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चर्चा आफत की,पुष्पेश जी हाँकें रावत की !

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Indresh Maikhuri

इन्द्रेश मैखुरी

"...इतने पर ही पुष्पेश जी नहीं ठहरे बल्कि इसके आगे बढ़ कर उन्होंने ऐलान कर डाला कि “रावत साहब हमारे दुर्भाग्य से,हमारे सूबे के मुख्यमंत्री नहीं हैं”. ज़रा इस पर भी नजर डाल लें कि जिन हजरत के मुख्यमंत्री ना होने को पुष्पेश जी अपना दुर्भाग्य कह रहे हैं,इन महानुभाव में काबिले तारीफ़ क्या है?..."

पदा के बीच हरक सिंह रावत के उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने की कामना जोरशोर से की जाए तो कैसे लगेगा? थोड़ा अटपटा है ना ! अटपटा नहीं भी हो सकता है, यदि गुटों में बंटी कांग्रेस का कोई नेता ऐसा कहे तो. जैसे हरीश रावत के गुट वालों का सतत प्रयास है कि उनका नेता मुख्यमंत्री बने. पर कमजोर आपदा प्रबंधन पर चर्चा हो रही हो और ऐसी चर्चा के बीच में विद्वान विशेषज्ञ कहें कि हमारा दुर्भाग्य है कि “हरक सिंह रावत जी हमारे मुख्यमंत्री नहीं हैं”, तो यह ना केवल अटपटी बात होगी बल्कि अखरेगी भी. पर जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफ़ेसर पुष्पेश पन्त की उत्तराखंड के कृषि मंत्री हरक सिंह रावत के प्रति ऐसी अंध श्रद्धा है कि उन्हें कमजोर आपदा प्रबंधन की चर्चा के बीच हरक सिंह रावत की तारीफ़ में कसीदे पढ़ना ज्यादा जरुरी लगा.

बात29जून की है. बी.बी.सी. हिंदी के इण्डिया बोल कार्यक्रम में चर्चा का विषय था-“क्यूँ धरा का धरा रह जाता है आपदा प्रबंधन”. चर्चा में उत्तराखंड के कृषि मंत्री हरक सिंह रावत शामिल थे और विशेषज्ञ के तौर पर प्रो.पुष्पेश पन्त. पुष्पेश पन्त की ख्याति जे.एन.यू.के अन्तराष्ट्रीय मामलों के प्रोफ़ेसर के तौर पर सुनी थी. एक साप्ताहिक पत्रिका- “शुक्रवार” में पाक कला पर भी उनका नियमित स्तम्भ देखा है. पर किसी मंत्री के स्तुति गान में भी वे सिद्धहस्त हैं, यह बी.बी.सी. के इस कार्यक्राम को सुनकर ही जाना. हरक सिंह की तारीफ़ पुष्पेश पन्त जी ने कोई एक-आध बार नहीं की. बल्कि लगभग आधे घंटे के कार्यक्रम में जब-जब उन्हें बोलने का मौक़ा मिला,उनके मुंह से हरक सिंह के लिए फूल ही झड़ते रहे.

कार्यक्रमकी शुरुआत में एंकर ने उत्तराखंड के कृषि मंत्री हरक सिंह रावत से पूछा कि लोगों की शिकायत है कि राहत ठीक से नहीं पहुँच रही, तो सरकार आपदा से किस तरह निपट रही है? इसके जवाब में हरक सिंह रावत ने अपने राजनीतिक करियर के दौरान देखी प्राकृतिक आपदाओं का बखान करते हुए, इस आपदा को सबसे बड़ा बता कर, आपदा से निपटने की लचर तैयारियों से पल्ला झाड़ने का प्रयास किया. आपदा से निपटने की कमजोर तैयारियों के सन्दर्भ में जब पुष्पेश पन्त की टिपण्णी मांगी गयी तो कमजोर तैयारियों से पहले पन्त जी को हरक सिंह रावत की तारीफ में कसीदे पढ़ना जरुरी लगा. दिल्ली में रहते हुए भी उत्तराखंड के जनता के तरफ से वे ऐलानिया तौर पर कहते हैं कि जनता में हरक सिंह की “विश्वसनीयता असंदिग्ध है”. फिर वे मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को कोसते हुए कहते हैं कि मुख्यमंत्री विकास का मॉडल बदलने को तैयार नहीं हैं. 

मुख्यमंत्रीकी वाजिब आलोचना करते हुए पुष्पेश जी, जिस तरह से हरक सिंह रावत को तमाम आरोपों से मुक्त करते हैं, वह बेहद चौंकाने वाला है. यह सही बात है कि इस समय जो विकास का मॉडल उत्तराखंड में चल रहा है, वो मुनाफापरस्त, लूटेरा और ठेकेदारों के विकास का मॉडल है. पर प्रश्न सिर्फ इतना है कि क्या हरक सिंह को इस मॉडल से कोई नाइत्तेफाकी है?आज तक ऐसा देखा तो नहीं गया. पिछला विधानसभा का चुनाव हरक सिंह रावत, रुद्रप्रयाग से धनबल के दम से जीत कर आये हैं,इसकी खूब चर्चा रही है. तब कैसे पुष्पेश पन्त जैसे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के ज्ञाता को आपदा की इस घडी में लग रहा है कि विजय बहुगुणा के विकल्प के तौर पर हरक सिंह एकदम दूध के धुले,निष्पाप,निष्कलंक हैं! ये विकल्प नहीं एक ही सिक्के के दो पहलू हैंमहोदय. इनके अहंकार,शातिरता और अकड में उन्नीस-बीस का अंतर हो भी सकता है और ऐसा भी संभव है कि कोई अंतर ना हो.

मामलाइतने पर ही ठहर जाता तो एकबारगी बर्दाश्त किया जा सकता था. पुष्पेश पन्त जी तो जैसे ठान कर आये थे कि बाढ़-बारिश की पृष्ठभूमि में हो रही इस चर्चा में हरक सिंह रावत की तारीफ़ में गंगा,जमुना,अलकनंदा,मंदाकिनी सब एक साथ बहा देनी है. आपदा ग्रस्त रुद्रप्रयाग जिले में आपदा पीड़ितों को राहत पहुंचाने के लिए रात-दिन एक किये हुए शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता गजेन्द्र रौतेला फोन के जरिये इस कार्यक्रम में शामिल हुए. रौतेला ने हरक सिंह रावत से मुखातिब होते हुए कि मंत्री जी से वे और उनके साथी 17जून की शाम को देहरादून में मिले थे और मंत्री जी को केदारनाथ की तबाही में सब नष्ट हो जाने की बात, उन्होंने बतायी थी. लेकिन मंत्री जी ने उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया. हरक सिंह रावत ने स्वीकार किया कि ये लोग उनसे मिले थे. इन लोगों की बात को गंभीरता से ना लेने के आरोप से उन्होंने इनकार किया. लेकिन ये मंत्री महोदय नहीं बता पाए कि गंभीरता से उन्होंने किया क्या? वे मौसम खराब होने और लोगों द्वारा घेरे जाने का बहाना बनाने लगे. 

गौरतलबहै कि गजेन्द्र रौतेला द्वारा मंत्री जी के आपदा पीड़ितों के प्रति उपेक्षा पूर्ण व्यवहार की पोल खोले जाने से पहले,यही हरक सिंह लंबी-लंबी डींगें हांक रहे थे कि उन्होंने आपदा प्रबंधन की व्यवस्था ठीक से हो,इसके लिए उन्होंने नौकरशाही से बड़ा संघर्ष किया.गजेन्द्र रौतेला ने मंत्री जी द्वारा आपदा की विभीषिका बताये जाने के बावजूद उसको अनसुना करने का किस्सा बयान कर मंत्री जी की डींगों की हवा निकाल दी थी. मंत्री जी लडखडाने लगे और केवल वे इतना ही बोल पाए कि गंभीरता कोई रो कर या दिखा कर थोड़े होती है. अन्य कोई व्यक्ति यह कहता तो ये सामन्य बात होती. लेकिन विधान सभा चुनाव जीतने के लिए बुक्का फाड़ कर रोने वाले हरक सिंह, जेनी प्रकरण में फंसने के दौरान भी घडी-घडी आंसू बहाने वाले हरक सिंह जब कहते हैं कि गंभीरता रो कर थोड़े दिखाई जाती है तो इसपर हंसी आती है. ना जी, लोगों के फंसे होने पर क्यूँ रोना,उनके मरने पर क्या अफ़सोस करना. रोना तो चुनाव में ताकि भोली-भाली जनता आंसुओं में बहे और चंट-चालाक ठेकेदार टाईप नोटों में बहें.

बहरहालगजेन्द्र रौतेला द्वारा मंत्री जी को आपदा पीड़ितों के प्रति अगंभीर बताये जाने और हरक सिंह द्वारा गंभीर होने के दावे के बीच एंकर ने फिर पुष्पेश जी से इस मसले पर टिपण्णी मांगी. गोया पुष्पेश जी के पास कोई रिक्टर स्केल टाइप गंभीरता मापक स्केल हो कि वे बता सकें कि मंत्री जी गंभीर थे कि नहीं. पुष्पेश जी ने तो ठान रखी थी कि हरक सिंह की तारीफ़ में सब धरती कागद कर देनी है और सात समुद्र की मसि घिस देनी है. सो तपाक अपनी चिर-परिचित एक सौ अस्सी किलोमीटर प्रति घंटे के रफ़्तार से भागती जुबान से उन्होंने ऐलान कर डाला कि “रौतेला साहब की बात जायज है और मुझे लगता है कि रावत साहब की बात भी अपनी जगह पे जायज है”.एक आदमी कह रहा है कि हमने मंत्री जी को बताया कि हमारे इलाके में सब तबाह हो गया है, आप कुछ करो. मंत्री जी मान रहे हैं कि हाँ ऐसी गुहार लगायी गयी थे, लेकिन कार्यवाही के नाम पर उनके पास कई बहाने हैं. लेकिन पञ्च परमेश्वर फरमाते हैं कि जिसने कार्यवाही करने को कहा और कार्यवाही नहीं हुई, वो भी सही है तथा जिसके कंधे पर कार्यवाही का जिम्मा था, लेकिन उसके पास सफाई में बहाने ही बहाने हैं-वो भी सही है ! हरक सिंह रावत की तरफदारी में नए किस्म का तर्कशास्त्र अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्वान ने गढा कि कार्यवाही ना करने के बावजूद वे सही हैं. कुतर्क इसके अलावा कोई दूसरे किस्म की चीज होती है क्या ?

इतनेपर ही पुष्पेश जी नहीं ठहरे बल्कि इसके आगे बढ़ कर उन्होंने ऐलान कर डाला कि “रावत साहब हमारे दुर्भाग्य से,हमारे सूबे के मुख्यमंत्री नहीं हैं”. ज़रा इस पर भी नजर डाल लें कि जिन हजरत के मुख्यमंत्री ना होने को पुष्पेश जी अपना दुर्भाग्य कह रहे हैं,इन महानुभाव में काबिले तारीफ़ क्या है? 1991 मे उत्तरकाशी भूकंप के समय राहत में धांधली के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और इन हजरत के खिलाफ मुकदमा हुआ था.(तब ये कमल के फूल वाली पार्टी में थे,अब अप्रैल फूल बनाने वाली में) राज्य बनने के बाद पटवारी भर्ती में घपला भी इन्ही की छत्र-छाया में फला-फूला. 

वर्तमानसरकार में भी लाभ के पद का मामला, इनके विरुद्ध गर्माया तो इन्होने उस पद से इस्तीफा दिया. इनकी संवेदनशीलता का नमूना तो इस आपदा के दौरान दिखा कि आपदाग्रस्त क्षेत्रों को जाने वाले हेलिकॉप्टर में पत्रकार घूम सकें,इसके लिए इन्होने राहत सामग्री उतरवा दी. पुष्पेश जी क्षमा करें,इसे अगर आप अपना दुर्भाग्य समझते हैं तो आप,अपना एक नया राज्य या देश जो चाहें बसाना चाहते हों, बसाएं. फिर हरक सिंह रावत को उसमें आप मुख्यमंत्री,प्रधानमंत्री,महाराजाधिराज और जिस भी पदवी से आप नवाजना चाहें,नवाज लें. खुद आप भी उनके सलाहकार-इन-चीफ,महामात्य आदि-आदि जो होना चाहें,हो लें. उत्तराखंड की जनता को ऐसा कोई अफ़सोस नहीं है. उसे अगर कोई अफ़सोस है तो वो,यह कि अब तक जितने मुख्यमंत्री-मंत्री हुए,क्या इन्ही के लिए, उसने कुर्बानियों से यह राज्य बनाया था. उसका दुर्भाग्य इनका मुख्यमंत्री और मंत्री होना है,इनका मुख्यमंत्री ना होना,नहीं.

एक छोटी जगह का अध्यापक है जो बिना किसी भत्ते,इन्क्रीमेंट की चाह रखे,रात-दिन एक कर आपदा पीड़ितों की मदद में लगा हुआ है. अपनी पीड़ा और संवेदनाओं के चलते,बिना नौकरी की परवाह किये,वह राज्य के शक्तिशाली और दबंग मंत्री को कठघरे में खडा करने से भी नहीं चूक रहा है.एक दूसरा बड़ा भारी नामधारी प्राध्यापक है,जो टी.वी.-रेडियो स्टूडियो में बैठ कर शब्द जाल भी अपने हिडन-एजेंडे के साथ रच रहा है. अब बताए इनमें छोटा कौन और बड़ा कौन,बड़ा नामधारी या जमीन पर काम करने वाला ?

पूरा उत्तराखंड आपदा से त्राहि-त्राहि कर रहा है और इस त्रासदी के दर्द को मुख्यमंत्री और उनके मंत्रियों की संवेदनहीनता ने और गहरा दिया.ऐसे में संवेदनशीलता के लिए ख्यातिप्राप्त विश्वविद्यालय-जे.एन.यू. के प्रोफेसर पुष्पेश पन्त द्वारा विफल आपदा प्रबंधन की चर्चा में हरक सिंह रावत पर तारीफों की पुष्प वर्षा करना लाशों पर राजनीति या कहें कि लाशों पर अपना उल्लू सीधा करना नहीं तो क्या कहा जाएगा?
  

  इन्द्रेश आइसा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हैं और अब भाकपा-माले के नेता हैं. 
इनसे इंटरनेट पर indresh.aisa@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

आतंकवाद से फर्जी लड़ाई

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...खुफिया ब्यूरो (आईबी) के बचाव में जैसी मुहिम चलती दिखी, उससे यह सवाल खड़ा होता है कि कानून के राज और नागरिक अधिकारों की मूल धारणा पर आधारित संविधान के लागू होने के तकरीबन साढ़े छह दशक बाद भी क्या इस देश में संवैधानिक मूल्यों की कोई कद्र है? क्या अदालत में साक्ष्यों के आधार पर तय हुए बिना किसी को सार्वजनिक विमर्श में बार-बार आतंकवादी बताया जा सकता है? और अगर मान लें कि कोई आतंकवादी है तब भी उसे सजा आपराधिक न्याय व्यवस्था के प्रावधानों के तहत मिलेगी या खुफिया और पुलिस बल तुरंत इंसाफ के सिद्धांत पर उसे निपटा देंगे?..."

हालांकि यह बेहद देर से हुई पहल है, फिर भी अगर अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री रहमान खान के सुझाव पर केंद्र सरकार ने कदम उठाया तो उससे उस मर्ज की रोकथाम की राह निकल सकती है, जो अब नासूर बन चुका है। वैसे यह ध्यान में रखने की बात है कि रहमान खान के पास सिर्फ रोकथाम का फॉर्मूला है। उससे उन जख्मों का इलाज नहीं होगा, जो देश की मुस्लिम आबादी एक बड़े हिस्से में पीड़ा और आक्रोश की वजह बने हुए हैं। फिर यह अहम सवाल भी है कि प्रस्तावित उपाय सचमुच समस्या के किसी गहरे विश्लेषण और अब उसका समाधान ढूंढने के ईमानदार प्रयास का परिणाम है, या यह अगले आम चुनाव से पहले अल्पसंख्यक वोटरो को लुभाने के लिए उछाला गया शिगूफा है? 

रहमानखान चाहते हैं कि सरकार एक शक्तिशाली कार्यदल बनाए, जो अनेक मुसलमानों पर चल रहे आंतकवाद के मामलों की निगरानी और समीक्षा करेगा। केंद्रीय मंत्री ने यह माना है कि "निर्दोष मुस्लिम युवाओं"को आतंकवाद के आरोपों में गलत ढंग से फंसाया गया है और उन्हें इंसाफ दिलाना जरूरी है। खान चाहते हैं कि इस कार्यदल की अध्यक्षता प्रधानमंत्री करें, ताकि इस व्यवस्था को आवश्यक राजनीतिक वजन मिल सके। लेकिन यह अभी महज एक मंत्री के मन में आया विचार भर है, जिसके बारे में वे प्रधानमंत्री और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखने का इरादा रखते हैं। इस दिशा में कोई पहल होगी, इसकी उम्मीद रखने का फिलहाल कोई ठोस आधार नहीं है। वैसे एक अंग्रेजी अखबार से बातचीत में रहमान खान ने अपने इस प्रस्ताव के साथ इस मसले से जुड़ा एक बुनियादी सवाल जरूर उठा दिया। कहा- "अगर लोग लंबे समय तक हिरासत में रहने के बाद बरी होते हैं तो उन्हें इंसाफ कहां मिलता है?खासकर तब अगर उन्हें मुआवजा नहीं मिलता। जेल में लंबे समय तक रहने का मतलब है कि उनका जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।"

इससंदर्भ में हैदराबाद की मक्का मस्जिद में मई 2007 में हुए विस्फोट का मामला एक मिसाल बना था। जैसाकि पहले अक्सर होता रहा है, विस्फोट होते ही पुलिस ने धड़ाधड़ 20 मुस्लिम नौजवानों को गिरफ्तार कर लिया। न्यायिक कार्यवाही से साबित हुआ कि वे निर्दोष थे। उन्हें बरी कर दिया गया। इसके बाद आंध्र प्रदेश सरकार ने उन्हें आर्थिक मुआवजा दिया। यह रकम 20 हजार से तीन लाख रुपए तक थी। साथ ही आतंकवाद के लगे धब्बे को धोने के लिए पीड़ितों को निर्दोष होने का प्रमाणपत्र दिया गया। तब से यह मुद्दा नागरिक अधिकार आंदोलन के एजेंडे पर है। 

दिल्लीमें मोहम्मद आमिर जब 14 साल जेल में रहने के बाद आतंकवाद के आरोप से बरी हुए, तब भी यह प्रश्न उठा कि क्या एक निर्दोष को सिर्फ बरी कर दिया जाना काफी है?लेकिन यह सवाल भी पूरा नहीं है। इसके साथ महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या किसी की जिंदगी को लगभग बर्बाद कर देने के बाद सिर्फ आर्थिक मुआवजा देना काफी है?क्या यह भी अहम मुद्दा नहीं है कि जिन पुलिसकर्मियों या खुफिया एजेंसियों की वजह से बिना ठोस और पर्याप्त साक्ष्य के किसी को सिर्फ उसकी धार्मिक पहचान के आधार पर पकड़ कर मानसिक या शारीरिक यातना दी गई और फिर वर्षों जेल में रखा गया, उनकी जवाबदेही तय होनी चाहिए?क्या उनसे यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर किस आधार पर उन्होंने गिरफ्तारी की थी?अगर वे संतोषजनक जवाब देने में नाकाम रहे तो क्या उनके खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? 

अगरअभी भारतीय दंड संहिता में ऐसे मुकदमे का प्रावधान नहीं है तो क्या नया कानून बनाने का वक्त अब नहीं आ गया है?इस संदर्भ में रहमान खान से विनम्र प्रश्न है कि क्या वे इस बहस को इस तार्किक मुकाम तक ले जाने को तैयार हैं?

मामलेअगर इक्का-दुक्का होते तो शायद समस्या के एकांगी हल की कोशिश को राहत की बात माना जाता। लेकिन ऐसी घटनाओं का एक अटूट सिलसिला बन गया है। बल्कि यह एक रुझान बन गया है। मक्का मस्जिद की घटना का ऊपर जिक्र हुआ। अब मालेगांव विस्फोट कांड पर गौर कीजिए। यहां जांच और कार्रवाई इतनी बेतुकी है कि किसी न्यायप्रिय व्यक्ति को वह दहला सकती है। 2006 में यह घटना होते ही 13 मुस्लिम नौजवान गिरफ्तार किए गए। लेकिन मक्का मस्जिद की तरह यहां भी आगे की जांच इस निष्कर्ष पर पहुंची कि इस कांड को हिंदू चरमपंथियों ने अंजाम दिया था। 

राष्ट्रीयजांच एजेंसी (एनआईए) एक हिंदू उग्रवादी समूह से जुड़े चार लोगों के खिलाफ चार्जशीट पेश कर चुकी है। लेकिन हैरतअंगेज है कि उन 13 मुस्लिम युवकों को बरी नहीं किया गया है। क्या यह मुमकिन है कि मालेगांव में विस्फोट हिंदू और मुस्लिम चरमपंथियों ने मिलजुल कर किया हो?अगर उनमें से किसी एक ने किया तो दूसरे समूह के लोगों को (अगर वे किसी गुट से संबंधित हों तब भी) किस आधार पर आरोपी बनाए कर रखा गया है?अपनी जांच एजेंसियां आम नागरिक की पीड़ा के प्रति इतनी असंवेदनशील हैं कि उन्हें ऐसी विसंगतियों और उसके परिणामों से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन ये सवाल अहम है कि उन दोनों गुटों में से जिसके भी सदस्य अंततः बरी हो जाएंगे, उन्हें हुए माली और प्रतिष्ठा के नुकसान की भरपाई कैसे की जाएगी और क्या इसके लिए जिम्मेदार जांचकर्मियों की जवाबदेही तय होगी?

अगरउत्तर प्रदेश के मामलों पर गौर करें तो प्रश्न और भी प्रासंगिक हो जाता है। मसलन, खालिद मुजाहिद की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत ने राज्य के स्पेशल टास्क फोर्स को जनमत के कठघरे में खड़ा रखा है। यह मौत तब हुई जब यह खबर चर्चा में थी कि 2007 के बम धमाकों के आरोप में खालिद की गिरफ्तारी की जांच के लिए बने निमेश आयोग ने गिरफ्तारी के हालात को संदेहजनक बताया है। गिरफ्तारी और मौत दोनों की संदिग्ध परिस्थितियों ने न सिर्फ राज्य के आतंकवाद विरोधी स्पेशल टास्क फोर्स और पुलिस बल के कार्य-व्यवहार पर सवाल खड़े किए, बल्कि राजनीतिक नेतृत्व के रुख को भी संदिग्ध बनाया है। 

निमेशआयोग की रिपोर्ट अगर समय पर स्वीकार कर उसके मुताबिक कार्रवाई की गई होती तो शायद खालिद के जिंदा रहते इस मामले की सही तस्वीर सामने आ सकती थी। राज्य सरकार इतने गंभीर मामले में कितनी अगंभीर है, इसकी मिसाल इसी साल अप्रैल में देखने को मिली, जब उसने बिना पूरी तैयारी के खालिद और उसी मामले में गिरफ्तार तारिक कासमी पर से मुकदमे वापस लेने की याचिका बहराइच कोर्ट में पेश की। अन्याय के शिकार आरोपियों को न्याय दिलाने का यह विचित्र तरीका था। कोर्ट ने उचित ही सरकार की याचिका को ठुकरा दिया। 

अगरसरकार गंभीर होती तो वह संबंधित मामले की तीव्र सुनवाई की व्यवस्था करती। इससे उन सबूतों की न्यायिक जांच होती, जिनके आधार पर दोनों आरोपियों को गिरफ्तार किया गया था। अगर सबूत नहीं ठहरते तो दोनों बरी हो जाते। उसके बाद यह दायित्व सरकार पर आता कि वह उनकी क्षतिपूर्ति करती और उन्हें हुए नुकसान के लिए जिम्मेदार अधिकारियों और पुलिसकर्मियों की जवाबदेही तय कर उनके लिए उचित दंड का प्रावधान करती। मगर सरकार ने शॉर्टकट अपनाने की कोशिश की, जो ना तो उचित है और ना ही संभवतः कानून-सम्मत है।

दरअसल, आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों में बिना पर्याप्त साक्ष्य के गिरफ्तारी और सुस्त अदालती कार्यवाही के कारण अनगिनत लोग बिना सजा हुए जेलों में पड़े हुए हैं। इन प्रकरणों के निहितार्थ अत्यंत गंभीर हैं। अगर निर्दोष लोगों को पकड़ा जाता है तो उनके साथ जो होता है वह तो अपनी जगह है, लेकिन उससे यह भी होता है कि असली आतंकवादी तक जांच एजेंसियां नहीं पहुंच पातीं। मतलब, ऐसे गुट और लोग मौजूद हो सकते हैं जो आतंकवादी वारदात को अंजाम देने के बाद बेखौफ घूम रहे हों और उनके कारनामों की सजा वैसे नौजवान भुगत रहे हों, जो मनोगत कारणों से खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों के शक के दायरे में आ गए, या कुछ करते दिखाने का भ्रम पैदा करने के लिए पुलिस ने जानबूझ कर जिन्हें फंसा दिया। 

हैदराबादऔर मालेगांव की मिसालों, निमेश आयोग के निष्कर्ष, मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्टों और अब केंद्रीय मंत्री रहमान खान की स्वीकारोक्ति सिर्फ इसी तरह इशारा करती है कि अब ये समस्या विकट रूप ले चुकी है। लेकिन राष्ट्रीय राजनीति और मीडिया के एक हिस्से में बढ़ते दक्षिणपंथी/सांप्रदायिक झुकाव के कारण इस सवाल पर ना तो खुल कर चर्चा होती है और ना ही इसके समाधानों पर गंभीरता से सोचा जाता है। बल्कि तथ्यों को धुंधला करन की कोशिश होती है, जैसी मिसाल हमने इशरत जहां के मामले में देखी। अहमदाबाद हाई कोर्ट ने सीबीआई को दिए आदेश में साफ कर दिया कि जांच का असली मुद्दा यह है कि क्या इशरत और उसके साथ मारे गए अन्य लोग फर्जी मुठभेड़ में मारे गए? इसके बावजूद चर्चा पर इशरत के आतंकवादी होने या ना होने के प्रश्न को बार-बार उछाला गया है। 

खुफियाब्यूरो (आईबी) के बचाव में जैसी मुहिम चलती दिखी, उससे यह सवाल खड़ा होता है कि कानून के राज और नागरिक अधिकारों की मूल धारणा पर आधारित संविधान के लागू होने के तकरीबन साढ़े छह दशक बाद भी क्या इस देश में संवैधानिक मूल्यों की कोई कद्र है?क्या अदालत में साक्ष्यों के आधार पर तय हुए बिना किसी को सार्वजनिक विमर्श में बार-बार आतंकवादी बताया जा सकता है?और अगर मान लें कि कोई आतंकवादी है तब भी उसे सजा आपराधिक न्याय व्यवस्था के प्रावधानों के तहत मिलेगी या खुफिया और पुलिस बल तुरंत इंसाफ के सिद्धांत पर उसे निपटा देंगे?


जब आतंकवाद को धार्मिक चश्मे से देखने का चलन मजबूत होता गया हो, उपरोक्त प्रश्न देश एवं संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के आगे गहरी चुनौती पेश करते दिखते हैं। याद कीजिए कुछ समय पहले पी चिदंबरम जब गृह मंत्री थे, भगवा आतंकवाद की अपनी टिप्पणी को लेकर कैसे भारतीय जनता पार्टी, संघ परिवार के दूसरे संगठनों और मीडिया के एक हिस्से के निशाने पर आ गए थे। पुलिस महानिदेशकों और सुरक्षा बलों के अधिकारियों के सम्मेलन में चिदंबरम ने देश की सुरक्षा के लिए मौजूद चुनौतियों का जिक्र करते हुए उन्हें ‘भगवा’ आतंकवाद के खतरे से भी आगाह किया। 

इसपर कहा गया कि चिदंबरम ने ‘भगवा’ आतंकवाद की बात कह कर भारतीय संस्कृति का अपमान किया है, क्योंकि साधु-संत भगवा कपड़े पहनते हैं। हिंदू वोट गंवाने की चिंता ने कांग्रेस को भी बचाव की मुद्रा में डाल दिया। पार्टी ने सार्वजनिक बयान जारी कर खुद को चिदंबरम के बयान से अलग किया। वही घिसी-पिटी बात दोहराई कि किसी महजब का आतंकवाद से कोई रिश्ता नहीं होता। बहरहाल, मुद्दा यह नहीं है कि चिदंबरम ने जिस शब्द का इस्तेमाल किया, वह सही है या नहीं? मुद्दा यह है कि जिस संदर्भ का उन्होंने जिक्र किया, वह आज एक हकीकत है या नहीं? 

मालेगांव,हैदराबाद की मक्का मस्जिद, अजमेरशरीफ दरगाह, नांदेड़ और गोवा की घटनाएं क्या उन्होंने जो कहा, उसे कहने के ठोस सबूत नहीं हैं? फिर भी भगवा आतंकवाद शब्द वर्जित है, लेकिन इस्लामी आतंकवाद उतना ही प्रचलित है। आतंकवादी घटनाओं के बाद मुस्लिम नौजवानों की अंधाधुंध गिरफ्तारी या इशरत जहां जैसे मामलों में होने वाली चर्चा को इस राजनीतिक संदर्भ से अलग कर नहीं देखा जा सकता। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वामपंथी दलों को छोड़ कर देश की कोई राजनीतिक शक्ति इस संदर्भ से सीधे टकराने को तैयार नहीं है। इसीलिए रहमान खान के सुझाव भरोसा पैदा करने के बजाय महज शिगूफे का संदेह पैदा करते हैं। क्या खान, मनमोहन सिंह सरकार, कांग्रेस और यूपीए इस शक को गलत साबित कर पाएंगे? 
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सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

जयपुर (कॉरपोरेट) लिट. फेस्ट. के बरक्स 'जन साहित्य उत्सव'की तैयारी करें!

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मुकेश गोस्वामी
-मुकेश गोस्वामी


"...बाजारीकरण के इस दौर में किसी भी लेखक की किताब की बिक्री से उसके लेखन का कद निर्धारित होता है, न कि उसके लेखन की विषय-वस्तु के आधार उसका मूल्यांकन किया जाता है। इसमें भी बाजार अपने हितों की सुरक्षा करने वाले लेखन को प्रोत्साहित करता है। यही कारण है कि बाजार ‘बाजारु लेखक’ तैयार कर रहा है, तब कैसे उम्मीद की जा सकती है कि ये ‘बाजारु लेखक’ जनता के हितों की बात करें ?..."

माने के आदमखोर उस जगह तक आ पहुंचे हैं, जहां पर वे हमारी अभिव्यक्ति के तमाम साधनों को निगल जाने की फिराक में हैं। इंसान को उस गुलामी तरफ बढ़ाया जा रहा है, जहां पर भाव तो बहुत होंगे लेकिन उन्हें व्यक्त करने के लिए भाषा ही नहीं बचेगी। इसके लिए बाजार ने अपने खूनी पंजों में साहित्य को भी जकड़ने का जाल बिछा दिया है। 

चूंकिजनता को अत्याचार और दमन के प्रति सचेत करने में साहित्य की अहम् भूमिका मानी जाती है, इसी वजह से चेतना के प्रवाह तंत्र को तोड़ना इनके लिए जरूरी है। बाजार ने सारी कलाओं को ‘मुनाफे’ के साथ जोड़ दिया, साहित्य, संगीत, नाटक सहित तमाम कलाएं मनोरंजन से लेकर जन जागरण व रोजगार देने का कार्य करती थी, उनका व्यापार किया जाने लगा। जिस तरह से नाटक विधा का सत्यानाश आधुनिक सिनेमा ने किया है। नाट्य कला से जुड़ा हुआ पूरा समाज आज रोजगार से बेदखल हो गया और सरकार व बाजार ने उनके वैकल्पिक रोजगार की कोई व्यवस्था नहीं की। उस समाज के लिए कला केवल मनोरंजन न होकर जीवन संचालन और सरोकारों का साधन थी। कला का एक बड़ा बाजार निर्मित करके मुनाफा कमाने की प्रवृति के तहत इसका अंतर्राष्ट्रीय बाजार भी तैयार हो चुका है। यह एक ऐसा धंधा बन गया जिसमें कोई उत्पादन ही नहीं करना पड़ता है। लोक कलाओं को नये तकनीकी साधनों से परिमार्जित करके जनता को परोसो और अथाह पैसा कमाओ। 

बाजारीकरणके इस दौर में किसी भी लेखक की किताब की बिक्री से उसके लेखन का कद निर्धारित होता है, न कि उसके लेखन की विषय-वस्तु के आधार उसका मूल्यांकन किया जाता है। इसमें भी बाजार अपने हितों की सुरक्षा करने वाले लेखन को प्रोत्साहित करता है। यही कारण है कि बाजार ‘बाजारु लेखक’ तैयार कर रहा है, तब कैसे उम्मीद की जा सकती है कि ये ‘बाजारु लेखक’ जनता के हितों की बात करें ? वे तो मात्र कोरपोरेट हितों के प्रति ही स्वयं को जिम्मेदार मानेंगें। उन लेखकों को ऐसा लगता है कि केवल बाजार के प्रसार से ही विकास किया जा सकता है, किसी प्रकार के सामाजिक उत्तरदायित्व की तो वे जरुरत ही नहीं समझते। उनके लिखने का उद्देश्य भी केवल पैसा कमाना है। 

राजाओं के टुकड़ों पर निर्भर लेखकों और इन ‘बाजारु लेखकों’ के चरित्र में कोई खास फर्क नहीं है, दोनों का काम, मालिक का गुणगान। इसी के कारण आज जो जनपक्षधर और मानवतावादी लेखक हैं उन पर बाजार हमला कर रहा है। उन साहित्यकारों के सामने दोहरी चुनौतियां हैं, एक तो बाजार के लालच और डर से बचने की और दूसरी लगातार जनता के सवालों को उठाते रहने की। साहित्य का एक तबका इन दोनों चुनौतियों का डटकर मुकाबला कर रहा है। उसे न पुरस्कारों का लोभ है और न ही तथाकथित ‘बेस्ट सेलर’ होने की चाहत।  

बाजार के लिए साहित्य मात्र मुनाफे का सौदा ही नहीं है, वह उसके पाप धोने का जरिया भी है। इसमें कालेधन से लेकर काले कारनामे तक सब खपते हैं। शोषण करने वाले तमाम उद्यम, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और कॉरपोरेट जगत अपने आपको पाक साफ दिखाने और सताधारी वर्ग पर अपना दबाव स्थापित करने के लिए कुछ बाजारु लेखकों और कलाकारों को साथ में लेकर, बड़ी-बड़ी इवेंट मैनेजमेंट कम्पनियों को ठेके देकर साहित्य के उत्सव मनाने का ढ़ोंग करते हैं। 

साहित्य और बाजार के ठेकेदारों ने जयपुर को उपयुक्त जगह के रूप में चिह्नित किया है। अब साहित्य भी पूंजी निवेश का एक माध्यम बन गया है जिसमें सालों तक लाभ कमाया जा सकता है। जिस प्रकार औपनिवेशिक समय में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक गुलाम बनाया गया उसी प्रकार वर्तमान में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां देश में आर्थिक गुलामी को साहित्य के माध्यम से स्थापित कर देना चाहती हैं। उनके साहित्य में दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर, और वंचितों के लिए कोई स्थान नहीं है, वे कुछ मुट्ठीभर लोगों के लिए लेखन करते हैं। 

इस साहित्य का कार्य नई आर्थिक नीतियों के लिए ‘ओपिनियन’ बनाना हो गया है, अगर किसानों की जमीन और आदिवासियों के जंगल छीने जा रहे हैं तो यह उसके पक्ष में ‘विकास’ के तर्क गढ़कर अपने आकाओं की नमक अदायगी करता है। आज भी देश में जातिय शोषण की जड़ें मजबूत बनी हुई हैं, आर्थिक गैर बराबरी की खाई भी निरंतर बढ़ती जा रही है। ऐसे समय में हमें यह सोचना चाहिए कि संविधान के समतामूलक समाज की स्थापना के लक्ष्य की प्राप्ती में साहित्य का क्या योगदान हो सकता है?  

ऐसे दौर में जनपक्षधर साहित्य को अपने वैकल्पिक मंच खड़े करने होंगे, जहां से वे बिना किसी दबाव के जनता के हकों की आवाज उठा सकें। आज दलितों, आदिवासियों और वंचितों के बीच से भी उनका साहित्य उभरकर सामने आ रहा है जिसके महत्व को समझना जरूरी है। ऐसे मंच पर इस तरह की तमाम कलाओं और लेखन को प्रस्तुत करने की कोशिश करें जिसे मुख्यधारा का मीडिया और साहित्य नजरअंदाज कर देता है।
इसमें यदि जनपक्षधरता से जुड़े लोग हस्तक्षेप नहीं करेंगे तो बरसों से चली आ रही शोषण की मानसिकता जिसमें दलितों, आदिवासियों, गरीबों व वंचितों को फिर से सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और विशेष रूप से सांस्कृतिक दासता की तरफ धकेल दिया जायेगा।

हमारा मानना है कि जनपक्षधर लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को मिलकर ऐसे आयोजन करने चाहिये जहां पर स्वतंत्र रूप से जन सरोकारों पर गंभीर बहस और विचार-विमर्श किया जा सके।

येआयोजन भले ही छोटे रूप में हों लेकिन अपने तेवर और प्रतिबद्धता को बरकरार रखें ताकि पूंजी के चाकर साहित्य को चुनौती दी जा सके और जनता के सामने एक विकल्प भी प्रस्तुत किया जा सके। हालांकि ऐसी बहसें पहले भी होती रही हैं लेकिन कोई सार्थक पहल नहीं की जा सकी। सारे अरमान हवाबाजी में फंसकर रह गये।

मुकेशसामाजिक कार्यकर्ता हैं. 
mukeshgoswamirti@gmail.com पर इनसे संपर्क करें.

आपदा पीड़ितों के मानसिक स्वास्थ का सवाल

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बिमल रतूड़ी
-बिमल रतूड़ी

"...इस बार की आपदा में उत्तराखंड ने बहुआयामी मार झेली है, हजारों लोग मरे हैं, हजारों की तादात में लोगों के घर टूटे हैं, कई गायब हैं इतनी बड़ी विपत्ति के बाद लोगों के मानसिक पटल पर जो अंकित हुआ है उस से मानसिक अस्थिरता आना कोई बड़ी और अचरज की बात नहीं है. पर अचरज उस सोच पर है जिस में मानसिक स्वास्थ्य पर कोई ध्यान नहीं है. उलट हमारे यहाँ तो आलम यह है कि इसे सीधे पागलपन से जोड़ दिया जाता है और इसी सोच की वजह से कोई भी उत्तराखंड में आई इतनी बड़ी आपदा के बाद हुई मानसिक अस्थिरता पर बात करने तक को भी तैयार नहीं है. हमारे पास न मनोचिकित्सक है न ही मनोवैज्ञानिक न ही मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों का सही एजेंडा कैसे हम इतनी बड़ी आपदा से पूरी तरह से पार पाएंगे?..."


"मीनि बग्नु चांदू....हे माँ मी तें बचे ले..हे पिताजी मी तें बचे ले..."गढ़वाली भाषा में कहे गये इस वाक्य का मतलब है कि मैं नहीं बहना चाहता...हे माँ मुझे बचा ले...हे पिताजी मुझे बचा लो, यह बात अस्पताल में भर्ती वो लड़की रह रह कर कह रही है जब भी वह सोने की थोडा भी कोशिश कर रही है.इस ने इस आपदा में माँ, बाप, घर परिवार सब कुछ गंवाया और इस वक़्त मानसिक अस्थिरता की स्थिति में है.

यहएक छोटी कहानी भर है जिसे शायद इतने बड़े देश में नज़रंदाज़ किया जा सकता है जहाँ लाखों बच्चे कुपोषण से मरते हो, सर्दी, गर्मी, बरसात, ट्रैफिक हर चीज से ही तो मरते हैं. क्या-क्या तो गिनाया जाये?
परइसे नज़रंदाज़ तब नहीं किया जा सकता जब ये एक बड़े हिस्से की कहानी बन जाए, उत्तराखंड में 16, 17 जून को जो कुछ भी हुआ उस से आधे से ज्यादा उत्तराखंड को कई तरह से नुकसान हुआ है, इसमें जान-माल का नुकसान तो है ही परन्तु स्मृतियों में भी वो कुछ अंकित हुआ है जिसे दुबारा से हटा कर सामान्य स्थिति पाना एक चुनौती से कम नहीं है.

उत्तराखंडके चमोली, रुद्रप्रयाग, अगस्तमुनी, उत्तरकाशी, आंशिक रूप से टिहरी के कईयों गावों ने इस आपदा में बहुत कुछ गंवाया है. इसमें एक पहलू मानसिक स्वास्थ्य का भी प्रमुख है, जिस पर चर्चा कम है. डर, दहशत, अनिद्रा, डरावने सपने, निराशा, जड़ता, उदासी, मायूसी, अफसोस, अपराधबोध, स्तब्धता अवसादपानी से भय लगना, अजीब-अजीब सी आवाजें सुनाई देना, शरीर में कंपकंपी रहना कुछ लक्षण भर हैं जिन से बाहर वे लोग बिना किसी मानसिक रोग विशेषज्ञ की देख रेख में इलाज़ के बिना शायद ही निकल पायें.

उत्तराखंडसरकार का चेहरा हम इस आपदा में अच्छे से देख चुके हैं, विभिन्न तरह की लापरवाहियां अलग-अलग स्तर पर देखी गयी हैं, तब चाहे वो यात्रियों को निकालने में हुई देरी हो, खाद्य सामग्रियां पहुँचाने में लेट-लतीफी हो या पुनर्निर्माण के लिए बनाये जाने वाले मास्टर प्लान की खामियां हों या मुआवजे की रकम के बंटवारे को लेकर, हर स्तर पर खामियां ही खामियां नज़र आती हैं. पर फिर भी चर्चा के स्तर पर कम से कम सरकार की तरफ से सस्ते राशन, बैंक का कर्ज लौटने का समय बढ़ाने, रोजगार, वैज्ञानिक ढंग से पुनर्निर्माण और साथ ही ‘मंदिर के पुनर्निर्माण’ करने आदि-आदि की बातें तो हो रही हैं. पर मुझे न मुख्यमंत्री का कोई बयान याद आता है न ही किसी और मंत्री का, कि यह बड़ा इलाका जो आपदा के बाद मानसिक रूप से भी अव्यवस्थित हुआ है उसे पटरी पर लाने का क्या रोड मैप है? क्यूंकि हम मकान आज नहीं तो कल साल दो साल में बना सकते हैं पर मानसिक रूप से जो उन्हें क्षति पहुंची है उसे ठीक करना ज्यादा जरुरी है|

यूनाइटेडस्टेट्स में 2007-2009 के बीच आई आर्थिक मंदी ने नोर्विच–न्यू लन्दन, ब्रुन्सविक, एब्लेने, फ्लिंट, उर्बना, कार्सन सिटी जैसे बड़े शहरों को पूरी तरह बरबाद कर दिया था, लाखों लोगों की नौकरियां चली गयी थी और बड़े-बड़े कारोबार ख़त्म हो रहे थे, यह तबाही चाहे भले ही प्राकृतिक नहीं थी परन्तु इस आर्थिक मंदी के बाद अचानक फार्मा इंडस्ट्री में बड़ा बूम देखने को मिला और मुख्य रूप से उन दवाइयों की मांग बढ़ गयी जो मानसिक रोगों में ली जाती थी, मानसिक अस्पतालों में भीड़ बढ़ गयी मनोचिकित्सक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों की मांग बढ़ गयी और सरकार के सहयोग से हालातों पर काबू पाया गया.

इसबार की आपदा में उत्तरखंड ने बहुआयामी मार झेली है, हजारों लोग मरे हैं, हजारों की तादात में लोगों के घर टूटे हैं, कई गायब हैं इतनी बड़ी विपत्ति के बाद लोगों के मानसिक पटल पर जो अंकित हुआ है उस से मानसिक अस्थिरता आना कोई बड़ी और अचरज की बात नहीं है. पर अचरज उस सोच पर है जिस में मानसिक स्वास्थ्य पर कोई ध्यान नहीं है. उलट हमारे यहाँ तो आलम यह है कि इसे सीधे पागलपन से जोड़ दिया जाता है और इसी सोच की वजह से कोई भी उत्तराखंड में आई इतनी बड़ी आपदा के बाद हुई मानसिक अस्थिरता पर बात करने तक को भी तैयार नहीं है. हमारे पास न मनोचिकित्सक है न ही मनोवैज्ञानिक न ही मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों का सही एजेंडा कैसे हम इतनी बड़ी आपदा से पूरी तरह से पार पाएंगे?

डब्लू.एच.ओ के अनुसार स्वास्थ्य की परिभाषा “
दैहिक, मानसिक और सामाजिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ होना है. भारत में दैहिक यानि शारीरिक रूप से स्वस्थ आदमी को ही स्वस्थ मान लिया जाता है पर हम कभी मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देते और तत्काल परिस्थितियों के अनुसार देखा जाये तो अगर उत्तराखंड में मानसिक स्वास्थ्य पर कार्य नहीं किया गया तो भविष्य क्या होगा कल्पना करना भी हमारे बस में नहीं है.

मानसिकअस्थिरता और मानसिक रोगों को जड़ से दूर किया जा सकता है और अगर सरकार मानसिक स्वास्थ्य को भी अपने एजेंडे में शामिल करती है तभी हम पूर्ण रूप से उत्तराखंड का पूर्ण पुनर्निर्माण कर सकते हैं और दुबारा ज़िन्दगी के सही सपने संजो सकते हैं|     


बिमल पत्रकारिता के छात्र हैं. सामाजिक मुद्दों पर दखल.
  bimal@nazariya.in पर इनसे संपर्क करें.

चमचमाती दिल्ली बनाम अम्बेडकर बस्ती

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सुनील कुमार
-सुनील कुमार

"...मुम्बई का धारावी हो, कोलकता का नोनाडांगा या दिल्ली के अम्बेडकर बस्ती जैसी अन्य बस्तियां; इन बस्तियों मे रहने वालों ने शहर को बनाया है और उन्हीं के बदौलत ये साफ-सफाई के काम, कल-कारखानें, मोटर-गाडि़यां चलते हैं। जब इनके द्वारा एक हिस्से का विकास हो जाता है तो इनको उठा कर नरेला, बावना और भलस्वा जैसे कुड़ेदान में फेंक दिया जाता है कि अब वहां का कूड़ा साफ करो। मानो इनकी नियति ही यही है कि कूड़े की जगह को साफ-सुथरा करो फिर दूसरी जगह जाओ, जैसा कि भलस्वा में पुर्नवास बस्तियों को मात्र 10 साल का ही पट्टा दिया गया है।..."

गांवों की लगातार उपेक्षा के कारण रोजगार के जो भी अवसर थे खत्म होते जा रहे हैं। खेती की लागत लगातार बढ़ती जा रही है। किसानों की जमीन को विभिन्न योजनाओं की तहत छीना जा रहा है। शासक वर्गों द्वारा यह सोची-समझी साजिश के तहत किया जा रहा है जिससे शहरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। पी.चिदम्बरम जैसे लोग चाहते हैं कि भारत की जनसंख्या का 80 प्रतिशत हिस्सा शहरों में आ जाये (गांव की उपजाऊ जमीन पूंजीपतियों के हो जायें)। 

जबगांव का किसान उजड़कर बेहतर जिन्दगी की तलाश में शहर को आता है तो शहर में आकर वह अपने को ठगा सा पाता है और उसके जीवन में कोई बदलाव नहीं आता है। अगर उसके जीवन में कुछ बदलाव आता है तो यह कि जहां वो गांव के खुली स्वच्छ हवा में सांस लेते थे शहरों में आकर कबूतरखाने जैसे दरबे में बदहाल जिन्दगी जीने को मजबूर होते हैं। गांव वापस टीबी, जोंडीस (पीलिया), चर्मरोग जैसी बीमारियों को लेकर जाते हैं और असमय काल के मुंह में समा जाते हैं। शहरों में इनका निवास स्थान झुग्गी-झोपड़ी या फूट-पाथ होता है। इन स्थानों पर रहने वाले लोगों को अपमानजनक जिन्दगी जीने को मजबूर होते हैं उनको चोर, पॉकेटमार, बलात्कारी, मूर्ख इत्यादि की उपाधि दी जाती है। 

2011की जनगणना के अनुसार दिल्ली की जनसंख्या 16,753,235 है। दिल्ली की 25 प्रतिशत जनसंख्या झुग्गियों में रहती है जो कि दिल्ली के क्षेत्रफल का मात्र आधे प्रतिशत में स्थित हैं। दिल्ली शहर 1,48,400 हेक्टेअर क्षेत्र में फैला हुआ है। दिल्ली शहरी विकास बोर्ड के अनुसार दिल्ली में 700 हेक्टेअर जमीन पर 685 बस्तियां बनी हुई हैं। इन 685 बस्तियों में 4,18,282 झुग्गियां हैं। सरकारी आंकड़े के अनुसार भारत में झुग्गी-झोपडि़यों में रहने वालों की जनसंख्या 4,25,78,150 है जिसमें दिल्ली में झुग्गी-बस्तियों की जनसंख्या 20,29,755 (सही आंकड़े 40 लाख से अधिक है) है। यूएनडीपी के ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 2009 में कहा गया है कि मुम्बई में 54.1 प्रतिशत लोग 6 प्रतिशत जमीन पर रहते हैं। दिल्ली में 18.9 प्रतिशत, कोलकता में 11.72 प्रतिशत तथा चेन्नई में 25.6 प्रतिशत लोग झुग्गियों में रहते हैं। 

अम्बेडकर बस्ती

डॉ. अम्बेडकर कैम्प झिलमिल इंडस्ट्रीयल ए और बी ब्लॉक के बीच में बसा हुआ है। सरकारी आंकड़ों में इस बस्ती में 850 झुग्गियां हैं और यह 8175 वर्ग मीटर में बसा हुआ है, यानी एक झुग्गी 10 वर्ग मीटर से भी कम जगह में। यह कैम्प सन् 1975 में बसा था लेकिन इस बस्ती का विस्तार 1990 तक हुआ। 

पटना के रहने वाले सहाजानन्द यादव (55 वर्ष) ब्लॉक की फैक्ट्री में काम करते हैं। उनकी 6 / 6 फीट की झुग्गी है जिसकी उंचाई 7-8 फीट है। उनके कमरे में एक कोने में 5 लीटर गैस का चुल्हा और दो-चार बर्तन है। गर्मी से राहत पाने के लिए एक छोटा सा पंखा है और मनोरंजन का कोई साधन नहीं। उनके घर में 3 / 6 फीट की एक तख्त (चैकी) रखा हुआ है जो कई जगह जला हुआ है। तख्त जलने के कारण पूछने पर बताये कि पहले यहां गड्ढा होता था और बारिश होने पर पानी झुग्गियों के अन्दर आ जाता था तो लोग तख्त पर रख कर खाना बनाते थे खाना बनाते समय उनकी तख्त जल गई है। उन्होंने बताया कि शुरू में चटाई से घेर कर झुग्गियां बनाये थे। जब वो ईंट की झुग्गी बनाने लगे तो एक सिपाही आकर पैसा मांगने लगा। सिपाही को पैसे का झूठा आश्वासन देकर उन्होंने अपनी झुग्गी बना ली। धीरे-धीरे मिट्टी भर कर जगह को ऊंचा किया और अब पानी नहीं लगता है। उन्होंने बताया कि 1975 में नेपाली मूल के लोगों द्वारा सबसे पहले झुग्गी डाला गया और उनकी झुग्गी 1990 से वहां पर है। 

संजितकुमार (32 वर्ष) बिहार के जहानाबाद जिले के रहने वाले हैं। वे दस वर्ष से अम्बेडकर बस्ती में रहते हैं। पहले वे कॉपर की फैक्ट्री में काम करते थे, अब वे बस्ती में ही दुकान चलाते हैं। दुकान तो उनकी अपनी झुग्गी में है और रहने के लिए दूसरी झुग्गी किराये पर ले रखी है। 10 वर्ष में कई बार राशन कार्ड बनवाने की कोशिश की लेकिन दिल्ली सरकार ने आज तक उनका राशन कार्ड नहीं बनाया। जबकि उनके पास मतदान पहचान पत्र हैं और वे वोट भी डालते हैं। शौचालय के लिए ज्यादातर लोग बाहर रेलवे पटरी पर जाते हैं। बस्ती में एक शौचालय है जिसमें 2 रु. देकर शौच के लिए अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है। 

भोलाप्रसाद (42 वर्ष) बिहार के जहानाबाद के रहने वाले हैं। 1992 में इन्होंने झुग्गी खरीदी थी। इनकी भी झुग्गी 6 / 7 फीट की है। अभी इन्होंने अपनी झुग्गी के उपर एक और झुग्गी बना ली है जिसमें दोनों भाई रहते हैं। इनका परिवार गांव पर रहकर मजदूरी करता है। भोला कॉपर फैक्ट्री में काम करते हैं जहां पर इनकी मजदूरी 6000 रु. मासिक है। शौचालय के लिए बाहर रेलवे लाईन पर जाते हैं। घर में कोई मनोरंजन के साधन नहीं है। पानी के लिए दो बाल्टी हैं जिन्हें कि सुबह ही भर कर रख देते हैं ताकि रात में आने के बाद खाना बना सकें और पानी पी सकें। 

अधिकांश झुग्यिां 6 / 6 फीट की हैं लेकिन कुछ बड़ी झुग्गियां 8 / 6 फीट की हो सकती है। ज्यादातर घरों में परिवार है। ज्यादातर घरों में ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी है और किसी-किसी घर में कलर टीवी भी होती हैं। महिलाएं सुबह जल्दी उठ कर शौच के लिए बाहर जाती हैं दिन के समय वे शौचालय का इस्तेमाल करती हैं। बाहर शौच की हालत है कि तेज बारिश होने से ही उसकी सफाई होती है, नहीं तो शौच के ऊपर बैठ कर ही शौच करना पड़ता है। बस्तियों में रोजमर्रा के कामों में शौचालय जाना और पानी भरना एक बड़ी समस्या है। महिलाओं को अंधेरे में इसलिए जागना पड़ता है कि वो पुरुषों के जागने से पहले शौचालय से लौट कर आ जायें। उसके बाद पानी की समस्या आती है। अगर किसी दिन पानी नहीं आये तो नहाना नहीं हो पाता है। ज्यादातर पुरुष कॉपर की फैक्ट्रियों में काम करते हैं। वहीं कुछ महिलाएं फैक्ट्रियों में जाती हैं। ज्यादातर महिलाएं घर पर ही पीन लगाने, स्टीकर लगाने जैसे काम करती हैं जो पूरे दिन मेहनत करने के बाद भी 40-50 रु. ही कमा पाती हैं। बस्ती से कुछ लड़कियां स्कूल-कॉलेज जाती हैं तो कुछ परिवार के कामों में हांथ बंटाती हैं। बस्ती की जिन्दगी सुबह 4-5 शुरू होती है और रात के 12-1 बजे तक चलती रहती है।

दिल्लीके बस्तियों (झुग्गियों) में आधे प्रतिशत जमीन पर 25 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती हैं। अगर अनाधिकृत कालोनियों (कच्ची कालोनियो) को मिला दिया जाये तो जनसंख्या करीब 65 प्रतिशत पहुंचती है। दिल्ली नगर निगम द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिये गये हलफनामे के अनुसार 49 प्रतिशत लोग अनाधिकृत कालोनियों व बस्तियों में रहते हैं जबकि 25 प्रतिशत लोग ही योजनाबद्ध तरीके से बसाये कालोनियों में रहते हैं। 

मुम्बईका धारावी हो, कोलकता का नोनाडांगा या दिल्ली के अम्बेडकर बस्ती जैसी अन्य बस्तियां; इन बस्तियों मे रहने वालों ने शहर को बनाया है और उन्हीं के बदौलत ये साफ-सफाई के काम, कल-कारखानें, मोटर-गाडि़यां चलते हैं। जब इनके द्वारा एक हिस्से का विकास हो जाता है तो इनको उठा कर नरेला, बावना और भलस्वा जैसे कुड़ेदान में फेंक दिया जाता है कि अब वहां का कूड़ा साफ करो। मानो इनकी नियति ही यही है कि कूड़े की जगह को साफ-सुथरा करो फिर दूसरी जगह जाओ, जैसा कि भलस्वा में पुर्नवास बस्तियों को मात्र 10 साल का ही पट्टा दिया गया है। इन इलाकों में इनको पीने के लिए पानी, बच्चों के लिए स्कूल तथा कोई रोजगार तक नहीं है। इनको रोजगार के लिए अपने पुराने क्षेत्र में ही जाना पड़ता है जहां पर इनको आने-जाने में ही 4 घंटे का समय लगता है और इनकी मजदूरी का आधा पैसा किराये में चला जाता है। जब ये घर में ताला लगाकर चले जाते हैं तो इनके घरों के बर्तन तक ‘चोर’ उठा ले जाते हैं। बाल श्रम मुक्त दिल्ली का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार बाल श्रम करने के लिए मजबूर कर रही है। पुनर्वास बस्तियों के बच्चे कबाड़ चुनने, मंडी, चाय की दुकान, फैक्ट्रियों में काम करते हुए मिल जायेंगे- आप चाहें तो आजादपुर, जहांगीरपुरी जैसे क्षेत्रों में जाकर देख सकते हैं।

इनकीबस्तियों के ऊपर कभी भी बुलडोजर चला दिया जाता है। चाहे बच्चों की परीक्षा हो, बारिश हो या कड़कड़ाती ठंड, इनको उठा कर फेंक दिया जाता है जैसे कि इनके शरीर में हाड़-मांस न हो। इन बस्तियों को तोड़कर अक्षरधाम मंदिर, शापिंग काम्प्लेक्स बनाये जा रहे हैं। जिन लोगों के घरों पर बुलडोजर चलाया जाता है उनसे बहुत कम लोगों (शासक वर्ग की जरूरत के हिसाब से) को ही पुनर्वास की सुविधा मुहैय्या कराई जाती है। जिन लोगों को पुनर्वासित किया भी जाता है तो कम जमीन का रोना रो कर 12 गज का प्लाट (इससे बड़ा तो ‘लोकतंत्र के चलाने वालों का बाथरूम होता है) दिया जाता है, जबकि मास्टर प्लान 2021 में कहा गया है कि 40-45 प्रतिशत जमीन पर रिहाईशी आवास होंगे। अगर इन 25 प्रतिशत अबादी को 2 प्रतिशत भी जमीन दे दिया जाये तो ये कबूतरखाने से बाहर आकर थोड़ा खुश हो सकते हैं। 

इतनी बड़ी आबादी को आधे प्रतिशत जमीन पर रहना भी शासक वर्ग को नागवार गुजरता है। उनकी अनुचित कार्रवाई का जनपक्षीय संगठनों द्वारा जब विरोध किया जाता है तो  दिल्ली हाईकोर्ट अपमानजनक टिप्पणी करते हुए कहता है- ‘‘इनको प्लांट देना जेबकतरों को ईनाम देना जैसा है।’’ कुछ तथाकथित सभ्य समाज के लोग कहते हैं कि इन बस्ती वालों के पास फ्रीज, कूलर, टीवी, अलमारियां हैं- जैसा की बस्ती में रहने वाले इन्सान नहीं हैं; उनको इन सब वस्तुओं की जरूरत नहीं है। बस्ती में इस्तेमाल की जाने वाली ज्यादातर वस्तुएं सेकेण्ड हैंड (पुरानी) होती हैं। पुरानी वस्तुओं का इस्तेमाल कर ये लोग पर्यावरण को ही बचाते हैं। अगर आधे प्रतिशत जमीन का इस्तेमाल करने वाले पॉकेटमार है तो कई एकड़ में फैले फार्म हाउस के मालिक क्या हैं? क्या दिल्ली हाई कोर्ट को उनके लिए भी कोई उपनाम है? 

जिसबस्ती में दो पीढि़यां समय गुजार चुकीं बस्ती में ही बच्चे पैदा हुए, पले-बढ़े और उनकी शादी तक हो रही है तो क्या हम उनको वहां का निवासी नहीं मानते? कागज के टुकड़े (नोट) जिसके पास हैं चाहे वे विदेशी भी हों तो उनके लिए यह देश है! जिस विकास को लेकर रात-दिन सरकार चिल्लाती है, जिसे सरकारी भाषा में जीडीपी कहते हैं वह मुख्यतः इन्हीं मेहनतकश जनता के बल पर होता है। इनके परिवार का एक सदस्य गांव में खेती-मजदूरी करता है तो दूसरा शहर में आकर मजदूरी का काम करता है। जब देश की आधी आबादी दो जून की रोटी की मोहताज है तो यह कैसा विकास है? मेहनतकश जनता, जो हमें रोटी से लेकर हर सुविधायें देती है, को हम इन्सान कब समझेंगे? क्या उनको सम्मानपूर्वक, इन्सान की जिन्दगी जीने को कोई अधिकार नहीं है?

सुनील कुमार सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. 
इनसे संपर्क का पता sunilkumar102@gmail.com है.

मिल्खा को भगाने में कहीं कुछ पीछे तो नहीं छूटा?

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कृष्ण कुमार
-कृष्ण कुमार

"...फिक्शन फिल्म को यह छूट दी जा सकती है. मगर सच्ची तारीखों में गुथी एक कहानी को फिल्म में ढालने पर यह छूट यूं ही नहीं दी जा सकती. क्या रोम ओलंपिक में मिल्खा की हार की यही वजह रही इसकी व्यावहारिकता पर शक होता है. यह स्क्रिप्ट की जरूरत थी और इसे गढा गया या कि वाकई यह मिल्खा की उस आत्मकथा दी रेस ऑफ माय लाइफ’ में दर्ज है जिस पर यह फिल्म आधारित हैयह एक पड़ताल का विषय जरूर है. शीघ्र प्रकाशित होने वाली इस आत्मकथा से शायद चीजें और खुलें..."


रे पूरे परिवार का आँखों के सामने मरना. घर में जाकर उनके जिन्दा होने या मरने की तस्दीक करना. पर सभी घर वाले तो रहे नहींभारी मन से क्रंदन... माँ के हाथ को उठानाऔर जिस हाथ का साया हमेशा सर पर रहता था उसी हाथ का निढाल होकर गिर जाना....7-8अपनों को हिला कर देखनापर वो अपने तो लाश बन चुके हैं. सब ख़तम..... तकरीबन 12साल के रहे मिल्खा के साथ ऐसा ही हुआ था...


मिल्खा सिंह को कभी भागते हुए नहीं देखापता नहीं कैसा दौड़ते होंगेलेकिन फरहान अख्तर को देखकर लगा कि मिल्खा साकार हो गए. ‘भाग मिल्खा भाग’ एक बड़े कैनवास की फिल्म है. इसका फलक व्यापक है. यह महज एक एथलीट की सफलता की कहानी नहीं है बल्कि व्यापक सन्दर्भों को उसके इतिहास के साथ खुद में पिरोती कहानी है. विभाजनभारत-पाकिस्तान के साझे इतिहास का सबसे काला अध्याय है. और कहानी इसी से जुड़ आगे बढ़ती है. इसलिए इसकी पड़ताल में इतिहास-बोध भी महत्वपूर्ण मसला है.

भाग मिल्खा भाग की शुरुआत में ही एक कल्पना यह बुनी गई है कि आखिर 400 मीटर के रेस में करीब 250 मीटर तक सबसे आगे रहने के बाद मिल्खा 1960 के रोम ओलंपिक में पीछे दायीं तरफ दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम स्पेन्स को मुड़कर क्यों देखते हैं?इस वजह से ये लड़ाका 45.73 सेकंड के साथ चौथे स्थान पर ठिठक जाता हैरोम में ओलंपिक से कुछ समय पूर्व फ़्रांस में उन्होंने 45.8 का समय निकला थाइस लिहाज से वह रोम में फेवरेट थे. (उस समय का ओलम्पिक रिकॉर्ड 45.सेकेंड था जोकि लॉस एंजलस (1956) में लो जोन्स ने बनाया था ). आखिर फाइनल इवेंट के दिन ऐसा क्या हुआ जो मिल्खा को चौथे स्थान पर ले आया और भारत महज दशमलव एक सेकंड से कांस्य पदक चूक गया..  

फिल्म की शुरुआत में ही रोम ओलंपिक का दृश्य है. तेजी से सारे ही खिलाड़ियों को पीछे छोड़ता मिल्खा अचानक पीछे मुड़कर देखने लगता हैं. एक दूसरे में मर्ज करते दो दृश्य पर्दे पर दिखाई देते हैं. एक में रेस का ट्रेक है और दूसरे में किसी गाँव की पगडण्डी. फ्लेशबैक के लिए प्रयोग किये सेफिया मोड में एक सरदार बच्चा भाग रहा हैउसके पीछे घुड़सवारों का सायाकाले-काले बादलपीछे दौड़ते हुए न देखने की उसके पिता की ताकीद.. और जब पीछे मुड़कर वह बच्चा देखता है तो उसके पिता का सर धड़ से अलग गिर पड़ता है. रोम में फाइनल इवेंट के दिन भागते हुए यही मंजर उस 25 साल के युवक की स्मृतियों में तैर उठता है और जीत रहा मिल्खा अचानक हार जाता है.

फिक्शन फिल्म को यह छूट दी जा सकती है. मगर सच्ची तारीखों में गुथी एक कहानी को फिल्म में ढालने पर यह छूट यूं ही नहीं दी जा सकती. क्या रोम ओलंपिक में मिल्खा की हार की यही वजह रही इसकी व्यावहारिकता पर शक होता है?यह स्क्रिप्ट की जरूरत थी और इसे गढा गया या वाकई यह मिल्खा की उस आत्मकथा ‘दी रेस ऑफ माय लाइफ’ में दर्ज है जिस पर यह फिल्म आधारित हैयह एक पड़ताल का विषय जरूर है. शीघ्र प्रकाशित होने वाली इस आत्मकथा से शायद चीजें और खुलें.   

आत्मकथा से कुछ चीजों की पड़ताल और की जानी होगी जो महत्वपूर्ण हैं. जैसा कि फिल्म में भारत के भीतर की पाकिस्तान विरोधी भावनाओं को भरपूर मसाले के साथ कैश किया गया है (और इसके चलते ही फिल्म का सुपर हिट जाना अनिवार्य हो गया है). ऐसे में कुछ दृश्यों का आत्मकथा के साथ मिलान करना अनिवार्य हो जाता है. जैसे कि पाकिस्तानी खिलाड़ी अब्दुल खालिद और उनके कोच जावेद को खलनायक गढ़ने के लिए फिल्माया गया, उनके बीच का संवाद क्या आत्मकथा का हिस्सा हैया आत्मकथा में पकिस्तान से भारत लौटते मिल्खा ने सिखों के साथ हुई ज्यादती को तो तफसील से और सटीक बुना है मगर क्या यहाँ से पाकिस्तान जाते मुसलामानों की झेली वैसी ही त्रासदी का जिक्र उन्होंने कहीं नहीं कियायदि आत्मकथा में यही वस्तुस्थिति हैतब तो संभवतः यह फिल्म की अनिवार्यता होगी. मगर यदि इसे सिर्फ पाकिस्तान विरोधी भावनाओं को कैश करने के मकसद से ऐसा किया गया है तो यहाँ फिल्म की विश्व-दृष्टि की संकीर्णता पर एक सवाल जरूर खड़ा होता है.

दूध और बढ़िया खुराक का आकर्षण लाया एथलेटिक्स के करीब

फरहान अख्तरमिल्खा सिंह के रोल में कहीं भी नकली नहीं लगे हैं. इसके लिए उन्होंने मेहनत भी भरपूर की है. वह चाहे उनका पंजाबी बोलने का स्टाइल रहा हो या उनका एथलीट जिस्म. फिल्म का एक सीन कुछ देर के लिए रोकता हैइसको देख पान सिंह तोमर याद आती है. जिसका जिक्र आगे किया गया हैएक सीन में सिकंदराबाद (हैदराबाद) में उनका ट्रेनर क्रॉस कंट्री के बारे में बताता हैजिसमे जीतने वाले को २ अंडे और एक गिलास दूध देने की बात कही जाती है.

...तो मिल्खा सिंह स्पोर्ट्स में इसलिए आये क्योंकि उन्हें दूध बहुत पसंद था. फिल्म में उनके बचपन के रोल में भी उन्हें दूध पीने का मुरीद दिखाया गया है. (इससे पहले आई फिल्म पान सिंह तोमर में भी स्टेपल चेस करने वाले पानसिंह की खुराक ज्यादा थी इसलिए वह दौड़ में आ गयेउन्हें मेस में सभी के बराबर ही खुराक मिलती थी ) दोनों फिल्मों से सवाल भी सामने आया कि जिन दो एथलीट खिलाडियों पर हाल में फिल्म बनी है दोनों की खेल में आने की वजह फ़ौज में स्पोर्ट्स के खिलाडियों को मिलने वाली बेहतर खुराक थी. तो क्या वाकई दोनों की खेल में कोई रूचि नहीं थी ? मिल्खा सिंह ने भी इस बात को हाल में छपे इंटरव्यू में माना है कि उन्हें एथलेटिक के बारे में फ़ौज में में आने के बाद पता चला. तो क्या मिल्खा सिंह दूध की पसंद एथलेटिक में ले आयाहालांकि ये इस बात का एक पक्ष हो सकता है .

1960 में रोम में 45.73सेकंड का रिकॉर्ड बनाकर भले ही चौथे स्थान पर रहे हों पर उनका ये रिकॉर्ड चार दशक तक राष्ट्रीय रिकॉर्ड रहा . जिसे तकरीबन 38साल बाद परमजीत सिंह ने महज .03सेकंड के अंतराल से तोडा था. ओलिंपिक मैडल जीतना निश्चित ही बड़ी उपलब्धि होती है . लेकिन काल के कपाल से निकली वे यादें ही थी जिन्होंने इस जीवट खिलाडी को राकेश ओमप्रकाश से ७० मिमी के परदे पर उतारने पर मजबूर कर दिया .

ये है कहानी –

कहानी 1947से 1960की है, 1947में एक दूसरे का हिस्सा रहे भारत और पाकिस्तान अलग हो रहे थे . कुछ लोगों के लिए ये ख़ुशी का पल था  तो कईयों के लिए ऐसी हकीकत थी जिसे वे याद नहीं रखना नहीं चाहते थे . गोविन्दपुरा (लायलपुर तब फैसलाबाद) के मिल्खा और उसके परिवार के लिए अजीब सा दौर था. जिस मिटटी में पले बड़े थे वो अचानक अपनी नहीं थी , वह पराई हो चुकी थी. लेकिन पूरा परिवार इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं था. मिल्खा सिंह की आँखों के सामने उनके पूरे परिवार को मार दिया गया था . इसके बाद वह किसी तरह दिल्ली पहुंचे थे . यहाँ उन्हें रेफूजी कैंप में उनकी बहन इश्वर कौर (दिव्या दत्ता) मिली , जिसने उन्होंने बड़ा किया. छोटी उम्र में उन्हें चाकूबाजी कीचलती ट्रेन से कोयला चुराया (जैसा की फिल्म में दिखाया गया है). लेकिन वह इसे नहीं करना चाहते थे. लेकिन ये सही मायनों में वह नहीं करना चाहते थे. इसलिए वह फ़ौज में आ गये (हालांकि फिल्म में उनका ये कचोटपन कहीं नजर नहीं आया). फिल्म में एक चूक दिकती है वह यह की वो फ़ौज में कैसे आते हैंअसल में इस पक्ष को दिखाना चाहिए थादरसल मिल्खा सिंह की फ़ौज में भरती ले-देकर हुयी थी (एक मैगजीन के हवाले से). जबकि आप मेलबर्न में स्टेला के साथ रोमांस को खूब दिखा रहे हैं तब आपको इस पक्ष को भी छूना चाहिए था. हालांकि राकेश ओमप्रकाश के एक समाचार पत्र को दिए गये इंटरव्यू की बात मानी जाए तो उन्होंने आर्मी के लिए 2बार अटेम्प्ट किया था और तीसरी बार चुने गये थे.

रोम में चौथे स्थान पर रहने के बाद मिल्खा खुद को अलग-थलग कर लिया था (जैसा फिल्म में दिखाया हैफिल्म की शुरूआत में). इसी बीच पाकिस्तान से कलचरल गेम के लिए बुलावा आता है. पर मिल्खा जाने को तैयार नहीं थेइसके लिए बाकयदा उनके पुराने कोच गुरुदेव और भारतीय टीम के कोच उन्हें बुलाने के लिए चंडीगढ़ जाते हैं. इसी ट्रेन के सफ़र के दौरान बैकग्राउंड पाकिस्तान में मिल्खा के साथ आई दिक्कते दिखाई जाती है.

पंडित नेहरु (दिलीप ताहिल) ने मनाया तब वह माने.फिल्म में फरहान का संवाद है- ‘पंडित नेहरु को संबोधित करते हुए, “सर मैं सांस नहीं ले पाऊंगामेरे पैर नहीं उठने हैं वहांमेरे अपनों का खून है उस हवा में.” इस सीन में पंडित नेहरू राष्ट्रकुल खेलों और एशियाई खेलों में बेहतरीन प्रदर्शन के लिए मिल्खा को सम्मानित करते हैं तभी वह उन्हें पाकिस्तान जाने के लिए कहते हैं.

रोम में रेस करते हुए उनके पीछे देखने की वजह (उनकी हार) का कारण भी पाकिस्तान की धरती पर उनका सब कुछ गंवाना था,फिल्म में यही स्थापित किया गया है. रोम वाली रेस अगर जीतते तो वह भारत का ओलंपिक में पहला गोल्ड होता. लेकिन जिस धरती पर पैर न पड़ने की बात मिल्खा ने कही उस धरती पर वे ऐसा दौड़े कि पाकिस्तानी अब्दुल खालिद को 10-20 मीटर दूरी से हराया. इस जीत के बाद अयूब खान ने उन्हें फ़्लाइंग सिख की उपाधि दी थी. फिल्म ख़त्म हो रही थीलेकिन 3 घंटे से ज्यादा की फिल्म अपनी बुनावट में इतनी कसी हुई है कि ख़तम होने के बाद भी लग रहा था कि नहीं,यहाँ ये ख़तम नहीं हो सकती. इसके साथ कुछ और देर रहने का दिल करता है. कुछ एक दिक्कतों के बावजूद भी बौलीवुड में ये सिनेमा दुर्लभ है. फिल्म का मूल यही था कुछ गोल्ड ओलंपिक गोल्ड से ज्यादा जरूरी होते हैं.

अभिनय – 
अभिनय के लिहाज से करेक्टर में रमना बेहद जरूरी होता हैयही करना बेहद जरूरी भी हो जाता जब किसी लीजेंड के रोल परदे पर उतारा जा रहा हो. फरहान की निश्चित तौर पर तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने इस रोल के साथ पूरा न्याय किया. बीरो (सोनम कपूर) का रोल छोटा हैलेकिन 50  के दशक के रोल की लड़की में बेहद जबरदस्त रही हैं. मिल्खा पर फिल्म का केंद्र होने के कारण यह अखरता भी नहीं है. उनकी शादी भारत की वॉलीबाल कप्तान से हुयी हैइस विषय को भी छूना भी चाहिए था .
छोटे मिल्खा (मास्टर जपतेज सिंह) का फिल्म का बचपन में ‘मिल्खा दी टोई’ याद रखा जाएगा. इश्वर कौर (दिव्या दत्ता) पंजाबी बैकग्राउंड की फिल्मों में बेहतर करती रहीं हैं, ‘वीर जारा’ इसका उदाहरण रही हैइस फिल्म में भी उन्होंने ये बात साबित की है. गुरुदेव सिंह (पवन मल्होत्रामिल्खा के फ़ौज में कोच) रहे हैं. फिल्म में फरहान का उनके साथ एक सीन आँखे नम कर देता है जिसमे फरहान उनकी गले में मैडल डालतें हैं. फिल्म में युवराज सिंह के पिताजी योगराज सिंह (भारतीय एथलेटिक टीम के कोच ) भी नजर आये हैं. उनका रोल बेहद नैसर्गिक रह है , असल में कोच होने की भूमिका को फिल्म में भी बेहतर तरीके से उतारा है. फिल्म के अन्य कलाकारों में मिल्खा के फ़ौज में ट्रेनर (प्रकाश राज) सख्त और खडूस के रोले में खूब फवें हैं .

स्टेला (रेबेका शीड्सऑस्ट्रेलिया टेक्निकल कोच की पोती ) भी फिल्म में ग्लैमरस लगी हैं. हालांकि नशे में डूबने के बाद ‘वन नाईट स्टैंड’ के दृश्य के बाद मिल्खा को खुद को थप्पड़ मारने वाला सीन कुछ देर के लिए सोचने पर मजबूर करता है. असल में द्रश्य शायद उनके भटकाव को सही करने का जरिया दिखाया गया है. इसके बाद मिल्खा का सारा ध्यान स्पोर्ट्स पर फोकस हो जाता है. ये दिखाता है कि उन्हें बहुत पछतावा है.  भारतीय तैराक दिखाई गयी पेरिजियाद (पाकिस्तानी अभिनेत्री मीशा शफी) भी मिल्खा की तरफ आकर्षित होती हैं लेकिन वह यह कहकर उन्हें दूर कर देते हैं कि- ‘मैं आपकी बहुत इज्जत करता हूँपर मेरा ध्यान अब खेल पर है’. यह दृश्य मिल्खा के मन की टीस बयां करता है जो शराब के नशे में स्टेला के साथ हुआ होता हैवह उन्हें कचोटता है. एक सामंती पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्ति का यह दृष्टिकोण फिल्माया जाना व्यवहारिक है. 
संवाद –
फिल्म में प्रसून जोशी ने अपनी ख्याति के अनरूप ही काम किया हैशायद यह उनकी पहली फिल्म होगी जिसमें उन्होंने पंजाबी में संवादों को रचा है. फिल्म में फरहान का हाँ की प्रतिक्रिया में कहा जवाब “आहो” जीवंत लगा है. लेकिन इस तरह की फिल्मों की अपनी सीमाएं होती हैं उस लिहाज से इस छूने की भरपूर कोशिश हुयी.
सम्पादन –
फिल्म की एडिटिंग इतनी शार्प है की आपको कहीं भी जर्क नजर नहीं आएगाएक सीन को दूसरे सीन के साथ इतनी सहजता के साथ जोड़ा गया हैइसे देख आपको बीच-बीच में ‘रंग दे बसंती’ की याद आएगी. इस तरह का प्रयोग उस फिल्म में भी राकेश कर चुके हैं. सीफिया मोड में दर्शाने से दृश्य और जानदार हो गये हैं.    

निर्देशन-
राकेश ओमप्रकाश मेहरा की इस फिल्म की ख़ास बात इसका असलीपन है. बिना किसी ड्रामेबाजी के फिल्म की कहानी को यथार्थ के बिल्कुल करीब उतारा गया है. यहाँ दिव्या दत्ता यानि मिल्खा की बहन और उनके जीजा के बीच का एक दृश्य हैजो एक बड़े विमर्श का हिस्सा है. यह हालिया किसी फिल्म में नहीं दिखाई देता. इस दृश्य में मिल्खा का जीजा उसकी दीदी से जबरन बर्बर तरीके से सम्बन्ध बनाता है. यह शादी संस्था के भीतर होने वाले बलात्कार की मार्मिक अभिव्यक्ति है. यहाँ फिल्म एक छोटा सा विषयान्तर कर एक बहुत बड़ा सत्य अपनी पक्षधरता के साथ रचती है. यह हिस्सा बहुत सफल रहा है. 1960 के बाद का फिल्म में न दिखाया जाना अखरता हैकुछ लोगों के लिए टाइम एक फैक्टर हो सकता है.

जैसा कि पहले भी कहा गया है कि फिल्म का कैनवास व्यापक है. मोटे तौर पर फिल्म तमाम आयामों में एक साथ सफल नजर आती है. लेकिन फिर भी कुछ हिस्सों पर अधिक आलोचकीय दृष्टि की ज़रूरत है. जिनकी ओर ऊपर इशारा किया गया है.

   

कृष्ण युवा पत्रकार हैं. अभी बनारस में एक दैनिक अखबार में काम. 
इनसे संपर्क का पता है- krishan.iimc@gmail.com

विकास के बुनियादी प्रश्न

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...अर्मत्य सेन के विचारों के संदर्भ में जीडीपी वृद्धि दर बनाम सामाजिक विकास का अंतर्विरोध खड़ा करने की कोशिश को तथ्यों की अनदेखी ही माना जाएगा। बहरहाल, जीडीपी विकास दर, खुले बाजार, आर्थिक मामलों में सरकार की भूमिका को निरंतर सीमित करने और निवेशकों की एनिमल स्पीरिट (निवेश भावना) को प्रोत्साहित करने की नीतियों के पक्ष में जुनून इस हद तक पहुंच जाए कि समाज की बाकी जरूरतें और पिछड़े तबकों के हित रडार से गायब हो जाएं (जिस प्रवृत्ति को सेन-द्रेज ने मार्केट मैनिया कहा है) या कुछ लोगों का विकास बाकी लोगों के लिए विनाश बनने लगे तो क्या उस पर सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए?..." 


गर गंभीर एवं जटिल विमर्श के बीच भी सनसनीखेज हेडलाइन निकालने की बेताबी नहीं होती तो मीडिया अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज की नई किताब (ऐन अनशर्टन ग्लोरीः इंडिया एंड इट्स कॉन्ट्राडिक्शन्स)आने के मौके पर भारत की विकास यात्रा की उपलब्धियों और विफलताओं पर गंभीर बहस छेड़ सकता था। लेकिन मीडिया (खासकर इलेक्ट्रनिक मीडिया) में अधिकांश चर्चा नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनें या नहीं- इस सवाल पर सेन की प्रतिक्रिया या इससे थोड़ा आगे बढ़ते हुए सेन बनाम (जगदीश) भगवती की सरलीकृत बहस तक सीमित रह गई है। जबकि विकास की समझ और इसके चुने गए रास्ते से जुड़ी बहस पर भारत का कहीं बड़ा दांव लगा हुआ है। 

सेनके बौद्धिक हस्तक्षेप ने दुनिया भर में विकास की समझ को प्रभावित किया है। विकास का मतलब क्या है, जिस संदर्भ में सेन विकास की बात करते हैं उसमें भारत किस मुकाम पर है, और उस दिशा में प्रगति के लिए क्या किया जाना चाहिए- इन मुद्दों पर सबकी अपनी राय हो सकती है, लेकिन विकास संबंधी बहस में आज इन प्रश्नों को नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं है। इसलिए कि आज दुनिया में किसी देश की पहचान और प्रतिष्ठा सिर्फ इससे नहीं बनती कि उसने सकल घरेलू उत्पाद की कितनी वृद्धि दर हासिल की है। बल्कि उसके साथ ही मानव विकास सूचकांक, भूख सूचकांक, बहुआयामी गरीबी सूचकांक आदि ऐसी कसौटियां हैं, जिनके आधार पर देशों की प्रगति मापी जाती है। 

इनतमाम सूचकांकों को तैयार करने की प्रक्रिया पर सेन के विकास संबंधी विचारों का गहरा प्रभाव है। इसलिए सेन के विचारों का संबंध सिर्फ किसी नैतिकता या अंतर्चेतना से नहीं है, बल्कि ये ठोस सामाजिक और आर्थिक प्रश्न हैं, जिनका उत्तर ढूंढे बिना आधुनिक मानदंडों पर विकसित या प्रगतिशील होने का दावा कोई देश नहीं कर सकता।

अर्मत्य सेन के विचारों के संदर्भ में जीडीपी वृद्धि दर बनाम सामाजिक विकास का अंतर्विरोध खड़ा करने की कोशिश को तथ्यों की अनदेखी ही माना जाएगा। बहरहाल, जीडीपी विकास दर, खुले बाजार, आर्थिक मामलों में सरकार की भूमिका को निरंतर सीमित करने और निवेशकों की एनिमल स्पीरिट (निवेश भावना) को प्रोत्साहित करने की नीतियों के पक्ष में जुनून इस हद तक पहुंच जाए कि समाज की बाकी जरूरतें और पिछड़े तबकों के हित रडार से गायब हो जाएं (जिस प्रवृत्ति को सेन-द्रेज ने मार्केट मैनिया कहा है) या कुछ लोगों का विकास बाकी लोगों के लिए विनाश बनने लगे तो क्या उस पर सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए?

दूसरीतरफ मुश्किल तब आती है, जब मार्केट मैनिया पर उठाए जाने वाले सवाल मार्केट फोबिया (बाजार से भय) की हद तक पहुंच जाते हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो बाजार की उपयोगिता या औचित्य को ही स्वीकार नहीं करते। हालांकि उनके पास इसका कोई उत्तर नहीं होता कि अगर संसाधन नहीं होंगे, या धन पैदा नहीं होगा तो गरीबी और पिछड़ेपन को मिटाने का क्या जरिया हो सकता है?धन और संसाधन पैदा करने और इस प्रक्रिया को टिकाऊ बनाने में बाजार की सर्व-प्रमुख भूमिका है, जिसका कोई व्यावहारिक विकल्प अब तक सामने नहीं आया है। 

अतःसमस्या बाजार नहीं, बल्कि मार्केट-मैनिया है और ठीक उसी तरह की एक समस्या मार्केट-फोबिया भी है। इन दोनों समस्याओं का समाधान यही है कि बाजार का विवेकपूर्ण विनियमन हो और बाजार की प्रक्रियाओं से पैदा होने वाले संसाधनों का समाज में न्यायपूर्ण बंटवारा हो। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार की भूमिका इसे ही सुनिश्चित करने की एजेंसी की होनी चाहिए। अगर सरकारें ऐसा नहीं करतीं, तो उनकी जन-वैधता (लेजिटिमेसी) को कठघरे में जरूर खड़ा किया जाना चाहिए।

तोराजनीतिक व्यवस्था ऐसा किस तरह कर सकती है?अमर्त्य सेन के विचारों के मुताबिक ऐसा भौतिक एवं सामाजित बुनियादी ढांचों का विकास करते हुए किया जा सकता है। बिजली, परिवहन, दूरसंचार आदि भौतिक बुनियादी ढांचे का हिस्सा हैं, जिनके बिना किसी आधुनिक समाज की कल्पना मुमकिन नहीं है। इन ढांचों के विकास का जीडीपी वृद्धि दर के साथ-साथ आम जन के लिए आवश्यक सुविधाओं से भी सीधा नाता है। 

अगरविकास प्रक्रिया का लाभ समाज के सभी तबकों तक ना पहुंचे तो उस विकास के औचित्य पर अवश्य प्रश्न उठना चाहिए। ऐसा कोई विकास टिकाऊ नहीं हो सकता, जो समाज में विभाजन और विषमता पैदा करता हो। अगर भारत की विकास कथा के हालिया दौर पर नजर डालें तो यह बात स्वयंसिद्ध लगती है। आज अगर भारत की आर्थिक वृद्धि दर 8-9 से गिर कर 5 फीसदी पर आ गई है, तो इसके कुछ कारण अवश्य अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों से जुड़े हैं, मगर उससे कहीं बड़ी वजह देश में भूमि अधिग्रहण की न्यायपूर्ण व्यवस्था ना होने जैसे पहलू हैं। 

इसीलिएयह आवश्यक है कि भौतिक बुनियादी ढांचे के साथ-साथ सामाजिक बुनियादी ढांचे के विकास पर भी समान जोर दिया जाए। सबको भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य देखरेख की सुविधाएं मुहैया कर और पर्यावरण रक्षा करते हुए सामाजिक बुनियादी ढांचे के विकास के रास्ते पर आगे बढ़ा जा सकता है। केवल यही वो रास्ता है, जिससे देश की आबादी विकास में सहभागी और उसके लाभ में समान रूप से भागीदार बन सकती है। और सिर्फ तभी विकास टिकाऊ बन सकता है।

वहविकास- जिसे अमर्त्य सेन ने स्वतंत्रता के विस्तार के रूप में देखा है। विकास वह है, जो समाज में सभी व्यक्तियों की स्वतंत्रता को विस्तृत करे- यानी जिसके परिणामस्वरूप व्यक्तियों के सामने उपलब्ध चयन के विकल्पों का विस्तार हो। व्यक्ति की स्वतंत्रताओं को सीमित करने वाले पहलू क्या हैं?निसंदेह आर्थिक संसाधनों का अभाव इसका एक बड़ा पहलू है, लेकिन जातिवाद, सांप्रदायिकता, लैंगिक भेदभाव, अंधविश्वास और अन्य प्रकार के सांस्कृतिक पिछड़ापन भी वो कारण हैं जो व्यक्तियों को अपने में निहित क्षमताओं और संभावनाओं को संपूर्ण रूप से प्राप्त नहीं करने देते। अगर विकास को समग्र संदर्भ में देखें तो ऐसी तमाम रुकावटों और विवशताओं को क्रमिक रूप से हटाना विकास प्रक्रिया का हिस्सा बन जाता है।


अतीतमें विकास की ऐसी समग्र समझ ना रखने के कारण स्वतंत्रता एवं गणतांत्रिक संविधान अपनाने के साढ़े छह दशक बाद भी हालत यह है कि मानव विकास के तमाम सूचकांकों पर भारत की सूरत बदहाल है। पिछले दो दशकों में उच्च आर्थिक वृद्धि हासिल करने के बाद भौतिक बुनियादी ढांचे के विकास में देश ने अवश्य अपेक्षाकृत बेहतर प्रगति की है। पिछले एक दशक में सामाजिक बुनियादी ढांचे में भी निवेश की स्वगातयोग्य शुरुआत हुई है। 

लेकिनस्थिति कतई संतोषजनक नहीं है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सार्वजनिक बहसों में यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न हाशिये पर बना हुआ है। इसीलिए सेन-द्रेज ने लोकतंत्र के भविष्य और सार्वजनिक तर्क-वितर्क में सीधा संबंध बताते हुए जोर दिया है कि अब वह वक्त आ चुका है जब समग्र विकास की मांग और उसमें योगदान के लिए भारत के लोग बेसब्र हो जाएं। क्या इससे असहमत होने की गुंजाइश है? लेकिन जिस तरह पिछले कुछ दिनों में बहस को भटकाने की कोशिश हुई, उससे यह साफ है कि ये रास्ता आसान नहीं है। खासकर यह देखते हुए कि जब राजनीतिक चर्चाओं में राष्ट्रवाद को धार्मिक आधार पर पुनर्परिभाषित करने की कोशिश फिर तेज हो रही हों और जातीय एवं क्षेत्रीय अस्मिताएं सिर उठा रही हों, तो यह चुनौती और भी विकराल नजर आने लगती है।
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सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

धारचुला-मुनस्यारी पर भी पड़ी है आपदा की गहरी मार

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जगत मर्तोलिया
-जगत मर्तोलिया

उत्तराखंड में 16 व 17 जून को आयी भीषण त्रासदी के कारण पिथौरागढ़ जिले के धारचूला व मुनस्यारी में गोरीगंगा, धौलीगंगा तथा काली गंगा ने जो तबाही मचाई उसकी जमीनी रिपोर्ट धारचूला से मदकोट तक 107 किमी की पैदल यात्रा कर तैयार की गयी है। 3 जुलाई से 13 जुलाई तक की स्थितियों पर फोकस किया गया है। जो अभी भी प्रासंगिक है। यह रिपोर्ट अभी तीन किस्तों में प्रेषित है। रिपोर्ट यात्रा के चार दिन के अंतराल में तैयार की गयी है। सुविधाओं के अभाव में एक साथ प्रेषित की जा रही है। जो आगे भी जारी रहेगी।...
-लेखक

दिनांक 6 जुलाई 2013

आपदा के बीस दिन, सरकार का आपदा प्रबन्धन फेल 

धारचूला के बाजार में आज से चाय मिलनी बन्द हो गयी, दो-चार दिन में खाना भी मिलना शायद बन्द हो जायेगा। आपदा की त्रासदी से कराह रहा पिथौरागढ़ जिले का धारचूला व मुनस्यारी का इलाका सबसे न्याय की उम्मीद कर रहा है। आपदा की त्रासदी आज बीसवां दिन है। मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री हरीश रावत का दौरा हो चुका है। सांसद व विधायक कई बार इलाके का दौरा कर चुके हैं। आज पता चला कि आपदा मंत्री धारचूला में हैं।

1977में तवाघाट में आयी भीषण आपदा की त्रासदी के दौरान भी धारचूला का इलाका पिथौरागढ़ से केवल एक दिन सड़क मार्ग से कटा रहा। धारचूला में अस्सी साल से अधिक उम्र के वृद्धों की जुबान पर यह बात है कि पहली बार बीस दिन से सड़क बन्द होने के बाद उपजी स्थितियों का वह सामना कर रहे हैं। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद यहां की सरकारें अपनी पीठ थपथपा रही थी कि वह पहला राज्य है जिसने आपदा के लिए अलग मंत्रालय का गठन किया। 

आपदा प्रबन्धन के नाम पर होने वाली लूट खसौट की लम्बी फेहरिस्त है। यूनेस्को से लेकर तमाम विदेशी वित्तीय ऐजेन्सीज द्वारा मिलने वाली करोड़ों की राशि आपदा प्रबन्धन के नाम पर उत्तराखण्ड में खपाई जा रही है। उत्तराखण्ड में कार्यशाला, प्रशिक्षण, आपदा से पूर्व तथा आपदा के बाद निपटने की बात पर खर्च तो करोड़ों होते हैं लेकिन उनसे क्या निकल रहा है। यह इस बार जमीन पर धारचूला व मुनस्यारी में दिखा है। 

बातयहां से शुरू करते हैं हैलीकाप्टरों से जो राशन के पैकेट भेजे गये उनकी पैंकिंग तक यहां के कर्मचारियों को नहीं आती है। जिस कारण हैली से फेंके गये राशन के पैकेट आसमान में ही फट गये और आपदा पीडि़तों को चावल-आटा केवल चाटने को मिला। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आपका सरकारी प्रबन्धन कितना कुशल है। 

इसबीच हम धारचूला में हैं आपदा के बाद जब 21 जून को यहां पहली बार आये थे तो निगालपानी, गोठी के निकट मोटर मार्ग में पैदल रास्ता बचा था। इस बार फिर 3 जुलाई को जब फिर धारचूला पहुंचे तो इन दोनों जगहों पर पैदल चलने के लिए रास्ता मात्र तक नहीं था। सीमा सड़क संगठन के इंजीनियर मोटर मार्ग नहीं खोल पाये। इस पर तो बात होनी चाहिए लेकिन पैदल रास्ता भी बचा नहीं पाये यह बात तो शर्म की है। आज 20 दिन बीत रहे हैं केवल दो स्थानों में सड़क खोली गयी है। 

कहनेको तो यह राष्ट्रीय राजमार्ग है। इस सड़क के बन्द होने से धारचूला बाजार का नजारा कुछ इस तरह है कि राशन की दुकानों के बारदाने जो सामानों से भरे थे, खाली हो चुके हैं। गोदाम सूने हो गये हैं। एक राशन के दुकानदार ने बाताया कि आज तक जो माल नहीं बिका था वह भी इस बार बिक गया। सब्जी खाना तो यहां के लोगों के लिए अब एक स्वप्न हो गया है। 19 रूपये किलो चावल 100 रूपये में भी नहीं मिल रहा है। यहां से बलुवाकोट कुछ पैदल-कुछ जीप में जाकर राशनों के कट्ठे अपने पीठ में लादकर ला रहे हैं और सरकार को आईना दिखा रहे हैं कि इस आपदा से उपजी भूख से निपटने के लिए उसके पास कोई प्रबन्धन नहीं है। जो जनता कर रही है, वह भी सरकार नहीं कर सकती है। 

जौलजीबीसे धारचूला के राष्ट्रीय राजमार्ग में कालिका से आगे मार्ग बन्द है। यहां से आगे के पैंतीस से अधिक ग्राम पंचायतें और तीस हजार की आबादी चावल के दाने के लिए तरस रही है। धारचूला बाजार से आगे व्यांस, चैंदास, दारमा घाटी, तल्ला दारमा घाटी, खुमती क्षेत्र, गलाती क्षेत्र, रांथी से लेकर खेत तक का इलाका राशन के एक-एक दाने के लिए मोहताज है। धारचूला व मुनस्यारी के आपदा पीडि़त ही नहीं बल्कि अब साठ हजार की जनसंख्या को दाल, आटा, चावल की आवश्यकता है। इस पर सरकार का ध्यान अभी तक तो कतई नहीं है। 

धारचूलासे आगे के और धारचूला तक जोड़ने वाले मोटर मार्ग कब खुलेंगे इसका जवाब सीमा सड़क संगठन दे नहीं पा रहा है। चीन तथा नेपाल सीमा के बार्डर का यह हाल है, यहां सुरक्षा तो एक सवाल है ही, क्या इस सिस्टम पर हम कोई भरोसा कर सकते हैं यह चिन्ता भी एक बात है। लेकिन हम उन हजारों लोगों की बात कर रहे हैं, जिनके घर में आटा चावल अब खतम होने को है। इस पूरे प्रक्रिया में कहीं भी सरकार तथा प्रशासन के कामकाज में यह बात नहीं है कि वह राशन आम लोगों तक पहुंचाने का कोई विकल्प दे पाया है। सोई हुई सरकार, जन प्रतिनिधियों के पीछे भाग रही नौकरशाही क्या इस इलाके के लोगों को एकमात्र राशन दे पायेगी। 
आज अखबार में खबर है कि जौलजीबी से मदकोट का मोटरमार्ग दो माह में खुलेगा। गोरीछाल घाटी के सैकड़ों गांवों की बीस हजार की आबादी का भी राशन खत्म होने को है। इनके बारे में क्या बहुगुणा सरकार ने कुछ सोचा है? यही उत्तर मिलेगा कि -नहीं। मुनस्यारी के जोहार तथा रालम घाटी में लोग आज भी फंसे हुए हैं। कन्ज्योति के 35 आपदा पीडि़तों को आज तक नहीं निकाला गया है। 

यही हाल दारमा घाटी का भी है। यहां अधिकारी कर्मचारी बहुत हैं लेकिन उनके पास इस आपदा से निपटने का कोई सरकारी दिशा तक नहीं है। धौलीगंगा जल विद्युत परियोजना के छिरकिला बांध पर भी लोगों के सवाल हैं, नेपाल ने तो भारत पर यह आरोप भी लगा दिया है कि बांध का पानी एकसाथ खुलने से नेपाल को भारी नुकसान हो गया है। भारतीय राजदूत के ना-नुकुर के बाद यह सवाल लोगों की जुबां पर है कि 15 जून की रात्री से ही बारिश शुरू हो गयी थी तो क्यों 17 जून को क्यों बारिश का पानी एक साथ खोला गया। 

ऐलागाड़का कस्बा इसलिए बह गया कि टनल से जो अतिरिक्त पानी छोड़ा गया उसे ऐलागाड़ गधेरे के पानी ने पूरे वेग से रोक दिया और उसने ऐलागाड़ के कस्बे का नामोनिशान मिटा दिया। एनएचपीसी यह कह चुकी है कब उसकी परियोजना शुरू होगी वह कह नहीं सकती। करोड़ों का नुकसान अलग से है। पहाड़ों में परियोजना तथा बांध के समर्थक इस सवाल पर भी जवाब देंगें। 

मुख्यमंत्रीने सोबला, न्यू, कन्च्यौति, खिम के 171 परिवारों को यहां राजकीय इण्टर कॉलेज धारचूला में बुलाकर ठहराया है। एक सप्ताह के बाद भी प्रभावित परिवार सिमेन्ट के फर्श में बिना चटाई दरी के लेट रहे हैं। उन्हें देखने वाला कोई नहीं है। इन परिवारों की सुध क्यों नहीं ली गयी, क्योंकि हमारे आपदा प्रबन्धन महकमें के पास कार्य करने के लिए कोई रूटमैप है ही नहीं। आज इतना ही फिर कल से और क्षेत्र की स्थिति पर पर हकीकत बयां करते रहेंगे। 


रिपोर्ट का दूसरा भाग

दिनांक- 10 जुलाई 2013

घर-बार बर्बाद हो गया, आंखों में आँसू है और सामने अंधेरा। रोज कोई नेता आता है, सपने दिखाने के लिए। बारिश से रात को नींद भी नहीं आ रही है। 15 जून के बाद की रातों की याद ने नींद भी छीन ली है। हर बारिश की बूँद की आवाज से खौफनाक अंदेशा इनके चैन को छीन कर ले गया। सोबला, न्यू, कन्च्यौती, खिम के 175 से अधिक परिवारों को जान बच जाने की थोड़ी खुशी तो है। कन्च्यौती में दो लोगों की जान इस आपदा से गयी। उनकी यादें अपने जीवन के बच जाने के बीच इन परिवारों के चेहरों पर यह परेशानी साफ तौर पर देखी जा रही है कि अब कैसे उनका कुनबा बसेगा। 

धारचूलाव  मुनस्यारी क्षेत्र में आयी आपदा में ये चार गाँव हैं, जो अब इतिहास में दफन हो चुके हैं। इन गाँवों की वो खुशहाली अब बीते दिनों की याद बनकर रह गयी है। राजकीय इण्टर काॅलेज धारचूला के उन कक्षों में जहाँ कभी बच्चे पढ़ते थे आज इनकी शरण स्थली बन गयी है। इन लोगों को इस बात का डर है कि डीडीहाट के हुड़की, धारचूला के बरम तथा मुनस्यारी के ला, झेकला, सैणराँथी के आपदा पीडि़तों के साथ सरकार ने जो अन्याय किया है, कहीं उनके साथ भी ऐसा न हो। आज उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह कैसे सितम्बर तक का समय गुजरे। 

भाकपा (माले) की एक टीम इन दिनों धारचूला क्षेत्र में है। टीम धारचूला के सामाजिक कार्यकर्ता केशर सिंह धामी के साथ जैसे ही आज राजकीय इण्टर कॉलेज में पहुँचे तो वहाँ ठहरे आपदा पीडि़त एक-एक करके बाहर निकलने लगे। उनकी आँखें अब इन्तजार करते-करते थक चुकी हैं। पैरों में अब खड़े होने की ताकत भी नहीं बची है। एक सप्ताह से इस शरण स्थल में रहने वाले इन 175 परिवारों के सैकड़ों आपदा पीडि़त 15 दिनों से कपड़े तक नहीं बदल पाये हैं। 

इन गाँवों से इन्हें हैली में लाया गया। घर के साथ ही इनके तन के कपड़े भी धौलीगंगा में समा चुके हैं। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने इन परिवारों को इनके गाँवों से यहां आमन्त्रण देकर बुला तो लिया लेकिन इन्हें किस बात की आवश्यकता होगी, इसका कोई ध्यान नहीं दिया गया। इस टीम के सदस्य किसान महासभा के नेता सुरेन्द्र बृजवाल, पिथौरागढ़ छात्र संघ के अध्यक्ष हेमन्त खाती और भाकपा (माले) के जिला सचिव जगत मर्तोलिया ने इन परिवारों से अलग-अलग वार्तायें की। 

बातकरते-करते इनकी आवाज रूक जा रही है। गला भर आ रहा है। आँखों में आँसुओं की बूँदें और आँसू से चपचपाती पलकें इनके दर्दों को स्वयं ही बता दे रही हैं। धारचूला क्षेत्र में कीड़ा जड़ी को जमा करना भी एवरेस्ट चढ़ने से अधिक चुनौती भरा है। अपनी जान पर खेल कर इन्होंने धन इकट्ठा किया और उससे घर बनाया। जो अब धौली का निवाला बन गया है। इनके घर अब दुबारा बिछड़े गाँव में नहीं बन सकते। अब इन्हें एक नया गाँव और नया आशियाना चाहिए। तन में केवल एक कपड़ा लेकर धारचूला पहुँचने के बाद इस शहर में पहुँच गये हैं। 

शहरवालों के साथ चलने की हिम्मत इनके पास नहीं है। जिनके पास खाने के लिए अपने बर्तन न हों, चटाई में लेटने के लिए इन्हें यहाँ छोड़ दिया गया है। इनके बचे खुचे जानवर अभी गाँव में हैं, जो इन्हें ढूँढ रहे होंगे। यह चिन्ता भी इनके जुबाँ पर है। धारचूला की गर्मी और मच्छरों को प्रकोप इन्हें धौलीगंगा के द्वारा दिये गये गम की तरह लग रहा है। अभी तक तो ये मात्र एक चटाई के सहारे सीलन भरे कमरे में लेटे हुए थे। बाहर हो रही बारिश की बूँदें छतों से टपक कर इनके कमरों में इनकी शान्ति को भंग कर रही है और साथ ही इनके चैन को इनसे छीनती जा रही है। 

एकसप्ताह बाद भाकपा (माले) के हस्तक्षेप के चलते तहसील प्रशासन ने 50 गद्दे यहाँ बांटे हैं। बताया गया कि 150 गद्दे और बन रहे हैं। इससे इनके बिस्तरों की समस्या तो पूरी नहीं होगी लेकिन कुछ आराम तो मिलेगा। इण्टर कॉलेज के कमरे 15 दिनों से बन्द थे। कमरों में सीलन की बदबू अलग है और पानी रिसने के कारण पूरा कमरा निमोनिया और टाइफाइड जैसी कई बिमारियों को न्यौता दे रहा है। खिड़कियों में जालियां नहीं हैं। मच्छरों के अलावा कई प्रकार के कीट कमरों में घुस कर इन परिवारों को परेशान कर रहे हैं। 

पहले से ही घर और गाँव खोने से परेशान इन परिवारों को कीट मच्छर तो नहीं पहचानते लेकिन सरकार को जानती थी, उसके बाद भी उसने क्यों बन्दोबस्त नहीं किया। आपदा राहत शिविर का नाम इसे दिया गया। सीधे तौर पर कह सकते हैं यह राहत नहीं आफत शिविर है। एक आफत से बचकर यहाँ पहुँचे इन पीडि़तों को इन आफतों से गुजरना पड़ रहा है। एक कमरे में चार से छः परिवारों को जानवरों की तरह ठूँसा गया है। स्कूल के कुर्सी व टेबल ही इनके सहारे हैं। 

धारचूला के कई स्कूली बच्चों ने इस सवाल को भी उठाना शुरू कर दिया है कि अब वे कहाँ पढ़ेंगे। इन गाँवों के नेता और प्रशासनिक अधिकारी आपदा पीडि़तों के जख्मों पर मरहम लगाने की जगह उनका डांटते फिर रहे हैं।‘‘अरे हमने कमरा तो दे दिया, अब हम क्या करें? इतना बहुत है’’ इन बातों से नाराज आपदा पीडि़त परिवारों के सदस्यों का कहना है कि हमें हमारे गाँवों से क्यों यहाँ लाया गया। स्कूल जाने वाले बच्चे इस स्कूल के आंगन में खेल रहे हैं। उनका बस्ता धौली गंगा में बह गया है। उन्हें आज भी पहाड़े व गिनती और कुछ कवितायें याद हैं। गणित के सवाल भी उनके दिमाग में हैं लेकिन उनको उकरने के लिए उनके पास काॅपी पेन्सिल नहीं है। बच्चों का कहना था कि हमारा स्कूल भी तो बह गया है। अब हम कहाँ पढ़ने को जायेंगे। 

इनबच्चों की तोतली आवाज से दिल को चीरने वाली जो पुकार निकल रही है। उसे यहाँ बार-बार आने वाले विधायक, सांसद, मंत्री और प्रशासनिक अमले के अधिकारी सुन तक नहीं पा रहे हैं। कन्च्यौती के मोहन सिंह का कहना है कि तीन महिने कैसे गुजरें? यह हमारी पहली समस्या है। स्कूल में ज्यादा समय नहीं रह सकते। आपदा मंत्री टिन शैड बनाने की बात कह गये हैं। इसे बनने में तो महिने बीत जायेंगे। जब गद्दे व कम्बल देने में इतने दिन बीत गये। खिम की सरस्वती बिष्ट का कहना है कि हमारे खेत बह गये। जानवर भी साथ में धौली में बह गये। हम हम क्या करें। कैसे अपनी जिन्दगी गुजारें। इस जिन्दगी को गुजारने के लिए कौन हमारी मदद करेगा। 

न्यू ग्राम की नीरू देवी तो काफी दुःखी है। कहती है कि ‘‘कभी न सोचा था कि कभी अपना गाँव छोड़ेगे। अब हमें कैसे एक गाँव मिलेगा। जहाँ हम सब महिलायें इस त्रासदी को आपस में एक दूसरे में बांट सकेंगी।’’ सोबला के नेत्र सिंह का कहना है कि गाँव तो गया। अब नहीं लगता है कि दुबारा हमारा कोई गाँव होगा। सरकारें तो झूठ बोलती हैं। झूठ से कुछ दिनों तक सन्तोष मिल सकता है लेकिन आगे नहीं। यह बात तो केवल चार उन गाँवों की है। जो अपना सब कुछ धौलीगंगा को सौंपकर खाली हाथ इण्टर काॅलेज के शरण स्थली में बैठकर टकटकी लगा बैठे हैं कि अब क्या होगा?

रिपोर्ट का तीसरा भाग

दिनांक - 14 जुलाई 2013

उत्तराखंड में आपदा की त्रासदी को 25 दिन बीत गये, अभी तक राहत एवं बचाव की तस्वीर साफ नहीं हो पायी है। धारचूला और मुनस्यारी के इन दुर्गम इलाकों तक देहरादून में किये गये दावे कुछ अभी तक नहीं पहुचे हैं और कुछ अव्यवहारिक नजर आने लगे हैं। उत्तराखंड की सरकारें अभी तक यह नहीं समझ पायी हैं कि आपदा की घटनाओं के बाद राज्य सरकार को किस तरह से जनपक्षीय सरकार बनने की ओर बढ़ना चाहिए। 

धारचूला और मुनस्यारी दोनों तहसीलों में अभी तक सरकार के मंत्री और नौकरशाह दौरा कर लौट चुके हैं। आपदा पीडि़तों के जो सवाल हैं उनका हल न होना और उनको आपदा की आफत से राहत न मिलना सरकार के हर दावे को झुठला रहा है। मुनस्यारी के जिमीघाट से लेकर जौलजीवी तथा धारचूला के दारमा से जौलजीवी तक सैकड़ों परिवार ऐसे हैं जिनके आवासीय भवन बेनाप जमीन पर बने थे और उनका घर-बार आपदा की भेंट चढ़ चुका हैं। 

सरकारके पुराने नियमों को देखें तो इन परिवारों को राज्य सरकार की ओर से दी जाने वाली राहत नहीं मिल सकती। हो भी यही रहा है। अभी तक इस तरह के सैकड़ों परिवार राहत के लिये राज्य सरकार की ओर टकटकी लगाये बैठे हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में एक घर में पिता सहित पुत्रों का अलग-अलग चूल्हा जलता है। राशन कार्ड और भाग दो रजिस्टर में भी नाम अलग-अलग हैं, लेकिन पिता के जीवत होने के कारण जमीन का मालिक मुखिया होने के कारण पिता है, इन स्थितियों में केवल पिता को ही मुआवजे का हकदार बनाया जा रहा है। 

गृह नुकसान के लिये मिलने वाली दो लाख रूपये की राशि में भी यही स्थिति है। चूल्हे के हिसाब से हकदारी का मामला यहां की सरकार की समझ में नहीं आ रहा है। अभी हाल में ही सरकार ने एक और अव्यवहारिक घोषणा कर डाली कि जिन परिवारों के आवासीय मकान टूट गये उन्हें रहने की व्यवस्था के लिये सरकार 6 महीने तक दो हजार रूपये किराया देगी। उसके पीछे सरकार का षड्यंत्र  भी है। सरकार चाहती है कि आपदा पीडि़तों को एक जगह पर न रहने दिया जाय ताकि वे पुनर्वास के सवाल पर राज्य सरकार को घेर न सकें। 

यहतो एक बात है लेकिन धारचूला, बलुवाकोट, मदकोट, जौलजीवी जैसे कस्बों की बात करें तो यहां किराये के लिये कमरे नहीं हैं। धारचूला में अचानक दो सौ से अधिक परिवारों के लिये किराये के कमरे कहां से पैदा हो जायेंगे। इस बात को देहरादून में बैठी सरकार नहीं समझ पा रही है। एक और उदाहरण है कि घट्टाबगड़ में 55 दलितों के परिवार सड़क में आ गये हैं। इन परिवारों को किराये में घर कहां मिलेगा। क्योंकि घट्टाबगड़ जैसे गांव के आसपास के गांवों को देखें तो बंदरखेत, तोली गांव में एक दो घर ही ऐसे हैं जो एक दो कमरों को किराये पर लगा सकते हैं ऐसे में किराये का यह फरमान राज्य सरकार की हवाई सोच को दिखाता है। 

धारचूलातहसील में खेत, छिरकिला, तीजम, सुमदुम, धारचूला नगर, गोठी, नयाबस्ती सीपू, बलुवाकोट, घाटीबगड़, गो, जौलजीवी, घट्टाबगड़, लुमती, मोरी, बांसबगड़, छोरीबगड़, बंगापानी, उमरगड़ा, मदकोट, भदेली, तल्ला दुम्मर, दराती, सेविला, जिमीघाट जैसे कई स्थान हैं जहां गोरी गंगा, काली गांगा तथा धौलीगंगा से भूकटाव हो रहा है। इन स्थानों को बसाया जाना जरूरी है। नहीं तो बेघरबार लोगों की संख्या हजारों में हो जायेगी। अभी सिंचाई विभाग ने धारचूला, बलुवाकोट, जौलजीवी और मदकोट के लिये सुरक्षा हेतु प्रस्ताव राज्य सरकार को भेजा हैं आज 25 दिन बीत जाने के बाद भी राज्य सरकार ने इन कस्बों की सुरक्षा के लिये एक ढेला भी स्वीकृत नहीं किया है। 

विधायकऔर सांसदों के पास करोड़ों रूपये की निधियां हैं, लेकिन इन कस्बों को बचाने के लिये उन्होंने एक रूपये भी नहीं दिया है। बलुवाकोट में भूकटाव को रोकने के लिये संबंधित विभाग ने 62 लाख रूपये का प्रस्ताव भेजा था। इसकी स्वीकृति नहीं मिलने से बलुवाकोट वासियों ने ‘बलुवाकोट बचाओ संघर्श समिति’ बनाकर सरकार के खिलाफ आर-पार की लड़ाई छेड़ दी है। धारचूला विधायक हरीश धामी और सांसद प्रदीप टम्टा पट्टी पटवारी की तरह इधर-उधर दौड़ लगाने में हैं। उनका न प्रशासनिक अधिकारियों में नियंत्रण है और न ही वह राज्य सरकार से कोई बजट ला पा रहे हैं। इससे इस क्षेत्र को बचाने और राहत कार्यों में तेजी लाने के प्रयास ठंडे बस्ते में हैं। 

अभीभी आपदा की दृश्टि से खतरनाक जगहों में आपदा पीडि़त टैण्टों में रह रहे हैं। मौसम विभाग एक दो दिन खतरे का बता रहा है लेकिन यहां तो लोगों का हर पल खतरे में बीत रहा है। आज तक किसी भी परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाने की जहमत नहीं उठायी। इस क्षेत्र के सरकारी और गैर सरकारी विद्यालयों को आज से खोलने जा रही है। लेकिन जिन विद्यालयों में आपदा पीडि़त रह रहे हैं उन्हें सरकार कहां रखेगी इसका विकल्प सरकार के पास नहीं है। 

पिथौरागढ़के जिलाधिकारी और आपदा मंत्री जौलजीवी से आगे को बड़े कि घट्टाबगड़ में आपदा पीडि़तों से मिलेंगे लेकिन पैदल चलन से बचने के लिये दोनों आधे रास्ते से लौट गये। यह हमारी सरकार और प्रशाशन का चेहरा है। धारचूला से मुनस्यारी तक कई आईएएस और पीसीएस अधिकारी बिठाये गये हैं जो आपदा राहत कार्यों में हाथ बढ़ाने का दावा कर रहे है, लेकिन हकीकत यह है कि यह अधिकारीगण सड़कों में गाड़ी से दौड़ रहे हैं। किसी को भी किसी गांव में जाते अभी तक नहीं देखा गया है। 

धारचूलामें तो हाल यह है कि सरकार की ओर से नियुक्त नोडल अधिकारी आईएएस दीपक रावत सुबह कुमाउ मंडल विकास मंडल के आवास गृह से हैलीपैड जाते है और सायं हैलीपैड से लौटकर आवासगृह लौट आते हैं। उनसे मिलने के लिये उन्ही से अनुमति लेनी होती है जो मिल नही रही है। नोडल अधिकारी के रूप में तैनात दीपक रावत न जन प्रतिनधियों की सुन रहे हैं और न ही आपदा पीडि़तों को राहत देने में कोई भूमिका निभा रहे हैं। बड़ी बात यह है कि मुख्यमंत्री तक धारचूला आते हैं लेकिन मुख्यमंत्री के पास न कोई लाल बत्ती थी और मुख्यमंत्री का बोर्ड लेकिन दीपक रावत अपने साथ नैनीताल से आते समय एक एमडी केएमवीएन तथा एक नीली बत्ती लेकर आये थे। जिसे एक प्राइवेट वाहन में लगाकर घूम रहे हैं और उत्तराखंड की नौकरशाही की सत्ता में पकड़ को जाहिर भी कर रहे हैं। स्कार्पिओ जैसे लक्जरी वाहन में उन्होंने एक कुर्सी भी डाल रखी है ताकि उनकी शान-ओ-शौकत में किसी भी प्रकार की कोई कमी न रह जाये। 

उत्तराखंड में नौकरशाही आपदा के समय सत्ताधारियों में अपनी दाल गला रहे हैं इससे बडा उदाहरण दूसरा नहीं हो सकता। उत्तराखंड में सभी जानते हैं कि सस्ते गल्ले के दुकान से मिलने वाले राशन से दस दिन भी परिवारों का निवाला नहीं चल पाता है। बीस दिन निजी दुकानों से राशन खरीदकर यहां के चूल्हे जलते हैं। पटवारी से लेकर मुख्य सचिव तक यही अलाप रहे हैं कि हमारे गोदाम राशन से भरे हैं। लेकिन इन गोदामों से मिलने वाला राशन एक माह के लिये पर्याप्त नहीं होता। इस बात को कोई समझने को तैयार नहीं है। सस्ता गल्ले की दुकानों को डिपार्टमेंट स्टोर में तब्दील करते हुए इनको राशन का बिक्री केन्द्र बनाया जाना चाहिए था, लेकिन इस पर कोई भी बात करने को तैयार नहीं है। एक सप्ताह के बाद धारचूला और मुनस्यारी की पचास हजार से अधिक की आबादी राशन को लेकर सड़क में उतरने वाली है। क्या तभी जाकर यह सरकार चेतेगी। 
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जगत मर्तोलिया, भाकपा माले पिथौरागढ़ के जिला सचिव हैं.
jagat.pth@gmail.com पर इनसे संपर्क करें.

Unrequited love or simply ‘self love’?

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Shivani Nag

 -Shivani Nag

"...A woman’s no means NO. No matter what the mainstream movies show you, a woman’s smile is not always indicative of her interest in you, it may just be sheer politeness. While there is no harm in expressing to someone what you might be feeling, in face of a ‘no’, ‘try try try till you succeed’, is not the mantra. Stalking, forcing, intimidating, blackmailing, teasing are not ‘wooing’ but actions that can get you booked for harassment..."


In the days following the brutal rape and murder of a young woman in December last year, I remember waking up each day and being out on the streets raising slogans on women’s freedom and liberation. For months after that, there were a series of mobilizations, vigils, parades and protests, and my strongest recollection of those events is the resounding reverberation of ‘mahilaayein maangi azaadi... khaap se bhi azaadi aur baap se bhi azaadi, shaadi karne ki azaadi aur na karne ki azaadi...’. It WAS about justice for that one woman, but it wasn’t ONLY about that... it was also about many other such women – some forgotten, some not, some dead and some still around... it was also about all women, demanding not just justice but their right to life as equal citizens. We did not come out on the streets to be told how to be safe, but to convey it loud and clear that we cannot spend our entire lives trying to be safe without actually getting to live it. We came out to demand and defend our right to choice!!

The recent incident in JNU involving a young man brutally attacking his classmate and then killing his own self has shocked the entire JNU community and sent us all in a deeply introspective mode. We are not shocked because we suddenly began to feel that society had transformed, we are shocked because somewhere we did believe that in JNU we have been able to transform some notions to quite an extent and create a space that is democratic and gender-just. I have reasons to believe that this space still exists in JNU, as the majority of calls for introspection have come from within the campus, but this in no way means, that all is fine. And there are several reasons why it can’t be fine.

To begin with, an educational institution is not meant to merely certify those who already know or are already equipped with certain kinds of skills or theories. An educational space ideally should be an enabling and a transformative space. This is the kind of space we envision JNU to be. So when something happens that threatens this democratized and potentially transformative space of JNU, we do feel pained but we also try to face it with a renewed commitment towards preserving this space. However, it still can’t all be fine, because our world doesn’t begin and end at JNU. The mindset that led to this incident wasn’t a product of what the university inculcates, but a reflection of a larger malaise that is just so terribly hard to fight. And it is this that is really angering me right now and what I wish to write about.

Just when I was about to get slightly hopeful after hearing some people talk about how men must learn to accept a ‘rejection’, I came across a headline in Dainik Bhaskar’s online edition (dated 2 August 2013) that screamed- “बदले के लिए करना चाहता था मर्डर: सेक्‍स तक कर चुकी थी गर्लफ्रेंड, परबाद में उड़ाने लगी मजाक[i]” (For taking revenge, he wanted to murder: girlfriend had gone on to the extent of having sex, but later started mocking him). I do not even wish to comment on the imagined content of this headline and the writing that follows, which infers they had sex from an excerpt from the boy’s note that says they were ‘close’ and then goes on to describe how after being close to him she chose to end their relationship or made fun of him and thus making her out to be the villain in the entire episode. What is striking is the pains that this write up takes to point out how the earlier explanations of the incident that said that the attack on the girl and the subsequent suicide by the boy were perhaps caused by his inability to accept a ‘no’ had suddenly been proved false!! And seriously, how? So a ‘no’ is an acceptable choice only at a certain phase of the relationship (actually at that early a phase, it isn’t even a relationship) and thereafter it becomes inadmissible? Suddenly the seemingly progressive sounding bytes on how the boy should have let her go after she refused his proposal have started appearing hollow.

Doesn’t it somewhere bring us all back to the same notions of modesty, chastity and honour when you begin to realise that the acceptance of woman’s ‘no’ as a legitimate response is only as long as one is able to view the woman as safeguarding something ‘virtuous’ in her, and thus being hardly reflective of an acknowledgement of a woman’s right to make her choices and decisions. I am neither an expert, nor someone close to either the woman or the man, who can talk about what really happened and more importantly it isn’t even mine or anyone else’s business to know what was the exact nature of the relationship between the people concerned. All that I do know is that at a time when a young girl is battling for her life, a girl who was brutalized simply because a man felt that his ‘ego’ was far more important than both her life – and his, the last thing we should show tolerance for is the usual tirade that a highly patriarchal society almost always reserves for a victim of its own oppressive clutches. And for record, I do not believe men and women to be equal victims of patriarchy.

So here is something that I strongly feel and while it doesn’t address all that is wrong with patriarchy, I feel at a time like this, it is important to reiterate.

No matter what the Hindi or the Tamil or the English or the Bhojpuri or any other film industry tells us about the beauty of the unrequited love, if there is no respect for the other’s choice, it is simply not love. Here I am reminded of something I learnt long back in Psychology classes. One of the most crucial transitions in the life of a human being is the transition from the phase where one believes one is omnipotent or even the centre of the universe to one where the realization that there are others who feel or have their own needs like us begins to take shape. For a newly born infant, the world revolves around him or her. A baby experiences a need, lets out a cry and almost immediately gets what it wants. A mother who tends to the baby at that point of time is what psychoanalysts term an ‘objective object’, i.e., an object of desires that is perceived to have no desires of its own. The transition happens when this object of desire or need begins to be seen as a subjective object, i.e., an object that also has desires and needs of its own. This is the point where the sense of omnipotence and narcissism begins to end. Now if I were to re-examine the kind of ‘love’ that one sees in our mass media and in particular in movies like Devdas, or Raanjhaana, one is forced to ask if indeed it is ‘love’ or ‘self love’? Far from anything mature or gracious, it uncomfortably appears closer to the infant whose first love for the mother is indeed not ‘love’ for the mother but for the ‘objective object’ that tends to its every basic need, and thus in some ways is more a love of the self.

A man desires a woman and wants her to be with him irrespective of whether or not she wants to be with him. How is this love? How is it any different from wanting a particular kind of food or a car or a toy? After all we often hear people say “I love biryani”, “I love my playstation”!! If wanting a food item badly enough can make people term their want ‘love’, is it so difficult to understand that it is a similar desire or a want which also guides them to call their desire for a particular woman ‘love’! And so while an independent woman in a mutual relationship is still to be condemned for an act of consensual intimacy, a man can merely term his need or desire ‘love’ and be exonerated for even the most brutal of acts. I do not believe men and women to be equal victims of patriarchy. This is not to say that patriarchy cannot be oppressive for men with all its demands of overt and regular demonstrations of one’s masculinity, but men are not helpless pawns of patriarchy. Men do have a choice to accept and respect rather than resent a woman’s no.

A woman’s no means NO. No matter what the mainstream movies show you, a woman’s smile is not always indicative of her interest in you, it may just be sheer politeness. While there is no harm in expressing to someone what you might be feeling, in face of a ‘no’, ‘try try try till you succeed’, is not the mantra. Stalking, forcing, intimidating, blackmailing, teasing are not ‘wooing’ but actions that can get you booked for harassment. When Govinda sings “kab tak roothegi, cheekhegi, chillayegi, dil kehta hai ek din haseena maan jaayegi”, what he is demonstrating is not a way to a woman’s heart but a way to the prison gates, since any action that elicits displeasure, shouts and screams cannot by an stretch of imagination be deemed as indicative of love or concern.

An understanding of notions of choice and agency are absolutely essential if we wish to challenge such popular discourses where obsession masquerading as love is instantly glorified and accepted as a reasonable way of being. Unless we are talking of narcissism, a romantic relationship entails more than one person, and unlike familial relationships into which one is just born, it should be characterized by a choice for all involved, a choice to be in it or to walk out if it. People may grow apart, their objects of affection may change or there just maybe a late realization of incompatibility. Nobody can deny the pain or the hurt that is involved when a relationship breaks, or where a relationship that one may desire does not get formed, but one needs to realise that a relationship forced on someone is also painful and oppressive for that other person who does not choose to be in it and here one has to recognize one’s own agency in letting go and maybe feeling hurt for sometime, or forcefully holding on and causing pain to both.  All choices in life are not easy, but that does not take away from the fact that they still are choices and the very fact of them being choices makes us an agent of life and not a victim of it. And this is why I feel that though patriarchy is oppressive for both women as well as men, in case of women, deprived of choices, they are forced to be the victims of patriarchy, while men, with some of their choices intact end up being not victims but more often agents through which patriarchy unleashes its terror. Therefore to simply turn the discourse of how patriarchy oppresses women into one focussed on finding rationales absolving men from the responsibility of their own choices or failure to respect the choices of others can only serve the agenda of the same structures that continue to deny women the right to exercise choices or vilify those who actually do still manage to.

[i] The online news article has been since then withdrawn after leading to much outrage, but a glimpse of the headline can be seen in this facebook link- https://www.facebook.com/arun.worldpeace/posts/10151541059405814?comment_id=215645538&ref=notif&notif_t=like 

(you can also read this article at Kafila.org)

Shivani Nag is a Research Scholar 
at Jawaharlal Nehru University (JNU), New Delhi. 
She is an activist with the All India Students’ Association (AISA).

धारचुला-मुनस्यारी पर भी पड़ी है आपदा की गहरी मार : चौथी किस्त

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जगत मर्तोलिया
-जगत मर्तोलिया

आपदा प्रभावित धारचूला से मदकोट तक 107 किमी की पैदल यात्रा के दौरान पत्रकार और राजनीतिक कार्यकर्ता जगत मर्तोलिया की रिपोर्टो की तीन किस्त praxis में प्रकाशित की गई थी. इस यात्रा की रिपोर्ट की चौथी और अंतिम किश्त उन्होंने भेजी है. पढ़ें...

-संपादक


खेती, जंगल नहीं रहे तो हम क्यों रहे यहां !

तीलादेवी देवी परिहार गुमसुम सी बैठी हुई है। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि तीला अपना सबकुछ गंवा कर किसी को कोस रही है। उसके सामने कुछ बचे हुए खेत और खतरों से घिरे घर थे। एक बार वह इनकी ओर नजर फेरती फिर गोरी नदी की ओर देखते हुए नदी को अपनी इस बर्बादी के लिए जिम्मेदार मानते हुए उसकी आंख भर आती। 

हमारेकदमों की आहट भी उसकी टकटकी को तोड़ नहीं पाई। पिथौरागढ़ में बनी आपदा समिति के साथियों के द्वारा इस गांव के पीडि़त परिवारों को राशन भेजा गया था। इसलिए इस गांव में कुछ लोग हमें ज्यादा जानने लग गए थे। उप-प्रधान पदम सिंह परिहार और रूद्र सिंह कोरंगा ने हमें देखते ही आवाज लगानी शुरू कर दी। तब जाकर इस तीला देवी ने हमारी और देखा। हम भी तीला के पास ही बैठ गए। 

ग्राम तल्लामोरी के 14 परिवारों के लोग भी वहीं पर जमने लगे। तीला देवी ने फिर हमारी और नजर लगाई और बोली कि रोज कोई न कोई आ रहा है। सभी मीटिंग करते है। पटवारी के चपरासी से लेकर सभी अफसर बन बैठे है। हमें तो हमारी जमीन चाहिए। क्या कोई हमें वापस दिला पाएगा। तीला की बात अभी खत्म नहीं होती वह कहती है कि तल्लामोरी कोई दिल्ली, हल्द्वानी और पिथौरागढ़ जो यहां बाहर से बसने को कोई आएगा। हम तो यहां इसलिए बसे हैं कि खेत और जंगलों के लालच के कारण। न खेत बचे है। और न हीं जंगल अब पहले जैसे है। अब यहां क्या करेंगे। 

आपदाकी इस त्रासदी में अभी केवल घर खोने वाले के बारे में ही बातचीत हो रही है। जिन परिवारों ने खेती के दम पर इस बीहड़ों में रहने का लंबा इतिहास रचा है। आज उनके सामने इस इतिहास को आगे ले जाने की चुनौती सामने खड़ी है। तल्लामोरी की तीला देवी जैसी सैकड़ों महिलाऐं गोरी, काली और धौली गंगा के द्वारा जमीन छीन लिये जाने के बाद अब बेसहारा बैठकर सरकार की ओर टकटकी लगाये बैठी हैं। स्थिति यह है कि अभी तक सरकार ने जमीन खोने वाले परिवारों के बारे में कुछ बोलना भी मुनासिब नहीं समझा है। 

दारमाघाटी के गांवों से लेकर मुनस्यारी के जिमिघाट तक 10 हजार नाली जमीन नदियों में समा गयी है। नदी किनारे जमीन का महत्व समझना भी जरूरी है। नदी के किनारे सिंचित उपजाऊ भूमि होती है। और इस भूमि में धान की रोपाई, गेहूं की पैदावार सहित साग-सब्जी, अन्य जगहों से अधिक होती है। इसलिये यह कहना लाजमी होगा कि पहाड़ों में नदी के आसपास की जमीन के किसान ही वर्षभर खेती की पैदावार से अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं। 

पहाड़ों में नदी घाटी को छोड़कर अन्य जमीनें रोखड़, ईजर होती हैं। इन जमीनों में केवल घास और पेड पौंधे ही किसानों की धरोहर होती हैं। धारचूला और मुनस्यारी के घाटी क्षेत्र इस बार तबाह हुए हैं। सोबला, न्यू, सुवा, कंज्योती, खिम, खेत, झिमिरगांव, खोतिला, गोठी, बलुवाकोट, घट्टाबगड़, बन्दरखेत, चामी, लुमती, मोरी, बांसबगड़, घरूड़ी, मनकोट, बंगापानी, छोरीबगड़, उमरगड़ा, देवीबगड़, मदकोट, भदेली, बसंतकोट, दुम्मर, जिमीघाट के गांवों में आज किसान परिवारों के पास जमीन के नाम पर कुछ मुट्ठी भूमि ही बची है। 

आवासीयभवन तो बचे हैं, लेकिन खेती की भूमि नहीं। उत्तराखंड शासन एक नाली भूमि का फसली मुआवजा मात्र 300 रूपये देता है। सरकार अपनी पीठ खुद थपथपाते हुए कह रही है कि उसने इस मुआवजे को दुगुना कर दिया है। नदी घाटी की जमीन में वर्ष में दो बार भरपूर खेती होती है। मोरी गांव में एक किसान परिवार वर्षभर में मात्र मूंगफली की खेती से ही 30 हजार रूपये अपने गांव में ही कमा लेता था। इसके अलावा धान, गेहूं की पैदावार भी साल भर के खाने के लिये पूरी हो जाती थी। 

यहबात हर घर की है। जो नदी किनारे अपने गांवो को छोड़कर तीन सौ साल पहले आ गये थे, उसने कभी सोचा भी नहीं था कि गर्मियों में ठंडी हवा, पानी की प्यास बुझाने वाले और खेतों में हरियाली देने वाले नदी उसके साथ इस तरह का सलूक करेगी। लुमती गांव की बसंती देवी का कहना था कि हम बहुत खुश थे कि हम सड़क किनारे रहते हैं, लेकिन आज हमारी वर्षों की पूंजी खेती हमारे पास नहीं रही। अब हमारे सामने यह संकट खड़ा हो गया है कि हम कैसे अपने जीवन की गाड़ी को आगे ले जायें। 

इसबार तो हम पिछले वर्ष के अनाज से काम चला रहे हैं, अगले वर्ष कहां से अनाज का इंतजाम होगा। चामी गांव की इंदिरा बोलती है कि गांव में एक भी नौकरी वाला परिवार नहीं है। खेती से ही सब कुछ चल रहा था। सरकार जमीन नहीं देगी तो कम से कम नौकरी तो दे दे। बाहर जाकर अपना परिवार पाल लेंगे। बन्दरखेत निवासी केशव चन्द का कहना है  कि इस खेती से कई पुश्तों का जीवन चला आज खेती नहीं है तो लग रहा है कि हमारा कुछ भी नहीं है। उनका कहना है खेती के बदले उन्हें खेत ही चाहिए। ऐसी जमीन या तो नदी किनारे मिलेगी या फिर तराई भावर में। अब नदी किनारे जाने की हिम्मत नहीं है। उत्तराखंड सरकार हमें तराई भावर में दो एकड़ जमीन के साथ सामूहिक रूप से बसाये। 

नदीघाटी इलाके के दलित परिवारों के कहानी कुछ और है। इनके नाम से जमीन नहीं है। समाज में उपेक्षित रहने वाले दलित समुदाय को ऐसा ठौर रहने के लिये दिया गया जो किसी को पसंद नहीं था। आज वह भी नहीं रहा। अभी तक बेनाप भूमि में बसे दलितों को आवासीय भवन के नदी में बह जाने पर मुआवजा तक नहीं मिला है। इनकी लड़ाई तो और भी कठिन है। कैसे जमीन का मामला मुद्दा बने और भूमिहीन बन चुके इन किसान परिवारों को पुनः उपजाऊ भूमि मिल सके ताकि ये फिर हल चलाकर, गाय, भैस पालकर अपनी आजीविका चला सकें। 

जगत मर्तोलिया, भाकपा माले पिथौरागढ़ के जिला सचिव हैं.

jagat.pth@gmail.com पर इनसे संपर्क करें.

पटना के रंगकर्मियों के आंदोलन के समर्थन में जुटे दिल्ली के रंगकर्मी

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-प्रैक्सिस प्रतिनिधि

दिल्ली के रंगकर्मियों ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को दिया ज्ञापन  


बिहार संगीत नाटक अकादमी और कला संस्कृति विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार,अराजकता,अपसंस्कृति और सामंती अफसरशाही के खिलाफ विगत 18 दिनों से आंदोलन कर रहे पटना के रंगकर्मियों और संस्कृतिकर्मियों के समर्थन में आज दिल्ली स्थित बिहार भवन में राजधानी और देश के विभिन्न हिस्सों के लगभग 250 रंगकर्मी-संस्कृतिकर्मी इकट्ठा हुए और उन्होनें विरोध-प्रदर्शन किया। ज्ञात हो कि संस्कृति और रंगमंच के प्रति बिहार सरकार के नकारात्मक और विरोधी रवैये में बदलाव की मांग कर रहे आंदोलनकारियों की मांगों पर सरकार और उसकी अकादमी ने अब तक अड़ियल रुख अपना रखा है। बिहार भवन में जुटे रंगकर्मियों और संस्कृतिकर्मियों ने बिहार सरकार और उसके अकादमी की इस निर्लज्ज हठधर्मिता की कठोरतम शब्दों में भर्त्सना की और उन्हें इस बात से आगाह किया कि वे रंगकर्मियों के इस आंदोलन को सीमित या कमजोर समझने और अनदेखा करने की गलती न करें।

बिहारभवन के समक्ष उपस्थित रंगकर्मियों को संबोधित करते हुए वरिष्ठ रंगकर्मी और समीक्षक राजेश चन्द्र ने पटना में चल रहे आंदोलन की पृष्ठभूमि पर विस्तार से बात करते हुए आंदोलन की वर्तमान गतिविधियों से भी अवगत कराया। उन्होंने कहा कि पटना और समूचे बिहार का रंगमंच आज विसंगतियों,विडंबनाओं,अभावों और अंतहीन सरकारी उपेक्षा की गिरफ्त में दम तोड़ता नजर आ रहा है। रंगकर्मियों के पास न तो पूर्वाभ्यास की कोई जगह है,न प्रस्तुति के लिए उपयुक्त रंगशालाएं। पटना के गौरवशाली प्रेमचंद रंगशाला की दुरवस्था,उस पर सरकार की निरंकुश अफसरशाही का कसता शिकंजा,हिन्दी भवन जैसी सांस्कृतिक धरोहर को मुनाफा कमाने वाले उपक्रम में बदलने या कि तमाम सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों से संस्कृतिकर्मियों को दूर रखने और बेदखल करने की सरकार की प्रवृत्ति इस धारणा को पुष्ट करती है कि राज्य का नेतृत्व संस्कृति और कलाकर्म के प्रति नितांत असंवेदनशील है। ऐसा नेतृत्व बिहार की सांस्कृतिक अस्मिता की हिफाजत भला क्या करेगा?उन्होंने पटना के आंदोलनरत रंगकर्मियों की तमाम मांगों को बेहद वाजिब बताते हुए सरकार से अपील की कि वह उन पर अविलंब कार्रवाई करे।

सभा को संबोधित करते हुए युवा रंगकर्मी और निर्देशक मृत्युंजय प्रभाकर ने कहा कि बिहार के रंगकर्मियों ने संस्कृति और रंगमंच के जिन मुद्दों को अपने आंदोलन के माध्यम से उठाया है उन मुद्दों से देश के हर रंगकर्मी को सरोकार है और इसीलिए आज इतनी बड़ी संख्या में रंगकर्मी यहाँ इकट्ठा हुए हैं। उन्होंने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि जिस बिहार संगीत नाटक अकादमी पर राज्य की समस्त सांस्कृतिक योजनाओं के क्रियान्वयन,सांस्कृतिक मद की राशियों के आवंटन,अनुदान तथा पुरस्कारों के निर्धारण आदि जैसे महत्वपूर्ण कार्यों को अंजाम देने की ज़िम्मेदारी है उसके बारे में इस तथ्य के सामने आने से कि वह एक फर्जी संस्था है और उसका कोई संविधान तक मौजूद नहीं है,यह बात साबित हो गयी है कि प्रदेश में संस्कृति के नाम पर कैसा गोरखधंधा चलता रहा है। अकादमी की प्रभारी सचिव विभा सिन्हा की नियुक्ति,सोच और व्यवहार पर सवाल उठाते हुए रंगकर्मी लगातार उनकी बर्खास्तगी की मांग कर रहे हैं,पर सरकार इस मामले में भी चुप है।

प्रसिद्ध रंगकर्मी और निर्देशक अरविंद गौड़ ने कहा कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी हमारे देश में कोई सांस्कृतिक नीति मौजूद नहीं रहने के कारण ही आज समूचे देश का रंगमंच समस्याओं में घिरा हुआ है। इतने बड़े देश में सरकार संस्कृति के ऊपर जो खर्च करती है वह हमारे कुल बजट का मात्र एक प्रतिशत हिस्सा है जबकि हम अपने देश को एक संस्कृति प्रधान देश कहते नहीं थकते। सारा संसाधन कुछ मुट्ठी भर लोगों और बड़े संस्थानों तक सीमित है जबकि देश भर में काम करने वाले छोटे छोटे समूहों को आज भी भयावह परिस्थितियों में संस्कृतिकर्म करना पड़ रहा है। बिहार का वर्तमान आंदोलन भी इस तथ्य को साबित करने के लिए काफी है कि हमारा सत्ताधारी वर्ग न सिर्फ संस्कृति को हाशिये पर  रखने के लिए कृतसंकल्प है बल्कि वह रंगमंच जैसी लोकतान्त्रिक विधाओं को पूरी तरह समाप्त करने के लिए हर संभव उपाय भी करता रहा है। ऐसा इसलिए है कि रंगमंच उन्हें अपने अस्तित्व के लिए एक बड़ा खतरा लगता है।

सभामें जिन अन्य रंगकर्मियों,संस्कृतिकर्मियों ने अपने विचार रखे उनमें वरिष्ठ रंगकर्मी मनीष मनोजा,सुधीर सुमन,अमितेश कुमार,प्रकाश झा,दिलीप गुप्ता,शिल्पी मारवाह,गौरव मिश्र आदि प्रमुख थे। रंगकर्मियों का एक प्रतिनिधि मण्डल,जिसमें अरविंद गौड़,मनीष मनोजा,राजेश चंद्र,मृत्युंजय प्रभाकर और सुधीर सुमन शामिल थे,बिहार भवन में  एडिशनल रेसिडेंट कमिश्नर विपिन कुमार से मिला और उन्हें 300 रंगकर्मियों के हस्ताक्षर से युक्त बिहार के मुख्यमंत्री के नाम एक ज्ञापन भी सौंपा। ज्ञापन में बिहार सरकार से यह मांग की गई है कि वह पटना के आंदोलनरत रंगकर्मियों की निम्नलिखित सभी मांगों पर अविलंब कार्रवाई करे अन्यथा इस आंदोलन को तेज करते हुए पूरे देश में ले जाया जाएगा-

  1. बिहार संगीत नाटक अकादमी की प्रभारी सचिव विभा सिन्हा को अविलंब बर्खास्त किया जाए।
  2. बिहार संगीत नाटक अकादमी के पुनर्गठन की घोषणा करते हुए उस पर लगे आरोपों एवं उसके अब तक के क्रियाकलापों की स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच कराई जाए। अकादमी के संचालन में रंगकर्मियों-संस्कृतिकर्मियों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
  3. बिहार संगीत नाटक अकादमी का संविधान बनाने में रंगकर्मियों-संस्कृतिकर्मियों की सक्रिय भागीदारी हो और
  4. प्रेमचंद रंगशाला के संचालन में रंगकर्मियों-संस्कृतिकर्मियों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
आजके इस प्रदर्शन में दिल्ली के अस्मिता,सहर,उत्तर रंग,मैलोरंग,सर्कल थिएटर कंपनी,जन संस्कृति मंच,पलटन आदि नाट्य व सांस्कृतिक संस्थाओं ने शिरकत की। प्रदर्शन में इन संस्थाओं की ओर से जनगीतों और कविताओं की प्रस्तुति भी की गई।

मशहूर दलित चिंतक कँवल भारती की गिरफ्तारी की निंदा

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"आरक्षण और दुर्गाशक्ति नागपाल इन दोनों ही मुद्दों पर अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार पूरी तरह फेल हो गयी है. अखिलेश, शिवपाल यादव, आज़म खां और मुलायम सिंह (यू.पी. के ये चारों मुख्य मंत्री) इन मुद्दों पर अपनी या अपनी सरकार की पीठ कितनी ही ठोक लें, लेकिन जो हकीकत ये देख नहीं पा रहे हैं, (क्योंकि जनता से पूरी तरह कट गये हैं) वह यह है कि जनता में इनकी थू-थू हो रही है, और लोकतंत्र के लिए जनता इन्हें नाकारा समझ रही है. अपराधियों के हौसले बुलंद हैं और बेलगाम मंत्री इंसान से हैवान बन गये हैं. ये अपने पतन की पट कथा खुद लिख रहे हैं. सत्ता के मद में अंधे हो गये इन लोगों को समझाने का मतलब है भैस के आगे बीन बजाना."  
-कँवल भारती  
लित विमर्श के सक्रीय लेखक कँवल भारती को उनके उपरोक्त बयान के लिए अखिलेश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया. बहरहाल उनकी जमानत हो गई है. लेकिन लेखक समुदाय और अन्य सरोकारी जनों की ओर से उत्तर प्रदेश की 'समाजवादी' पार्टी सरकार की इस फासीवादी हरकत पर निंदा की गई है. पत्रकार Praxisभी अभिव्यक्ति के इस दमन की भर्त्सना करता है.

लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के संगठन 'जन संस्कृति मंच' की ओर से भी इस गिरफ्तारी की निंदा करते हुए प्रेस विज्ञप्ति जारी की है. हम इसे साझा कर रहे हैं.
-संपादक


मशहूर दलित चिंतक कंवल भारती की गिरफ्तारी की निंदा

अखिलेश सरकार इस कृत्य के लिए माफी मांगे और कंवल भारती को आरोपमुक्त करे: जसम

नई दिल्ली: 6 अगस्त 2013
शहूर दलित चिंतक कंवल भारती की फेसबुक पर की गई एक टिप्पणी के संदर्भ में रामपुर (उत्तर प्रदेश) में यूपी पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारी बेहद निंदनीय है। यह लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है। कंवल भारती ने आरक्षण और दुर्गा नागपाल के मुद्दे को लेकर फेसबुक पर जो टिप्पणी की है, वह लोकतंत्र और सामाजिक समानता के प्रति प्रतिबद्ध एक जिम्मेवार लेखक की चिंता और बेचैनी को ही जाहिर करती है। सरकार और मंत्रियों के नकारेपन और उनके द्वारा अपराधियों की सरपरस्ती के खिलाफ किसी भी लोकतंत्रपसंद व्यक्ति का गुस्सा वाजिब है। न्यायालय से जरूर कंवल भारती को जमानत मिल गई है, पर हमारी मांग है कि अखिलेश सरकार इस कृत्य के लिए माफी मांगे और कंवल भारती को आरोपमुक्त करे। हमारी यह भी मांग है कि उत्तर प्रदेश में माफियाओं और अपराधियों की लूट के तंत्र को कायम रखने के लिए जिस तरह सांप्रदायिक-जातिवादी भावनाएं भडकाने की कोशिशें सरकारी मंत्री कर रहे हैं, उन पर अविलंब रोक लगाई जाए।  
सुधीर सुमन, राष्ट्रीय सहसचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी
   मोबाइल 9868990959   

गैर-बराबरी पर गौर कीजिए

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सत्येंद्र रंजन

-सत्येंद्र रंजन
"...यह रुझान नव-उदारवादी बुद्धिजीवियों के इस दावे को अविश्वसनीय बनाता है कि जब जलस्तर चढ़ता है तो सबकी नाव ऊंची होती है। ऐसा शायद हो सकता है, बशर्ते सबके पास नाव हो। अऩुभव यह है कि भारत में जब अर्थव्यवस्था की जलधारा निर्बाध हुई तो जिनके पास नाव थी वे तेजी से ऊपर चढ़ते गए, जबकि किनारे छूट गए लोग आज भी प्यासे हैं, हालांकि यह हो सकता है कि उनसे पास पहले से कुछ ज्यादा पानी पहुंच रहा हो।..."


हाल में योजना आयोग ने जब उपभोग आंकड़ों के आधार पर देश में गरीबी घटने का दावा किया तो उस पर एक अजीब तरह की विवेकहीन प्रतिक्रिया देखने को मिली। विपक्ष और हमेशा नकारात्मक एवं जज्बाती मामलों की तलाश में रहने वाले मीडिया की बात यहां छोड़ देते हैं, क्योंकि उनसे किसी जटिल मुद्दे पर गंभीर विमर्श की उम्मीद रखना निरर्थक है। लेकिन अनेक बुद्धिजीवी, जो खुद को वामपंथी धारा में मानते हों, अगर वास्तविक रुझानों की पूरी अनदेखी करें तो वह जरूर निराशा की बात है, क्योंकि उससे समाज में सार्थक बहस एवं विमर्श की गुंजाइश संकुचित हो जाती है। 

बेशकयोजना आयोग ने गरीबी मापने का जो पैमाना अपना रखा है, वह आपत्तिजनक है। अगर इसे कुछ लोग कंगाल रेखा कहना पसंद करते हैं, तो उसे सहज स्वीकार किया जा सकता है। मगर रेखा चाहे मौजूदा हो या भविष्य में कोई अपनाई जाए, असल सवाल यह है कि भारत में क्रमिक रूप से अधिकांश वर्गों की आमदनी बढ़ रही है या नहीं? क्या यह कहना तथ्यात्मक है कि देश में गरीबी बढ़ रही है?इस संदर्भ में ऐसे तर्क सुनना दिलचस्प है कि विश्व स्तर पर गरीबी रेखा को इसलिए जानबूझ कर न्यूनतम स्तर पर तय किया गया है, ताकि गरीब उससे ऊपर उठते दिख सकें और विश्व बैंक-अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यह दावा कर सकें कि नव-उदारवादी नीतियां गरीबी घटाने में सहायक हैं।

लेकिन अगर ऐसा है, तब भी क्या इससे आंख मूंद ली जानी चाहिए कि उसी न्यूनतम कसौटी पर रुझान आखिर क्या है?अगर नेशनल सैंपल सर्वे के उपभोग आंकड़ों से यह रुझान सामने आया कि गरीब तबके भी उत्तरोत्तर अधिक खर्च कर रहे हैं, उनके व्यय में बुनियादी भोजन पर खर्च का हिस्सा घटा है, जबकि बेहतर भोजन, शिक्षा, चिकित्सा आदि पर खर्च बढ़ा है, तो इसे स्वीकार कर लेने में आखिर दिक्कत क्यों होनी चाहिए?

क्या इसलिए कि अगर वे इसे स्वीकार लेंगे कि गरीब तबके आज अधिक खर्च करने की स्थिति में हैं तो आर्थिक नीतियों के मामले में उनकी अपनी धारणाएं या विचारधारा से प्रेरित समझ गलत साबित होने लगेगी?फिर उनसे एक प्रश्न यह है कि क्या ऐसे बुद्धिजीवी यह मानते हैं कि अर्थव्यवस्था की उच्च विकास दर और सामाजिक क्षेत्र में सरकारी खर्च बढ़ने का कोई लाभ नहीं होता?अगर ऐसा है तो क्या वे यह कहने का साहस जुटाएंगे कि मनरेगा, मिड-डे मील, वृद्धावस्था पेंशन सहित सामाजिक क्षेत्र की तमाम योजनाएं सरकार को बंद कर देनी चाहिए?अगर इनसे वंचित तबकों की आमदनी बढ़ाने में कोई मदद नहीं मिलती तो आखिर इन्हें क्यों चलाया जाना चाहिए?

बहरहाल,वास्तविकता ऐसी नहीं है कि ऐसे तर्कों को सही ठहाया जा सके। ना ही यह मान लेने से कि उच्च आर्थिक वृद्धि दर और सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं से देश में बड़ी संख्या में लोग आज पहले से बेहतर स्थिति में हैं, नव-उदारवादी नीतियां कठघरे से बाहर हो जाती हैं। यह सवाल अपनी जगह कायम है कि क्या देश में सभी लोगों की स्थिति समान रूप से सुधर रही है?या विकास के जिस रास्ते पर देश चल रहा है, उससे सबको बराबर फायदा हो रहा है?उच्च आर्थिक वृद्धि दर से जो धन पैदा हुआ है, आखिर उसका बंटवारा कैसे हो रहा है? 

दरअसल,नेशनल सैंपल सर्वे संगठन (एनएसएसओ) के जिस सर्वे के आधार पर योजना आयोग ने 2004-05 से 2011-12 के बीच गरीबी में लगभग 15 प्रतिशत कमी आने का दावा किया, अगर उसी के दूसरे आंकड़ों पर ध्यान दें तो देश में बढ़ती गैर-बराबरी की भयावह तस्वीर सामने आती है। ये आंकड़ों बताते हैं कि आर्थिक विकास का अधिकांश लाभ सबसे धनी तबकों ने हड़प लिया है। मसलन, एनएसएसओ के 2009-10 के सर्वे से अगर 68वें दौर के सर्वे तुलना करें, तो साफ होता है कि उन दो वर्षों के दौरान ग्रामीण इलाकों में सबसे गरीब 10 प्रतिशत आबादी की आमदनी में जहां 11.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, वहीं सबसे धनी 10 फीसदी लोगों की आय 38 प्रतिशत बढ़ी। शहरी क्षेत्रों में सबसे गरीब 10 प्रतिशत लोगों की आमदनी 17.2 प्रतिशत बढ़ी तो सबसे धनी 10 प्रतिशत आबादी की आय 30.5 प्रतिशत बढ़ गई।

दरअसल, विषमता बढ़ने के इस रुझान को साबित करने वाले अनगिनत स्रोत हैं। दुनिया भर में गैर-बराबरी मापने के लिए जिनी को-इफिशिएंट का पैमाना अपनाया जाता है। 1993 में भारत इस पैमाने में 0.32 अंक पर था, जो 2008 में 0.38 हो गया। (0 का मतलब होता है आमदनी का समान बंटवारा और 1 का अर्थ होता है कि सारी आमदनी एक वर्ग के पास जा रही है)। फॉर्ब्स पत्रिका के मुताबिक 2013 में भारत में 55 अरबपति थे, जिनमें सबसे अधिक धनी दस के पास 102.1 अरब डॉलर की संपत्ति थी- जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद के 5.5 प्रतिशत के बराबर है। दूसरी तरफ एक तिहाई आबादी (42 प्रतिशत बच्चे) कुपोषण का शिकार थी। 2011 में विश्व भूख सूचकांक पर 88 देशों की सूची में भारत 73वें नंबर पर था। संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक पर 2011 में भारत 134वें स्थान पर था, जबकि 2013 में गिर कर 136वें नंबर पर चला गया। 2010 में तैयार हुए बहु-आयामी गरीबी सूचकांक से सामने आया कि भारत के सिर्फ आठ राज्यों में गरीबों की संख्या सबसे गरीब 26 अफ्रीकी देशों से अधिक थी।   

क्याये आंकड़े यह साबित करने के लिए काफी नहीं हैं कि नव-उदारवादी नीतियों पर अमल के 20 वर्षों के दौरान देश में धन पैदा होने की रफ्तार तो तेज हुई और आर्थिक अवसर बढ़े, लेकिन उनके अधिकांश हिस्से आबादी के एक छोटे से तबके के पास चले गए। यह रुझान नव-उदारवादी बुद्धिजीवियों के इस दावे को अविश्वसनीय बनाता है कि जब जलस्तर चढ़ता है तो सबकी नाव ऊंची होती है। ऐसा शायद हो सकता है, बशर्ते सबके पास नाव हो। अऩुभव यह है कि भारत में जब अर्थव्यवस्था की जलधारा निर्बाध हुई तो जिनके पास नाव थी वे तेजी से ऊपर चढ़ते गए, जबकि किनारे छूट गए लोग आज भी प्यासे हैं, हालांकि यह हो सकता है कि उनसे पास पहले से कुछ ज्यादा पानी पहुंच रहा हो।


भारतमें इस परिघटना को बारीकी से समझना आज सबसे बड़ी जरूरत है। चालू नीतियों की साख एवं औचित्य को चुनौती देने के लिए बढ़ती विषमता सबसे बड़ा तर्क है। लेकिन यह विमर्श जज्बाती या हवाई बातों से आगे नहीं बढ़ सकता। जब वामपंथ अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षरत तो, उस समय समाजवाद का बड़ा वैचारिक विमर्श सामने रख देने से कोई ठोस राजनीति नहीं निकल सकती। उस वक्त वास्तविक रुझानों को समझना और उनके मुताबिक मुद्दों का चयन प्राथमिक राजनीतिक तकाजा है। इस क्रम में सरकारी सामाजिक योजनाओं के लाभ को अस्वीकार करने से कुछ हासिल नहीं होगा। बल्कि फिलहाल, मुद्दा यह है कि सबके लिए पोषण, शिक्षा, चिकित्सा, स्वच्छता और ऊर्जा की उपलब्धता को कैसे राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श के केंद्र में लाया जाए। यह काम हर हाल में नकारात्मक और निराशाजनक नजरिया अपनाते हुए नहीं किया जा सकता। मगर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज एक बड़े दायरे में ऐसे ही नजरिए को क्रांतिकारिता का पर्याय समझा जाता है। 
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

शराब के खिलाफ संघर्षरत महिला नेत्री की हत्या

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जगत मर्तोलिया

-जगत मर्तोलिया

"...शराब तस्करों ने उसके मुंह में जहरीला पदार्थ उढेल दिया, ताकि मामला आत्महत्या का बन जाय। इस बीच पुलिस संगीता को देखने नहीं आयी। संगीता के अंतिम फोन के बाद बागेश्वर शहर के एक प्रिंटिंग प्रेस में नौकरी कर रहे संगीता के पति प्रकाष मलड़ा जैसे ही घर के भीतर दाखिल हुए तो संगीता अंतिम सांसें गिन रही थी। घर का सारा सामान बिखरा हुआ था। घर के कोने-कोने में उसके सिर के बिखरे बाल इस बात की कहानी बता रहे थे कि उसके साथ निर्मम ढंग से मारपीट हुई है।..."

त्तराखंड के बागेश्वर जिले में शराब तस्करों ने आशा वर्कर तथा महिला नेता संगीता मलड़ा की हत्या कर दी। शराब के खिलाफ उठने वाली इस आवाज को हमेशा के लिये खामोष कर दिया गया। बागेश्वर पुलिस और शराब तस्करों की पुरानी दोस्ती के चलते हत्या के इस मामले को आत्महत्या में बदल दिया गया। ढाई माह बाद भी संगीता मलड़ा हत्याकाण्ड पर पड़ा पर्दा नही उठ सका। उत्तराखंड पुलिस से लोगों का विशवास पहले से ही उठ चुका था। स्थानीय पुलिस से इस जांच को छीन कर राज्य सरकार की स्वतंत्र जांच ऐजेन्सी सीबीसीआईडी को सौंप दी है। ऐजेन्सी ने पड़ताल तो कर दी है, लेकिन अभी तक खुलासा नहीं किया कि उसे जांच में क्या मिला।

उत्तराखंडकी धरती में शराब विरोधी आन्दोलनों का एक लंबा इतिहास रहा है। आज भी गांव कस्बों में शराब के खिलाफ प्रदर्शनों का क्रम जारी है। बागेश्वर जिले के जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक की कुर्सी से मात्र तीन किमी की दूरी पर स्थित मंडलसेरा ग्राम के बानरी तोक में महिलाऐं शराब के खिलाफ एकजुट होने लगी थी। इसका कारण था कि वर्ष 2000 से 2012 तक 9 लोगों ने शराब के कारण आत्महत्या की थी। जिसमें पांच महिलाऐं शामिल हैं। इस गांव में 15 मई को एक नौजवान लड़की ने शराब के कारण घर में हो रही अशांति के चलते जहरीला पदार्थ पी लिया। हालांकि उसे समय पर अस्पताल पहुंचाया गया और उसकी जान बच गयी। 

इसताजी घटना के कारण महिलाऐं अपने कदमों को गांव में न रोक पायी और उन्होंने पूर्व से गठित महिला समूह की अध्यक्ष और आशा वर्कर संगीता मलड़ा के नेतृत्व में 20 मई को बागेश्वर जाकर जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक को मंडलसेरा क्षेत्र में खुलेआम बिक रही अवैध शराब की शिकायत की। चार दिन की इंतजार के बाद पुलिस हरकत में नहीं आयी तो 24 मई को जिले के नये जिलाधिकारी की प्रेस वार्ता के बाद फिर संगीता महिलाओं के हुजूम के साथ डीएम बीएस मनराल से मिली। 

शराबतस्करों के खिलाफ उठ रही इस आवाज के चलते गांव के शराब तस्कर एकजुट होने लगे। 20 मई के बाद उन्होंने गांव में हथियार लेकर घूमना शुरू किया। जिसका जिक्र 24 मई के ज्ञापन में संगीता मलड़ा ने किया। इस ज्ञापन में स्पष्ट तौर पर लिखा गया था कि शराब तस्कर महिलाओं को धमकी दे रहे हैं कि अगर उन्होंने दुबारा शिकायत की तो वे शिकायत करने वालों की जान ले लेंगे। गांव में शराब तस्करों का आतंक चल रहा है। ज्ञापन में इन बिंदुओं पर नये डीएम ने भी कोई संज्ञान नहीं लिया। 

बागेश्वरकी पुलिस ने 21 मई से 13 जून के भीतर देवेन्द्र मर्तोलिया, विनोद कुमार, प्रदीप दत्त भट्ट, बिशन सिंह, नवीन खेतवाल की दुकानों में अवैध शराब पकड़ी और आबकारी अधिनियम के अंतर्गत मुकदमा दर्ज कर दिया। फिर भी बागेश्वर की पुलिस शराब तस्कर और महिलाओं को जान से मारने की धमकी देने वाले पूरन सिंह, मदन सिंह तक नहीं पहुँच पायी। महिलाओं ने ज्ञापन में इन दोनों का नाम स्पष्ट रूप से लिखा हुआ था। 

पुलिस, शराब तस्करों तक स्थानीय जन प्रतिनिधियों की साठगांठ के चलते शराब तस्करों पर पुलिस का कोई खौफ नजर नहीं आया। शराब तस्करों ने उक्त कार्यवाही को भी मात्र दिखावा मानते हुए शराब बेचना जारी रखा। शराब विरोधी आन्दोलन की नेता संगीता मलड़ा के साथ शराब तस्करों की कहासुनी, छींटाकशी चलती रहीं। 28 मई को संगीता का हाईस्कूल का परीक्षाफल आया। शादी के 9 वर्षों बाद संगीता ने प्राइवेट परीक्षा देकर हाईस्कूल की परीक्षा पास की थी। इस खुशी में उसके पैर जमी पर नहीं थे। 

29मई 2013 को सुबह उसके घर पर महिला समूह की बैठक हुई। शराब विरोधी आन्दोलन और समूह को आगे ले जाने की चर्चा के बीच शराब तस्कर परिवार की दो महिलाऐं बैठक में आयी और संगीता को पीटने लगी। समूह की महिलाओं ने बमुश्किल संगीता को उनके हाथों से बचाया। बैठक के बीच में ही संगीता ने ग्राम प्रधान, बागेश्वर पुलिस के कोतवाल को सूचना दी। इस घटना के दो घंटे के भीतर गांव में हो रही शादी का होहल्ला और संगीता के घर में अकेले होने का फायदा उठाने शराब तस्करों ने संगीता के घर में घुसकर इतनी मारपीट की कि वह बेहोश हो गयी। 

शराबतस्करों ने उसके मुंह में जहरीला पदार्थ उढेल दिया, ताकि मामला आत्महत्या का बन जाय। इस बीच पुलिस संगीता को देखने नहीं आयी। संगीता के अंतिम फोन के बाद बागेश्वर शहर के एक प्रिंटिंग प्रेस में नौकरी कर रहे संगीता के पति प्रकाष मलड़ा जैसे ही घर के भीतर दाखिल हुए तो संगीता अंतिम सांसें गिन रही थी। घर का सारा सामान बिखरा हुआ था। घर के कोने-कोने में उसके सिर के बिखरे बाल इस बात की कहानी बता रहे थे कि उसके साथ निर्मम ढंग से मारपीट हुई है। 

पुलिसकी इंतजारी किये बिना गांव की महिलाओं ने संगीता को उठाया और अस्पताल पहुंचा दिया। जहां संगीता ने शराब विरोधी आन्दोलन को अंतिम सलाम करते हुए आंखें हमेशा के लिये बंद कर दी। संगीता अपने पीछे तीन मासूम बच्चों को छोड़ गयी। पुलिस ने एक ग्राम प्रधान से रिपोर्ट लिखवाई और पत्नी के खोने के गम में बेहोश पड़े प्रकाश मलड़ा से हस्ताक्षर कराकर प्राथमिकी दर्ज कराने में कोई देरी नहीं की। बागेश्वर कोतवाली में भारतीय दंड सहिता 306, 504 के अंतर्गत मुकदमा दर्ज किया गया। शराब तस्करों के इस कृत्य के बाद गांव में सुनसानी छा गयी। 

संगीताके आशा वर्कर होने के नाते उत्तराखंड राज्य की आशा वर्कर्स यूनियन ने प्रदेशभर में आन्दोलन करने की घोषणा कर दी और 2 जून को मंडलसेरा गांव में इसके लिखाफ बैठक की। शराब तस्करों और पुलिस के खिलाफ आन्दोलन की चिंगारी के सुलगते ही पुलिस ने मदन सिंह, पूरन सिंह, धनुली देवी तीनों आरोपियों को जेल भेज दिया। चार जून के प्रदर्शन के बाद चौथी आरोपी कविता को भी जेल भेजा गया। 

आशायूनियन और भाकपा माले के संयुक्त नेतृत्व में चले धारावाहिक आन्दोलन के बाद सीबीसीआईडी के इंसपेक्टर गंगा सिंह के नेतृत्व में हल्द्वानी से आयी टीम ने नये सिरे से जांच पड़ताल शुरू कर दी। अभी संगीता का मामला आत्महत्या की धाराओं में दर्ज है। महिला समूह की कोशाध्यक्ष परूली देवी का कहना है कि शराब तस्करों से मिलकर पुलिस ने पहले समूह के खाते में गड़बड़ होने के कारण संगीता के आत्महत्या करने का झूठा प्रचार किया। जांच के बाद साबित हो गया कि संगीता पाक साफ थी। परूली कहती है कि शराब तस्कर पुलिस की शह पर वर्षों से इस इलाके में शराब बेच रहे हैं। पुलिस इनसे मिली हुई है। 

भाकपामाले के राज्य कमेटी सदस्य कैलाश पाण्डेय का कहना है कि 24 मई के ज्ञापन में हत्या की धमकी देने वाले शराब तस्करों का नाम संगीता ने लिखा था उसके बाद ही पुलिस ने बिना जांच के मामले को आत्महत्या का क्यों बना दिया। इस घटना के बाद पुलिस की कोई जांच टीम संगीता के घर नहीं पहुंची। हत्या के सबूतों, फारेन्सिक जांच, फिंगर प्रिंट आदि  की कार्यवाही नहीं की गयी। पुलिस पहले से ही तस्करों को बचाने में जुटी हुई थी। वे चाहते हैं कि मामला केवल हत्या का ही न बने बल्कि शराब तस्करों के साथ मिली पुलिस, प्रशासन के अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही भी हो। अस्सी के दशक में उत्तराखंड का ‘नशा नही रोजगार दो’ आन्दोलन पूरी दुनिया में चर्चित हुआ था पर आज राज्य के हर गांव में शराब पहुँच गयी है। पानी, बिजली, सड़क, डाक्टर, मास्टर और राशन गांव में नहीं है, लेकिन शराब की मौजूदगी ने महिलाओं और बच्चों का जीवन दुश्वार कर दिया है। इसके खिलाफ बनी एक आवाज संगीता को कब न्याय मिलेगा यह सवाल उत्तराखंड में बना हुआ है।

मृत्युदंड के उलझते पेच

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-सत्येंद्र रंजन
सत्येंद्र रंजन

"...दरअसल, यह बात सिर्फ दया याचिकाओं पर ही नहीं, बल्कि मृत्युदंड सुनाने की न्यायिक प्रक्रिया पर भी लागू होती है। पिछले साल खुद सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणी की थी कि अपने देश में फांसी सुनाने की व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर रही है। न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर की खंडपीठ ने कहा था कि जिन आधारों पर मृत्युदंड सुनाया जाता है, उनके बीच लगभग ना के बराबर एकरूपता रहती है। यह जज की अपनी राय के ऊपर जरूरत से ज्यादा निर्भर करता है। यानी किस मामले में फांसी की सजा सुना दी जाएगी और ठीक वैसे ही किस दूसरे मामले में ऐसा नहीं होगा- यह कहना कठिन है।..."

गनलाल बरेला के फांसी के फंदे पर झूल जाने में कुछ घंटों का फासला बचा था, तभी उसे बचाने की एक नागरिक अधिकार संस्था की कोशिश कामयाब हो गई। सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम ने अगली सुबह जबलपुर जेल में उसे दी जाने वाली फांसी पर रोक लगा दी। मध्य प्रदेश में सिहोर जिले के कनेरिया गांव के निवासी इस आदिवासी को अपनी पांच बेटियों का गला काट कर हत्या करने के आरोप में मृत्युदंड सुनाया गया था। राष्ट्रपति द्वारा उसकी दया याचिका खारिज करने के बाद उसकी फांसी की तारीख तय हुई थी। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अनिश्चितकाल के लिए रोक लगा दी है। मगनलाल की पैरवी कर रहे वकील ने यह दलील दी है कि मगनलाल को यह नहीं मालूम की उसकी दया याचिका खारिज हो गई है, क्योंकि सरकार ने उसे यह सूचना नहीं दी। बहरहाल, नए सिरे से इस केस पर सुनवाई शुरू करते समय प्रधान न्यायाधीश ने यह महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की- सुप्रीम कोर्ट के पुनर्विचार याचिका रद्द करने और राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज करके बाद हम धीरे-धीरे सुनवाई का नया क्षेत्राधिकार कायम कर रहे हैं।

स्पष्टतःप्रधान न्यायाधीश यह नई याचिका एक हिचक के साथ स्वीकार की। लेकिन ऐसी कोई हिचक न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय के रुख में नहीं दिखी। उनके सामने असम के महेंद्रनाथ दास का मामला था, जिसमें केंद्र सरकार ने दया याचिका को स्वीकार या अस्वीकार करने के राष्ट्रपति के संवैधानिक अधिकार की समीक्षा के न्यायपालिका के अधिकार को चुनौती दी थी। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने दास की दया याचिका खारिज की थी। उसके बाद दास सुप्रीम कोर्ट गया, जिसने उसकी सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया। कोर्ट ने यह फैसला इस आधार पर दिया कि प्रतिभा पाटिल को इस बात की सूचना नहीं दी गई कि उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने दास को क्षमादान देने की सिफारिश की थी। अदालत ने इस बात पर भी ध्यान दिया कि राष्ट्रपति ने दया याचिका पर फैसला लेने में लंबा समय गुजार दिया। अब मगनलाल के मामले में न्यायमूर्ति सदाशिवम और जस्टिस रंजना देसाई की बेंच दया याचिकाओं के निपटारे में देर और उससे संबंधित अन्य मुद्दों पर भी विचार करेगी। मगनलाल के वकील ने दलील दी है कि ऐसी याचिकाओं के निपटारे की कोई पारदर्शी एवं उचित प्रक्रिया नहीं है।

दरअसल,यह बात सिर्फ दया याचिकाओं पर ही नहीं, बल्कि मृत्युदंड सुनाने की न्यायिक प्रक्रिया पर भी लागू होती है। पिछले साल खुद सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणी की थी कि अपने देश में फांसी सुनाने की व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर रही है। न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर की खंडपीठ ने कहा था कि जिन आधारों पर मृत्युदंड सुनाया जाता है, उनके बीच लगभग ना के बराबर एकरूपता रहती है। यह जज की अपनी राय के ऊपर जरूरत से ज्यादा निर्भर करता है। यानी किस मामले में फांसी की सजा सुना दी जाएगी और ठीक वैसे ही किस दूसरे मामले में ऐसा नहीं होगा- यह कहना कठिन है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रेयरेस्ट ऑफ रेयर (अति असाधारण मामलों) का सिद्धांत तय करने के बत्तीस साल बाद उसी कोर्ट की ये टिप्पणी सचमुच बेहद कड़ी थी। लेकिन वो पहला मौका नहीं था, जब मृत्युदंड के मामलों में न्यायिक फैसलों के सुसंगत ना होने की बात कही गई हो। उसके कुछ ही महीने पहले अनेक पूर्व जजों ने एक बयान जारी कर मृत्युदंड सुनाने में ऐसी ही गंभीर खामियों की तरफ इशारा किया था। उन्होंने ध्यान दिलाया था कि एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाने के पहले अपराध और अपराधी दोनों की स्थिति पर गौर करने की व्यवस्था दी थी। लेकिन बाद में अनेक फैसलों में न सिर्फ निचली अदालतों, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस फैसले का ध्यान नहीं रखा। इस आधार पर उन्होंने तेरह सजायाफ्ता कैदियों की सजा-ए-मौत माफ करने की अपील की। उस बयान ने फांसी की सजा को लेकर जो बहस खड़ी की, उसमें जस्टिस राधाकृष्णन और जस्टिस लोकुर की खंडपीठ की टिप्पणी से नया आयाम जुड़ा। यहां यह गौरतलब है कि ये दोनों ही प्रकरण फांसी की सजा सुनाने की प्रक्रिया से संबंधित हैं। यानी इनका फांसी की सजा के सैद्धांतिक विरोध से कोई संबंध नहीं है।


अबमहेंद्र नाथ दास और मगनलाल के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय से मृत्युदंड की पुष्टि होने के बाद पुनर्विचार और दया यायिकाओं के निपटारे की प्रक्रिया में जारी खामियां सामने आई हैं। महेंद्र दास के मामले में एपीजे अब्दुल कलाम ने मृत्युदंड को माफी के लायक माना, जबकि प्रतिभा पाटिल ने ऐसा नहीं समझा। तो क्या इससे यह जाहिर नहीं होता कि उसे फांसी दी जाए या नहीं, यह तय करने का कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है- बल्कि यह उस वक्त पदासीन राष्ट्रपति की मनोगत समझ पर निर्भर करता है? उधर उपरोक्त टिप्पणी में खुद सुप्रीम कोर्ट मान चुका है कि जज मनोगत आधार पर मृत्युदंड सुनाने के निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। ऐसे में यह सवाल अवश्य उठेगा कि क्या मृत्युदंड का प्रावधान कानून की किताब में रहना चाहिए? मौत की सजा के खिलाफ सबसे पुख्ता दलीलों में एक यह भी है कि हर मुकदमे के फैसले में गलती की गुंजाइश रहती है। अगर ऐसी गलती मृत्युदंड देने में हुई, तो उसे सुधारा नहीं जा सकता। गलती की संभावना सिर्फ तभी न्यूनतम हो सकती है, जब प्रक्रिया वस्तुगत हो, जिसे हर कोई भी देख और समझ सके। लेकिन ऐसा नहीं है। इसीलिए आज सिर्फ क्षमादान की प्रक्रिया ही नहीं, बल्कि मृत्युदंड का प्रावधान भी कठघरे में है।
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

युद्धोन्माद और 'बासू, द लिटिल स्ट्रेंजर'

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रोहित जोशी

-रोहित जोशी

"...माना युद्ध ही इस समस्या का असल हल होता तो अब तक ये समस्या हल हो चुकी होती. क्योंकि पिछले 6  दशकों में हम पाकिस्तान से चार बड़े युद्ध कर चुके हैं. जिसके हार-जीत के स्तर पर जो भी परिणाम रहे हों पर समस्या निदान के स्तर पर परिणाम शून्य ही रहे हैं. डिप्लोमेटिक हल ही सार्थक है. और दोनों तरफ की जनता में युद्ध के खिलाफ प्रचार भी इसमें मददगार होगा. हम बतौर आवाम, सबसे ज्यादा जो कर सकते हैं वो यही है, युद्ध के खिलाफ प्रचार..."


बियत खराब हो, रात में नींद नहीं आ रही हो और आप फिल्मों के शौक़ीन हों तो फ़िल्में देखना ही सबसे बढ़िया तरीका होता है रात काटने को. यहाँ रात में टीवी चैनलों की भारत-पाक की उन्मादी बहसों को देखता ही सो गया था. जब देर रात भारी जुकाम से नींद खुली तो दुबारा सोना मुश्किल हो गया. फिर वही अपनी रात काटने की तकनीक का इस्तेमाल किया. फिल्म का चुनाव भी एक मसला था कि कौनसी फिल्म देखी जाय?
      
यादआया, अभी पिछली दफा जब नैनीताल गया तो पता चला सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. शेखर पाठक आजकल एक फिल्म सबको बाँट रहे हैं. कुछ किताबें उनसे लानी ही थी तो साथ ही उनके लेपटॉप से यह फिल्म भी ले आया. फिल्म थी ‘बासू, द लिटिल स्ट्रेंजर’. इर्रानी फिल्मकार ‘बहरम बैजाई’ द्वारा निर्देशित यह फिल्म 1989में रिलीज हुई थी. फिल्म का प्लॉट ईराक-ईरान युद्ध के दौर का है. दक्षिणी ईरान के खुजेस्तान प्रांत का एक बच्चा,जिसके माता-पिता और बहन युद्ध के दौरान उसके गाँव में हुए बम हमलों में मारे गए हैं, लगातार गिरते बमों से अपनी जान बचाता, खेतों में छिपता भाग रहा है. एक फ़ौजी ट्रक में छिपकर, जो कि उत्तरी ईरान की तरफ आ रहा है, वह युद्ध के इलाके से दूर किसी जगह पहुँच जाता है.

मैंआपको फिल्म की पूरी कहानी नहीं बताने जा रहा. उसके लिए फिल्म आपको खुद देखनी होगी. लेकिन क्योंकि सीमा पर हमारे सिपाहियों की हत्या और मीडिया द्वारा इस बात को दी गई हवा के चलते युद्ध के जिस उन्माद में इन दिनों हम लोग हैं, यह फिल्म बहुत खामोशी से उसके बारे में भी कुछ कहती है.

बच्चेकी जब नींद खुलती है तो ट्रक युद्ध क्षेत्र से बाहर आ चुका है. पर पास ही टनल निर्माण के लिए फोड़े जा रहे डाइनामाइट की आवाजों से वह दहल उठता है और ट्रक से उतर चीखता हुआ खेतों की तरफ भाग पड़ता है. वह युद्ध के गहरे सदमे में है. खेतों में जब उसे ‘गिलाकी’ महिला ‘नाइ’ और उसके बच्चे मिलते हैं तो वह उन्हें देखकर भी डर जाता है. उसका अजीब व्यवहार ‘नाइ’ की समझ से भी परे है. वह जब उससे बात करना चाहती है तो पता चलता है कि उसे तो ‘गिलाकी’ भाषा आती ही नहीं. वह तो ‘अरबी’ भाषा जानता है. वे आपस में संवाद नहीं कर पाते.

खैरफिल्म की कहानी में तफसील से जाने का यहाँ मौका नहीं है... मैं जो बात करना चाह रहा हूं वह इस बच्चे की दहशत की है. जो युद्ध से पनपी है. गांव के ऊपर यात्री जहाज़ों के चलने पर भी उसे बमों के गिरने का खौफ दहशत से भर देता है. वे औरों से भी उसकी तरह दीवारों के पीछे छुप जाने के इशारे करता है. सपने में भी उसकी स्मृतियों में युद्ध का ही खौफ है, जिससे वो काँप जाता है. बार-बार वह अपने हालिया अतीत की स्मृतियों को याद कर चेहरे पर हाथ रख रोने लगता है.

यूँ तो फिल्म की सिर्फ शुरुआत में युद्ध के कुछ दृश्य हैं. लेकिन इसकी विभीषिका फिल्म के समूचे कैनवास में पसरी हुई है. रंग और भाषाई रूप से खुद से विषम इस लावारिश बच्चे के लिए, खुद चुनौतीपूर्ण जीवन जी रही ‘नाइ’ का उभरा स्वाभाविक प्रेम और इन परिस्थितियों में उसे अपनाने की अभिलाषा के बीच समाज और परिवार के अलग-अलग वृत्तों में मानवीय अंतर्संबंधों का यथार्थपरक फिल्मांकन, ‘बैजाई’भरपूर कर पाए हैं.   

‘बासू’को देख मुझे कारगिल के बच्चे याद आते हैं. जिनकी वहां पिछले साल मैंने तस्वीरें उतारी, जिन्होंने मुझे गाने गाकर सुनाये. जो मेरे लिए नाचे, गाये और खिलखिलाए... उतनी ही मासूमी से जितनी मासूमी से महाराष्ट्र के फोफसंडी के बच्चे, मध्यप्रदेश के बैहर के बच्चे, कर्नाटका के साने-हडली के बच्चे, यहाँ उत्तराखंड में फलिंडा के बच्चे और मुझसे मिले अब तक के सारे ही बच्चे...

मैंउत्तराखंड से आता हूँ जहाँ अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा आर्मी के जवानचलाते हैं. कारगिल मेंजिस वक्त युद्धचल रहा था मोर्चे पर गए हर सिपाही के परिवार की हालत हर समय ऐसी थी जैसी आजइन शहीदों के परिवारों की है. सारे ही परिवार और उनके बच्चे आशंकाओं में घिरे रहे कि पता नहीं कबउनके परिजन के मरने की खबर आ जाए.कई शहीद हुए भी. उनके सम्मान मेंजुलूस निकाले गए. लेकिन आज उन्हें कोई पूछने वाला भी नहीं. इस सब को ‘देशभक्ति’ और ‘कुर्बानी’ कह कर रूमानी हुआ जा सकता है. लेकिन एक लंबी जिंदगी रुमानियत में नहीं कटती. अपने बच्चों को खो देने वाले माता-पिता, विधवा स्त्रियों और अनाथ बच्चों को यह जिंदगी यथार्थ की कठोर जमीन में जीनी होती है.

मानायुद्ध ही इस समस्या का असल हल होता तो अब तक ये समस्या हल हो चुकी होती. क्योंकि पिछले 6 दशकों में हमपाकिस्तान से चार बड़े युद्ध कर चुके हैं. जिसके हार-जीत के स्तर पर जो भी परिणाम रहे हों पर समस्या निदान के स्तर पर परिणाम शून्य ही रहे हैं. डिप्लोमेटिक हल ही सार्थक है.और दोनों तरफ कीजनता में युद्ध के खिलाफ प्रचार भी इसमें मददगार होगा. हम बतौर आवाम, सबसे ज्यादा जो कर सकते हैं वो यही है, युद्ध के खिलाफ प्रचार. मीडिया का फैलाया उन्माद उसे टीआरपी देता है. जनता का उन्माद उसे युद्ध की तबाही ही देगा और कुछ नहीं...


औरदिल्लियों, लखनवों, देहरादूनों, बनारासों, पटनाओं, भोपालों, बैंग्लूरों, चेननैयों और भी तमाम जगह बैठे भड़क रहा हमारा ये युद्धोन्माद, कारगिल और कारगिल जैसी तमाम जगहों के बच्चों की हालत बासू जैसी कर सकता है... युद्ध से खौफजदा ‘बासू, द लिटिल स्ट्रेंजर’ जैसी.... क्यों न इसे रोका जाय.

साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने दिया धरना : कंवल भारती पर से मुकदमा वापस लेने की मांग

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Sudhir Suman
सुधीर सुमन
-सुधीर सुमन

"...आज के धरने में यह तय किया गया कि अगर यूपी की अखिलेश सरकार कंवल भारती पर से फर्जी मुकदमा वापस नहीं लेतीतो आने वाले दिनों में साहित्यकार संस्कृतिकर्मी यूपी भवन का घेराव करेंगे और किसी एक तारीख को देश के कई हिस्सों में साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी एक साथ यूपी सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरेंगे। साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने हाथ में प्ले कार्ड्स ले रखे थेजिन पर लिखा था- जातिवादी-सांप्रदायिक धु्रवीकरण की राजनीति बंद करोकंवल भारती पर से मुकदमा वापस लोआजम खान के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करोअभिव्यक्ति की आजादी का दमन बंद करो।..."

ल कंवल भारती के प्रेस कांफ्रेंस में एकजुटता जाहिर करने के बाद आज दिल्ली के साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने उनकी अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थन में जंतर मंतर पर धरना दिया। इस बीच दलित लेखक संघ, दलित साहित्य और कला मंच तथा संवादिता नामक संस्था ने भी प्रलेस, जलेस और जसम के संयुक्त बयान का समर्थन किया है और इन तमाम संगठनों के नाम से संयुक्त बयान की कॉपी आम लोगों के बीच बांटी गई। आज के धरने में यह तय किया गया कि अगर यूपी की अखिलेश सरकार कंवल भारती पर से फर्जी मुकदमा वापस नहीं लेती, तो आने वाले दिनों में साहित्यकार संस्कृतिकर्मी यूपी भवन का घेराव करेंगे और किसी एक तारीख को देश के कई हिस्सों में साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी एक साथ यूपी सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरेंगे। साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने हाथ में प्ले कार्ड्स ले रखे थे, जिन पर लिखा था- जातिवादी-सांप्रदायिक धु्रवीकरण की राजनीति बंद करो, कंवल भारती पर से मुकदमा वापस लो, आजम खान के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करो, अभिव्यक्ति की आजादी का दमन बंद करो।

आजधरने को संबोधित करते हुए जलेस के महासचिव चंचल चौहानने कहा कि उत्तर प्रदेश में बिजली की जो स्थिति रहते है और जिस तरह के बुनियादी संकट हैं, उसमें बहुत बड़ी तादाद के लिए फेसबुक ही नहीं, बल्कि ढंग से बुक भी देख पाना मुश्किल है। इसके बावजूद अगर फेसबुक पर किसी टिप्पणी से सरकार का कोई मंत्री घबराता है, तो इससे साबित होता है कि वह कितना असहिष्णु है। उन्होंने कहा कि आज साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों को संगठित न होने देने की कोशिशें बहुत हो रही है, इसलिए कंवल भारती के मुकदमे की वापसी के लिए संगठनों की जो एकजुटता बनी है, उसे और भी मजबूत बनाने की जरूरत है।

जलेस के ही युवा आलोचक संजीव कुमारने कहा कि राष्ट्रवाद के नाम पर एक से एक सांप्रदायिक अभिव्यक्तियां की जा रही हैं, पर इसके लिए किसी पर कानूनी कार्रवाई नहीं हो रही है, लेकिन एक लेखक सिर्फ एक मंत्री और सरकार के कामकाज पर सवाल उठाता है, तो उसे आनन फानन में जेल में डाल दिया जाता है।

दिल्ली जसम के संयोजक चित्रकार अशोक भौमिकने कहा कि हम आपातकाल दिवस पर भी जंतर मंतर पर दमन की संस्कृति के खिलाफ आए थे, कंवल भारती समेत अभिव्यक्ति की आबादी पर पाबंदी लगाने वाले जितने मामले हैं, हम उन पर संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह लड़ाई जारी रहेगी।
जेएनयू टीचर संघ और प्रलेस से जुड़े सुबोध मालाकारने कहा कि भविष्य में इस तरह के खतरे बढ़ने वाले हैं, इसलिए संगठित प्रतिरोध बहुत जरूरी है। पत्रकार अंजनीने कहा कि पूरे देश में दमनकारी स्थिति बनी हुई है, मारुती के मजदूरों को जेल में बंद हुए एक साल से अधिक हो गए हैं, पर उनकी रिहाई नहीं हो रही है। आंध्र प्रदेश में क्रांतिकारी लेखक की हत्या कर दी जा रही है। कंवल भारती को एक छोटे से कमेंट के कारण जेल में डाल दिया जाता है। ये सारे कृत्य कमजोर सरकारों की निशानी हैं। बनास के संपादक पल्लवने कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी कतई बर्दाश्त नहीं की जा सकती, इसका एकताबद्ध होकर विरोध करना होगा। दलित मुक्ति के संघर्षों और विमर्शों से जुड़ी लेखिका अनिता भारतीने कहा कि कंवल भारती को जिस तरह से गिरफ्तार किया गया, वह अपमानजनक है। यूपी पुलिस और उनके मंत्री ने एक लेखक के सम्मान का भी हनन किया है। इसलिए यह जरूरी है कि सरकार मुकदमे को वापस ले और लेखक से माफी मांगे।

जसम के महासचिवप्रणय कृष्णने कहा कि अभिव्यक्ति का गला घोंटने वाली व्यवस्था अंदर से बहुत डरी हुई व्यवस्था होती है। जितना ही व्यवस्था के संकट बढ़ते हैं, उतना ही दमन बढ़ता है। लेकिन दमन के खिलाफ प्रतिरोध भी होता है और आज भी हो रहा है। कबीर कला मंच के कलाकारों और सुधीर ढवले की गिरफ्तारी का सवाल हो या सीमा आजाद का बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों ने एकजुट होकर इसका प्रतिरोध किया है। जमानत मिल जाने के बाद कंवल भारती को जिस तरह दूसरे फर्जी मामले में फंसाने की साजिश रची जा रही है, उसका भी प्रतिवाद किया जाएगा। उन पर लादे गए फर्जी मुकदमे की वापसी के लिए चल रहे इस आंदोलन को और भी तेज किया जाएगा।

इंकलाबी नौजवान सभा केअसलमने कहा कि सरकारें मजदूरों, आदिवासियों, अल्पसंख्यक नौजवानों, महिलाओं पर लगतार दमन ढा रही हैं। इंतहा ये है कि फेसबुक पर की जा रही टिप्पणी भी उनसे बर्दाश्त नहीं हो पा रही है। सरकारों का इस तरह के दमनकारी रुख के खिलाफ एक बड़ी संघर्षशील एकजुटता बनाने की जरूरत है।

कंवलभारती के साथ काम कर चुके रामरतन बौद्धने उनके विद्रोही तेवर वाले लेखन की चर्चा की और कहा कि वे सच को लिखते हैं, फेसबुक पर भी उन्होंने सच ही लिखा था, जो सरकार को बर्दाश्त नहीं हो रहा है। सरकार ने जिस तरह का कंवल भारती के साथ व्यवहार किया है, उसने बहुत लोगों को उनके साथ खड़ा कर दिया है।
प्रलेसके महासचिव अली जावेद, कवि अनुपम, श्याम सुशील, रविप्रकाश, चित्रकार सवि सावरकर, रंगकर्मी अरविंद गौड़, तिरछी स्पेलिंग ब्लॉग के संपादक उदय शंकर, युवा आलोचक गोपाल प्रधान, आशुतोष, मार्तंड प्रगल्भ, चारु, नीरज, ब्रजेश, गौतम, नीलमणि, शौर्यजीत, पत्रकार रविकांत, अभिषेक श्रीवास्तव आदि भी धरने में मौजूद थे। संचालन सुधीर सुमन और अवधेश ने किया।

सुधीर सुमन जसम के राष्ट्रीय सहसचिव हैं. 
इनसे संपर्क का पता  s.suman1971@gmail.com है.

पुलिस सुधारों की मृग-मरीचिका

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए हमें पुलिस सुधारों के पूरे परिप्रेक्ष्य पर समग्रता से विचार करना होगा। असल में पुलिस सुधारों की बहस में दो ऐसे पहलू हैं जिनकी वजह से सुप्रीम कोर्ट की पहल बहुत आगे नहीं बढ़ी। इनमें एक पहलू कुछ राज्यों की तरफ से उठाए गए एक वाजिब सवाल से जुड़ा है और दूसरा इस कोशिश के पीछे की बुनियादी सोच पर सवाल उठाता है।..."


सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से पुलिस सुधारों का मुद्दा फिर चर्चा में है। सात साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस सुधारों के बारे में व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए थे। लेकिन उसका क्या अंजाम हुआ यह इस मामले में न्यायमित्र (एमिकस क्यूरे) की भूमिका निभा रहे अटार्नी जनरल जीएम वाहनवटी द्वारा कोर्ट को दी गई इस सूचना से जाहिर है कि राज्य सरकारों ने पुलिस सुधारों पर मामूली या ना के बराबर अमल किया। तोअब कोर्ट ने राज्यों से पूछा है कि आखिर क्या बाधा क्या है

कोर्टनेकहा कि उसके निर्णय पर समग्र अमल हो, इसके लिए वह और इंतजार नहीं करेगा। बात आगे बढ़ाने से पहले यह याद कर लेना उचित होगा कि 2006 में प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त दिशा-निर्देश जारी किए थे। उसके प्रमुख बिंदु थे- पुलिस महानिदेशक का कार्यकाल न्यूनतम दो वर्ष तय करना, आपराधिक जांच एवं अभियोजन के कार्यों को कानून-व्यवस्था लागू करने के दायित्व से अलग करना, हर राज्य में एक प्रदेश सुरक्षा परिषद और एक पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन। 

तबकई राज्यों ने यह रुख लिया था कि दिशा-निर्देश के कई बिंदुओंपर अमल नामुमकिन है। तब सिर्फ चार छोटे राज्यों- अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, मेघालय और हिमाचल प्रदेश ने सभी दिशानिर्देशों को लागू करने पर सहमति जताईथी। बाकी ज्यादातर राज्यों के एतराज व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों थे। तब कुछ हलकों से यहदलील देते हुए आपत्ति की गई थी कि संविधान के तहत कानून-व्यवस्था राज्य सूची काविषय है और यह कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है। इस मामले में सुप्रीमकोर्ट का आदेश देना इस अधिकार क्षेत्र में दखल में है। मसलन, गुजरात सरकार ने जोरदिया था कि सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश संविधान के तहत शक्तियों के बंटवारे के सिद्दांत कासीधा उल्लंघन हैं। साथ ही ये संविधान के संघीय स्वरूप और उसके बुनियादी ढांचे कीअनदेखी भी है। 

अबएक बार फिर सख्त रुख अपनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के मुख्य सचिवों को निजी रूप से अदालत में बुलाया। इन अधिकारियों ने वादा किया कि वे एक हफ्ते के अंदर कोर्ट को बताएंगे कि उसके आदेश पर पालन करने की राह में रुकावटें क्या हैं। लेकिन जो कुल परिदृश्य है, उसमें नहीं लगता कि बात कहीं आगे बढ़ेगी।  एक अच्छा उद्देश्य प्रक्रियागत आपत्तियों की भेंट चढ़ जाएगा, यह आशंका गहरी है।

पुलिससुधार आजादी के बाद से उपेक्षित मुद्दा है, जबकि मानव अधिकारों कीलड़ाई से जुड़े लोग इसकी जरूरत शिद्दत से महसूस करते हैं। 1977 में जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी तो पहली बारये विषय व्यापक चर्चा का हिस्सा बना। मोरारजी देसाई की सरकार ने तब प्रतिष्ठितपुलिस अधिकारी डॉ. धर्मवीर की अध्यक्षता में पुलिस आयोग का गठन किया। धर्मवीर आयोगने पुलिस सुधारों के बारे में महत्त्वपूर्ण और विस्तृत सिफारिशें कीं। लेकिन आयोगकी रिपोर्ट सरकार की अलमारियों में धूल चाटती रही। 

उसकेबाद से कांग्रेस, अपने कोतीसरे मोर्चे का हिस्सा कहने वाले दल और भारतीय जनता पार्टी एवं उसकी सहयोगीपार्टियां केंद्र और विभिन्न राज्यों की सत्ता में आती और जाती रहीं, लेकिनकिसी सरकार ने लोकतंत्र की इस बेहद बुनियादी जरूरत पर ध्यान नहीं दिया। सात वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने जब दिशा-निर्देश जारी किए तो उम्मीद बंधी कि आखिरकार अब इस दिशा में प्रगति होगी। लेकिन जैसाकि खुद कोर्ट की कार्यवाही से साफ है, इस उम्मीद पर भी पानी फिर गया। 

गौरतलब यह है कि इस मुद्दे पर जनतांत्रिक दायरे में कोई हलचल नहीं है। ना ही ऐसा लगता है कि पुलिस सुधार लागू कराने की सुप्रीम कोर्ट की पहल से देश की जनतांत्रिकशक्तियों में ज्यादा उत्साह पैदा हुआ। आखिर क्यों? इसके लिए सरकारों परसार्वजनिक दबाव इतना क्यों नहीं बना कि वो पुलिस को स्वायत्त एजेंसी बनाने और आमलोगों की शिकायत सुनने की संस्थागत व्यवस्था करने जैसे वांछित सुझावों को मानने परमजबूर हो जातीं?

इनसवालों के जवाब ढूंढने के लिए हमें पुलिससुधारों के पूरे परिप्रेक्ष्य पर समग्रता से विचार करना होगा। असल में पुलिससुधारों की बहस में दो ऐसे पहलू हैं जिनकी वजह से सुप्रीम कोर्ट की पहल बहुत आगे नहीं बढ़ी। इनमेंएक पहलू कुछ राज्यों की तरफ से उठाए गए एक वाजिब सवाल से जुड़ा है और दूसरा इसकोशिश के पीछे की बुनियादी सोच पर सवाल उठाता है। पहली वजह यह है कि सुप्रीम कोर्ट का उद्देश्य चाहे जितना अच्छा हो, लेकिन उसने उस दायरे में कदम रखा जो उसका नहीं है। अपनी संवैधानिक व्यवस्था में कोर्ट कार्यपालिका को अपने मनमाफिक विधेयक पेश करने और विधायिका को उसे पास करने के लिए न्यायपालिका मजबूर नहीं कर सकती। जबकि ऐसी विधायी प्रक्रिया के बिना पूरा हुए कोर्ट के संबंधित दिशा-निर्देश लागू नहीं हो सकते। दरअसल, कोर्ट बड़े नौकरशाहों को तो तलब कर सकता है, लेकिन निर्णय राजनीतिक नेतृत्व लेता है और वह कोर्ट के वैसे आदेश मानने को विवश नहीं है जिसका वैधानिक आधार ना हो। पुलिस सुधार कभी मजबूत राजनीतिक मुद्दा नहीं बने तो इस खालीपन को सुप्रीम कोर्ट अपनी सदिच्छा से नहीं भर सकता।

बहरहाल,पुलिस सुधार का एक और मौजूदासंदर्भ है, जिस कारण इसको लेकर लोकतांत्रिक जनमत में ज्यादा जोश पैदा नहीं हुआ।सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार लागू करने संबंधी आदेश एक जन हित याचिका पर दिया था। इसयाचिका से जो नाम जुड़े थे, उनके साथ नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष की साखनहीं जुड़ी हुई है। बल्कि वो नाम सिक्युरिटी एस्टैबलिशमेंट की उस सोच के ज्यादाकरीब हैं, जो बुनियादी तौर पर नागरिक अधिकारों के खिलाफ जाता है। अगर आप लंबे समय सेमानव अधिकार संगठनों के खिलाफ रहे हों, सख्ती को विभिन्न प्रकार के असंतोष से भड़केसंघर्षों से निपटने का सबसे सही तरीका मानते हों, फांसी जैसी अमानवीय और अपराधसमाजशास्त्र के गहरे अध्ययन से बेमतलब साबित हो चुकी सजा के समर्थक हों, तो आपकी ऐसी किसी पहल को संदेह से देखने का पर्याप्त आधार मौजूद रह सकताहै। ऐसी पहल की निष्पक्षता संदिग्ध रहतीहै और यह सवाल कायम रहता है कि क्या इस पहल के पीछे सचमुच जन अधिकारों की वास्तविकचिंता है?

वैसेभी पुलिस महानिदेशक का तय कार्यकाल जैसा निर्देश नौकरशाही मानस से निकले सुझावों पर मुहर लगाने जैसा है, जिसका औचित्य संदिग्ध है। प्रश्न है कि क्या लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए राजनीतिक नेतृत्व के प्रति पुलिस की कोई जवाबदेही नहीं होना एक वांछित स्थिति होगी? राजनीतिक हस्तक्षेप से पुलिस को मुक्त करने के लिएकेंद्र और राज्यों के स्तर पर सुरक्षा आयोग बनाने, पुलिसकर्मियों की सेवा संबंधीसभी मामलों पर फैसला लेने के लिए पुलिस एस्टैबलिशमेंट बोर्ड गठित करने और पुलिससंबंधी जनता की शिकायतों पर विचार के लिए पुलिस शिकायत प्राधिकरण बनाने के निर्देशों पर अमल से पुलिस के प्रबंधन और प्रशासन में बेशक फर्क आ सकता है।लेकिन इस संदर्भ में कुछ राज्यों की यह शिकायत भी जायज है कि आखिर उस हालतमें पुलिस की जवाबदेही किसके प्रति होगी? क्या तब पुलिस सीधे विधायिका के प्रति जवाबदेहरहेगी?कार्यपालिका अगर सुरक्षा संबंधी मामलों में फौरन फैसले लेना चाहेगी तोक्या उसके रास्ते में नई संस्थाएं रुकावट नहीं बनेंगी?

गौरतलबहै किराजनीतिक कार्यपालिका के तहत पुलिस के रहने के नुकसान हैं, तो कुछ फायदे भी हैं।यह ठीक है कि राज्यों में मौजूद सरकारों के हित में पुलिस का उपयोग और कई बारदुरुपयोग भी होता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि पुलिस के कार्यों के लिएकार्यपालिका की जवाबदेही बनी रहती है। एक स्वायत्त पुलिस के कार्यों के लिए आखिरजवाबदेह कौन होगा? यहां यह ध्यान में रखने की बात है कि हम एक निरपेक्ष माहौल मेंनहीं रहते। पुलिस विभाग भी समाज के व्यापक सत्ता ढांचे के बीच बनता और काम करताहै। सामाजिक पूर्वाग्रह पुलिसकर्मियों में उतना ही देखने को मिलता है, जितना की आमलोगों में। पुलिस की कार्रवाइयों में अक्सर जातीय, वर्गीय और सांप्रदायिकपूर्वाग्रह के लक्षण देखने को मिलते हैं। पुलिस के अंदरूनी ढांचे में मौजूदासामाजिक विषमता का प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है। 

जनतांत्रिक संदर्भ मेंपुलिस सुधारों की बात होती है तो इस अंदरूनी ढांचे में सुधार भी एजेंडे में शामिलरहता है। सदियों से शोषित और सत्ता के ढांचे से आज भी बाहर समूहों को कैसे उनकीआबादी के अनुपात में पुलिस के भीतर नुमाइंदगी दी जाए और कैसे उन्हें निर्णय लेने कीप्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाए, पुलिस सुधारों का यह भी एक अहम पहलू है। अल्पसंख्यकों कीनुमाइंदगी पुलिस में कैसे बढ़े और पुलिसकर्मियों की कैसे ऐसी पेशेवर ट्रेनिंग हो, जिससे वो सांप्रदायिक तनाव के वक्त निष्पक्ष रूप से काम करें, यह पुलिस सुधार काबहुत अहम बिंदु है।

लेकिनदुर्भाग्य से न तो पुलिस सुधारों के लिए दायर याचिकामें इन बातों की जरूरत समझी गई और न सुप्रीम कोर्ट ने इन असंतुलनों को दूर करनेके लिए कोई आदेश दिए। पुलिस की सामाजिक जवाबदेही तय करने का कोई उपाय भी नहींबताया गया, सिवाय पुलिस शिकायत प्राधिकरण के गठन की बात को छोड़कर। लेकिन यह गौरतलब है कि अगरमानव अधिकार सरंक्षण कानून-1993पर अमल करते हुए हर राज्य में मानव अधिकार आयोग बनजाएं और जिलों के स्तर पर मानवाधिकार अदालतें स्थापित हो जाएं तो ऐसे प्राधिकरण कीशायद कोई जरूरत नहीं रहेगी। 

दरअसल,इस संदर्भ में गौर करने की सबसे अहम बात यहहै कि पुलिस सुधार एक राजनीतिक एजेंडा है। यह जन अधिकारों के संघर्ष से अभिन्न रूपसे जुड़ा हुआ है। सामाजिक और आर्थिक सत्ता का ढांचा निरंकुश हो और पुलिस पेशेवर एवंलोकतांत्रिक ढंग से काम करे, ऐसा भ्रम सिर्फ दक्षिणपंथी आदर्शवाद का ही हिस्सा होसकता है, जिसमें हवाई मूल्यों की बात दरअसल व्यवस्था में अंतर्निहित शोषण और विषमताको जारी रखने के लिए की जाती है। या अधिक से अधिक यह मध्यवर्गीय फैन्टेसी का हिस्साहो सकता है, जो अपने समाज के यथार्थ से कटे रहते हुए समस्याओं के मनोगत समाधनढूंढती रहती है। हकीकत यह है कि भारत या दुनिया के विभिन्न समाजों में जिस हद तकलोकतंत्र स्थापित हो सका है और आम लोगों ने अपने जितने अधिकार हासिल किए हैं, वोराजनीतिक संघर्षों के जरिए संभव हुआ है।


पुलिससुधारों के लिए भी राजनीतिक संघर्षसे अलग कोई और रास्ता नहीं है। संघर्ष औऱ उससे पैदा होने वाली जन चेतना सरकारों परवो दबाव पैदा करती हैं, जिससे वो कोई सकारात्मक पहल करने को मजबूर होती हैं। पिछलेदो दशकों का अनुभव कि लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार के लिए अगर मुस्लिम वोट अहम होते हैंतो उनके सत्ता काल में पुलिस दंगों को रोकने का कारगर औजार साबित होती है। वही पुलिस नरेंद्रमोदी के राज में दंगों के समय मूक-दर्शक बन जाती है। और जब मायावती सत्ता में होतीहैं तो उत्तर प्रदेश के दलितों के प्रति पुलिस का एक अलग ढंग का रुख देखने को मिलता है। 

इन मिसालों कोअभिजात्य मानसिकता पुलिस के दुरुपयोग के सबूत के रूप में भी पेश कर सकती है, लेकिन उससे इस तथ्य को ढका नहीं जा सकता कि पुलिस दरअसल राजनीतिक ढांचे के मुताबिक ही काम करती है। वहतभी जनतांत्रिक ढंग से पेश आती है, जब सत्ता का ढांचा ज्यादा जनतांत्रिक होता है।बेशक, पुलिस को एक हद तक स्वायत्ता मिलनी चाहिए, मगर यह स्वायत्तता पूरे राजनीतिकसंदर्भ से अलग नहीं हो सकती। चूंकि सुप्रीम कोर्ट का मूल आदेश इस संदर्भ से कटा हुआ था, इसीलिए उससे ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ। आगे भी कुछ होगा, यह संभवतः एक मृगमरीचिका ही है।

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

आइये, धूमिल को फिर पढ़ें...

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सुदामा पांडे 'धूमिल'


'धूमिल' के संग्रह 'संसद से सड़क' तक के प्रथम संस्करण को प्रकाशित हुए भी अब 40 साल से ज्यादा हो गए हैं. इसी कविता संग्रह में संकलित दूसरी कविता 'बीस साल बाद' हर साल फिर जी उठती है, जब देश आजादी का जश्न मना रहा होता है. आजादी प्राप्ति के सातवें दशक में आजादी के प्रतीक तीन रंगों का फीकापन लगातार बढ़ता गया है. आइये धूमिल को, इस कविता को फिर पढ़ें... 



                                        बीस साल बाद

-'धूमिल'
बीस साल बाद
मेरे चेहरे में
वे आँखें वापस लौट आई हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं.

और जहाँ हर चेतावनी 
खतरे को टालने के बाद 
एक हरी आँख बनकर रह गई है.



बीस साल बाद 
मैं अपने आप से एक सवाल करता हूं
जानवर बनने के लिए कितने सब्र की जरूरत होती है?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हूं.
क्योंकि आजकल मौसम का मिजाज यूँ है 
कि खून में उड़ने वाली पत्तियों का पीछा करना  
लगभग बेमानी है.

दोपहर हो चुकी है
हर तरफ ताले लटक रहे हैं.
दीवारों से चिपके गोली के छर्रों 
और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है
हवा से फडफडाते हुए हिन्दुस्तान के नक़्शे पर
गाय ने गोबर कर दिया है.

मगर यह वक्त घबराए हुए लोगों की शर्म 
आंकने का नहीं है
और न यह पूछने का- 
कि संत और सिपाही में 
देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है?

आह! वापस लौटकर  
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए 
अपने-आप से सवाल करता हूं-

क्या आज़ादी 
सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है 
जिन्हें एक पहिया ढोता है 
या इसका कोई खास मतलब होता है?

और बिना किसी उतर के आगे बढ़ जाता हूं
चुपचाप.

पुर्जों से बने शरीर के अंदर 'कुछ और' तलाशती एक फिल्म : शिप ऑफ थीसियस

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Umesh Pant
उमेश पन्त 

-उमेश पन्त

"...फिल्म में तीन कहानियां क्यूं हैं इसके पीछे की वजह भी आनन्द गांधी बताते हैं। वो कहते हैं कि जिन्दगी को अलग-अलग पर्सपेक्टिव से देखना उन्हें असल में समझने के लिए जरुरी है। ये ठीक उसी तरह है जैसे वो हाथी और सात अंधों वाली कहानी। उनमें से हर एक हाथी के अलग-अलग हिस्सों को छूकर बता रहा है कि वो हिस्सा कैसा है ? और इस तरह सब मिलकर हाथी ठीक ठीक कैसा दिखता है उसकी असलियत के ज्यादा नजदीक आ पाते हैं। दार्शनिक विषयों को समझना भी ठीक ऐसा ही है।..."

क शहर के रुप में मुम्बई की आईरनी यही है कि उसकी बसावट में खुलेपन का अभाव है। पहली बार जब मैं मुम्बई आया था तो मुम्बई को देखकर गहरी निराशा हुई थी। एक शहर इतना बदसूरत कैसे दिख सकता है ? संकरी गलियों में किसी तरह आपस में चिपके हुए उखड़े पलस्तर वाले मकान। फिल्मों में देखे मुम्बई की माया टूट सी गई थी उस वक्त। पर यही कोई तीन साल बाद इस शहर में रहने के लिये आया तो इस शहर को दूसरी तरह से देखना शुरु किया। और फिर ये शहर जैसे बिल्कुल बदल गया। मेरे लिये ये अब वही संकरा सा शहर नहीं था जिसे पहली बार देखा था। क्या उन 3 सालों में शहर बदल गया था या जो बदला वो मेरा नजरिया था। ऐसा क्या बदलता है असल में जिससे सबकुछ बदल जाता है ?
शिप ऑफ थीसियस देखने के बाद इसी तरह के सवालों के जवाब मिलने लगते हैं। इस फिल्म ने मुम्बई को तीन तरह से देखा है। उसकी बरसातों में, उसकी गर्मियों में और उसकी सर्दियों में। इस फिल्म ने इस शहर को उसकी आईरनी से परे जाकर देखा है। और उस पार से ये शहर सचमुच बहुत खूबसूरत नजर आता है। यहां तक कि वो  संकरी सी गलियां भी जिससे एक आदमी भी मुश्किल से निकल पाता है।   

शिपआफ थीसियस देख लेने के बाद जब आप सिनेमा हॉल से लौट रहे होते हैं तो लौटना उन घटनाओं में से लगता है जिनको आप कुछ देर के लिये टाल देना चाहते हैं। इसलिये नहीं कि लौटने की वो घटना कोई कष्ट दे रही हो बल्कि इसलिये कि जो बीता है आप उसमें कुछ देर और ठहर जाना जाहते हैं और वो लौटना उस ठहराव के रास्ते में आ रहा होता है। 

ऐसीकम फिल्में होती हैं पर होती हैं जिन्हें देखने के बाद आप अपने साथ अपनी जिन्दगी के लिये कुछ ऐसी दार्शनिक सलाहें बटोर ले आते हैं जिन्हें ताजिन्दगी आप अपने कमाये हुए पहले नोट की तरह सम्भाल के रख लेना चाहते हैं। शिप ऑफ थिसियस ऐसी किसी भी सम्भावना को नकारने वाली तमाम बौलीवुड की फिल्मों को दरकिनार कर ऐसी फिल्मों की फेहरिस्त में शामिल हो जाती है।

कईफिल्में ऐसी होती हैं जो दो अनुभवों में बंट जाती है। एक फिल्म देखते हुए मिले अनुभव और दूसरा फिल्म देखने के बाद उस फिल्म के बारे में मंथन और अध्ययन से जुटाये अनुभव। ज्यादातर फिल्में इस दूसरे स्तर तक पहुंच ही नहीं पाती। शिप आॅफ थिसियस जैसी कुछ फिल्में होती हैं जिनको और गहराई से जानने के लिये ये दूसरा अनुभव कमोवेश जरुरी हो जाता है। इस जरुरत को पूरा करते हुए आप अपनी जानकारी को किसी दूसरे आयाम तक पहुंचा रहे होते हैं। 

शिपऑफ थिसियस का जन्म एक अवधारणा से होता है जिसे थीसियस पैराडोक्स के नाम से भी जाना जाता है। इस अवधारण के मुताबिक एक विरोधावासी सवाल खड़ा होता है कि यदि किसी वस्तु के उन सारे तत्वों को बदल दिया जाये जिनसे वो बनी है तो क्या उस तत्व का मूलभूत रुप वही रह पायेगा जो पहले था या फिर उसका मूल रुप बदल जायेगा। मसलन यदि कोई जहाज जिन तत्वों से मिलकर बना हो उन सारे तत्वों को बदल दिया जाये तो क्या वो जहाज अब भी अपनी मूल प्रकृति का रह पायेगा ?

इसमूलभूत दार्शनिक जिज्ञासा से उपजी आनंद गांधी की इस पूरी फिल्म में तीनों कहानियां कुछ ऐसे ही सवाल करती हैं। 

फिल्म का पहला हिस्सा एक ऐसी लड़की आलिया की कहानी है जो देख नहीं पाती। वो एक फोटोग्राफर है। न देख पाने के बावजूद उसकी तस्वीरें इतनी प्रभावशाली हैं कि वो उसे मशहूर कर देती हैं। फिल्म के इस हिस्से के बारे में बात करते हुए आनन्द गांधी एक इन्टरव्यू में कहते हैं कि एक लड़की जिसकी सबसे बड़ी आईरनी या विडंबना यही है कि वो देख नहीं पाती। आप जब उस आइरनी को फिल्म और दिमाग से निकाल देते हैं तो आप उस पात्र के चरित्र को गहराई से देख पाते हैं। अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो आप उस विडंबना के परे उस चरित्र के दूसरे आयामों तक पहुंच ही नहीं पाएंगे।  फिल्म में आलिया भी यही करती है। उसे इस बात का गुमान नहीं है कि न देख पाने के बावजूद वो इतनी अच्छी तस्वीरें खींच पाती है, बल्कि उसे इस न देख पाने से उपजी सहानुभूति से परहेज है। इसका उदाहरण फिल्म के उस हिस्से में तब देखने को मिलता है जब वो कुछ तस्वीरें खींचकर लौटी है और उसका दोस्त उसे उन तस्वीरों का ब्यौरा दे रहा है। उनमें से एक तस्वीर जिसे वो बहुत अच्छी तस्वीर बताता है वो उसे डिलीट करने को कहती है। इसलिये क्योंकि वो तस्वीर दुर्घटनावश खींची गई है। वो उसे अपनी कला का हिस्सा मानने से इनकार कर देती है। अपनी कला के लिये उसका ये परफैक्सनिश्ट रवैय्या उसके दोस्त  को ड्रामा लगता है। 

अपनेकैमरे से खींची तस्वीरों के बीच अपने कैमरे से खिंच गई उस तस्वीर के विपक्ष में खड़े होकर वो पात्र उन सवालों को उठाता है जिससे हम अक्सर अपनी निजी जिन्दगी में अस्वीकार करते हैं। एक कलाकार के तौर पर कौन्सियस या सचेतन अभिव्यक्ति जरुरी है या उस कला के दौरान घटे संयोग से उपजी अभिव्यक्ति भी कलाकार की क्षमताओं में गिनी जानी चाहिये. फिल्म का ये हिस्सा उन सवालों से जूझता है। हमारी कला में हमारी उपलब्धियों की हिस्सेदारी शायद इसी सवाल के जवाब से तय होती है। 

आंखिरमें कौर्निया ट्रांसप्लांट हो जाने के बाद उस लड़की को जब दिखाई देने लगता है तो वो महसूस करती है कि उस न दिखाई देने की आईरनी के परे एक कलाकार के रुप में वो सहज महसूस नहीं कर रही। एक कमी जो पूरी हो गई उसके बाद एक अहसास कि वो कमी ही दरअसल अपने में एक पूरापन था। उस अधूरेपन के बिना भी कुछ ऐसा है जो अधूरा है अपने में ये खयाल बहुत खूबसूरत है। 

फिल्मका दूसरा हिस्सा एक ऐसे नास्तिक साधु मैत्रेय की कहानी है जो लम्बे समय से मानवीय फायदे के लिये होने वाली जानवरों की हत्याओं का विरोध कर रहा है। उसके लिये याचिकाएं दायर कर रहा है। उसके अपने तर्क हैं जिनपर चारवाक नाम का वो नौजवान लड़का कई सवाल उठाता है। उन दोनों के बीच के तर्कों में एक खास तरह की रहस्यमय खूबसूरती है।साधु बीमार हो रहा है, उसके अपने सिद्धान्त उसे और बीमार कर रहे हैं। वो दवा नहीं ले सकता क्यूंकि इससे उसका अपना प्रण टूटता है। फिर आंखिर में सवाल आता है अस्तित्व का। किसी और के अस्तित्व के लिये उठाये कदम के चलते क्या अपने अस्तित्व को मिटाया जा सकता है ? फिल्म का ये हिस्सा आंखिर में यही सवाल उठाता है। 
फिल्म का तीसरा और आंखिरी हिस्सा नवीन नाम के एक शेयर ब्रोकर की कहानी है जिसे लगता है कि वो बहुत व्यावहारिक है। उसकी नानी स्वाधीनता संग्राम सैनानी रही हैं। अब भी समाजसेवा करती हैं। नवीन को यही लगता है कि उसकी नानी और उन जैसे सभी लोग उच्च वर्ग के उस तबके से आते हैं जिनके लिये समाजसेवा एक दिखावा है। उसे लगता है कि इससे कुछ नहीं होता। उसकी किडनी अभी अभी ट्रांसप्लांट हुई है। एक रोज उसे उस अस्पताल में एक ऐसे मजदूर आदमी के बारे में पता चलता है जिसकी किडनी चुरा ली गई है। उसे लगता है कि कहीं उसे उसी आदमी की किडनी तो नहीं मिली है ? फिल्म के इस हिस्से की पूरी कहानी उसकी इस खोज के इर्द गिर्द घूमती है कि आंखिर वो किडनी उसकी है भी कि नहीं, उसकी नहीं है तो उस आदमी की किडनी आखिर मिली किसे ? इस कहानी में एक खूबसूरत क्षण उस वक्त आता है जब नवीन उस आदमी को स्टाॅकहोम तक खोज आता है जिसे उस मजदूर आदमी की किडनी मिली होती है। मजदूर को पैसे मिल जाते हैं और वो अपनी किडनी वापस लेने से मुकर जाता है, अपनी लड़ाई लड़ने को मना कर देता है। नवीन वापस आकर अपनी नानी के पास बैठा हुआ है। वो उससे निराश होकर कहता है कुछ नहीं हो पाया पर हां अच्छा जरुर लगा। नानी मुस्कुराकर कहती है इतना ही होता है। नवीन का एक दोस्त शंकर है जो उसकी मदद करता है। फिल्म के तकरीबन आंखिरी हिस्से में वो नवीन से एक मासूम सा सवाल करता है कि शरीर में पुर्जे ही थोड़े होते होंगे ? कुछ और भी तो होता होगा। ये कुछ और भी होना ही नानी के कहे उस इतना ही होने की वजह है शायद। 

फिल्म के तीनों हिस्से आंखिर में जिस तरह जुड़ते हैं वो भी प्रभावशाली है। 

फिल्म में तीन कहानियां क्यूं हैं इसके पीछे की वजह भी आनन्द गांधी बताते हैं। वो कहते हैं कि जिन्दगी को अलग-अलग पर्सपेक्टिव से देखना उन्हें असल में समझने के लिए जरुरी है। ये ठीक उसी तरह है जैसे वो हाथी और सात अंधों वाली कहानी। उनमें से हर एक हाथी के अलग-अलग हिस्सों को छूकर बता रहा है कि वो हिस्सा कैसा है ? और इस तरह सब मिलकर हाथी ठीक ठीक कैसा दिखता है उसकी असलियत के ज्यादा नजदीक आ पाते हैं। दार्शनिक विषयों को समझना भी ठीक ऐसा ही है। उसे आप जितने चरित्रों के दृश्टिकोण से समझेंगे आप सच्चाई के उतने ही नजदीक जा पाएंगे। फिल्म अलग अलग कहानियों के जरिये यही कोशिश करती है। 

फिल्मके बारे में बात करते हुए अपने एक इन्टरव्यू में आनन्द गांधी इन्सान के अस्तित्व के बारे में कई दार्शनिक तर्क देते हैं। वो कहते हैं हमारा शरीर कई बैक्टीरिया से मिलकर बना है। हमारी सोच में उन करोड़ों बैक्टीरियाज़ की भी अपनी हिस्सेदारी है। हमारे शरीर में लगातार ऐसे माईक्रोबायोलौजिकल और साईकोलोजिकल बदलाव होते रहते हैं, शरीर में कई कोशिकाएं जुड़ती है और कई खत्म हो जाती हैं, जिनके चलते हर 6-7 सालों एक इन्सान के तौर पर हम पूरी तरह बदल जाते हैं। ठीक उसी तरह वक्त के साथ हमारी सोच भी बदलती रहती है। ऐसे में सीधा सवाल हमारे सार्वभौमिक अस्तित्व पे खड़ा होता है। ऐसे में क्या जीवन के प्रति हमारे सिद्धान्त मायने रखते हैं ? हमारे शरीर में होने वाले ये बदलाव ठीक उसी तरह के हैं जैसे थीसियस का वो जहाज जिसके सारे पुर्जे बदल गये हैं। जो अब भी वही है जबकि वो पूरी तरह बदल गया है या वो दिखता तो वैसा ही है पर असल में अब वो वैसा नहीं रहा जैसा पहले था। दोनों में से कौन सी बात सच है ये कहना मुश्किल है। और यही मुश्किल जिन्दगी है। यही मुश्किल जिन्दगी की खूबसूरती भी तो है।  

उमेश' लेखक हैं. कविता-कहानी से लेकर पत्रकारीय लेखन 
तक विस्तार. सिनेमा को देखते, सुनते और पढ़ते रहे हैं. 
mshpant@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.  
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