Quantcast
Channel: पत्रकार Praxis
Viewing all 422 articles
Browse latest View live

नियमगिरि में वजूद की जंग : क़िस्त 1

$
0
0

-अभिषेक श्रीवास्‍तव 

नियमगिरि के पहाड़ों से लौटने के बाद बड़े संक्षेप में कुछ कहानियां मैंने लिखी थीं जिनमें एक प्रभात खबर और जनसत्‍ता में छपी। मेरे साथी अभिषेक रंजन सिंह ने दैनिक जागरण] शुक्रवार और जनसंदेश टाइम्‍स में रिपोर्ट की। लेकिन अब तक पूरी यात्रा का वृत्‍तान्‍त बाकी था। करीब दस हज़ार शब्‍दों में समूची यात्रा को समेटने की कोशिश मैंने की है जिसे समकालीन तीसरी दुनिया के सितंबर अंक में आवरण कथा के रूप में पढ़ा जा सकता है। उसी आवरण कथा को किस्‍तों में यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं। 
-लेखक


ह सवेरे से ही स्टेशन पर हमारा इंतज़ार कर रहा था जबकि हमारी ट्रेन दिन के ढाई बजे वहां पहुंची। गले में गमछा, एक सफेद टी-शर्ट, पैरों में स्पोर्ट्स शू और जींस, कद कोई पांच फुट पांच इंच, छरहरी काया और रंग सांवला। तीनपहिया ऑटो में बैठते ही मेरे हमनाम पत्रकार साथी ने पहला सवाल दागा था, ''क्या यहां जानवर हैं?'' ''हां, है न! बाघ, भालू, सांप, जंगली सुअर, सब है।'' साथी ने जिज्ञासावश दूसरा सवाल पूछा, ''काटता भी है?'' वह हौले से मुस्कराया। बीसेक साल के किसी नौजवान के चेहरे पर ऐसी परिपक्व मुस्कराहट मैंने हाल के वर्षों में शायद नहीं देखी थी। मुझे अच्छे से याद है, उसने कहा था, ''वैसे तो नहीं, लेकिन सांप को छेड़ोगे तो काटेगा न!'' अपनी कही इस बात की गंभीरता को वह कितना समझ रहा था, मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता लेकिन वहां से लौट कर आने के दो दिन बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के युवा संस्कृतिकर्मी हेम मिश्रा की गिरफ्तारी की खबर आई। समझ आया कि सांप आजकल बिना छेड़े भी काटता है। क्या इसे नियमगिरि और गढ़चिरौली में होने का फर्क माना जाए?

ओड़िशाके रायगढ़ा जिले के छोटे से कस्बे मुनिगुड़ा के रेलवे स्टेशन पर हमें लेने आया वह युवक अंगद भोई आज (कहानी लिखते वक्‍त) विशाखापत्तनम के एक निजी अस्पताल में सेरीब्रल मलेरिया और निमोनिया की दोहरी मार झेल रहा है जबकि कथित तौर पर अपने हाथ का इलाज करवाने के लिए गढ़चिरौली में डॉ. प्रकाश आम्टे के यहां गया हेम मिश्रा दस दिन की पुलिस रिमांड पर यातनाएं झेलने को मजबूर है। दोनों की उम्र लगभग बराबर है। दोनों ही राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। एक नियमगिरि की पहाड़ियों में आदिवासियों के बीच काम करता है तो दूसरा आदिवासियों के बीच देश भर में घूम-घूम कर सांस्कृतिक जागरण करता है। फर्क सिर्फ इतना है कि नियमगिरि में सुप्रीम कोर्ट का आदेश अब भी अमल में लाया जा रहा है जबकि गढ़चिरौली जैसे इलाकों में सुप्रीम कोर्ट के तमाम आदेश हवा में उड़ाए जा चुके हैं (याद करें मार्कण्डेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रा की बेंच का वह फैसला कि महात्मा गांधी की किताब रखने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता)। शायद इसी फर्क के चलते अंगद माओवादी नहीं है जबकि हेम पर माओवादी होने का आरोप लगा है।  
यह फर्क कितना बड़ा या कितना छोटा है, इस बात की एक धुंधली सी झलक संजय काक की फिल्म रेड ऐन्ट ड्रीम में देखने को मिलती है जहां वे प्रतिरोध के एक कमज़ोर सूत्र में पंजाब, बस्तर और नियमगिरि को एक साथ पिरो देते हैं। हमें कई माध्यमों में बार-बार बताया गया है कि बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता के खिलाफ नियमगिरि का आंदोलन विशुद्ध आदिवासी आंदोलन है और इसमें माओवादियों के कोई निशान नहीं। संजय काक ऐसा खुलकर नहीं कहते, लेकिन यहां के आंदोलन के नेता ऐसा ही मानते हैं। दरअसल, संजय की फिल्म देखने के तुरंत बाद उस पर जो आलोचनात्मक राय मेरी बनी, वहीं से इस इलाके का दौरा करने की ठोस योजना निकली थी। इसलिए इस यात्रा का आंशिक श्रेय फिल्म को जाता है। मैंने अपने हफ्ते भर के दौरे में यही जानने-समझने की कोशिश की है कि बड़ी पूंजी के खिलाफ क्या कोई भी आंदोलन संवैधानिक दायरे में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत अहिंसक तरीके से चलाया जाना मुमकिन है। या कि जैसा संजय दिखाते हैं, नियमगिरि भी प्रतिरोध के उसी ब्रांड का एक झीना सा संस्करण है जिसे सरकारें माओवाद के नाम से पहचानती हैं। आखिर क्या है नियमगिरि की पॉलिटिक्स?

क्या, कहां और कैसे 

बहुराष्ट्रीयअलुमिनियम कंपनी वेदांता के चालीस हज़ार करोड़ रुपये की लागत वाले प्रोजेक्ट से पहले तमाम मशहूर पर्वत श्रृंखलाओं के बीच नियमगिरि को न तो कोई जानता था, न ही शहरी मानस में इसे लेकर कोई कल्पना तक थी। आज, जब वेदांता के प्रोजेक्ट पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा गांव-गांव में जनसुनवाई का आदेश अमल में लाया जा चुका है, तो नियमगिरि और उसके भरोसे रहने वाले आदिवासी समुदाय अचानक अहम हो उठे हैं। नियमगिरि में प्रवेश से पहले आइए इस इलाके का कुछ भूगोल समझ लें।

दिल्ली से अरावली की जो श्रृंखलाएं राजस्थान तक देखने को मिलती हैं, वे आगे चलकर विंध्य और सतपुड़ा में मिल जाती हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के बाद पूर्व तटीय रेलवे का क्षेत्र शुरू हो जाता है। छत्तीसगढ़ के बाघबाहरा से जो पर्वत श्रृंखलाएं दिखना शुरू होती हैं और महासमुंद होते हुए ओड़िशा में प्रवेश करती हैं, वे दक्कन के विशाल पठार का बिखरा हुआ हिस्सा ही हैं जिन्हें पूर्वी तट के पठार कहते हैं। इनकी लंबाई कुल 1750 किलोमीटर के आसपास है और ये ओड़िशा में छोटा नागपुर पठार के दक्षिण से शुरू होकर तमिलनाडु में दक्षिण पश्चिमी प्रायद्वीप तक चली जाती हैं। छत्तीसगढ़ से रेल से ओड़िशा आते वक्त दिखने वाली इसी श्रृंखला का कुछ हिस्सा नियमगिरि कहलाता है जो सीमावर्ती बोलांगीर जिले से शुरू होकर कोरापुट होते हुए रायगढ़ा और कालाहांडी तक आता है। इस नियमगिरि का शिखर कालाहांडी के लांजीगढ़ में माना जाता है जो यहां के इजिरुपा नामक उस गांव से बमुश्किल डेढ़ किलोमीटर दूर है जहां तीन साल पहले कांग्रेस के नेता राहुल गांधी आकर ठहरे थे। वेदांता कंपनी की अलुमिनियम रिफाइनरी और टाउनशिप लांजीगढ़ में ही है क्योंकि यहां से नियमगिरि के शिखरों की दूरी काफी कम है। पहाड़ से बॉक्साइट निकालने के लिए इसी रिफाइनरी से एक विशाल कनवेयर बेल्ट निकलता है जो सुदूर पर्वत श्रृंखलाओं में जाकर कहीं खो जाता है। पूर्व तटीय रेलवे के माध्यम से यह इलाका दिल्ली से सीधे जुड़ा हुआ है। रायगढ़ा जिले का मुनिगुड़ा रेलवे स्टेशन नियमगिरि की पहाड़ियों का प्रवेश द्वार कहा जा सकता है। मुनिगुड़ा से पहले पड़ने वाले अम्लाभाटा और दहीखाल स्टेशन भी नियमगिरि की तलहटी में ही बसे हैं लेकिन वहां सारी ट्रेनें नहीं रुकती हैं। दूसरे, वहां मुनिगुड़ा की तरह बाज़ार विकसित नहीं हो सका है। इसलिए हमें मुनिगुड़ा उतरने की ही सलाह दी गई थी।

मूवमेंट के गांव में

इसयात्रा की शुरुआत हमने नौजवान साथी अंगद के सहारे की, जो सबसे पहले हमें कालाहांडी के जिला मुख्यालय भवानीपटना को जाने वाले स्टेट हाइवे के करीब स्थित और रायगढ़ा के मुनिगुड़ा रेलवे स्टेशन से करीब 12 किलोमीटर दूर बसे एक गांव में लेकर गया। नियमगिरि की तलहटी में बसा राजुलगुड़ा नाम का यह गांव करीब 250 आदिवासियों को 70 के आसपास घरों में समेटे हुए है। इन्हें कुटिया कोंध कहा जाता है। इस गांव को ''ऊपर'' जाने का बेस कैम्प माना जा सकता है क्योंकि यहां से डोंगर (पहाड़) पर रहने वाले दुर्लभ डोंगरिया कोंध व झरनों के किनारे रहने वाले झरनिया कोंध आदिवासियों के गांवों तक पैदल पहुंचने के सारे रास्ते व लीक निकलते हैं। शुरुआती पंद्रह किलोमीटर से लेकर सुदूरतम 40 किलोमीटर तक बसे गांवों में यहां से पैदल जाया जा सकता है। सिरकेपाड़ी जैसे एकाध गांवों तक तो अब चारपहिया गाड़ियां भी जाने लगी हैं। यह गांव अपेक्षाकृत नया है। इसका पुराना नाम था गोइलोकुड़ा जो बाद में बदल कर राजुलगुड़ा कर दिया गया। इसे यहां के लोग ''मूवमेंट का गांव'' कहते हैं।  

हमारा पहला पड़ाव राजुलगुड़ा गांव 

''मूवमेंट का गांव'' का मतलब आपको राजुलगुड़ा में प्रवेश करने के बाद इसके चांपाकल तक जाने पर समझ में आएगा। चांपाकल गांव की सतह से थोड़ा ऊपर है और वहां तक पहुंचने के लिए छह-सात सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। सीढ़ियों के नीचे सीमेंट से पक्की जमीन पर अंग्रेज़ी के अक्षरों में AIKMS लिखा है। यह अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा का संक्षिप्त नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले)-न्यू डेमोक्रेसी का एक जनसंगठन है। इस इलाके में इस संगठन का काफी काम रहा है और मुनिगुड़ा में इसने जमींदारों से करीब 1500 एकड़ जमीनें छीन कर आदिवासियों में बांट दी हैं। दक्षिणी ओड़िशा में गैर-आदिवासी जमींदारों से जमीनें छीन कर आदिवासी किसानों-मजदूरों में बांट देने का समृद्ध इतिहास रहा है और माले धारा का तकरीबन हर संगठन इस काम में अपने-अपने इलाके में जुटा रहा है। ऐसे आंदोलन का सबसे चमकदार चेहरा चासी मुलिया आदिवासी संघ रहा है जिसके भूमिगत नेता के सिर पर आज सरकारी ईनाम है। यहां मुनिगुड़ा ब्लॉक में ज़मीन आंदोलन पर न्यू डेमोक्रेसी की पकड़ है। कई गांवों में कुटिया कोंध आदिवासी बांटी गई कब्जाई जमीन पर ही खेती कर रहे हैं। यह काम लोक न्यू डेमोक्रेसी के संग्राम मंच के बैनर तले किया गया था। यही मंच आज कई अन्य संगठनों के साथ मिलकर कोरापुटकालाहांडी और रायगढ़ा जिलों में वेदांता के खिलाफ आंदोलन की अगुवाई कर रहा है। जाहिर हैराजुलगुड़ा यानी नियमगिरि का बेस कैम्प राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा से एक गर्मजोश मेजबान रहा है तो सरकार व कंपनी की आंखों का कांटा भी रहा है। इस गांव को समझना वेदांता के आंदोलन को समझने में केंद्रीय भूमिका रखता है। 

बढ़ती उम्र के साथ विकास की लहर निगल गई सोमनाथ की कला को 
यहांहम जिस घर में रुकेवह गांव का इकलौता गैर-आदिवासी घर था। इसमें सोमनाथ गौड़ा (यहां गौड़ा को ओबीसी श्रेणी में माना जाता है)उनकी पत्नी और दो लड़के रहते हैं। मूवमेंट के लोग आम तौर से इसी घर में रुकते हैं। सोमनाथ किसी जमाने में गांव-गांव घूम कर 50 कलाकारों की अपनी मंडली के साथ ऐतिहासिक कथाओं पर नाटक खेला करते थे। ऐसे ही नाटक खेलने के लिए वे राजुलगुड़ा जब 25 साल पहले आए तो गांव वालों ने उन्हें यहां रोक लिया और अपने साथ बस जाने का आग्रह किया। प्रेमभाव में वे यहीं रह गए। वेदांता ने 2002 में जब प्रोजेक्ट शुरू किया तो उसने 12 किलोमीटर दूर मुनिगुड़ा कस्बे में अपना दफ्तर बनाया। इसके असर से वहां गेस्ट हाउस खुलेलॉज बने। बाजार बना। गाड़ियों की चहल-पहल भी शुरू हो गई। फिर मुनिगुड़ा-भवानीपटना स्टेट हाइवे तक बाजार घिसटते-घिसटते आ गया। राजुलगुड़ा के बाहर हाइवे पर आधा दर्जन दुकानें खुल गईं। पेप्सी मिलने लगी। गांव में टीवी भी आ गया। टीवी के साथ डीटीएच भी आया। मोबाइल टावर नहीं हैलेकिन गाना सुनने और वीडियो देखने के लिए 3000 वाला मोबाइल आ गया। इस ''विकास'' का असर देखिए कि पांच साल पहले मुनिगुड़ा कस्बे में जो मकान 700 रुपये माहवार में किराये पर मिला करता थाआज उसका मासिक किराया 50,000 रुपये हो चुका है (यह कंपनी का गेस्‍ट हाउस है)। इस तरह के ''विकास'' का एक असर यह भी हुआ कि हमारे मेज़बान सोमनाथ गौड़ा की कला ने धीरे-धीरे यहीं दम तोड़ दिया और वे जन्म से विकलांग अपने बड़े बेटे वृंदावन की छिटपुट कमाई व धान के कुछ रकबे पर अपनी बीवी की हाड़तोड़ मेहनत तक सिमट कर जीर्ण हो गए। यह कहानी तकरीबन समूचे गांव में मरने के कगार पर खड़ी उस पिछली पीढ़ी की हैजिसने कभी जमींदारों से जमीन कब्जाने के आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थी। नई पीढ़ी में पंकज हैसूरत हैनंदिनी है। ये नाम शहरी हैंआदिवासी नहीं। जैसे नाम बदलेवैसे ही आदिवासी जीवन की तासीर भी बदली। 

राजुलगुड़ा के स्‍कूल में 15 अगस्‍त
बहरहाल, हमारे यहां पहुंचने से एक दिन पहले ही 13 अगस्त को 11वीं पल्लीसभा (ग्रामसभा) खम्बेसी गांव में संपन्न हुई थी जहां के लोगों ने एक बार फिर वेदांता को एक स्वर में खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर राज्य सरकार ने वेदांता के प्रोजेक्ट पर जनसुनवाई के लिए जिन 12 पल्लीसभाओं को चुना था, उसमें 11-0 से पलड़ा अब तक आदिवासियों के पक्ष में था और आखिरी रायशुमारी 19 अगस्त को जरपा गांव में होनी थी। जाहिर है, सोमनाथ को भी गांव की इकलौती प्राथमिक पाठशाला में 15 अगस्त का झंडा फहराते वक्त दरअसल इसी कयामत के दिन का इंतजार था जब कंपनी के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी जाती और 67 साल के बूढ़े, जर्जर लोकतंत्र में न्यायिक सक्रियता का यह किस्सा एक तारीखी नजीर बनकर विकास की नई पैमाइश कर रहा होता। लेकिन बात इतनी आसान नहीं थी, मोर्चे इतने भी साफ नहीं थे, यह बात हमें 15 अगस्त की शाम समझ में आई जब गांव में एक चमचमाती मोटरसाइकिल आकर रुकी। सफेद टीशर्ट में सुपुष्ट देहयष्टि वाले एक नौजवान ने उतरते ही नमस्कार किया। उसके पीछे सोमनाथ का लड़का वृंदावन बैठा था। नौजवान ने विकलांग वृंदावन को सहारा देकर जमीन पर बैठाया और खुद खटिये पर बैठ गया। उसे हिंदी आती थी। काम भर की अंग्रेजी भी। फिर उसने बोलना शुरू किया, ''सरमैं यहां हाइवे पर साइकिल रिपेयर की दुकान चलाता हूं। वृंदा उसी में मिस्त्री का काम करता है। मैं तमिलनाडु और वाइजैग में भी रहा हूं। अब भी महीना में 20 दिन वाइजैग जाता रहता हूं माल लाने के लिए। पापा तो अब कुछ कर नहीं पाते, तो वे ही दुकान पर बैठते हैं। मैं बिजनेस में लगा हूं। और आप लोग...?'' 

शायदवृंदा से उसे हमारी खबर लगी थी। उसका नाम सूरत था। वह भी कुटिया कोंध था और पड़ोस के पात्रागुड़ा गांव का रहने वाला था। चेहरे पर दूसरों से श्रेष्ठ होने का भाव था। वह बार-बार मोटरसाइकिल की ओर देखकर आत्मविश्वास से भर उठता। हमने मोटरसाइकिल के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि दहेज में मिली है। गांव के कुछ बूढ़े-बुजुर्ग हमें घेरे बैठे थे। मैंने जानना चाहा कि क्या यहां के आदिवासियों में दहेज चलता है, जवाब सूरत ने दिया, ''पहले नहीं था सरलेकिन अब शुरू हो गया है। मेरे गांव में तो कई मोटरसाइकिलें है। कुछ ने अपने पैसे से भी खरीदी हैंकुछ दहेज में...।'' बीच में उसने मोबाइल निकाल कर वक्त देखा और हम उसे अपने आने का कारण बताते रहे। जवाब में वह ''ओके, ओके'' कहता रहा। ''आपका क्या विचार है वेदांता के बारे में...'', मैंने जानना चाहा। पहले वह मुस्करायाफिर बोला, ''देखो सरनियमगिरि तो हमारी मां हैसब कुछ उसी से हमें मिलता है। लेकिन कंपनी आएगी तो ज्यादा साइकिल आएगीज्यादा साइकिल पंचर होगीफिर ज्यादा धंधा भी आएगा... है कि नहीं।'' मैंने देखा कि आसपास बैठे लोग उससे पहले से ही कुछ कटे से थे और इस बयान के बाद उनकी आंखों में संदेह का पानी तैरने लगा था। उसने खुद को संभाला, ''देखो साबदुख तो हमको भी होगा अगर नियमगिरि जाएगालेकिन क्या करेंकुछ डेवलपमेंट भी तो होना चाहिए... क्या?'' अगले ही पल अचानक वह तेजी से उठा और चलने को हुआ, ''मेरे को निकलना है साबकल मिलते हैं हाइवे पर।'' मैंने उससे मोबाइल नंबर मांगा, तो उसने एक अनपेक्षित सा जवाब हमारी ओर उछाल दिया, ''हम लोग तो रोज सिम बदलते हैंनंबर का क्या है...।'' 

देश-दुनिया पर चर्चा की एक शाम 
जहांनेटवर्क नहीं था वहां रोज सिम बदले जा रहे थेयह हमें पहली बार पता चला। अंधेरा होते ही कई युवक अपने-अपने मोबाइल की स्क्रीन निहारते हुए गांव में चहलकदमी करने लगे। एक दूसरे को काटती संगीत की तेज आवाजें बिल्कुल नोएडा के खोड़ा कॉलोनी का सा माहौल बना रही थीं। एक जगह कांवरिया का गीत था। दूसरा भोजपुरी गीत। तीसरा मैथिली। चौथा फिल्मी। दो घरों से टीवी की तेज आवाज आ रही थी। यहां के आदिवासी गांवों में प्रथा है कि सभी कुंवारे लड़के एक कमरे में सोएंगे और सारी कुंवारी लड़कियां किसी दूसरे कमरे में। वे अपने परिवारों के साथ नहीं सोते हैं। मैं जिज्ञासावश कुंवारे लड़कों के कमरे में यह जानने के लिए गया कि क्या वे जो बजाते हैं, उसे समझते भी हैं। उनमें सिर्फ एक को काम भर की हिंदी आती थी, दूसरा जबरन अंग्रेजी बोलने की कोशिश कर रहा था। पता चला कि इस गांव से पिछले साल कुल 13 लड़के नौकरी के सिलसिले में केरल गए थे। ये सब धान रोपाई के लिए फिलहाल गांव आए हुए हैं। केरल में इन्हें रोजाना 150 से 200 रुपये मिलते हैं। हर साल ठेकेदार को फोन कर के ये छोटे-छोटे काम करने वहां जाते हैं। वहीं से टीवीमोबाइलछिटपुट इलेक्ट्रॉनिक सामान गांवों में लेकर आते हैं। सौ रुपये में मोबाइल में एक चिप पड़ती है जिसमें गानों के वीडियो होते हैं जो दुकानदार की मर्जी के होते हैं। ''जब समझ में नहीं आता तो आप लोग भोजपुरी या मैथिली वीडियो क्यों देखते हैं'', मैंने जानना चाहा। एक लड़का शर्माते हुए बोला''माइंड फ्रेश करने के लिए।'' मैंने उससे नियमगिरि के बारे में जानने की इच्छा जताईतो उसने जवाब दिया''ये सब जाकर गांव के बड़े-बूढ़ों से पूछो। मेरे को क्या मालूम।'' सहमति में दर्जन भर युवकों ने सिर हिला दिया और पहले की तरह बेसाख्ता मुस्कराने लगे।

राजुलगुड़ागांव में बमुश्किल आधा दर्जन बुजुर्ग बचे हैं। कोई दर्जन भर अधेड़ होंगे। सबसे ज्यादा संख्या औरतोंबच्चों और युवाओं की है। कहते हैं कि यहां पुरुष लंबी उम्र तक नहीं जी पाते क्योंकि महुआमांडिया और तंबाकू उन्हें जल्दी लील लेते हैं। यह कहानी इस समूचे इलाके की हैनीचे चाहे ऊपर। नए लड़के बाहर जा रहे हैं तो शराब भी पी रहे हैं। उन्हें न तो नियमगिरि के अस्तित्व से खास मतलब हैन ही वेदांता कंपनी से। शाम को चौपाल पर जब गांव के बूढ़े और प्रौढ़ बैठकर दीन दुनिया का हालचाल लेते देते हैंतो नौजवान आबादी अजनबी संगीत से घनघनाते मोबाइल हाथ में झुलाते हुए ''माइंड फ्रेश करने'' हाइवे की ओर निकल पड़ती है। दरअसलजिस किस्म की सामाजिक संस्कृति नियमगिरि की तलहटी में बसे ऐसे गांवों में दिखती हैवह मोटे तौर पर सीमावर्ती आंध्र प्रदेश के सामाजिक ढांचे से प्रभावित रही है। यहां से आंध्र का सबसे करीबी कस्बा बॉबिली लगता है और रायगढ़ा में एक बड़ी आबादी पार्वतीपुरम और बॉबिली से आकर बसी है। इसी का असर है कि शहरी और कस्बाई राजनीति में तेलुगु फिल्मी सितारों का असर बहुत चलता है। कभी आंध्र के पड़ोसी कस्बे पार्वतीपुरम से उजड़ कर रायगढ़ा में बसे और अब जयपुर की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहे 26 साल के युवा इंजीनियर राजशेखर कहते हैं, ''हमारे शहर में सब तेलुगु फिल्में देखते हैंतेलुगु बोलते हैं। लोगों की दिलचस्पी ओड़िशा की राजनीति में ज्यादा नहीं है। यहां तो फिल्मी सितारों के झुकाव के हिसाब से राजनीति तय होती है।'' सूरत ने भी ऐसी ही बात हमसे कही थी, ''अभी देखोसिद्धांत और अनुभव जिस पार्टी में चले जाते हैं लोग उसी को वोट देते हैं। पहले यहां सब गांव कांग्रेसी थालेकिन अब बदलाव आ रहा है।'' सिद्धांत और अनुभव उड़िया के दो लोकप्रिय फिल्मी सितारे हैं।

बदलती पीढ़ी के साथ बदल रहे हैं सरोकार
 मूवमेंटके गांव में आए इस बदलाव की स्वाभाविक परिणति देखनी हो तो हाइवे पर सिर्फ बीस किलोमीटर आगे वेदांता के प्रोजेक्ट साइट लांजीगढ़ कस्बे तक चले जाइए। माथे पर टीका लगाएमुंह में पुड़ी (गुटखा) दबाए चमचमाती हीरो होंडा पर तफरीह करते दर्जनों आदिवासी-गैर आदिवासी नौजवान कंपनी के गेट के सामने ''माइंड फ्रेश'' करते मिल जाएंगे। अंगद बताते हैं कि इनमें नब्बे फीसदी मोटरसाइकिलें कंपनी की दी हुई हैं और तकरीबन इतने ही लोग कंपनी के अघोषित एजेंट बन चुके हैं। इस गांव में कभी एक लड़का अकसर आया करता था जिसका नाम था जीतू। जुझारू थाएंटी-वेदांता आंदोलन का सबसे लोकप्रिय स्थानीय चेहरा। हमने उसे 15 अगस्त की शाम मुनिगुड़ा बस स्टैंड पर टहलते हुए देखा। साथी अंगद ने उसकी पहचान कराते हुए बताया''पहले बहुत आंदोलनकारी थापर अब बिक गया है। चार हजार का जूता पहनता है। अभी ये सब चुप हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का काम चल रहा है वरना आपसे दस सवाल पूछता कि कौनक्याक्यों...।'' राजुलगुड़ा गांव के भीतर भी ऐसा ही एक शख्स है। पूरे गांव में अकेले उसी के पास बाइक है। अंगद के मुताबिक आजकल वह भी ''चुप'' है।                                                                                      .... (जारी) 

अभिषेक स्वतंत्र पत्रकार हैं. 
ढेर सारे अख़बारों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी काम. जनपथ डॉट कॉम  के संपादक
इनसे guruabhishek@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

वजूद की जंग : जनता बनाम वेदांता की कहानी (दूसरी क़िस्त)

$
0
0

अभिषेक श्रीवास्तव

-अभिषेक श्रीवास्तव

नियमगिरि के पहाड़ों से लौटने के बाद बड़े संक्षेप में कुछ कहानियां मैंने लिखी थीं जिनमें एक प्रभात खबर और जनसत्‍ता में छपी। मेरे साथी अभिषेक रंजन सिंह ने दैनिक जागरण] शुक्रवार और जनसंदेश टाइम्‍स में रिपोर्ट की। लेकिन अब तक पूरी यात्रा का वृत्‍तान्‍त बाकी था। करीब दस हज़ार शब्‍दों में समूची यात्रा को समेटने की कोशिश मैंने की है जिसे समकालीन तीसरी दुनिया के सितंबर अंक में आवरण कथा के रूप में पढ़ा जा सकता है। उसी आवरण कथा को किस्‍तों में यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं। पढ़ें दूसरी क़िस्त---

डोंगरियों की दुश्‍मन कंपनी वेदांता का लांजीगढ़ में मुख्‍य गेट
ब 15 अगस्त को देश भर में मनाई जा रही आज़ादी की सालगिरह का जश्न भी राजुलगुड़ा की चुप्पी को नहीं तोड़ सकातो हम चल दिए कंपनी की ओर लांजीगढ़। भवानीपटना हाइवे पर लांजीगढ़ नाम का कस्बा यहां से कोई 20 किलोमीटर दूर है। लांजीगढ़ कालाहांडी जिले में पड़ता है। स्कूलों में झंडारोहण का कार्यक्रम खत्म ही हुआ था और हाइवे पर दौड़ रही हर टाटा मैजिक और मोटरसाइकिलों पर भारत का तिरंगा लहरा रहा था। नीली सरकारी निकर में कुछ बच्चे थेजो तुरंत स्कूल से निकले थे और जाने क्या सोचकर सड़क पर हर गाड़ी को देखते ही हवा में मुट्ठियां लहराकर ''हमारा देश प्यारा है'' का नारा दे रहे थे।

लांजीगढ़के आसपास का माहौल वहां की आबादी के विशेष देशभक्त होने का पता दे रहा था। हम वेदांता अलुमिनियम लिमिटेड के गेट नंबर दो पर एक पल को रुकेऔर फिर जहां तक बढ़े वहां तक सड़क के किनारे गड़े छोटे-छोटे खंबों पर वेदांता लिखा देखते रहे। एक विशाल कनवेयर बेल्ट से हमारा सामना हुआ। इसी से बॉक्साइट रिफाइनरी तक लाया जाना है। इस बेल्ट का दूसरा सिरा पहाड़ों के भीतर कहां तक गया हैबाहर से देखकर इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। लांजीगढ़ का बाज़ार बहुत छोटा है। इससे कुछ ही आगे लांजीगढ़ गांव पड़ता है जहां नियमगिरि सुरक्षा समिति के संयोजक कुमटी मांझी रहते हैं। वे घर पर अपने दो पोतों के साथ मिले।


लोकप्रिय नेता कुमटी मांझी 
नियमगिरिआंदोलन में कुमटी मांझी एक परिचित चेहरा हैं। आज से कुछ साल पहले जब इस आंदोलन में राजनीतिक संगठनों के साथ एनजीओ की समान भागीदारी थीतब ऐक्शन एड नाम की संस्था मांझी समेत कुछ और आदिवासियों को लेकर लंदन गई थी। वहां नियमगिरि पर हुई एक बैठक में अचानक वेदांता कंपनी के मालिक अनिल अग्रवाल भी आ गए थेजिस पर कहते हैं कि इन लोगों ने काफी रोष जताया था। मांझी इस घटना का जिक्र करते ही उदास हो जाते हैं''हम दो बार लंदन गए थे। एक बार 2003 में दो दिन के लिए और फिर 2004 में तीन दिन के लिए।'' वे बताते हैं कि उन लोगों को वहां कहा गया था कि वे आंदोलन को छोड़ देंविरोध करना छोड़ दें। वे कहते हैं, ''उनके कहने से आंदोलन खत्म थोड़े हो जाएगा। अब तो सब ग्रामसभा ने वेदांता को खारिज कर दिया हैतो कंपनी को भागना ही पड़ेगा।'' अगर कंपनी नहीं भागी तो?''हम मार कर भगाएंगे'', यह कहते ही वे हंस पड़ते हैं। क्या पूरा लांजीगढ़ गांव कंपनी के विरोध में है? इस सवाल के जवाब में वे बताते हैं कि शुरू में जिन लोगों को कंपनी ने यहां पैसे देकर खरीद लिया थावो सब बियर और मुर्गा खा पी कर पैसा उड़ा दिए हैं। आज की तारीख में उन्हें कंपनी से पैसा मिलना बंद हो गया है और वे सब खाली हैं। ऐसे में उनकी मजबूरी है कि वे आंदोलन के साथ आएं।

यहां कस्बे में वेदांता का एक स्कूल भी चलता है। एक मुफ्त अस्पताल भी है। कुमटी मांझी के नाती-पोते पहले वेदांता के स्कूल में ही पढ़ते थे। उन्हें इसे लेकर कोई वैचारिक विरोध नहीं है''पहले हम नाती-पोते को वहां पढ़ाते थे लेकिन उसका पैसा इतना ज्यादा है कि वहां से नाम कटवा दिए। अब वहां दलालों के बच्चे पढ़ते हैं।'' कुमटी मांझी के दो बेटे हैं। एक यहीं खेती-बाड़ी के काम में लगा है और दूसरा बेटा राज्य सरकार की पुलिस में एसपीओ (स्पेशल पुलिस ऑफिसर) है। वे सारी बातचीत में छोटे बेटे का जिक्र नहीं करते। बाद में हमने आंदोलन के ही एक नेता से इस बारे में पूछा तो उन्होंने मुस्कराते हुए टका सा जवाब दिया''ये अंदर की बात है।''

फुलडोमेर नाराज़ है 
बहरहाल, कालाहांडी में जिन गांवों में पल्लीसभा हुई थीउनमें दो ऐसे गांव हैं जो सड़क मार्ग से सीधे जुड़े हैं। वहां तक चारपहिया गाड़ी पहुंच सकती है। ऐसे ही एक गांव फुलडोमेर में हम पहुंचे जो लांजीगढ़ से करीब दस किलोमीटर की दूरी पर होगा। इस गांव में वेदांता ने एक नल लगवाया है जिससे लगातार पानी बहता है। यहां कंपनी ने औरतों को पत्ते सिलने के लिए सिलाई मशीन दी थी और छतों पर सोलर पैनल लगवाया था। सिलाई मशीनों का आलम ये है कि गांव में घुसते ही आपको टूटी-फूटी अवस्था में ये मशीनें बिखरी दिख जाएंगी। कहीं-कहीं सोलर पैनल भी टूटे हुए पड़े थे। दिन के उजाले में जब सारे पुरुष काम पर गए होते हैंइस गांव के घरों की छत पर गरीबी और पिछड़ेपन के निशान भैंस के सूखते मांस में देखे जा सकते हैं। कुछ औरतें हैंजो घरों में महदूद किसी से बात नहीं करना चाहतीं। एकाध बच्चे हैं, जिनके निकर और शर्ट इस बात का पता देते हैं कि उन पर शहर का रंग चढ़ चुका है। लेकिन यही वह गांव है जिसने सातवीं पल्लीसभा में सबसे ज्यादा 49 वोटरों की मौजूदगी दर्ज कराई (कुल 55 वोटरों में से) और खम्बेसी गांव से यहां आ रहे आदिवासियों के एक समूह को रास्ते में आईआरबी के जवानों द्वारा रोके जाने पर अपना गुस्सा भी जताया था। पल्लीसभा के दिन वहां मौजूद ''डाउन टु अर्थ'' पत्रिका के संवाददाता सयांतन बेहरा लिखते हैं कि जैसे ही सभा के बीच यह खबर आई कि कुछ लोगों को जवानों ने यहां आने से रोक दिया हैकरीब पचास डोंगरिया कोंध बीच में से ही उठकर निकल लिए। इंडियन रिजर्व बटालियन के एक जवान को कुल्हाड़ी दिखाते हुए एक आदिवासी ने कहा, ''तुम्हारे पास बंदूक है तो मेरे पास टांगिया है।'' प्रशासन ने मामले को गरमाता देख उस समूह को वहां आने दियालेकिन तब तक पल्लीसभा की कार्यवाही पूरी हो चुकी थी।

इजिरुपा गांव के इकलौते परिवार के मुखिया लाबण्‍या गौड़ा
फुलडोमेरसे करीब दो किलोमीटर नीचे उतरते ही एक और रास्ता घने जंगलों की ओर कटता है। यह रास्ता कम हैलीक ज्यादा है। झुरमुटों के अंत में एक साफ मैदान खुलता है जहां दो झोपड़ियां दिखती हैं। कहने को ये दो हैंलेकिन परिवार सिर्फ एक। यह इजिरुपा गांव है जहां से नियमगिरि का शिखर महज डेढ़ किलोमीटर दूर है। इस गांव में एक ही परिवार है। इस परिवार में चार लोग हैं। और इससे बड़ी विडम्बना क्या कहेंगे कि चार लोगों के इस इकलौते परिवार वाले गांव में भी वेदांता के प्रोजेक्ट पर राज्य सरकार ने पल्लीसभा रखी थी। जिंदगी में इससे पहले कभी भी परिवार के मुखिया अस्सी पार लाबण्या गौड़ा ने इतनी गाड़ियांइतने पत्रकार, इतना पुलिस बलसरकारी मशीनरी और सुरक्षा बल नहीं देखे। फुलडोमेर के बाद आठवीं पल्लीसभा यहीं हुई थी और चार वोटरों वाले इस गांव ने कंपनी को खारिज कर दिया था। ध्यान देने वाली बात है कि यह गांव आदिवासी गांव नहीं है। गौड़ा यहां ओबीसी में आते हैं। जिन 12 गांवों को पल्लीसभा के लिए चुना गया थाउनमें यही इकलौता गैर-आदिवासी गांव था। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि 2010 में राहुल गांधी आदिवासियों की लड़ाई का हरकारा बनकर जब नियमगिरि का दौरा करने आए थे तो वे इसी गैर-आदिवासी गांव में रुके थे और उन्होंने मशहूर बयान दिया था, ''दिल्ली में आपकी लड़ाई मैं लड़ूंगा।'' यहां राहुल गांधी के लिए एक अस्थायी शौचालय प्रशासन ने बनवाया था। एक ट्यूबवेल भी खोदा गया था जो अब मिट्टी से पट चुका है। इन कड़ियों को जोड़ना हो तो सबसे दिलचस्प तथ्य यह जानने को है कि गौड़ा का पोता आज लांजीगढ़ के आईटीआई में पढ़ाई कर रहा है ताकि विस्थापन के बाद शहर में आजीविका का एक ठौर तो बन सके। इन तथ्यों के जो भी अर्थ निकलेंलेकिन इजिरुपा ने तो कंपनी को ना कह ही दिया है।
  
सिर्फएक परिवार वाले गांव इजिरुपा का ग्रामसभा के लिए चयन अपने आप में सरकारी भ्रष्टाचार का एक बेहतरीन उदाहरण है। दरअसलग्रामसभा के लिए गांवों के चयन की प्रक्रिया में ही राज्य सरकार ने घपला किया था। सुप्रीम कोर्ट ने 18 अप्रैल के अपने फैसले में कहा था कि नियमगिरि में खनन से पहले यहां के समस्त आदिवासियों से राय ली जाए कि कहीं वेदांता का यह प्रोजेक्ट उनके धार्मिकसामुदायिकनिजी अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं कर रहा। नियमगिरि की गोद में ऐसे कुल 112 गांव हैं जिनकी राय ली जानी थी। आदिवासी मामलों का केंद्रीय मंत्रालय और कानून मंत्रालय भी इसी पक्ष में थेलेकिन ओडिशा सरकार ने सिर्फ 12 गांव चुने। ये वे 12 गांव थे जिन्हें वेदांता ने सुप्रीम कोर्ट में जमा किए अपने हलफनामे में सीधे तौर पर प्रभावित बताया था। इन्हीं में इजिरुपा भी थाजहां राहुल गांधी आकर जा चुके थे। 
भालचंद्र षडंगी 

नियमगिरिसुरक्षा समिति के सदस्य और इस इलाके में मजबूत संगठन अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा के भालचंद्र षड़ंगी कहते हैं, ''प्रशासन और कंपनी को पूरी उम्मीद थी कि शुरुआती छह गांवों को तो वे 'मैनिपुलेटकर ही लेंगे और उसके बाद जो मूवमेंट के असर वाले बाकी छह गांव होंगे उनमें भी 'सेंटिमेंटका असर हो सकेगा। पासा उलटा पड़ गया।'' नियमगिरि सुरक्षा समिति के लोकप्रिय नेता लिंगराज आज़ाद कहते हैं''सरकार को यहां की ग्राउंड रियलिटी का पता ही नहीं है। यहां पैसा नहीं चलता है। आप आदिवासियों को खरीद नहीं सकते।'' स्थानीय पत्रकार हालांकि इस ''पासा पलटने'' को कांग्रेस बनाम बीजेडी की राजनीति के रूप में देखते हैं।
 
हमें 16 अगस्त की सुबह ''ऊपर'' जाना था और हमें भी अंगद ने यही बताया था कि वहां पैसामोबाइलएटीएमसंपर्ककुछ नहीं चलता। यह ''ऊपर'' उत्तराखंड या हिमाचल वाले ऊपर से गुणात्मक तौर पर भिन्न है। यहां इसका मतलब हैं डोंगर यानी पहाड़ के गांवों में जानाजहां एक बार जाने के बाद आप तभी नीचे आते हैं जब आपको इरादतन नीचे आना होता है। हमें चूंकि 19 तारीख की आखिरी ग्रामसभा में शरीक होना था जो जरपा नाम के डोंगरियों के गांव में होनी थीलिहाजा एक बार ऊपर जाकर 19 से पहले नीचे आने की कोई तुक नहीं बनती थी। इसका मतलब यह था कि हमें कम से कम तीन रातें और चार दिन डोंगरिया कोंध आदिवासियों के साथ उन्हीं के गांवों में बिताने थे। झारखंड-छत्तीसगढ़ आदि के पहाड़ों पर बसे गांवों में तो साप्ताहिक हाट बाज़ार भी लगने की परंपरा हैयहां हालांकि ऐसा कुछ भी नहीं है। ऐसी हिदायत के बाद हमने अपनी समझ से कुछ बिस्कुटचाय की पत्तीचीनीनींबू और मैगी के पैकेट रख लिए। बटुए और मोबाइल को स्थायी रूप से अपने झोले में डाल दिया और तड़के निकल पड़े ''ऊपर'', जहां हमारा पहला पड़ाव था बातुड़ी गांव। राजुलगुड़ा से करीब दस किलोमीटर ऊपर की ओर बसे कुल 22 घरों के इस गांव में छठवीं पल्लीसभा हुई थी जहां के कुल 40 में से उपस्थित 31 वोटरों ने वेदांता की परियोजना को खारिज कर दिया था।


बातुड़ी में साड़ी और सिंदूर का प्रवेश हो चुका है 
बातुड़ी डोंगरिया कोंध का गांव हैलेकिन यहां आबादी का पहनावा मिश्रित है। अपने पारंपरिक एक सूत के सफेद कपड़े में लिपटी आदिवासी औरतों के अलावा साड़ी पहनी और सिंदूर लगाए औरतें भी यहां दिख जाएंगी। नौजवान भी पारंपरिक पहनावे में कम ही दिखे। गांव में एक सोलर पैनल लगा है जिससे बिजली के दो खंबे चलते हैं। कुल 22 घर हैं और समूचे गांव में सिर्फ चार बुजुर्ग। यहां आकर आपको पहली बार और पहली ही नज़र में डोंगरिया आदिवासी गांवों की एक विशिष्टता पता चलती है। वो यहकि यहां इंसानों से ज्यादा आबादी पालतू जानवरों की होती है। कुत्ताबिल्लीबकरीसुअरमुर्गा-मुर्गी, गायभैंस सब आबादी के बीच इस तरह घुलमिल कर रहते हैं कि शाम को जब पूरा गांव दो तरफ बने घरों के बीच की पगडंडी पर नुमाया होता है तो एकबारगी इनके बीच फर्क करना मुश्किल हो जाता है। बातुड़ी जिंदा प्राणियों का एक ऐसा जिंदा समाजवाद पेश करता है जिससे मनुष्यता के नाते एकबारगी जुगुप्सा होती है तो अगले ही पल आप खुद उसका हिस्सा बन जाते हैं और इसका पता नहीं लगता। बारिश हो जाने पर हालांकि जुगुप्सा का भाव सारी उदारता पर भारी पड़ जाता है। उस शाम जम कर पानी बरसा था और हम एक बरसाती में खटिया डाले सकुचाती लड़कियों की तस्वीरें उतार रहे थेकि अचानक किसी के मोबाइल से मैथिली गीत बजा। ''यहां भी मोबाइल!'' पहली प्रतिक्रिया यही थी। हमारे पीछे तीन नौजवान कैमरे की व्यूस्क्रीन में ताकझांक करते पाए गए। एक हिंदी बेहतर समझता था। वह मुस्करा दिया। उसका नाम मंटू मासू था। फिर उड़िया और कुई मिश्रित टूटी-फूटी हिंदी में बातचीत का सिलसिला चल निकला।

एक साइकिल लकड़ी 200 रुपये में बिकती है 
इस गांव में पांच लड़के मुनिगुड़ा तक लकड़ी बेचने जाते हैं। जिस सखुआ की लकड़ी को शहरों में इमारतसाज़ी के लिए आदर्श माना जाता हैवह यहां इफरात में है। एक साइकिल लकड़ी के बदले इन्हें सिर्फ 200 रुपये मिलते हैं। एक साइकिल का मतलब साइकिल के त्रिकोणीय ढांचे में जितने भी लकड़ी के टुकड़े समा सकेंसब! रोज़ सुबह चार बजे मंटू अपने चार साथियों को लेकर यहां से 25 किलोमीटर दूर मुनिगुड़ा के बाजार तक साइकिल ढलकाता हुआ ले जाता है और दिन में 10 बजे तक लौट आता है। इन पांच में से तीन युवकों के पास मोबाइल हैं और इनका भी उपयोग मूल्य नीचे की ही तरह बदल चुका है। इस पर गाने सुने जाते हैं और वीडियो देखे जाते हैं। मनोरंजन की पूरी दुनिया 100 रुपये के चिप में आती है जिसका मतलब इन्हें समझ नहीं आतालेकिन इस वीराने में शाम उसके भरोसे कट जाती है। एक घर में साउंड बॉक्स भी है। टीवी यहां नहीं है। मोबाइल सोलर पैनल से चार्ज होता है। ये नौजवान भी नियमगिरि के अलावा बहुत कुछ अपनी परंपरा के बारे में नहीं जानते हैं। कुछ विरोधाभासी बातें भी इनसे संवाद कर के समझ में आती हैं। मसलनये मुर्गे-मुर्गियों को तो बेचते नहीं क्योंकि साल में एक बार पड़ने वाले उत्सव में ही इनकी बलि चढ़ाने की परंपरा हैलेकिन इन्हें मुर्गों का दाम जरूर मालूम है। मंटू बताता है, ''एक मुर्गा 500 रुपये के बराबर है।'' यानी लकड़ी बेचकर मौद्रिक चेतना यहां पर्याप्त आ चुकी है।
रातमें गांव की कुंवारी लड़कियां मिलकर हमारे लिए बड़े स्नेह से भात और बांस के मशरूम की सब्ज़ी पकाती हैं। साउंड बॉक्स वाले घर में हमारे सोने की व्यवस्था है। भोजन के काफी बाद तक हिंदी के गाने बजते रहते हैं। सवेरे उठने पर गांव पुरुषों से खाली मिलता है। धीरे-धीरे औरतें भी काम पर चली जाती हैं और हम निकल पड़ते हैं अपने दूसरे पड़ाव केसरपाड़ी गांव की ओरजहां हुई दूसरी ग्रामसभा में कुल 36 वोटरों के बीच उपस्थित 33 ने वेदांता को खारिज कर दिया था। इन 33 में से 23 महिलाएं और 10 पुरुष थे। बातुड़ी से केसरपाड़ी का रास्ता बेहद खतरनाक है क्योंकि एक पहाड़ से नीचे उतर कर तकरीबन सीधी चढ़ाई पर दूसरे पहाड़़ के पार जाना होता है। यह दूरी छह किलोमीटर के आसपास है। अपेक्षाकृत साफ-सुथरे से दिखने वाले इस गांव में भरी दोपहर आबादी के नाम पर सिर्फ दो औरतें और एकाध बच्चे दिखते हैं। गांव से मुनिगुड़ा का एक सीधा रास्ता है जो 15 किलोमीटर दूर है। गांव की शुरुआत में नीले रंग का एक मकान है। इस पर ताला लगा है। अंगद बताते हैं कि यह एक ईसाई मिशनरी का मकान है जो यहां धर्म परिवर्तन के वास्ते काफी पहले आया था लेकिन अपनी पहल में नाकाम रहने के बाद गांव छोड़कर चला गया। अब इसमें मूवमेंट के लोग आकर रहते हैं। इस गांव में कुल 16 घर हैं।

केसरपाड़ी में ईसाई मिशनरी का मकान जिस पर ताला लगा है 
आदिवासीइलाकों में मिशनरियों का काम नया नहीं है। खासकर ओड़िशा के इस इलाके में साठ के दशक में ही ऑस्ट्रेलियाई मिशनरियों का आगमन हो गया था। रायगढ़ा के करीब बिसमकटक में बाकायदे ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी अब भी कार्यरत हैं। लांजीगढ़ रोड पर एक मिशनरी ने कुष्ठ आश्रम बना रखा है लेकिन उसका आसपास के इलाकों में खास असर नहीं है। हिंदू धर्म प्रचारकों का काम यहां न के बराबर है। अब तक हिंदू प्रतीक के रूप में हमें इकलौती चीज़ अगर कोई दिखी है तो वो है ''जय हनुमान खैनी''जिसे बिना चूके यहां के मर्द-औरत सब बड़े चाव से खाते हैं। सबकी लुंगी या लुगदी में खैनी का लाल पाउच खोंसा हुआ दिख जाएगा। शहर जाने वाले मर्द सबके लिए यह खैनी लेकर आते हैं। कुछ देर इस गांव में सुस्ताने के बाद हम निकल पड़े यहां से करीब पांच किलोमीटर दूर स्थित सिरकेपाड़ी गांव की ओरजिसे 19 की ग्रामसभा के लिए हमारा बेस कैम्प होना था।
लगातार चालू इस सफर में अब तक अंगद की तबियत काफी बिगड़ चुकी थी। उसे लगातार हिचकियां आ रही थीं और वह जो कुछ खा रहा थासब उलट दे रहा था। उसे ते़ज़ बुखार हो चला था। सिरकेपाड़ी पहुंचते ही उसने हिम्मत छोड़ दी। उसका शरीर टूट चुका था। यह लड़का पिछली ग्यारह ग्रामसभाओं में लगातार तैनात रहा था लेकिन आखिरी ग्रामसभा में जश्न मनाना इसकी सेहत को गवारा नहीं था। यह तय हुआ कि अगले दिन यानी 18 अगस्त को जो लोग शहर से आएंगेउन्हीं की गाड़ी से लौटती में अंगद को भिजवा दिया जाएगा। दरअसल, 19 की ग्रामसभा जरपा में होनी थी जहां करीब सात किलोमीटर चलकर दुर्गम रास्तों से सिरकेपाड़ी से ही पहुंचा जा सकता था। सिरकेपाड़ी तक चारपहिया वाहनों के आने का रास्ता बना हुआ हैइसलिए पत्रकार से लेकर न्यायाधीश और सुरक्षाबल तक सबको इसी गांव से होकर गुजरना था। अंगद पर दवाओं का असर अब नहीं हो रहा था। तेज़ बारिशकंपकंपाती हवाओं और अंगद की दहलाती हिचकियों के बीच खुले ओसारे में 17 अगस्त की रात यहां गुजारने के बाद हमें शहर से आने वाली पहली गाड़ी का बेसब्री से इंतज़ार था ताकि किसी तरह अंगद को रवाना किया जा सके।  
नियमगिरि की पहाडि़यों के बीच 18 की सुबह तक सुनसान सिरकेपाड़ी गांव 

एथिक्स की एक रात

यहसंयोग नहीं था कि अगले 12 घंटे में सारा जमावड़ा एक बार फिर सिरकेपाड़ी में ही होने जा रहा था। इस गांव में महीना भर पहले सबसे पहली पल्लीसभा हुई थी। अब तक 11 गांवों ने जो वेदांता को ना कहा थाउसकी शुरुआत यहीं से हुई थी। यह इकलौता गांव था जिसने अपनी भाषा कुई में ग्रामसभा आयोजित किए जाने का दबाव प्रशासन पर डाला थाजिसके बाद यह नज़ीर बन गया और अब तक की हर ग्रामसभा में कुई भाषा का एक अनुवादक मौजूद रहा था। लिहा़ज़ाडोंगरियों का यह मोबाइलरहित गांव मूवमेंट के हर चेहरे को पहचानता था। ऐसे ही कुछ चेहरों का आगमन 18 की सुबह 11 बजे के आसपास यहां हुआ। एक जीप रुकी जिसमें से ढपली-नगाड़े और चावल-आलू व सब्जियां लिए हुए एक सांस्कृतिक टीम उतरी। इसमें अधिकतर किशोर उम्र की लड़कियां थींजिन्होंने आते-आते अनपेक्षित रूप से सबसे पहले हमारा पैर छुआ। अब तक हम हाथ मिलाते आ रहे थेजिंदाबाद कहते आ रहे थे। बेशकयह सांस्कृतिक टीम कुछ ज्यादा ''विकसित'' और ''सभ्य'' रही होगी। उनकी गाड़ी से वापसी में अंगद नीचे चला गया और हमने चैन की सांस ली। इसके बाद इस गांव में जो कुछ हुआ, वह इतिहास है।

कैमरों के लिए दोबारा तैयार होती सांस्‍कृतिक टीम 

दिलढल चुका थाकार्यकर्ताओं की कई टीमें आ चुकी थींकि एक स्‍कॉर्पियो अचानक गांव के बाहर आकर रुकी। उसमें से एक कैमरामैनएक असिस्टेंट और शर्ट-पैंट पहने एक आधुनिक दिखने वाली महिला उतरी। पता चला कि यह एनडीटीवी की टीम थी। एआईकेएमएस के नेता भालचंद्र षड़ंगी से उस महिला ने हाथ मिलाया और पूछा''आप लाल सलाम नहीं बोलते'' षड़ंगी ने सकुचाते हुए जवाब दिया''अपने साथियों के बीच बोलते हैं। आप तो बाहर की हैं...।'' एक व्यंग्य भरी मुस्कराहट के साथ महिला ने हमारी तरफ इशारा करते हुए प्राथमिक विद्यालय के किसी मास्टर द्वारा उपस्थिति जांचने के अंदाज़ में उंगली उठाकर पूछा, ''आर देयर एनीओज़? जर्नलिस्ट्स? ऐक्टिविस्ट्स?'' हमारी ओर से जवाब नहीं आने पर उसने दोबारा वही सवाल किया। मैंने हाथ उठाकर जवाब दिया, ''जर्नलिस्ट्स'', और ऐसा लगा कि वो संतुष्ट हो गई हो। वहां हम कुल पांच पत्रकार थे- मेरे अलावा एक मेरे हमनाम साथी और दूरदर्शन के दो पत्रकार ऋतु वर्मा और मंजीत ठाकुरजो कुछ देर पहले ही पहुंचे थे। इसके अलावा हमारे साथ उड़िया पत्रिका ''समदृष्टि'' के एक पत्रकार तरुण भी थे। साथ में दिल्ली विश्वविद्यालय का एक छात्र सौरभ भी था जो वहां की जनसुनवाइयों का दस्तावेजीकरण करने के लिए महीने भर से डेरा डाले हुए था। इन दोनों का परिचित एक संभ्रांत नौजवान पेरिस से वहां पहुंचा थाजिसका कहना था कि वह एफडीआई के खिलाफ भारत में चल रहे आंदोलनों पर शोध के सिलसिले में आया हुआ है।

एनडीटीवीके आने से गांव की रंगत बदल चुकी थी। पूरे गांव में अचानक अफरातफरी का माहौल बन गया था। ऐसा लग रहा था गोया कैमरामैन को कुछ अजूबे हाथ लग गए हों और वो एक के बाद एक झोपड़ियों के घुस-घुस कर शूट करते जा रहा था। उधर दिल्ली से आई रिपोर्टरजिनका नाम आंचल वोहरा थासांस्कृतिक टीम से बार-बार अनुरोध कर रही थीं कि उनके सामने एक बार आदिवासी नृत्य का प्रदर्शन किया जाए ताकि वे शूट कर सकें। कुछ देर पहले ही टीम ने अपना रिहर्सल पूरा किया था और वह बिल्कुल इसे दुहराने के मूड में नहीं थी। कैमरे की महिमा और कुछ नेताओं का ज़ोर था कि दोबारा इस रिहर्सल को पेश करने की सहमति बन गई। शाम धुंधला रही थी और झीनी-झीनी बारिश के साथ ठंडी हवा चलनी शुरू हो गई थी। किसी खाद्य इंस्पेक्टर की तरह अंग्रेज़ी में पूरे गांव का मुआयना करने के बाद आंचल हमारी ओर आईं और सबसे औपचारिक परिचय हुआ।

सिरकेपाड़ी में कैमरों के लिए आदर्श दृश्‍य पेश करने की कवायद
''वाइडोंट वी हैव द बॉनफायर हियर?'' और देखते ही देखते सिरकेपाड़ी गांव पिकनिक के लिए तैयार हो गया। अंधेरे में अलाव जला दिया गया और कैमरों के सामने सांस्कृतिक टीम ने एक बार फिर ढपली की ताल पर आग के इर्द-गिर्द नाचना शुरू कर दिया। कैमरों को यही चाहिए थासो मिल गया। पूरा गांव सहमा सा इस मंज़र का गवाह बना हुआ था और रिपोर्टर एक के बाद एक पीस टु कैमरा दागे जा रही थी''वी आर हियर इन सिरकेपाड़ी विलेज एंड टुनाइट इज़ दि रन अप टु द फाइनल मैच बींग हेल्ड टुमॉरो...।'' 

इस रन अप मैच का छक्का अभी बाकी था। खाने का वक्त हुआ और सबको बुलाया गया। मैडम ने पूछा''क्या हम इन गरीब लोगों का पीडीएस का चावल खाएंगे?'' भालचंद्र जी ने मुस्करा कर हां में जवाब दिया। फिर आंचल ने कहा''तब तो हमारे सिर पर इनका कर्ज चढ़ जाएगा।'' ''बेशक!'' भालचंद्र ने कहा, ''तो कर्ज उतार दीजिएगा इनके पक्ष में लिखकर।'' छूटते ही मैडम ने जवाब दिया, ''नोनो... इनके पक्ष में लिखना तो अनएथिकल हो जाएगा।'' मुझे असहजता सी महसूस हुईसो मैंने बीच में टोका''अनएथिकल क्यों?'' ''मतलबये जो कहेंगे मैं तो उसे ही दिखाऊंगी'', उन्होंने बात को संभाला। शायद उन्हें अब तक नहीं पता चला था कि वे जो कहेंगेवह उनके समेत किसी की भी समझ में नहीं आने वाला क्योंकि उनकी भाषा अलग है।


आदिवासियों के पक्ष में खबर दिखाना एनडीटीवी के लिए ''अनएथिकल'' क्यों थाइसका आशय खंगालने की बहुत जरूरत नहीं पड़ी। अगले ही दिन यानी 19 अगस्त को जब आखिरी ग्रामसभा में हुई जीत का जश्न कुदरत मना रही थी और आदिवासियों के नियम राजा मुसल्सल बरसे जा रहे थेदिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित लीला होटल में एनडीटीवी के मालिक डॉ. प्रणय रॉय और वेदांता के मालिक अनिल अग्रवाल एक मंच से कन्या शिशु को बचाने के लिए एक साझा प्रचार अभियान का उद्घाटन कर रहे थे। ''एनडीटीवी वेदांताः आवर गर्ल्‍स आवर प्राइड'' नाम के इस अभियान का ब्रांड एम्बेसडर फिल्म अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा को घोषित किया गया है और दोनों कंपनियों की यह भागीदारी वेदांता के कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी कार्यक्रम ''खुशी'' का एक विस्तार है। बहरहालएनडीटीवी की रिपोर्टर ने इकलौता ''एथिकल'' काम यह किया कि अपने सिर पर आदिवासियों का कर्ज नहीं चढ़ने दिया। उन्होंने 18 की रात और 19 की सुबह दोनों वक्त गांव का बना खाना नहीं खाया। उनके पास मेरीगोल्ड बिस्कुट की पर्याप्त रसद जो थी।(जारी) 

अभिषेक स्वतंत्र पत्रकार हैं. 
ढेर सारे अख़बारों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी काम. जनपथ डॉट कॉम  के संपादक
इनसे guruabhishek@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

वजूद की जंग : जनता बनाम वेदांता की कहानी (तीसरी और आखिरी क़िस्त)

$
0
0
अभिषेक श्रीवास्तव

-अभिषेक श्रीवास्तव

नियमगिरि के पहाड़ों से लौटने के बाद बड़े संक्षेप में कुछ कहानियां मैंने लिखी थीं जिनमें एक प्रभात खबर और जनसत्‍ता में छपी। मेरे साथी अभिषेक रंजन सिंह ने दैनिक जागरण] शुक्रवार और जनसंदेश टाइम्‍स में रिपोर्ट की। लेकिन अब तक पूरी यात्रा का वृत्‍तान्‍त बाकी था। करीब दस हज़ार शब्‍दों में समूची यात्रा को समेटने की कोशिश मैंने की है जिसे समकालीन तीसरी दुनिया के सितंबर अंक में आवरण कथा के रूप में पढ़ा जा सकता है। उसी आवरण कथा को किस्‍तों में यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं। पढ़ें दूसरी क़िस्त---
-लेखक

जरपा गांव में मोर्चा संभालने के लिए आते सीआरपीएफ के जवान 
सोमवार 19 अगस्त2013  का दिन उस गांव के लिए शायद उसके अब तक के इतिहास में सबसे खास था। आंध्र प्रदेश की सीमा से लगने वाले ओडिशा के आखिरी जिले रायगढ़ा से 85 किलोमीटर उत्तर में नियमगिरि के जंगलों के बीच ऊंघता सा गांव जरपा- जो पहली बार एक साथ करीब पांच सौ से ज्यादा मेहमानों के स्वागत के लिए रात से ही जगा था। सबसे पहले आए कुछ आदिवासी कार्यकर्ता और उनकी सांस्कृतिक टीम। फिर एनडीटीवी की टीमदो-चार अन्य पत्रकार और कुछ स्थानीय कैमरामैन व फोटोग्राफर। पीछे-पीछे सीआरपीएफ के जवानों की भारी कतार। एक के बाद एक इनसास राइफलों से लेकर क्लाशनिकोव और मोर्टार व लॉन्चर कंधे पर लादे हुए, गोया कोई सैन्य ऑपरेशन शुरू होने जा रहा हो। सवेरे दस बजे तक घने जंगलों के बीच झाड़ियों में इन जवानों ने अपनी पोजीशन ले ली थी। ओडिशा पुलिस अलग से आबादी के बीच घुली-मिली सब पर निगाह रखे हुए थी। सुनवाई 11 बजे शुरू होनी थी और उससे आधा घंटा पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा तैनात जिला न्यायाधीश एस.सी. मिश्रा ने प्लास्टिक की कुर्सी पर अपनी जगह ले ली थी। सरकारी महकमा आगे के आयोजन के लिए तंबू गाड़ रहा था। टीवी कैमरे डोंगरिया कोंध के विचित्र चेहरों और साज-सज्जा को कैद करने में चौतरफा दौड़ रहे थे जबकि नौजवान आदिवासी लड़कियां बची-खुची खाली कोठरियों में अपना मुंह छुपा रही थीं। यह ''जरपा लाइव'' थाफिल्म से बड़ा यथार्थ और फिल्म से भी ज्यादा नाटकीय। और ये सब कुछ किसके लिए हो रहा थाएक विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिएजिसे यहां के जंगल चाहिएपहाड़ चाहिए और उनके भीतर बरसों से दबा हुआ करोड़ों टन बॉक्साइट चाहिए। 

जिला जज एस.सी. मिश्रा अपने अर्दली और अंगरक्षक के साथ 
जिनगांवों में भी ग्रामसभा लगी हैवहां सभी के लिए खाना बनता रहा है। हम दो घंटे की मशक्कत के बाद यहां पहुंचे तो गरमागरम चावल और दालमा से हमारा स्वागत हुआ। दालमा को आप दाल और आलू की सब्जी का मिश्रण कह सकते हैं। यही यहां का फास्ट फूड है। धीरे-धीरे आंदोलन के बड़े नेताओं का आगमन शुरू हो चुका था। नियमगिरि सुरक्षा समिति के नेता लिंगराज आज़ाद और लिंगराज प्रधानसत्या महारकुमटी मांझी और अंत में आदिवासियों का अपना नायक लोदो सिकाका अपनी चमचमाती कुल्हाड़ियों वाली नौजवान फौज के साथ यहां पहुंचे। सभी मान कर चल रहे थे कि ग्रामसभा तो मात्र औपचारिकता हैजीत तय है। यही हुआ भी। महज 12 वोटरों के इस गांव ने देखते-देखते जज के सामने कंपनी को ठुकरा दिया और तेज़ बारिश के बीच लाल कपड़े और फेंटे में सजेधजे संस्कृतिकर्मियों का जश्न चालू हो गया। ''वेदांता के ताबूत में आखिरी कील है जरपा'', यही कहा था लिंगराज आज़ाद ने। क्या वाकई ऐसा है

भाकपा(माले)-एनडी के भालचंद्र
हमेंएक नेता ने बताया कि जब ग्रामसभा कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया थातो माओवादियों (सीपीआई-माओवादी) ने इसके बहिष्कार का आह्वान करते हुए गांवों में पोस्टर चिपकाए थे। उनका पुराना तर्क था कि यह सारी कवायद पूंजीवादी लोकतंत्र के सब्ज़बाग से ज्यादा कुछ नहीं है और असली सवाल राज्यसत्ता को उखाड़ फेंकने का है। इस एक तथ्य से यह बात तो साफ हो गई थी कि इस इलाके में माओवादी मौजूद हैं। माओवादियों के दिल्ली स्थित एक समर्थक बताते हैं कि 2009 में पहली बार 150 काडरों का एक समूह इस इलाके में छत्तीसगढ़ से काम करने आया था। अब वे कहां हैंक्या कर रहे हैंइस बारे में कोई ठोस जानकारी उनके पास नहीं है। इतना तय है कि नियमगिरि सुरक्षा समिति के घटक संगठनों के साथ उनका कोई कार्यकारी रिश्ता फिलहाल नहीं है। इसकी दो वजहें हैं। पहली वजह खुद इस आंदोलन के नेता गिनाते हैं। उनका कहना है कि जब माओवादियों ने ग्रामसभाओं के बहिष्कार का आह्वान कियातो नियमगिरि सुरक्षा समिति ने ग्रामसभाओं का खुलकर समर्थन किया। एक नेता के शब्दों में''इससे राज्य सरकार के सामने एक बात साफ हो गई कि नियमगिरि का आंदोलन माओवादियों का समर्थन नहीं करता।'' भालचंद्र कहते हैं,  ''ग्रामसभा का बहिष्कार करने के कारण माओवादियों का यहां से काम लगभग खत्म ही हो गया है।'' इस बात में आंशिक सच्चाई हो सकती है। नियमगिरि आंदोलन के अगुवा संगठनों के साथ माओवादियों का रिश्ता न होने की दूसरी वजह बिल्कुल साफ है कि इस आंदोलन का अधिकांश नेतृत्व निजी तौर पर समाजवादी जन परिषद और भाकपा(माले)-न्यू डेमोक्रेसी से ताल्लुक रखता है। दोनों ही संगठनों के माओवादियों से वैचारिक मतभेद हैं और माओवादियों को इस आंदोलन में कोई भी स्पेस देना दरअसल अपनी जगह को ही खत्म कर देना होगा। तो क्या इस आंदोलन में माओवादियों का कोई स्टेक नहीं हैसवाल उठता है कि यदि बारहों ग्रामसभाओं का फैसला वेदांता के ताबूत में आखिरी कील साबित नहीं हुआ तब? इसका जवाब फिलहाल 19 अक्टूबर को आने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले में छुपा हैलेकिन माओवादियों ने बहिष्कार का आह्वान करते वक्त जो दलील दी थी उसे इतनी आसानी से नजरंदाज नहीं किया जा सकता। 

सजप के नेता लिंगराज आज़ाद 
दरअसल, नियमगिरि का सवाल अपने आप में कोई स्वायत्त और स्वतंत्र सवाल नहीं है। यह 40,000 करोड़ रुपये के निवेश का मामला है जिसमें अंतरराष्ट्रीय पूंजी समेत सरकारों की इज्जत भी दांव पर लगी हुई है। मीडिया की सतही अटकलों के आधार पर कोई कह सकता है कि कांग्रेस जब तक केंद्र की सत्ता में है और बीजू जनता दल जब तक ओड़िशा की सत्ता में हैतब तक मामला फंसा रहेगा। यह तो हुई सियासी दलों के आपसी अंतर्विरोध की बातलेकिन इस बात को तो सभी समझते हैं कि पूंजी की चमक के आगे ऐसे सारे अंतर्विरोध मौके-बेमौके हवा भी हो जाते हैं। ज़ाहिर है राहुल गांधी की ज़बान रखने के लिए 40,000 करोड़ को लात नहीं मारी जा सकती। यह नूराकुश्ती अस्थायी है। असल सवाल यह है कि देश में ऐसे सैकड़ों नियमगिरि हैं जहां बुनियादी विरोधाभास ग्लोबल पूंजी के हितों और स्थानीय संसाधनों पर मालिकाने के बीच है। नियमगिरि सिर्फ इस मामले में विशिष्ट हो गया है कि यहां आज़ादी के बाद पहली बार न्यायिक फैसले के आधार पर स्थानीय लोग विकास की लकीर खींच रहे हैं। लेकिन इस लकीर को राज्य सरकार ने घपला कर के कितना छोटा कर दिया हैयह भी हम देख चुके है। जो ग्रामसभा 112 गांवों में होनी चाहिए थीउसे 12 में ही निपटा दिया गया और आदिवासी मंत्रालय समेत कानून मंत्रालय और न्यायालय सब मुंह ताकते रह गए। इस सच्चाई को आंदोलन का नेतृत्व अच्छे से समझता हैतभी आज़ाद कहते हैं''नियमगिरि को छूने के लिए कंपनी को हज़ारों आदिवासियों का खून बहाना पड़ेगा और हम अपनी धरनी का एक-एक इंच बचाने के लिए जान दे देंगे।'' राज्यसत्ता को ऐसी भाषा माओवादियों से मेल खाती दिखती है और नतीजतन वह महज 12 वोटरों के एक गांव में अपनी न्यायिक प्रक्रिया की निगरानी के लिए तीन बटालियनें उतार देती है।  

यह''परसेप्शन'' का फर्क है। आंदोलन का नेतृत्व यह सोचता है कि उसने माओवादियों के बहिष्कार का विरोध कर के खुद को उनसे अलगा लिया है और यही संदेश राज्यसत्ता को भी जा चुका हैजबकि सरकार ऐसा नहीं सोचती क्योंकि सीआरपीएफ और पुलिसबल से गांवों को पाट देने की कवायद एक ही चश्मे से आती है जिसके उस पार सरकारी योजना का विरोध करने वाला हर शख्स माओवादी दिखता है। इस मामले में हम कह सकते हैं कि नियमगिरि सुरक्षा समिति का नेतृत्व एक स्तर पर खुशफहमी में हैलेकिन आंदोलन के बौद्धिक दिशानिर्देशक लिंगराज प्रधान इस बात को कुछ ऐसे रखते हैं, ''यह रणनीति का सवाल है। हम देख रहे हैं कि जहां-जहां माओवादी आंदोलन हो रहे हैंवहां राज्य का दमन इतना बढ़ा है कि डेमोक्रेटिक स्पेस खत्म हो गई है। उड़ीसा में अब भी गंदमारदन किसान आंदोलन आदि ऐसे उदाहरण हैं जहां लोकतांत्रिक दायरे में कामयाबी हासिल की गई है। यह लड़ाई प्रतिरोध के जनवादी स्पेस को बचा ले जाने की है।'' वे हालांकि यह भी मानते हैं कि इस ''खुशफहमी'' की वजह बस इतनी है कि अब तक यहां जनता के साथ दगा नहीं हुआ है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इसीलिए आस्था बची हुई है, जिसके चलते 12वीं ग्रामसभा के फैसले को ''ताबूत में आखिरी कील'' मान लिया जा रहा है। लेकिन इस इलाके में संघर्षों का इतिहास कुछ और ही कहता है।

चासी मुलिया के सबक

स्थानीय अखबारों पर नज़र दौड़ाएं तो हम पाएंगे कि पिछले कुछ महीनों के दौरान अचानक कोरापुट जिले से चासी मुलिया आदिवासी संघ (किसानोंबंधुआ मजदूरों और आदिवासियों के संघ) के सदस्यों के सामूहिक आत्मसमर्पण संबंधी खबरों में काफी तेज़ी आई है। मीडिया की रिपोर्टों के मुताबिक जनवरी 2013 के बाद संघ के 1600 से ज्यादा सदस्यों ने आत्मसमर्पण किया है। ये सभी कोरापुट जिले के नारायणपटना ब्लॉक के निवासी हैं। संघ के मुखिया नचिकालिंगा के सिर पर ईनाम है। उनके नाम के ''मोस्ट वॉन्‍टेड'' पोस्टर भुवनेश्वर में लगे हैं। पिछले साल 24 मार्च को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने कोरापुट के टोयापुट गांव से एक विधायक झिना हिकोका को अगवा कर लिया था और उनकी रिहाई के बदले चासी मुलिया के 25 सदस्यों को रिहा करने की मांग कर डाली थी। इसके बाद अचानक यह संदेश गया था कि चासी मुलिया को माओवादियों का समर्थन है। उसके बाद से आत्मसमर्पणों का सिलसिला शुरू हुआजिससे आम धारणा बनी कि यहां माओवादियों का आधार सरक रहा है। नियमगिरि आंदोलन के नेता इसी परिघटना के पीछे माओवादियों द्वारा ग्रामसभाओं के बहिष्कार के आह्वान का हवाला देते हैंजो अपनी तात्कालिकता में भले सच हो लेकिन करीबी अतीत में चली प्रक्रिया से बेमेल है।

चासी मुलिया के मुखिया नचिकालिंगा, सौजन्‍य तहलका 
असलमें चासी मुलिया आदिवासी संघ ओड़िशा में कोई प्रतिबंधित संगठन नहीं हैइसलिए इसके सदस्यों की गिरफ्तारी और आत्मसमर्पण का मुद्दा चौंकाने वाला है। पुलिस मानती है कि चासी मुलिया माओवादी पार्टी का जनसंगठन है और माओवादी इसी के सहारे कोरापुटमलकानगिरि और रायगढ़ा जिले के कुछ हिस्सों में अपनी राजनीतिक गतिविधियों को आगे बढ़ा रहे हैं। चूंकि रायगढ़ा के सात गांवों में पल्लीसभा हुई है, इसलिए यहां सीआरपीएफ और पुलिस को भारी संख्या में उतारना सरकारी नज़रिये का ही स्वाभाविक परिणाम था। दूसरी ओर संघ के मुखिया नचिकालिंगा जो आजकल भूमिगत हैंमाओवादियों के साथ अपने रिश्ते की बात को खुले तौर पर नकारते हैं। पिछले साल ''तहलका'' को एक गुप्त स्थान से दिए अपने साक्षात्कार में उन्होंने यह कहा था। इस पृष्ठभूमि में यह पड़ताल करना आवश्यक हो जाता है कि क्या चासी मुलिया आदिवासी हितों के लिए काम करने वाला एक स्वतंत्र संगठन है या फिर इसके माओवादियों से वाकई कुछ रिश्ते हैं। इसी आलोक में हम जान पाएंगे कि चासी मुलिया के प्रति नियमगिरि आंदोलन के नेतृत्व का उभयपक्षी नजरिया नियमगिरि के भविष्य में कौन सी राजनीतिक इबारत लिख रहा है।

चासीमुलिया आदिवासी संघ का जन्म आंध्र प्रदेश के किसान संगठन राइतु कुली संगम (आरसीएस) से हुआ था जिसे माओवादी समर्थक नेताओं ने विजयानगरम में गठित किया था। आरसीएस की एक शाखा 1996 में ओड़िशा के कोरापुट जिले के बंधुगांव ब्लॉक में भास्कर राव ने शुरू की। शुरुआत में बंधुगांव और नारायणपटना ब्‍लॉक के किसानों और बंधुआ मजदूरों का इसे काफी समर्थन हासिल हुआ। भाकपा(माले-कानू सान्याल गुट) (यह खुद को भाकपा(माले) ही कहता है) के कुछ अहम नेता जैसे गणपत पात्रा आरसीएस के साथ काफी करीबी से जुड़े रहे हैं। आरसीएस-कोरापुट ने भाकपा(माले) के नेताओं के सहयोग से ही यहां जलजंगल और जमीन का आंदोलन चलाया था। जब आंध्र प्रदेश में भाकपा(माओवादी) और उसके जनसंगठनों पर प्रतिबंध लगाया गया थाउसके ठीक बाद 17 अगस्त, 2005 को आरसीएस को भी वहां प्रतिबंधित कर दिया गया। ओड़िशा में भी आरसीएस को ऐसे ही प्रतिबंध का अंदेशा थासो उसने 2006 में अपना नाम बदल कर चासी मुलिया आदिवासी संघ रख लिया। संघ ने 2006 से 2008 के बीच खासकर नारायणपटना और बंधुगांव ब्‍लॉकों में गैर-आदिवासी जमींदारों से जमीनें छीन कर गरीब आदिवासियों में बांटने का काफी काम कियाशराबबंदी के लिए रैलियां कीं और भ्रष्ट सरकारी अफसरों के खिलाफ अभियान चलाया। 2008 आते-आते संघ की नेता कोंडागिरि पैदम्मा को दरकिनार कर के बंधुगांव के अर्जुन केंद्रक्का और नारायणपटना के नचिकालिंगा ने संगठन की कमान संभाल ली, लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि संगठन के भीतर अपने आप दो धड़े भी बन गए। अर्जुन केंद्रक्का बड़े जमींदारों से भूदान के पक्ष में थे जबकि नचिकालिंगा उनसे जमीनें छीनने में विश्वास रखते थे। इस तरह दोनों धड़ों के बीच मतभेद बढ़ते गए। इसकी परिणति इस रूप में हुई कि केंद्रक्का ने 2009 के चुनाव में खड़े होने का मन बना लिया और संसदीय लोकतंत्र. में अपनी आस्था जता दी। नचिकालिंगा ने इसका विरोध किया। माना जाता है कि इसकी दो वजहें रहीं। पहली यह कि नचिकालिंगा माओवादी विचारधारा से प्रभावित थे। दूसरी वजह यह थी कि वे खुद भाकपा(माले) के टिकट पर कोरापुट की लक्ष्मीपुर संसदीय सीट से लड़ना चाहते थे। हुआ यह कि अर्जुन केंद्रक्का को भाकपा(माले) से टिकट मिल गयाहालांकि वे बीजू जनता दल के झिना हिकोका से हार गए। इसके बाद चासी मुलिया के दो फाड़ हो गए। वरिष्ठ नेताओं और सलाहकारों ने भी अपना-अपना पक्ष तय कर लिया। मसलनकोंडागिरि पैदम्मा ने अर्जुन धड़े को चुना तो भाकपा(माले) के पात्रा ने नचिकालिंगा के गुट में आस्था जताई।

यही वह समय था जब कोरापुटमलकानगिरि और रायगढ़ा में माओवादियों का एक जत्था बाहर से आया और यहां की राजनीति में उसने पैठ बनानी शुरू की। 20 नवंबर, 2009 को नारायणपटना पुलिस थाने पर नचिकालिंगा ने सुरक्षा बलों द्वारा आदिवासियों के दमन के खिलाफ धावा बोला और गोलीबारी हुई जिसमें संघ के दो नेताओं की मौत हो गईकई ज़ख्मी हुए और पुलिस ने 37 को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद से नचिकालिंगा भूमिगत हैं। इसी मौके का लाभ माओवादियों ने इस गुट में अपनी उपस्थिति को मजबूत करने में उठाया। एक सरकारी संस्था इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज़ अनालिसिस (आईडीएसए) की एक रिपोर्ट के मुताबिक माओवादियों ने नचिकालिंगा को अपने साये तले पुलिस से संरक्षण दे दिया और बदले में समूचे गुट को अपने नियंत्रण में ले लिया। इस बात को लिंगराज प्रधान भी मानते हैं कि दक्षिणी ओड़िशा के इस इलाके में चासी मुलिया के नेतृत्व में चल रहे जमीन के आंदोलनों को माओवादियों ने ''हाइजैक'' कर लिया। नचिकालिंगा ने हमेशा माओवादियों के साथ अपने रिश्ते को नकारा हैख्‍ लेकिन नियमगिरि आंदोलन के नेता इस बात की पुष्टि करते हैं। इसके अलावाचुनाव हारकर सरकारी मशीनरी के विश्वासपात्र बन चुके अर्जुन केंद्रक्का की 9 अगस्त2010 को भाकपा(माओवादी) की श्रीकाकुलम इकाई द्वारा की गई हत्या भी इस बात को साबित करती है कि चासी मुलिया (नचिकालिंगा) में माओवादियों की पैठ बन चुकी थी। इस हत्या के बाद संघ की बंधुगांव इकाई निष्क्रिय हो गई और माओवादियों की मदद से नचिकालिंगा गुट ने वहां और नारायणपटना ब्‍लॉक में 6000 एकड़ ज़मीनें कब्जाईं।

इससाल चासी मुलिया से काडरों के बड़े पैमाने पर हो रहे आत्मसमर्पण एकबारगी यह संकेत देते हैं कि इस इलाके में माओवादियों की पकड़ कमजोर पड़ रही हैलेकिन कुछ जानकारों का मानना है कि यह नचिकालिंगा गुट और भाकपा(माओवादी) की एक रणनीति भी हो सकती है। कुछ स्थानीय लोगों के मुताबिक नचिकालिंगा ने अगर संसदीय राजनीति की राह पकड़ लीतब भी माओवादियों के अभियान पर यहां कोई खास असर नहीं पड़ने वाला क्योंकि उन्होंने मिनो हिकोका के रूप में चासी मुलिया संघ में नेतृत्व की दूसरी कतार पहले से तैयार की हुई है। इसके अलावा एक उभरता हुआ गुट सब्यसाची पंडा का है जिन्होंने पिछले दिनों भाकपा(माओवादी) को छोड़ कर उड़ीसा माओवादी पार्टी बना ली है। प्रधान इसे लेकर हालांकि चिंतित नहीं दिखते''यह तो सरवाइवल के लिए बना समूह है। पंडा या तो सरेंडर कर देंगे या फिर एनकाउंटर में मारे जाएंगे। उनका इस इलाके की राजनीति पर कोई असर नहीं होने वाला।'' 


इसपूरी कहानी में सबसे दिलचस्प बात यह है कि सारी लड़ाई आदिवासियोंकिसानों और बंधुआ मजदूरों के हितों के लिए जमीन कब्जाने से शुरू हुई थी। विडंबना यह है कि नचिकालिंगा खुद एक बंधुआ मजदूर था जिसके मालिक के घर में आज सीमा सुरक्षा बल की चौकी बनी हुई है। यह लड़ाई महज चार साल के भीतर माओवादियों के कब्जे में आ चुकी है और मोटे तौर पर तीन जिलों कोरापुटमलकानगिरि और रायगढ़ा में उनका असर पहले से कहीं ज्यादा बढ़ा है। मजेदार यह है कि जमीन की बिल्कुल समान लड़ाई नियमगिरि की तलहटी वाले गांवों में चल रही है जहां माले का न्यू डेमोक्रेसी धड़ा और खुद लिबरेशन भी अलग-अलग इलाकों में सक्रिय हैं। लड़ाई का मुद्दा एक है और जमीन कब्जाने की रणनीति भी समानलेकिन इलाके अलग-अलग हैं और ''मोस्ट वांटेड'' संगठन चासी मुलिया के प्रति माले के धड़ों का नजरिया भी अलग-अलग है। 

लिंगराज प्रधान: आंदोलन का बौद्धिक नेतृत्‍व 
लिंगराजप्रधान इसे ''पर्सनालिटी कल्ट'' का संकट बताते हैं जहां नेतृत्व संगठन से बड़ा हो जाता है। इस जटिल इंकलाबी राजनीति के आलोक में नियमगिरि का आंदोलनजो आज की तारीख में वैश्विक प्रचार हासिल कर चुका हैमाओवाद से अछूता रह जाए (या रह गया हो) यह संभव नहीं दिखता। लिंगराज प्रधान इसे ''रूल आउट'' नहीं करते, ''हमारे नेता आज़ाद के पास माओवादियों के फोन आते हैं। वे कहते हैं कि तुम चिंता मत करोहम तुम्हारे साथ हैं।'' फिर वे कहते हैं, ''दरअसलअभी तक नियमगिरि में प्रतिरोध का सिलसिला सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के सहारे और छिटपुट आंदोलनों के बल पर ही चलता रहा है जो गंदमारदन जैसी भीषण शक्ल नहीं ले सका है और अपेक्षाकृत सौम्य हैइसमें कामयाबी भी मिलती ही रही हैइसीलिए माओवादियों को यहां घुसने की स्पेस नहीं बन पा रही है। जनवादी राजनीति की यही कामयाबी है।'' 

जहां बड़े आंदोलन होते हैंवहां अफवाहें भी बड़ी होती हैं। कहते हैं कि नियमगिरि के कुछ डोंगरिया गांवों में राइफलें भी हैं। यह बात गलत हो या सहीइससे फर्क नहीं पड़ता। असल फर्क यह समझने से पड़ता है कि नियमगिरि की लड़ाई किसी कोने में अलग से नहीं लड़ी जा रही है। यह कोई पवित्र गाय नहीं है जहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर ही बड़ी पूंजी के खिलाफ जीत हासिल की जा सके। सवाल यहां भी जलजंगल और जमीन का ही है। विरोधाभास यहां भी लोकल बनाम ग्लोबल का है और अब तक तो कोई ऐसी नज़ीर इस देश में पेश नहीं हुई जहां न्यायिक सक्रियता के चलते बड़ी पूंजी की स्थायी वापसी संभव हुई हो।

नियम की तासीर

नियमगिरि का नायक लोदो सिकाका 
ऐसानहीं कि आंदोलन के नेताओं लिंगराज आज़ाद या लोदो सिकाका को जन्नत की हकीकत नहीं मालूम। संजय काक की फिल्म में लोदो सिकाका की एक बाइट हैः ''सरकार हमें माहबादी (माओवादी) कहती है। अगर हमारा नेता लिंगराजा माहबादी हैतो हम भी माहबादी हैं।'' यह चेतना का उन्नत स्तर ही है जो दुनिया की दुर्लभ आदिवासी प्रजाति डोंगरिया कोंध के एक सदस्य से ऐसी बात कहलवा रहा है। संघर्षों से चेतना बढ़ेगी तो कल को माओवादी पोस्टरों के मायने भी समझ में आएंगे और मोबाइल पर बजता गीत-संगीत भी। अभी तो दोनों ही आकर्षण का विषय हैं और इनसे निकल रहा बदलाव नियमगिरि की फिज़ा में साफ दिख रहा है। लड़के दहेज ले रहे हैंऔरतें सिंदूर लगा रही हैं, बच्चियां अपने स्कूली शिक्षकों के कहने पर तीन नथ पहनना छोड़ रही हैं तो सभ्य दिखने के लिए आदिवासी बच्चे अपने लंबे बाल कटवा रहे हैं। इन छवियों के बीच मुझे अस्पताल में पड़े साथी और नियमगिरि के जंगलों में अपने मार्गदर्शक अंगद की कही एक बात फिर से याद आ रही है, ''हम लोग सड़क और स्कूली शिक्षा का विरोध इसीलिए करते हैं क्योंकि उससे आंदोलन कमज़ोर होता है।'' इससे दो कदम आगे उनके नेता आज़ाद की बात याद आती है जो उन्होंने अपने साक्षात्कार में कही थी, ''विकास का मतलब अगर बाल कटवाना होता है तो पहले मनमोहन सिंह की चुटिया काटो।'' सख्त वाम राजनीति के चश्मे से देखने पर ग्रामसभाओं में वेदांता की हार ऊपर-ऊपर भले ही ग़ालिब का खयाली फाहा जान पड़ती हो, लेकिन नियमगिरि की तासीर पर्याप्त गर्म है। यही डोंगरियों के नियम राजा का असली मर्म है।

(समाप्‍त)


 अभिषेक स्वतंत्र पत्रकार हैं. 
ढेर सारे अख़बारों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी काम. जनपथ डॉट कॉम  के संपादक
इनसे guruabhishek@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

क्या फांसी बलात्कार की समस्या का हल है?

$
0
0
सुनील कुमार
-सुनील कुमार

"...दिल्ली सामूहिक बलात्कार के दोषियों को 9 माह में फांसी की सजा सुना दी गई क्योंकि इन दोषियों में कोई भी अरबपति, राजनेता, नौकरशाह या शासक वर्ग से ताल्लुक रखने वाले नहीं थे। ये सभी समाज के उस निचले पायदान से थे जिसको हम चलती-फिरती भाषा में ‘नाली के कीड़े’ की संज्ञा देते हैं। इन दोषियों को सजा देकर भारत का शासक वर्ग यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि भारत में न्याय जिन्दा है। वह लोगों की भावनाओं को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश कर रहा है, जैसा कि गृहमंत्री का बयान है।..." 

16 दिसम्बर, 2012 के सामूहिक बलात्कार के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा था। खासकर मध्यमवर्गीय महिलायें, जो ऑफिस, स्कूलों और कॉलेजों में जाती हैं, काफी संख्या में सड़क पर आकर विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया। वर्मा कमेटी को सुझाव देने में पक्ष-विपक्ष एकमत था कि बलात्कार की घटना में फांसी की सजा होनी चाहिए। यह मीडिया पर दिन-रात चर्चा का विषय बना हुआ था। लोगों के गुस्से पर सरकार ने लाठी के बल पर काबू किया। एक पुलिसकर्मी की मौत में झूठे बेगुनाह युवकों को फंसाया गया। लोगों के गुस्से को देखते हुए वर्मा कमिटी का गठन किया गया और वर्मा कमेटी ने बलात्कार कानून में काफी कुछ बदलाव किया और बलात्कार की परिभाषा को भी बदला। 10 सितम्बर, 2013 को जब इस केस का फैसला आना था, मीडिया में यह मुद्दा गर्म हो गया और मीडिया द्वारा लोगों का ओपीनियन (फैसला) दिखाया जाने लगा। मीडिया पार्क में, चैराहों पर, आॅफिस के बाहर जाकर लोगों की बाइट ले रही थी, जिसमें अधिकांश लोगों का मत था कि फांसी की सजा दी जानी चाहिये। कुछ का तो यह भी मानना था कि इन्हें बीच चैराहे पर फांसी दी जानी चाहिए जिससे कि लोगों में भय पैदा हो। पीडि़त परिवार के बार-बार बयान दिखाये जा रहे थे कि बलात्कारियों को फांसी की सजा हो ताकि उनको न्याय मिल पाये।

बलात्कार काण्ड के विरोध में जब लोग दिल्ली के इंडिया गेट और रायसिना हिल पर जमा हुए थे उसी 72 घंटे के दौरान देश में 150 बलात्कार की घटनाएं हुईं (दैनिक भास्कर, 25 दिसम्बर 2012)। इस घटना के बाद भी लगातार देश में बलात्कार की घटनाएं हुई हैं और हो रही हैं। दिल्ली में ही एक छोटी बच्ची के साथ गैंग रेप हुआ। मुम्बई में एक फोटोग्राफर  लड़की के साथ गैंग रेप हुआ। ज्यादातर केसों में आरोपी 24 घंटे में पकड़ लिये गये और केस को सुलझा लिया गया। फिर भी उनको कई दिनों तक पुलिस रिमांड पर रखा गया। प्रभावशाली लोग, जो कि एक संगठित गिरोह की तरह काम करते हैं, जब किसी के साथ बलात्कार करते हैं तो उन पर केस दर्ज नहीं होता, और होता भी है तो उनको बचाव का पूरा समय दिया जाता है। 

आसारामके केस में देखा जा सकता है कि एक नाबालिग लड़की से सोच-समझकर षड़यंत्रपूर्वक बलात्कार किया जाता है और केस दर्ज होने के बाद भी आसाराम को बचाव का पूरा समय दिया जाता है। पूछ-ताछ के लिये उनके दरवाजे पर पुलिस जाकर नोटिस देने के लिये घंटों इंतजार करती रहती है और आदरपूर्वक उनको नोटिस देकर आती है। विपक्ष की नेता, जो चिल्ला-चिल्ला कर बलात्कारियों की फांसी की मांग करती हैं, उन्हीं की पार्टी के लोग आसाराम को निर्दोष बताने में लगे हुए थे। म.प्र. के एक बीजेपी नेता ने तो यहां तक मांग कर दी कि लड़की के घर वालों पर केस दर्ज होना चाहिए क्योंकि वे आसाराम बापू को झूठे फंसा रहे हैं। पुलिस आसाराम को पकड़ती है और एक दिन की पुलिस के रिमांड में ही पूछ-ताछ पूरी कर लेती है! जो मीडिया 16 दिसम्बर के सामूहिक बलात्कार के केस की अदालती कार्रवाई को इतनी रूचि से दिखा रही है और पहले भी दिखा रही थी; उस मीडिया का (दो-तीन चैनल को छोड़कर) आसाराम केस में उतनी दिलचस्पी नहीं है। सामूहिक बलात्कार केस में फांसी की मांग करने वाली भीड़ में आसाराम के कई भक्त भी होंगे जो कि आसाराम को निर्दोष बता रहे थे। 

10दिसम्बर, 2013 को दोषियों (मुकेश (26), पवन (19), विनय (20) व अक्षय (28)) को फांसी की सजा देते हुए जज योगेश खन्ना ने कहा ‘‘अदालत ऐसे अपराधों की तरफ आंख नहीं मूंद सकती। इस हमले ने समाज की अंतरात्मा की आवाज को स्तब्ध कर दिया था। ये मामला सचमुच अपवाद का है और इसमें मृत्युदंड ही दिया जाना चाहिए।’’  क्या जज साहब की इन बातों से उन सभी महिलाओं को न्याय मिल जायेगा जो सामाजिक संरचना की भय से बालात्कार जैसी घटना को छुपाती हैं? क्या इस फांसी की सजा से जेल मंे बंद सोनी-सोरी को न्याय मिल गया, जिनके गुप्तांगों में पत्थर डालने वाले पुलिस अधिकारी अंकित गर्ग को सजा देने के बदले राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया? मनोरमा और शोपिया के बलात्कारियों का क्या हुआ? 

गृहमंत्रीसुशील कुमार शिंदे ने कहा है कि ‘‘दामिनी और उसके परिवार को न्याय मिला है। न्यायदेवता ने एक नया उदाहरण रखा है कि इस तरह के अपराध करोगे तो इसके सिवा दूसरी सजा नहीं हो सकती है। मैं इसका स्वागत करता हूं।’’ गृहमंत्री जी उन महिलाओं को कब न्याय मिलेगा जो कि राष्ट्रीयता व अपनी जीविका के संसाधनों, जल-जंगल-जमीन के लिए संघर्ष कर रही हैं और आपके ‘बाहदुर सिपाही/अधिकारी’ उनके साथ बालात्कार करते आ रहे हैं? आपके ही पार्टी के राज्यसभा के उपसभापति पीजे कुरियन पर सूर्यनेल्ली गांव की 16 साल की लड़की ने जो आरोप लगाये थे क्या उस लड़की को न्याय मिल गया? प्रियदर्शनी मट्टू, रूचिका गिरहोत्रा जैसे कांड का क्या हुआ? जनदबाव के कारण अगर कोई बड़ा बलात्कारी पकड़ा भी जाये तो आप ऐसे बलात्कारियों को तो जेल में अतिथि बनाकर रखते हैं, जैसा कि अभी-अभी आसाराम को घर का बना हुआ दलिया खिलाया। इससे आसाराम का मनोबल इतना बढ़ गया कि वे जेल में महिला वैद्य से इलाज कराने की मांग करने लगे।

दिल्ली सामूहिक बलात्कार के दोषियों को 9 माह में फांसी की सजा सुना दी गई क्योंकि इन दोषियों में कोई भी अरबपति, राजनेता, नौकरशाह या शासक वर्ग से ताल्लुक रखने वाले नहीं थे। ये सभी समाज के उस निचले पायदान से थे जिसको हम चलती-फिरती भाषा में ‘नाली के कीड़े’ की संज्ञा देते हैं। इन दोषियों को सजा देकर भारत का शासक वर्ग यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि भारत में न्याय जिन्दा है। वह लोगों की भावनाओं को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश कर रहा है, जैसा कि गृहमंत्री का बयान है। वहीं बचाव पक्ष के वकील ए.पी. सिंह ने इस फैसले को पक्षपातपूर्ण निर्णय बताया है और राजनीति से प्रेरित बताया। उन्होंने कहा है कि ‘‘अगर फांसी देने से बलात्कार रूक जाएगा तो हम इस फैसले के खिलाफ अपील नहीं करेंगे। गृह मंत्री ने इस मामले में दखल दिया है। अगर इस फैसले के बाद दो महीने के अंदर कोई बलात्कार या हत्या नहीं होती है तो हम अभियुक्त के लिए ऊपरी अदालत में नहीं जांएगे।’’

बलात्कारसामंती युग की बर्बरता है। किसी से बदला लेना हो, किसी को नीचा दिखाना हो तो उसके घर की महिलाओं के साथ बलात्कार करो। सामंती युग की इस बर्बरता को पूंजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति और बढ़ावा देती है। गुजरात के दंगों में विशेष समुदाय के महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, उनके पेट को चीर कर भ्रूण को काट दिया गया- यह किस सभ्य समाज की निशानी है? हमें शासक वर्ग को सरलीकरण का रास्ता दिखाते हुए उसे और दमनकारी बनाने की मांग नहीं करनी चाहिए। बलात्कार पुरुषवादी मानसिकता में है जो इस समाज के जड़ में निहित है। सत्ता के शीर्ष पर हों या कानून के रखवाले हों, उनकी सोच में यह रची-बसी है कि महिला उपभोग की वस्तु है। पंजाब के पुलिस महानिदेशक के.पी.एस. गिल द्वारा भारतीय महिला प्रशासनिक अधिकारी को एक पार्टी में छेड़ना हो या राजस्थान में महिला पुलिस का उसके सहकर्मियों द्वारा थाने में बलात्कार किया जाना बाप द्वारा अपनी बेटी का बलात्कार या भाई द्वारा बहन का बलात्कार। सभी इस पुरुषवादी मानसिकता को दर्शाते हैं। भाजपा शासित गुजरात हो या सपा-बसपा शासित उत्तर प्रदेश या कांग्रेस शासित प्रदेश हो, हर राज्य में बलात्कार जैसा संगठित अपराध नौकरशाहों, सत्ताधीशों या उनके संरक्षण में पलने वाले लोगों द्वारा किया जाता है। अपने को सर्वहारा का हितैषी बताने वाली सीपीएम के राज्य बंगाल के सिंगूर में सीपीएम के कार्यकर्ताओं द्वारा सिंगूर आन्दोलन की नेत्री तापसी मलिक का बलात्कार, फिर उसकी हत्या हो या नन्दीग्राम में सीपीएम नेताओं, कार्यकर्ताओं द्वारा महिलाओं के बलात्कार, सभी इसी श्रेणी में आते हैं। 

बहुसंख्यकमहिलाओं की मानसिकता भी पुरुषवादी सोच से कोई अलग नहीं है जैसा कि म.प्र. के सेमिनार में एक महिला वैज्ञानिक डॉ. अनीता शुक्ला द्वारा ये कहा जाना कि ‘‘लड़की आधी रात में ब्वाय फ्रेंड के साथ क्या कर रही थी, क्यों घूम रही थी?’’ यहां तक कि उन्होंने लड़की को आत्मसमर्पण कर देने की बात भी कह डाली। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित द्वारा महिलाओं को अकेले न निकलने और कपड़े ठीक से पहनने की नसीहत दी जाती है। यहां तक की सीपीएम के पोलित ब्यूरो सदस्य वृंदा करात द्वारा नन्दीग्राम ने बलात्कार में पीडि़ता की मद्द करने के बजाय अपने पार्टी को बचाने वाला बयान दिया कि दस के साथ नहीं चार औरतों के साथ बलात्कार हुआ है।

बलात्कारके कारण के रूप में लड़कियों के भड़काऊ कपड़े पहनना, ब्वाय फ्रेंड या दोस्तों के साथ घूमना, लड़कों से हंस-हंस कर बात करना (जैसा कि हंसने पर केवल पुरुष का ही एकक्षत्र राज्य हो) इत्यादि माना जाता है। ऐसे में यह कैसे माना जा सकता है कि फांसी देने से बलात्कार कम होगा। 132 देशों में फांसी की सजा नहीं है। क्या वहां पर ज्यादा अपराध होते हैं? आंकड़े तो यह बताते हैं कि जिस देश में फांसी की सजा नहीं है वहां पर बलात्कार और अपराध के मामले मृत्यु की सजा देने वाले देशों से कम होते हैं।

हमारेदेश में अलग-अलग वर्ग हैं। एक ही तरह के अपराध के लिए यहां सजा भी अलग-अलग होती है। 16 दिसम्बर की बलात्कार की घटना में फांसी की सजा प्राप्त विनय के पड़ोस में रहने वाली एक महिला ने बीबीसी संवादाता से कहा ‘‘सजा तो जितने भी बलात्कारी हैं, सबको मिलनी चाहिए। जो भी सजा इन गरीब बच्चों को अदालत देगी वो सभी को मिलनी चाहिए। चाहे वे कोई बाबा हो या फिर नेता या अमीरों के बच्चें हों।’’ क्या यह वर्गीय समाज में मुमकिन है?

जबकिसी अरबपति-खरबपति, माफिया सरगना, अफसरशाह, नेता या उसके परिवार के किसी भी पुरुष सदस्य द्वारा ऐसी काली करतूत की जाती है तो पीडि़ता के ही चरित्र पर सवाल उठाये जाते हैं। प्रताडि़त लड़की या महिला का चरित्र ही गलत है, वह पैसा चाहती है, सुर्खियां बटोरने के लिए यह सब कर रही है, डाक्टरी रिपोर्ट का इंतजार करो, मीडिया पर ध्यान मत दो, बेचारे को झूठा फंसा रही है, आदि, आदि कह कर लोगों को दिगभ्रमित किया जाता है ताकि आम जनता पीडि़ता को ही दोषी मानने लगे।

जिसदेश में लोगों के अपने मौलिक-कानूनी अधिकारों को पाने के लिये संघर्ष करना पड़ता है; शासक वर्ग जेलों-लाठियों-गोलियों के बल पर इन संघर्षों को क्रूर तरीके से दमन करता है क्या किसी की जान लेने का वैधानिक अधिकार देना शासक वर्ग को और क्रूर नहीं बनाता है? क्या किसी भी सभ्य-जनवादी-लोकतांत्रिक समाज में फांसी की सजा होनी चाहिए?

सुनील कुमार सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. 
इनसे संपर्क का पता sunilkumar102@gmail.com है.

मुआवजा बड़ा या जंगल?

$
0
0
अविनाश कुमार चंचल

-अविनाश कुमार चंचल

"...अमिलिया के रहने वाले कृपानाथ कलेक्टर के गांव में आने को गांव वालों के संघर्ष की जीत मानते हैं। भोपाल से करीब सात सौ किलोमीटर दूर सिंगरौली जिले में महान जंगल है। इस जंगल को कोयला खदान के लिए कंपनी को देना प्रस्तावित है। जंगल पर निर्भर कई गांव के लोग इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं। गांव के लोग लगातार महान जंगल पर वनाधिकार कानून के तहत अधिकार लेने और निष्पक्ष ग्राम सभा आयोजित कर अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए प्रयासरत हैं। इसी संदर्भ में बारह सितम्बर को जिला कलेक्टर गांव वालों से बात करने आने वाले थे।..."

बारह सिंतबर की सुबह  महान जंगल में बसे गांव अमिलिया में लोगों के बीच उत्साह, उम्मीदों में नयापन साफ दिख रहा था। वजह जिला कलेक्टर खुद चलकर उनके गांव आ रहे थे। मध्यप्रदेश के सिंगरौली जिले के अमिलिया गांव के बेचनलाल अपनी यादों को पकड़ने की कोशिश करते हुए कहते हैं, "ऐसा दो-चार मौका ही आया है जब कलेक्टर साहब गांववालों के बीच आकर लोगों से बात किये हैं"।


अमिलियाके रहने वाले कृपानाथ कलेक्टर के गांव में आने को गांव वालों के संघर्ष की जीत मानते हैं। भोपाल से करीब सात सौ किलोमीटर दूर सिंगरौली जिले में महान जंगल है। इस जंगल को कोयला खदान के लिए कंपनी को देना प्रस्तावित है। जंगल पर निर्भर कई गांव के लोग इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं। गांव के लोग लगातार महान जंगल पर वनाधिकार कानून के तहत अधिकार लेने और निष्पक्ष ग्राम सभा आयोजित कर अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए प्रयासरत हैं। इसी संदर्भ में बारह सितम्बर को जिला कलेक्टर गांव वालों से बात करने आने वाले थे।

कलेक्टर ने सिर्फ अपनी कही, बताते रहे मुआवजे के फायदे

जिला कलेक्टर की सभा में करीब आठ सौ की संख्या में लोग शामिल हुए। सभा में शामिल होने आए धनपत कहते हैं कि "कलेक्टर साहब सभा के दौरान सिर्फ कंपनी के मुआवजे के बारे में बताते रहे। कलेक्टर ने कहा कि जो कंपनी कोयला खनन करेगा उसको तेंदू पत्ता, महुआ, चिरौंजी सहित जंगल में मिलने वाले सभी उत्पादों का मुआवजा देना होगा लेकिन हम गांव वाले तो अपने जंगल को ही देना नहीं चाहते फिर कलेक्टर साहब मुआवजे की बात क्यों कर रहे हैं"।

कृपानाथभी कहते हैं कि "आज कलक्टर साहब कह रहे हैं कि चारागाह के लिए कंपनी जमीन खरीद कर देगी। हम जानना चाहते हैं कि ये जमीन कहां देगी कंपनी ?  यहां से ५०० किमी दूर सागर में कंपनी कह रही है कि जमीन देगी। क्या हम अपने मवेशियों को लेकर रोजाना ५०० किमी दूर चराने जाएंगे?"

सभामें बतौर मुआवजा नौकरी देने के बारे में कलेक्टर ने कहा कि  सामान्य वर्ग में 50 डिसिमिल तथा दलित-आदिवासी वर्ग में 25 डिसिमल जमीन वालों को ही नौकरी दी जाएगी। साथ ही, बिना जमीन वाले लोगों को ड्राइवर और लेबर की तरह काम दिया जा सकता है। 

नौकरीदेने की इस पूरी प्रक्रिया पर ही सवाल उठाते हुए रामनारायण साहू कहते हैं कि "सदियों से हम जंगल पर अपनी जीविका के लिए निर्भर रहने वाले लोग हैं। अपने हिसाब से जंगल जाते हैं, जितनी जरुरत होती है उतने भर काम करते हैं। खेती से खाने लायक अनाज उपजा लेते हैं। हमारा अबतक मनमर्जी  से काम करने और लोभ से दूर रहने का यही राज है। फिर हम क्यों किसी के यहां नौकर बनकर काम करें। बहुत से लोग जिनके पास जमीन नहीं है वे भी जंगल से इसी तरह अपनी जीविका बड़े आराम से चला लेते हैं। फिर क्यों हमें जबरदस्ती ड्राइवर, मजदूर बनाने पर सरकार तुली है?"

वे सीधा सा हिसाब बताते हैं कि गांव में ज्यादातर गरीब तबके के लोग ही हैं। उनके पास जमीन के नाम पर बहुत थोड़ी सी जगह है। इस मुआवजे की नीति का फायदा सिर्फ गांव के बड़े ठाकुरों को ही मिलने वाला है। इसलिए हम अपनी जमीन-जंगल से खुश हैं- हमें न छेड़ा जाय।

कलेक्टर द्वारा बेहतर स्कूल, अस्पताल जैसे लुभावने सपने दिखाने पर उजराज सिंह खैरवार बिफर गए। उजराज बहुत ही वाजिब सवाल उठाते हैं- "क्या कंपनी और कोयला खदान आने से पहले हमार गांव नहीं था? उस समय क्यों नहीं खोले गए अस्पताल और स्कूल? और जब हमें अपने जमीन से ही उजाड़ दिया जाएगा तो हमारे बच्चे कैसे जाएंगे स्कूल? जंगल में इतनी सारी औषधियां मिल जाती हैं कि शायद ही हमें अस्पताल की कभी जरुरत हुई हो।"

हद तो तब हो गई जब अमिलिया के पड़ोसी गांव बुधेर में जिला केलेक्टर ने सभा की शुरुआत में ही कह दिया कि जो लोग अपना जंगल-जमीन बचाना चाहते हैं वे इस सभा से चले जाएं। हम सिर्फ जमीन देने वालों से बात करेंगे। इसपर सभा में उपस्थित लोगों ने अपना विरोध भी दर्ज करवाया। बुधेर गांव की अनिता कहती हैं- "हमने साफ-साफ कह दिया कि हमें अपना जमीन, अपना जंगल चाहिए।"

जिलाकलेक्टर की सभा के बाद  अमिलिया की  महिलाएं खासी नाराज हैं। सभा में शामिल होने आयी सोमारी खैरवार कहती हैं- "सबचीज तो जंगल से ही मिलता है तो कईसे छोड़ दी जंगल। कलेक्टर तो पूरा सभा में हमलोग को चुप ही कराते रहे। हमरा कहां सुनने कलेक्टर।"

महिलाओं में सबसे ज्यादा गुस्सा इसी बात से है कि कलेक्टर ने सभा के शुरुआत में उन्हें बोलने से रोक दिया। कलेक्टर ने कहा कि पहले हमारी सुन लीजिए फिर आप बोल लीजिएगा। हम पूरा दिन बैठकर आपको सुनने ही आए हैं और जब गांव वालों ने बोलना शुरू किया तो वे उठ कर चल दिए।

सुखमन देवी सपाट लहजे में अपनी बात रखती हैं- "कलेक्टर कंपनी की बात सुने। हमसे तो किसी ने पूछा ही नहीं कि जंगल चाहिए कि नहीं चाहिए। कलेक्टर ने मुआवजे के फायदे तो गिना दिए लेकिन वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक वनाधिकार पर कुछ नहीं बोले"।

अपनेबच्चों को घर पर छोड़ कर आयी राधाकली जी की चिंता थोड़ी सी अलग है। वे बताती हैं कि "कलेक्टर हमलोग के रक्षा करने आए थे तो अधूरा मीटिंग करके क्यों चले गए। हमलोग दिनभर घर का काम-काज छोड़ कर धूप में बैठे रहे"।

राधाकली के साथ-साथ फूलमती, पानमति, भगवन्ती, समिलिया,कांति सिंह, बूटल, तिलिया सहित सैकड़ों महिलाओं ने जिला कलेक्टर के रवैये पर गुस्सा जाहिर करते हुए एलान कर दिया है कि "हमको अपने जंगल का पता मालूम है और कुछ नहीं जानते। न पईसा, न नौकरी।" अपने जंगल पर अधिकार के लिए संघर्ष करते रहने का संकल्प दोहराते हुए लोगों ने अपने-अपने घर की राह ली।

दुर्भाग्यहै कि एकतरफा बात करने या फिर फरमान सुनाने वाले कलेक्टर उसी भारत सरकार के नुमाइंदे हैं जो खुद को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र वाला देश घोषित करता है। जब जिला कलेक्टर लोगों को मुआवजे के नाम पर सब्जबाग दिखा रहे थे तो मुझे कुछ ही दूरी पर रिलायंस के पावर प्लांट्स से विस्थापित गांव अमलौरी के रामप्रसाद वैगा याद आ गए। वैगा ने बताया था- "जब कंपनी आने वाली थी। हमसे जमीन मांगने के लिए खुद  कलेक्टर और बांकि साहब लोग आते थे। वे हमें स्कूल-अस्पताल और न जाने किस-किस तरह के विकास के सपने दिखाते। हमें कुर्सी पर बैठाया जाता। सच है कि स्कूल भी खुला, अस्पताल भी लेकिन स्कूल में साहब लोग के बच्चे पढ़ने जाते हैं. अस्पताल में कभी दवा नहीं मिलता। लकवे का ईलाज भी प्राथमिक उपचार केन्द्र पर ही करवाने को मजबूर हैं। विरोध करने पर कलेक्टर साहब भी नहीं सुनते। अब तो कंपनी के फाटक पर भी फटकने नहीं दिया जाता"।

और सिर्फ जिला कलेक्टर ही नहीं मुझे तो पंडित नेहरु भी याद आते हैं, जिन्होंने सिंगरौली में पहले पावर प्लांट लगने के वक्त कहा था कि इसे स्वीजरलैंड बनाएंगे। चाचा नेहरु आकर देखो अपने स्वीजरलैंड को। आजकल मामा शिवराज इसे लंदन बनाने की बात कह रहे हैं।

अविनाश युवा पत्रकार हैं. पत्रकारिता की पढ़ाई आईआईएमसी से. 
अभी स्वतंत्र लेखन. इनसे संपर्क का पता- avinashk48@gmail.com है.

मर्तोलिया रिहा, कहा सरकार में आपदा प्रभावितों के सवालों का जवाब देने का नहीं है साहस

$
0
0
-प्रैक्सिस प्रतिनिधि
डीडीहाट (उत्तराखंड)
प्रेस को संबोधित करते जगत मर्तोलिया और जोध सिह बोरा 

"...डीडीहाट में हुयी पत्रकार वार्ता में मर्तोलिया ने जेल से रिहा होने के बाद कहा कि मुख्यमंत्री की धारचूला की यात्रा पंचायत व लोकसभा चुनाव के लिए थी जो फ्लाप हो चुकी है। धारचूला की जनता दोनों चुनावों मे सरकार को इसका सबक सिखायेगी। पुर्नवास, मुआवजा वितरण, नदी किनारे स्थित गांवो के सुरक्षा सहित जिन 15 सवालों को हमने उठाया था उस पर मुख्सयमंत्री ने कोई ध्यान नही दिया।..."

भाकपा माले के जिला सचिव जगत मर्तोलिया को आज रिहा कर दिया गया. मर्तोलिया ने कहा कि मुख्यमंत्री के भीतर आपदा प्रभावितो के सवालो का जबाब देने पर नैतिक साहस नही था इसलिये उन्हें जेल भेजकर आन्दोलनकारियों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन किया गया है।

डीडीहाट में हुयी पत्रकार वार्ता में मर्तोलिया ने जेल से रिहा होने के बाद कहा कि मुख्यमंत्री की धारचूला की यात्रा पंचायत व लोकसभा चुनाव के लिए थी जो फ्लाप हो चुकी है। धारचूला की जनता दोनों चुनावों मे सरकार को इसका सबक सिखायेगी। पुर्नवास, मुआवजा वितरण, नदी किनारे स्थित गांवो के सुरक्षा सहित जिन 15 सवालों को हमने उठाया था उस पर मुख्सयमंत्री ने कोई ध्यान नही दिया। यह वक्त जनजाति आयोग बनाने का नही था। आपदा प्रभावित परिवारो के लिये घर व गांव बनाने का था लेकिन मुख्यमंत्री ने आपदा प्रभावितों को पूर्ण रूप से निराश किया है। अब प्रभावित अपने संघर्षो के बल पर पुर्नवास को हासिल करेंगे। 

उन्होंने कहा कि पांचवां माह शुरू होने के बाद भी मकान, जमीन, फसल, मवेशी का मुआवजा तक नही मिला है। राहत आयुक्त दीपक रावत चहेरा दिखाकर धारचूला से चले गए, उन्होंने मुआवजे के एक भी चैक पर हस्ताक्षर नहीं किया। इसे उन्होंने क्षेत्रीय काग्रेसी विधायक का निक्कमापन बताया। उन्होने कहा कि जनता की आवाज को दबाने के लिये काग्रेस सरकार और विधायक के इशारे पर धारचूला मे सवैधानिक अधिकारों की हत्या हो रही है। इसके खिलाफ वे प्रत्येक गांवो के जाकर जन-जन तक इस बात को पहुंचा काग्रेस का सफाया करेगें। 

उन्होनेमुख्यमंत्री से 15 सवालो को पूछने के मामले में प्रशासन और पुलिस द्वारा काग्रेस विधायक के इशारे पर की गयी कार्यवाही को न्याय के सिद्धांत के खिलाफ बताया और कहा कि इसके खिलाफ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और उच्च न्यायालय मे शिकायत की जायेगी। इस मौके पर राज्य आन्दोनकारी जोध सिह बोरा ने कहा कि जगत मार्तेलिया पर जो पुलिसिया कार्यवाही की गयी वह सरकार के इशारे पर की गयी है। और आपदा के लिये आन्दोलन करने वालो को दबाने व डराने का काम सरकार कर रही है जिसे बर्दाश्त नही किया जायेगा। 

पूंजी का संरचनात्मक संकट और शिक्षा : यूएस परिघटना : दूसरी क़िस्त

$
0
0
http://www.laika-verlag.de/sites/default/files/JohnBellamyFoster.png
जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
 - जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
अनुवादः रोहित, मोहन  और सुनील

जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर मंथली रिव्यू के संपादक हैं। वे, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑरेगोन में समाजशास्त्र के प्रवक्ता और चर्चित पुस्तक ‘द ग्रेट फाइनेंसियल क्राइसिस’(फ्रैड मैग्डोफ़ के साथ) के लेखक हैं। उक्त आलेख 11अप्रैल 2011 को फ्रैडरल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सेंटा कैटेरिना, फ्लोरिआनोपोलिस, ब्राजील में शिक्षा एवं मार्क्सवाद पर पांचवे ब्राजीलियन सम्मेलन (ईबीईएम) में उनके द्वारा दिए गए आधार वक्तव्य का विस्तार है।  इस लम्बे आलेख को हम ४ किस्तों में यहाँ दे रहे हैं. यह दूसरी क़िस्त है... (पहली के लिए यहाँ क्लिक करें)
-सं.


आर्थिक ठहराव और सार्वजनिक शिक्षा पर हमले

1974-75के बीच शुरू हुई मंदी के साथ आर्थिक ठहराव की शुरूआत और अभूतपूर्व रूप से निरंतर गिर रहे आर्थिक विकास ने चीजों को निर्णायक रूप से बदतर कर दिया था। 1970 से संयुक्त राज्य में दशक दर दशक गिर रहे वास्तविक आर्थिक विकास से शिक्षा पर दबाव लगातार बढ़ता गया। 1960 और शुरूआती 1970 के दौर में के-12 शिक्षा पर जो खर्च लगातार बढ़कर कर 1975 में जीडीपी के 4.1 प्रतिशत तक पहुंचा, एक दशक बाद ही 1985 में गिर कर 3.6 प्रतिशत रह गया। स्थानीय सरकारों से सार्वजनिक स्कूलों को मिलने वाला राजस्व बड़े पैमाने पर हुए संपत्ति कर में हुए बदलाव के चलते 1965 में 53 प्रतिशत से घटकर 1985 में 44 प्रतिशत जा पहुंचा। नतीजतन राज्य स्तर पर फंडिंग और अधिक केंद्रीकृत हो गई।

इसबीच स्कूलों को वृहद समाज में बढ़ रहे घाटे को झेलने करने को मजबूर किया गया। संयुक्त राज्य में गरीबी में जी रहे बच्चों की संख्या 1973 में 14.4 प्रतिशत से 1993 तक 22.7 प्रतिशत हो गई जबकि इन गरीब बच्चों में अत्यधिक गरीब बच्चे जोकि आधिकारिक गरीबी दर में आधे हैं, का कुल अनुपात 1975 में 30 प्रतिशत से बढ़कर 1993 में 40 प्रतिशत से भी ऊपर पहुंच गया। सार्वजनिक स्कूलों में तेजी से गरीब बच्चों की बढ़ती संख्या का दबाव स्कूल के सीमित संसाधनों पर भी पड़ा।

नवउदारवादीदौर में स्कूलों की इन बिगड़ती दशाओं के बावजूद मानकों और मूल्यांकन पर जोर देते हुए सार्वजनिक क्षेत्र के खर्चो में कटौती की गई। स्कूलों को और अधिक बाजार और कॉरपोरेट के संचालन में ढकेला गया और वाउचर और चार्टर सहित कई रूढि़वादी विकल्पों की पहल कर तेजी से निजीकृत किया गया। स्कूल-वाउचर का प्रस्ताव पहले-पहल 1962 में मिल्टन फैडमैन की किताब कैपिटलिज्म एंड फ्रीडमसे लोकप्रिय हुआ जिसमें सरकार द्वारा अभिवावकों को उनके बच्चों की सार्वजनिक शिक्षा के मूल्य के बराबर के वाउचर देने का प्रस्ताव था जिससे वे अपने बच्चे को अपनी पसंद के स्कूल में भेज सकें। इसका मुख्य लक्ष्य निजी शिक्षा को सरकारी सब्सिडी मुहैया कराना था। यह सार्वजनिक शिक्षा पर सीधा हमला था। वहीं सार्वजनिक वित्तपोषित लेकिन निजी प्रबंधन वाले चार्टर स्कूल जोकि शिक्षा विभाग द्वारा न चलाए जाने के बावजूद भी तकनीकी रूप से सार्वजनिक स्कूल थे, 1980 तक शिक्षा के निजीकरण के सूक्ष्म तरीके के उदाहरण के तौर पर दिखाई दिए।

1980 में सार्वजनिक शिक्षा के विरुद्ध, कॉरपोरेट हितों का पैरोकार एक शक्तिशाली रूढि़वादी राजनीतिक गठबंधन खड़ा किया गया। रोनाल्ड रीगन ने कार्टर प्रशासन के दौरान कैबिनेट स्तर पर गठित यूएस सार्वजनिक विभाग को समाप्त करने की इच्छा बार-बार जताते हुए वाउचर शिक्षा के लिए जोर लगाया। रीगन ने शिक्षा पर एक राष्ट्रीय आयोग गठित किया जिसने ए नेशन एट रिस्कशीर्षक वाली अपनी रिपोर्ट 1983 में रखी। जिसका सार था कि यूएस शिक्षा व्यवस्था अपने स्वयं के अंतर्विरोधों के कारण असफल हो रही है। (धीमे आर्थिक विकास, बढ़ती हुई असमानता और गरीबी का इसमें कोई जिक्र नहीं था।) अ नेशन एट रिस्कके अनुसार ‘‘यदि किसी गैरहितैषी शक्ति ने अमेरिका में मौजूद वर्तमान औसत दर्जे की शिक्षण प्रणाली को थोपा होता तो हम इसे आसानी से एक युद्ध से जुड़ा हुआ कृत्य मान लेते। यह मौजूद है क्योंकि हमने इसे होने दिया है। हम वास्तव में विचारहीन, एकांगी शैक्षिक निरस्त्रीकरण का कृत्य कर रहे हैं।’’
          
बड़ेशीतयुद्ध सैन्य ढांचे की शुरूआत करने वाले रीगन प्रशासन ने अमीरों और निगमों को करों में छूट देते हुए, स्कूलों को मिलने वाली संघीय मदद की कटौती को, आसमान छूते हुए संघीय घाटे की लफ्फाजी के आधार पर सही ठहराया। इस कटौती में कम आय वाले विभागों को स्कूलों के लिए मिलने वाली मदद में 50 प्रतिशत कटौती भी सम्मिलित थी। 1980 के दशक अंत और 90 की शुरूआत में नाटकीय रूप से कठोर मानक, उत्तरदायित्व और मूल्यांकन प्रणाली की ओर एकाएक बदलाव देखा गया जिनका अनुसरण केनटुकी और टैक्सास जैसे राज्यों में (बाद में गवर्नर जार्ज डब्लू बुश के अधीन) जबरन किया गया। जार्ज एच डब्लू बुश और क्लिंटन प्रशासन के दौरान शिक्षा सुधारों की यही दिशा रही और जार्ज डब्लू बुश के राष्ट्रपति काल में यह प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के रूपांतरण के लिए विभाजक रेखा के रूप में स्थापित हो गई।
     
2001में शपथग्रहण के तीन दिन के बाद ही बुश ने अपने एनसीबीएल कार्यक्रम को जाहिर किया। 8 जनवरी 2002 को पास एनसीएलबी विधेयक सैकड़ों पेजों का है पर अवधारणागत् रूप में इसके सात मुख्य अवयव हैंः (1) प्रत्येक राज्य को अपने मूल्यांकन और प्रदर्शन के तीन स्तर (बुनियादी, प्रवीणता और आधुनिक) विकसित करने थे। जिसमें राज्यों को प्रवीणता के अपने मानक तय करने थे। (2) संघीय शिक्षा निधि को प्राप्त करने के लिए राज्यों को छात्रों का वार्षिक मूल्यांकन उनके वाचन और गणित में प्रवीणता के आधार पर तीन से आठ ग्रेड तक करना था और हासिल किए गए अंकों को निम्न आर्थिक स्तर, नस्ल, नृजातीयता, विकलांगता स्तर और अंग्रेजी की कम कुशलता के आधार पर विभाजित करना था। (3) प्रत्येक राज्य को एक समयरेखा देनी थी जिससे यह दिखाया जाय कि 2014 तक उसके 100 फीसदी छात्र कुशलता को प्राप्त कर लें। (4) सभी स्कूलों और विद्यालयी विभागों को प्रत्येक विभाजित उपसमूह में 2014 तक सौ प्रतिशत कुशलता प्राप्त करने संबंधी पर्याप्त वार्षिक प्रगति (एवाईपी) को प्रदर्षित करने के आदेश दिए गए। (5) जो विद्यालय सभी उपसमूहों के लिए पर्याप्त वार्षिक प्रगति प्राप्त नहीं कर पाएंगे उन पर आगामी प्रत्येक वर्ष में भारी दंड लगाया जाएगा। चौथे वर्ष में स्कूल में सुधार के कदम उठाए जाएंगे जिसके तहत पाठ्यक्रम परिवर्तन, स्टाफ परिवर्तन या सत्रावधि में वृद्धि की जाएगी। यदि स्कूल अब भी पर्याप्त वार्षिक प्रगति नहीं दे पाए तो पांचवे साल में उसे पुनर्गठित किया जाएगा। (6) पुनर्गठित किए जाने वाले स्कूल को पांच विकल्प दिए जाएंगे जिनका परिणाम अनिवार्य रूप से एक ही होगाः (ए) स्कूल को चार्टर स्कूल में बदल दिया जाएगा। (बी) प्रधानाचार्य और स्टाफ को बदल दिया जाएगा (सी) स्कूल का प्रबंधन निजी हाथों में दे दिया जाएगा। (डी) राज्य स्कूल का नियंत्रण छोड़ देगा (ई) विद्यालयी प्रशासन का व्यापक पुनर्गठन (अधिकांश स्कूल और स्कूली विभाग अपेक्षाकृत कम सुनिष्चित विकल्प होने के कारण आखिरी विकल्प को चुनने के लिए बाध्य थे ताकि अन्य विकल्पों को टाला जा सके।) (7) प्रत्येक राज्य को नेशनल एसेसमेंट ऑफ़ एजूकेशनल प्रोग्रेस नामक एक संघीय परीक्षा में प्रतिभाग करना था जो वैसे तो स्कूल और स्कूली विभागों पर कोई प्रभाव नहीं डालती थी परंतु राज्य की मूल्यांकन प्रणाली में बाहरी नियंत्रण के लिए बनाई गई थी।

एनसीएलबी के तहत पुनर्गठन का दबाव झेलने वाले स्कूलों की संख्या साल दर साल बढ़ती गई। 2007-08 में देश भर में पैंतीस हजार स्कूल पुनर्गठन की प्रक्रिया या योजना स्थिति में लाए गए। यह पिछले साल की तुलना में सीधे 50 फीसदी ज्यादा था। 2010 में संयुक्त राज्य में कई स्कूल एनसीएलबी के नियमों के तहत एवाईपी बनाने में असफल रहे और इनकी संख्या पिछले वर्ष के 33 प्रतिशत की तुलना में 38 प्रतिशत जा पहुंची।

एनसीएलबीने स्कूलों और अध्यापकों पर नए भार और अपेक्षाओं को तो बढ़ाया लेकिन यूएस सरकार द्वारा प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा पर खर्च होने वाले जीडीपी के प्रतिशत को नहीं बढ़ाया गया। यह खर्च 1990 के दशक में बढ़ाया गया था। 2001 में एनसीएलबी की ठीक शुरूआत के समय यह खर्च बढ़ते हुए जीडीपी का 4.2 प्रतिशत पहुंचा जो कि इसका अधिकतम था। यह खर्च एनसीएलबी के बाद के वर्षों में केवल घटता ही गया और 2006 में 4.0 तक पहुंच गया जो कि 1975 के खर्च के बराबर था।

एनसीएलबी विधेयक बिना बजट का आबंटन किए एक ऐसी व्यवस्था थोपता है जिसमें राज्य द्वारा संचालित सार्वजनिक स्कूल बिना संसाधनों के बड़ी अतिरिक्त लागत को झेलने के लिए विवश होते हैं। बाउल्डर, कॉलरेडो में स्थित नेशनल ऐजूकेशन पालिसी सेंटर के प्रबंध निदेशक और वरमान्ट में स्कूलों के पूर्व अधीक्षक विलियम मैथिसने यह आंकलन किया कि एनसीएलबी के के-12 शिक्षा के राष्ट्रीय बजट में अभी के मुकाबले 20-30 फीसदी की बढ़ोत्तरी करनी होगी। लेकिन शिक्षानिधि के मामूली तौर पर बढ़ने के बजाय यह या तो स्थिर रही या और भी गिरी और यह बात जीडीपी के प्रतिशत और नागरिक सरकार के खर्च दोनों में देखी गई।

राज्य संचालित बड़े शहरी स्कूलों में से न्यूयार्क शहर के मेयर माइकल ब्लूमबर्ग स्कूलमें एनसीएलबी शैली से किया गया सुधार सर्वाधिक चर्चित रहा। अरबपति ब्लूमबर्ग अपने 18 अरब डालरों के साथ 2011 के संयुक्त राज्य में व्यक्तिगत् धनाड्यों की सूची में तेरहवें स्थान पर है। इन्होंने यह अरबों डालर वित्तीय समाचार मीडिया के साम्राज्य के विकास से ब्लूमबर्ग एलपीके जरिए से कमाया।अपनी प्रचार अभियान सामग्री में ब्लूमबर्ग ने घोषणा की कि स्कूल आपातकाल की स्थितिमें हैं। मेयर के अपने चुनाव के दौरान उसने तेजी से के-12 शिक्षा को कॉरपोरेट वित्तीय दिशा की ओर बदलने की बात कही। वाचन और गणित की परीक्षाओं में अंक प्राप्ति की ओर मुख्य जोर था जब्कि पाठ्यक्रम के अन्य विषयों पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया। असफल रहे सार्वजनिक स्कूलों को चार्टर स्कूलों में तब्दील कर दिया गया। हालांकि ब्लूमबर्ग के स्कूलों के पुनर्गठन और निजीकरण के बावजूद संघीय एनएईपी परिक्षा से पता चलता है कि न्यूयार्क शहर में 2003 से 2007 के दौरान वाचन या गणित में कोई महत्वपूर्ण सफलता नहीं हासिल हुई।\             

साहसपूर्ण परोपकार और मूल्य-वर्धित शिक्षा

ब्लूमबर्गअकेला अरबपति नहीं था जिसे स्कूलों के सुधारों ने आकर्षित किया। वित्त और सूचना पूंजी के एकाधिकार की 21वीं सदी में उच्च कॉरपोरेट हलकों में यह विशवास पैदा हुआ है कि अब शिक्षा का वैज्ञानिक तकनीकी और वित्तीय क्षेत्रों के समान ही पूरी तरह से प्रबंधन किया जा सकता है, जिससे (1) शिक्षकों की श्रम प्रक्रिया का नियंत्रण (2) अधिक विभेदित और एकरस श्रमशक्ति के निर्माण के लिए अधीनस्थ शिक्षा और (3) सार्वजनिक शिक्षा का निजीकरण (जहां तक बिना गंभीर प्रतिरोधों के हो सके) संभव हो जाएगा। डिजिटल युग में नौकरशाहीकरण, ट्रैकिंग और परीक्षण पहले की तुलना में अधिक आसान हो गए थे। शिक्षण की श्रमप्रक्रिया का केंद्रीकरण ही इस प्रक्रिया का मकसद था ताकि शिक्षा विज्ञान को लागू करने का तरीका क्लासिक वैज्ञानिक प्रबंधन की तरह शिक्षकों से छीनकर उच्चाधिकारियों को सौंप दिया जाय।

सार्वजनिक स्कूलों को शिक्षकों के बजाय तकनीक पर अधिक ध्यान देने के लिए प्रोत्साहित किया गया यह उस टेलरवादी योजना के नए संस्करण के अनुरूप था जिसमें शिक्षकों को तेजतर्रार मषीनों के उपांगों के रूप में देखा गया था। 

वैज्ञानिकरूप से प्रबंधित शिक्षा का जो स्वप्न 20 वीं सदी में पूरी तरह हकीकत में नहीं बदल सका अंततः 21वीं सदी के डिजीटल पूंजीवाद में पहुंच के भीतर लग रहा था। जार्ज एच डब्लू बुश प्रशासन में सहायक शिक्षा सचिव रहे डिआन रेविच कहते हैं ‘‘तकनीकी विकास के चलते यह संभव हुआ है कि कई राज्य और जिले विशिष्ट छात्र के अंक और उससे संबंधित अध्यापक की जानकारी रख सकें और इसके आधार पर शिक्षक को छात्र की उन्नति और अवनति के लिए जवाबदेह बना सकें।’’ नए रूढि़वादी शिक्षा सुधार आंदोलन का मुख्य नारा मूल्यवर्धित शिक्षा था और छात्रों में वर्धित मूल्य के आधार पर शिक्षकों की क्षमता का मूल्यांकन और इसी गुण के आधार पर उनको भुगतान होना था। इस तरह मूल्यवर्धन, पूंजी के विकास के लिए छद्म रूप में परीक्षा में अंक बढ़ाने से अधिक कुछ नहींथा।  

इक्कीसवींसदी के कॉरपोरेट स्कूल सुधार आंदोलन का नेतृत्व, जिसने सरकार की भूमिका को हाशिये पर धकेल दिया, चार बड़े परोपकारी फाउंडेशनों से आया जो एकाधिकारी वित्तीय सूचना और खुदरा पूंजी के मुख्य प्रतिनिधि थे। ये चार फाउंडेशन हैंः (1) द बिल एंड मैलिंडा गेट्स फाउंडेशन (2) द वैल्टन फैमिली फाउंडेशन (3) द एली एंड एडिटी ब्राड फाउंडेशन और (4) द माइकल एंड सुसैन डैल फाउंडेशन। ये नए किस्म के फाउंडेशन हैं जिन्हें वैंचर परोपकार’ (ये नाम वैंचर कैपिटलिज्म से लिया गया है।) का नाम दिया गया और ‘‘परोपकारी पूंजीवाद‘‘ भी कहा गया। परोपकारी पूंजीवाद को उनकी आक्रामक निवेश केंद्रित तौर तरीकों के आधार पर पहले के फाउंडेशनों से अलग किया जाता है। पारंपरिक अनुदान से बचते हुए पैसे को सीधे चुने हुए प्रोजक्टों में डाला जाता है। एक मूल्यवर्धित कार्यप्रणाली अपनाई गई है जिसमें व्यापार के समान ही तुरंत परिणामों की अपेक्षा की जाती है। अपनी कर मुक्त स्थिति के बावजूद परोपकारी पूंजीवादीसरकारी नीतियों को सीधे प्रभावित करने के लिए व्यग्र दिखाइ देते हैं।

माइक्रोसॉफ्ट के बिल गेट्स द्वारा बनाए गए द गेट्स फाउंडेशनकी संपत्ति 2010 में 33 अरब अमेरीकी डालर थी जो कि वित्तीय पूंजीपति वारेन बफे से 30 अरब डालर के वार्षिक योगदान के साथ और बढ़ गई। 2008 में वॉलमार्ट स्टोर्स के मालिकों के वॉलटन फाउंडेशन के पास दो अरब डालर की संपत्ति थी। 1999 में अपने उद्यम सनअमेरीका (जो कि बाद में दिवालिया हुआ और जिसे 18 अरब डालर का बेलआउट पैकेज दिया गया) को बेचने वाले रियल एस्टेट वित्तीय अरबपति एली ब्राड द ब्राड फाउंडेशन के निदेशक हैं जिसकी 2008 में कुल संपत्ति 1.4 अरब डालर है। जबकि डैल के संस्थापक और सीईओ माइकल डैल के द माइकल एंड सुसैन डैल फाउंडेशन की संपत्ति 2006 में लगभग एक अरब डालर से अधिक थी।  

डैलफाउंडेशन के क्रियाकलाप डैल (कंपनी) की गतिविधियों से जुड़ी हुई रही जो कि सार्वजनिक स्कूलों को बाजार के तौर पर देखने वाली तकनीक आधारित कंपनियों में से प्रमुख है। डैल फाउंडेशन तीन अन्य परोपकारी पूंजीवादी संगठनों के साथ साथ ही काम करता है (गेट्स और बोर्ड फाउंडेशन इसके बड़े दानदाता हैं)। यह प्रदर्शन के प्रबंधन पर विशेष जोर देता है। जोकि सूचना तकनीकी को स्कूलों में जवाबदेही का आधार बनाने पर केंद्रित है।

यहसीधे तौर पर शिक्षा बाजार के डैल के अपने आर्थिक हितों से जुड़ा हुआ है। क्योंकि डैल, एप्पल के बाद के-12 स्कूलों में तकनीकी हार्डवेयर सुविधाएं मुहैया कराने वाली दूसरी कंपनी है। द डैल फाउंडेशन दावा करता है कि वो स्कूल के बेहतर प्रबंधन के लिए शहरी स्कूलों की, सूचना के एकत्रीकरण विश्लेषण और प्रतिवेदन में तकनीक के इस्तेमाल में मदद कर रहा है।

यहचार्टर स्कूलों में लाभ आधारित शिक्षा प्रबंधन संगठनों और चार्टर स्कूलों के रियल एस्टेट डेवलेपमेंट का बड़ा समर्थक है।

शिक्षणेत्तरक्षेत्रों (जैसे व्यापार, कानून, सेना आदि) से पेशेवरों की भर्ती करते हुए नवउदारवादी पूंजीवादी शिक्षा सुधार के लिए नए कैडर के प्रशिक्षण में ब्राड फाउंडेशन अव्वल है। इसका लक्ष्य उन्हें उस कैडर को स्कूल के उच्च प्रबंधन स्टाफ और स्कूल अधीक्षण में स्थान देना है। द ब्राड सेंटर फॉर द मेनेजमेंट ऑफ़ स्कूल सिस्टम्स के दो कार्यक्रम मुख्य हैः (1) द ब्राड सुपरिटेंडेंट्स ऐकेडमी, जिसमें स्कूल सुपरिटेंडेंट्स को प्रशिक्षण दिया जाता है और बड़े शहरों में औहदे दिलाए जाते हैं। (2)द ब्राड रेजीडेंसी इन अर्बन एजूकेशन जो कि अपने स्नातकों को स्कूली विभागों में उच्च स्तरीय प्रबंधकीय औहदे दिलाने के लिए स्थापित की गई है। ब्राड फाउंडेशन अपने स्नातकों को वेतन की पेशकश करते हुए और इस तरह उन्हें कठिन दौर से गुजर रहे स्कूलों के लिए आकर्षक बनाते हुए ऐसी नियुक्तियों में तेजी लाता है और स्कूल बोर्डों को उच्च कारपोरेट की सेवाओं को लेने के अवसर देता है। ब्राड के स्नातकों की सेवाएं लेकर स्कूली विभाग ब्राड फाउंडेशन से अतिरिक्त धन लेने के लायक बन जाते हैं। ब्राड इंस्टिट्यूट फॉर स्कूल बोर्ड्स का मिशन स्कूल बोर्ड के देश भर से चुने हुए सदस्यों को पुनः प्रशिक्षण देकर उन्हें स्कूलों के कॉरपोरेट प्रबंधन मॉडल के अनुरूप ढालना है।

इसकी आधिकारिक वैबसाइट के अनुसार 2009 में ब्राड ऐकेडमी के स्नातकों द्वारा शहरी स्कूलों के अधीक्षक के पदों में से 43 फीसदी पर नियुक्ति पाई गई। द ब्राड फाउंडेशन शिक्षा के निजीकरण का कट्टर समर्थक है। विशेष रूप से इसकी दिलचस्पी शिक्षक संघों को तोड़ने, शिक्षकों के लिए योग्यता भुगतान की व्यवस्था स्थापित करने और सामान्यतया शिक्षा को गैरपेषेवर रूप देने में है ताकि इसे शुद्ध व्यावसायिक तौर पर श्रमशक्ति का सर्वहाराकरण करते हुए चलाया जा सके। 2009 में ऐली ब्राड ने न्यूयार्क में एक भाशण के दौरान कहा हम पढ़ाने के तरीके और पाठ्यक्रम अथवा इनमें से किसी के बारे में कुछ भी नहीं जानते। परंतु हम प्रबंधन और शासन के बारे में जानते हैं।
        
नाओमीक्लेन के शब्दों में कहें तो सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का विध्वंस कर इसका निजीकरण करने की कोशिश द्वारा ब्रोड फाउन्डेशन झटका सिद्धांतको बढ़ावा दे रहा है, यह विनाशक पूंजीवादका ही एक रूप है।अप्रैल 2009 में सिएटल एज्युकेशन ने कैसे जानें कि आपके स्कूल में ब्रोड वाइरस आ चुका हैनाम से अपनी वेबसाइट पर अभिभावकों हेतु एक निर्देशिका प्रकाशित की। ब्रोड वाइरस के लक्षणों में से हैः

आपकेजिले में अचानक स्कूल बंद होने लगते हैं... जिला अभिलेखों तथा वक्तव्यों में औपलब्ध्कि असफलतातथा औपलब्धिक असफलता की भरपाईजैसे मुहावरों का प्रयोग बढ़ जाता है... अचानक से बाहरी वैज्ञानिक सलाहकारों की आमद बढ़ जाती है। निजी चार्टर स्कूलों में बदले गए सार्वजनिक स्कूलों की संख्या बढ़ जाती है... गणित की सरल किताब लागू की जाती है... शायद भाषा की भी सरल किताब लागू की जाए... जिला प्रशासन घोषित करता है कि जिले की इकलौती समस्या शिक्षक हैं। आपके बच्चों पर तरह-तरह की परीक्षाएं लाद दी जाती हैं... आपके स्कूल की परिषद स्टॉकहोम सिन्ड्रोम के लक्षण दिखाने लगती है। वे एक राय से सुपरिन्टेंडेंट के पीछे-पीछे मतदान करने लगते हैं। सुपरिंटेंडेंट तथा उसकी रणनीतिक योजनाके लिए ब्रोड तथा गेट्स फाउन्डेशन की ओर से मदद आने लगती है। गेट्स फाउन्डेशन आपके जिले की तकनीकी सामग्री या चार्टर स्कूलों में शिक्षकों की क्षमता बढ़ाने हेतु इमदाद मुहैया करवाती है।

वॉलमार्टकॉरपोरेशन ने अपना धंधा श्रमिकों को कम वेतन देकर फैलाया है। यह यूनियनों की विद्वेषपूर्ण विरोधी है तथा इसने खुदरा क्षेत्र में खुद को एकाधिकारी शक्ति बना लिया है- वाल्टन फाउण्डेशन इसी के नज़रिये को अभिव्यक्त करती है। यह हर संभव तरीके से शिक्षा पर सार्वजनक क्षेत्र के एकाधिकार को खत्म करना चाहती है। इसके तरीके हैं- शिक्षक संघों पर हमले करना, निजी चार्टरों को बढ़ावा देना, स्कूल चयन इत्यादि। रेविच कहते हैं- ‘‘वाल्टन परिवार फाउण्डेशन के योगदान की समीक्षा करने पर जाहिर होता है कि यह परिवार सार्वजनिक क्षेत्र के विकल्प पैदा करना, उन्हें मज़बूत करना तथा उन विकल्पों को बढ़ावा देना चाहता है। उनका एजेन्डा है चुनाव, प्रतिस्पर्ध और निजीकरण।’’

...अगली क़िस्त में जारी

अंग्रेजी में इस आलेख को मंथली रिव्यू की वेबसाईट में पढ़ा जा सकता है.

पूंजी का संरचनात्मक संकट और शिक्षा : यूएस परिघटना : तीसरी क़िस्त

$
0
0
http://www.laika-verlag.de/sites/default/files/JohnBellamyFoster.png
जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
 - जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
अनुवादः रोहित, मोहन  और सुनील

जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर मंथली रिव्यू के संपादक हैं। वे, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑरेगोन में समाजशास्त्र के प्रवक्ता और चर्चित पुस्तक ‘द ग्रेट फाइनेंसियल क्राइसिस’(फ्रैड मैग्डोफ़ के साथ) के लेखक हैं। उक्त आलेख 11अप्रैल 2011 को फ्रैडरल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सेंटा कैटेरिना, फ्लोरिआनोपोलिस, ब्राजील में शिक्षा एवं मार्क्सवाद पर पांचवे ब्राजीलियन सम्मेलन (ईबीईएम) में उनके द्वारा दिए गए आधार वक्तव्य का विस्तार है।  इस लम्बे आलेख को हम ४ किस्तों में यहाँ दे रहे हैं. यह दूसरी क़िस्त है...
(पहली क़िस्त के लिए यहाँ और दूसरी क़िस्त के लिए यहाँक्लिक करें)
-सं.


Capitalism never solves it's crisis
दूसरी क़िस्तसे आगे...

पिछले कुछ सालों में गेटस फाउण्डेशन- जो कि इन परोपकारी फाउण्डेशनों में अब तक सबसे बड़ा निकाय है- ने ब्रोड फाउण्डेशन के समरूप एजेन्डा अपनाना शुरू कर दिया है, ये दोनों अक्सर मिलकर कार्य करते हैं। बिल गेटस ने तो घोषित भी कर दिया है कि प्रमाण-पत्र, अनुभव, ऊँची डिग्री अथवा किसी विषय के विषद ज्ञान तथा शैक्षणिक योग्यता में कोर्इ सीधा-सीधा संबंध नहीं है। गेटस फाउण्डेशन ने ऐसे समूहों के समर्थन में अरबों डालर खर्च किए हैं जिनका कार्य है सार्वजनिक नीतियों पर दबाव बनाना, ताकि सार्वजनिक शिक्षा की पुनर्संरचना हो सके, चार्टर स्कूलों को बढ़ावा मिले, निजीकरण की खुली वकालत हो तथा यूनियनों को खत्म किया जाए, इसने टीचर प्लस को अरबों डालर दिए हैं यह शिक्षा के पुनर्संरचनन का हिमायती है तथा कहता है कि अध्यापकों की सेवावधि मूल्यांकन (अंक प्रापित) के आधार पर तय की जानी चाहिए न कि वरिष्ठता के आधार पर, जैसा कि यूनियनें इसरार करती है। गेटस फाउण्डेशन टीच फार अमेरिका, नामक एक कार्यक्रम की भी मदद करती है जिसके अंतर्गत प्रत्याशियों को कालेज से सीधे भर्ती किया जाता है, उन्हें 5हफ़्ते के लिए प्रशिक्षण शिविर में रखा जाता है और उन्हें कम आय वाले स्कूलों में भेज दिया जाता है- अक्सर 2या 3साल के लिए- उन्हें अध्यापन-प्रशिक्षण के लाभ से या व्यवसायिक प्रमाण पत्र दिलवाने वाले प्रशिक्षण से महरूम करते हुए।

गेट्स फाउण्डेशन ने शिकागो 'रिनेसां 2010को 90मिलियन डालर की माली इमदाद दी थी। तब इस 'कायापलटकारी रणनीति का अध्यक्ष शिकागो सार्वजनिक स्कूल का सीर्इओ आर्ने डंकन था। डंकन का शिकागो झटका सिद्धांत पहलकदमी को गेटस फाउण्डेशन द्वारा वित्तपोषित 'कायापलटकारी चुनौती के अनुरूप व्यवसिथत किया गया था। डंकन अब अमेरीकी सेक्रेटरी आफ एज्युकेशन है तथा 'कायापलटकारी चुनौती को स्कूल पुनसंरचना की'बाइबिल बताता है। उसने इसे संघीय नीति के साथ समाकलित कर के इसे ओबामा की रेस टू द टाप नीति की बुनियाद बना दिया है। अपनी2009-2010की वार्षिक रिपोर्ट में ब्रोड फाउण्डेशन ने घोषित किया कि ''ओबामा के राष्ट्रपति पद पर चुनाव तथा उनके द्वारा शिकागो सार्वजनिक स्कूल्स के भूतपूर्व सीर्इओ आर्ने डंकन को अमेरिकी सेक्रेटरी आफ एज्युकेशन बनाए जाने से शैक्षणिक संशोधन संबंधी हमारी आशाएं एक नर्इ ऊँचार्इ पर पहुँच गर्इ है। आखिरकार नक्षत्र हमारे पक्ष में आ गए हैं। डंकन तथा ओबामा के भूतपूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार लारेंस सम्मटर्स फरवरी 2009तक ब्रोड फाउण्डेशन के शैक्षणिक निकाय के निदेशक मण्डल में शामिल थे।

पद संभालते ही डंकन ने सेक्रेटरी आफ एज्युकेशन दफ़्तर में परोपकारितापूर्ण कार्यकलापों हेतु निदेशक का एक पद स्थापित किया तथा घोषित किया कि शिक्षा विभाग, अक्षरश:, 'व्यवसाय’ हेतु खुला है। उसने विभाग में वरिष्ठ पदों पर गेटस तथा ब्रोड कर्मचारियों को भर दिया।  जोआन वेइस्स अब डंकन का विभागीय प्रमुख हैं। वह ओबामा के रेस टू द टाप कम्पीटिशन का निदेशक था। साथ ही वह न्यूस्कल्स वेंचर फण्ड का भी निदेशक रह चुका है- शिक्षा पुनर्संरचना संबंधी इस संगठन को ब्रोड तथा गेटस फाउण्डेशन से भारी मात्रा में धन मिलता है।

रेस टू द टाप के अंतर्गत ओबामा प्रशासन ने चुनिंदा राज्यों को अतिरिक्त वित्तीय राशि उपलब्ध करवार्इ (11राज्य तथा कोलमिबया जिला वियजी घोषित किए गए)। यहां सिर्फ उन्हीं राज्यों को चुना गया जिन्होंने मूल्यांकन, चार्टर, निजीकरण तथा अध्यापकों के सेवाकाल संबंधी प्रावधानों को निरस्त करने संबंधी पुनर्संरचनन योजना को स्वीकार कर लिया था। चयन प्रक्रिया के दौरान गेटस फाउण्डेशन ने हर राज्य में प्राथमिक सुधार योजना का मूल्यांकन किया तथा 15राज्यों को चुना, उनमें से प्रत्येक को इसने 250मिलियन डालर दिए ताकि ये रेस टू द टाप के लिए प्रस्ताव लिखवाने हेतु सलाहकार नियुक्त कर सकें। नतीज़तन शिक्षा प्रदाताओं ने शिकायत की कि गेटस संघीय योजना हेतु स्वयं विजेताओं और हारने वालों का चुनाव कर रहा है। तब गेटस फाउण्डेशन ने अपनी रणनीति बदली तथा कहा कि यह हर उस राज्य को इमदाद मुहैया करवाएगी जो इसके द्वारा निर्धारित आठों मानदण्डों पर खरा उतरता हो। इनमें से एक मानदण्ड था अध्यापकों के सेवाकाल को सीमित करना।

गेटसफाउण्डेशन की 'कायापलटकारी चुनौती योजना, जो कि ओबामा प्रशासन की अद्र्ध-प्रशासनिक नीति है, का केंद्रीय फलसफा है कि 'जनांकिकी तक़दीर का फ़ैसला नहीं करती या 'विद्यालाई गुणवत्ता जिपकोड को मात दे सकती है। 'कोर्इ बहाना नहीं’ के फलसफे वाली यह दलील कारपोरेटीय शिक्षा आंदोलन द्वारा बार-बार दुहरार्इ जाती है। 1966में आर्इ कालमन रिपोर्ट ने पाया कि जब सामाजिक कारकों पर नियंत्रण पा लिया जाता है तो 'स्कूलों के बीच भिन्नता शिक्षार्थियों की उपलबिधयों पर बहुत कम असर डालती है। इस अनुसंधान को चलते लगभग चार दशक हो चुके हैं और रूढि़वादी शिक्षा सुधारक इसी तरह के तर्कोंको हवा में उछालते हुए 'औप्लाब्धिक असफलता से निवारण का पूरा उत्तरदायित्व स्कूलों पर डाल देते हैं।

दसअसल, यूनिवर्सिटी आफ नार्थ कैरोलाइना से संबद्ध रूढि़वादी सांखियकीविद विलियम सैन्डर्स, जो कि विद्यालयों में 'वैल्यू आडिट मूल्यांकन का पक्षपोषक हैं, ने दो टूक कहा कि ''जितने भी आंकड़ों का हम अध्ययन करते हैं- कक्षा का आकार नस्ल, स्थान, ग़रीबी- ये सब आध्यापकीय सक्षमता के सामने फीके पड़ जाते हैं। अगर मुददा सिर्फ विद्यार्थियों की औसत उपलबिधयों को सुधारने भर का होता, जो कि नि:संदेह अध्यापकों पर निर्भर है, तो ऐसे खयाल की महत्ता भी होती। इसके विपरीत मुददा है भिन्नतामूलक वर्ग-जातीय पृष्ठभूमियों (वे विधार्थी भी शामिल है जो अतिनिर्धन और आवासविहीन हैं) से आने वाले विद्यार्थियों के मध्य औसत उपलबिध संबंधी विभेदकों को कम करना। स्कूलों और अध्यापकों को सिर्फ अपने बूते पर यह कार्य करने को कहना असंभव की मांग करने के समान है।

असल में औपलबिधक भिन्नता के संदर्भ में रूढि़वादियों के 'बहानेबाज़ी नहीं’ वाले फलसफे को स्वीकारने का मतलब है एक स्पष्ट यथार्थ की तरफ़ से आंखें बंद कर लेना- वह यथार्थ है बाल-गरीबी। एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी में शिक्षा के प्रोफेसर डेविड बर्लिनर का कहना है कि यह बाल-गरीबी ही वह ''600पाउण्ड का गोरिल्ला है जो अमेरिकी शिक्षा पर बुरा असर डालता है। जैसा कि अर्थशास्त्री रिचर्ड रोथस्टीन ने 'वर्ग तथा विद्यालय’ में लिखा है :

यहनिष्कर्ष कि औपलबिधक भिन्नता 'अवनतिशील विद्यालयों का कुसूर है... भ्रांत एवं ख़तरनाक है। यह इस तथ्य का नकार करती है कि हमारे समाज जैसे वर्गित समाज में वर्गीय सामाजिक लक्षण किस प्रकार स्कूलों में शिक्षण को प्रभावित कर सकते हैं... लगभग आधी सदी से अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों तथा शिक्षाप्रदाताओं के मध्य यह तथ्य बिल्कुल स्पष्ट तौर पर मान्य है कि सामाजिक तथा आर्थिक प्रतिकूलताओं तथा औपलबिधक असफलता में संबंध है। फिर भी ज्यादातर लोग इसके स्पष्ट निहितार्थ से बचते रहते हैं- कि निम्नवर्गीय बच्चों की औपलबिधक भिन्नता कम करने के लिए उनकी सामाजिक तथा आर्थिक दशा में सुधार करना अनिवार्य है, स्कूल सुधार मात्र से कुछ न होगा।

फिरभी रूढि़वादी शैक्षणिक मत यह जिद पाले हुए है कि विद्यार्थियों के जीवन को प्रभावित करने वाले इन वृहत्तर सामाजिक पहलुओं को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। हालांकि वे कभी-कभी स्वीकार तो करते हैं कि गैर-बराबरी, नस्लीय भेदभाव तथा ग़रीबी शैक्षणिक उपलबिधयों पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं, लेकिन ये कारक, उनका अगला तर्क होता है, उसके निर्धारक कारक नहीं हैं। इस मत के हिसाब से ऐसे स्कूलों की स्थापना संभव है जो जरूरतमंद विद्यार्थियों की उपरोक्त समस्याओं का व्यवसिथत रूप से खात्मा कर सकते हैं। इस तरह से विद्यार्थियों की उपलबिधयों संबंधी असल अवरोधकों हेतु स्कूल खुद ही उत्तरदायी हैं: जैसे उत्तरदायिता तथा मूल्यांकन की कमी तथा ख़राब शिक्षण। वर्गीय अक्षमता, बाल-गरीबी, नगरीय अवह्रसन, नस्लीयता आदि को 1960के दशक के फलसफे 'अभाव की संस्कृति’ के अंतर्गत देखा जाना चाहिए: इसके अंतर्गत गरीब एवं अल्पसंख्यक विद्यार्थियों को 'श्रेष्ठ मध्यवर्गीय श्वेत मूल्यों/संस्कृति को सफलता की कंजी के तौर पर अपनाने की सलाह दी जाती थी। एक ठेठ पूंजीवादी मान्यता को अभिव्यक्त करते हुए गेटस फाउण्डेशन इसरार करती है कि स्कूल सब विद्यार्थियों का 'उद्धार कर सकते हैं, इससे फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें कैसी-कैसी असुविधाओं का सामना करना पड़ता है।

'कायापलटकारीचुनौती ने अपनी शुरुआत में ही स्वीकार किया कि एनसीबीएल के अंतर्गत स्कूलों की एक बहुत बड़ी संख्या को पुनर्संगठन की जरूरत है। 2009-10में ही ऐसे स्कूलों की संख्या 5हजार तक तय की गर्इ, यह देशभर में सिथत स्कूलों का 5फीसदी है। बड़ी समस्या यह है कि देशभर में कुल विद्यार्थियों का 35फीसदी तथा अल्पसंख्यक वर्ग के विद्यार्थियों का 2तिहार्इ हिस्सा निर्धन स्कूलों में पढ़ता है, इनका प्रदर्शन निम्न स्तर का रहा है। रिपोर्ट का दावा है कि औपलबिधक भिन्नता को खत्म करने में गरीबी एक बड़ी बाधा तो है, लेकिन यह कोर्इ 'अलंघ्य अड़चन’ नहीं है। बहुत कम मुआमलों में ऐसा होता है, जैसा कि प्रकीर्ण-आरेखों की एक श्रृंखला से स्पष्ट हुआ, कि अधिक गरीबी वाले स्कूलों का प्रदर्शन भी ऊँचा रहा है (एचपीएचपी स्कूल)। 'कायापलटकारी चुनौती’ के नज़रिये से ये एचपीएचपी स्कूल बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि ये ग़रीबी और स्कूल की प्रगति के मध्य सादृश्यता को गलत साबित करते हैं। ऐसे बिरले एचपीएचपी स्कूलों को गेटस फाऊण्डेशन चार्टर स्कूल या 'चार्टर जैसे स्कूल मानती है: ये विद्यालयी परिषद, परंपरागत पाठयक्रम, प्रमाणित शिक्षकों तथा शिक्षक संघों से मुक्त हैं तथा उच्च उत्पादकता वैल्यू एडिड वाले व्यावसायिक सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करते हैं। जवाब साफ है : ''असफल स्कूलों का चार्टरीकरण किया जाए। लेकिन चूंकि स्कूलों अथवा जिलों ने इस विकल्प को तुरंत स्वीकार नहीं कर लिया था, अत: यह जरूरी हो गया था कि उन्हें ''चार्टर-संबंधी प्रविषिट-अंक या जिला-प्रशासित स्कूलों में''चार्टर जैसे नियमों और नियंत्रण में से चुनाव करने के लिए तैयार किया जाए। इस तरह से यह प्रक्रिया 'सार्वजनिक स्कूलों को चार्टर स्कूलों में उच्च प्रदर्शन दिखाने वाली प्रक्रिया के अनुकूल ढालने का बहुप्रतीक्षित साधन बन जाएगी- और अंतत: उनका चार्टरीकरण कर देगी।

ओबामाप्रशासन ने गेटस फाउण्डेशन के इस फलसफे का पालन किया है, जिला प्रशासित सार्वजनिक स्कूलों के मुकाबिल चार्टर स्कूलों को बढ़ावा दिया जा रहा है और जिला स्कूलों को चार्टर जैसे अभिलक्षणों को अपनाने के लिए तैयार किया जा रहा है। इससे संघीय वित्तीय मदद में कमी का ख़तरा पैदा हो गया है जबकि चार्टर स्कूलों की संख्या बढ़ती जा रही है।

चार्टरस्कूल बस नाममात्र के ही सार्वजनिक स्कूल हैं : वे सार्वजनिक वित्तपोषण पर निर्भर है और उन्हें अपने पास आए हर विधार्थी को दाखिल करना होता है। ये स्कूल एक 'चार्टर या अनुबन्ध के अनुसार चलते हैं, जो सार्वजनिक प्राधिकरण तथा स्कूल के संचालकों के मध्य उत्तरदायित्व की व्यवस्था करता है। इस तरह से ये स्कूल असल में संविदा द्वारा हस्तांतरित स्कूल है, निर्वाचित स्कूल परिषद तथा जिला प्रशासन से स्वतंत्र रहकर कार्य करते हैं, साथ ही सार्वजनिक स्कूलों पर लागू होने वाले बहुत से नियम भी इन पर लागू नहीं होते। सिद्धांतत: चार्टर की स्थापना कोर्इ भी कर सकता है (अभिभावकगण, शिक्षकगण, सामुदायिक सदस्य, गैर-मुनाफाकांक्षी संगठन या मुनाफाकांक्षी संगठन), व्यवहार में लेकिन यह प्रक्रिया कारपोरेटिया प्रबंधन शैली तथा 'निवेशक-हितार्थ’ प्रभुत्व की दिशा में बढ़ी है। यह या तो बड़े निजी निगमों के वित्तीय समर्थन तथा निर्देशन द्वारा घटित हुआ है, जैसा कि बहुत से गैर-मुनाफा चार्टर संघों के मुआमले में हुआ, या फिर मुनाफाधारित र्इएमओज द्वारा स्कूलों का सीधे ही नियंत्रण संभाल लेने की वजह से हुआ।

2005में हरीकेन कैटरीना की तबाही के बाद न्यू आर्लियेंस तुरता-फुर्ती सार्वजनिक स्कूलों का चार्टरीकरण कर दिया। जैसा कि 2010में डैनी वेल ने 'आपदा पूंजीवाद : न्यू आर्लियेंस में शिक्षा के चार्टरीकरण तथा निजीकरण का पुनरीक्षण में स्पष्ट किया, ''19से भी कम महीनों के दौरान (कैटरीना के बाद) न्यू आर्लियेंस में ज्यादातर सार्वजनिक स्कूलों का चार्टरीकरण कर दिया गया था और न सिर्फ सभी सार्वजनिक स्कूलों के शिक्षकों को नौकरी से निकाल दिया गया था बल्कि सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार अथवा अन्य किसी भी अनुबंध को चिन्दी-चिन्दी कर दिया गया। 2008तक चार्टरीकृत स्कूलों में आधे से ज्यादा विद्यार्थियों का नामांकन हुआ, जबकि कैटरीना हादसे से पहले यह अनुपात मात्र 2फीसदी था। इनमें से ज्यादातर स्कूल मुनाफाकांक्षी र्इएमओज द्वारा चलाए जाते हैं।

'रिथिंकिंगस्कूल्स की प्रबंधक संपादक बारबरा माइनर लिखती हैं कि हालांकि चार्टर स्कूल आंदोलन की शुरूआत प्रगतिशील थी लेकिन आज यह उन लोगों को आकर्षित करता है जो कि 'मुक्त बाजार, निजीकरण एजेंडे से संबंधित हैं। पिछले दशक के दौरान इन निजीकरण-लाभार्थियों का चार्टर स्कूल आंदोलन में प्रभुत्व बढ़ गया है।‘ या, जैसा कि प्रतिष्ठित शिक्षा-अन्वेषक डेबोरा मेर्इयर अपनी पुस्तक 'इन स्कूल्स वी ट्रस्ट’ में लिखते हैं ''चार्टर स्कूलों ने शुरू में जो उम्मीदें दिखार्इ थीं वे जल्द ही ध्वस्तहो गई, ये स्कूल एक जैसे चेन-स्टोर्स में बदल गए, इनका नियंत्रण स्वतंत्रमना 'मम्मी-पापा’ के हाथ में न था, जैसा कि हमने सोचा था, बलिक दुनिया के सबसे ताकतवर खरबपति इनके मालिक थे।

हारलेम चार्टर स्कूल्स- जिन्होंने 2010में आर्इ प्रति-सार्वजनिक स्कूल, प्रति-शिक्षक संघ डाक्यूमेंट्री फिल्म 'वेटिंग फार सुपरमैन’ का कीर्तिगान किया था- कुछेक छत्र-चार्टर स्कूल निगमों द्वारा चलाए जा रहे हैं। इन्हीं में से एक, द सक्सेस चार्टर नेटवर्क के 9सदस्यीय बोर्ड में से 7हेज फण्ड तथा निवेशक कंपनियों के निदेशक हैं, 8वां न्यू स्कूल्स वेंचर फंड (इसे गेटस तथा ब्रोड फाउण्डेशन से भारी मात्रा में धन मिलता है) का प्रबंधकीय सहयोगी है और 9वां इंस्टीटयूट आफ स्टूडेण्ट अचीवमेन्ट (कारपोरेट प्रायोजित गैर मुनाफा सगठन जिसे एटी & टी से काफी धन मिलता है, स्कूल पुनर्संगठन विशेषज्ञ) का प्रतिनिधि है। इस बोर्ड में न तो कोर्इ अभिभावक शामिल है, न कोर्इ शिक्षक तथा न कोर्इ सामुदायिक सदस्य ही। जैसा कि न्यूयार्क टाइम्स ने अभिव्यक्त किया-न्यूयार्क में हेज़ फण्डस ही चार्टर आंदोलन का 'उत्केन्द्र है। वित्तीय पूंजी सहज ही चार्टर स्कूलों की ओर आकर्षित है क्योंकि ये (1) सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित है लेकिन इनका प्रबंधन निजिगत है तथा बड़े निकायों द्वारा इनकी स्थापना रणनीतिक रूप से अहम स्थलों पर की गर्इ है, (2) ज्यादातर यूनिहनहीन (और यूनियनद्वेषी) हैं, (3) मूल्यांकन, डाटा संग्रहण तथा तकनीकीकरण पोषी हैं, (4) कारपोरेट किस्म के प्रबंधन हेतु तत्पर हैं, और (5) वित्तीय प्रबंधनाधारित बड़ी इमदाद के संग्रहकोष हैं।

गैर-मुनाफाकांक्षी चार्टर स्कूल भी निजी मुनाफा-उत्सर्जक रणनीतियों में भागीदार बन सकते हैं। जैसा कि माइनर ने लिखा है: ''लोग हार्लेम्स चिल्ड्रन जोन से भी पैसा बनाएंगे (यह हार्लेम के दो सबसे बड़े चार्टर संगठनों में से एक है जिनकी ‘वेटिंग फार सुपरमैन’ में प्रशंसा की गर्इ है) :
संगठन की 2008की गैर-मुनाफा कर रिपोर्ट के अनुसार इसके पास 194मिलियन डालर की परिसंपत्ति है। लगभग 15मिलियन डालर बचत अथवा अल्पकालिक निवेश में लगाए गए थे और 128मिलियन डालर एक हेज़ फण्ड में निवेशित थे। अब चूंकि ज्यादातर हेज़ फण्ड 2-20के फीस सिद्धांत पर काम करते हैं (2फीसद प्रबंधन फीस तथा हर प्रकार के मुनाफे का 20फीसद), कुछेक सौभाग्यशाली हेज़ फण्ड हार्लेम चिल्ड्रन्स जोन से हर साल लाखों डालर कमाएंगे।

औपलबिधकभिन्नता खत्म करने में चार्टर स्कूलों की भूमिका के बारे में चाहे जितनी ही हवा बांधी गर्इ हो, अनुमानित शैक्षणिक नतीजे हासिल नहीं हुए। 2003में विद्यार्थियों के संघीय एनएर्इपी मूल्यांकन के अनुसार देश भर में चार्टर स्कूल विद्यार्थियों ने सार्वजनिक स्कूल के विद्यार्थियों के बरअक्स कोर्इ महत्वपूर्ण बढ़ोतरी नहीं दिखार्इ (एक समान जातिगतनस्लीय पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों की तुलना), जबकि गरीब चौथे दर्जे के सार्वजनिक स्कूलों के विद्यार्थियों ने पाठन तथा हिसाब में चार्टर विद्यार्थियों को पीछे छोड़ दिया। सो, प्रामाणिक मूल्यांकन के इसके अपने संकुचित पैमानों के हिसाब से भी चार्टर स्कूल आंदोलन असफल ही रहा है।

फिलाडेलिफया ने 2009में घोषित किया कि वहाँ के चार्टर स्कूल असफल हो चुके हैं। हालांकि निजिगत प्रबंधन वाले 28में से 6प्राथमिक तथा माध्यमिक स्कूलों ने सार्वजनिक स्कूलों से बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन 10का प्रदर्शन सार्वजनिक स्कूलों के मुकाबले कमतर रहा। कम-अज-कम चार चार्टर वित्तीय कुप्रबंधन, हितों के टकराव तथा भार्इ-भतीजावाद के मुआमलों में संघीय आपराधिक जांच के दायरे में थे। पेनिसलवेनिया के कुछेक चार्टरों के प्रबंधकों ने अपने चार्टरों के उत्पाद बेचने हेतु कम्पनियां खड़ी कर ली थीं।

अगरचार्टर स्कूल अच्छा प्रदर्शन करते हैं तो भी उनके खिलाफ यह अभियोग तो रहता ही है कि वे जरूरतमंद बच्चों का तयशुदा संख्या तक नामांकन नहीं करते। यूएस शिक्षा विभाग के राष्ट्रीय शिक्षा सांखियकी केन्द्र के भूतपूर्व एवं वर्तमान कमिश्नर जैक बक्ली तथा मार्क श्नाइडर ने 2002-03में एक अध्ययन द्वारा यह पाया कि वाशिंगटन डीसी के 37चार्टरों में से 24चार्टरों ने विशिष्ट शिक्षा विद्यार्थियों का कोटा पूरा नहीं किया था, जबकि 28में अंग्रेजी सीखने वाले विद्यार्थियों का प्रतिनिधित्व न्यून पाया गया।

चार्टरस्कूलों का बहुप्रशस्त कार्यक्रम रहा है नालेज इज पावर प्रोग्राम (केआर्इपीपी) गेटस, वाल्टन तथा ब्रोड फाउण्डेशन्स से लगातार धन मिलता रहता है। बाकी सभी सफल चार्टरों की तरह ही केआर्इपीपी भी लाटरी द्वारा विद्यार्थियों का नामांकन करता है- इससे प्रोत्साहित परिवारों के प्रोत्साहित तथा बेहतर विधार्थी ही नामांकन पाते हैं। केआर्इपीपी चार्टरों के तकाजे भी ज्यादा रहते हैं, विशिष्ट तक़ाज़ों की पूर्ति हेतु विद्यार्थियों को यहां सार्वजनिक स्कूलों की अपेक्षा 60फीसद अधिक वक्त बिताना होता है। ये भारी तकाजे जरूरतमन्द तथा निम्न-प्रदर्शन करने वाले विद्यार्थियों को चार्टर छोड़ने तथा फिर से सार्वजनिक स्कूल में जाने पर मजबूर कर देते हैं। 2008में सैन फैंसिस्को में केआर्इपीपी स्कूलों के बारे में किए गए शोध ने दर्शाया कि पांचवें दर्जे में चार्टर में आए विद्यार्थियों में 60फीसद आठवें दर्जे में पहुँचने तक स्कूल छोड़ चुके थे। रैविच कहते हैं : ''सार्वजनिक स्कूलों को, केआर्इपीपी छोड़कर आए विद्यार्थियों समेत, प्रत्येक प्रार्थी को स्वीकार करना होता है। वे उन बच्चों को स्कूल से निकाल नहीं सकते जो मेहनत नहीं करते, या जिनकी गैर-हाजिरियां ज्यादा हैं, या जो सम्मान प्रदर्शित नहीं करते या जिनके अभिभावक या तो अनुपसिथत रहते हैं अथवा लापरवाह हैं। उन्हें तो उन विद्यार्थियों को भी पढ़ार्इ में रमाने की कोशिश करनी होती है जो स्कूल में आना भी नहीं चाहते। यही सार्वजनिक स्कूलों की दुविधा है।

न्यूआलियेन्स में चार्टर स्कूलों ने अपंग विद्यार्थियों की अवमानना की। नतीज़तन, सदर्न पावर्टी ला सेन्टर ने 4500विकलांग विद्यार्थियों की तरफ से चार्टरों के खिलाफ वैधानिक प्रबंधकीय शिकायत दजऱ् करा दी। शिकायत में न्यू आर्लियेन्स के चार्टरों पर क्रमबद्ध तरीके से विकलांग शिक्षा कानून के प्रावधानों की अवहेलना का अभियोग लगाया गया है।

चार्टरस्कूलों की एक और लाक्षणिकता यह है कि न सिर्फ उनके विद्यार्थियों की ही जरूरत से ज्यादा रगड़ार्इ होती है (जैसा कि केआर्इपीपी स्कूलों में होता है), बलिक शिक्षकों की भी अधिक रगड़ार्इ होती है। वे अक्सर काम की अधिकता तथा कम तनख्वाह के विरोध में हड़ताल कर अपनी असहमति दर्ज कराते हैं। 1997से 2006के बीच राष्ट्रव्यापी स्तर पर हुए चार्टर स्कूल संबंधी एक अèययन में पाया कि नए चार्टर स्कूल शिक्षकों की सालाना 40फीसदी अधिक रगड़ार्इ होती है, चार्टर स्कूलों में लगभग 25फीसदी शिक्षक सालाना स्कूल छोड़ जाते हैं, यह सार्वजनिक स्कूलों के मुकाबले लगभग दो गुना है। सामान्यत: चार्टर स्कूल शिक्षकों को सार्वजनिक स्कूल शिक्षकों से कम तनख्वाह मिलती है, परवर्ती श्रेणी को मिलने वाली दूसरी सुविधाएं अलग से रहीं। मिशिगन सार्वजनिक स्कूल संबंधी एक शोध ने पाया कि जहां चार्टर स्कूलों के शिक्षकों को सालाना 31, 185डालर मिलते हैं वहीं सार्वजनिक स्कूलों के शिक्षकों को 47,315डालर मिलते हैं।


चार्टर स्कूलों की एक बहुत बड़ी संख्य र्इएमओज के हाथों में है। ये मुनाफाकांक्षी कंपनियां चार्टर स्कूलों का प्रबंधन पूंजी संचयन के मकसद से करती है। बहुत सी फर्मेंमुनाफा बढ़ाने हेतु कर्इ तरह की रणनीतियां अपना चुकी हैं, शुरूआत हुर्इ श्रम की दर घटाने से। चार्टर स्कूल सामान्यत: यूनियनहीन हैं तथा कम वेतन देते हैं। वहां कार्यरत शिक्षकों के पास, जैसे कि टीच फार अमेरिका द्वारा मुहैया करवाए गए शिक्षक, अक्सर व्यवसायिक अèयापकीय प्रशिक्षण नहीं होता है। र्इएमओज के लिए राजकीय सेवानिवृत्ति व्यवस्था को मानना जरूरी नहीं है। हालांकि वे प्रतिस्पर्धात्मक आय दरों के अनुसार नियुकितयां करते हैं, फिर भी लाभ बहुत कम हैं तथा वरिष्ठता के साथ वेतन में वृद्धि की संभावना तो दूर की कौड़ी है। कक्षा का आकार अक्सर ही बड़ा होता है। र्इएमओज विद्यार्थियों को मिलने वाली सहायक सेवाओं पर भी कैंची चलाने की कोशिश करते हैं, जैसे: स्कूल लंच कार्यक्रम, यातायात तथा पाठयक्रमेतर गतिविधियां। वे अधिक सीमाबद्ध पाठयक्रम निर्धारित करते हैं जिसका अधिक ध्यानबुनियादी-योग्यताओं के परीक्षण पर रहता है। ये सभी प्रावधान निर्धारित लक्ष्यों को हासिल करने की प्रामाणिक विधियाँ मानी जाती हैं।बहुत-से ताजा तथा विश्वसनीय अèययनों ने सुझाया है कि र्इएमओज चालित चार्टर स्कूल नस्लीय पृथक्करण की ओर भी प्रवृत्त हैं।

...अगली क़िस्त में जारी

अंग्रेजी में इस आलेख को मंथली रिव्यू की वेबसाईट में पढ़ा जा सकता है.

पूंजी का संरचनात्मक संकट और शिक्षा : यूएस परिघटना : चौथी/अंतिम क़िस्त

$
0
0

http://www.laika-verlag.de/sites/default/files/JohnBellamyFoster.png
जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
 - जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
अनुवादः रोहित, मोहन  और सुनील

जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर मंथली रिव्यू के संपादक हैं। वे, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑरेगोन में समाजशास्त्र के प्रवक्ता और चर्चित पुस्तक ‘द ग्रेट फाइनेंसियल क्राइसिस’(फ्रैड मैग्डोफ़ के साथ) के लेखक हैं। उक्त आलेख 11अप्रैल 2011 को फ्रैडरल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सेंटा कैटेरिना, फ्लोरिआनोपोलिस, ब्राजील में शिक्षा एवं मार्क्सवाद पर पांचवे ब्राजीलियन सम्मेलन (ईबीईएम) में उनके द्वारा दिए गए आधार वक्तव्य का विस्तार है।  इस लम्बे आलेख को हम ४ किस्तों में यहाँ दे रहे हैं. यह दूसरी क़िस्त है... 
क्लिक करें)
-सं.

शिक्षा-उदयोग संकुल

स्कूलों की पुनर्संरचना की प्रक्रिया ने निजी शिक्षा उदयोग को बढ़ावा दियाइसे भारी मुनाफ़ा कमाने वाले विकासमान क्षेत्र के तौर पर देखा जा रहा है। CNNMoney.com ने अपनी 16 मर्इ 2011 की रिपोर्ट में कहा कि स्वास्थ्य क्षेत्र के बाद शिक्षा क्षेत्र, 2007 की महान मंदी के उपरांतसर्वाधिक रोज़गार उपलब्ध करवाने वाला क्षेत्र रहा है। शैक्षणिक सेवा क्षेत्र तथा सार्वजनिक कालेजों में 303000 नौकरियां उपलब्ध करवार्इ गई।

2000 में ब्लूमबर्ग बिजनेस वीक ने शिक्षा क्षेत्र में निवेश संबंधी रिपोर्ट में स्कूलों के बाज़ारीकरण तथा निजीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति की ओर इंगित किया। लेग्ग मेसन (एक वैशिवक परिसंपत्ति प्रबंधन फर्म) से जुड़े शिक्षा अन्वेषक स्काट साफेन ने अभिव्यक्त किया कि ''निजी शिक्षा की सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी है सरकारऔर वक्त के साथ मुनाफ़ा-अर्जक क्षेत्र इस व्यवसाय में सरकार को पीछे छोड़ देगा।

निजी शिक्षा उद्योग स्वभावत: ही मूल्यांकन तथा परीक्षण की नर्इ पद्धतियों का समर्थक है। 2005 में थिकइविटी पार्टनर्स एलसीसी  ने 'नया उद्योगनए स्कूलनया बाज़ार : के-12 शिक्षा उद्योग आउटलुक, 2005 शीर्षक से एज्यूकेशन इंडस्ट्री एसोसिएशन के लिए एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इसने पाया कि 2005 में ''500 बिलियन डालर के के-12घरेलू बाज़ार में निजी शिक्षा उद्योग का हिस्सा 75 बिलियन डालर (या कुल व्यय का 15 फ़ीसद) था। राजकीय एवं संघीय सरकारों द्वारा अपनाए जा रहे नए पैमानोंपरीक्षण तथा उत्तरदायित्व के मानदण्डों तथा चार्टर स्कूलों की वृद्धि के परिणामस्वरूप अगले 10 सालों में निजी शिक्षा उद्योग का हिस्सा 163 बिलियन डालर; के-12  शैक्षणिक बाज़ार का 20 फीसद तक बढ़ जाने का अनुमान लगाया गया। 2005 में के-12 ने शिक्षा उद्योग से 6.6 बिलियन डालर का संरचनात्मक तथा हार्डवेयर का सामान ख़रीदा, 8 बिलियन डालर की निर्देशात्मक सामग्री तथा 2 बिलियन डालर का मूल्यांकन (परीक्षण व्यवस्था) संबंधी सामान ख़रीदा। तकनीक पर किया गया ख़र्च (चूंकि साफ्टवेयर को निर्देशात्मक सामग्री में शामिल किया गया था) अनुमानत: 8 बिलियन डालर था। शिक्षा उद्योग की रिपोर्ट निष्कर्षत: कहती है कि यह प्रवृत्ति ''शिक्षा और उद्योग के गहराते समन्वयन को दर्शाती है। पैसा बनाने के ''बहुत से रास्ते” खुल रहे थे।

वृद्धिमान शिक्षा-उद्योग से अर्जित मुनाफ़े का बड़ा हिस्सा विशाल निगमों के पास जाने की संभावना हैख़ासतौर से एप्पलडेलआर्इबीएमएचपी काम्पैकपाम और टेक्सस इन्स्ट्रूमेन्टस (तकनीक)पीयर्सनहारकार्टमैक्ग्रा-हिलथामसन और हाटन मिफिलन (निर्देशात्मक सामग्री)सीटीबी मैक्ग्राहारकार्ट असेसमेन्टथामसनप्लेटो और रिनेसां (मूल्यांकन)और स्कोलेसिटकप्लेटोरिनेसांसाइंटिफिक लर्निंग और लीपफ्राग (परिशिष्ट निर्देशात्मक सामग्री) को बड़ा हिस्सा मिलने की संभावना है। थिंकइकिवटी के-12 रिपोर्ट में छोटी तकनीकी कंपनियों तथा नव्य-स्थापित परिशिष्ट निर्देशात्मक सामग्री उपलब्ध करवाने वाली फर्मों के हस्तगन की प्रक्रिया की ओर इंगित किया गया था। दरअस्लनिर्देशात्मक सामग्री बनाने वाली बड़ी कंपनियों द्वारा छोटी कंपनियों के अर्जन की प्रक्रिया पहले से ही शुरू हो चुकी थी। 9 कंपनियों के पास परीक्षण बाज़ार का 87 फ़ीसद हिस्सा था। कंप्यूटर हार्डवेयर तथा परीक्षणदोनों ही द्रुत वृद्धि वाले क्षेत्र माने गए।

जाने-माने शिक्षा अनुसंधानकर्ता तथा आलोचक जेराल्ड डब्ल्यू ब्रेसी ने 2005 में 'नो चाइल्ड लैफ्ट बिहाइंड : पैसा जाता कहा है? शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित करवार्इ थीउन्होंने बड़ी पूंजीभ्रष्टाचार तथा रिश्वतखोरी पर ख़ास ध्यान दिया था। निजी शिक्षा क्षेत्र के प्रभाव को स्पष्ट करने वाला तथ्य यह है कि जार्ज डब्ल्यू बुश ने व्हाइट हाऊस में अपने प्रवेश के पहले दिन ही (एनसीएलबी के उदघाटन से कुछेक दिन पहले) अपने नज़दीक पारिवारिक मित्र तथा अपनी संक्रमणकालीन टीम के सदस्य मैक्ग्रा तृतीय के साथ मीटिंग की थी। ये मैक्ग्रा हिल के सीर्इओ हैं। बिजनेस राउण्डटेबलजो कि यूएस के 200 सबसे बड़े निगमों का प्रतिनिधित्व करता हैने एनसीएलबी का दृढ़ समर्थन किया था। स्टेट फार्म इन्श्योरेन्स का सीर्इओ एडवर्ड रस्ट जूनियरजिसकी एनसीएलबी के लिए बिजनेस राउण्डटेबल का समर्थन जुटाने में महती भूमिका रही थीएक साथ कर्इ पदों पर कार्यरत था- वह बिजनेस राउण्डटेबल के एज्यूकेशन टास्क फोर्स का चेयरमैन थामैक्ग्रा-हिल का बोर्ड सदस्य था और बुश की संक्रमणकालीन टीम का भी सदस्य था। ब्रसी के मुताबिक एनसीएलबी के अंतर्गत मुनाफ़ा-केन्द्रित शैक्षणिक सेवाओं की वृद्धि की प्रक्रिया एक 'हैरानकुन दोगलापन दर्शाती है-' सार्वजनिक स्कूलों के ऊपर कमरतोड़ दबाव डाला गयाइसके विपरीत 'स्कूलों को सामग्री और सेवाएं मुहैया करवाने वाले निगमों के साथ शिथिलता बरती गर्इ।

पूंजी से परे शिक्षा

नवउदारवादी स्कूल संशोधन आंदोलन तथा कारपोरेट मीडिया द्वारा शिक्षकों और शिक्षक संघों की निरंतर दुर्भावनापूर्ण निंदा ही अमेरिका में शिक्षण के क्षेत्र संबंधी संघर्ष की वास्तविक प्रगति को उजागर कर देती है। रैविच (जिसने डब्ल्यू.एच.बुश और किलंटन दोनों ही प्रशासनों के अंतर्गत काम किया थावह एनसीएलबी का पक्का समर्थक है) ने घोषणा की:

''कारपोरेट स्कूल संशोधन तो असल मक़सद को ढकने का बहाना भर है उनका मक़सद है ट्रेड यूनियनों को उखाड़ फेंकना। कारपोरेट स्कूल संशोधन चाहता है कि सामूहिक सौदेबाजी की इस परंपरा को विधान द्वारा समाप्त कर दिया जाएताकि यूनियनों से छुटकारा पाया जाए। लेकिन यूनियानों के खत्म होते ही बच्चों और कार्य की दशा के बारे में बोलने वाला कोर्इ न रहेगा....”

स्कूलों के बंद होने से आखिर खुशी किस को मिलती हैवाल स्ट्रीट हेज़ फण्डसडेमोक्रेटस फार एजुकेशनल रिफार्म (भेड़ की खाल में भेडि़ये)स्टैण्ड फार चिल्ड्रन (जिसे गेटस फाउण्डेशन से लाखों डालर मिलते हैं)द बिल्योनेयर क्लब (गेटसवाल्टनब्रोड)वाशिंगटन डी.सी. में बैठे रणनीतिकार जिनमें से लगभग सभी को गेटस फाउण्डेशन से पैसा मिलता है। ये बहुत से संपादकीय मण्डलों में पैठ रखते हैं। यह कारपोरेट संशोधन आंदोलन पूरा चकरघिन्नी है। और मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूँ कि हम सही ही इस पूरे शैक्षणिक संशोधन आंदोलन को कारपोरेट संशोधन का लेबल देते हैं।

पूंजीपति-निर्देशित ये नए स्कूल संशोधन ख़ासतौर से एक वजह से स्कूल शिक्षकों और उनकी यूनियनों को निशाना बनाते हैं : कि शिक्षकगण (हालांकि वे अक्सर राजनीतिक रूप से अक्रिय रहते हैं) अपने विधार्थियों पर थोपे जा रहे नए कारपोरेट शिक्षण तथा उनकी अपनी कार्यदशाओं के टेयलरवादीकरण (टेयलरार्इजे़शन) का विरोध करते हैं। शिक्षक खुद को शैक्षणिक व्यवसायिकों के तौर पर देखते हैंलेकिन अब तेज़ी से उनका सर्वहाराकरण किया जा रहा है। सोवे स्कूल पुनर्संरचना योजना तथा बच्चों के वस्तुकरण की प्रक्रिया के सर्वाधिक संभावनाशील विरोधी हैं। इसी वजह से नर्इ परीक्षण विधियां सबसे पहले शिक्षकों को ही निशाना बनाती हैं। वे मूल्यांकन करती हैंसिर्फ विधार्थियों का ही नहींबल्कि मुख्यतया इस बात का कि किस हद तक शिक्षकगण टेयलरवाद (टेयलरर्इज्म) के सामने झुके हैं- ये शिक्षण-विधि का नियंत्रण शिक्षकों से छीनने वाला प्रमुख हथियार है। डंकन ने बाज़ मौकों पर घोषित किया है कि 'रेस टू द टॉप’ की प्रमुख उपलबिध यह रही है कि इसने राज्यों पर दबाव बनाया है कि वे विधार्थी - मूल्यांकन परीक्षाओं के आधार पर शिक्षकों का मूल्यांकन करना तज दें।  जैसा कि रैविच ने 'महान अमेरिकी स्कूल व्यवस्था की मौत और जीवन’ में सुझाया है:

'शिक्षक संघों के बहुत से आलोचक हैं। इनमें उनके अंदर के लोग भी शामिल हैं जिनकी शिकायत है कि उनके नेता कारपोरेट सुधारों के विरूद्ध शिक्षकों का बचाव नहीं कर पाते... लेकिन मीडिया में छाए रहने वाले आलोचक यूनियनों को शैक्षणिक सुधारों की राह में मुख्य बाध के तौर पर देखते हैं। वे यूनियनों को दोषी ठहराते हैं क्योंकि यूनियनें परीक्षा-परिणामों के आधर पर शिक्षकों का मूल्यांकन नहीं होने देना चाहती। वे (आलोचक) चाहते हैं कि प्रशासनों को स्वतंत्रता हो कि वे उन शिक्षकों को नौकरी से हटा सकें जिनके विधार्थियों के अंक नहीं बढ़ रहे हैं तथा नए शिक्षकों की भर्ती कर सकें जो शायद परिणाम सुधार सकें। वे परीक्षा परिणामों को मूल्यांकन का अहम पैमाना बनाना चाहते हैं।

और अब उसी मूल बिन्दु की ओर लौटना मौजूं रहेगा जो कि 1970 में बोवेल्स और जिनटिस ने 'पूंजीवादी अमेरिका में शिक्षण में प्रतिपादित किया था- कि किसी भी ऐतिहासिक समय-काल में उत्पादन के सामाजिक संबंधों तथा शिक्षा के सामाजिक संबंधों में अनुरूपता पार्इ जा सकती है। इस राजनीतिक-आर्थिक नजरिये के हिसाब से वर्तमान में शिक्षा पर बढ़ रहे नवउदारवादी हमले के कारकों में एकाधिकारी-वित्तीय पूंजी के विशिष्ट द्योतक आर्थिक गतिरोधवित्तीयकरण तथा आर्थिक पुनर्संरचना को माना जा सकता है। आर्थिक वृद्धि में गिरावट नेजो कि 1970 के दशक में शुरू हुर्इसिर्फ़ आर्थिक मक़सदों तक सीमित रहने वाले संघर्षों (श्रमिकों के) को कमज़ोर किया। साथ ही समाज पर रूढि़वादियों तथा कारपोरेट ताकतों की प्रभुसत्ता बढ़ने से श्रमिकों के राजनीतिक केंद्र भी कमज़ोर पड़े। वित्तीय और सूचना पूंजी की सापेक्षिक बढ़त नेजिसे उत्पादन में ठहराव से प्रोत्साहन मिलास्कूलों में डिजिटल आधारित टेयलरवाद तथा कठोर वित्तीय प्रबंधन को और गतिशीलता प्रदान की। इसके साथ ही विषमतागरीबी तथा बेरोज़गारी भी बढ़ी क्योंकि पूंजी ने आर्थिक हानियों का बोझ श्रमिकों तथा ग़रीबों पर डाल दिया। अल्पवृद्धिबढ़ती विषमता तथा बढ़ती बाल-दरिद्रता से उत्पन्न दबावों के साथ-साथ जब राजकीय व्यय पर लगे नए प्रतिबंधों का भार भी जुड़ गया तो स्कूल एक भंवर में फंसते चले गए। सार्वजनिक स्कूलजो कि बहुत से समुदायों तथा बच्चों हेतु सामाजिक सुरक्षा का एक बड़ा सहारा थेढहते सामाजिक तथा आर्थिक ताने-बाने हेतु भरपार्इ करने के लिए ज़बरन इस्तेमाल किए गए।

इसी दौरान उभरे 'समृद्धों के विद्रोह’ की वजह से स्कूलों को मिलने वाली स्थानीय इमदाद भी जो कि संपत्तिगत कराधन पर आधारित थी- घटी। राज्य तथा संघीय सरकारें स्कूलों को इमदाद मुहैया करवाने पर मज़बूर हुईस्थानीय नियंत्रण घटा और अपने परंपरागत कारपोरेट प्रबंधन के लक्ष्यों के साथ कारपोरेट वित्तीयकरण माडल प्रभावी हो गया। सुधार हेतु शुरू की गर्इ परीक्षण एवं उत्तरदायित्व की विधियों की विफलता नेभले ही उनके मानदण्ड संकीर्ण होंसमस्या की जड़ के तौर पर शिक्षकों ओर शिक्षक संघों को इंगित किया और उन पर दबाव बनाया। 2007 में वित्तीय बुलबुले के फूटने से तथा इसके बाद आर्इ महान मंदी ने स्कूलों तथा शिक्षक संघों को और अधिक हानि पहुँचार्इ और शिक्षा के क्षेत्र में आपात-संकट की सी स्थिति ला दी।

हालांकि बजट मे के-12 शिक्षा का हिस्सा थोड़ा-सा बढ़ा भी, 2009 में यह 4.3 फ़ीसद तक पहुँचा। यह लेकिन शिक्षा के प्रति उत्तरदायिता की किसी भावना को नहीं दर्शाता है बल्कि महान मंदी के संदर्भ में सरकारी इमदाद के बरखि़लाफ निजी अर्थव्यवस्था की कमज़ोरी ज़ाहिर करता है। सरकारी ख़र्च की गिरती दशा के सूचक ये तथ्य हैं कि अमरीकी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा पर ख़र्च 2001 में कुल सरकारी व्यय का 22.7 फ़ीसद हो गया तथा 2009 में यह 21 फ़ीसद हुआ - यह साफ़ तौर पर इंगित करता है कि कुल सरकारी व्यय में इसका हिस्सा गिरता जा रहा है।

निरंतर अधोगमन की इस सिथति में शिक्षकों पर बढ़ते दबाव और उनका मनोधैर्य तोड़ने की कोशिशें सार्वजनिक शिक्षण व्यवस्था पर सांघातिक प्रहार है क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षकगण शिक्षा-प्रसार (सिर्फ शिक्षण ही नहीं) को अपना उत्तरदायित्व समझकर इस दिशा में प्रयासरत रहे हैं- व्यवस्था के खि़लाफ़ जाकर भी। शिक्षक प्रभुत्ववाद के विरोध में खड़े हुए और वे उस ढ़हती स्कूली व्यवस्था को थामे हुए हैं जो कि उनके असाधारण संघर्ष की अनुपसिथति में अब तक ढह ही चुकी होती। स्टेटस आफ़ द अमेरिकन पब्लिक स्कूल टीचर के ताज़ा सर्वेक्षण के मुताबिक़ अधिकांश शिक्षक हर हफ़्ते 10 घंटे बिना भुगतान के अतिरिक्त कार्य करते हैं (40 घंटा हफ़्ता के इलावा) और औसतन सालाना 443 डालर कक्षा के बजट संसाधनों पर अपनी जेब से ख़र्च करते हैं। शिक्षकों के मज़बूत सामाजिक उत्तरदायिता भाव के बगै़र सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था बहुत पहले ही अपने अंतर्विरोधों का ग्रास बन चुकी होती।

पिछले कुछ दशकों में शिक्षकों की अधिसंख्या आर्थिक संकट तथा वर्गीय-नस्लीय समस्याओं द्वारा बच्चों पर डाले जाने वाले दुष्प्रभावों से निपटने हेतु चलने वाले प्रयासों में हिरावल की भूमिका में शामिल रही है। राष्ट्रीय मूल्यांकन की व्यवस्थाजो कि मुख्यत: शिक्षकों तथा शिक्षक संघों को निशाना बनाने हेतु तैयार की गर्इ हैचाहती है कि शिक्षा का निजीकरण कर दिया जाए तथा विदयार्थियों को नीरस कार्यशैली का मज़दूर-दास बना दिया जाए। इन सब चीज़ों ने शिक्षा को व्यवस्थागत संकट के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है। बहुत से शिक्षकों को नौकरी से निकाल दिया गयाबहुत से खुद ही मरणासन्न सार्वजनिक स्कूलों को छोड़कर चले गए।

सार्वजनिक शिक्षा पर अवनतिशील समाजार्थिक परिस्थितियों के प्रभावों को मददेनज़र रखते हुएशैक्षणिक लक्ष्यों की प्रापित हेतु सुझार्इ गर्इ कोर्इ भी योजना जो विस्तृत सामाजिक समस्याओं और उनके प्रभावों को ध्यान में नहीं रखती हैएक भददा मज़ाक होगी। 1995 में 'टीचर्स कालेज रेकार्ड’ में जीन अनयन ने दशकों की अपनी गवेषणा का निष्कर्ष सार रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा था:

यह तो स्पष्ट हो चुका है कि पिछले कर्इ दशकों से चलता आ रहा स्कूली सुधार अमेरिका के अंदरूनी शहरों में कुछ खास हासिल नहीं कर पाया है। असफल स्कूली सुधार के हालिया अन्वेषण (तथा बदलाव के नुस्खे़) शैक्षणिकप्रबंधकीय या वित्तीय पहलुओं को अलग-थलग करते हैं तथा ये अंदरूनी शहरी स्कूलों को ग़रीबी तथा नस्ल आदि सामाजिक सन्दर्भों से भी काट देते हैं... अंदरूनी शहरों में शिक्षा व्यवस्था की असफलता के संरचनागत कारक राजनीतिकआर्थिक तथा सांस्कृतिक पहलू वाले हैं। इन समस्याओं को हल करने के बाद ही अर्थपूर्ण स्कूल संशोधन योजनाएं लागू की जा सकती हैं। समाज की ग़लतियों का ख़ामियाजा स्कूलों से नहीं भरवाया जाना चाहिए।

पिछले कुछ दशकों मेंसामाजिक पतन तथा इसके साथ ही स्कूलों पर बढ़ते हमलों का जवाब शिक्षकों ने विदयार्थियों का और बड़ा मददगार बनकर दिया है। साथ ही वे राजनीतिक गतिविधियों से भी बचते रहे हैं। लेकिन अब परिदृश्य बदल रहा है। आखि़रकार अमेरिका में शिक्षकोंअभिवावकोंविदयार्थियों तथा सामुदायिक सदस्यों का राजनीतिक प्रतिरोध उभार रहा है- हालांकि अभी से यह नहीं तय किया जा सकता कि यह इंगित क्या करता है।

2010 में एक हार्इस्कूल अध्यापिका तथा काकस आफ़ रैंक एण्ड फाइल एज्यूकेशन (कोर) की नेता कैरोन लुर्इस ने इससे पहले लगातार दो बार यह चुनाव जीत चुके अपने रूढि़वादी प्रतियोगी को हराकर शिकागो शिक्षक संघ के अध्यक्ष पद का चुनाव जीता। यह शिकागो (जो कि डंकन का गृहनगर है) के शिक्षकों की अपनी नौकरीकार्यदशाओं तथा बच्चों के भविष्य के लिए लड़ने की अभिलाषा से ही संभव हुआ। यह संगठन (कोर) शिकागों में डंकन की स्कूलबंदी तथा स्कूलों को राजपत्रित करने वाली ''कायापलटकारी परंपरा के विरूद्ध एक तृणमूल प्रतिरोध के रूप में उभरा।

अप्रैल 2011 में डेट्रायट में विदयार्थियों ने पुरस्कृत तथा सम्मानित कैथरीन फग्यर्ुसन अकादमी की तालाबंदी रुकवाने हेतु विरोध प्रदर्शन किया। यह अकादमी गर्भवती माताओं और कुमारियों के लिया बना एक राजकीय स्कूल है तथा उस जिले में 100 फ़ीसद कालेज दाखि़ले का रेकार्ड रखता है जहाँ एक-तिहार्इ विदयार्थी स्नातक कर ही नहीं पाते। जब शांतिपूर्वक धरने पर बैठे हुए विदयार्थियों तथा उनके समर्थकों को गिरफ़्तार कर लिया गया तो इसे पूरे राष्ट्र की तवज्जह मिली। डेट्रायट पब्लिक स्कूल के आपातकालीन मैनेज़र राबर्ट बाब के आदेश से बड़ी संख्या में स्कूल बंद किए जा रहे हैं। बाब ब्रोड सुपरिन्टेन्डेन्टस अकादमी से 2005 में स्नातक हुआ था। उसे ब्रोड और केलोग्ग फाउण्डेशन से 1.45 लाख डालर का वेतन मिलता है। यह हैरत की बात नहीं है कि बाब की प्रबंधन रणनीति को कुछेक लोग वित्तीय मार्शल ला भी कहते हैं। अप्रैल 2011 में डेट्रायट के सभी 5,466 शिक्षकों को निलंबन के नोटिस थमा दिए गए।

2011 में विस्कानिसन के गवर्नर स्काट वाकर द्वारा उस राज्य में सार्वजनिक क्षेत्र से यूनियनों का खात्मा करने की कोशिश ने वर्ग संघर्ष को और अधिक गहन कर दिया। यह श्रमिक-समुदाय और पूंजी के बीच संघर्ष को एक नया आयाम दे सकता है। वाकर की कार्यपद्धति के विरुद्ध एक आम विरोध के रूप में मर्इ 2011 में बाब पीटरसन को 8,000 सदस्यी मिलवाउकी शिक्षक शिक्षा संघ का अध्यक्ष चुना गया। बाब पांचवीं श्रेणी के अध्यापक हैं और 'रिथिंकिंग स्कूल्स’ के संस्थापक संपादक हैं।

पूरे मर्इ 2011 के दौरान राजकीय स्कूलों के सफ़ाए की प्रक्रिया के विरोध में चले राष्ट्रव्यापी गतिरोधों में अध्यापकोंविधार्थियों तथा अभिभावकों ने शिरकत की। 9 मर्इ 2011 को हज़ारों अध्यापकोंविधार्थियों तथा उनके समर्थकों ने सार्वजनिक शिक्षा के बचाव हेतु हफ़्ते भर चलने वाले 'आपद-काल की शुरूआत की। 9 मर्इ को कैलिफार्निया की राजधानी सैक्रामेन्टों में चल रहे विरोध प्रदर्शनों में शामिल 65 शिक्षकोंविधार्थियों तथा उनके समर्थकों को गिरफ़्तार कर लिया गया। 12 मर्इ को कैलिफार्निया शिक्षक संघ के अèयक्ष समेत 27 और लोगों को गिरफ़्तार किया गया। ये विरोध प्रदर्शन विदयार्थियों और शिक्षकों (जो कि खुद को कर्मचारी समझते हैं) के बीच एक गठजोड़ की ओर इशारा करते हैं जो कि सत्ता के लिए ख़तरे की घण्टी है।

कैलिफार्निया के गवर्नर जैरी बाऊन ने स्कूलों पर बढ़ते हमलों के विरोध में हुए इन प्रदर्शनों का संज्ञान लेते हुए मर्इ 2011 के बजटीय खाके में एक दूसरी ही राह पकड़ी तथा इंगित किया कि वह बेलगाम राजकीय परीक्षण पद्धति पर नियंत्रण लगाएगा ब्राउन ने कहा: ''शिक्षकों को टैस्ट हेतु पढ़ाने पर ज्यादा ध्यान लगाना पड़ता हैइस तरह से उनकी रचनाशीलता तथा विदयार्थियों के साथ उनका मेलजोल दब जाते हैं। राजकीय और संघीय प्रशासक क्लासरूम से बाहर रहकर ही शिक्षण पर अपने प्रभुत्व का केन्द्रीयकरण करते रहते हैं। ब्राउन का कहना है कि वह ''स्कूलों में राजकीय परीक्षण को दिए जाने वाले समय को घटाना चाहता है तथा ''नियंत्रण स्कूल प्रबंधकोंशिक्षकों तथा अभिभावकों को लौटाना चाहता है। ब्राउन स्टेट लांगिटयूडिनल डाटा फार एजयूकेशन (मौजूदा डाटाबेस को समाहित करते हुए विदयार्थी मूल्यांकन डाटा को लंबे समय तक एकत्रित करने की योजना) की फंडिंग स्थगित करने में प्रयासरत हैसाथ ही इसी तजऱ् पर बनने वाले शिक्षक डाटाबेस सिस्टम को भी ठंडे बस्ते में डालने की तैयारी में है। उसने कैलिफार्निया के अटार्नी जनरल के तौर पर पहले भी कहा हे कि ''नतीज़ों की निम्नतर गुणवत्ता से ग्रसित स्कूलों की समस्याएं समुदायों की सामाजिक और आर्थिक परिसिथतियों में अवसिथत हैं।

सार्वजनिक स्कूलों के निजीकरण की प्रक्रिया की मुख़ालफ़त करने वाले प्रतिरोध आंदोलनों का रणनीतिक लक्ष्य सिर्फ़ मौजूदा स्कूल व्यवस्था को बचाना भर नहीं होना चाहिए। बल्कि इस आपातकाल का उपयोग शिक्षा के प्रति एक क्रांतिकारी नज़रिये की बुनियाद डालने के लिए किया जाना चाहिए- ऐसी शिक्षा व्यवस्था जो सामुदायिक स्कूलों पर आधारित हो। यह जेम्स और ग्रेस ली बोगस के 'डेट्रायट केंद्र’  के ''वैकलिपक शिक्षा संभव है” में प्रतिपादित लक्ष्यों के अनुसार किया जा सकता है। ग्रेस ली बोग्स के अनुसार हमें अपने बच्चों को शिक्षा के साथ-साथ सामुदायिक प्रतिभागिता की प्रक्रिया में लगाना चाहिएउसी तरह जिस तरह नागरिक अधिकार आंदोलन ने उन्हें अलगाववाद-विरोध में लगाया था। रैडिकल शिक्षा सिद्धांतकार बिल आयर्स में एनसीएलबी तथा रेस टू द टाप की मुख़ालफ़त में ''हर इंसान अतिशय महत्वपूर्ण है के सिद्धांत के आधार पर ''स्वतंत्रवादी शिक्षा तथा स्वतंत्र स्कूलों के पुनर्निर्माण के माडल का आहवान किया है। रैडिकल शिक्षाशास्त्री आत्म-समावेशी शिक्षण की प्रक्रिया का महत्व इंगित करते रहे हैं। मार्क्स और पाआलो फ्रेयरे की लाइन में वे स्वतंत्रतामूल अध्यापन का बुनियादी सवाल इस प्रश्न को मानते हैं कि ''शिक्षक को कौन शिक्षित करता हैइस पद्धति में विदयार्थियों को केन्द्रीय पात्र के तौर पर देखा जाता है।

हमें इसे एक रैडिकल संघर्ष के तौर पर लेना चाहिए। इसी तरह के कारपोरेट स्कूली सुधार की पूरी दुनिया में लागू किए जा रहे हैंब्राज़ील भी उन्हीं में से एक उदाहरण है।

बहुत कुछ दांव पर लगा है। मर्इ 1949 में मन्थली रिव्यू के पहले अंक में प्रकाशित अपने लेख 'समाजवाद क्यों’ में अल्बर्ट आइंस्टीन ने लिखा था:

“...व्यकित को पंगु बना डालना मेरे तईं पूंजीवाद का सबसे बदनुमा पहलू है। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था इसी बुरार्इ से निकली है। विदयार्थियों में अतिशय प्रतिस्पर्धा की भावना भर दी जाती हैउन्हें कैरियर के तौर पर लालसा मूलक सफलता की पूजा करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। मेरे ख़्याल मेंएक समाजवादी अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक लक्ष्यों द्वारा अनुप्राणित शिक्षा व्यवस्था की स्थापना के द्वारा ही इन बुराइयों को खत्म किया जा सकता है। ऐसी अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों का नियोजन समाज द्वारा किया जाता है तथा योजनाबद्ध तरीके से उनका इस्तेमाल किया जाता है। एक नियोजित अर्थव्यवस्था उत्पादन को समाज की जरूरतों के हिसाब से व्यवसिथत करेगीकार्य का सभी सक्षम लोगों के बीच बंटवारा करेगी तथा सभी मर्दोंऔरतों तथा बच्चों की जीविका की गारण्टी दे सकेगी। तब शिक्षा- हमारे वर्तमान समाज में सत्ता और सफलता के गुणगान के विपरीत-व्यकित की सहज योग्यताओं के विकसन के साथ-साथ उसमें अपने साथी मानवों के प्रति उत्तरदायिता की भावना का भी विकास करेगी।...”
आइंस्टीन के लिए शिक्षा तथा समाजवाद अंतरंग तथा द्वंदात्मक रूप से जुड़े हुए थे। सामाजिक परिवर्तन तथा नियोजन संबंधी यह नज़रिया मानता है कि शिक्षा हमारी जीवन-पद्धति का हिस्सा होनी चाहिएउसे सिर्फ शिक्षण तक महदूद न कर दिया जाना चाहिए।

मेरा मानना है कि हमें एक लंबे संघर्ष के लिए खुद को तैयार करना चाहिए जो अन्य चीज़ों के साथ-साथ समुदाय-सम्बद्ध शिक्षा की स्थापना करे तथा जो लोगों की असल तथा बुनियादी जरूरतों से पैदा हो। इस तरह की 'समुदाय-केन्द्रित तथा व्यकित आधरित शिक्षा- जिसकी शुरूआत तो स्कूल से हो किन्तु उसका विस्तार बृहत्तर समाज तक किया गया हो- शिक्षा के प्रति गहनतम सम्मान-भाव के द्वारा ही पार्इ जा सकती है। ऐसा सम्मान-भाव जो कि एक जीवन-पद्धति हो और स्थार्इ समता पर आधारित समाज के निर्माण की अपरित्याज्य पूर्व शर्त हो।

समाप्त.

अंग्रेजी में इस आलेख को मंथली रिव्यू की वेबसाईट में पढ़ा जा सकता है.

महिषासुर शहादत दिवस आयोजन और कुछ सवाल

$
0
0
-अतुल आनंद 
अतुल आनंद 
विगत वर्षों में देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जेएनयू में दलित और पिछड़े वर्गों के छात्रों के संगठन की तरफ से हुई एक चर्चित मुहीम ‘महिषासुर शहादत दिवस’, प्रसार पा कर देश के बहुत सारे इलाकों में फैली है. उसने समाज में व्याप्त ब्राह्मणवादी सोच और वर्चस्व के कारण कई जगह विरोध भी झेला. ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रतिरोध के तौर पर शुरू हुई यह पहल, हिन्दू धर्म के भीतर व्याप्त अमानवीय ‘जाति व्यवस्था’ के खिलाफ एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया हो सकती है लेकिन यह ‘ब्राह्मणवादी संस्कृति’ पर कितनी चोट करेगी यह अभी संसय का विषय है. हिन्दू समाज मिथकीय इतिहास की जमीन पर खड़ा है. इसके भीतर पसरा ब्राह्मणवाद इन्हीं मिथकों से सिंचित होता है. संभवतः उक्त आन्दोलन की अपने नए मिथक गढ़ ब्राह्मणवाद को मात देने की समझदारी हो. लेकिन यह नए किस्म के मिथक नए किस्म के ब्राह्मणवाद का भी उभार करेंगे.  
अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि इतिहास की मिथकीय दृष्टि ने समूचे समाज को जितना नुक्सान पहुंचाया है अकेले इतना नुक्सान किसी और चीज ने नहीं पहुंचाया. इतिहास में ब्राह्मणवाद/हिन्दू धर्म को सबसे पहले और प्रभावी चुनौती ‘बुद्ध’ ने दी. ब्राह्मणवाद/हिन्दू धर्म के विकल्प के तौर पर उन्होंने जो दर्शन दिया वह पर्याप्त वैज्ञानिक और भौतिकवादी होने के बावजूद, अन्य धर्मों की तरह ही भ्रष्ट हुआ. उसकी वजह उनकी वह मजबूरी साबित हुई कि तत्कालीन समाज में जब धर्म के कोई विकल्प स्वीकार्य न होते उन्हें अपने दर्शन को धर्म की ही शक्ल में ही देने की मजबूरी थी. मूलतः यही बाद में ब्राह्मणवाद द्वारा इस धर्म को पतित करने का कारण बना. आज जब समाज में ब्राह्मणवाद को ज्यादा वैज्ञानिक और तार्किक ढंग से बेनकाब किये जाने के विचार मौजूद हैं और प्रगतिशील लोगों की एक बड़ी तादात इन विचारों से ब्राह्मणवाद के हजारों साल पुराने स्तम्भ को गिराने की कवायद में जुटी है. नए मिथकों को स्थापित कर दमित समाज को एक अँधेरे से निकाल दूसरे अँधेरे में धकेलने का क्या अर्थ होगा? बेशक उक्त आन्दोलन दलित और पिछड़े छात्रों/समाजों की स्वाभाविक गोलबंदी करने में सफल होगा. लेकिन इसका क्या हासिल? 
यहाँ हम अतुल आनंद का महिषासुर शहादत दिवसके इस तीन साला अनुभवों का विश्लेषण करता एक आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं. अतुल मूलतः महिषासुर शहादत दिवसके आयोजन को, praxis की इस सम्पादकीय टिपण्णी के इतर एक जायज आन्दोलन मानते हैं, पर उन्होंने विगत वर्षों में इस आन्दोलन में आई कुछ प्रवृत्तियों को पकड़ने की कोशिश की है जो इस आन्दोलन को प्रतिगामी दिशा में धकेल सकता है. यह आलेख पढ़ना इस टिपण्णी से सहमत-असहमत दोनों किस्म के पाठकों के लिए जरूरी होगा... 
-संपादक

वाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू), दिल्ली से शुरू हुए महिषासुर शहादत दिवसआयोजन की यह तीसरी सालगिरह है। जेएनयू में एक पिछड़े वर्ग के छात्र संगठन द्वारा साल 2011 में शुरू किए गए इस राजनीतिक-सांस्कृतिक आंदोलन का असर इस साल उत्तरप्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के भी कई हिस्सों में देखने को मिला जब इन जगहों पर पहली बार महिषासुर शहादत दिवस जैसे आयोजन किए गए। झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में रहने वाले एक आदिवासी समुदाय का नाम असुर है जो महिषासुर को अपना पूर्वज मानते हैं और दुर्गा पूजा के दौरान शोक मनाया करते हैं। असुर आदिवासियों के अलावा भी दूसरे आदिवासी समुदायों के लोककथाओं के अनुसार महिषासुर एक आदिवासी सरदार था जिसे आर्यों ने दुर्गा को भेज छल से मरवा दिया था ताकि आर्य उस वन संपदा को लूट सके जिसकी रक्षा आदिवासी कर रहे थे। वहीं बिहार और उत्तरप्रदेश की पिछड़ी जातियों, खासकर यादव (ग्वाला, अहीर) जाति, द्वारा महिषासुर को गो-पालक यादवों के राजा के रूप में माना जा रहा है। उत्तरप्रदेश के यादव शक्तिपत्रिका में छपे एक लेख और फॉरवर्ड प्रेसमासिक पत्रिका के अक्टूबर 2011 अंक में प्रेमकुमार मणि के लेख किसकी पूजा कर रहे है बहुजन?” में भी महिषासुर को गोवंश पालक समुदाय का राजा बताया गया था। जेएनयू में शुरू हुए महिषासुर शहादत दिवस आयोजन के पीछे प्रेमकुमार मणि के लेख की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी।




ब्राह्मणवादी संस्कृति के प्रतिरोध के इस आंदोलन की धमक देश के दक्षिणी हिस्से में भी देखने को मिली जब इस साल के सितंबर माह में इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी (ईएफएलयू), हैदराबाद के कुछ छात्रों द्वारा असुर सप्ताह’ (असुर वीक) का आयोजन किया गया। इस अवसर पर छात्रों ने भारतीय इतिहास की पुनर्विवेचना और विश्विद्यालयों में धर्मनिरपेक्षता की परिभाषापर परिचर्चा और दूसरे रचनात्मक आयोजन किए थे। इस आयोजन में समाज के सभी वर्ग से आनेवाले छात्रों ने हिस्सा लिया था। उनके इस प्रयास को विश्वविद्यालय के सामंती और ब्राह्मणवादी प्रशासन के दंडात्मक कारवाई को झेलना पड़ा। ईएफएलयू छात्र संघर्ष समिति पहले भी समाज के कमजोर तबके से आए छात्रों के प्रति विश्विद्यालय प्रशासन के भेदभावपूर्ण रवैये के खिलाफ संघर्ष करती आई है। समिति ने यह आरोप लगाया है कि विश्विद्यालय प्रशासन ने इस आयोजन को लेकर पहले तो कोई आपत्ति जाहिर नहीं की लेकिन आयोजन हो जाने के बाद बिना किसी सूचना के सीधे कानूनी कारवाई का रास्ता अपनाया। ऐसे मामलों में विश्विद्यालय स्तर पर पालन किए जाने वाले तमाम प्रक्रियाओं को दरकिनार कर विश्विद्यालय प्रशासन ने उस्मानिया थाने में भादवि की धारा 153 (A)  के अंतर्गत विभिन्न समूहों के बीच धर्म, नस्ल, जन्मस्थान, निवास, भाषा इत्यादि के आधार पर वैमनस्य फैलानेका गंभीर आरोप लगा प्राथमिकी दर्ज कर दी। इस मामले में छ: विद्यार्थियों को आरोपी बनाया गया है जिनमें से चार छात्र समाज के वंचित तबके से आते हैं और बाकि दो लड़कियाँ हैं। ईएफएलयू के छात्र अभी भी इस मामले को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। वैसे विश्वविद्यालय प्रशासन इस मामले को लेकर अदालत जाता हुआ नहीं दिख रहा है। विश्वविद्यालय प्रशासन ने जिस तरह से इस मामले को लेकर प्रतिक्रिया की, उससे इसकी काफी किरकिरी भी हुई है। विश्वविद्यालय प्रशासन पर भारी दबाव है कि वह इस मामले को वापस ले।

कुछ इसी तरह का प्रशासनिक विरोध जेएनयू में महिषासुर शहादत दिवस आयोजन की शुरुआत करने वाले छात्रों को इस आयोजन के पहले साल में झेलना पड़ा था। हालांकि जल्द ही इस मामले को सुलझा लिया गया था। इस सांस्कृतिक आंदोलन से दक्षिणपंथी संगठनों के भवों पर भी बल पड़ा है जो कभी इस आंदोलन को हिन्दू धार्मिक भावना को आहत करने वाला प्रयास बता रहे हैं तो कभी इसे मूखर्तापूर्ण करार दे रहे हैं। जेएनयू में जब पहली बार महिषासुर शहादत दिवस आयोजन किया जाना था तब इस मुद्दे को लेकर एक दक्षिणपंथी छात्र संगठन ने तो आयोजन करने वाले छात्रों के साथ मार-पीट भी की थी।

लेकिन
 इस सांस्कृतिक आंदोलन के लिए सामंती एवं फासीवादी विरोध उतना बड़ा ख़तरा नहीं है जितना कि ब्राह्मणवाद के आदर्शों और कर्मकाण्डों द्वारा समाहित कर लिए जाने का ख़तरा। बुद्ध ने हिन्दू धर्म के कर्मकाण्डों और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरोध में बौद्ध दर्शन की व्याख्या की थी। उन्होंने बौद्ध धर्म को हिन्दू कर्मकाण्डों से बचाने की पूरी कोशिश की थी। उन्होंने खुद को भगवान की उपाधि देने से भी दूर रखा। लेकिन जब ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने पाया कि वह बुद्ध और उसके दर्शन से जीत नहीं सकती तो बुद्ध को हिन्दू धर्म का अवतार घोषित कर भगवान बना दिया गया।

महिषासुर शहादत दिवस आयोजन जैसे सांस्कृतिक प्रतिरोध के आंदोलन का भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था के जाल में फँस जाने का खतरा है। खासकर जब इस प्रतिरोध की संस्कृति को विकसित करने के लिए ब्राह्मणवादी प्रतीकों का इस्तेमाल किया जा रहा हो। जेएनयू में महिषासुर शहादत दिवस आयोजन में महिषासुर के जिस चित्र का उपयोग किया जाता है वह चित्रकार लाल रत्नाकर द्वारा बनाया गया था। संभवत: अनजाने में ही इस चित्र को ब्राह्मणवाद के प्रतीकों से भर दिया गया है। इस चित्र में गोवंश पालक समुदाय के राजा महिषासुर को भगवान कृष्ण की तरह सिर पर मोरपंख लगाए दिखाया गया है। महिषासुर के पीछे किसी हिन्दू देवी-देवता की तरह आभामंडल भी बनाया गया है। हिन्दू मिथकों में वर्णित काले रंग वाले असुरों के विपरीत इस महिषासुर का रंग गोरा है और माथे पर तिलक है। हद तो यह है कि महिषासुर, जो की एक सामान्य मनुष्य रहा होगा, को किसी भगवान की तरह आशीर्वाद की मुद्रा में दाँया हाथ उठाए दिखाया गया है।

इन ब्राह्मणवादी प्रतीक चिन्हों के अलावा भी इस आंदोलन के वैचारिक स्तर पर कई ऐसी खामियाँ हैं जो इस प्रतिरोध के आंदोलन को असफल बना सकती है। टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई में इस साल 13 अक्टूबर को महिषासुर शहादत दिवस आयोजन के अवसर पर संस्थान के डेवलपमेंट स्टडीज विभाग में सहायक प्राध्यापक पार्थसारथी मंडल हिन्दू मिथकीय इतिहास और दलित-आदिवासी विमर्शविषय पर परिचर्चा में वक्ता थे। संयोग से मंडल जी जेएनयू के छात्र रह चुके हैं। इस विषय पर बोलते हुए मंडल जी ने कहा है कि यह दुर्भाग्य की बात है कि हम भारतीय खुद को आधुनिक और उत्तर-आधुनिक समझते हैं लेकिन खुद को और इस देश को समझने की हमारी क्षमता बस हिन्दू मिथकीय इतिहास तक ही सीमित है। हम इस मिथकीय इतिहास को परखने और इसके समानांतर चलने वाली दूसरी आदिवासी और क्षेत्रीय लोककथाओं को जानने की ज़हमत नहीं उठाते है। मंडल जी ने यह भी कहा कि देश में महिषासुर शहादत दिवस के रूप में ब्राह्मणवादी संस्कृति के विरोध के आंदोलन को समस्या के तत्क्षण इलाज के रूप में नहीं देखना चाहिए। हिन्दू धर्म की इन परम्पराओं की जड़ें काफी गहरी हैं। देश के बहुजन इन परम्पराओं से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं। हिन्दू धर्म की तुलना इस्लाम या ईसाईयत जैसे धर्मों से नहीं बल्कि रोमन और ग्रीक सभ्यताओं से होनी चाहिए। हिन्दू धर्म की संस्थापक ब्राह्मणवादी शक्तियाँ बहुत ही दूरदर्शी रही थीं। उन्हें आने वाले समय में हिन्दू धर्म के समक्ष आने वाली समस्याओं का पहले से ही अनुमान था। इस वजह से हिन्दू धर्म को विरोधाभासों से भर दिया गया ताकि इसके खिलाफ़ होने वाले आन्दोलनों की लड़ाई मुश्किल हो जाए। एक तरफ़ तो हिन्दू धर्म वसुधैव कुटुम्बकमके जरिए समानता की बात करता है वहीं दूसरी तरफ़ इस धर्म की आत्मा जाति व्यवस्था के रूप में असमानता पर आधारित व्यवस्था है।

दुर्गा
 पूजा इस विरोधाभास का एक अच्छा उदाहरण है। जहाँ पुराणों के पहले वेद में नारी पूजा का कोई प्रावधान नहीं था, उलटे स्त्रियों को निकृष्ट समझा जाता था वहीं अचानक मार्कण्डेय पुराण ने पुरानी परम्पराओं के विपरीत शक्ति पूजा का प्रचलन शुरू किया। मंडल जी के अनुसार इस परिवर्तन के पीछे वजह यह रही थी कि चौथी से सातवीं सदी के दौरान, जिस वक्त मार्कण्डेय पुराण रचा गया, उस वक्त आर्यों का सामना उत्तर भारत की सभ्यताओं से हो रहा था जिनमें कई मातृ-सत्तात्मक थीं। आर्यों ने इन सभ्यताओं से मुकाबला करने के लिए मार्कण्डेय पुराण के माध्यम से दुर्गा के रूप में एक स्त्री की परिकल्पना की जो एक असुर पुरुष का वध करती है, लेकिन दुर्गा को स्त्रीवादी समझना भारी भूल होगी। मार्कण्डेय पुराण की कथा के अनुसार देवता असुरों के बल-पराक्रम से पराजित हो कर त्रिदेवों के पास मदद माँगने गए थे। त्रिदेव भी महिषासुर से लड़ने में अक्षम थे इस वजह से दुर्गा की रचना की गयी। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि जन्म देने का काम स्त्री का होता है, जबकि यहाँ तीन पुरुष देव मिलकर एक स्त्री का निर्माण करते हैं जो अंततः देवताओं के हाथ की कठपुतली साबित होती है। दुर्गा को नारी शक्ति समझना भूल है क्योंकि दुर्गा ने नारियों के हित के लिए कुछ नहीं किया। उसने हिन्दू धर्म की नारी विरोधी परम्पराओं के खिलाफ भी कुछ नहीं कहा। अगर हिन्दू धर्म स्त्रीवादी होता तो देवता त्रिदेवों की जगह पार्वती या किसी और देवी के पास मदद के लिए जाते। दुर्गा पूजा इस देश के निवासी असुरों के संहार को उचित ठहराने की एक साजिश है।

महिषासुर शहादत दिवस के रूप में ब्राह्मणवादी संस्कृति के प्रतिरोध के आंदोलन की एक वैचारिक समस्या यह भी है कि यह हिन्दू धर्मों के विरोधाभासों को समझने में बहुत हद तक नाकाम रही है। आन्दोलन में जिस ऊर्जा को ब्राह्मणवाद के विरोधाभासी तिकड़मों को समझने में लगाना चाहिए उस ऊर्जा को दुर्गा के चरित्र की जाँच-पड़ताल में खर्च किया जा रहा है। दुर्गा के बहाने स्त्री जाति को भी निशाना बनाया जा रहा है। दुर्गा पर हमला करने की आड़ में स्त्रियों के बारे में प्रचलित पूर्वाग्रहों को उद्धृत किया जा रहा है। जेएनयू में महिषासुर शहादत दिवस के अवसर पर आयोजित चर्चा में दुर्गा कुँवारी थी या नहीं? दुर्गा को सिंदूर क्यों चढ़ाया जाता है? जैसी बहस को प्रमुखता दी गयी थी। ब्राह्मणवादी अपने प्रतिरोध के आंदोलन की इस स्तिथि को देखकर खुश हो रहे होंगे कि दुर्गा पूजा के रूप में नारीवादी विरोधाभास को जिस उद्देश्य से रचा गया था उससे बहुजन के हित की बात करने वाले आन्दोलनकारी गच्चा खा गए हैं। कहा जाता कि अक्सर पीड़ितों में भी पीड़ित जनों के मुद्दे को नकार देना एक आंदोलन को सीमित और कमजोर बनाता है। सांस्कृतिक प्रतिरोध का यह आन्दोलन तब तक अधूरा और कमजोर रहेगा जब तक कि बहुजन पितृसत्ता की बुराइयों और स्त्रियों के समानता के अधिकार को स्वीकार नहीं करते।

महिषासुर शहादत दिवस के सांस्कृतिक आंदोलन की एक और प्रमुख समस्या इस आंदोलन में एक ख़ास पिछड़ी जाति की प्रमुखता है। अम्बेडकर ने कहा है कि जाति व्यवस्था एक सीढ़ी की तरह है जहाँ विभिन्न जातियाँ इसके पाएदान हैं। हर जाति ने अपने नीचे की जाति पर उतने ही अत्याचार किए हैं जितना की उसे अपने ऊपर वाली जाति से सहना पड़ा। इस सांस्कृतिक आन्दोलन के हित के लिए यह जरूरी है कि इस आंदोलन में एक ख़ास जाति के वर्चस्व को रोका जाए। बिहार और उत्तरप्रदेश में हुए महिषासुर शहादत दिवस आयोजनों के आयोजक मुख्य रूप से एक ख़ास पिछड़ी जाति (यादव जाति) से है। इस जाति के बारे में यह तथ्य भी है कि यह जाति स्वयं को अन्य पिछड़ी जातियों और दलितों से श्रेष्ठ समझती आई है। यादवों के साथ उलझन की एक बात यह भी है कि कृष्ण को यादवों का भगवान मानने की जिस विचार को बढ़ावा दिया गया है उसको इस तरह के आंदोलन में किस रूप में लिया जाएगा। कृष्ण के साथ ही ब्राह्मणवादी गीता का भी सवाल आता है। इस आंदोलन में दलित और सभी पिछड़ी जातियों की सहभागिता के साथ ही आदिवासियों के सहभागिता का सवाल भी जरुरी है। बहुत संभव है की आगे चलकर इस आंदोलन में यादव जाति का ही वर्चस्व रहे और एक अभिजात्य संस्कृति विकसित हो जो ब्राह्मणवादी संस्कृति का ही प्रतिरूप बनी रहे।

ब्राह्मणवादी
 संस्कृति के प्रतिरोध के इस आंदोलन के भविष्य के लिए यह जरुरी है कि इस आंदोलन के अगुवाई कर रहे है लोग ब्राह्मणवादी संस्कृति में व्याप्त विरोधाभासों के साथ-साथ आंदोलन में स्त्रियों और सभी बहुजनों के सहभागिता के सवालों पर गंभीरता से मंथन करे। महिषासुर और दुर्गा के मिथक में उलझे बिना इस आंदोलन को एक मजबूत सांस्कृतिक आंदोलन का रूप दें।

अतुल, रांची से जनसंचार में स्नातक करने के बाद 
अभी टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (TISS), मुंबई 
से मीडिया में स्नातकोत्तर कर रहे है.
इनसे संपर्क का पता है- thinker.atul@gmail.com

नेपाल संविधान सभा चुनाव : राजनीतिक भंवर में फंसा देश

$
0
0
प्रेम पुनेठा
प्रेम पुनेठा

 "...सविधान सभा में माओवादियों ने कर्इ समझौते किए जो उनकी नीतियों के खिलाफ थे। इससे पार्टी में असंतोष फैल गया। पार्टी में ही मोहन वैद्य ने नेतृत्व पर दक्षिणपंथी संसोधनवाद का आरोप लगाया और पार्टी से अलग हो गए। उन्होने नर्इ पार्टी बना ली। इस चुनाव में मोहन वैद्य की नेकपा माओवादी बहिष्कार कर रही है। उनका मानना है कि वर्तमान परिस्थितियों में संविधान सभा के जरिए संविधान का निर्माण नहीं किया जा सकता है। संविधान के निर्माण के लिए सभी राजनीतिक दलों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाना  चाहिए।  मोहन वैद्य के साथ कर्इ 31 राजनीतिक दल भी चुनाव बहिष्कार में शामिल हैं। इनका बहिष्कार कितना प्रभावी होगा कहा नहीं जा सकता लेकिन इसने चुनावों के हिंसा की आशंका से भर दिया है। चुनाव प्रचार के प्रारंभिक दौर मे ही जिस तरह से बहिष्कारवादियों ने चुनाव प्रचार सामग्री को लूटने और आक्रामक होने का परिचयय दिया हैउससे हिंसा होने की संभावना ज्यादा बलवती हो गर्इ है।..."

दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक नेपाल में संविधान बनाने के लिए पांच साल में दूसरी बार संविधान सभा के चुनाव हो रहे हैं। इससे पहले 2008 में संविधान सभा के चुनाव हुए थे। इस संविधान सभा को यह कार्यभार सौंपा गया था कि वह दो साल में नेपाल में संविधान का निर्माण करेगी लेकिन इसका कार्यकाल कर्इ बार बढ़ाया गया और कर्इ सरकारें बनीं । संविधान सभा चार साल तक काम करती रही फिर भी यह नेपाल को संविधान देने में असफल रही। नेपाल के राजनीतिक दलों के बीच इतने अधिक मतभेद हो गए थे कि संविधान बनने की कोर्इ संभावना नहीं रह गर्इ तो राष्ट्रपति को संविधान सभा को भंग करना पड़ा और नर्इ संविधान सभा के चुनाव की घोषणा करनी पड़ी।

पिछले दो दशक से नेपाल की राजनीति भंवर मे फंसी हुर्इ है। इससे बाहर आने का अभी भी कोर्इ रास्ता नहीं दिखार्इ दे रहा है। 1990 में राजतंत्र के आधीन संसदीय प्रजातंत्र लाने का प्रयोग किया गया। लेकिन वह जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने में असमर्थ रहा । इस प्रयोग की परिणति 1996 में माओवादी द्वारा जनयुदध से हुर्इ। यह जनयुदध दस साल तक चला और अंत में राजशाही की समापित हुर्इ। तब माओवादियों और अन्य राजनीतिक दलों में समझौता हुआ। इसके तहत देश में नया संविधान बनाने के लिए समझौता हुआ। इसके तहत 2008 में संविधान सभा का चुनाव हुआ। नेपाल के राजनीतिक दलों के साथ माओवादियों के साथ समझौता होने के बाद भी उनके बीच कटुता कम नहीं हुर्इ। जनयुदध के दौरान नेपाल में राजतंत्र और माओवादी दो पक्ष रह गए थे। दोनों के बीच संघर्ष की सिथति में अन्य राजनीतिक दल अप्रासंगिक हो गए थे। उनकी गतिविधियां केवल बड़े शहरों तक ही सीमित थीं और गांव के स्तर पर वे कहीं नहीं थे। इसलिए जब राजतंत्र समाप्त हुआ तो माओवादियो के विरोध में पुराने राजनीतिक दल खड़े हो गए। इस तरह नेपाल की सारी राजनीति माओवादी बनाम अन्य में बदल गर्इ। यह राजनीति संविधान सभा में दिखार्इ दी।

पिछले संविधान सभा के चुनाव में माओवादियों की सफलता उनकी सांगठनिक स्थिति और विरोधियों की कमजोरी तो थी ही, साथ ही उनके प्रति सहानुभूति का कारण यह भी था कि उनके कारण ही राजतंत्र की समापित हुर्इ थी। फिर माओवादी हथियार छोड़कर मुख्यधारा में आने का प्रयास कर रहे थे और जनता लगातार हिंसा से परेशान थी और शांति चाहती थी, इसलिए उसने माओवादियों का साथ दिया। तमाम प्रयासो के बाद भी माओवादी संविधान सभा में बहुमत में नहीं आ पाए और इससे भी ज्यादा गलती यह हर्इ कि संसदीय राजनीति की पेचीदिगियों को वे समझ नहीं सके। यही कारण था कि राष्ट्रपतिउपराष्ट्रपति और संसद के अध्यक्ष के चुनाव में उनहें हार का मुख देखना पड़ा। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री पद के चुनाव में नेपाली कांग्रेस के साथ 11 बार मतदान में जाना पड़ा। तब कहीं जाकर प्रचंड प्रधानमंत्री पद पर चुने जा सके। इसके बाद भी माओवादियों की सरकार ज्यादा समय नहीं चल सकी और प्रचंड इस्तीफा देकर बाहर आ गए।

सविधान सभा में माओवादियों ने कर्इ समझौते किए जो उनकी नीतियों के खिलाफ थे। इससे पार्टी में असंतोष फैल गया। पार्टी में ही मोहन वैद्य ने नेतृत्व पर दक्षिणपंथी संसोधनवाद का आरोप लगाया और पार्टी से अलग हो गए। उन्होने नर्इ पार्टी बना ली। इस चुनाव में मोहन वैद्य की नेकपा माओवादी बहिष्कार कर रही है। उनका मानना है कि वर्तमान परिस्थितियों में संविधान सभा के जरिए संविधान का निर्माण नहीं किया जा सकता है। संविधान के निर्माण के लिए सभी राजनीतिक दलों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाना  चाहिए।  मोहन वैद्य के साथ कर्इ 31 राजनीतिक दल भी चुनाव बहिष्कार में शामिल हैं। इनका बहिष्कार कितना प्रभावी होगा कहा नहीं जा सकता लेकिन इसने चुनावों के हिंसा की आशंका से भर दिया है। चुनाव प्रचार के प्रारंभिक दौर मे ही जिस तरह से बहिष्कारवादियों ने चुनाव प्रचार सामग्री को लूटने और आक्रामक होने का परिचयय दिया हैउससे हिंसा होने की संभावना ज्यादा बलवती हो गर्इ है। मोहन वैध के बहिष्कार का सबसे ज्यादा प्रभाव माओवादियों पर ही होने वाला है। प्रारंभिक तौर पर पिछले संविधानसभा में जीते कर्इ सभासद मोहन वैध के साथ हैउन स्थानों पर पार्टी को नए  प्रत्याषी देने पड़े हैंसाथ ही इन लोगों के प्रभाव से पार्टी वंचित हो गर्इ। यह भी दिख रहा है कि बहिष्कारवादियों का प्रमुख निशाना प्रचंड की माओवादी पार्टी ही है। उसी को वे अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं। जब प्रचंड सुदूर पश्चिमांचल के अछामबाजुरा और डोटी जिले में आए तो उन्होंने बंद का आह्वाहन  किया था। बहिष्कारवादियों ने 9 से 19 नवंबर तक देष भर में बंद का आहवान किया है। यह मतदान को कितना प्रभावित करेगा यह देखना बाकी होगा। वैसे नेपाली सरकार ने चुनावो को शांतिपूर्वक और निष्पक्ष तरीके से कराने के लिए सेना को भी लगाया है। इसके साथ ही आचार संहिता लागू कर और अपराधियों को चुनाव लड़ने रोकने के कानून बनाकर धनबल और बाहुबल से चुनावों को बचाने का प्रयास किया है।

बहिष्कारवादियों से अलग चुनाव में लड़ रहीं पार्टियां दो मुददों पर विपरीत घु्रवों पर दिखार्इ दे रही हैं। इनमें से एक है संघीयता का स्वरूप और दूसरा शासन का स्वरूप। इन्हीं दो मुददों पर संविधान सभा में आकर गतिरोध हो गया था और उसे अंत तक तोड़ा नहीं जा सका। पार्टियों के घोष्णापत्र में जिस तरह से इन मुददों पर जोर दिया जा रहा है उससे लगता नहीं ये गतिरोध टूट सकता है। सामान्य तौर पर चारों बड़ी पार्टियो एमाओवादीनेपाली कांग्रेसएमाले और मधेस पार्टी सभी देष को संधीय राज्य बनाने पर सहमत हैं। लेकिन उनके बीच प्रदेषो की संख्या और उनकी सीमाओं को लेकर मतभेद हैं। जहां कांग्रेस सात राज्य बनाना चाहती है तो एमाओवादी 11 राज्य चाहते हैंएमाले और मधेसी पार्टियां आठ राज्य बनाने के प़क्षधर हैं। कांग्रसे सात राज्य भौगोलिक आधार पर बनाना चाहती हैजिसमें नदियों केजल प्रवाह को ध्यान में रखा जाए। यह कमोवेष वर्तमान सात अंचलों में ही थोड़ा-बहुत फेरबदल होगा। यह विभाजन उत्तर से दक्षिण की ओर है। एमाले जातीय पहचान और भौगोलिक आधार पर विभाजन चाहती है। मधेसियों की सभी पार्टियां एक मधेस-एक प्रदेष के नारे की समर्थक हैं। मधेस से उनका अभिप्राय पूरा तरार्इ क्षे़त्र है। इसमें वे पूर्व के झापा से लेकर पषिचम मे कंचनपुर तक 23 जिलों का भारत के साथ लगा क्षेत्र षामिल करती हैं। मधेसियो की यह मांग बाकी तीन राजनीतिक दलों के लिए मानना संभव नहीं लगती है लेकिन मधेसी इससे बाहर किसी समझोते के पक्ष में नहीं हैं।

संघीयता के प्रश्न पर सबसे ज्यादा समस्या एमाओवादियो के समाने आ रही है। वे आठ प्रदेश पहाड़ में और तीन प्रदेश तरार्इ में चाहते हैं। उनके प्रदेश बनाने का आधार जातीय पहचान और आर्थिक एकरूपता है। दरअसल जनयुदध के दौरान माओवादियों ने विभिन्न जातीय पहचान वाले क्षे़त्रों को यह विशवास दिलाया था कि वे उपराष्ट्रीयताओं का सम्मान करते हुए  अलग प्रदेष का निर्माण करेंगे। इसलिए उनका जोर इस समय इन्हीं उपराष्ट्रीयताओं को पहचान देने का है। लेकिन इस प्रयास मे वे पिछली संविधानसभा में अलग-थलग पड़ गये थे। इतना ही नहीं सीमाओं को लेकर विवाद बढ़ते ही जा रहे हैं। केवल कंचनपुर-कैलाली जिलों को लेकर चार उपराष्टीयताओं में टकराव की सिथति आ गर्इ है। इन दो जिलो केा लेकर एक वर्ग सुदूर पश्चिमांचल में रखना चाहता है तो मधेसी पार्टियां इन्हें मधसे का हिस्सा बनाना चाहती हैंथारूवन के हिमायती इन दो जिलों को अपने प्रदेष का हिस्सा बनाना चाहते हैं। इस विवाद के बीच थारूओं की ही एक षाखा राना थारूओं ने मांग कर दी कि इसे अलग  से राना थारू स्वायत्त प्रदेश बनाया जाए। दरअसल यह तरार्इ का ऐसा जिला हैजिनमे 21 प्रतिशत आबादी थारूओं की है और बाकी पर्वतीय मूल के लोग यहां रहते हैं। इन दो जिलों को लेकर माओवादी नेताओं में भी मतभेद हैं। माओवादियों की योजना के अनुसार इन दो जिलो केा थारूवन का हिस्सा होना चाहिए लेकिन दो बड़े स्थानीय नेता टीकेंद्र प्रसाद भटट और लेखराज भटट जो पिछली संविधान सभा के सदस्य थे और वर्तमान में भी एमाओवादी से चुनाव लड़ रहे हैं इस योजना के विरोधी हैं और इन दो जिलों को सुदूर पश्चिमांचल का ही हिस्सा बनाने के पक्षधर हैं और अपनी बात को वे पार्टी और जनता के सामने रख चुके हैं।

सुदूर पश्चिमांचल के अलावा थारूवानकर्णाली और अन्य प्रस्तावित प्रदेशों में भी सीमाओं को लेकर विवाद हैं। इतना ही नहीं उपराष्टीयताओं की पहचान को लेकर राज्य बनने के प्रयासों के चलते कर्इ क्षेत्रीय दल असितत्व में आ गए हैं। मधेस में तो यह पिछले चुनाव में ही देखने को मिल गया था। जब मधेस के मतदाताओं ने राष्टीय दलो को छोड़कर मधेसी पार्टियों के पक्ष में मतदान किया था। इस चुनाव में सुदूर पश्चिमांचल में अखंड पश्चिमांचल पार्टीथारूवन की थारूवन कल्याण समितिवृहत्तर कर्णाली पार्टी चुनाव मैदान में हैं। ये प्रदेश और पहचान के मुददे पर कितना चुनाव को प्रभावित करेगी इसका आंकलन होना हैं लेकिन ये भावनात्मक रूप से लोगों को गोलबंद जरूर कर रही हैं। अगर सही तरीके से इस मुददे को संभाला नहीं गया तो आने वाले समय में भी यह नेपाली राजनीति को निश्चित तौर पर प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं। 

संघीयता के साथ ही शासन के भावी स्वरूप पर भी पार्टियों में मतभेद हैं। एमाओवादी और मधेसी पार्टियां शासन की सारी ताकत राष्ट्रपति में रखना चाहती हैं। वे अमेरिका की तरह शक्तिशाली राष्ट्रपति प्रणाली की पक्षधर हैं। यह स्वरूप एमओवादियों के सांगठनिक स्वरूप  के ज्यादा नजदीक आता हैजहां पार्टी के महासचिव को सारी ताकत सौंप दी जाती है। इसके साथ ही चुनावी तौर पर माओवादियो को लगता है कि वे जन समर्थन के आधार पर  अपना राष्ट्रपति चुनवा सकते हैं और अपने एजेंडे को लागू कर सकते हैंजिसे वे संविधान सभा में दलीय सिथति के कारण नही करवा सके। अगर प्रधानमंत्री को शासन का प्रमुख बनाया गया और उसे संसद से चुना गया तो वे हमेशा अन्य दलों पर आश्रित रह जाएंगे और उनके काम कर्इ तरह की बाधाएं पहुंचार्इ जा सकती हैजैसा इस संविधान सभा मे हुआ और उन्होंने शासन चलाने को जिस तरह के समझौते किए उससे उनको राजनीतिक तौर पर नुकसान ही हुआ। इस तरह की स्थिति भविष्य में न आए इसलिए वे राष्ट्रपति प्रणाली के पक्षधर हैं। इसके विपरीत एमाले और नेपाली कांग्रेस संसदीय प्रजातंत्र और प्रधानमंत्री को शक्तिशाली बनाना  चाहते हैं। इन दोनों पार्टियो का जिस तरह का जनाधार हैउसको देखते हुए वे संसदीय प्रजातंत्र के हिमायती है।

सही तथ्य तो यह है कि पिछले संविधान सभा के चुनाव में जितने राजनीतिक अंतरविरोध थे और जिन अंतर विरोधों को खत्म करने के लिए चुनाव करवाए गए थेवे तो जस के तस हैं। इस संविधान सभा के चुनाव में कर्इ अतरविरोध पैदा हो गए हैं। इन अंतरविरोधों को लेकर बनने वाली संविधान सभा का स्वरूप क्या होगा और वह कैसे कार्य करेगी यह देखना होगा। खासकर तब जब इस संविधान सभा के चुने सदस्यों का कार्यकाल तो पांच वर्ष होगा लेकिन उन्हें संविधान का निर्माण एक वर्ष में ही करना होगा। एक साल में संविधान बनाने के बाद संविधान सभा चार साल के लिए संसद में बदल जाएगी। सवाल यही है कि क्या यह एक साल में संविधान का निर्माण कर पाएगी।


प्रेम पुनेठा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. 
मध्य-पूर्व के इतिहास और राजनीति पर निरंतर अध्ययन और लेखन. 
इनसे संपर्क के पते- prem.punetha@facebook.com और prempunetha@gmail.com

नेपाल संविधान सभा चुनाव : माओवादियों के बंद पर, सबकी नजर

$
0
0
प्रेम पुनेठा

प्रेम पुनेठा

"...वैसे नेपाली सरकार ने चुनाव कराने के लिए सेना को भी सुरक्षा कामों में लगाने का आदेश दिया है। आज हम महेंद्रनगर और धनगढ़ी में थे और वहां पुलिस सड़कों पर दिखाई दे रही थी। अलबत्ता सेना की मौजूदगी अभी तक कहीं दिखाई नहीं दी है। इस बात की संभावना है कि माओवादी अपनी ताकत का प्रदर्शन अवश्य करेंगे। वैद्य ग्रुप भी इस बात को समझता है कि अगर चुनाव बहिष्कार का असर नहीं दिखा तो वह राजनीतिक तौर पर खत्म हो जाएगा। इसलिए उसके लिए यह अस्तित्व का सवाल है कि बहिष्कार प्रभावी हो।..."

एनेकपा माओवादी का मतदान का आह्वान 
नेपाल में संविधान सभा का चुनाव अब अंतिम चरण में पहुंच चुका है। सभी राजनीतिक दलों ने प्रचार में ताकत झोंक रखी है। लेकिन इन सबके बाद भी मतदाताओं और राजनीतिक दलों में संशय मौजूद है कि अगले दस दिनों मे क्या होगा क्योंकि नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी चुनाव का बहिष्कार कर रही है जिसके साथ 30 अन्य राजनीतिक संगठन भी हैं. इन्होंने 11 नवंबर से दस दिन का बंद का आह्वान किया है। इसके तहत एक दिन की आम हड़ताल और शेष दिन यातायात को बाधित रखने का कार्यक्रम है। इस तरह माओवादी चुनाव के इस चरण में यातायात को बाधित कर चुनाव को प्रभावित करना चाहते हैं। माओवादियों की रणनीति यह है कि किसी भी तरह से चुनाव में मतदान का प्रतिशत कम करवाया जाए और कुछ स्थानों पर हो सके तो पूर्ण बहिष्कार कर मतदान पेटियां खाली भिजवाई जाएं, जिससे चुनावों की वैधता की सवालों के घेरे में आ जाए।

वैसेनेपाली सरकार ने चुनाव कराने के लिए सेना को भी सुरक्षा कामों में लगाने का आदेश दिया है। आज हम महेंद्रनगर और धनगढ़ी में थे और वहां पुलिस सड़कों पर दिखाई दे रही थी। अलबत्ता सेना की मौजूदगी अभी तक कहीं दिखाई नहीं दी है। इस बात की संभावना है कि माओवादी अपनी ताकत का प्रदर्शन अवश्य करेंगे। वैद्य ग्रुप भी इस बात को समझता है कि अगर चुनाव बहिष्कार का असर नहीं दिखा तो वह राजनीतिक तौर पर खत्म हो जाएगा। इसलिए उसके लिए यह अस्तित्व का सवाल है कि बहिष्कार प्रभावी हो। अगर कहीं हिंसा ज्यादा होती है तो आम आदमी चुनाव की चुनाव में भागीदारी कम हो जाएगी। वैसे दो दिन पहले ही नेकपा माले की एक जनसभा में बम से हमला हुआ है और उसमें कुछ लोग घायल भी हुए है। वैसे यह काम किसने किया इस बारे में साफ तो कुछ नहीं मालूम लेकिन संदेह माओवादियों पर ही जा रहा है। अगर इस तरह की घटनाएं और होती हैं तो भय का वातावरण पैदा हो जाएगा। नेपाल की जनता दस साल के सशस्त्र आंदोलन में इस तरह की हिंसा को झेल चुकी है और वह अब किसी भी तरह की हिंसा से बचना चाहती है। आम आदमी राजनीतिक दलों से इस बात से खिन्न है कि चार साल में वे संविधान नहीं बना पाए। लेकिन बहिष्कार को भी समर्थन देने को तैयार नहीं है।

वैसेआम हड़ताल सफल भी हो जाए क्योंकि तोड़फोड़ के डर से लोग दुकानें बंद रख देंगे और यातायात भी बाधित हो जाए। नेपाल में सार्वजनिक परिवहन अधिकतर निजी हाथों में है वे अपने वाहनों को सड़क पर लाने का जोखिम उठाने के मूड में नहीं दिख रहे हैं। धनगढ़ी बाजार में जिन व्यापारियों और ठेली लगाने वालों से बात हुई उनका कहना था कि 'देखेंगे! जो सब करेंगे वही हम भी करेंगे।' फलों के ठेली लगाने वाला कह रहा था 'हम देखेंगे मौका मिला तो कहीं अदर जाकर ठेला लगा लेंगे।' मुख्य सड़क पर तो नहीं आ सकते। इससे इतना तो जाहिर है कि बंद चुनाव बहिष्कार के समर्थन में तो नहीं है वह किसी हिंसा और तोडफोड़ के भय से होगा। सबसे महत्वपूर्ण यह देखना होगा कि राजनीतिक दलों की गतिविधियों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि सभी दलो की रैलियां, सभाएं और प्रदर्शन हो रहे हैं। 

बंद की पूर्व संध्या पर चौराहों पर पुलिस

हमभी इंतजार कर रहे हैं कि कल माओवादी क्या करते हैं। वैसे हम तो माओवादियों के इस बंद की अपील से पहले दिन से ही जूझ रहे हैं। हमने बनबसा (भारत) से ही गाड़ी करने का विचार बनाया था लेकिन कोई भी अपनी गाड़ी लेकर नेपाल चलने को तैयार नहीं हुआ। सभी ने यही कहा कि वहां माओवादी तोड़फोड़ कर सकते हैं, ऐसे में वहां जाकर कौन मुसीबत मोल ले। हमने सोचा चलो महेंद्रनगर से ही वाहन की व्यवस्था कर लेंगे लेकिन यहां आकर पता चला कि हालत और भी खराब हैं। चुनाव के कारण बहुत सी गाडि़यां राजनीतिक दलों ने ले ली हैं और चुनाव में भी कई गाडि़यां पुलिस ने ली हैं। हमारे संपर्क के प़त्रकार मित्र ने भी एक राजनीतिक दल के लिए बनबसा से गाड़ी की व्यवस्था की लेकिन वह भी बनबसा और महेद्रनगर के दो प़त्रकारों की गारंटी पर। हमें तो महेंद्रनगर में वाहन नहीं मिला। हमारे लिए मित्रों ने जिस कार की व्यवस्था की वह उसे ठीक कराने टनकपुर चला गया और लगभग दो बजे तक नहीं लौटा तो हमने सार्वजनिक परिवहन से धनगढ़ी ही जाना उचित समझा। धनगढ़ी में भी वाहनों की हालत यही है और अभी आगे जाने की व्यवस्था नहीं हुई है। देखें कल क्या होता है।  

प्रेम पुनेठा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. 
मध्य-पूर्व के इतिहास और राजनीति पर निरंतर अध्ययन और लेखन. 
इनसे संपर्क के पते- prem.punetha@facebook.com और prempunetha@gmail.com

कैमरे की नजर : नेपाल संविधान सभा चुनाव

$
0
0

आगामी मंगसिर ४ गते (यानी 19 नवम्बर ) को नेपाल अपनी संविधान सभा को बनाने के लिए दुबारा चुनाव करेगा. बहुत जटिल प्रश्नों पर राजनीतिक दलों के आपसी मतभेद के चलते अभी भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि नेपाल अबकी संविधान सभा के चुनाव के बाद भी संविधान बना पायेगा या नहीं. संविधान निर्माण की प्रक्रिया के जिन अंतर्विरोधों से नेपाल अभी जूझ रहा है, इनकी परिणति ही भविष्य के नेपाल का खाका खींचेंगी. नेपाल का चुनाव सिर्फ नेपाल ही नहीं बल्कि वैश्विक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है. सामंती युग के बाद वामपंथी उम्मीदों के साथ लोकतंत्र की तरफ करवट बदलता नेपाल, अपने भीतर के घटनाक्रमों की तरफ ध्यान खींचता है. praxis में हम नेपाल से जुड़े घटनाक्रमों पर लगातार अपडेट दे रहे हैं. यहाँ प्रस्तुत है नेपाल से रोहित जोशी का एक फोटो फीचर...

 
सरहद बांटता पत्थर : बॉडर पिलर नंबर 7
(बनबसा-गड्डाचौकी)

सरहद पार कराने वाला तांगा 

वेलकम टू नेपाल

नेपाल का पहला शहर 6 किमी दूर

पहले चुनावी पोस्टर से मुलाक़ात (गड्डा चौकी)
चुनाव आयोग की ओर से फोर कलर पोस्टर पर है प्रतिबन्ध



बाईक रैली माने शक्ति प्रदर्शन का नया तरीका







नेकपा एमाले की बैक रैली देखती महिला
नेपाल में यातायात पूरी तरह निजी हाथों में है
यातायात मजदूरों के संगठन की एक चौकी

संविधान सभा चुनाव : नई यात्रा की तयारी

नेपाल संविधान निर्माण : एक धुंधला रास्ता

संविधान सभा चुनाव : अपना लक पहन के चलो

महेन्द्रनगर

संतरे

खसों की भी दावेदारी
नेपाल में 120 से अधिक राजनीतिक पार्टियाँ चुनावी मैदान में हैं  

'राष्ट्रीय जन मोर्चा' की बाइक रैली और आम सभा
ये पार्टी एक मात्र पार्टी है जो नेपाल को संघीय गणराज्य बनाए जाने के खिलाफ है

नेपाल में नंबर प्लेट का रंग लाल है
और इसे देवनागरी में सफ़ेद रंग से ही लिखा गया है. शायद इसकी अनिवार्यता है.  

मधेशी जनाधिकार फोरम

कंचनपुर (महेन्द्रनगर) में नेपाली कांग्रेस के
वरिष्ठ नेता शेर बहादुर देउबा की प्रेस वार्ता

शेर बहादुर देउबा

पुलिस की चुनावी तैयारी के बारे में बताते एसपी कंचनपुर, राजेंद्र प्रसाद चौधरी

बाइक रैली के लिए तेल भराते बाइकर्स

एनेकपा माओवादी का आह्वान

पांच लीटर तेल के लिए सभी बाइकें सभी पार्टियों की रैली में घूमती हैं

एक चौक पर माओवादी झंडा

गोल घेरे में हसिया हथौड़ा माओवादियों का चुनाव निशान


उजाले की ओर

भूमिहीनों की रैली : भूमि सुधार की मांग

यह रैली बाइकों में नहीं है

ज़िन्दगी का मुकद्दर suffer दर सफ़र

उमींद की बाईं करवट

पुलिस तैनात है

नोट गुनना

हुजूर को सामान छुट्यो की?

निर्वाचन आयोग के जागरूकता अभियान

लोकतंत्र के ऑब्जर्वर

नेकपा माओवादी के बंद के पहले की शाम में पुलिस की तैनाती

बंद का भरपूर असर : कैमरे की नजर 2 : नेपाल संविधान सभा चुनाव

$
0
0

10 सालों तक सशस्त्र संघर्ष के इतिहास वाली पार्टी ने जब बंद का आह्वान किया हो तो स्वाभाविक उसने सफल होना था. तो नेकपा माओवादी का बंद सफल रहा. पूरे नेपाल में इसका व्यापक असर रहा. वैद्य ग्रुप के लिए यह बड़ी उपलब्धि है. कल से ही हम जिला कैलाली के सदर मुकाम धनगड़ी में हैं. यहाँ से आगे बढ़ने के लिए कोई वाहन हमें भी नहीं मिला. पब्लिक ट्रांसपोर्ट तो बिलकुल बंद है और गाड़ी हायर करके भी आप आगे नहीं बढ़ सकते. क्योंकि कोई भी गाड़ीवाला आपके साथ चलने को तैयार नहीं होगा. तो अभी भी हमारी स्थिति यह है, कि कल भी हम मुश्किल से ही आगे बढ़ सकें क्योंकि यातायात कल भी बंद है. खैर आज दिन के धनगड़ी का जो दृश्य था उसमें से कुछ तस्वीरें...
-रोहित जोशी  

     
बंद

बंद का पूरा असर

'साहब ठेले से किसे दिक्कत है, दिक्कत हुई तो बढ़ा लेंगे या कहीं गलियों में लगा लेंगे'

बस अड्डे पर पूरा असर

इंतज़ार में यात्री

कुछ आराम कुछ इंतज़ार

गाड़ियों के लिए बंद है बैल गाड़ियों के लिए नहीं

बैलगाड़ी रिक्शा चलते रहे

आवश्यकीय सेवाएं सुचारू रहीं

मेरा क्या 'बंद', मेरा तो 'काम' है

नाले से मछली पकड़ना भी नहीं है 'बंद'

कुछ ठेले भी जारी

आर्म्ड पुलिस फ़ोर्स की गस्त

बंद में पुलिस

बंद का जायजा

साइकिलिंग-त्रिप्लिंग 

बंद :(



बंद की राजनीति बिसातों का खेल

बाजार बंद कैरम शुरू

हम भी देखें बंद


बंद में लाल झंडा

घर की वापसी

देर शाम तक बना रहा असर
-सभी तस्वीरें रोहित जोशी

प्रचंड की 'मैती महाकाली जन-जागरण रैली' : कैमरे की नजर 3 : नेपाल संविधान सभा चुनाव

$
0
0

नेपाल में नेकपा माओवादी के बंद के दूसरे चरण में यातायात बंद का असर आज भी जारी रहा. सड़कें सूनी रही. कल के बंद के चलते हम धनगड़ी से आगे नहीं बढ़ सके थे. आज कुछ लोकल पत्रकार मित्रों की मदद से एक गाड़ी हमारे साथ चलने को तैयार हुई. धनगड़ी से तकरीबन पचास किमी दूर मसूरिया में एनेकपा के नेता पुष्प कमल दहाल 'प्रचंड' की 'मैची महाकाली जन जागरण रैली' से हमारी मुलाक़ात हुई. इस रैली और हमारी नेपालगंज तक की आज की यात्रा की कुछ तस्वीरें यहाँ प्रस्तुत हैं...
-रोहित जोशी 

बड़ी मुश्किल से मिली गाड़ी

बंद का असर दूसरे दिन भी



मसुरिया में प्रचंड की मैती महाकाली जनजागरण रैली का स्वागत 

हसिये हथौड़े का स्टेयरिंग

रैली के लिए ट्रैक्टर में आते लोग

प्रसंशकों से घिरे प्रचंड

गांवों से नारेबाजी के साथ रैली के लिए आते युवा

पुष्प कमल दहाल प्रचंड

प्रचंड का स्वागत


स्वागत में थारु लोक नृत्य

Add caption










और फिर संबोधन

दूसरी तरफ बंद जारी है



कर्णाली पुल
पहाड़ों से उतरती यौवना कर्णाली विहंगम कर्णाली

खूबसूरत कर्णाली

विहंगम कर्णाली




जापानी तकनीक का कर्णाली पुल 






नेपाल में देवनागरी में ही लिखे जाते हैं गाड़ी के नंबर
हिंदी दिवस/सप्ताह/पखवाड़ा मनाने वालों को एक सबक

खूबसूरत बर्दिया नेशनल पार्क के बीच एनएच

 बर्दिया नेशनल पार्क का चेक पोस्ट

बर्दिया नेशनल पार्क का चेक पोस्ट

ई है बबई नद्वा तू देख बबुआ : बबई नदी (बर्दिया नेशनल पार्क)

नेपालगंज में एंट्री : मोहर्रम के ताजिये की तैयारी

मधेशियों की सबसे पुरानी सद्भावना पार्टी


मधेशियों के बीच सद्भावना पार्टी की एक सभा






सद्भावना पार्टी के नेता डॉ. जीतेन्द्र महासेठ

सभा जारी है

देर शाम : नेपाल चुनाव : हलचल जारी है


संगीनों के साये में ‘लोकतंत्र’ का महापर्व : छत्तीसगढ़ चुनाव

$
0
0
-सुनील कुमार
सुनील कुमार

"...लोकतंत्र में लोगों को अपने मन से चुनाव डालना होता है। लेकिन छत्तीसगढ़ के चुनाव में देखा गया कि किस तरह भारी फोर्स लगा कर चुनाव कराया गया आलम यह रहा कि अबूझमाड़ में बारह हजार मतदताओं के लिए बीस हजार जवानों को लगाया गया है। बस्तर व राजनन्दगांव में चुनाव के लिए सीआरपीएफ और राज्य सशस्त्र पुलिस की 560 कम्पनियां तैनात की जा रही है जबकि पहले से 33 सुरक्षा बलों का बटालियन तैनात है। 18 सीटों के ‘लोकतंत्र’ का महापंर्व सम्पन्न कराने के लिए लगभग 56 हजार हथियारंबद जवानों को उतारा गया है। इसके अलावा 19 हेलिकाप्टर को लगाया गया है। सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआईएसएफ, आईटीबीपी और 10 राज्यों की आम्र्ड फोर्सेज के आला अधिकारियों का ज्वांइट ग्रुप बनाया गया है, जो हर दो घंटे पर समीक्षा कर कर रहा है। क्या यह तैयारी किसी ‘लोकतंत्र’ के चुनाव जैसा है या लड़ाई जैसा?..."

छत्तीसगढ़ के 18 सीटों पर करीब 67 प्रतिशत मतदान होने की खबर आ रही है। जिसे भारत की मुख्य मीडिया, छत्तीसगढ़ सरकार व भारत का शासक वर्ग एक जीत के रूप में देख रहा है। सभी अखबारों में बुलेट पर भारी बैलट नामक शीर्षक से खबरें बनाई गई हैं। इसे लोकतंत्र की जीत माना जा रहा है और लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत के रूप में देखा जा रहा है। 27 सितम्बर, 2013 के सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद पहली बार देश में नोटा (उम्मीदवारों को नकारने का) बटन का प्रयोग किया गया है। क्या सचमुच यह लोकतंत्र में लोगों की जीत है या नोटा का प्रभाव है या सरकारी आंकड़ों का खेल है?

नोटा का प्रयोग

27 सितम्बर, 2013 के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि सभी ईवीएम मशीन में गुलाबी रंग का नोटा बटन लगाया जाये और लोगों को इसके लिए जागरूक किया जाये। लेकिन सरकार ने इस काम को पूरा नहीं किया गया। दंतेवाड़ा के कट्टेकल्यान के मतदान अधिकारी मुन्ना रमयणम से जब बीबीसी संवादाता ने नोटा बटन में विषय बात की तो वे नोटा बटन को लेकर अनभिज्ञ थे। उन्होंने बताया कि जब इलेक्शन ड्यूटी की ट्रेनिंग दी जा रही थी उस समय भी नोटा को लेकर कुछ नहीं बताया गया।  मुन्ना रमायणम स्थानीय निवासी हैं और वो गोंडी भाषा के जानकार भी हैं वो अच्छे से बस्तर के आदिवासियों को गांेडी में समझा सकते थे जो कि बाहरी लोगों के लिए समझाना आसान काम नहीं है। लेकिन जब उनको ही नोटा के विषय में मालूम नहीं है तो वो कैसे बतायेंगे लोगों को? क्या यह सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का उल्लंघन नहीं है? क्या शासन-प्रशासन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का मजाक नहीं उड़ा रहे हैं? क्या उन पर कोर्ट की अवमानना का केस हो सकता है?

माओवादी चुनाव बहिष्कार के साथ-साथ, गांव-गांव जाकर ईवीएम मशीन के द्वारा नोटा के बारे में बता रहे थे। इवीएम मशीन कम होने के कारण वे गत्ते का प्रयोग कर लोगों को नोटा के लिए जागरूक कर रहे थे। हो सकता है कि माओवादियों के इस रणनीति के तहत भी वोट का प्रतिशत बढ़ा हो। 

लोकतंत्रमें लोगों को अपने मन से चुनाव डालना होता है। लेकिन छत्तीसगढ़ के चुनाव में देखा गया कि किस तरह भारी फोर्स लगा कर चुनाव कराया गया आलम यह रहा कि अबूझमाड़ में बारह हजार मतदताओं के लिए बीस हजार जवानों को लगाया गया है। बस्तर व राजनन्दगांव में चुनाव के लिए सीआरपीएफ और राज्य सशस्त्र पुलिस की 560 कम्पनियां तैनात की जा रही है जबकि पहले से 33 सुरक्षा बलों का बटालियन तैनात है। 18 सीटों के ‘लोकतंत्र’ का महापंर्व सम्पन्न कराने के लिए लगभग 56 हजार हथियारंबद जवानों को उतारा गया है। इसके अलावा 19 हेलिकाप्टर को लगाया गया है। सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआईएसएफ, आईटीबीपी और 10 राज्यों की आम्र्ड फोर्सेज के आला अधिकारियों का ज्वांइट ग्रुप बनाया गया है, जो हर दो घंटे पर समीक्षा कर कर रहा है। क्या यह तैयारी किसी ‘लोकतंत्र’ के चुनाव जैसा है या लड़ाई जैसा?

इन जवानों को स्कूलों, हास्टलों व आश्रमों में ठहराया गया है। इन इलाकों में चुनाव होने तक स्कूल बंद रखने की घोषणा की गई है। यह सुप्रीम कोर्ट के 18 जनवरी, 2011 के आदेश के खिलाफ हैं जिसमें छत्तीसगढ़ सरकार से सुरक्षा बलों को स्कूलों, हॉस्टल और आश्रमों से हटाने को कहा गया था। पुलिस महानिदेशक रामनिवास के अनुसार ‘‘सुरक्षा बलों को स्कूलों में ठहराने का निर्णय हमने चुनाव आयोग की सहमति के बाद लिया है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। हमने केन्द्रिय चुनाव आयोग से इसके लिए अनुमति मांगी थी और उनकी सहमति के बाद ही हमने सुरक्षा बलों को स्कूलों में ठहराया है।’’ कानून के जानकारों के अनुसार यह सीधे-सीधे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है। 

बीजापुरके 243 मतदान केन्द्रों में से 104 मतदान केन्द्रों को अतिसंवेदनशील तथा 139 मतदान केन्द्रों को संवेदनशील माना गया है। 167 मतदान केन्द्रों को भीतरी इलाके से यह कह कर हटा दिया गया कि वहां मतदानकर्मियों का पुहंचना मुश्किल है। अगर यहां के मतदाताओं को वोट डालना है तो उनको  40 से 60 किलोमीटर का सफर तय करके वोट डालना पड़ेगा। सवाल यह है कि जिस सरकार को जनता टैक्स देती है उसी जनता तक पहुंचने के लिए सरकार के पास संसाधन नहीं है। तो क्या वह गरीब मतदाता जो अपने जीविका के लिए जूझ रहा है इतनी दूर पहुंच कर अपने मतों का इस्तेमाल कर सकेगा? क्या लोगों को इस ‘लोकतंत्र’ में कोई जगह है? लोगों को इस तंत्र से दूर भगाने में सरकार की सभी मशीनरी शामिल है।

जनता हाशिये पर

संगीनों के साए में प्रचार हुआ और संगीनों के साए में मतदान भी हो गया। सड़कों पर चलना दूभर है जगह-जगह नाकाबंदी व चेकिंग की जा रही है। सड़कों से छोटे और बड़े वाहन भी गायब हैं सभी वाहनों को जब्त कर चुनाव कार्यों में लगा दिया गया है। जो भी गाडि़यां जब्त है उनके ड्राइवर एक तरह से बंधक बने हुए हैं। वे अपने वाहन मालिकों, घरों पर फोन से सम्पर्क नहीं कर सकते उनके पास खाने, रहने को कुछ नहीं है वे अपने गाडि़यों में ही बीस दिनों से सो रहे हैं। ड्राइवरों का कहना है कि उन्हें सीधे सड़क से पकड़ लिया गया। मालिक से मिलने का मौका ही नहीं मिला। यहां न एटीएम है न ही मोबईल का नेटवर्क और न ही यहां आया जा सकता है। प्रशासनिक अधिकारियों से खर्च मांगने पर कहते हैं कि वाहन मालिक से पैसा मांगों। मालिक भी पैसा भिजवाए तो कैसे, इस बिहड़ में पैसे लेकर कौन आएगा? ये ड्राइवर अपनी घड़ियों तथा स्टेपनी (एक्सट्रा टायर) को बेच कर अपने खाने का जुगाड़ कर रहे हैं। इस बात को छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त ट्रांसपोर्ट कमिश्नर डी रविशंकर भी मान रहे हैं कि उनके विभाग के पास इस तरह की शिकायतें मिल रही है। उन्होंने कहा कि ‘‘हमने यह साफ निर्देश दिए हैं कि जिले के स्तर पर कलक्टर और एसपी इन ड्राइवरों के खाने-रहने और सुरक्षा की व्यवस्था करें। मगर इसके बावजूद हमें शिकायतें मिल रही है। हमने फिर प्रशासनिक अधिकारियों को लिखा है।’’

चुनावी मुद्दे

किसी भी संसदीय राजनीतिक पार्टियों के पास जनता का कोई मुद्दा नहीं रह गया है। जनता के जीविका के संसाधन जल-जंगल-जमीन की लूट, आपरेशन ग्रिन हंट, माओवादी बताकर फर्जी इनकांउटर व जेलों में बंद हजारों आदिवासियों को बंद रखना, महिलाओं के साथ जवानों द्वारा बलात्कार किसी भी पार्टी का चुनावी मुद्दा नहीं रहा है। खासकर दो राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां जो लोगों को बरगलाने के सिवा और कुछ नहीं कर रही हैं। जहां छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने दर्भा घटना में मारे गये कांग्रेसी नेताओं को भुनाने की कोशिश की वहीं भाजपा के पास केन्द्र में कांग्रेस सरकार को कोसने के अलावा और कुछ नहीं बचा है। जिस सलवा जुडूम में दोनों पार्टियों की सहभागिता रही है और करीब 650 गांवों के करीब दो लाख आदिवासियों को उजाड़ दिया गया वह किसी भी पार्टी के लिए चुनावी मुद्दा ही नही बन पाया। वह आदिवासी कहां गये किस हालत में है उस पर आज तक न तो छत्तीसगढ़ सरकार, केन्द्र सरकार और न ही किसी संसदीय राजनीतिक पार्टियों द्वारा खबर ली गई। 
आंध्रप्रदेश के खम्म जिले में छत्तीसगढ़ से पलायन कर के आए मुरिया और माडि़या आदिवासियों की दो सौ से ज्यादा बस्तियां हैं। उनके प्रधान पदम पेंटा कहते हैं कि जब वे लोग सुकमा के सुदूर इलाकों में रहा करते थे तो वहां कभी कोई सरकारी अधिकारी या नेता उनका हाल-चाल पूछने उनके गांव नहीं आया और न ही यहां कभी कोई अधिकारी, मंत्री या नेता आये। वे कहते हैं कि वहां भी हमारा कोई नहीं था यहां भी हमारा कोई नहीं है। वह बताते हैं कि इस इलाके में पलायन करके आये लोगों की संख्या एक लाख से ज्यादा हो सकता है क्योंकि कोई सर्वे अभी तक नहीं हुआ है। गांव के बुर्जुगों का कहना है कि उनके बच्चों की शिक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं है कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने बच्चों को पढ़ाने के लिए पहल की तो आंध्र प्रदेश सरकार के फरमान से वह काम बंद  हो गया। 

क्या इस तरह के संगीनों के साये में ‘लोकतंत्र’ के महापर्व को मना कर हम लोगों को जोड़ पायेंगे या ‘लोक’ को गायब कर तंत्र की ही रक्षा करते रहेंगे? मतदान के प्रतिशत बढ़ने का कारण कुछ भी हो उससे क्या आम लोगों को लाभ मिलेगा? क्या स्कूल से वंचित बच्चों के शिक्षा पूरी हो पायेगी? क्या उन ट्रक चालकों को न्याय मिल पायेगा जो बीस दिन से भूखे-प्यासे सरकार की ड्यूटी बजा रहे हैं, क्या कोई न्यायपालिका, मानवाधिकार आयोग इनकी खोज-खबर करेगी?

सुनील कुमार सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. 
इनसे संपर्क का पता sunilkumar102@gmail.com है.

इतिहास के साथ दो दिन की यात्रा

$
0
0
कृष्णा पोफले

"..पहले दिन सीरी फोर्ट चिल्ड्रेन पार्क के भीतर मौजूद भारतीय पुरातत्व के विशाल संग्रह से कुछ महत्वपूर्ण मूर्तियों की प्रतिकृति के एक संग्रहालय से इस सफ़र की शुरुआत हुई. यहाँ भू-धूसरित हो चुके बटेश्वर मंदिर के पुनर्निर्माण की कहानी पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'रिबर्थ ऑफ़ अ फोर्गोटन टेम्पल कॉम्प्लेक्स'की स्क्रीनिंग का एक छोटा सा आयोजन किया गया था. (यह फिल्म आप यहाँ praxis में देख भी सकते हैं.)  इसके बाद इस म्यूजियम और उससे जुडी मूर्तियों के इतिहास की यात्रा हमने के.के. मुहम्मद की जुबानी की..."

तिहास और धरोहरोंका पुलिंदा है भारत और खास कर दिल्ली शहर।दिल्ली आठवीं शताब्दी से किसी न किसी राजघराने की राजधानी रही है और हर घराने ने दिल्ली में अपने राजपाट के लिए अलग-अलग इमारतेंबनायी जो आज दिल्ली की विरासत का एक हिस्सा है।दिल्ली के पहले राजघराने तोमर से लेकर अंग्रेज़ो तकहर किसी ने दिल्ली की वास्तुकला पर अपनी छाप छोड़ी है। 

पिछलेदिनों दो दिन इतिहास की इन परतों के भीतर झांकने का मौका मिला, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के जानेमाने  पुरातत्वविद्के.के. मुहम्मद और इतिहास को लेकर संवेदित कुछ और नए पुराने लोगों के साथ जिनमें युवाओं की भी बढ़ चढ़ कर भागीदारी थी.के. के. मुहम्मद पुरातत्व विभाग से दो साल पहले दिल्ली सर्किल हेड के पद सेरिटायर हुए हैं।उन्हेंनालंदाफतेहपुर सिक्री खजुराहो और मध्य प्रदेश के बटेश्वरमंदिरोंको दोबारा से पुनर्जीवित करने के लिए जाना जाता है।

पहलेदिन सीरी फोर्ट चिल्ड्रेन पार्क के भीतर मौजूद भारतीय पुरातत्व के विशाल संग्रह से कुछ महत्वपूर्ण मूर्तियों की प्रतिकृति के एक संग्रहालय से इस सफ़र की शुरुआत हुई. यहाँ भू-धूसरित हो चुके बटेश्वर मंदिर के पुनर्निर्माण की कहानी पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'रिबर्थ ऑफ़ अ फोर्गोटन टेम्पल कॉम्प्लेक्स'की स्क्रीनिंग का एक छोटा सा आयोजन किया गया था. (यह फिल्म आप यहाँ praxis में देख भी सकते हैं.)  इसके बाद इस म्यूजियम और उससे जुडी मूर्तियों के इतिहास की यात्रा हमने के.के. मुहम्मद की जुबानी की.  

मुहम्मदइस म्यूजियम को एक मिनी एशिया म्यूजियम के रूप में बनाना चाहते थे जिसमें भारत की 150 मूर्तियों की प्रतिकृतियाँऔर बाकी एशिया की 100 मूर्तियों की प्रतिकृतियाँरखने का विचार था।  लेकिन सरकारी लाल फीताशाही के कारण मुहम्मद का ये सपना पूरा नहीं हो सका और वे इसमें कुछ ही मूर्तियों कि प्रतिकृतियांरख पाये।

म्यूजियमके बाद सीरी किले की तरफ यह दल बढ़ा जहाँ मुहम्मद ने सीरी किले के इतिहास की जानकारी दी. 
 

अगलेदिन इसी कड़ी में दिल्ली के पहले किले को घूमने की योजना थी जो आज तक वक्त के थपेड़ो से अपनी बाहरी दीवारों को बचा पाया है और इसके आसपास के जंगल ने इसे बचाये रखने में मदद कि है।ये है'किला लाल कोटजिसकी नीव रखीथीतोमरों ने।  ऐतिहासिक कागजातों के अनुसार इस किले को पूरा किया था मुग़ल पूर्व भारत के सबसे चर्चित राजापृथ्वीराज चौहान ने।  पृथ्वीराज चौहान के दूसरे नाम राय पिथौरासे इस किले को किला-ए-राय पिथौरा नाम से भी जाना जाता है।  जो आज भी मालवीय नगर मेट्रो स्टेशन से बाहर निकलकर देखा जा सकता है।

ये किला आज दक्षिणी दिल्ली स्थित मेहरौली के संजय वन में है जो काफी बड़ा जंगल हैजिसका दिल्ली जैसे एक बड़े महानगर में बचके रहना एक बड़े ताज्जुब की बात है। 

दिल्लीमें इस इतिहास को संजोकर रखने में भारतीय पुरातत्व विभाग के अलावायुवाओं के कुछ ऐसे ग्रुपभी है जो लोगों को इन धरोहरों की पहचान करातेहैं और उन्हें वहा ले जाकर उसके इतिहास से भी उसका परिचय करवाते हैं।  पिछले सप्ताह मुझे ऐसे ही दो युवकोंसे मिलने मौका मिला जो अपने इतिहास के प्रति गंभीरहै और इसे संजो कर रखने में अपनी छोटी सी भूमिका निभा रहे हैं।ये हैं विक्रमजीत सिंह रूपराय  और आसिफ खान देहलवी। 

विक्रमजीतदिल्ली हेरिटेज फोटोग्राफी क्लबचलाते है जिसका उद्देश दिल्ली की धरोहरों की पहचान करवाना और साथ ही साथ फोटोग्राफी के शौकीनों कोइन धरोहरों की फ़ोटोग्राफीकरने का एक सुनहरा मौका भी देना है। आसिफ, 'दिल्ली कारवां'नाम से एक ग्रुप चलाते हैं जो हर सप्ताहांत में दिल्ली के धरोहरों कि पैदल सैर कराता है और इन धरोहरो कि जानकारी देता है। 

तो इससुबह की शुरुवात हुई क़ुतुब मीनार के पास स्थित योगमाया मंदिर से।  ये मंदिर दिल्ली का सबसे पुराना मंदिर माना जाता है और मान्यता है कि पांडवोंने इसकी स्थापना अज्ञातवास  के समय की थी।हम इस मंदिर के दर्शन कर के निकले जंगल के अंदर पहुंचे

जंगलके थोडाअंदर जाते ही हमारी मुलाक़ात अंगद ताल से हुई जो दिल्ली का पहला कृत्रिम तालाब है जिसे तोमर राजघराने ने किले के साथ-साथ बनवाया था ताकि किले में रहने वाले लोगों की पीने के पानी कि आपूर्ति हो सके।  इसे के. के. मुहम्मद ने दिल्ली सर्किल में रहते हुए खुदाई करके खोज निकाला था।जब खुदाई हुई थी ये एक काफी बड़ा तालाब था लेकिन ६ साल में यहाँ एक घना जंगल उग आया है।ये पूरा जंगल  होना तो चाहिए पुरातत्व विभाग के पास लेकिन डी. डी. ए. के कुछ लोगों ने ये होने नहीं दिया जबकि दिल्ली के राज्यपाल इसके लिए तैयार हो गए थेमुहम्मद ने बताया।  आज केवल किले कि दीवार पुरातत्व विभाग द्वारा सरंक्षित है। 

अंगदताल से आगे बढ़कर जंगल से बढ़ते हुए हम धीरे-धीरे किले की दीवार की ओर बढ़ने लगे।किले की दीवार के पास विक्रमजीत ने हमें किले के कमरों के अवशेष दिखाए। कमरे देखकर हमकिले की मुख्य दीवार पर पहुचे।मुख्य दीवार पर भी हमें विक्रम ने कुछ कहानिया बताई।  मुख्य दीवार दो बाहरी दीवारों के अंदर है। यहीं पर किले मुख्य द्वार 'फ़तेह बुर्ज'था।  किले के मुख्य द्वार के पास हाजी अली रोज़ और बी की दो मजार है।  हाजी अली रोज के बारे जानकारी मिलती है कि वो दिल्ली कि सरजमीं पर कदम रखने वाले पहले सूफी काफिले के साथ दिल्ली आये थे।  उन्ही के साथएक और मजार है।  ये मजार किसकी है इसके बारे में ठीक जानकारी नहीं मिलती पर कहा जाता है कि ये मजार पृथ्वीराज चौहान की बेटी की है जो हाजी अली रोज़ को गुरु मानती थी  और सूफी परंपरा में शिष्य को गुरु के बाजू में दफ़नाने कि परंपरा है।  जिन्होंने ये मज़ारे कुछ साल पहले खोज के निकली थी वो सय्यद कासिम भी हमारे साथ थे।  वो मजारों का नाम लेते हुए रोज़ और बी का उच्चारण एक साथ कर रहे थेइससे वहां का गार्डथोड़ासा नाराज़ हो गया और उसने थोड़े से गुस्से से ही कहा कि आपको नाम ऐसे नहीं लेना चाहिए।  गार्ड के मुताबिक चौहान की दोनों बेटियों ने इस्लाम कबूलकर लिया था और इससे चौहान काफी नाराज़ हो गया था और उसने अपने दोनों बेटियों को मारने का आदेश दिया। 

इसपूरे इलाके से क़ुतुब मीनार का भी एक बेहतरीन नज़ारा दिखता है.

वहांसे आगे निकल कर हम जाना चाहते थे आशिक अल्लाह की मजार पर जो थोड़ी दूर बनी है।  लेकिन इस जंगल में आज भी एक संत रहते है जो इन मज़ारों का रखरखाव भी करते हैंवो रास्ते में ध्यानलगाकर बैठे हुए थे।  हम उन्हें परेशाननहीं करना चाहते थे इसलिए हम आशिक अल्लाह की मजार पर नहीं गए।  आशिक़ अल्लाह के बारे में भी कहा जाता है कि वो एक सूफी संत थे लेकिन उनके बारे में भी कोई ठोस जानकारी नहीं मिलती। 

यहाँसे हम जंगल से बाहर निकले और गए आदम खान के मकबरे में गए जो मेहरौली गाव में स्थित है।  आदम खान अकबर की दाई माँ महामंगा का बेटा  था और अकबर की एक सैन्य टुकड़ी का सरदार।अकबर के एक दूसरी दाई  माँ  जीजी अंगा का पति, शम्सुद्दीन अत्गा खान, अकबर का वज़ीर हुआ करता था।एक बार उसे शक हुआ कि आदम खान कुछ पैसे  इधर उधर कर रहा है और अपनी टुकड़ी का हिसाब ठीक सेनहीं दे रहा है तो उसने आदम खान से जवाब तलब किया लेकिन आदम खान ने जवाब तो दिया नहीं पर उसका खून कर दिया।  इस कारण अकबर आदम खान से बहुत नाराज़ हुआ और उसने उसे सजा-ए-मौत दी।  उसे आगरा के किले कि दिवार से निचे फेंका गया लेकिन क्योंकिआदम खान एक हट्टा कट्टा इंसान था वो मरा नहीं।  इसलिए उसे दोबारा फेंका गया। इस बार उसकी मौत हुई।  लेकिन अकबर को उसकी मौत की पक्के से इतलाह करनी थी  इसलिए उसने उसे दोबारा फेकने का हुक्म दिया। उसके मृतदेह को फिर फेका गया।  इस के बाद उसके मृतदेह को दिल्ली भेजा गया और मेहरौली में उसे दफनाकर यहाँ उसका मकबरा बनाया गया।  इस मकबरे का इस्तमालब्रिटिश काल से पोस्ट ऑफिस के रूप में हो रहा था और कुछ साल पहले इस वास्तु को पुरातत्व विभाग ने अपने कब्जे में लेकर इसे सरंक्षित घोषित किया। 

यहाँसे हम गए बाबा बंदा बहादर के शहीदी स्थान पर जहाँ आज एक गुरुद्वारा बना हुआ है।  बाबा बंदा बहादर को गुरु गोविन्द सिंह जी ने प्रशिक्षण देकर एक वन मैन आर्मी के तौर पर तैयार किया।  और बाबा बंदा बहादर अकेले औरंगजेब से लड़ने दिल्ली कि तरफ निकल पड़े।  उन्होंने मुग़ल सेना का काफी नुकसान किया जब तक उन्हें पकड़ा गया और मेहरौली में शहीद किया गया। 

इस तरह ये मेरा दिल्ली के इतिहास का पहला वॉक ख़त्म हुआ और ये एक बहुत अच्छाऔर अलग अनुभव था।


'कृष्णा'स्वतंत्र पत्रकार हैं.
आईआईएमसी से अंग्रेजी पत्रकारिता की पढ़ाई.
 मुंबई में Financial Express और Business Standerd में नौकरी.
इनसे krrishjune@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.

क्या चुनेगी दिल्ली!

$
0
0
-आशीष भारद्वाज

आशीष भारद्वाज

"...दिल्ली का अपना एक नायाब सा कैरेक्टर है: वो ऊपर से बदलती है लेकिन अंदर से एकदम स्थितिप्रज्ञ, ठहरी हुयी सी होती है. मानो उसे पता हो कि इतनी आसानी से कुछ नहीं बदलना. दिल्ली ऐसे ही नहीं बदल जाती! वो वक़्त लेती है. वक़्त बदल रहा है. तथाकथित “सोशल मीडिया” की सूईयों ने वक़्त की रफ़्तार बढ़ा दी है. चौबीस घंटे में करोड़ों अपडेट्स समय को- समझ को भ्रामक बना दे रहे हैं. सूचना समझ पर हावी होती दिख रही है..."


दिल्ली चुनाव के दौर में हो तो एक शहर और मुल्क के सियासी केंद्र के बतौर ये और भी रोचक जगह हो जाती है. विधान सभा चुनाव में स्थानीय मुद्दों और बेहद ज़मीनी सवालों की वजह से इस शहर की सरगर्मियां अपने चरम पर हैं. अगर इस वक़्त आप दिल्ली में हैं तो आपके ना चाहने के बावजूद भी गली-नुक्कड़ और चौराहों से मुद्दों की धमक नारों के बतौर आपके कानों तक पंहुच जाती है. और अगर आप बाख़बर रहते हुए इस शहर को और ज़्यादा जानना चाहते हैं तो इससे बेहतर वक़्त हो नहीं सकता! सत्ता की रोटी को सिंकने के लिए जनता की आंच चाहिए होती है और संभवतः इसीलिए दिल्ली रोज़ बढ़ रहे कुहरे के बावजूद गरम हो रही है.

सियासीतौर पर अब तक केवल दो तरह की करवटें बदलने वाली दिल्ली के पास इस बार एक तीसरी करवट का विकल्प भी है. बहुत ठोस या स्थापित सांगठनिक ढाँचे के ना होने के बावजूद भी आम आदमी पार्टी विधान सभा में अपनी मौजूदगी दर्ज कर देगी, इसकी तस्दीक तकरीबन हर ओपिनियन पोल कर चुका है. ऐसे में रोचकता का नया अध्याय तब शुरू होगा जब परिणाम संभवतः एक त्रिशंकु विधानसभा के रूप में आयेगा. ज़ाहिरी तौर पर इस तरह की स्थिति तक पंहुचने से पहले यमुना का बहुत पानी बह चुका है, मगर मसले नहीं. मसला अमूमन वही सब है जिसके अपेक्षा आज के चुनावी दौर में की जा सकती है. पानी-बिजली और सुरक्षा का मसला, अफसरशाही पर लगाम और भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का मसला आम तौर पर सभी आम मतदाताओं के रुझान का वह प्रस्थान बिंदु है जिससे सभी सियासी दल सवाल-जवाब में जुटे हैं.

यहाँकांग्रेस की सरकार पिछले पंद्रह सालों से है लेकिन पिछले कार्यकाल के दौरान शीला सरकार को कई धक्कों का सामना करना पड़ा है. महंगाई, कमाई और बर्दाश्त की सीमाओं से बाहर है और नौजवान, अवसरों और रोज़गार की सीमा से! अनियमित कॉलोनियां नियमित हो सकने के सनातन इंतज़ार में हैं और आधी आबादी सुरक्षा और मान-सम्मान के इंतज़ार में. पिछले बरस सोलह दिसंबर की काली रात को हुए गैंगरेप ने पूरी दिल्ली को झकझोर कर रख दिया था. नौजवानों के आक्रोश के आगे रायसीना की पहाड़ी छोटी पड़ गयी थी. आधी आबादी बेख़ौफ़ आज़ादी के सवाल से पीछे हटने को ना तब तैयार थी और ना ही अब. इस पूरे आन्दोलन में दिल्ली के नौजवानों ने अपनी “अराजनीति” को लांघा था और एक सुंदर और सुरक्षित दिल्ली का सपना बुना था. शीला दीक्षित की सरकार इस सपने को हकीकत में बदलने में नाकाम रही है. ऊपर से घोटालों और महंगाई ने मतदाताओं के मन में “एक विकल्पहीन सा मोहभंग” पैदा कर दिया है. वो इस सरकार को सबक तो सिखाना चाहते हैं पर उन्हें इस तथ्य का कोई इल्म कम ही जान पड़ता है कि वो क्या चुनें! कई अखबारों और पत्रिकाओं में छपी हालिया चुनावी कहानियां भी कमोबेश यही तस्वीर बयां कर रहीं हैं. ऐसे में कांग्रेस रक्षात्मक मुद्रा में इस चुनावी वैतरणी में उतरना चाहती है. पार लगे तो अच्छा-डूब गए तो और भी अच्छा!

मुख्यविपक्षी दल भाजपा मज़बूत और एकजुट दिखने की कोशिशों में पस्त सी होती हुयी नज़र आती है. भाजपा “आतंरिक लोकतंत्र” का एक मनोरंजक और तमाशाई उदाहरण है. हाल ही में उन्हें अपना नया नेता मिला है- मुल्क में और दिल्ली में भी. नयेपन को लेकर भारतीयों और दिल्ली वालों की शंका कतई गैरवाज़िब नहीं है. ये हमारी रगों में है. परखेंगे नहीं तो चुनेंगे कैसे? प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी की दिल्ली में हुई रैली कोई ख़ास असर पैदा कर नहीं पाई. दूसरे राज्यों में हो रही रैलियों में भी मोदी गलतियों और विवादों का इंतजाम ज़्यादा कर रहे है, वोटों का कम! उनकी “गर्जनाएं” आम लोगों को डरा ज़्यादा रहीं हैं. वे ऊब रहे हैं-दूर हो रहे हैं! दिल्ली में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हर्षवर्धन भाजपाइयों में “हर्षोल्लास का वर्धन” कर सकते हैं लेकिन वोटों का नहीं!  भाजपा को इस तथ्य का इल्हाम है कि जनता कांग्रेस और भाजपा में कोई बड़ा मौलिक फर्क नहीं देख पा रही. आर्थिक-सामाजिक नीतियों और चाल-चरित्र-चेहरे में ये दोनों बड़े दल अमूमन एक जैसे हैं. ऐसे में ठोस भौतिक मुद्दों पर बस आक्रामक और सतही विरोध ही वो रास्ता बचता है जिस पर ये दोनों बड़े दल अपने प्रचार को आगे बढ़ा रहे हैं. यही तो वो हालात है ना. इन्हीं की बदौलत तो “विकल्पहीनता” मज़बूत हो रही है. दिल्ली में भाजपा बस “विकल्पहीनता का विकल्प” हो सकता है-एक ठोस विकल्प तो कतई नहीं. संभव है कि चुनाव बाद वे सापेक्षिक रूप से ज़्यादा सबल दिखें, लेकिन ये काफी नहीं होगा. जिस राज्य में पानी का मिलना भी एक बड़ा सवाल हो, वहां भाजपा के लिए शायद खुसरो ही ये कह गए हों- “बहुत कठिन है डगर पनघट की!”

औरअब ठहरी “आम आदमी पार्टी.” ये विकल्प नया है. ताज़ा है कि नहीं, इस पर राजनीतिक विश्लेषकों में मतभेद है. लोग पूछ रहे हैं कि क्या ये विकल्प भरोसे के लायक है? अन्ना के आन्दोलन से उपजी इस पार्टी से आजकल अन्ना के ही मतभेद चल रहे हैं. अरविन्द केजरीवाल एक ब्यूरोक्रेट रहे हैं और उन्हें इस तथ्य का  अहसास है कि नौकरशाही ने “भ्रष्टाचार के इस पूरे प्रोजेक्ट” में अग्रणी भूमिका निभायी है. साथ ही उन्हें नेताओं की उस मौन सहमति का भी पता है जिसके बूते ये पूरा “घोटाला अध्याय” पूरा हुआ है. अरविन्द को अपनी सीमाएं भी पता हैं. शायद उन्हें पता है कि भ्रष्टाचार और तमाम घोटाले इस “भ्रष्ट व्यवस्था” की देन है लेकिन केजरीवाल इसे सतही इलाज़ दे रहे हैं. वो लड़ रहे हैं लेकिन ‘लड़ाकू’ नहीं दिखते! वे एक क्रांतिकारी-परिवर्तनकामी नेता की बजाय एक मजबूर नेता ज़्यादा नज़र आते हैं जिनसे हमें सिम्पैथी हो सकती है, सहमति नहीं! तभी तो तमाम “मीडिया चुनावी पूर्वानुमान” इस शंका का फायदा आठ-दस सीटों के बतौर “आप” को दे रहे हैं, आपको नहीं!

आपकोलग रहा होगा कि ऐसे विकल्पहीनता के दौर में दिल्ली क्या चुनेगी? फिर आप शायद ये भी सोचेंगे कि दिल्ली ने आख़िरकार आजतक चुना ही क्या है? वो शासित होती रही है, शासक नहीं. ऐसा मालूम पड़ता है मानो दिल्ली आज भी अपने इतिहास से मुक्त ना हुई हो. काश, इस बार वो मुक्त होने की कोशिश करे पर ऐसा होता हुआ नहीं दिखता! ये वही विकल्पहीनता है जिसका ज़िक्र पहले हो चुका है. दरअसल हालात ऐसे ही हैं. पिछले बीस-बाईस सालों से जो चल रहा है, उसके उपादान के बतौर हम एक ऐसे समाज में ठेल दिए गये हैं जहाँ चयन एक अपराध जैसा कुछ है. तरफदारी आज क्राईम है. अपने जीवन और समाज-राजनीति को तय करना आज मानो हम से परे है. ये अलगाव हमारे इतिहास से नत्थी है. जनता अलग होती गयी और राजनीति जनता से स्वायत्त. दिल्ली मजदूरों, अप्रवासियों से भरी रही लेकिन वे कभी वे इतने एकजुट नहीं हुए कि बदलाव की शक्ल अख्तियार कर सकें.

दिल्लीका अपना एक नायाब सा कैरेक्टर है: वो ऊपर से बदलती है लेकिन अंदर से एकदम स्थितिप्रज्ञ, ठहरी हुयी सी होती है. मानो उसे पता हो कि इतनी आसानी से कुछ नहीं बदलना. दिल्ली ऐसे ही नहीं बदल जाती! वो वक़्त लेती है. वक़्त बदल रहा है. तथाकथित “सोशल मीडिया” की सूईयों ने वक़्त की रफ़्तार बढ़ा दी है. चौबीस घंटे में करोड़ों अपडेट्स समय को- समझ को भ्रामक बना दे रहे हैं. सूचना समझ पर हावी होती दिख रही है. तभी तो मोदी इस “तथाकथित सोशल-वर्चुअल मीडिया” पर सबसे ताकतवर नज़र आते हैं. इस धोखे के भी अपने फायदे हैं- कुछ लोकसभा सीटों की शक्ल में. भाजपा ये मान के चल रही है कि उनको आने वाले वोट कांग्रेस के विरोध में हैं, उनके पक्ष में नहीं. ये अस्तित्वबोध भाजपा के लिए ज़रूरी है. इस फासीवादी आग के लिए जनवादी पानी का डर ज़रूरी है.

कुलमिला के इस चुनाव के बाद दिल्ली अगर ख़ुद को पुनः इसी पुरानी-पुरुषवादी-पूंजीवादी सत्ता व्यवस्था में फिट करना चाहे तो इससे निराश नहीं होना है. वो दरअसल उबल रही है. उसे खौलने में वक़्त लगेगा. “आम” लोगों को इसे वक़्त देना पड़ेगा. वक़्त नहीं देंगे तो समाज और राजनीति पकेगी कैसे? और जब ये ढंग से पकेगी नहीं तो असल स्वाद कहाँ से आयेगा? इसीलिए दिल्ली के इस विधानसभा चुनाव को देखना-परखना ज़रूरी है. इसमें इस मुल्क की राजधानी का वो सैम्पल साइज़ मिल जाएगा कि पूरा मुल्क, कमोबेश, अगला भारत सरकार किनको बनाना चाहता है माने इस इस सेमी-फाईनल में कौन जीतता है. साथ ही चार और सूबों के नतीजे मिलेंगे.

पूरामौका होगा कि हम नब्ज़ को पकड़ सकें. इसमें मुख्यधारा और सोशल मीडिया के साथियों की ज़रुरत होगी. अगर वो चाहें तो “असल तस्वीर” पेश कर सकते हैं मगर उन्हें अपनी “परम्परागत सीमाओं” को लांघना होगा ताकि वे दिल्ली के एक सौ साठ लाख लोगों से अपना तारतम्य स्थापित कर सकें. उन्हें जनता की असल आवाज़ बनना होगा. ऐसे में ये जानना कष्टकर है कि आम लोग ये मानते हैं कि मुख्यधारा का मीडिया मुख्यधारा की राजनीति का महज़ एक भोंपू है. इसे मौलिक रूप से बदलने के लिए इस प्रक्रिया में शामिल होना ही एकमात्र उपाय है. हम सब मीडिया हैं-अब ये मानकर चलिये और अपनी राजनीति के लिए कैम्पेन करिये. आपका कुछ भी सुंदर-सौम्य सा कहना-करना दिल्ली के काम आयेगा! दिल्ली असल में बदलेगी!                                                       
संभवहै कि अति-सूचना के इस दौर में आम मतदाता पूरी तस्वीर भले ही ना समझे लेकिन अपनी ज़िदगी के जद्दोजहद और भविष्य की चिंताएं उन्हें अपना फौरी नफ़ा-नुकसान ज़रूर सिखा देती हैं.  

 आशीष स्वतंत्र पत्रकार हैं. कुछ समय पत्रकारिता अध्यापन में भी.
इनसे ashish.liberation@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

‘भारत रत्न’ की जरूरत ही क्या है?

$
0
0
सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...क्या इस हाल में भी भारत रत्न और पद्म पुरस्कारों की वैसी गरिमा या प्रतिष्ठा कायम रह सकती है, जिसकी कल्पना के साथ इनकी शुरुआत की गई थी? ऐसे में क्या यह सुझाव उचित नहीं है कि इन पुरस्कारों को अविलंब खत्म कर दिया जाना चाहिए? वैसे भी राज्य ऐसे पुरस्कार दे, जिसे तय करने की कोई वस्तुगत कसौटी नहीं है, सामंती सोच का ही प्रतिफलन है। जो भी पुरस्कार मनोगत आधार पर तय होंगे, उसमें उस वक्त सत्ता में मौजूद दल या व्यक्तियों के आग्रह-दुराग्रह या उनके राजनीतिक स्वार्थ की  भूमिका रहेगी।..."

कार्टून साभार- सतीश आचार्य
चिन तेंदुलकर को भारत रत्न से सम्मानित करने पर कई हलकों से यह कहते हुए एतराज उठा कि खिलाड़ियों को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पाने के योग्य बनाने का प्रावधान किया गया, तो इसके पहले हकदार हॉकी जादूगर मेजर ध्यानचंद थे। अपने देश में मीडिया और मार्केट सभी खेलों को समान महत्त्व नहीं देते, वरना विश्वनाथन आनंद या अभिनव बिंद्रा की अतुलनीय उपलब्धियों से परिचित अनेक लोग यह जरूर पूछते कि उनकी उपेक्षा कर आखिर सचिन को क्यों सबसे पहले यह सम्मान दिया गया? चूंकि चार साल बाद भारत रत्न की चर्चा का सीजन लौटा तो बने माहौल में भारतीय जनता पार्टी ने यह सम्मान देने में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से कथित भेदभाव का मुद्दा उठाया। उधर नीतीश कुमार ने अफसोस जताया कि समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया को आज तक इस सम्मान के लायक नहीं समझा गया, तो तेलुगू देशम पार्टी ने एनटी रामराव के फिल्म और राजनीति में योगदान की तरफ ध्यान खींचा।

दरअसल,ये सूची काफी लंबी हो सकती है। जिन्हें ये सम्मान मिला है, उनमें से अधिकांश के बारे में एतराज रखने वाले लोग मौजूद हो सकते हैं। दूसरी तरफ ऐसे बहुतेरे लोग हो सकते हैं जो इसलिए खफा हों कि वे जिसे चाहते हैं उसे सरकार ने इसके योग्य नहीं माना। अगर इतने बड़े देश में अब तक सिर्फ 43 व्यक्ति भारत रत्न समझे गए हैं, तो ऐसी शिकायतों की काफी गुंजाइश मौजूद है।

यहां ये गौरतलब है कि भाजपा ने वाजपेयी की उपेक्षा का मुद्दा उठाया, तो कांग्रेस समर्थक प्रवक्ता टेलीविजन पर यह कहते सुने गए जिस व्यक्ति ने बाबरी चाहिए या बराबरी’ जैसे जुमले बोले हों, उसे एक धर्मनिरपेक्ष सरकार कैसे सम्मानित कर सकती है। इस विवाद में अंतर्निहित पहलू यह है कि भारत जैसे बहुलता वाले और विभिन्नतापूर्ण देश में ऐसी शख्सियतों का होना बहुत कठिन है, जो सभी वर्गों, समूहों और विचारधाराओं को मानने वाले लोगों के बीच समान सम्मान का भाव रखते हों। ऐसे लोग संभवतः कला, संस्कृति, विज्ञान, खेल आदि क्षेत्रों में ही हो सकते हैं। लेकिन सचिन का मामला मिसाल है कि ऐसा खेल के क्षेत्र में भी संभव नहीं है। विभाजित होते जनमत के साथ सार्वजनिक जीवन में ऐसे व्यक्तियों की उपस्थिति निरंतर दुर्लभ होती जा रही है। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में सहमति का दायरा अधिकतम होने की गुंजाइश थी, इसके बावजूद जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल को लेकर अब जैसी बहस छेड़ने की कोशिश की गई है, उससे साफ है कि उस दौर के नायकों के बारे में भी अब विचारों की खाई चौड़ी होती जा रही है। 

कल्पनाकरें कि अगर कभी भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई और उसने केशव बलिराम हेडगेवार या सदाशिव माधव गोलवरकर को भारत रत्न देने की कोशिश की तो उस पर कैसा वैचारिक संग्राम छिड़ेगा। दरअसल, जो लोग राजनीति से नहीं हैं उनके राजनीतिक विचार भी आज कड़वाहट पैदा कर देते हैं। इसकी मिसाल अमर्त्य सेन और लता मंगेशकर हैं। अमर्त्य सेन ने यह कह कर सिर्फ अपना विचार जताया कि वे नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद पर नहीं देखना चाहेंगे। इसी तरह लता मंगेशकर ने राय जताई कि मोदी का प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा हो- वे ऐसी कामना करती हैं। राजनीतिक विभाजन-रेखा के दो परस्पर विरोधी छोरों पर खड़े लोगों ने इस पर सेन और लता से भारत रत्न छीनने की मांग कर दी। यह घटना बताती है कि ऐसे व्यक्तित्वों का होना अब कितना कठिन हो गया है, जिनका सारा देश सम्मान करता हो।

क्याइस हाल में भी भारत रत्न और पद्म पुरस्कारों की वैसी गरिमा या प्रतिष्ठा कायम रह सकती है, जिसकी कल्पना के साथ इनकी शुरुआत की गई थी? ऐसे में क्या यह सुझाव उचित नहीं है कि इन पुरस्कारों को अविलंब खत्म कर दिया जाना चाहिए? वैसे भी राज्य ऐसे पुरस्कार दे, जिसे तय करने की कोई वस्तुगत कसौटी नहीं है, सामंती सोच का ही प्रतिफलन है। जो भी पुरस्कार मनोगत आधार पर तय होंगे, उसमें उस वक्त सत्ता में मौजूद दल या व्यक्तियों के आग्रह-दुराग्रह या उनके राजनीतिक स्वार्थ की  भूमिका रहेगी। 

पुरानेजमाने में इस पर एतराज नहीं होता था, क्योंकि राजा पूजनीय माने जाते थे औऱ वे अपनी पसंद-नापसंद से पुरस्कार देते थे या अपने दरबारी चुनते थे। अंग्रेजों के जमाने में साम्राज्य के स्वार्थ के अनुरूप खिताब बख्शे जाते थे। लेकिन एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसी परंपराएं क्यों जारी रहनी चाहिए, जिसमें हर नागरिक की संवैधानिक और कानूनी हैसियत समान है? प्रधानमंत्री या मंत्रियों के पूर्व-आग्रह किसी नागरिक की पसंद-नापसंद से ऊपर क्यों होने चाहिए?

अंतरराष्ट्रीयक्रिकेट परिषद प्रदर्शन के आधार पर रेटिंग या वार्षिक पुरस्कार देती है, तो उस पर किसी विवाद की गुंजाइश नहीं रहती। इसी तरह वर्ष के सर्वश्रेष्ठ फीफा फुटबॉलर का चयन होता है। प्रतिष्ठित फिल्म जानकारों की व्यापक आधार वाली जूरी फिल्म पुरस्कार तय करे, तो उस पर भी बहस की गुंजाइश हो सकती है- मगर उसकी स्वीकार्यता पर वैसे सवाल नहीं उठेंगे, जैसे अक्सर भारत रत्न और पद्म पुरस्कारों पर उठ खड़े होते हैं। अर्थात संगीत, कला, या खिलाड़ियों के सर्वोच्च पुरस्कार स्थापित किए जा सकते हैं और उसी पेशे या विधा के लोगों को लेकर विश्वसनीय जूरी बनाई जा सकती है। यह एक तरह से अपने उद्योग या विधा द्वारा अपने क्षेत्र की उपलब्धियों के सम्मान जैसा होगा। लेकिन जब सरकार कोई पुरस्कार देती है- वह भी बिना किसी वस्तुगत कसौटी के- तो आज के लोकतांत्रिक दौर में उस पर विवाद खड़ा होना लाजिमी है। बल्कि इससे समाज का एक हिस्सा उल्लसित होता है, तो कई दूसरे हिस्सों में कड़वाहट भरती है।

1992में जब जेआरडी टाटा को भारत रत्न दिया गया तो इस पर आश्चर्य जताते हुए उन्होंने कहा था- मैं तो यही जानता था कि ये सम्मान उनको दिया जाता है, जिन्होंने देश के लिए कुर्बानी दी हो। मैंने तो आज तक सब कुछ मुनाफे के लिए किया है। उस समय तक यही माना जाता था कि सार्वजनिक हित में त्याग या बलिदान करने वाले लोग इस सम्मान के योग्य हैं। बाद में संगीत या कला क्षेत्र में उपलब्धि प्राप्त करने वाली शख्सियतों को भी इससे सम्मानित किया गया। उससे सम्मान का दायरा असीमित हो गया। लेकिन कसौटी मनोगत ही रही। ताजा विवाद ने जाहिर किया है कि समाज में अब ऐसी कसौटी स्वीकार्य नहीं है। अतः अब सबसे सम्मानित रास्ता यही रह गया है कि सामंती अंदाज की सम्मान की ये परिपाटी समाप्त कर दी जाए।
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

तहलका का साहस अब कहाँ है? : अरुंधती रॉय

$
0
0
Arundhati Roy...support for Maoist guerillas.
अरुंधती रॉय

-अरुंधती रॉय

तहलका के संस्थापक और प्रधान संपादक तरुण तेजपाल द्वारा गोवा में पत्रिका की एक युवा पत्रकार पर किए गए गंभीर यौन हमले के मामले पर  लेखिका और एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय की टिप्पणी 

हाशियासे साभार


रुण तेजपाल उस इंडिया इंक प्रकाशन घराने के पार्टनरों में से एक थे, जिसने शुरू में मेरे उपन्यास गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स को छापा था. मुझसे पत्रकारों ने हालिया घटनाओं पर मेरी प्रतिक्रिया जाननी चाही है. मैं मीडिया के शोरशराबे से भरे सर्कस के कारण कुछ कहने से हिचकती रही हूं. एक ऐसे इंसान पर हमला करना गैरमुनासिब लगा, जो ढलान पर है, खास कर जब यह साफ साफ लग रहा था कि वह आसानी से नहीं छूटेगा और उसने जो किया है उसकी सजा उसकी राह में खड़ी है. लेकिन अब मुझे इसका उतना भरोसा नहीं है. अब वकील मैदान में आ खड़े हुए हैं और बड़े राजनीतिक पहिए घूमने लगे हैं. अब मेरा चुप रहना बेकार ही होगा, और इसके बेतुके मतलब निकाले जाएंगे.

तरुणकई बरसों से मेरे एक दोस्त थे. मेरे साथ वे हमेशा उदार और मददगार रहे थे. मैं तहलका की भी प्रशंसक रही हूं, लेकिन मुद्दों के आधार पर. मेरे लिए तहलका के सुनहरे पल वे थे जब इसने आशीष खेतान द्वारा गुजरात 2002 जनसंहार के कुछ गुनहगारों पर किया गया स्टिंग ऑपरेशन और अजित साही की सिमी के ट्रायलों पर की गई रिपोर्टिंग को प्रकाशित किया. हालांकि तरुण और मैं अलग अलग दुनियाओं में रहते हैं और हमारे नजरिए (राजनीति भी और साहित्यिक भी) भी हमें एक साथ नहीं लाते और जिससे हम और दूर चले गए. अब जो हुआ है, उसने मुझे कोई झटका नहीं दिया, लेकिन इसने मेरा दिल तोड़ दिया है. तरुण के खिलाफ सबूत यह साफ करते हैं कि उन्होंने ‘थिंकफेस्ट’ के दौरान अपनी एक युवा सहकर्मी पर गंभीर यौन हमला किया. ‘थिंकफेस्ट’ उनके द्वारा गोवा में कराया जाने वाला ‘साहित्यिक’ उत्सव है. थिंकफेस्ट को खनन कॉरपोरेशनों की स्पॉन्सरशिप हासिल है, जिनमें से कइयों के खिलाफ भारी पैमाने पर बुरी कारगुजारियों के आरोप हैं. 

विडंबना यह है कि देश के दूसरे हिस्सों में ‘थिंकफेस्ट’ के प्रायोजक एक ऐसा माहौल बना रहे हैं जिसमें अनगिनत आदिवासी औरतों का बलात्कार हो रहा है, उनकी हत्याएं हो रही हैं और हजारों लोग जेलों में डाले जा रहे हैं या मार दिए जा रहे हैं. अनेक वकीलों का कहना है कि नए कानून के मुताबिक तरुण का यौन हमला बलात्कार के बराबर है. तरुण ने खुद अपने ईमेलों में और उस महिला को भेजे गए टेक्स्ट मैसेजों में, जिनके खिलाफ उन्होंने जुर्म किया है, अपने अपराध को कबूल किया है. फिर बॉस होने की अपनी अबाध ताकत का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने उससे पूरे गुरूर से माफी मांगी, और खुद अपने लिए सजा का एलान कर दिया-अपनी  ‘बखिया उधेड़ने’ के लिए छह महीने की छुट्टी की घोषणा-यह एक ऐसा काम है जिसे केवल धोखा देने वाला ही कहा जा सकता है. 

अबजब यह पुलिस का मामला बन गया है, तब अमीर वकीलों की सलाह पर, जिनकी सेवाएं सिर्फ अमीर ही उठा सकते हैं, तरुण वह करने लगे हैं जो बलात्कार के अधिकतर आरोपी मर्द करते हैं-उस औरत को बदनाम करना, जिसे उन्होंने शिकार बनाया है और उसे झूठा कहना. अपमानजनक तरीके से यह कहा जा रहा है कि तरुण को राजनीतिक वजहों से ‘फंसाया’ जा रहा है- शायद दक्षिणपंथी हिंदुत्व ब्रिगेड द्वारा. तो अब एक नौजवान महिला, जिसे उन्होंने हाल ही में काम देने लायक समझा था, अब सिर्फ एक बदचलन ही नहीं है बल्कि फासीवादियों की एजेंट हो गई? यह एक और बलात्कार है- उन मूल्यों और राजनीति का बलात्कार जिनके लिए खड़े होने का दावा तहलका करता है. यह उन लोगों की तौहीन भी है, जो वहां काम कर रहे हैं और जिन्होंने अतीत में इसको सहारा दिया था. यह राजनीतिक और निजी, ईमानदारियों की आखिरी निशानों को भी खत्म करना है. मुक्त, निष्पक्ष, निर्भीक. तहलका खुद को यह बताता है. तो साहस अब कहां है?

अनुवाद: रेयाज
Viewing all 422 articles
Browse latest View live