सकते।

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

Condemn the arrest of Comrade Hem on fake charges by the Maharashtra police!

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Resist the ongoing witch-hunt of students, intellectuals and activists who dare to stand up against systemic injustice, oppression and state repression! 

Immediately & Unconditionally release Hem who was on his way for medical treatment!


Democratic Students’ Union condemns in strongest possible terms the arbitrary arrest of Hem Mishra, one of our activists by the Maharshtra Police. Hem Mishra is from Almora, Uttarakhand. He is the son of K.D Mishra, a retired school teacher. Hem has done his diploma in Mass communication and B.Sc in Mathematics from Uttarakhand. In 2009 he joined BA programme in Center for Chinese Studies, in School of Language Literature and Cultural Studies. He is also a prominent cultural activist and singer. He is active in Democratic Students’ Union and Revolutionary Cultural Front. He is also an executive member of Committee for Release of Political Prisoners (CRPP). He is well known among the political circles in Delhi and Uttarakhand as a student and cultural activist.

Hem has been struggling over the years with certain physical challenges in his left hand. He has undergone repeated surgery and the ensuing complications left him in agonizing pain. He has had to undergo two rounds of expensive operations in the recent past from Vellore. He had on several occasions shared his wish to pay a visit to Prakash Amte’s People’s hospital in Bhamaragarh to enquire about the possibility of free treatment therein. Early this week he had left from Delhi with the same purpose and was picked up by the notorious Maharashtra police somewhere in Maharashtra on his way to the hospital.

It was on the 24th of August that the police finally admitted his arrest and said he has been sent to Police custody for 10 days. Hem is well known in Delhi and Uttarakhand as a mass activist. Yet the police are trying to frame him with bogus charges like, he is a ‘prominent Naxal courier!!’ Hem has played a major role in exposing as well as countering the anti-people designs of the state through songs, poetry, plays and street theaters in the capacity of a cultural activist lending his voice to that of the oppressed.

He, as part of an organized politics, shares the vision for a radical social transformation of the society towards a new democratic society and a new democratic culture – free of oppression, injustice and inequality. His arrest therefore doesn't come as a shock. The state right now is in a spree to clamp down on students and democratic rights activists and trying to stifle voices of dissent. We strongly condemn this witch-hunt of activists. We must unitedly and resolutely fight the fascist designs of the state and its targeting of political activists.

His arrest is in continuation of the ongoing clamp down on democratic rights activists that Hem has been framed with such false charges. We are witness to similar framing of Jayeeta Das a student and woman activist of Matangini Mahila Samity, the hounding and framing of Kabir Kala Manch activists and similar witch hunting of other democratic rights and cultural activists. We condemn this arbitrary arrest and demand his immediate and unconditional release.

---- DEMOCRATIC STUDENTS’UNION
Contact: dsuatjnu@gmail.com, 09711826861

फासीवाद की धमक तेज हो रही है, मुखर प्रतिरोध के लिए एकजुट हों ! - जन संस्कृति मंच

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प्रेस विज्ञप्ति

न संस्कृति मंच गढ़चिरौली में जेएनयू के छात्र और संस्कृतिकर्मी हेम मिश्रा को गिरफ्तार कर पुलिस रिमांड पर लेने और पुणे में पुलिस की मौजूदगी में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं द्वारा एफटीआईआइ्र्र के छात्रों पर हमले और हमले के बाद पुलिस द्वारा घायल छात्रों पर ही अनलॉफुल एक्टिविटी का आरोप लगा देने तथा बलात्कार के आरोपी आशाराम बापू की अब तक गिरफ्तारी न होने की कठोर शब्दों में निंदा करता है। जसम साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और शोषण-उत्पीड़न-भेदभाव के खिलाफ लड़ने वाले तमाम वाम-लोकतांत्रिक संगठनों से अपील करता है कि सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों, काले धन की सुरक्षा, यौनहिंसा व हत्या समेत तमाम किस्म के अपराधों में संलिप्त पाखंडी धर्मगुरुओं तथा उनकी गुंडागर्दी को शह देने वाली सरकारों और पुलिस तंत्र के खिलाफ पूरे देश में व्यापक स्तर प्रतिवाद संगठित करें। 

हेममिश्रा एक वामपंथी संस्कृतिकर्मी हैं। वे उन परिवर्तनकामी नौजवानों में से हैं, जो इस देश में जारी प्राकृतिक संसाधनों की लूट और भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहते हैं। रोहित जोशी के साथ मिलकर उन्होंने उत्तराखंड के संदर्भ में सत्ताधारी विकास मॉडल के विनाशकारी प्रभावों पर सवाल खड़े करने वाली फिल्म ‘इंद्रधनुष उदास है’ बनाई है। उत्तराखंड के भीषण त्रासदी से पहले बनाई गई यह फिल्म हेम मिश्रा के विचारों और चिंताओं की बानगी है। सूचना यह है कि वे पिछले माह नक्सल बताकर फर्जी मुठभेड़ में पुलिस द्वारा मार दी गई महिलाओं से संबंधित मामले के तथ्यों की जांच के लिए गए थे और पुलिस ने उन्हें नक्सलियों का संदेशवाहक बताकर गिरफ्तार कर लिया है। सवाल यह है कि क्या दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र का दम भरने वाले इस देश में पुलिसिया आतंकराज ही चलेगा? क्या उनके आपराधिक कृत्य की जांच करने का अधिकार इस देश का संविधान नहीं देता? 


यह पहली घटना नहीं है, जब कारपोरेट लूट, दमन-शोषण और भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर होने वाले बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों को नक्सलियों का संदेशवाहक बताकर गैरकानूनी तरीके से गिरफ्तार किया गया है? डॉ.विनायक सेन और कबीर कला मंच के कलाकारों पर लादे गए फर्जी मुकदमे इसका उदाहरण हैं। खासकर आदिवासी इलाकों में कारपोरेट और उनकी पालतू सरकारें निर्बाध लूट जारी रखने के लिए मानवाधिकार हनन का रिकार्ड बना रही हैं। सोनी सोरी, लिंगा कोडोपी, दयामनी बरला, जीतन मरांडी, अर्पणा मरांडी जैसे लोग पुलिस और न्याय व्यवस्था की क्रुरताओं के जीते जागते गवाह हैं। दूसरी ओर गैरआदिवासी इलाकों में भी पुलिस नागरिकों की आजादी और अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन कर रही है और अंधराष्ट्रवादी-सामंती-सांप्रदायिक गिरोहों को खुलकर तांडव मचाने की छूट दे रखी है। न केवल भाजपा शासित सरकारों की पुलिस ऐसा कर रही है, बल्कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की सरकारों की पुलिस भी इसी तरह का व्यवहार कर रही है। फेसबुक पर की गई टिप्पणी के लिए दलित मुक्ति के विचारों के लिए चर्चित लेखक कंवल भारती पर सपा सरकार का रवैया इसी का नमूना है।

संघ परिवार, भाजपा, कांग्रेस और उनके सहयोगी दल जिस तरह की बर्बर प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों और धुव्रीकरण को समाज में बढ़ावा दे रहे हैं, उसके परिणाम बेहद खतरनाक होंगे। विगत 20 अगस्त को मशहूर अंधविश्वास-विरोधी, तर्कनिष्ठ और विवेकवादी आंदोलनकर्ता डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की नृशंस हत्या को अंजाम देने वाले हों या डॉ.दाभोलकर की याद में आयोजित कार्यक्रम में एफटीआईआई के छात्रों द्वारा आनंद पटवर्धन की फिल्म ‘जय भीम कामरेड’ के प्रदर्शन और कबीर कला मंच के कलाकारों की प्रस्तुति के बाद आयोजकों पर नक्सलवादी आरोप लगाकर हमला करने वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता, जो उनसे नरेंद्र मोदी की जय बोलने को कह रहे थे, सख्त कानूनी कार्रवाई तो इनके खिलाफ होना चाहिए। लेकिन पुलिस ने उल्टे घायल छात्रों पर ही अनलाफुल एक्टिविटी का आरोप लगा दिया है। ठीक इसी तरह अंधआस्था और श्रद्धा की आड़ में बच्चों और बच्चियों को शिकार बनाने वाले आशाराम बापू जैसे भेडि़ये को अविलंब कठोर सजा मिलनी चाहिए, लेकिन वह अभी भी मीडिया पर आकर अपने दंभ का प्रदर्शन कर रहा है। 

मुंबईमें महिला फोटोग्राफर के साथ हुए गैंगरेप ने साबित कर दिया है कि सरकारें और उनकी पुलिस स्त्रियों को सुरक्षित माहौल देने में विफल रही हैं, जहां अमीर और ताकतवर बलात्कारी जल्दी गिरफ्तार भी न किए जाएं और महिलाओं के जर्बदस्त आंदोलन के बाद भी पुलिस अभी भी बलात्कार और यौनहिंसा के मामलों में प्राथमिकी तक दर्ज करने में आनाकानी करती हो और अभी भी राजनेता बलत्कृत को उपदेश देने से बाज नहीं आ रहे हों, वहां तो बलात्कारियों का मनोबल बढ़ेगा ही। मुंबई समेत देश भर में इस तरह घटनाएं बदस्तुर जारी हैं। 

जनसंस्कृति मंच का मानना है कि हेम मिश्रा को तत्काल बिना शर्त छोड़ा जाना चाहिए और दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। छात्र भेषधारी जिन सांप्रदायिक गुंडों ने एफटीआईआई के छात्रों पर हमला किया है और जो पुलिसकर्मी उनका साथ दे रहे हैं, उनके खिलाफ अविलंब सख्त कार्रवाई करनी चाहिए तथा आशाराम बापू को तुरत गिरफ्तार करके उनके तमाम आपराधिक कृत्यों के लिए उन्हें दण्डित किया जाना चाहिए। जसम की यह भी मांग है कि महिलाएं जिन संस्थानों के लिए खतरा झेलकर काम करती हैं, उन संस्थानों को उनकी काम करने की स्वतंत्रता और सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए.


 सुधीर सुमन द्वारा जन संस्कृति मंच की ओर से जारी

सवालों से डरा हुआ धर्म-तंत्र

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अरविंद शेष

-अरविंद शेष



"...नरेंद्र दाभोलकर जैसे लोग इन्हीं "उद्धारकों"की राह में मुश्किल खड़ी करते हैं, क्योंकि वे इंसान को दिमागी तौर पर शून्य बनाने वाले उन आस्थाओं-विश्वासों को सवालों के कठघरे में खड़ा करते हैं। और जाहिर है, ये सवाल चूंकि आखिरकार सामाजिक सत्ताओं के ढांचे को तोड़ते-फोड़ते हैं, इसलिए इस तरह के सवाल उठाने वाले लोगों से "मुक्ति"के लिए सीधे उन्हें खत्म करने का ही रास्ता अख्तियार किया जाता है।..."

कुछ साल पहले कुछ कट्टरपंथी हिंदू समूहों ने इस बात पर संतोष जताया था कि महाराष्ट्र सरकार द्वारा लाए गए अंधविश्वास विरोधी कानून का भारी विरोध हुआ। वे समूह शायद इस कानून को हिंदुत्व को खत्म करने की साजिश मानते हैं। ऐसा करते हुए हिंदुत्व के वे उन्नायक खुद ही बता रहे थे कि चूंकि हिंदुत्व की बुनियाद अंधविश्वासों पर ही टिकी है, इसलिए अंधविश्वासों का खत्म होना, हिंदुत्व के खत्म होने जैसा होगा। हालांकि यह केवल हिंदुओं के धर्म-ध्वजियों का खयाल नहीं है। सभी धर्म और मत के'उन्नायक'यही कहते हैं कि सवाल नहीं उठाओ, जो धर्म कहता है, उसका आंख मूंद कर पालन करो। और धर्म की सांस से जिंदा तमाम लोगों के भीतर का भय बाहर आने के लिए छटपटाते सारे सवालों की हत्या कर देता है। हमारी विडंबना यह है कि अपने जिन "उद्धारकों"से हम सवाल उठाने की उम्मीद कर रहे होते हैं, वे खुद एक ऐसा मायावी लोक तैयार करने में लगे होते हैं, जहां कोई सवाल नहीं होता। दरअसल, वे हमारे स्वघोषित "उद्धारक"होते ही इसीलिए हैं कि न केवल उनकी "भूदेव"की पदवी कायम रहे, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था भी अनंत काल तक बनी रहे, जिसमें अंधकार का साम्राज्य हो और समूचे समाज को अंधा बनाए रखा जा सके।



खासतौरपर जिस हिंदुत्व पर हम गर्व से अपनी छाती ठोंकते रहते हैं, उसमें यह साजिश ज्यादा विकृत इसलिए हो जाती है, क्योंकि यहां यह केवल आस्थाओं का कारोबार नहीं होता, बल्कि जन्म के आधार पर ऊंची और नीची कही जाने वाली जातियों की मानसिक और चेतनागत अवस्थिति बनाए रखने में भी अंधविश्वासों और आस्थाओं को हथियार के बतौर इस्तेमाल में लाया जाता है।



नरेंद्रदाभोलकर जैसे लोग इन्हीं "उद्धारकों"की राह में मुश्किल खड़ी करते हैं, क्योंकि वे इंसान को दिमागी तौर पर शून्य बनाने वाले उन आस्थाओं-विश्वासों को सवालों के कठघरे में खड़ा करते हैं। और जाहिर है, ये सवाल चूंकि आखिरकार सामाजिक सत्ताओं के ढांचे को तोड़ते-फोड़ते हैं, इसलिए इस तरह के सवाल उठाने वाले लोगों से "मुक्ति"के लिए सीधे उन्हें खत्म करने का ही रास्ता अख्तियार किया जाता है।



जाहिरहै, बेमानी पारलौकिक विश्वासों को हथियार बना कर जड़ता की व्यवस्था को बनाए रखने में लगे लोगों-समूहों के पास अपने पक्ष में कोई तर्क नहीं होता, इसलिए वे सवालों से डरते हैं। अव्वल तो उनकी कोशिश यह होती है कि एक पाखंड और धोखे पर आधारित व्यवस्था को लेकर किसी तरह का सवाल नहीं उठे और इसके लिए वे सवालों और संदेहों को आस्था का दुश्मन घोषित करते हैं। वहीं एक भय की उपज पारलौकिकता की धारणाओं-कल्पनाओं में जीता व्यक्ति सवाल या संदेह करने को अपनी "आस्था"की पवित्रता भंग होना मानता है। अगर किन्हीं स्थितियों में किसी व्यक्ति के भीतर आस्था के तंत्र के प्रति शंका पैदा होती है और वह इसे जाहिर करता है तो धर्माधिकारियों से लेकर उनके अनुचरों तक की ओर से उसकी आस्था में खोट बताया जाता है या उसे अपवित्र घोषित कर दिया जाता है।

इसकेअलावा, सवालों से निपटने के लिए एक और तरीका अपनाया जाता है। सवाल उठाने वाले को संदिग्ध बता कर उसके सवालों पर पूरी तरह चुप्पी साध ली जाती है। इससे भी हारने के बाद अक्सर धर्माधिकारी यह कहते पाए जाते हैं कि प्रश्न उठाने वाला व्यक्ति "ईश्वर का ही दूत है... और ऐसा करके वह वास्तविक भक्तों की परीक्षा ले रहा है।"कई बार उसे मनुष्य-मात्र की दया का पात्र भी घोषित कर दिया जा सकता है। इसके बावजूद जब "धर्म"की व्यवस्था पर खतरा बढ़ता जाता है, तब खतरे का जरिया बने व्यक्ति की आवाज को शांत करने के लिए उस रास्ते का सहारा लिया जाता है, जिसमें नरेंद्र दाभोलकर को अपनी जान गंवानी पड़ी।

सामाजिकविकास के एक ऐसे दौर में, जब प्रकृति का कोई भी उतार-चढ़ाव या रहस्य समझना संभव नहीं था, तो कल्पनाओं में अगर पारलौकिक धारणाओं का जन्म हुआ होगा, तो उसे एक हद तक मजबूरी मान कर टाल दिया जा सकता है। लेकिन आज न सिर्फ ज्यादातर प्राकृतिक रहस्यों को समझ लिया गया है, बल्कि किसी भी रहस्य या पारलौकिकता की खोज की जमीन भी बन चुकी है। यानी विज्ञान ने यह तय कर दिया है कि अगर कुछ रहस्य जैसा है, तो उसकी कोई वजह होगी, उस वजह की खोज संभव है। तो ऐसे दौर में किसी बीमारी के इलाज के लिए तंत्र-मंत्र, टोना-टोटका का सहारा लेना, बलि चढ़ाना, मनोकामना के पूरा होने के लिए किसी बाबा या धर्माधिकारी जैसे व्यक्ति की शरण में जाना एक अश्लील उपाय लगता है। बुखार चढ़ जाए और मरीज या उसके परिजनों के दिमाग में यह बैठ जाए कि यह किसी भूत या प्रेत का साया है, यह चेतना के स्तर पर बेहद पिछड़े होने का सबूत है, भक्ति या आस्था निबाहने में अव्वल होने का नहीं। 

इस तरह की धारणाओं के साथ जीता व्यक्ति अपनी इस मनःस्थिति के लिए जितना जिम्मेदार है, उससे ज्यादा समाज का वह ढांचा उसके भीतर यह मनोविज्ञान तैयार करता है। पैदा होने के बाद जन्म-पत्री बनवाने से लेकर किसी भी काम के लिए मुहूर्त निकलवाने के लिए धर्म के एजेंटों का मुंह ताकना किसी के भी भीतर पारलौकिकता के भय को मजबूत करता जाता है और उसके व्यक्तित्व को ज्यादा से ज्यादा खोखला करता है।


सवालहै कि समाज का यह मनोविज्ञान तैयार करना या इसका बने रहना किसके हित में है? किसी भी धर्म के सत्ताधारी तबकों की असली ताकत आम समाज का यही खोखलापन होता है। पारलौकिक भ्रम की गिरफ्त में ईश्वर और दूसरे अंधविश्वासों की दुनिया में भटकते हुए लोग आखिरकार बाबाओं-गुरुओं, तांत्रिकों, चमत्कारी फकीरों जैसे ठगों के फेर में पड़ते हैं और अपना बचा-खुचा विवेक गवां बैठते हैं। यह केवल समाज के आम और भोले-भाले लोगों की बंददिमागी नहीं है, बड़े-बड़े नेताओं, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों तक को फर्जी और कथित चमत्कारी बाबाओं के चरणों में सिर नवाने में शर्म नहीं आती। यही नहीं, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिक तक अंतरिक्ष यानों के सफल प्रक्षेपण की प्रार्थना करते हुए पहले मंदिरों में पूजा करते दिख जाते हैं। यह बेवजह नहीं हैं कि कला या वाणिज्य विषय तो दूर, स्कूल-कॉलेजों से लेकर उच्च स्तर पर इंजीनिरिंग या चिकित्सा जैसे विज्ञान विषयों में शिक्षा हासिल करने के बावजूद कोई व्यक्ति पूजा-पाठ या अंधविश्वासों में लिथड़ा होता है।


ऐसे में अगर कोई अंतिम रूप से यह कहता है कि मैं ईश्वर और धर्म का विरोध नहीं करता हूं, मैं सिर्फ अंधविश्वासों के खिलाफ हूं तो वह एक अधूरी लड़ाई की बात करता है। धर्म और ईश्वर को अंधविश्वासों से बिल्कुल अलग करके देखना या तो मासूमियत है या फिर एक शातिर चाल। हां, अंध-आस्थाओं में डूबे समाज में ये अंधविश्वासों की समूची बुनियाद के खिलाफ व्यापक लड़ाई के शुरुआती कदम हो सकते हैं। इसे पहले रास्ते पर अपने साथ लाने की प्रक्रिया कह सकते हैं। लेकिन बलि, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र, गंडा-ताबीज, बाबा-गुरु, तांत्रिक अनुष्ठान आदि के खिलाफ एक जमीन तैयार करने के बाद अगर रास्ता समूचे धर्म और ईश्वर की अवधारणा से मुक्ति की ओर नहीं जाता है तो वह अधूरे नतीजे ही देगा।

वैज्ञानिकचेतना से लैस कोई भी व्यक्ति यह समझता है कि दुनिया में मौजूद तमाम अंधविश्वास का सिरा पारलौकिक आस्थाओं से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यह तो नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति बलि देने या बीमारी का इलाज कराने के लिए चमत्कारी बाबाओं का सहारा तो न ले, लेकिन ईश्वर या धर्म को अपनी जीवनचर्या का अनिवार्य हिस्सा माने। अगर वह सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार किसी भी तरह के मत-संप्रदाय का अनुगामी है तो उसका रास्ता आखिरकार एक पारलौकिक अमूर्त व्यवस्था की ओर जाता है, जहां वह खुद पर भरोसा करने के बजाय अपने अतीत, वर्तमान या भविष्य के लिए ईश्वर से की गई या की जाने वाली कामना को जिम्मेदार मानता है। इससे बड़ा प्रहसन क्या हो सकता है कि उत्तराखंड में बादल फटने या प्रलयंकारी बाढ़ के बावजूद अगर कुछ लोग बच गए तो उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया जाए और उसी वजह से कई-कई हजार लोग बेमौत मर गए, तो उसके लिए ईश्वर को जिम्मेदार नहीं माना जाए। बिहार के खगड़िया में कांवड़ लेकर भगवान को जल अर्पित करने जाते करीब चालीस लोग रेलगाड़ी से कट कर मर जाते हैं तो इसके लिए ईश्वर जिम्मेदार नहीं है और जो लोग बच गए, उन्हें ईश्वर से बचा लिया...!!!

यहईश्वरवाद किस सामाजिक व्यवस्था के तहत चलता है। अपनी अज्ञानता की सीमा में छटपटाते लोगों ने पारलौकिकता की रचना की, कुछ लोगों ने उसकी व्याख्या का ठेका उठा लिया, उनकी महंथगीरी ने एक तंत्र बुन दिया, वह धर्म हो गया। यह केवल हिंदू या सनातन धर्म का नहीं, बल्कि सभी धर्मों का सच है। इसके बाद बाकी लोग सिर्फ पालक हैं, जिनके भोलेपन और प्रश्नविहीन होने के कारण ही यह धार्मिक-तंत्र चलता रहता है। ईश्वर-व्यवस्था के प्रति लोगों के भीतर कोई संदेह नहीं पैदा हो, इसके लिए तमाम इंतजाम किए जाते हैं। यह इंतजाम करने वाले वे लोग होते हैं, जो किसी भी धर्म-तंत्र के शीर्ष पर बैठे होते हैं। हालांकि यह "इंतजाम"का मनोविज्ञान अपने आप नीचे की ओर भी उतर जाता है और एक "ईश्वरीय"व्यवस्था या धर्म पर शक करने या उस पर सवाल उठाने वालों से निचले स्तर पर वे लोग भी "निपट"लेते हैं, जो खुद ही किसी धार्मिक-व्यवस्था के पीड़ित और भुक्तभोगी होते हैं।
  
 

ये"मैजोकिज्म"और "सैडिज्म"के मनोवैज्ञानिक चरणों के नतीजे हैं। "मैजोकिज्म"की अवस्था में कोई व्यक्ति अपने धर्मगुरु (इसे किसी धार्मिक व्यवस्था में जीवनचर्या को प्रभावित-संचालित करने वाले उपदेश भी कह सकते हैं) की किसी भी तरह की बात या व्यवहार पर कोई सवाल नहीं उठाता, भले कहीं कोई बात उसे गलत लगे। लेकिन वास्तव में यह गलत लगना उसके भीतर एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया को जन्म देता है, जिसे वह खुद भी नहीं समझ पाता, लेकिन अपने भीतर जज्ब कर लेता है। लेकिन यह प्रकृति का नियम है कि आप कुछ ग्रहण करेंगे तो उसका त्याग अनिवार्य है। इसलिए गुरु की किसी बात से मन में उपजी प्रतिक्रिया हर हाल में "रिलीज"होती है, यानी अपने निकलने का कोई न कोई रास्ता खोज लेती है। लेकिन तब इसका स्वरूप खाना सहज तरीके नहीं पचने के बाद उल्टियां होने की तरह बेहद विकृत हो सकता है। यानी यह "सैडिज्म"की अवस्था है। तो अपने धर्मगुरु की हर बात पचाने वाला व्यक्ति अपने घर में अपनी पत्नी या बच्चों के साथ बेहद बर्बर तरीके से पेश आ सकता है, किसी कमजोर व्यक्ति या कमजोर सामाजिक समूह के खिलाफ नफरत से भरा दिख सकता है, जोर-जोर की आवाज में बेहद वीभत्स गालियां बक सकता है या किसी वस्तु की बेमतलब तोड़फोड़ भी कर सकता है। इस तरह की कई मानसिक अवस्थाएं हो सकती हैं।


बहरहाल, नरेंद्र दाभोलकर आम जीवन में पसरे जिन अंधविश्वासों के खिलाफ मोर्चा ले रहे थे, उसका सिरा आखिरकार धर्म-तंत्र और फिर ईश्वर पर संदेहों की ओर जाता था। और जाहिर है, यह संदेह अंधविश्वासों और अंध-आस्थाओं पर टिके समूचे कारोबार और समाज के सत्ताधारी तबकों का साम्राज्य ध्वस्त कर सकता है। इसलिए इस तरह के संदेहों के भय से उपजी प्रतिक्रिया भी उतनी विकृत हो सकती है, जिसके शिकार नरेंद्र दाभोलकर हुए। यह हत्या दरअसल अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले तमाम धर्मों और उनके धर्माधिकारियों के डर और कायरता का सबूत है। यह अंधे विश्वासों के सरमायेदारों के डर का प्रतीक है। अपनी दुकान के बंद हो जाने के डर से एक ऐसे शख्स की जान तक ले ली जा सकती है, जिसने अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले धर्मों के खिलाफ इंसान की आंखें खोलने के आंदोलन में खुद को समर्पित कर दिया हो। यह केवल एक शख्स की हत्या नहीं है, यह तथाकथित धर्म के क्रूर मनोविज्ञान के खिलाफ एक विचार की हत्या की कोशिश है। इंसान के खुद पर भरोसे की और इंसानियत की एक नई और रौशन दुनिया के ख्वाब की हत्या की कोशिश है।

लेकिनक्या नरेंद्र दाभोलकर की हत्या से अंधविश्वासों के खिलाफ उनके विचारों को खत्म क्या जा सकेगा? जिन्हें भी लगता है कि अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले धर्मों ने इस इंसानी समाज को बांटने, उसे कुंठित करने, नफरत फैलाने, सभ्यता को कुंद करने या एक तरह से मनुष्य विरोधी दुनिया बनाने में भूमिका निभाई है, उन सबको नरेंद्र दाभोलकर के नाम को अपनी ताकत बना कर आगे बढ़ना चाहिए। नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारों और उसके अपराधी योजनाकारों को बताना चाहिए कि एक नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के बाद हजारों और ऐसे लोग पैदा हो चुके हैं।

अरविंद शेष पत्रकार हैं. अभी  जनसत्ता (दिल्ली) में नौकरी. 

इनसे संपर्क का पता- arvindshesh@gmail.co

arvind.shesh@facebook.com

हेम की गिरफ्तारी के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल होने की अपील : आरसीएफ

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मशीन नौजवानों पर मुकदमे थोपती है: वह उन्हें कैद करती है, यातनाएं देती है, मार डालती है. ये नौजवान इसके नाकारेपन के जीते जागते सबूत हैं...निकम्मी मशीन हर उस चीज से नफरत करती है, जो फलफूल रही है और हरकत कर रही है. यह सिर्फ जेलों और कब्रिस्तानों की तादाद ही बढ़ाने के काबिल है. यह और कुछ नहीं बल्कि कैदियों और लाशों, जासूसों और पुलिस, भिखारियों और जलावतनों को ही पैदा कर सकती है. नौजवान होना एक जुर्म है. हर सुबह हकीकत  इसकी पुष्टि करती है, और इतिहास भी जो हर सुबह नए सिरे से जन्म लेता है. इसलिए हकीकत और इतिहास दोनों पर पाबंदी है.          
-एदुआर्दो गालेआनो


साथी हेम जुल्म और नाइंसाफियों के इस इतिहास से वाकिफ हैं और इस हकीकत को बदलने के सपने देखते हैं, इसलिए आज वे जेल में हैं. शुक्रवार को महाराष्ट्र पुलिस ने उन्हें महाराष्ट्र के गढ़चिरोली से तब गिरफ्तार कर लिया, जब वे प्रख्यात गांधीवादी कार्यकर्ता प्रकाश आम्टे के अस्पताल में अपने हाथ का इलाज कराने के मकसद से वहां जा रहे थे. पुलिस, मीडिया और दक्षिणपंथी गिरोहों के एक हिस्से ने फौरन यह प्रचार करना शुरू किया कि वे एक ‘जानेमाने नक्सली कूरियर’ हैं. यह भारतीय राज्य की झूठ फैलाने वाली दमनकारी मशीन का नया कारनामा है, जो लगातार जनता की हिमायत में लिखने, बोलने और काम करने वाले छात्रों, नौजवानों और कार्यकर्ताओं पर हमले कर रही है, उन्हें गिरफ्तार कर रही है, उन पर झूठे मुकदमे थोप रही है और दूसरे अनेक तरीकों से परेशान कर रही है. हेम इसके सबसे हालिया शिकार हैं. हम साथी हेम की गिरफ्तारी की तीखे शब्दों में निंदा करते हैं और उनके बारे में फैलाए जा रहे झूठे प्रचार का खंडन करते हैं.

सच यह है कि जेएनयू से पिछले सेमेस्टर तक चीनी भाषा से बी.ए. कर रहे हेम एक उत्साही संस्कृतिकर्मी और छात्र कार्यकर्ता हैं. उनके गाए हुए गीतों में दलितों, आदिवासियों, मुस्लिमों और मजदूरों की जिंदगी के बदतरीन हालात और उनके बहादुराना संघर्षों के किस्से हुआ करते हैं. वे बहुत अच्छी डफली बजाते हैं और नाटकों में अभिनय करते रहे हैं. जेएनयू आने से पहले वे उत्तराखंड में, जहां के वे रहने वाले हैं, उनकी पहचान राज्य के अग्रणी जनपक्षधर संस्कृतिकर्मियों में से एक की हुआ करती थी. पिछले तीन सालों से वे जेएनयू के रिवोल्यूशनरी कल्चरल फ्रंट के एक सक्रिय कार्यकर्ता थे और उन्होंने हमें गांवों, कस्बों और शहरों में उत्पीड़ित जनता द्वारा गाए जा रहे अनेक ऐसे गीत सिखाए, जिनमें इंसाफ और बराबरी की बुनियाद पर एक नए समाज के सपनों की गूंज है. साथ ही उन गीतों में मौजूदा शासक वर्ग के जनविरोधी, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक विरोधी चरित्र को भी उजागर किया जाता है. ये गीत साम्राज्यवाद, सामंतवाद और ब्राह्मणवाद के गठजोड़ को दिखाते हैं: चोर चीटर बैठे हैं भाई, होशियार-खबरदार, लड़ना है भाई ये तो लंबी लड़ाई है तथा दूसरे ऐसे ही दर्जनों गीत जनता के संघर्षों को आवाज देते हैं और उत्पीड़नकारी शासक वर्ग की असलियत को जनता के सामने उजागर करते हैं. हमें इसमें कोई भ्रम नहीं है कि कॉमरेड हेम अपने इन गीतों और जनता की जुझारू संस्कृति में अपने योगदान के कारण ही राज्य द्वारा निशाना बनाए गए हैं.

यह राज्य उन सभी आवाजों को कुचल देना चाहता है, जो लोकतंत्र और विकास के इसके बहरे कर देने वाले शोर से ऊपर उठ कर जनता तक पहुंचती हैं और बताती हैं कि उनको जो कुछ बताया-सुनाया जा रहा है वह झूठ का पुलिंदा है. यह उन सारी निगाहों को जेल की अंधेरी कोठरियों में कैद कर देना चाहता है, जो गहराई तक धंसे हुए इसके बदसूरत चेहरे को देखने की कोशिश करती हैं और अवाम की निगाहें बन जाती हैं. यह राज्य उन सारे दिमागों को अपने खरीदे हुए गुलामों में बदल देना चाहता है, जो जुल्म और नाइंसाफी के इस जाल को काट कर एक नई दुनिया का सपना देखने की काबिलियत रखते हैं. इससे इन्कार करने पर उनके सपनों पर पाबंदी लगा दी जाती है. पिछले दिनों में हमने देखा कि किस तरह महाराष्ट्र में सक्रिय राजनीतिक-सांस्कृतिक संगठन कबीर कला मंच के साथियों को कैद किया गया, विद्रोही पत्रिका के संपादक सुधीर ढवले, कलाकार अरुण फरेरा, जन गायक जीतन मरांडी और उत्पल बास्के को गिरफ्तार किया गया, लेखक-चिंतक कंवल भारती गिरफ्तार किए गए, सीमा आजाद और विश्वविजय को ढाई वर्षों तक जेल में रख गया, स्वीडेन के पत्रकार यान मिर्डल के भारत आने पर पाबंदी लगा दी गई और अमेरिकी पत्रकार डेविड बार्सामियन को भारत में उतरने नहीं दिया गया. इन कदमों से भारत का खौफजदा निजाम इस गलतफहमी में है कि वह जनता की हिमायत में उठने वाली आवाजों को खामोश कर सकता है. लेकिन एक निजाम तभी खौफजदा होता है जब जनता उसकी बुनियादें पहले ही खोखली कर चुकी होती है. संघर्षरत जनता के गीत, उसकी कविताएं, उसके नाटक इस निजाम की खोखली बुनियाद वाले किले की दीवारों पर दस्तक दे रहे हैं. चाहे तो वह अपने कान बंद कर सकता है, ये गीत कभी बंद नहीं होंगे.
 
हमअपने प्यारे साथी हेम की फौरन बिना शर्त रिहाई की मांग करते हैं और यह भी मांग करते हैं कि उनके ऊपर लगाए गए फर्जी केसों को रद्द किया जाए.

हेम की गिरफ्तारी के निहितार्थ

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-अभिनव श्रीवास्तव 
अभिनव श्रीवास्तव

"...दरअसलहम हेम की गिरफ्तारी को एक प्रतीक मान सकते हैं, अनवरत चलने वाली उन गिरफ्तारियों का प्रतीक जिनको अंजाम देते समय अक्सर पुलिस द्वारा माओवाद, नक्सलवाद और मुस्लिम आतंकवाद के फैलने का डर और भय खड़ा किया जाता है। जिसके दायरे में कभी जीतन मरांडी, सुधीर ढवले, सीमा आजाद और विनायक सेन आते हैं तो कभी राज्य दमन के खिलाफ आवाज उठाने वाले वे निर्दोष और अनाम चेहरे आते हैं जिनकी जिंदगी और कभी-कभी तो मौत तक चर्चा का विषय नहीं बन पाते।।.."

Photo: ...अभी तक तो हेम से डफली बरामद कर ली होगी महाराष्ट्र पोलिस ने और जनगीतों की किताब भी, मोबाइल बंद है, 10 दिन की पुलिस रिमांड शायद चीन रुस से संबंध कबूलवाने होंगे।चीनी भाषा पढ़ रहा था है Hem जेएनयू में आखिर चीनी ही क्यों?अमरीकन इंगलिश क्यूँ ना पढ़ी ?अपराध तो गंभीर है।.. वाया- Deep Pathak
वाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हेम मिश्रा की पांडु पोरा और महेश टिर्की के साथ कथित तौर पर माओवादियों की मदद करने के आरोप में गिरफ्तारी की खबर अब सोशल साइटों से होती हुयी मुख्य धारा मीडिया में भी जगह बना चुकी है। खबरों के अनुसार गढ़चिरौली पुलिस ने हेम सहित पांडु पोरा और महेश टिर्की को ‘नक्सल कुरियर’ होने के आरोप में अहेरी बस स्टेशन से गिरफ्तार किया। वहीं हेम की गिरफ्तारी पर पहले-पहल सोशल साइटों पर चल रहा विरोध कमोबेश अब एक अभियान की शक्ल ले चुका है। 
 
बीते24 अगस्त को राजधानी दिल्ली के वाम संगठनों और संस्कृतकर्मियों ने महाराष्ट्र सदन के सामने हेम की गिरफ्तारी के विरोध में प्रदर्शन किया। देश भर के कई वाम संगठनों ने भी हेम, पांडु और महेश की गिरफ्तारी की कड़े शब्दों में निंदा की है। दिल्ली और देश के अन्य वाम संगठनों में हेम की गिरफ्तारी को लेकर जिस बेचैनी और विरोध का माहौल है, वो सिर्फ इसलिये नहीं है कि हेम ‘जेएनयू’ का छात्र था। निस्संदेह, हेम की पहचान जेएनयू में चाइनीज स्टडीज के छात्र और वाम छात्र संगठन डीएसयू के सक्रिय संस्कृतकर्मी की तरह थी, लेकिन सिर्फ इस पहचान के आस-पास बुने गये विश्लेषण और रिपोर्टों से हेम की गिरफ्तारी के विरोध में उठ रही आवाजों की वास्तविक वजहों को नहीं समझा जा सकता। सिर्फ इस पहचान के आधार पर हेम की गिरफ्तारी को नाजायज बताने वाली आवाजों को हमें सहानुभूति से नहीं, बल्कि संदेह की नजर देखना होगा। 
 
दरअसलहम हेम की गिरफ्तारी को एक प्रतीक मान सकते हैं, अनवरत चलने वाली उन गिरफ्तारियों का प्रतीक जिनको अंजाम देते समय अक्सर पुलिस द्वारा माओवाद, नक्सलवाद और मुस्लिम आतंकवाद के फैलने का डर और भय खड़ा किया जाता है। जिसके दायरे में कभी जीतन मरांडी, सुधीर ढवले, सीमा आजाद और विनायक सेन आते हैं तो कभी राज्य दमन के खिलाफ आवाज उठाने वाले वे निर्दोष और अनाम चेहरे आते हैं जिनकी जिंदगी और कभी-कभी तो मौत तक चर्चा का विषय नहीं बन पाते। ये सभी मामले अपने आप में। कहा जा सकता है कि हेम की गिरफ्तारी के मामले में भी जो बेचैनी दिखायी पड़ रही है उसका आधार भी ये पुराने अनुभव ही हैं। 
 
इनसभी मामलों में पुलिस की गिरफ्तारी प्रक्रिया, उसके आरोपों और उसके तमाम दावों में जो गहरे सुराख दिखायी पड़े, उससे यह शक और संदेह और गहरा जाता है कि हेम की गिरफ्तारी के मामले में भी यही सब कुछ दोहराया जा रहा हो। बल्कि हेम की गिरफ्तारी की आधिकारिक सूचना जिस अंदाज और जितनी अस्पष्टता के साथ शुरुआत में सार्वजनिक हुयी, उसने बहुत हद तक इस संदेह पर मुहर लगाने का ही काम किया है। गढ़चिरौली पुलिस की ओर से पहली बार 24 अगस्त को आधिकारिक रूप से प्रेस नोट जारी कर बताया गया कि उसने हेम मिश्रा, पांडु पोरा और महेश टिर्की को 23 अगस्त को अहेरी बस स्टाप से देर शाम गिरफ्तार किया। इसी नोट में पुलिस ने यह भी दावा किया है कि तीनों के पास से एक माइक्रो चिप और खुफिया दस्तावेज मिले हैं जिन्हें वे माओवादी नेता नर्मदा को सौंपने जा रहे थे।
 
हालांकिइस पूरे नोट में पुलिस की ओर से कहीं भी यह नहीं बताया गया है कि उसने किन धाराओं के अंतर्गत इन तीनों को गिरफ्तार किया है? अगर पुलिस के पास माओवादियों से मदद के असंदिग्ध और प्रामाणिक सबूत हैं तो उसे ये बताने या जाहिर करने से परहेज क्यों होना चाहिये कि उसने किन धाराओं के अंतर्गत तीनों को अदालत में पेश किया है? ऐसे और भी कई सवाल हैं जो अनुत्तरित हैं और जिनके अनुत्तरित रहने का तात्पर्य है कि गढ़चिरौली पुलिस ने संभवतः आधे-अधूरे साक्ष्यों और जांच-पड़ताल के आधार पर हेम, पांडु और महेश को गिरफ्तार किया। दरअसल माओवादियों की मदद का आरोप इतना सपाट और सतही तरीके से लगाया जाता है कि इसके बाद गिरफ्तारी की जनतांत्रिक प्रक्रिया और उससे जुड़े सवाल पूछने की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है। अपने वर्गीय और कारोबारी हितों के चलते मुख्य धारा मीडिया भी पलटकर पुलिस से ऐसे सवाल पूछने से हिचकता है। नतीजा ये होता है कि ऐसे मामलों में पुलिस किसी भी स्तर पर जवाबदेह नहीं रह जाती और उसके पास जांच-पड़ताल के नाम पर ऐसे असीमित अधिकार आ जाते हैं जिनका उपयोग वह पूरी वैधता के साथ करती है। 
 
लेकिनबात सिर्फ इतनी ही नहीं है। जनतांत्रिक प्रक्रियाओं की अनदेखी कर पुलिस को असीमित अधिकार देने जैसे स्थिति एक राज्य व्यवस्था के लिये तब आती है जब वह हर हाल में जनता से अपना आज्ञापालक होने की उम्मीद करती है। यह स्थिति तब आती है जब राज्य व्यवस्था के प्रतिनिधियों के पास जनता का भरोसा जीतने के लिये आवश्यक प्राधिकार और युक्तियों की कमी हो जाती है। ऐसी ही सूरत में एक व्यवस्था को ज्यादा से ज्यादा दमनात्मक होना पड़ता है। जल, जंगल, जमीन के आंदोलनों के साथ भारतीय राज्य व्यवस्था के टकराव की परिणीति ऐसी ही दमनात्मक कारर्वाइयों के रूप में हो रही है और इन कार्रवाइयों को अंजाम देने के लिये माओवाद और नक्सलवाद का भय पैदा करना एक ‘जरुरत’ सी बन गयी है। 
 
हेम,पांडु और महेश की गिरफ्तारियों से पहले भी ऐसी कई गिरफ्तारियां इस जरुरत को पूरा करने के लिये ही की जाती रही हैं। इसलिये तीनों की गिरफ्तारी को इन बड़े सन्दर्भों से अलग कर देखना मुश्किल है। अंत में ये दोहराना फिर जरूरी होगा कि सवाल ये नहीं है कि जेएनयू का छात्र होते हुये भी हेम गिरफ्तार हुआ, सवाल ये है कि गढ़चिरौली पुलिस ने हेम को जिन आरोपों में हिरासत में लिया है, क्या पुलिस के पास उन आरोपों में हेम को गिरफ्तार करने का ठोस और पर्याप्त आधार था या पुलिस किसी खास ‘मकसद’ के साथ उन सभी लोगों को कोई संदेश देना चाहती है जो विकास की बनी-बनायी समझदारी पर सवाल उठाने को तत्पर और तैयार दिखायी देते हैं?
अभिनव पत्रकार हैं. पत्रकारिता की शिक्षा आईआईएमसी से. 
राजस्थान पत्रिका (जयपुर) में कुछ समय काम. अभी स्वतंत्र लेखन.
इन्टरनेट में इनका पता  abhinavas30@gmail.com है
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रोहिंग्या मुसलामानों का प्रश्न

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-रुपेश पाठक
रुपेश पाठक
"...रोहिंग्या मुसलमान खु़द को अराकान प्रदेश का पुराना निवासी मानते हैंजबकि म्यांमार की सरकार उन्हें अपनी नस्ल का ही नहीं मानती है. 1978 में हुई जातीय हिंसा के बाद लाखों रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश में शरणार्थी बन कर रह रहे हैं. म्यांमार की कुल आबादी में मुसलमान मात्र फ़ीसदी हैंजबकि बौद्ध धर्म को मानने वाले 89 फ़ीसदी हैं. अभी हाल में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा कि म्यांमार के अधिकारियों के लिए यह ज़रूरी है कि वह रोहिंग्या मुसलमानों की नागरिकता की मांग को पूरा करने के साथ-साथ इस अल्पसंख्यक समुदायों की वैधानिक शिकायतों को दूर करने के लिए आवश्यक क़दम उठाएं..." 


म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों के कारण पलायन करके दिल्ली आ बसे 195 रोहिंग्या मुसलमान वापस जाना नहीं चाहते हैं. ये सभी लोग दक्षिण-पूर्व दिल्ली से लगे जैतपुर की झुग्गियों में पिछले एक वर्ष से कठिन हालात में जीवन काट रहे हैं. जैतपुर में रोहिंग्या समुदाय का आवास किसी भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है और यहां महिलाओं और बच्चों का जीवन बहुत कष्टप्रद है. यही हाल आंध्र प्रदेश के हैदराबाद के पुराने शहर में रह रहे लगभग 250 रोहिंग्या मुस्लिमों का भी हैं, ये सभी जान बचाते हुए भारत की सीमा में प्रवेश कर गए. 

हैदराबादकी एक स्वयंसेवी संस्था 'कन्फ़ेडरेशन ऑफ वालेंटरी एसोसिएशन' इन्हें शरणार्थी का हक़ दिलाने का प्रयास कर रही है. दिल्ली के वसंत विहार इलाके में सुल्तान गढ़ी मस्जि़द के पास भी कऱीब 2000 रोहिंग्या मुस्लिम रह रहे हैं और कितने ही आसपास के राज्य़ों में चले गए हैं. वापस जाने के नाम से ही भयभीत बीस वर्षीय जास्मिन कहती हैं, हम मर जाएंगे लेकिन बर्मा वापस नहीं जाएंगे. वहां जिंदगी वास्तव में नर्क है. यहां भी जीवन इतना आसान नहीं है, लेकिन बर्मा से काफ़ी बेहतर है. यहां हमें कोई परेशान नहीं करता है. म्यांमार के रखिने प्रांत (अराकान) में हिंसा तेज़ होने के बाद मई 2012 में रोहिंग्या मुसलमानों के एक बड़े समूह ने बांग्लादेश होते हुए भारतीय सीमा में प्रवेश किया था. 

रोहिंग्यामुसलमानों को बर्मा के 135 नस्लीय समूहों में शामिल नहीं किया जाता है. उनके साथ बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों जैसा व्यवहार किया जाता है. वहीं बांग्लादेश में उन्हें म्यांमारी कहकर ख़ारिज कर दिया जाता है. इसके परिणामस्वरूप उन्हें बिना किसी नागरिक अधिकारों के रहना पड़ता है. रोहिंग्या समुदाय के लोग संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संस्था से पूर्ण शरणार्थी का दर्जा चाहते हैं. सैकड़ों शरणार्थियों ने दक्षिणी दिल्ली के वसंत विहार स्थित यूएनएचसीआर के मुख्यालय के बाहर प्रदर्शन किया था. म्यांमार के 1982 के संविधान के अनुसार रोहिंग्या मुसलमान क़ानूनी तौर पर म्यांमार के नागरिक नहीं रह गए और इसलिए उनके पास कोई नागरिक अधिकार भी नहीं हैं. रोहिंग्या मुसलमानों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजग़ार, संपत्ति का अधिकार तो है ही नहीं. उन्हें विवाह के लिए भी सरकारी अनुमति चाहिए और एक परिवार केवल दो बच्चे पैदा कर सकता है. 

संयुक्तराष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, रोहिंग्या मुसलमान दुनिया का सबसे ज्यादा पीडि़त समुदाय है. म्यामांर के अधिकारी और मीडियाकर्मी रोहिंग्या लोगों को अवैध बंगाली समझते हैं. इस ग़लत वर्गीकरण का एक राजनीतिक उद्देश्य है. इस जानबूझकर गढ़े गए झूठ के बल पर रोहिंग्या जनसमुदाय को बलात देश निकाला देने की योजना बनाई जा रही है. वास्तविकता यह है कि पिछले वर्ष म्यांमार के राष्ट्रपति थेन सीन ने संयुक्त राष्ट्र संघ को यह प्रस्ताव दिया था कि वे रोहिंग्या समुदाय को किसी भी ऐसे अन्य देश में भेजने को तैयार हैं जो उन्हें स्वीकार करता है. लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ ने इससे इंकार कर दिया था.  

इतिहासकारोंकी मान्यता है कि रोहिंग्या मुसलमानों का मूल एतिहासिक स्थल रोहांग है, जिसे आज आधिकारिक तौर पर रखिने या अराकान के नाम से जाना जाता है. यदि ऐतिहासिक प्रामाणिकता के लिहाज़ से देखा जाए तो ये लगता है कि रोहिंग्या बर्मा के मूल निवासी हैं. सन1700 के आसपास में बर्मा ने रखिने पर क़ब्ज़ा कर लिया था. 20वीं शताब्दी के पहले 50 वर्षों तक अराकान के मूल निवासियों को सस्ते एवं जबरिया मज़दूर के रूप में बंगाल एवं भारत के विभिन्न हिस्सों में भेजा गया और वे वहां स्थाई रूप से बस गए. 'शक्ति संतुलन' अपने पक्ष में न होने से अराकान की 8 लाख रोहिंग्या जनसंख्या बिना किसी क़ानूनी अधिकार के चलते सरकार, सेना और बहुसंख्यक जनता द्वारा नस्लीय हिंसा का शिकार होती चली गई. 

अबतक की सबसे भीषण हिंसा पिछले वर्ष जून से अक्टूबर के मध्य में हुई. बौद्धों को भी इस हिंसा की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी, लेकिन अलग-थलग पड़े और जीवन की किसी सुरक्षा की सुनिश्चितता के बगैऱ मौजूद रोहिंग्या समुदाय को सर्वाधिक नुक़सान झेलना पड़ा था. बौद्ध देश म्यांमार में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों के खि़लाफ़ गुटीय हिंसा में बड़ी संख्या में लोग मारे गए और कऱीब एक लाख 40 हजार लोग बेघर हो गए. इस हिंसा का कारण यह अफ़वाह थी कि मुस्लिम समुदाय एक मस्जिद बनाने की योजना बना रहा है.  कुछ लोगों का मानना है कि यह स्थिति म्यांमार के राजनीतिक सुधारों के लिए ख़तरा है, क्योंकि इससे सुरक्षा बलों फिर से नियंत्रण स्थापित करने का बहाना मिल सकता है. 

रोहिंग्या मुसलमान खु़द को अराकान प्रदेश का पुराना निवासी मानते हैं, जबकि म्यांमार की सरकार उन्हें अपनी नस्ल का ही नहीं मानती है. 1978 में हुई जातीय हिंसा के बाद लाखों रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश में शरणार्थी बन कर रह रहे हैं. म्यांमार की कुल आबादी में मुसलमान मात्र 4 फ़ीसदी हैं, जबकि बौद्ध धर्म को मानने वाले 89 फ़ीसदी हैं. अभी हाल में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा कि म्यांमार के अधिकारियों के लिए यह ज़रूरी है कि वह रोहिंग्या मुसलमानों की नागरिकता की मांग को पूरा करने के साथ-साथ इस अल्पसंख्यक समुदायों की वैधानिक शिकायतों को दूर करने के लिए आवश्यक क़दम उठाएं.  

दूसरीतरफ़, जब म्यांमार में सांप्रदायिक हिंसा से भाग रहे रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश का रुख़ कर रहे थे तब बांग्लादेश की समुद्री पुलिस ने नावों से आ रहे 600 से ज्यादा लोगों को वापस भेज दिया. इनमें ज्य़ादातर महिलाएं और बच्चे थे. ढाका में मौजूद सरकार का कहना था कि वे और लोगों को शरण नहीं दे सकते, क्योंकि उनके देश के दक्षिण पूर्वी हिस्से में पहले से ही तीन लाख से ज्य़ादा रोहिंग्या लोग रह रहे हैं. इन्हें आज तक बांग्लादेश ने न कोई सुविधा दी है और ना ही अपना नागरिक माना है. बांग्लादेश के मुताबिक़, रोहिंग्या सदियों से म्यांमार में रह रहे थे. 1990 में करीब ढ़ाई लाख रोहिंग्या ने म्यांमार के सैन्य शासन से बचने के लिए बांग्लादेश में शरण ली थी. म्यांमार के राखिने प्रदेश की सीमा बांग्लादेश के साथ जुड़ी हुई है. जबकि म्यांमार का कहना है कि रोहिंग्या बांग्लादेश से आए गैऱ-क़ानूनी प्रवासी हैं और इसलिए उन्हें अब तक म्यांमार की नागरिकता नहीं दी गई है.  

ह्यूमनराइट्स वॉच ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसका शीर्षक है, 'बर्मा के अराकान राज्य में मानवता के विरुद्ध अपराध और रोहिंग्या मुसलमानों का दमन'. कई दस्तावेज़ों के आधार पर तैयार की गई 153 पृष्ठों की इस रिपोर्ट के मुताबिक़, रोहिंग्या मुसलमानों पर हमलों को रोकने के लिए म्यांमार के अधिकारियों और सुरक्षा बलों द्वारा कोई प्रयास नहीं किया गया. कभी-कभी तो सरकारी अधिकारी ख़ुद ऐसे हमले करने के लिए स्थानीय लोगों को उकसाते हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल अक्टूबर महीने में तलवारों, बंदूक़ों और देशी बमों से लैस बौद्ध चरमपंथियों ने उन गांवों पर हमले किए थे जिनमें मुख्य रूप से रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं. लेकिन इन हमलावरों को रोकने के लिए सुरक्षा बलों द्वारा कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया था. कुछ सैनिकों ने तो मुसलमानों के विरुद्ध इन दंगों में स्वयं भाग लिया था. 

रोहिंग्या मुसलमानों की भाषा बांग्लादेश के चटगांव में बोली जाने वाली भाषा के समान ही है, पर भाषा की समानता भी बहुत कारगर नहीं है. मई 2012 में म्यांमार में फैली जातीय हिंसा के बाद बांग्लादेश ने अपनी म्यांमार सीमा सील कर दी, जिससे कोई शरणार्थी उसके यहां ना घुस पाए. बांग्लादेश ने शरणार्थियों के लिए काम करनेवाली तीन बड़ी संस्थाओं को पहले से मौजूद म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों की मदद करने से भी रोक दिया.  ऐसे भी दस्तावेज़ उपलब्ध हैं जिनमें थाइलैंड, इंडोनेशिया, बांग्लादेश एवं अन्य स्थानों तक अपने साहस से पहुंचे रोहिंग्या शरणार्थियों को वहां की पुलिस ने समुद्र में खदेड़ दिया. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी ने बताया है कि करीब 13000 रोहिंग्या शरणार्थी जिन्होंने सन् 2012 में तस्करों की नावों से बंगाल की खाड़ी द्वारा म्यांमार छोड़ने का प्रयास किया था, उनमें से कम से कम पांच सौ डूब गए. 

यह स्थिति दक्षिण पूर्वी एशिया (असियान) के देशों के लिए भी हानिकारक है, लेकिन ये सभी देश दिखावटी सुधार के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं. वहीं अमेरिका की अगुवाई में पश्चिमी देश भी म्यांमार की आर्थिक-प्राकृतिक संपदा को आपस में बांटने को तो तत्पर हैं, लेकिन वे मानवाधिकारों के मुद्दे पर कुछ भी नहीं कह रहे हैं. उन्हें छोटे-मोटे लोकतांत्रिक सुधार ही महत्वपूर्ण लग रहे हैं और इसी बहाने पश्चिमी हथियारों की आवक भी बर्मा में बदस्तूर जारी है. जो भी विदेशी नेता यहां आ रहे हैं वे इस संघर्ष को म्यांमार का आंतरिक मामला बता कर कन्नी काट रहे हैं. इस संदर्भ में मज़ेदार बात यह है कि यूरोपीय संघ ने म्यांमार पर लगे प्रतिबंध को हटाने का फै़सला तब किया जब इस देश के संबंध में अमरीका की नीति भी बदल गई. अतीत में वाशिंगटन ने इस देश के विरुद्ध कड़े प्रतिबंध लगाए थे. बाद में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ख़ुद म्यांमार का दौरा किया और इस देश में अमरीकी कंपनियों की वापसी का स्वागत किया. 

मानवाधिकारोंऔर लोकतांत्रिक अधिकारों संबंधी अमरीकी विदेश विभाग की वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया कि म्यांमार दुनिया के उन चंद देशों में शामिल हो गया है जो स्वतंत्रता तथा लोकतांत्रिक अधिकारों के विस्तार के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं. म्यांमार में अमेरिकी सरकार की दिलचस्पी उसकी भू-राजनैतिक स्थिति के साथ-साथ तेल व गैस के भंडार के और अन्य विपुल प्राकृतिक संसाधनों के कारण भी है. म्यांमार की नेता आंग सांग सू की, की नजऱबंदी को समाप्त करना, सैनिक शासन को औपचारिक तौर पर ख़त्म करना आदि ऐसे क़दम रहे हैं जिसके लिए म्यांमार के शासकों पर बाहरी व भीतरी दबाव था. ये सबकुछ हो जाने के बाद दुनिया के देशों का म्यामांर के प्रति नज़रिया बदल गया है और उन्हें वहां रोहिंग्या मुसलमानों पर बढ़ता हुआ हमला नहीं दिख रहा है. लोकतंत्र समर्थक कद्दावर नेता और नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सांग सू की भी चुप हैं.
रुपेश पत्रकार हैं. अभी एक मासिक पत्रिका में काम.

इनसे संपर्क का पता rupesh.iimc@gmail.com है.

छटनी के खिलाफ कानूनी लड़ाई भी मौजूद- कॉलिन गोंजलविस

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-प्रैक्सिस प्रतिनिधि

 "...गौरतलब है की बीती 21 अगस्त को जेएसएफ ने दो समाचार चैनलों सीएनएन-आईबीएन और आईबीएन-7 से एकमुश्त 320 पत्रकारों की हुई छटनी के विरोध में फिल्मसिटी नोएडा में प्रदर्शन भी किया था। उसी के बाद इस बैठक की रूपरेखा तयार की गयी थी। बैठक में मुख्यतः पत्रकार श्रमजीवी कानून-1955 और मजीठीया आयोग की मांगों को लागू करना, मीडिया इंडस्ट्री में व्याप्त कांट्रैक्ट सिस्टम का विरोध करना, मीडिया क्रॉस होल्डिंग से उपज रहे खतरे, प्रेस कमीशन को मजबूत करना और पत्रकारों के लिए मौजूदा काम के हालात जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात हुई।..." 


मीडिया में जारी छटनी और पत्रकारों की समस्याओं को ध्यान में रख आयोजित की गयी पत्रकार एकजुटता मंच (जर्नलिस्ट सोलिडेरिटी फोरम- जेएसएफ) की पब्लिक मीटिंग 31 अगस्त को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में सम्पन्न हुई। इस बैठक में मौजूद वरिष्ठ पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओ और वरिष्ठ वकीलों ने मीडिया पर कॉर्पोरेट के बढ़ते प्रभाव और उससे पैदा हो रही समस्याओं पर सबका ध्यान आकर्षित किया। 

गौरतलबहै की बीती 21 अगस्त को जेएसएफ ने दो समाचार चैनलों सीएनएन-आईबीएन और आईबीएन-7 से एकमुश्त 320 पत्रकारों की हुई छटनी के विरोध में फिल्मसिटी नोएडा में प्रदर्शन भी किया था। उसी के बाद इस बैठक की रूपरेखा तयार की गयी थी। बैठक में मुख्यतः पत्रकार श्रमजीवी कानून-1955 और मजीठीया आयोग की मांगों को लागू करना, मीडिया इंडस्ट्री में व्याप्त कांट्रैक्ट सिस्टम का विरोध करना, मीडिया क्रॉस होल्डिंग से उपज रहे खतरे, प्रेस कमीशन को मजबूत करना और पत्रकारों के लिए मौजूदा काम के हालात जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात हुई। बैठक की शुरुआत करते हुए जेएसएफ सदस्य और मीडिया आलोचक भूपेन सिंह ने कहा कि आज पत्रकारों के पास इतने अधिकार भी नहीं बचे हैं कि वे मालिकों के सामने नौकरी जाने की हालत में भी किसी तरह का विरोध दर्ज करा सकें। एक तरफ जहां पत्रकारों की वर्किंग कंडीशन दिन पर दिन बदतर होती जा रही है वहीं इन मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए पत्रकारों कि योग्यता या योग्यता के लिए परीक्षा जैसे सुनियोजित किस्म कि बातें कि जा रहीं है। 

बैठकमें बतौर वक्ता भाग ले रहे वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने मीडिया में काम कर रहे सीनियर पत्रकारों कि जमकर खबर ली। उर्मिलेश ने कहा कि छटनी जैसे संवेदनशील मुद्दों पर ये सारे आइकोनिक पत्रकार ही सबसे पहले कन्नी काटते नज़र आते हैं। उर्मिलेश ने मीडिया संस्थानों में यूनियनों को फिर से बहाल करने को लेकर भी ज़ोर दिया। उर्मिलेश ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से संबद्ध पार्लियामेंट कि स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट को भी पढ़ने की सलाह दी। उन्होने कहा कि यह एक संवैधानिक रिपोर्ट है और इसी को आधार बनाकर जेएसएफ पत्रकारों के हक़ कि लड़ाई को आगे ले जा सकता है। वरिष्ठ पत्रकार सुरेश नौटियाल ने भी अंबानी परिवार के नब्बे के बाद से मीडिया में  आ रहे दखल पर कई महत्वपूर्ण बातें की। उन्होने ऑब्जर्वर समाचार पत्र कि यूनियन का अध्यक्ष होने के अपने अनुभवों को भी साझा किया और इतिहास कि गलतियों से सबक लेने को कहा। 

भारतीयजन संचार संस्थान में अध्यापक वरिष्ठ पत्रकार आनंद प्रधान ने भी जेएसएफ की इस पहल कि प्रसंशा करते हुए इस मुहिम से अपनी एकजुटता जाहिर की। उन्होनें श्रमजीवी पत्रकार कानून का दायरा बढ़ाने और इसमें संशोधनों की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। अभियान से बाकी मीडिया संस्थानों और लोगों को जोड़ने कि सलाह देते हुए आनंद प्रधान ने कहा कि कानून को लागू करने के बाबत राज्य सरकारों द्वारा बरती गयी उपेक्षा पर भी बात कर इस बारे में और जानकारियाँ जुटानी चाहिए। दैनिक भास्कर से जबर्दस्ती निकाले गए पत्रकार जीतेन ने भी अपना अनुभव साझा करते हुए मीडिया में जारी भ्रष्टाचार पर बात करने कि ज़रूरत को रेखांकित किया। भास्कर के जनसम्पर्क विभाग के हेड राज अग्रवाल कि बतौर पत्रकार प्रधानमंत्री के साथ कि गयी 11 यात्राओं पर भी उन्होने ही सवाल उठा जहे हैं साथ ही उस पर कानूनी कारवाई कि मुहिम जीतेन ही आगे बढ़ा रहे हैं।
 
वरिष्ठपत्रकार भाषा सिंह ने भी पूरी लड़ाई को सिर्फ छटनी के विरोध पर केन्द्रित न रख उसे आगे अधिकारों की बहाली कि लड़ाई में बदलने कि उम्मीद जताई। उन्होने मीडिया में आवाज़ उठाने वालों को निशाना बनाने जैसी घटनाओं के विरुद्ध भी एकजुट होकर आवाज़ उठाने कि उम्मीद ज़ाहिर की। भाषा ने मीडिया में बढ़ रही राइटविंग कैपिटल के प्रति सचेत रहने कि सलाह दी। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडिया ने भी विज्ञापन के बढ़ते प्रभाव और उपभोक्तावाद से प्रभावित मीडिया के असल सवालों से रूबरू होने के लिए पत्रकारों कि एकजुटता को ज़रूरी बताया। वरिष्ठ पत्रकार सुकुमार मुरलीधरन ने भी विज्ञापन इंडस्ट्री की ग्रोथ को आर्थिक वृद्धि की तरह एक बुलबुला बताया और इन छटनियों के पीछे कि असल वजहों पर ध्यान देने कि बात कही। उन्होने क़ानूनों को लागू करने और इसके लिए सरकार पर भी दबाव बढ़ाने के लिए जेएसएफ को प्रेरित किया। वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने मीडिया के फाइनेंशियल स्वरूप पर सवाल उठाते हुए इसे बदले बिना बाकी बातों के व्यर्थ साबित होने पर ज़ोर दिया। प्रशांत ने वैकल्पिक मॉडल कि तरफ ध्यान देने और कई को-ओपरेटिव मॉडलों का उदाहरण देते हुए संभावनाओं को तलाशने कि बात भी कही। 

वरिष्ठपत्रकार परंजय गुहा ठाकुरता ने मुहिम से एकजुटता दिखाते हुए क्रॉस मीडिया ओनरशिप के खिलाफ कड़े कानून बनाने कि मांग पर ज़ोर दिया। उन्होने बिड़ला, अंबानी और ओसवाल के उदाहरण देते हुए साफ किया कि किस तरह ये सब अपने दूसरे व्यवसाओं को मीडिया ओनरशिप से फायदा पहुंचा रहे हैं। नीरा रडिया टेप और कोला घोटाले मे इसकी बानगी देखि जा भी चुकी है। वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंजलविस ने अपने वक्तव्य में यह साफ किया कि कांट्रैक्ट पर काम करने वाले पत्रकार असला में कांट्रैक्ट पर काम करने वाले मजदूर ही हैं। लेकिन इसके बावजूद अगर कांट्रैक्ट वाले भी 100 से ज्यादा कर्मचारियों को निकाला जा रहा है तो इससे पहले सरकार से अनुमति लेनी ज़रूरी है। यह आपका अधिकार है और जो इन चैनलों में हुआ यह सीधे-सीधे कानून का उलंघन है। बैठक में बड़ी संख्या में छात्रों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी अपनी उपस्थिती दर्ज कराई। 

बैठकमें वरिष्ठ पत्रकार पंकज बिष्ट, अमित सेन गुप्ता, वरिष्ठ पत्रकार सत्येन्द्र रंजन, वरिष्ठ पत्रकार अजय सिंह, दिल्ली जर्नलिस्ट यूनियन कि वरिष्ठ पत्रकार सुजाता माधोक, अतुल चौरसिया, यशवंत सिंह, सुधीर सुमन, बृजेश सिंह, प्रियंका दुबे, उमाकांत लखेड़ा, सुरेन्द्र ग्रोवर, मनीषा पांडे, मुकेश व्यास, अभिषेक पाराशर आदि लोग मौजूद रहे। 

नेशनल बुक ट्रस्ट में दैनिक वेतन भोगी मजदूरों की दुर्दशा

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 -सुनील कुमार
सुनील कुमार

"...उन्होंने बताया कि वह करीब 3 वर्ष से नेशनल बुक ट्रस्ट में दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी के रूप में काम कर रह थे। उनका परिवार गांव में रहता है इनके परिवार में तीन बच्चे और पत्नी हैं। ये हर महीने कुछ पैसा बचाकर गांव को भेजते थे जिनसे इनके परिवार का खर्च और बच्चों की पढ़ाई किसी तरह चल रही थी। उन्हें काम पर आने-जाने और दो चाय पीने में करीब 60-70 रु. खर्च हो जाते थे, इनको अभी 298 रुपये प्रति दिन ईएसआई, पीएफ काट कर मिल रहा था। ईएसआई कार्ड तो मिला है जिस पर वे इलाज भी करवाते रहे हैं लेकिन आज तक उनको पीएफ की कोई रसीद प्राप्त नहीं हुई है।  इनके पीएफ नम्बर का इंटरनेट पर कुछ अता-पता नहीं है। हर तीन माह पर उनके अनुबंध का रेवन्यूल कर नये सिरे से काम पर रख लिया जाता था इधर कुछ समय से अनुबंध एक माह पर ही रेवन्यूल किया जाने लगा था।..." 

नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) की स्थापना 1957 में हुई थी। इस संस्थान का मुख्य उद्देश्य था, कम मूल्य में किताबों का प्रकाशन करना, पुस्तक पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना, विदेशों में भारतीय पुस्तकों को प्रोत्साहन दिलाना, लेखकों और प्रकाशकों की सहायता करना, बाल साहित्य को बढ़ावा देना जिससे कि बच्चों को अच्छी पुस्तक मिल सके।  उनको देश के इतिहास, विज्ञान इत्यादि से परिचय कराया जा सके। 

नेशनलबुक ट्रस्ट मानवसंसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्तशासी संस्था है। जिसकी जवाबदेही न के बराबर है लेकिन वहां पर लाभ व भ्रष्टाचार के मामले में किसी भी संस्था से कम नहीं है। इस सस्ंथा में कम्प्यटूर आपरटेर, पिउन, स्टारे, लिफ्ट आपरटेर, बिजली कर्मी, सफाई कर्मी, गार्ड सहित करीब 150 कर्मचारी दैनिक वेतन भोगी हैं। यहां पर तीन ठेकेदार हैं। ये लोग उनके अन्तर्गत काम करते हैं। 

ऐसेही एक दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी से मेरी मुलाकत 12 अगस्त को बस में हुई जब मैं आफिस से घर जा रहा था। वह बस में किसी व्यक्ति से कोई काम दिलाने के लिए कह रहा था। जिज्ञासावश मैं उनसे बात करने लगा तो उन्होंने बताया कि वह करीब 3 वर्ष से नेशनल बुक ट्रस्ट में दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी के रूप में काम कर रह थे। उनका परिवार गांव में रहता है इनके परिवार में तीन बच्चे और पत्नी हैं। ये हर महीने कुछ पैसा बचाकर गांव को भेजते थे जिनसे इनके परिवार का खर्च और बच्चों की पढ़ाई किसी तरह चल रही थी। उन्हें काम पर आने-जाने और दो चाय पीने में करीब 60-70 रु. खर्च हो जाते थे, इनको अभी 298 रुपये प्रति दिन ईएसआई, पीएफ काट कर मिल रहा था। ईएसआई कार्ड तो मिला है जिस पर वे इलाज भी करवाते रहे हैं लेकिन आज तक उनको पीएफ की कोई रसीद प्राप्त नहीं हुई है।  इनके पीएफ नम्बर का इंटरनेट पर कुछ अता-पता नहीं है। हर तीन माह पर उनके अनुबंध का रेवन्यूल कर नये सिरे से काम पर रख लिया जाता था इधर कुछ समय से अनुबंध एक माह पर ही रेवन्यूल किया जाने लगा था। 

पहलेस्टोर में पैकेजिंग का काम किया करते थे बाद में एनसीसीएल बच्चों की लाइब्रेरी में पीयून के रूप में काम करने लगे। जहां पर फाइलों को इधर से उधर करना साथ ही साथ किताबों की सफाई करना और उसको सही जगह पर रखने का काम किया करते थे। एनसीसीएल में दो पियून तथा एक कम्प्यूटर ऑपरेटर ठेके पर थे। इनको बिना किसी पूर्व सूचना के 31 जुलाई को काम से हटा दिया गया इसी तरह कम्प्यूटर ऑपरेटर को भी 15 जुलाई को ही हटा दिया गया जब कि इस कर्मचारी का अनुबंध 31 जुलाई तक का था। अब वो चिंतित है कि उनको काम कब तक मिलेगा अभी बारिश का मौसम है सभी जगह काम की मंदी है। घर का खर्च कैसा चलेगा, बच्चों की फीस कैसे दी जायेगी, फीस जमा न होने पर उनकी पढ़ाई छूट जायेगी। पीएफ की निकासी के लिये ठेकेदार को 300 रु. भी दिये कि जल्दी फॉर्म जमा कर दे।’’ 

एनबीटी में किसी भी अवकाश का पैसा नहीं मिलता है और सप्ताह में दो दिन शनिवार, रविवार की छुट्टी होती है। ये छुट्टी भी दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों को नहीं मिलती है। इस तरह वहां काम करके 6000रु. तक पा जाते थे जो कि सरकार आंकड़े के हिसाब से गरीब नहीं है उनको बीपीपएल कार्ड या अन्य कोई सरकारी सुविधा की जरूरत नहीं है। बच्चे पढ़ पायेंगे कि नहीं पढ़ पायेंगे उस संस्था के कर्मचारी सोच रहे हैं जिस संस्था का निर्माण इसलिए किया गया था कि लोगों में पढ़ने की रूचि पैदा की जाये बच्चों के लिए अलग से विभाग बनाया गया था कि और उसी लाइब्रेरी में काम करने वाला कर्मचारी सोच रहा है कि उनके बच्चे अब कैसे पढ़ेंगे। इस संस्था के डायरेक्टर एम.ए. सिकन्दर है जो कि पूर्व में दिल्ली विश्वविद्यालय के रजिस्टार रह चुके हैं। इससे पता चलता है कि शिक्षा क्षेत्र से जुड़े व्यकित भी किस तरह से मेहनतकश जनता के प्रति असंवेदनशील हो चुके हैं। न तो उनको अपने  मातहत काम करने वाले पीडित़ कर्मचारियों के वर्तमान की चिंता है और न उनके भविष्य की। 

क्या इन कर्मचारियों को जीने का अधिकार नहीं है? इनके बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं है ? जहां पर इन कर्मचारियों को बिना बताये एक झटके में निकाल दिया गया वहीं दूसरी तरफ डायरेक्टर द्वारा अपने परिचतों को डिस्पैच, आर्ट सेल, एकाउन्टस, आईपी सेक्शन, एवं सेल्स कॉर्डिनेशन में रखवाया गया है। एनबीटी का नेहरू भवन अभी 4-5 वर्ष पहले बना है लेकिन उसमें कंस्ट्रक्शन का काम जोर-शोर से करवाया गया है। निश्चय ही डायरेक्टर एम.ए. सिकन्दर को इस काम की प्रेरणा दिल्ली विश्वद्यालय से मिली होगी। हम सभी जानते हैं कि कंस्ट्रक्शन के काम में क्या होता है ये बात किसी से दबी-छुपी नहीं है। हम समझ सकते हैं कि एनबीटी जिस उद्देश्य के लिये बना था उसके इतर वहां पर क्या हो रहा है? अभी हाल में ही सुप्रीम कोर्ट पूछ रहा है कि दिहाड़ी कामगारों का शोषण क्यो? लेकिन इन तीन सालों से काम करने वाले दैनिकवेतन भोगी कर्मचारियों को एक झटके में निकाल बाहर किया गया। क्या यहां का श्रम कानून केवल फाइलों की शोभा बढ़ाने के लिए ही है? यहां बड़े पदों पर आसीन लोगों की कोई जवाबदेही क्यों नहीं है?

सुनील कुमार सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. 
इनसे संपर्क का पता sunilkumar102@gmail.com है.

बाबाओं के प्रपंच का साम्राज्य

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विनय सुल्तान
-विनय सुल्तान

"...1990 के बाद पैदा हुए इन कुकुरमुत्ता संतों की तुलना में इनसे पाँच सौ साल पहले हुए धार्मिक आंदोलन कई बेहतर और विचारवान थे। मसलन आशाराम ने दिल्ली में हुए बलात्कार के बारे में राय दी कि पीड़िता ने अगर को अपराधियों को भाई पुकारा होता और उन्हें भगवान का वास्ता दिया होता तो शायद वो बलात्कार से बच जाती।..."

ड़ा अजीब संयोग है। नव-उदरवाद उस समय देश मे आता है जब देश सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहा था। राम जन्म भूमि ने जो जमीन तैयार की उस पर तमाम तरीके के बाबा कुकुरमुत्तों की तरह उग आए। आशाराम, सुधांशु महाराज,मुरारी बापू,रामदेव,जैसे बाबा अचानक राष्ट्रीय फ़लक पर पसरते चले गए। निर्मल बाबा का उरुज तो अभी कल-परसो की ही बात है। आप इसे महज एक संयोग मान सकते हैं पर आप इस बात पर तो शायद ही असहमत होंगे की इन तमाम बाबाओं ने सत्ता की गला-घोंटू नीतियो के खिलाफ उपजने वाले गुस्से और राजनैतिक चेतना को भोंथरा कर दिया।

भारतके इतिहास मे धार्मिक क्षत्रपों का राजनैतिक दखल कोई नयी बात नहीं ये लोकतन्त्र से पहले और बाद मुसलसल चलता रहा है। चंद्रा स्वामी को शायद ही आप भूले होंगे। पर व्यवसाय के रूप मे कथा वाचन जिस तेजी से पिछले बीस साल मे उभरा है उसका सानी पूरे इतिहास मे नहीं मिलता। देश-विदेश मे हजारों एकड़ जमीन,सैकड़ों आश्रम,करोड़ो की वार्षिक आमदनी, लाखों-करोड़ों अंधे भक्त,राजनैतिक गलियारों मे मजबूत हस्तक्षेप,ये सब कुछ कॉरपोरेट घरानों का धार्मिक संस्करण ही तो है।

रामदेव - $202,503,000, 3 दर्जन कंपनी,400 आश्रम,एक टीवी चैनल
सत्या साईं-98 किग्रा सोना, 307 किग्रा चाँदी,38 करोड़ के अन्य समान, 11.59 करोड़ कैश ,
राम रहीम – 700 एकड़ जमीन सिरसा मे, 250 आश्रम,हॉस्पिटल,कई शिक्षण संस्थान
आनंदमायी माता –  $273,257,000कुल संपत्ति,एक टीवी चैनल
आशाराम – 350 आश्रम, 17000 बाल संस्कार गृह, 350 करोड़ सालाना आमदनी
रवि शंकर - $184,094,000कुल संपत्ति,देश-विदेश मे आश्रम

आशारामपर तांत्रिक क्रियाओं,हत्या,जालसाजी,बलात्कार,जमीन हड़पने,जैसे गंभीर अपराधो के 23 मामले न्यायालय मे लंबित हैं। नवासरी मे जमीन हड़पने का मामला उन पर वर्ष 2000 मे लगा था जो की आज भी कोर्ट मे लंबित है। उसे गिरफ्तार करने मे जोधपुर पुलिस को कई बार मिर्गी के दौरे आए। इसी तरह डेरा सौदा के गुरमीत राम रहीम पर हत्या,बलात्कार,जैसे कई मामले लंबित हैं। तहलका ने सितंबर 2007 मे खुलासा किया था की गुरमीत राम रहीम के पास उनकी हथियारबंद सेना है। बाबा को हरियाणा-पंजाब उच्च न्यायालय ने जमानत दे रक्खी है। वो कल सुबह भी अपने भक्तो को परमात्मा से मिलन के तरीको पर प्रवचन देगा। संत कृपालु जी महाराज,कांचीकामकोटी के शंकराचार्य,सत्य साईं,शनि महाराज आदि पर भी यौन शोषण के कई आरोप लग चुके हैं। सुधांशु महाराज सहित अनेक “संत” कुछ साल एक स्ट्रिंग ऑपरेशन मे पहले काले धन पर सफेदी पोतते पाये गए थे। 

आज तक इन मे से एक भी सलाखों के पीछे नहीं गया। किसी को सजा नहीं हुई। इनका खुला घूमना आपको तब और ज्यादा कचोटता है, जब आपका एक साथी जो संस्कृतिकर्मी था बिना वजह,बिना किसी अपराध पुलिस हिरासत मे नरक से बदतर हालातों से जूझ रहा हो। नरेंद्र दाभोलकर को सरेराह गोलियो से भूना जा रहा हो। सवाल सिर्फ हेम या नरेंद्र का नहीं है उनके जैसे कितने ही राजनैतिक,सांस्कृतिक कार्यकर्ता जिनके नाम हमे मालूम भी नहीं हैं,दमन के पाटो के बीच पीस रहे हैं।

इतिहासके दो दौर धार्मिक और समाज सुधार की दृष्टि से महत्व रखते हैं। पहला 14वीं- 15वीं शताब्दी का और दूसरा 19वीं-20वीं शताब्दी का। आज से पाँच सौ साल पहले जिस दौर मे कबीर,बुल्लेशाह,नानक,पिम्पा,रैदास हुए उस समय विज्ञान इतना ही विकसित था की धर्म की कोई वैज्ञानिक व्याख्या संभव हो पाती। फिर भी वह आंदोलन तत्कालीन समाज के हिसाब से बहुत प्रगतिशील और क्रांतिकारी था। जाति और धर्म पर जो मारक प्रहार उस समय हुए उसने ब्राह्मणवाद को स्पष्ट चुनौती दी। दूसरा दौर ईश्वर चंद विद्यासागर,राम मोहन राय,आदि का दौर था। इसमे आधुनिक शिक्षा और धर्म की सहिष्णु व्याख्या के रास्ते खोले। महिलाओं को कई तरह के शोषण से मुक्त करने के लिए मजबूत हस्तक्षेप किए। 

1990के बाद पैदा हुए इन कुकुरमुत्ता संतों की तुलना में इनसे पाँच सौ साल पहले हुए धार्मिक आंदोलन कई बेहतर और विचारवान थे। मसलन आशाराम ने दिल्ली में हुए बलात्कार के बारे में राय दी कि पीड़िता ने अगर को अपराधियों को भाई पुकारा होता और उन्हें भगवान का वास्ता दिया होता तो शायद वो बलात्कार से बच जाती। यही आशाराम बच्चों में एक पुस्तक का मुफ्त वितरण करते हैं “तू गुलाब बन कर महक”। इस पुस्तक को मैंने बचपन में पढ़ा था। इसमें बताया गया है कि पता नहीं कितने मण भोजन से एक बूंद रक्त बनता और कितनी ही बूंदे रक्त की मिल कर एक बूंद वीर्य बनती हैं। शेर जीवन मे सिर्फ एक बार संभोग करता है (हालांकि बापू की दो संतान हैं)। पृथ्वीराज चौहान गौरी से इस लिए हार गया क्योकि वो युद्ध मे जाने से पहले संभोग कर के गया था। और भी इस प्रकार की अनेक अनर्गल बाते थी। इस प्रकार की अवैज्ञानिक बातों से बाल मन पर क्या प्रभाव पड़ा होगा आप अंदाजा सकते हैंये लोग समाज को क्या दे रहे हैं। आप निर्मल बाबा का ही उदाहरण ले लीजिये। आदमी को अकर्मठ और भाग्यवादी बना कर उसे और गर्त में धकेला जा रहा है। क्या ये लोग जनता को शुद्ध अफीम की खुराक नहीं दे रहे?

बचपन में जब मैं स्कूल के लिए तैयार हो रहा होता तो मेरे दादा जी अलसुबह सोनी टीवी पर आशाराम का प्रवचन सुन रहे होते थे। ये स्मृति मेरे दिमाग में मजबूती से अंकित है। इसके बाद आशाराम कि लोकप्रियता तेजी से बढ़ी। आशाराम का मामला जिस तेजी से मीडिया ने उठाया वो इन बाबाओं को खड़ा करने में उसकी भूमिका को पार्श्व नहीं धकेल सकता। मीडिया का दोहरा चरित्र दिन में ज्यादा नहीं तो एक दर्जन से ज्यादा मौको पर नंगा होता है। जो IBN7 निर्मल बाबा के खिलाफ अभियान छेड़े हुए था उस पर आज एक घंटे का निर्मल दरबार प्रसारित हो रहा है। हर चैनल चाहे वो समाचार हो या मनोरंजन (वैसे सामग्री के आधार पर भेद करना जटिल काम है।) अलसुबह किसी न किसी बाबा को पकड़ कर बैठा देता है। इसके अलाव विशेष धार्मिक पर्व के मौके पर आज तक,ज़ी न्यूज़,P7 आदि कई चैनल स्टुडियो मे पूजा आयोजित करते हैं। 

निर्मलबाबा को जो लोकप्रियता मिली है उसके पीछे खबरिया चैनलों का हाथ होने से कौन इनकार कर सकता है। हिन्दी मे आज 18 धार्मिक चैनल ,अँग्रेजी मे 8,तमिल मे 7 तेलगु मे 2,प्रसारित हो रहे हैं। हमारा समाज विकास कैसे सोपान पर चढ़ रहा है,जहां अंधविश्वास टूटने की जगह हर दिन मजबूत हो रहे हैं। अंधविश्वासों और उनके प्रसारण के खिलाफ एक दर्जन से ज्यादा कानून और आचार संहिता इस देश मे उपलब्ध है। लेकिन नज़र सुरक्षा कवच,महा लक्ष्मी यंत्र,एकमुखी रुद्राक्ष,हनुमान,कुबेर यंत्र,जादुई लाल किताब जैसे ऊल-जलूल उत्पादो का प्रचार धड़ल्ले से समाचार चैनलों पर दिखाया जा रहा है।   
   
आशारामप्रकरण के बाद स्व-घोषित प्रधानमंत्री,उर्फ विकास-पुरुष भाई नरेंद्र मोदी ने कहा की आशाराम यदि दोषी पाये जाते हैं तो सजा होनी चाहिए। साथ ही ये भी कहा की भाजपा नेताओं को बापू के समर्थन मे नहीं उतरना चाहिए। वही भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह आशाराम का शुरुवाती दौर में बचाव करते नज़र आए थे। मोदी के बयान के पीछे 'ऐपको'का फील्डवर्क दिखाई देता है जिसने मोदी को बताया होगा की अभी बलात्कार जैसे मामलों मे किसी का साथ देना घाटे का सौदा हो सकता है। गौरतलब है की ये वही भाजपा है जिसने कांचीकमकोटी के शंकराचार्य पर लगे यौन शोषण के आरोपो को हिन्दू धर्म पर हमला बताते हुए जिला और ब्लॉक स्तर पर जनसभा और रैली की थी। 

इसकेअलावा आशाराम के धार्मिक साम्राज्य का केंद्र अहमदाबाद है। नवसारी का भूमि अधिग्रहण मामला पिछले 13 साल से लंबित है। उनके राज्य गुजरात के साबरमती आश्रम में दो बच्चो की लाश मिली थी। इस मामले में अंदेशा जताया गया था की आशाराम के तांत्रिक प्रयोगो के चलते बच्चों को जान गवानी पड़ी थी । गुजरात में धार्मिक नेता राजनीत में पर्याप्त दाखल रखते हैं। नरेंद्र भाई मोदी कई बार आशाराम के आश्रम पर आयोजित कार्यक्रमों में शिरकत करते पाये गए हैं। इतना ही नही उनकी सरकार ने आशाराम को कई जगह आश्रम बनाने के लिए सस्ती जमीन आवंटित की है। अब विकास पुरुष का ये राजनैतिक सर्कस समझ से परे है।

देश में अजीब राजनैतिक घटघोप है। भाजपा का आशाराम या अन्य किसी संत का समर्थन करना समझ में आता है। पर खुद को अंबेडकर,फुले और कबीर की विरासत का झड़बदार बताने वाले कई दलित चिंतक उस समय आश्चर्यचकित कर देते है जब वो निर्मल बाबा जैसे पाखंडी का समर्थन सिर्फ इस लिए कर देते है क्योंकि निर्मल बाबा पिछड़े वर्ग से आते आते हैं। ये बौद्धिक दिवलियेपन कि पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है। आज के राजनैतिक संदर्भों में यदि आप धर्म और इसके सामंतों के खिलाफ खड़ा होने में यदि हिचकिचाहट महसूस कर रहे हैं तो आपकी राजनीति में बुनियादी रूप कोई गड़बड़ी घुस गई है। 


विनय स्वतंत्र पत्रकार हैं. 
इनसे vinaysultan88@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

कविता की भूमिका पर बातचीत और चंद्रभूषण का कविता पाठ

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Sudhir Suman
सुधीर सुमन
-सुधीर सुमन

जनता के लिए कविता लिखने और पढ़ने-पढ़ाने का माहौल बनाना होगा : विष्णुचंद्र शर्मा 
'कवि'के पुनर्प्रकाशित अंक का लोकार्पण 
बिना राजनीति के आप परिवर्तन नहीं कर सकते। जो अपनी राजनीति को जानते हैं, वही खतरे को भी जानते हैं। आज कवियों के भीतर जो मध्यवर्ग है, वह कहां ले जा रहा है और उनके भीतर की काव्य चेतना उन्हें कहां ले गई है, इस पर विचार करना जरूरी है। पुरस्कारों के लिए नहीं, जनता के लिए कविता लिखने, पढ़ने-पढ़ाने का माहौल बनाना होगा।’ वरिष्ठ कवि-आलोचक विष्णुचंद्र शर्मा ने 31 अगस्त को गांधी शांति प्रतिष्ठान में कविता समूह (जसम) और ‘कवि’ पत्रिका की ओर से ‘आज के समय में कविता की भूमिका’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में यह कहा।

विष्णुचंद्रशर्मा ने बताया कि किस तरह 1957 में जब ‘कवि’ पत्रिका उनके संपादन में निकली, तो तमाम भारतीय भाषाओं और जनभाषाओं के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों का सहयोग उन्हें मिला। उन्होंने कहा कि आज के समय में कवियों के भीतर जो हताशा और खालीपन है, उससे मुक्ति तभी मिलेगी, जब कवियों का देश के विभिन्न इलाकों में चल रहे संघर्षों से संवेदनात्मक रिश्ता बनेगा। उन्होंने कहा कि काव्यशास्त्र का संघर्ष जनता की जिंदगी के संघर्ष से अलग नहीं हो सकता। 

संगोष्ठीके शुरू में कथाकार महेश दर्पण ने ‘कवि’ पत्रिका के इतिहास के बारे में बताया कि उसका पहला अंक जनवरी 1957 में प्रकाशित हुआ था, जिसमें विशिष्ट कवि के रूप में त्रिलोचन की कविताओं को छापा गया था। मुक्तिबोध, नामवर सिंह, भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर, प्रभाकर माचवे, शेखर जोशी, नलिन विलोचन शर्मा, रामदरश मिश्र, दुष्यंत कुमार सरीखे उस दौर के कई रचनाकारों की कविताएं कवि में प्रकाशित हुईं। लोर्का, मायकोवस्की, पुश्किन, वाल्ट ह्विटमैन जैसे विश्वप्रसिद्ध कवियों की कविताएं प्रकाशित करने के साथ ही ‘कवि’ ने पाठकों के काव्यात्मक बोध को उन्नत बनाने वाले कई महत्वपूर्ण आलोचनात्मक लेख भी प्रकाशित किए। उन्होंने कहा कि आज जब विचार के लिए बाजार में जगह नहीं है तो तब बाजार से लड़ते हुए ही कविता का विकास संभव है। 

वर्षों बाद प्रकाशित ‘कवि’ पत्रिका के नए अंक का लोकार्पण करते हुए वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि ‘कवि’ पत्रिका में किस तरह एक आदमी जो उसका संपादक, प्रूफ रीडर, हॉकर- सब कुछ था, इसे याद किया जाना चाहिए। लघु पत्रिका की बात करने वाले लोग पता नहीं क्यों, ‘कवि’ का नाम भूल जाते हैं, जबकि आज जिस तरह की व्यस्तताएं, कंसर्न और चिंताएं हम देख रहे हैं, उसकी तुलना में उस काम को देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि जिसका इतिहास और अतीत नहीं होता, उसका वर्तमान और भविष्य भी नहीं होता। प्रेरणा लेने की जरूरत उन्हें ही पड़ती है, जो कुछ काम करना चाहते हैं।

इस मौके पर विष्णुचंद्र शर्मा के कविता संग्रह ‘यात्रा में कविताएं’ तथा यात्रा-वृत्तांत ‘मन का देश, सब कुछ हुआ विदेश’ का भी लोकार्पण हुआ। 

वरिष्ठकवि अजीत कुमार ने हिंदी में अच्छे कविता संचयन की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वालों की कविताओं का संचयन आना चाहिए तथा हरेक को अपनी रुचि के अनुरूप संचयन निकालना चाहिए। 

आलोचकबृजेश ने कहा कि आज की कविता पर निराला, प्रयोगवाद, नक्सलबाड़ी, रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह का प्रभाव है। आज की कविता पर बात करते हुए हमें ‘विचारधारा’ के लोकेशन पर ध्यान देना होगा, इस पर भी गौर करना होगा कि किस चीज का निगेशन किया जा रहा है और क्यों किया जा रहा है। अपने तीखे आलोचनात्मक वक्तव्य में आज की कविता के बड़े हिस्से की भूमिका के प्रति बृजेश ने अपना असंतोष जाहिर किया।

कविसंजय कुंदन ने कहा कि जब से कविता पर बातचीत ज्यादा होने लगी है, तब अच्छी कविताएं नजर आनी बंद हो गई हैं। हम इतिहास के ऐसे मोड़ पर हैं, जहां जनता जितना सत्ता से निराश है उतना ही विपक्ष से भी निराश है। कविता ही आज का विपक्ष और वैकल्पिक मीडिया है और हाशिए की आवाजों को सामने लाने का माध्यम भी है। बाजार और मीडिया दोनों कविता और आम आदमी के दुश्मन हैं।

कवयित्रीसविता सिंह ने कहा कि आज का दौर स्त्रीवादी कविता का दौर है. हमें कविता पर बातचीत करते वक्त देखना होगा कि जो भी कविताएं स्त्रीवाद के नाम पर लिखी जा रही हैं, उन पर पितृसत्तात्मक मूल्यों का प्रभाव कितना है और कितना उससे टकराव है। उन्होंने कहा कि बहुत सारे सत्य विमर्शों के जरिए भी पैदा किए जाते हैं।  

जेएनयूमें शोधार्थी शेफालिका ने कहा कि निराशा के भीतर से जो प्रतिरोध फूट रहे हैं, उसको सामने लाने वाली ऐसी कविताएं कम हैं, जो लोगों की आवाज बन जाएं। रमाकांत विद्रोही जैसे कवि ही इसके अपवाद हैं। 

वरिष्ठकवि इब्बार रब्बी ने कहा कि जब अराजकता को ही कवियों की नई पीढ़ी क्रांतिकारिता समझती थी, उस दौर में भी वह मुक्तिबोध को ही सबसे बड़ा कवि मानती थी। ‘कवि’ पत्रिका ने जिन कवियों को प्रकाशित किया, उनमें कई कविता आज भी प्रगतिशील-जनवादी कविता धारा के सर्वाधिक पसंद किए जाने वाले कवि हैं। इब्बार रब्बी ने कहा कि कविता एक किस्म की भूमिगत कार्रवाई है।

आयोजनके दूसरे सत्र में चंद्रभूषण ने ‘खुशी का समय’, ‘मायामृग’, ‘मेरा देवता’, ‘पैसे का क्या है’, ‘आय लव आलू-करेला’, ‘स्टेशन पर रात’, ‘शांति प्रस्ताव’ आदि कविताएं सुनाई। ‘कवि’ के पुनर्प्रकाशित अंक में चंद्रभूषण की कविताएं प्रकाशित की गई हैं। जिनके बारे में 'कवि'के इस अंक में कवि-आलोचक आर. चेतनक्रांति ने लिखा है कि  'वे काव्य प्रचलनों, लोकप्रिय भंगिमाओं और सिद्ध मुहावरों से बाहर एक संकोची जगह पर खड़े होकर कवि होते है; और कविता को बाहर खड़ी दुनिया से ज्यादा अपने भीतर आ बसी दुनिया से संवाद के रूप में करते हैं."


 ‘शांति प्रस्ताव’कविता की ये पंक्तियां आज के काव्य परिदृश्य में उनकी कविता के मायने को इस तरह रखती है-

इस दुनिया में हर कोई अपने ही जैसा
क्यों नहीं रह सकता
इस पर इतना टंटा क्यों है
बस, इतनी सी बात के लिए
लड़ता रहता हूं।
मेरी कविता की उड़ान भी 
इससे ज्यादा नहीं है 
मेरी फ़िक्र में क्यों घुलते हो 
मुझे तुमसे कोई युद्ध नहीं लड़ना. 


गोष्ठी का संचालन  कविता समूह (जसम) के संयोजक आशुतोष कुमार ने किया। इस मौके पर कवि राम कुमार कृषक, विवेकानंद, रंजीत वर्मा, भारतेंदु मिश्र, कुमार मुकुल, संजय जोशी, कृष्ण सिंह, यशवंत, मार्तंड प्रगल्लभ, इरेंद्र, दिनेश, निर्भय, रामनिवास आदि भी मौजूद थे। धन्यवाद ज्ञापन महेश दर्पण ने किया।

सुधीर सुमन जसम के राष्ट्रीय सहसचिव हैं. 
इनसे संपर्क का पता  s.suman1971@gmail.com है.

पूर्वाग्रहों का 'सत्याग्रह'

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विनय सुल्तान

-विनय सुल्तान

"...वैसे तो पूरी कहानी ही बड़ी बेहूदगी से बुनी हुई है। कहानी की असल शुरुवात होती है एक सेवानिवृत्त स्कूल टीचर द्वारा लालफ़ीताशाही के विरोध में डीएम को थप्पड़ जड़े जाने के से। इसके बाद उस शिक्षक को जेल में ठूंस दिया जाता है। इसके विरोध में वर्चुअल मीडिया पर एक आंदोलन खड़ा होता है। यह मीडिया का उपयोग करते हुए जमीनी स्तर पर एक क्रिटिकल मास पा लेता है। इसके बाद यह पूरी तरह अन्ना आंदोलन की शक्ल ले लेता है।..."

प्रकाश झा समसामयिक राजनीति पर सिनेमा बनाने के लिए जाने जाते हैं। इसे इस तरह से भी कहा जा सकता है की वो समसामयिक राजनीति पर कबाड़ा सिनेमा बनाने के लिए जाने जाते हैं। चक्रव्यूह में माओवादी आंदोलन को हिंसा और सिर्फ प्रतिहिंसा के आयामों में खोल कर पूरे आंदोलन की बुनियादी राजनीति को जिस तरह से किनारे लगाया था वो कम प्रतिभा वाला काम नहीं था। समकालीन राजनीतिक मुद्दो का कैमरे से कत्ल करना इनसे सीखा जा सकता है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की पर्दे पर हत्या देखनी हो तो आप सत्याग्रह जरूर देखें।

पूरीफिल्म का राजनीतिक विमर्श तब उघड़ जाता है,जब भारत के भविष्य के बारे मे बात करते हुए अजय देवगन कहते हैं “ये आज के भारत का नौजवान है,बीपीओ मे नौकरी करता है,चालीस हजार महीने कमाता है,टैक्स भरता है। ये सरकार का क्लाइंटहै। इसे अच्छी सेवा पाने का हक़ है।” लोकतन्त्र पर इस तरह की बाजारू समझ हैरान कर देने वाली है। साथ ही ये उन बुद्धिजीवियों के लिए बड़ा सवाल है जो अन्ना-आंदोलन को लोकतांत्रिकरण की प्रक्रिया की दिशा मे अहम घटना-विकास के तौर पर देख रहे थे। प्रकाश झा की राजनीतिक समझ कितनी उथली है इसे बार-बार उदाहरण के साथ समझना-समझाना अब गैरजरूरी लगता है।

इसफिल्म पर बात करते हुए अन्ना आंदोलन पर बात करना बेहद जरूरी है। अपनी तमाम आलोचनाओं से इतर इस आंदोलन के कुछ ऐसे पहलू हैं जिन्हें स्वीकार किया जाना चाहिए। इस आंदोलन ने उत्तर भारत की जनता में एक राजनीतिक चेतना को उभारा जबकि इसके पास कोई संगठन या कार्यकर्ता नहीं थे। और यदि थे भी तो इतने बड़े आंदोलन को खड़ा करने मे सक्षम तो कतई नहीं थे। मुझे याद है जब अन्ना हज़ारे को तिहाड़ ले जया गया तो मेरे गाँव (पश्चिमी राजस्थान) के लोग चार बसों में भर कर इस आंदोलन मे शिरकत करने आए थे। दूसरा इस आंदोलन ने उस नौजवान पीढ़ी का कुछ हद तक राजनीतिकरण किया जिसका हमारी शिक्षा व्यवस्था के जरिये बड़ी तरतीब से अराजनीतिकरण और भगवाकारण हुआ था। भगवाकरण से मेरा मतलब शिशु मंदिर द्वारा सींची गई खरपतवार से है जो हिन्दू राष्ट्र के बंजर सपने पर उगी हुई है। हालांकि इस आंदोलन के राजनीतिक संस्करण के परिणाम अभी देखने बाकी हैं,पर मेरा इतिहासबोध इसके ‘सम्पूर्ण क्रांति’ की तरह ही भरभरा जाने की तरफ इशारा करता है। इस आंदोलन के पास पर्याप्त विचारधारत्मक आलंबन का अभाव है जिससे यह लंबी लड़ाई के लिए तैयार नहीं दिखता।

प्रकाशझा की फिल्म ने राजनीतिकरण की इस प्रक्रिया को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया। सिर्फ एक दो दृश्यों में समाने के प्रयास ने इसे वीभत्स अन्याय का शिकार बना दिया। सिर्फ एक दृश्य ऐसा था जो इसे सतही रूप से छूता है,वो भी छात्रों और शिक्षक का चंद सैकंड का संवाद। जिस कारण यह आंदोलन तमाम बुद्धिजीवी हलकों में विमर्श का कारण बना उसे आपने चंद सैकंडो में कब्र मे सुला दिया।

वैसेतो पूरी कहानी ही बड़ी बेहूदगी से बुनी हुई है। कहानी की असल शुरुवात होती है एक सेवानिवृत्त स्कूल टीचर द्वारा लालफ़ीताशाही के विरोध मे डीएम को थप्पड़ जड़े जाने के से। इसके बाद उस शिक्षक को जेल मे ठूंस दिया जाता है। इसके विरोध में वर्चुअल मीडिया पर एक आंदोलन खड़ा होता है। यह मीडिया का उपयोग करते हुए जमीनी स्तर पर एक क्रिटिकल मास पा लेता है। इसके बाद यह पूरी तरह अन्ना आंदोलन की शक्ल ले लेता है। ठीक उसी तरीके से अनशन,तिरंगा लहराया जाना,और सरकार के लिए जनता के दिशा निर्देश आदि-आदि। यहाँ तक ये ठीक था। अन्ना आंदोलन का कुछ-कुछ यथार्थवादी चित्रण एक बार पचाया भी जा सकता है।

फिल्मकी कहानी अपने अंतिम भाग में जा कर बेहूदा हो जाती है जब अचानक ये आंदोलन फिल्मी तरीके से हिंसक हो जाता है। अरे ये क्या हुआ अचानक अन्ना आंदोलन पर बनी इस फिल्म मे लालगढ़ जैसा कुछ टपक पड़ता है। अंबिकापुर को सीआरपी चारों ओर से घेरे हुए है। अचानक अम्बिकापुर के अहिंसक आंदोलनकारी पुलिस के खिलाफ हथियारबंद मोर्चा खोल देते हैं। अर्जुन रामपाल जो इस फिल्म मे आंदोलन के जननेता कि तरह चित्रित हुए हैं,हाथ मे एके-56 ले कर इस हथियारबंद मोर्चे का नेतृत्व करते दिखाये जाते हैं। पूरा अम्बिकापुर अराजकता और आगजनी का शिकार हो जाता है। इसी घटाघोप  के बीच अमिताभ बच्चन नौवाखली के गांधी की तरह हिंसा न करने की अपील करते हुए अर्धविक्षिप्त हालत मे भटकते नज़र आते हैं। और उसके बाद बिरला हाउस के गांधी की स्टाइल मे शहीद हो जाते हैं। तभी आपके मुंह से बरबस ही निकलता है “लानत है”।

फिल्मके आखरी शॉट का सौंदर्य आपको प्रभावित कर सकता है जहां अमिताभ की तस्वीर के सामने शोकसंतप्त अजय देवगन का प्रतिबिंब आधी तस्वीर पर दिखाता है। देखने पर ऐसा लगता है जैसे दोनों एकाकार हो रहे हैं। पर इसके राजनीतिक निहतार्थ समझने बहुत जरूरी हैं। इस फिल्म मे अमिताभ बच्चन के शहीद होने से पहली चीज ये हुई कि,फिल्म के अंत को गांधीवादी रूप दे दिया गया। दूसरा और गंभीर अर्थ अन्ना हज़ारे की राजनैतिक हत्या के संदर्भ में समझना होगा। इस फिल्म ने अन्ना हज़ारे(दूसरा गांधी) को अंत में शहीद बना कर अप्रासंगिक करने कि चालाक कोशिश की है जबकि अन्ना अभी अलग राजनैतिक मोर्चे पर अपनी जमीन तलाश रहे हैं। यहाँ अरविंद और अन्ना के बीच राजनीति में आने के विकल्प पर हुई बहस पर पूरी तरह से पर्दा डाल कर अरविंद केजरीवाल को अन्ना के अक्ष के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। इस जगह ये सिर्फ सिनेमाई कहानी हैवाला तर्क देने से काम नहीं चलाने वाला। एक सीनियर साथी से मिली जानकारी के अनुसार आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता रीगल सिनेमा के बाहर खड़े हो कर लोगों को यह फिल्म देखने की अपील कर रहे थे। गौरतलब है की 30 अगस्त को आम आदमी पार्टी के लिए इस फिल्म का विशेष प्रदर्शन किया गया था। अफवाह तो ये भी है कि,ये फिल्म आम आदमी पार्टी से आर्थिक सहायता प्राप्त है। ये महज़ अटकलबाजी हो सकती है पर आप कि तरफ इसके अत्यधिक झुकाव से इंकार नहीं किया जा सकता।  

इसकेअलावा प्रकाश झा ने अपनी इस फिल्म में भी एक आइटम सोंग (शब्द से गंभीर आपत्ति है) फिल्माया है। गंगाजल,अपहरण,चक्रव्युह,आदि सभी फिल्मों में प्रकाश झा ने इसका खूब प्रयोग किया है। ये प्रवृत्ति समकालीन मुख्य धारा मे कैंसर के माफिक फैली हैं। आज जब एक के बाद एक धर्म गुरु यौन शोषण के आरोप मे घेरे जा रहे हैं। दिल्ली के बाद मुंबई में एक फोटो पत्रकार सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई है। पितृसत्ता को झकझोर देने वाले प्रदर्शन हो रहे हैं। हम सिनेमा मे पुरुष कुंठा को संतृप्त करने वाली इस बेहूदा प्रवृति से निजात पाने के लिए कब तक इंतज़ार करेंगे। यह और अधिक खीज पैदा करता है जब मुंबई मे पितृसत्ता के खिलाफ चल रहे प्रदर्शन में बॉलीवुडसितारे भीड़ बढ़ाने पहुँच जाते हैं,टीवी बाइट देते हैं,फोटो खिंचवाते हैं। क्या उनके पास इस तरह के विरोध प्रदर्शन में शिरकत करने का कोई नैतिक आधार हैं जो अपने सिनेमा से बलत्कार जैसी घटना को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा दे रहे हैं। आप हाल मे ही प्रसारित होने वाली फिल्म ग्रेंड मस्तीका प्रोमो देख लीजिये। आपको घिन्न आ जाएगी। 

इसफिल्म की समीक्षा लिखने कि जरूरत तब महसूस हुई जब कई समीक्षाओं में बच्चन के लिए “सदी के महानायक” जैसे अलंकारो का प्रयोग होते देखा। कम से कम एक समीक्षक के रूप में आपको इस तरह के मिथकों से बचना चाहिए। व्यसायिक सफलता किसी अदाकार के उम्दा होने कि गारंटी नहीं है। वैसे भी जिस सिनेमा ने अमिताभ को व्यावसायिक सफलता दी वो राजनीतिक तौर पर पूरी तरह से इंकरेक्ट थीं।  

विनय स्वतंत्र पत्रकार हैं. praxis में नियमित लेखन. 
इनसे vinaysultan88@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

आसाराम और उनके ‘साधक’ : संत या गुंडे?

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सुनील कुमार
-सुनील कुमार

"...जिस आसाराम को उनके ‘साधक’ त्रिबंध योग के द्वारा अपने को नपुंसक बनाने की बात कह रहे थे वे मेडिकल जांच में साबित हो चुका है कि वे सेक्स कर सकते हैं। अपने को निर्दोष बताने वाले आसाराम जवाब देने से क्यों बचते रहे? क्या मीडिया अब इन बाबाओं को धर्म गुरूओं को दिखाना और उन्हें नायक बनाना बंद कर देगी? महिलाओं के प्रति आशाराम के मनोरोग का पता चलने और थू-थू होने के बावजूद क्या ऐसे बापुओं, बाबाओं, ढोंगी-पाखंडी, साधुओं और अध्यात्मिक गुरुओं के ‘‘कारोबार में कोई कमी आएगी? इन बाबाओं की सभाओं में डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, पत्रकार, फिल्म सितारे, खिलाड़ी पहुंचकर उनकी ढोंग को बढ़ावा देते रहे हैं। क्या ये लोग इनके आश्रमों, चैखटों पर माथा टेकना बंद कर सकते हैं?..."

ह कोई पहला वाकया नहीं है, आसाराम पर पहले भी कई बार आरोप लग चुके हैं, लेकिन हर बार वह अपनी राजनीतिक पहुंच के कारण बड़े-बड़े कांड को भी रफा-दफा कराने में कामयाब रहे। आसाराम के छिंदवाड़ा, ‘गुरूकुल’ में पढ़ने वाली 16 वर्षीय नाबालिग छात्रा ने दिल्ली के कमला मार्केट थाना में 19 अगस्त को यौन शोषण (बलात्कार) का केस दर्ज कराया है। मेडिकल टेस्ट में भी नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार की पुष्टि हो गई है। 

 
लड़कीके स्वस्थ्य होने के बावजूद ‘गुरूकुल’ द्वारा लड़की के मां-बाप को सूचना देकर बुलाया गया और बताया गया कि लड़की बीमार है उस पर भूत-प्रेत की साया है। प्रेत की सया से छुटाकार दिलाने के लिए अनुष्ठान करना पड़ेगा और अनुष्ठान स्वयं आसाराम बापू ही करेंगे और वो जोधपुर के आश्रम में हैं। लड़की व उसके मां-बाप, जोधपुर, आसाराम के पास आ गये। आसाराम का व्यक्तिगत आश्रम जोधपुर के मनई गांव के एक फार्म हाऊस में है। इस आश्रम में आसाराम उनके सहयोगी शिवा तथा महिला सेविका ही प्रवेश कर सकती हैं। यहां तक कि फ़ार्म हाऊस के मालिक और उनके पुत्र नारायण साईं को भी जाने की इजाजत नहीं थी। इसी आश्रम में आसाराम ने पीड़िता व उसके मां-बाप को अनुष्ठान करने के लिये बुलाया था। इसी आश्रम में जांच के दौरान पता चला है कि कुछ माह पहले आसाराम ने एक और लड़की को हवश का शिकार बनाने की कोशिश की लेकिन शोर-मचाने के कारण लड़की बच गई। 

आसारामपर बलात्कार की खबर जब मीडिया में आया तो आसारम के प्रवक्ता सुनली वानखेड़े ने सफेद झूठ बोलते हुए कहा कि बापू उस दिन जोधपुर मे थे ही नहीं, वे 11 अगस्त् को ही जोधपुर से चले गये थे। जब यह साबित हो गया कि आसाराम 15 अगस्त् को जोधपुर में ही थे तो आसाराम ने सफाई देना शुरू किया। आसाराम ने माना कि लड़की व उसके मां-बाप स्वेच्छा से अनुष्ठान कराने के लिए उनके आश्रम में आये हुए थे। वे अपने भक्तों को बता रहे थे कि उनका आश्रम इतना शांत है कि कोई धीरे से भी ताली बजाये तो उसकी आवाज बाहर जाती है। इस तरह आसाराम ने मान लिया कि 15 अगस्त् को लड़की उनके साथ थी, अभी पुछताछ में उन्होंने यह भी माना है कि लड़की 1 घंटे तक उनके साथ एकांत में थी। 

आसाराम के ‘शिष्य’ साधक

आसारामके ‘शिष्य’ जिसको आसाराम की भाषा में ‘साधक/साधिका’ कहा जाता है। उनके व्यवहार से आपको कहीं ऐसा नहीं लगेगा कि वे साधक हैं वे अपने को साधे हुए हैं। उन्होंने जगह-जगह मार-पीट की. यहां तक कि जोधपुर में तो मीडिया वालों को बुरी तरह पीटा, कैमरे तोड़ दिये जिसमें आसाराम की महिला साधक अग्रणी भूमिका निभा रही थीं। इसी तरह 30 अगस्त को जन्तरमन्तर पर आसाराम के ‘साधक/साधिका’ मीडिया के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। इसमें हरियाणा और दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों से 400-500 लोग आये हुए थे। वे मीडिया को पानी पी-पी कर गाली दे रहे थे- ‘‘भारतीय संस्कृति का अपमान नहीं सहेगा हिन्दुस्तान,’’ ‘‘पैसा लेकर अपना ईमान बचेने वाली मीडिया मुर्दाबाद,’’ ‘‘देशद्रोही मीडिया हाय..हाय,’’ ‘‘पेड मीडिया मुर्दाबाद,’’ ‘‘बापू हैं सच्चे, हम हैं बापू के बच्चे’’ इत्यादि।  

इन‘साधकों’ में से एक ‘साधक’ से मेरी बात हुई है यह ‘साधक’ कह रहा था कि ‘‘बापू गंगा जैसे पवित्र हैं वे गलत कर ही नहीं सकते, उनको फंसाया जा रहा है। बापू सेक्स नहीं कर सकते, क्योंकि वे त्रिबंध योग करते हैं जो कि सेक्स पॉवर को खत्म कर देता है। बापू अपने सभी साधकों को त्रिबंध योग सिखाते हैं। मैंने भी कुछ समय किया है जिससे मेरी सेक्स पॉवर खत्म हो रही थी तो मैंने छोड़ दिया क्योंकि मैं शादी-शुदा था। बाबा तो रोज त्रिबंध करते हैं तो वे सेक्स कैसे कर सकते हैं?’’ ये पूछने पर कि बाबा ने यदि गलत किया हो तो क्या होना चाहिए? ये ‘साधक’ अपना आपा खोते हुए गालियां बकने लगा. ‘‘बाबा का कोई ............ उखाड़ नहीं सकता, उसकी........ ये वो,’’ इन गालियों के साथ-साथ वो उसी तरह का एक्शन भी कर रहा था। 

उसीदिन एक और घटना हुई, जब हम दो लोग बात कर रहे थे कि आसाराम की गिरफ्तारी में जानबूझकर देर की जा रही है, उसको काफी समय दिया गया, जबकि दिल्ली-मुम्बई के गैंग रेप में 24 घंटे में गिरफ्तारी हो गई थी। पुराने केसों में भी कुछ नहीं हुआ. उनका एक ‘साधक’ पास में खड़ा था जब मेरे मित्र चले गए तो उसने गाली से बातें शुरू की ‘‘मेरा घर हिसार में है अभी तुम्हारे ......... हाथ कर दूंगा। तू कांग्रेस का दलाल है।’’ ये रहा आसाराम के साधकों का चरित्र। सहिष्णुता की कोई जगह नहीं और असहमति बिलकुल बर्दास्त नहीं। यहां तक कि आसाराम के ‘साधक’ गिरफ्तारी के बाद भी जहाज के अन्दर उनके साथ यात्रा कर रहे थे और मीडिया वालों को अपना काम करने से रोकते रहे। वो बात अलग है कि पिछले दौर में इसी कॉर्पोरेट मीडिया ने अपना टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए आसाराम जैसे पाखंडी बापूओं, गुरूओं, बाबाओं को बढ़ावा दिया है।

लड़कीके पिता का कहना है कि वे ‘‘संत आसाराम बापू को भगवान मान उनकी भक्ति में पागल थे। शाहजहांपुर में आश्रम के लिए जमीन खरिदवाई। लाखों रुपये बापू की सेवा में खर्च कर दिए। पत्नी, बेटे, बेटी भी बापू को भगवान मानते थे। चैनलों और अखबारों में बापू के खिलाफ खबरें देख उन्हें भी बापू के खिलाफ दुष्प्रचार, षड़यंत्र नजर आता था। वे कई बार मीडिया से भिड़ गए, गाली-गलौच तक कर डाला। लेकिन खुद की बेटी के साथ दुष्कर्म होने पर बापू की असलियत का पता चला। बापू के कुकृत्यों को सामने लाने पर जो साधक आज मुझे गलत समझ रहे हैं, असलियत सिद्ध होने पर वे साथी साधक भी उनकी तरह आसाराम से घृणा करने लगेंगे।’’

तो क्या आज जो लोग आसाराम के समर्थन में आ रहे हैं वे अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे हैं? इसमें से बहुत ऐसे लोग होंगे जो दामनी/निर्भया कांड में फांसी की सजा की मांग कर रहे होंगें। लेकिन उनकी आखों पर धर्म की जो पट्टी चढ़ी है उससे आसाराम की दरिंदगी को नहीं देख पा रहा है। आसाराम के प्रमुख सेवादार शिवा ने पुलिस के सामने खुलासा किया है कि आसाराम बापू कई महिलाओं से अकेले में मिलते थे।

आसारामआश्रम के पूर्व सदस्य राजू चंडक ने पुलिस हलफनामे में दावा किया है कि उन्होंने आसाराम को महिलाओं के साथ यौन शोषण करते हुए देखा है। आसाराम तांत्रिक रस्में भी करते हैं इसके बाद दिसम्बर 2009 में राजू चंडक पर दो अज्ञात व्यक्तिों ने अहमदाबाद में बंदूक से जानलेवा हमला किया। जिसमें आसाराम नामजद हैं।

जिसआसाराम को उनके ‘साधक’ त्रिबंध योग के द्वारा अपने को नपुंसक बनाने की बात कह रहे थे वे मेडिकल जांच में साबित हो चुका है कि वे सेक्स कर सकते हैं। अपने को निर्दोष बताने वाले आसाराम जवाब देने से क्यों बचते रहे? क्या मीडिया अब इन बाबाओं को धर्म गुरूओं को दिखाना और उन्हें नायक बनाना बंद कर देगी? महिलाओं के प्रति आशाराम के मनोरोग का पता चलने और थू-थू होने के बावजूद क्या ऐसे बापुओं, बाबाओं, ढोंगी-पाखंडी, साधुओं और अध्यात्मिक गुरुओं के ‘‘कारोबार में कोई कमी आएगी? इन बाबाओं की सभाओं में डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, पत्रकार, फिल्म सितारे, खिलाड़ी पहुंचकर उनकी ढोंग को बढ़ावा देते रहे हैं। क्या ये लोग इनके आश्रमों, चैखटों पर माथा टेकना बंद कर सकते हैं?

बलात्कार जैसे केसों में भी आम और खास का भेद-भाव हो रहा है। जहां दिल्ली और मुम्बई जैसे गैंग रेप के आरोपियों को 24 घंटे में पकड़कर कई दिन पुलिस कस्टडी में रखा गया। क्यों नहीं आसाराम के खिलाफ और सबूत जुटाए जा रहे हैं, उनके ऊपर जो भी अभी तक आरोप लगे हैं उसकी सबुत जुटाये जा रहे हैं? इन सभी सबूतों के आधार पर ही हम पीड़िता को सही न्याय दिला पायेंगे। आसाराम को जेलर अपने घर से दलिया क्यों लाकर दे रहे हैं (इंडिया टीवी) ?  वहीं आसाराम को केस दर्ज होने के 10 दिन बाद गिरफ्तार करते हैं और महज एक दिन की पुलिस कस्टडी में पुछताछ पूरा कर लेते हैं। इसी राजस्थान में बलात्कार के आरोपियों को 10 दिन, 16 दिन और 4 माह में भी सजा सुनाई गई है।

लोगोंको ऐसा अंधभक्त बनाने में धर्म का बहुत बड़ा हाथ है। जिस धर्म में कृष्ण-गोपियों की लीला की बात होती है, जहां एक पुरुष के सैकड़ों-हजारों महिलाओं के साथ सेक्स करने को ग्लोरिफाई किया जाता हो। ऐसे में आसाराम बापू जैसे संतों की ऐसी करतूतें सामने आएँगी ही। शासक वर्ग ऐसे बाबाओं को फलने-फूलने देता है ताकि ये बाबा जनता को मूल समस्याओं से गुमराह रखें। लुटेरों को बचाने के लिए ये लोगों को ‘‘कर्म किये जा फल की चिन्ता मत कर’’ की शिक्षा देते हैं। जिस दिन इन बाबाओं की दुकानें बंद हो जाएंगी लोग सही अर्थों में मुक्ति का रास्ता खोजने लगेंगे।

सुनील कुमार सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. 
इनसे संपर्क का पता sunilkumar102@gmail.com है.

लेखिका सुष्मिता बनर्जी की हत्‍या की निंदा

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प्रेस विज्ञप्ति

सांप्रदायिकता और धार्मिक कठमुल्लापन की संरक्षक राजनीति के खिलाफ जनचेतना संगठित करना वक्‍त की जरूरत है : जसम

नई दिल्‍ली, 7 सितंबर 13
http://timesofindia.indiatimes.com/thumb/msid-22341485,width-300,resizemode-4/Indian-author-Sushmita-Banerjee-shot-dead-in-Afghanistan.jpgम अफगानिस्तान में हुई भारतीय लेखिका सुष्मिता बनर्जी की हत्या की सख्त शब्दों में निंदा करते हैं। यह पूरे एशिया में मानवाधिकार, लोकतंत्र और आजादी पर बढ़ रहे हमले का ही एक उदाहरण है। इस हत्या ने सांप्रदायिक ताकतों और उनको शह देने वाले अमरीकन साम्राज्यवाद तथा नागरिकों की सुरक्षा और मानवाधिकार के लिहाज से विफल सरकारों के खिलाफ एशिया के देशों में व्यापक जनउभार की जरूरत को फिर से एक बार सामने ला दिया है। हालांकि तालिबान ने इस हत्या में अपना हाथ होने से इनकार किया है, पर इस धार्मिक कठमुल्लावादी संगठन, जिसे अमरीकन साम्राज्यवाद ने ही पाला-पोसा, का महिलाओं की आजादी और उनके मानवाधिकार को लेकर बहुत खराब रिकार्ड रहा है। इसने अतीत में भी अपने फरमान न मानने वाली महिलाओं की हत्या की है। यह हत्या अफगानिस्तान में काम कर रही भारतीय कंपनियों और भारतीय दूतावास पर होने वाले तालिबानी हमलों से इसी मामले में भिन्न है। 


सुष्मिताबनर्जी एक साहसी महिला थीं। उन्होंने अफगानिस्तान के व्‍यवसायी जाबांज खान से शादी की थी और 1989 में उनके साथ अफगानिस्तान गई थीं। उन्होंने खुद ही लिखा था कि तालिबान के अफगानिस्तान में प्रभावी होने से पहले तक उनकी जिंदगी ठीकठाक चल रही थी, लेकिन उसके बाद जिंदगी मुश्किल हो गई। वे जो दवाखाना चलाती थीं, तालिबान ने उसे बंद कर देने का फरमान सुनाया था और उन पर कमजोर नैतिकता की महिला होने की तोहमत लगाई थी। सुष्मिता ने अफगानिस्तान में क्या महसूस किया और किस तरह वहां से भारत पहुंची, इसकी दास्तान उन्होंने 1995में प्रकाशित अपनी किताब ' काबुलीवालार बंगाली बोऊ ' यानी काबुलीवाला की बंगाली पत्नी में लिखा। इस किताब पर एक फिल्म भी बनी। हालांकि अभी हाल वे फिर अफगानिस्तान लौटीं और स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में अपना काम जारी रखा। अफगानिस्तान में सैयदा कमाला के नाम से जानी जाने वाली सुष्मिता बनर्जी स्थानीय महिलाओं की जिंदगी की हकीकतों का अपने कैमरे के जरिए दस्तावेजीकरण का काम भी कर रही थीं। अफगानिस्तानी पुलिस के अनुसार पिछले बुधवार की रात उनके परिजनों को बंधक बनाकर कुछ नकाबपोश बंदूकधारियों ने उन्हें घर से बाहर निकाला और गोलियों से छलनी कर दिया।

हम इसे अफगानिस्तान की परिघटना मानकर चुप नहीं रह सकते, मध्यपूर्व के कई देशों में जहां सरकारों के खिलाफ बड़े-बड़े जनांदोलन उभर रहे हैं, वहां भी कट्टर सांप्रदायिक-धार्मिक शक्तियां और उनके साम्राज्यवादी आका अपनी सत्ता कायम रखने की कोशिशें कर रहे हैं। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप या दक्षिण एशिया में भी इस तरह की ताकतों ने सर उठा रखा है। तस्लीमा नसरीन को लगातार मौत की धमकियों के बीच जीना पड़ रहा है। आस्‍ट्रेलियन ईसाई मिशनरी के फादर स्‍टेंस की निर्मम हत्‍या भी भारत में ही हुई है।  विगत 20 अगस्‍त को अंधविश्‍वास विरोधी आंदोलन के जाने माने नेतृत्‍वकर्ता डॉ.  नरेंद्र दाभोलकर की हत्‍या कर दी गई और दो हफ्ते से अधिक समय बीत जाने के बाद भी अभी तक उनके हत्‍यारे गिरफ्त में नहीं आए हैं। बांग्लादेश में 71 के युद्ध के दौरान कत्लेआम करने वाले धार्मिक कट्टरपंथियों के खिलाफ उभरेजनांदोलन में साथ देने वाले नौजवान ब्‍लागर्स की हत्या हो चुकी है। बाल ठाकरे की मौत के बाद बंद को लेकर फेसबुक पर टिप्पणी करने वाली लड़की और उसे लाइक करने वाली उसकी दोस्त की गिरफ्तारी भी कोई अलग किस्म की परिघटना नहीं हैं। महज अफगानिस्तान में ही सरकार नागरिकों के जानमाल की सुरक्षा देने में विफल नहीं है, बल्कि भारत में भी यही हाल है। 

खासकरकई हिंदुत्ववादी संगठन देश के विभिन्‍न हिस्सों में सांप्रदायिक-अंधराष्ट्रवादी दुराग्रहों के तहत लोगों पर हमले कर रहे हैं, अपराधी बलात्कारी बाबाओं की तरफदारी में आतंक मचा रहे हैं और सरकारें उनके खिलाफ कुछ नहीं कर रही हैं। संप्रदाय विशेष से नफरत के आधार पर भारत में भी राजनीति और धर्म की सत्ताएं सामूहिक अंतरात्मा के तुष्टिकरण के खेल में रमी हुई हैं। इसका विरोध करने के बजाए तमाम शासकवर्गीय राजनीतिक पार्टियां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की हरसंभव कोशिशों में लगी हैं। दलित मुक्ति के प्रति प्रतिबद्ध लेखक कंवल भारती पर समाजवादी पार्टी के एक मंत्री के इशारे पर सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने का आरोप भी इसी तरह का एक उदाहरण है। 

इसलिएसुष्मिता बनर्जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि सांप्रदायिकता, पितृसत्‍ता और धार्मिक कठमुल्लापन की प्रवृत्ति को संरक्षण देने वाली राजनीति और उसकी साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ साठगांठ के खिलाफ व्यापक जनचेतना संगठित की जाए। यह कठिन काम है, पर यह आज के वक्त में किसी भी समय से ज्यादा जरूरी काम है। 
सुधीर सुमन, राष्‍ट्रीय सह‍सचिव, 
जन संस्‍कृति मंच द्वारा जारी, 
 मोबाइल- 09868990959
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