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सवाल विकास का नहीं विकास के मॉडल का है

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प्रेम पुनेठा

-प्रेम पुनेठा

"...अगर माओवाद का सैनिक समाधान खोज लिया जाए और दंडकारण्य से उन्हें खदेड़ दिया जाए तो इससे आदिवासियों के जीवन में क्या गुणात्मक परिवर्तन आ जाएगा। जिस विकास के मॉडल को लेकर वहां सरकारें समझौता पत्रों पर दस्तखत कर चुकी है या करेंगी उससे आदिवासियों का जीवन कैसे बेहतर होगा। यह विकास का मॉडल तो आदिवासी इलाकों के प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन पर टिका है, जिसमें आदिवासियों को देने के लिए कूछ भी नहीं है।..."

जीरम घाटी में माओवादियों के हमले मे कांग्रेस के नेताओ के मारे जाने के बाद माओवाद भारतीय राजनीतिक परदे पर फिर से अवतरित हो गया। माओवादियों के कई बड़े नेताओं के मारे जाने के बाद केंद्र और राज्य सरकार यह मानकर चल रही थी कि माओवादी कमजोर हो गए है। केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी माओवादी गतिविधियों में कमी आने का दावा किया था लेकिन माओवादियों के एक हमले ने इस अवधारणा को ध्वस्त कर दिया। इस हमले के बाद से अखबारों और चैनलों में तमाम तरह के बुद्धजीवी दिखाई दे रहे है, जो माओवाद पर और उससे निपटने के लिए विशेषज्ञता हासिल किए हुए है। ये इस हमले को लगातार नक्सलियों द्वारा किया हमला बता रहे है। लेकिन नक्सली आंदोलन तो 1973 तक आते-आते लगभग खत्म हो गया था। कुछ लोग जेल चले गए, कुछ निष्क्रिय हो गए, कुछ बचे लोग अंडर ग्राउंड होकर गतिविधियां चलाते रहे और बाद में वे भी संसदीय रास्ते पर चल पड़े। तब माओवादियों को नक्सली कहना तो कहीं से भी ठीक नहीं हैं।

अखबार और चैनलो की बहसों में एक स्वर सबसे प्रमुख रूप से सुनाई दे रहा है कि माओवादियों के खिलाफ सेना का प्रयोग किया जाए। यानी कि इस समस्या का सैनिक हल खोजा जाना चाहिए। पूरा वातावरण युद्धम् देही, युद्धम् देही से गूंज रहा था। उनकी नजर में यह एक कानून-व्यवस्था का मामला है। पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बल इसको ठीक से संभाल नहीं पा रहे है इसलिए सेना को बुला लेना चाहिए। इसके साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि माओवादी विकास विरोधी है और उनकी गतिविधियों के कारण उस इलाके में विकास के कार्य नहीं हो पा रहे हैं। विकास का मतलब सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से है लेकिन इनसे कोई ये सवाल नहीं पूछ रहा है कि माओवाद तो वहां पिछले दस साल से प्रभावी है लेकिन उससे पहले वहां विकास करने से किसने रोका था। जो विकास पचास वर्षों में वहां नहीं हुआ उसके लिए माओवाद को कैसे दोषी माना जा सकता है और फिर माओवादियों के साथ है कौन। आदिवासी, जिनकी कोई आवाज ही नहीं थी। आदिवासियों का माआवादियों के साथ जाना हमारे लोकतात्रिक व्यवस्था की असफलता है। जब तक वे शांत थे और कोई विरोध नहीं कर रहे थे उनके साथ नेता, नौकरशाहों और ठेकेदारों की तिकड़ी ने क्या व्यवहार किया। अब भी चीजें नहीं बदली है। हमारा लोकतंत्र आज भी आदिवासियों को सामान्य आदमी मानने को तैयार ही नहीं है। 

लोकतंत्रके कर्णधारों के लिए तो वे एक अजूबे से कम नहीं है। हम उन्हें खुद से कमतर मानते हैं और यह सोचते हैं कि उनके शोषण का हमें स्वाभाविक अधिकार है। अगर हम इस मानसिकता न होते तो कभी उस इलाके में सलवा जुडुम नहीं चलाते। आखिर सरकारें आदिवासी समाज के एक हिस्से को गैर कानूनी तरीके से हथियारबंद कर उसे अपने ही समाज के खिलाफ कैसे खड़ा कर सकती है और उसे वैधानिकता दे सकती है। सलवा जुडुम सरकार ने नहीं सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बंद किया गया। ये सलवा जुडुम ही है, जिसने माओवाद को फैलने में सहायता दी। सलवा जुडुम बंद होने के बाद उसमें शामिल आदिवासी लावारिस हो गए। इस अभियान के अधिकांश नेताओं को माओवादियों ने मार दिया है और जो बचे है वे हमेशा मौत के साए में है। इस डर से कि माओवादी उन्हें कभी भी मार देंगे। अशिक्षित और साधन विहीन आदिवासियों को माओवाद के बारे में कितना पता है यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन वे माओवादियों को अपने शोषणकर्ता के खिलाफ बोलने वाले के तौर पर चिन्हित करते है।

विचारकरने की बात यह है कि आदिवासियों का विकास का मॉडल क्या हो। जिस तर्ज पर मुख्यधारा के लोगों का विकास हो रहा है वही आदिवासियों के विकास का मॉडल हो। क्योंकि इस विकास के मॉडल ने तो आदिवासी क्षे़त्रों में माओवाद को पैदा किया है। तब आदिवासियों के लिए एक नए मॉडल की जरूरत है। मुख्यधारा और आदिवासी विकास में प्रमुख अंतर सांस्कृतिक है। मुख्यधारा के विकास का प्रमुख लक्ष्य संग्रह करना है और नई आर्थिक नीतियों ने तो इस विकास को एकाधिकारवादी बना दिया है। यानी व्यक्ति की इच्छा अधिक से अधिक संसाधन और संपदा की लूट और उसपर कब्जा करना है। इसमें छोटी चीजों के लिए कोई जगह नहीं है, वे या तो खत्म हो जाएगी या अपने से बड़े में विलय हो जाएंगी। इसके विपरीत आदिवासी समाज संग्रहकर्ता नहीं है। वह प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर जीने वाला समाज है। वह प्रकृति से उतना ही लेता है, जितनी उसे आवश्यकता होती है। खेती ने उसे वर्ष भर के लिए अनाज उगाना जरूर सिखाया है लेकिन उसका व्यापार अभी भी वह नहीं करता है। यही कारण है कि आज भी उस समाज के पास इतने घने जंगल और प्राकृतिक संसाधन मौजूद है। 

अंतरतो यह स्पष्ट दिखता है कि जिस मलकानगिरी को वह देवता मानकर पूजता है उसे हमारी व्यवस्था बाक्साइट का पहाड़ मानकर खोदने पर उतारू है। जिस तेंदुपत्ता को वह तोड़ता है उसकी बीडी बनाकर कितने ही करोड़पति हो गए लेकिन आदिवासी जहां के ताहां है। वह अपने जीवन के लिए जंगल पर निर्भर है और जंगल सरकार की मिलकीयत हो गए है। उसका जंगल में जाना मना कर दिया गया। किसी भी लोकतांत्रिक शासन को इन गरीब आदिवासियों की सामाजिक - सांस्कृतिक और आर्थिक परिवेश को समझ कर व्यवस्था करनी चाहिए थी जो वह करने में असमर्थ रही। सही बात तो यह है कि आदिवासियों के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था किसी शोषण की व्यवस्था का ही पर्याय बन कर रह गई।  

अगरमाओवाद का सैनिक समाधान खोज लिया जाए और दंडकारण्य से उन्हें खदेड़ दिया जाए तो इससे आदिवासियों के जीवन में क्या गुणात्मक परिवर्तन आ जाएगा। जिस विकास के मॉडल को लेकर वहां सरकारें समझौता पत्रों पर दस्तखत कर चुकी है या करेंगी उससे आदिवासियों का जीवन कैसे बेहतर होगा। यह विकास का मॉडल तो आदिवासी इलाकों के प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन पर टिका है, जिसमें आदिवासियों को देने के लिए कूछ भी नहीं है। जिस संविधान ने दिल्ली में संसद की व्यवस्था की है, उसी में आदिवासी इलाकों के लिए शिड्यूल पांच भी बनाया है लेकिन किसी सरकार ने बस्तर और दूसरे आदिवासी इलाकों में इसे लागू नहीं किया। इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा। वनवासियों के अधिकार कानून तो इसी सरकार ने बनाया उसका भी कोई लाभ आदिवासियों को नहीं मिला। इस इलाके में शांति के साथ ही खनन के लिए उतावली कंपनियां मैदान में कूद पड़ेंगी। तब फिर क्या गारंटी है कि अपने शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ आदिवासी संघर्ष नहीं करेंगे। हो सकता है कि वे माओवाद का नाम लेना छोड़ दे लेकिन अपने अस्तित्व का संघर्ष नहीं करेंगे ऐसा कैसे हो सकता है। इसलिए सैनिक समाधान के स्थान पर आदिवासी क्षेत्रों में माओवादियों के विकास के सामाजिक आर्थिक पहलुओं को समझा जाए। आदिवासियों के विकास के लिए अपने मॉडल उन पर न थोपे बल्कि दूसरा विकास मॉडल लाया जाए, जिसमें आदिवासी अपनी पहचान और पूरी गरिमा के साथ जी सकें।   
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प्रेम पुनेठा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. 
मध्य-पूर्व के इतिहास और राजनीति पर निरंतर अध्ययन और लेखन. 
इनसे संपर्क के पते- prem.punetha@facebook.com और prempunetha@gmail.com


लोकतंत्र की राजनीति, दरभा और माओवाद

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पुष्यमित्र

-पुष्यमित्र

"...दरअसल लोकतंत्र की हत्या का जुमला उछालते वक्त हम भूल जाते हैं कि रेड कॉरिडोर में लोकतंत्र की हत्या अक्सर हो जाती है. दरभा नरसंहार से कुछ ही दिनों पहलेहफ्ता भी शायद ही बीता होगा. 22 आदिवासियों की हत्या बीजापुर के इलाके में हो गयी. इस हत्या का इल्जाम उन बंदूकधारियों पर नहीं था जो लोकतंत्र को ढेला भर भी नहीं मानतेबल्कि उन सिपाहियों के सर था जिसे भारतीय लोकतंत्र ने लोकतांत्रिक मूल्यों की बहाली का भी जिम्मा दे रखा है..."


पिछले दिनों दरभा में हुई माओवादी वारदात के बाद सोशल मीडिया पर जमकर बहस हुई. मगर यह बहस कुछ ऐसी हुई कि हमारी समझ साफ होने के बजाय और धुंधली ही होती चली गयी. पता नहीं यह ठीक है या गलत मगर सोशल मीडिया के प्रभावी होने के बाद अक्सर ऐसा ही होता है. एक मुद्दा उठता है, कई तरह के नजरियों के साथ उस पर हम खुले हृदय से अपनी राय रखते हैं. एक जैसा नजरिया पीछे छूटता चला जाता है और जो रुख थोड़ा अलग होता है बहस उसके सहारे आगे बढ़ती चली जाती है. मेरे हिसाब से यह ठीक भी है और थोड़ा गलत भी. ठीक इस लिहाज से कि चीजों को नयी नजर से देखना कभी इतना सहज नहीं हुआ करता था और गलत इस वजह से कि हमलोग उन मसलों को भूल जाते हैं कि कम से कम कुछ बातें तो ऐसी जरूर हैं जिस पर तमाम लोग एक साथ बिना किसी प्रतिरोध के सहमत हैं. जैसे सच, इमानदारी, साहस और बदलाव. इन शब्दों का कोई विकल्प नहीं है और इन शब्दों के साथ जीने के बाद किसी वाद की जरूरत नहीं है. चाहे वह मानवतावाद ही क्यों न हो जिसका जिक्र आजकल खूब होने लगा है.


बहरहालयहां मैं दरभा, राजनीति, लोकतंत्र और माओवाद के बारे में बात करना चाह रहा हूं. दरभा के बारे में जो सबसे पहली प्रतिक्रिया सामने आयी वह यह थी कि .. यह लोकतंत्र पर हमला है.. देखते ही देखते यह प्रतिक्रिया नारे में बदल गयी और तमाम ऐसे लोग जो भारत के निर्माण में अपने हक का दावा करते रहे हैं ने इसे हाथोंहाथ ले लिया. इसमें सिर्फ कांग्रेस के लोग नहीं थे, भाजपा समर्थकों का वह वर्ग जो मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए पिछले छः महीने से सोशल मीडिया पर अतार्किक किस्म की लॉबिग करता रहा है और हर नयी खबर के साथ केंद्र की कांग्रेस सरकार की खिंचाई करता रहा है वह भी इसे लोकतंत्र की हत्या मानने के लिए सहज तैयार हो गया. बड़ी आसानी से माओवाद और आंतकवाद को एक जैसा बताया गया, सलवां जुड़ूम के नेता महेंद्र कर्मा को शहीद और बस्तर का शेर पुकारा गया और सरकार से अपील की गयी कि जितना जल्द हो सके सारे टैंक सीमाओं से मंगवा लें और दंडकारण्य को कुचल डालें. तभी इस समस्या का समाधान हो सकेगा. ठोस कार्रवाई का समय आ चुका है और चुप-चाप बैठने से काम नहीं चलेगा.

येप्रतिक्रियाएं सचमुच हैरत-अंगेज थीं. कांग्रेसियों की भी और भाजपाइयों की भी. क्योंकि कांग्रेसी आम तौर पर विचारधारा के नाम पर वाम की ही शरण लेते हैं और राहुल-सोनिया के नाम का जो सत्ता का केंद्र है वह 99 फीसदी वामपंथी है. कॉरपोरेट पूंजीवाद को पटाये-सटाये रखने का जिम्मा मनमोहन-चिदंबरम एंड को. के पास है. सोनिया ने एनएसी का गठन ही इस नजरिये से किया कि पार्टी के परंपरागत वोट बैंक यानी अल्पसंख्यक, आदिवासी, दलित और दूसरे सीमांत समुदायों के पक्ष में योजनाएं बनायी जा सके और इंडिया शाइनिंग के नेटवर्क एरिया से बाहर जो भारत बसता है उसे फुसलाकर रखा जा सके. वे समझ चुकी हैं कि उनकी मरहूम सास इंदिरा गांधी ने जो गरीबी हटाओ का नारा पेश किया था वह शोले फिल्म की तरह ऑल टाइम ब्लॉक बस्टर है. एनएसी की ओर से पिछले कुछ सालों में ऐसे कई कानून बनाये भी गये जो गरीबों को भिखारियों की कौम में बदल दे और भीख के बदले वोट का खेल किया जा सके. तभी हाल ही में केंद्र के कई नेताओं ने कैश(भीख) ट्रांसफर को गेम चेंजर कहते हुए पेश किया था. अब खाद्य(एक दूसरे तरह की भीख) सुरक्षा कानून पेश हो रहा है. हालांकि दानवीरों की इस सरकार में संसाधनों की लूट की कहानी भी साथ-साथ चलती रही. वनाधिकार कानून के जरिये आदिवासियों को वनों के प्रबंधन का जो अधिकार देने की बात कही गयी वो तो सात साल बाद भी कागजों पर ही रही मगर इन सात सालों में कम से कम सात लाख आदिवासियों को जंगलों से खदेड़ दिया गया ताकि मित्तलों, जिंदलों, टाटा और वेदांता के खदान धरती के गर्भ से कोयला, लोहा, बाक्साइट और दूसरे खनिज पदार्थ शांतिपूर्वक निकाल सकें. उनका परिशोधन कर उन्हें दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचा सकें. उद्योगपतियों को यह काम निर्बाध रूप से चलाने के लिए किसी कानून के सहारे की जरूरत नहीं पड़ी. सब कुछ आसानी से होता रहा. परेशानी वहां हुई, जहां माओ के पुजारी बंदूक थामे फैले हुए थे.

रेडकॉरिडोर नामक शब्द शायद पिछली सदी के आखिरी दशक में प्रचलन में आया. पता नहीं यह किसका शोध था, मगर था बहुत ही महत्वपूर्ण, कि बारस्ते नेपाल उत्तर-पूर्व, बिहार-बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ हिस्से में घने जंगलों के नीचे माओवाद के सिपाहियों ने एक सुरक्षित गलियारा तैयार कर लिया है. इस गलियारे में सरकार की मौजूदगी न के बराबर है और पूरे इलाके में माओवादी ही सरकार हैं. इस थ्योरी से यह भी लिंक्ड था कि इस कारिडोर को तैयार करने के पीछे चीन का बड़ा हाथ है. हमारा यह दुष्ट पड़ोसी भारत में अंसतोष का माहौल बनाये रखना चाहता है और इसी वजह से समानता के नाम पर चल रही पूरी लड़ाई को फंड उपलब्ध करा रहा है. मगर बहुत जल्द हमें यह समझ में आ गया कि लाल गलियारे की सरकार को किसी चीनी फंड की दरकार नहीं. वह लेवी के तौर पर ठेकेदारों, सरकारी कर्मचारियों, नेताओं और व्यवसाइयों से इतनी वसूली कर लेता है कि उसकी आमदनी किसी राज्य सरकार के सालाना बजट जितनी हो ही जाती है. इन पैसों से वह भारत की सरकार के खिलाफ युद्ध लड़ता है.

हालांकि यह अजीब किस्म का युद्ध है. इस युद्ध में न कोई हारता है और न ही कोई जीतता है. लाल गलियारा न बढ़ता है और न ही घटता है. और सरकार कभी आपरेशन ग्रीन हंट चलाती है तो कभी सारंडा एक्शन प्लान लागू करती है मगर उन इलाकों में वह एक कदम भी घुस नहीं पाती हैं. अपने देश के भीतर यह एक और देश है, जिस देश में आदिवासी हैं, जंगल है और पग-पग पर बंदूक का खतरा है. वहां लोकतंत्र तो कतई नहीं है. हां कुछ उद्योग जरूर हैं, जिसे हम अवैध खनन कह सकते हैं. कई खनन माफिया उन इलाकों में सक्रिय हैं और उसइलाके की सरकार को टैक्स चुका कर खनन जारी रखे हुए हैं. रिपोर्ट है कि इन इलाकों से निकला खनिज चोरी-छिपे चीन भेजा जाता है और माओवाद इस व्यापार को भी सुरक्षा प्रदान करता है. वैसे माओवादी उन नेताओं को भी सशुल्क सुरक्षा और चुनाव जीतने लायक मत उपलब्ध करवाते हैं जो उन इलाकों से हमारी लोकसभा, विधानसभा और पंचायतों के लिए चुने जाते हैं.

कईदफा इन इलाकों में चहलकदमी करने वाले भारतीय सुरक्षाबलों के सिपाहियों पर हमला हो जाता है और बड़ी संख्या में उनकी जान चली जाती है और कई दफा ये सिपाही माओवादियों को मार डालते हैं और कई बार ऐसा भी होता है कि इन इलाकों में रहने वाला आम आदिवासी कभी फौज के हाथों मारा जाता है तो कभी माओवादियों के हाथों. फौजियों को लगता है कि आदिवासी नक्सल समर्थक है और माओवादियों को लगता है वे पुलिस के मुखबिर हैं. शक और संदेह की बुनियाद पर उन इलाकों में रहने वाले हर आदिवासी की जान खतरे में है. कुछ ऐसा ही कश्मीर में भी है और उग्रवाद प्रभावित उत्तर पूर्वी राज्यों में भी. जहां-जहां चरमपंथ है, वहां के लोग शक के दायरे में और तलवार की धार पर खड़े जीवन जी रहे हैं. वहां लोकतंत्र नहीं है, आजादी नहीं और विवादास्पद हो चुका शब्द मानवाधिकार भी नहीं है. मगर जहां लोकतंत्र, आजादी और मानवाधिकार है. जहां नौकरियां और बाजार हैं. जहां हम टीवी पर बैठ कर आइपीएल और बिग बॉस का मजा ले सकते हैं, बेखौफ होकर. जहां खून-खराबे को फिल्मों तक से खदेड़ देने की मुहिम है और अखबार के पन्नों पर लाश की तसवीर छापना नैतिक अपराध माना जाने लगा है. वहां जाहिर तौर पर आंतकवाद, नक्सलवाद और चंबल के डकैत एक जैसे ही हैं और जब खून के छींटे जंगल से उड़कर शहर की मकानों को बदरंग करने लगते हैं तो हमें लगता है कि यह लोकतंत्र की हत्या है.

दरअसललोकतंत्र की हत्या का जुमला उछालते वक्त हम भूल जाते हैं कि रेड कॉरिडोर में लोकतंत्र की हत्या अक्सर हो जाती है. दरभा नरसंहार से कुछ ही दिनों पहले, हफ्ता भी शायद ही बीता होगा. 22 आदिवासियों की हत्या बीजापुर के इलाके में हो गयी. इस हत्या का इल्जाम उन बंदूकधारियों पर नहीं था जो लोकतंत्र को ढेला भर भी नहीं मानते, बल्कि उन सिपाहियों के सर था जिसे भारतीय लोकतंत्र ने लोकतांत्रिक मूल्यों की बहाली का भी जिम्मा दे रखा है. मगर वे मानते हैं कि कई दफा लोकतंत्र की बहाली के लिए लोकतंत्र के शरीर से खून निकालना पड़ता है. इससे पहले लोकतंत्र के भक्षकों ने इसी इलाके में समानता की स्थापना करने के पावन उद्देश्य से 75 फौजियों की हत्या कर दी थी. और उस वक्त हममें से कई फेसबुकिया विचारकों ने आपत्ति की थी कि निरीह सिपाहियों की बलि लेने से क्या फायदा.. उनका क्या दोष और इस बार उन लोगों ने ऐसी कौम पर हमला किया जो देश के लिए नीतियां तैयार करते हैं और उसे पूरे देश में लागू करवाते हैं. इस पर हमने कहा कि भाई, तुमने तो लोकतंत्र की हत्या कर दी..

शुक्रहै, हमसे कोई नहीं पूछता कि भाई, लोकतंत्र जिंदा कब था जो उसकी हत्या हो गयी. लोकतंत्र तो उसी वक्त मर गया था जब आजादी वाले साल ही झारखंड के सरायकेला जिले में हक के लिए संघर्ष करने वाली भीड़ पर हमारे ही सिपाहियों ने गोली चलवा दी थी. उसे आजादी का पहला गोलीकांड माना जाता है. लोगों ने छह माह के अंदर समझ लिया था कि अपनी सरकार होने का मतलब यह नहीं कि वे हम पर गोली न चलवा दें.

जब बंगाल के नक्सलवाड़ी में पहली दफा आवाम ने बंदूक उठायी तो वह बंदूक सरकारी बंदूक की प्रतिक्रिया में ही उठी होगी. उससे पहले देश के तकरीबन हर कोने में सरकारी बंदूक गरज चुकी होगी और लोगों को लगने लगा होगा कि हमारी अपनी सरकार बहरी हो चुकी है. हालांकि देश का आवाम और उसके लिए आंदोलन कर रहे अधिकांश संगठन साठ-सत्तर साल बाद भी यही मानते हैं कि भले ही सरकार गोलियां चलाती रहें, हमें गोली-बारूद का सहारा नहीं लेना चाहिये. हमारी सरकार आवाम को अपना भले नहीं मानती हो, मगर आवाम आज भी पूरी सहृदयता से सरकार को अपनी सरकार ही मानती है और उसे आज भी अंग्रेजी सरकार से बेहतर ही कहती है. हालांकि आज तक केंद्र से लेकर राज्य तक शायद ही कोई ऐसी सरकार बनी हो जिसने अपनी ही जनता को संगीनों के सामने खड़ा न कर दिया हो. महात्मा गांधी के नाम पर देश की बड़ी आबादी आज भी खामोश है. वह रामलीला मैदान में जाती है, जंतर मंतर में जाती है और ज्यादा नाराजगी हुई तो इंडिया गेट पर उतर जाती है. वह खिड़कियों के शीशे तोड़ती है और वाहनों को उलट कर आग लगा देती है. बस.. क्योंकि इससे ज्यादा गुस्सा बर्दास्त करना किसी सरकार के बस में नहीं. इसके बाद बंदूकें बाहर आ जाती हैं. अगर यही लोकतंत्र है तो सचमुच लोकतंत्र जिंदा है और अगर जनता की ओर से हुक्मरानों पर गोली चलाना ही लोकतंत्र की हत्या है तो सचमुच उस दिन लोकतंत्र की हत्या हो गयी.

कईकहानियां हैं, कई संदर्भ हैं. एक संदर्भ महेंद्र कर्मा का भी है और उस संदर्भ में हमें न जाने क्यों बार-बार अपने राज्य के ब्रह्मेश्वर मुखिया की याद आती है. ब्रह्मेश्वर मुखिया रनबीर सेना के प्रमुख थे. रनबीर सेना की स्थापना भी नक्सलियों से लोहा लेने के लिए ही की गयी थी. बिहार के भोजपुर इलाके में जब वर्ग संघर्ष भीषण हो उठा और दलितों के पक्ष से नक्सलियों ने खूनी संघर्ष का मोरचा उठा लिया तो उच्च वर्ग के किसानों ने सामूहिक तौर पर इसका सशस्त्र विरोध करने के लिए रनबीर सेना का गठन किया. इस सेना ने जगह-जगह पर नक्सलियों का सामना किया और नरसंहार के बदले नरसंहार होने लगे. मगर वह अलग दौर था. बिहार समेत देश के तमाम बुद्धिजीवियों ने एक सुर में रनबीर सेना को गलत ठहराया और कहा कि दलित वर्ग के लोग सदियों से सताये गये हैं, इसलिए उनके विरोध का हिंसक प्रतिरोध किसी सूरत में जायज नहीं है. हिंसक गतिविधियों के बावजूद लोगों की सहानुभूति दलितों के पक्ष में ही रही. रनबीर सेना की आम छवि नकारात्मक ही रही. 

मगरदो दशक बीतते-बीतते नजारा बदल गया. माओवादियों की गोली का जवाब गोली से देने के लिए खुद आदिवासियों के हाथों में बंदूक थमा दिये गये और आदिवासियों को दो धड़ों में बांटकर कत्ले आम का सरकारी सिलसिला शुरू कर दिया गया. मीडिया में खबरें प्लांट कर यह साबित करने की कोशिश की गयी कि सलवां जुड़ूम के जरिये आदिवासी समाज ही माओवादियों को उखाड़ फेंकने के लिए आतुर है. मगर आने वाले वक्त में यह छलावा साफ होने लगा. हमने देखा कि सलवां जुड़ूम आदिवासी समाज में सरकारी गुंडों की फौज का रूप ले रहा है. वह सरकारी बंदूक से अपहरण, रेप और लूटपाट का व्यवसाय चलाने लगा है. आदिवासी समुदाय जो पहले से ही सुरक्षा बल और माओवादियों की दो धारी तलवार पर चल रहा था वह अब सलवां जुड़ूम के भालों पर भी टंग गया है. मगर माओवाद का यह विरोध सरकारी समर्थन प्राप्त था. यह जायज है या नाजायज इस पर बुद्धिजीवियों का धड़ा बंट चुका था. क्योंकि माओवाद खुद नैतिक रूप से कई सीढियां नीचे फिसल चुका था. उसकी खुद की छवि आज माफिया सरगनाओं जैसी हो गयी थी. मगर पतन की इन कहानियों के बीच ब्रह्मेश्वर मुखिया का नया अवतार महेंद्र कर्मा बस्तर का शेर कहा जाने लगा और नायक की छवि को प्राप्त हो गया. कहते हैं इस महेंद्र कर्मा ने कभी छत्तीसगढ़ में पेशा कानून लगाये जाने का भी विरोध किया था और आदिवासियों के बीच उसके खानदान की छवि शोषकों वाली रही है. यह सब तो कही सुनायी बाते हैं, मगर अगर ब्रह्मदेव मुखिया गलत थे और महेंद्र कर्मा सही हैं तो यह सिर्फ वक्त का फेर है.

भाजपाइस कहानी में एक और अजीब चरित्र है. देश की राजनीति में गैर कांग्रेसवाद का सबसे मजबूत विकल्प अगर आज आगे नहीं बढ़ पा रहा है तो इसकी वजह इसका सामंतवादी चरित्र ही है. इसके लिए अल्पसंख्यकों ही नहीं आदिवासियों, दलितों और तो और द्रविड़ों के लिए भी कोई नीति, योजना या विचार नहीं. संभवत: यह देश में हाल के बरसों में फैली समानता की लड़ाई की प्रतिक्रिया भर है. पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के उभार के खिलाफ उच्चवर्गीय हिंदू समाज में जो गुप्त किस्म की नाराजगी है भाजपा उसकी तुष्टिकरण करके वोट बटोरने को ही अपना अंतिम ध्येज मान बैठी है. देश को कांग्रेस का विकल्प चाहिये, मगर इस पार्टी के नेताओं को विकल्प बनने की फुरसत ही नहीं है. इसके समर्थकों को कारगिल युद्ध और दरभा के नरसंहार में कोई फर्क नजर नहीं आता. हालांकि बस्तर के इलाकों में विधानसभा की अधिकांश सीटों पर इसके ही नेता जीतते रहे हैं, वो भी माओवादियों को पैसा भरके.. मगर आदिवासियों के मसले क्या हैं इसका रत्ती भर भान इस पार्टी को नहीं है. इनके हिसाब से देश को सवर्ण हिंदुओं के लिए खाली कर दिया जाना चाहिये. यह देश उन्हीं का है.

संसदीय वामपंथ भी माओवादियों को भटका हुआ मानता है. यह प्रतिक्रिया किसी जवान लड़की के बाप जैसी है, जो बेटी के हर दोस्त को आवारा समझता है. भइये, आप के पास लड़ने की फुरसत नहीं है, जनता कब तक आपके कथित कयामत के दिन का इंतजार करे. इस देश में लड़ने वाला हर आदमी भटका हुआ है और जो शराफत भरे लिबास में टीवी चैनलों पर वर्ग संघर्ष की थियोरी के गर्दोगुबार साफ कर रहा है वही केवल सही रास्ते पर है. बस्तर का इलाका जहां कभी लोग पलायन नहीं करते थे आज वहां के घर-घर से लोग जबलपुर और रायपुर-बिलासपुर जा रहे हैं तो इसका कसूरवार कौन है. और आपकी अदालत का फैसला होने तक लोग कैसे भिखमंगों का जीवन जीते रहें.

दंडाकरण्यको खाली करवा लो. यह आज का सबसे पापुलर नारा है. मगर विज्ञान कहता है कि इस दुनिया में कोई चीज खाली नहीं रह सकती. तो खाली दंडकारण्य में कौन रहेगा. जिंदल-वेदांता और टाटा. किसके लिए खाली होगा दंडकारण्य. हिंसा खत्म होनी चाहिये और ठीक है इसके लिए हिंसा का सहारा भी लिया जाना चाहिये. मगर हिंसकों के खिलाफ. टैंक चलें मगर खेत न उजड़े. माओवादी जो बंदूक में आस्था रखते हैं उन्हें गोली लग भी जाये तो कोई गम नहीं क्योंकि बंदूक और गोली का रास्ता उन्होंने अपनी मरजी से चुना है. मगर उन तमाम लोगों को गोलियों से बचाने की गारंटी कौन लेगा जो शांति से रहना चाहते हैं. जिनकी एक ही मांग है, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाये. क्या लोकतंत्र के पहरेदार इस बात की गारंटी लेंगे?

अबइस बात पर मेरा भरोसा पुख्ता हो गया है कि इस कंफ्यूजन भरे दौर में सच्ची बात सिर्फ सरकारी मशीनरी के बीच बैठा संवेदनशील आदमी ही कर सकता है. श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी और श्रीकांत वर्मा का कविता संग्रह मगध इसके उदाहरण हैं. इस पूरी बहस में मुङो सबसे पसंद केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश की बात लगती है, कि दस सालों के लिए देश के सभी आदिवासी इलाकों में खनन पर रोक लगा दी जानी चाहिये. पता नहीं किस मनोदशा में उन्होंने यह बात कही और हमारी सरकार अपने इस मंत्री की बातों को कितनी गंभीरता से लेती है, मगर इस पूरी समस्या का सबसे बेहतर समाधान यही है. हालांकि आज की तारीख में इसे यूटोपिया ही कहा जा सकता है.. मगर कई लोग यूटोपिया के पीछे ही दीवाने होते हैं.

और अंत में एक जमाने के विद्रोही कवि राजकमल चौधरी की एक कविता का अंश:
...आदमी को तोड़ती नहीं हैं लोकतांत्रिक पद्धतियां 
केवल पेट के बल
उसे झुका देती हैं 
धीरे-धीरे अपाहिज
धीरे-धीरे नपुसंक बना लेने के लिए 
उसे शिष्‍ट राजभक्‍त देशप्रेमी नागरिक बना लेती हैं
आदमी को इस लोकतंत्री सरकार से अलग हो जाना चाहिये...
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 पुष्यमित्र वरिष्ठ पत्रकार हैं। 
अभी रांची से प्रकाशित "पंचायतनामा" में कार्यरत हैं।
इनसे संपर्क का पता pushymitr@gmail.com है

यह हमला लोकतंत्र पर है या लोकतंत्र विरोधियों पर?

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सुनील कुमार
-सुनील कुमार

"... माओवादियों पर क्रूरतापूर्वक हत्या करने की बात कही जा रही है जब कि ‘परिवर्तन यात्रा’ में शामिल डॉ. शिव नरायण के अनुसार,  ‘‘मेरे पैर से खून बहता देख उनके कमांडर ने कहा कि डाक्टर साहब को इंजेक्शन लगा दो।’’ इस तरह माओवादियों ने कई घायलों का इलाज किया और पानी पिलाया और महेन्द्र कर्मा, नन्द कुमार पटेल और उनके बेटे के अलावा सभी आत्मसमर्पण करने वालों लोगों को छोड़ दिया। ..."


25मई, 2013 की शाम, लगभग 5 बजे सुकमा जिले के दरभा घाटी में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) द्वारा कांग्रेस के ‘परिवर्तन यात्रा’ पर हमला किया गया। इस हमले में बस्तर का टाईगर कहे जाने वाले महेन्द्र कर्मा, कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नन्द कुमार पटेल, पूर्व विधायक उदय मुदलियार सहित 29 लोगों की मृत्यु हो गई जिसमें कांग्रेसी नेता, कार्यकर्ता और पुलिस बल के जवान थे। पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल सहित करीब 32 लोग घायल हो गये। इस हमले के बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष सभी ने गले फाड़-फाड़ कर चिल्लाना शुरू कर दिया कि यह हमला ‘भारतीय लोकतंत्र’ पर हमला है। उन्होंने कहा कि इस हमले से निपटने (दमन चक्र चलाने) के लिए हम सभी को दलगत राजनीति से ऊपर उठना चाहिए और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को कुचल देना ही ‘लोकतंत्र’ पर हमले से बचने का एक मात्र रास्ता है। 

25मई, 2013 की घटना से पहले 17 मई, 2013 की रात बीजापुर के एड़समेटा गांव में जब गांव के आदिवासी अपना बीज पर्व मनाने के लिए इकट्ठा हुए थे, उसी समय अर्द्धसैनिक बल के जवानों ने उनके ऊपर फायरिंग शुरू कर दी, जिसमें तीन मासूम बच्चों सहित 8 लोगों की मौत हो गई और 5 घायल हो गये। घायल 4 लोग जब अस्पताल गये तो उनको देखने के लिए कोई कर्मचारी तक नहीं आया और उनको भूखे रहकर वहीं रात गुजारनी पड़ी। घायलों में से एक तो अस्पताल गया ही नहीं। एक साल पहले 28 जून, 2012 की रात बीजापुर के सरकिनगुड़ा में बीज पर्व पर बात करने के लिए इकट्ठा हुए थे, उस रात भी ‘बहादुर’ सीआरपीएफ और कोबरा बटालियन के जवानों ने 17 ग्रामिणों को मौत की नींद सुला दिया, जिसका जश्न रायपुर से लेकर दिल्ली तक मनाया गया और कहा गया कि हमारे बहादुर जवानों को बहुत बड़ी सफलता मिल गई है। ऐसी छोटी-बड़ी घटनायें लगातार छत्तीसगढ़ में होती रहती हैं और होती रहेंगी। 

सीआरपीएफप्रमुख प्रणय सहाय के अनुसार वामपंथी उग्रवाद प्रभावित नौ क्षेत्रों में 84000 सीआरपीएफ के जवान तैनात किये गये हैं; इसके अलावा कोबरा, बीएसएफ, भारत तिब्बत सीमा पुलिस, ग्रेहाउंड, इत्यादि के अलावा राज्य पुलिस के जवानों को इन क्षेत्रों में लगाया गया है। इतनी भारी संख्या में जब जवान होंगे तो क्या करेंगे? उनको कुछ तो अपने ‘कर्तव्य का पालन करना पड़ेगा ही’। जब इन जवानों के कर्तव्य का खुलासा डॉ विनायक सेन व हिमांशु कुमार जैसे लोग करते हैं तो उनको फर्जी तरीके से फंसाया जाता है, उनके आश्रम को तोड़ दिया जाता है, यहां तक कि पुलिस अधिकारियों द्वारा पत्रकारों को मारने की खुली छूट वायरलेस पर दी जाती है। 

बस्तर का टाइगर

महेन्द्र कर्मा बस्तर टाइगर के नाम से जाने जाते थे। मेरी राय में महेन्द्र कर्मा टाइगर ही नहीं खूंखार टाइगर थे, जिनकी भूख कभी शांत होने वाली नहीं थी। महेन्द्र कर्मा ने अपनी राजनीति की शुरूआत सीपीआई के साथ की थी और 1978 में सीपीआई के टिकट पर पहली बार विधायक चुने गये थे। सत्ता के लोभ में फंसे कर्मा को जब दुबारा टिकट नहीं मिला तो उन्होंने कांग्रेस पार्टी का दामन थाम लिया। 1996 में जब सीपीआई ने संविधान की पांचवी और छठवीं अनुसूची को लागू कराने के लिए आन्दोलन शुरू किया तो महेन्द्र कर्मा ने इसका विरोध किया। कर्मा भोले-भाले आदिवासियों को फंसाकर उनकी जमीनें ले लिया करते थे और उसमें लगे बेशकीमती पेड़ों को कटवा कर बेच दिया करते थे। यह कांड ‘मालिक मकबूजा’ के नाम से जाना जाता है। महेन्द्र कर्मा ने आदिवासियों की जमीन और खनिज संपदा हड़पने के लिए सलावा जुडूम अभियान चलाया, जिसमें लगभग 650 गांवों को जला दिया गया, हजारों लोगों की नृशंसता पूर्वक हत्या की गई, सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, यहां तक कि मासूम बच्चों को भी मारा गया, उनकी ऊंगलियां काट दी गई। 50000 आदिवासियों को उनके गांव से उठाकर सलावा जुडूम के कैंप में रखा गया। कैम्पों में इन आदिवासियों को जानवरों जैसा रखा जाता था और महिलाओं के साथ क्या सलूक होता रहा है यह छुपी हुई बात नहीं है। छत्तीसगढ़ के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अजित योगी अपने भाषाणों में बार-बार एक घटना का जिक्र करते हैं कि उनके एक कार्यकर्ता ने शाम के समय फोन करके ‘‘गाली देते हुए कहा कि तुम आदिवासियों के नेता बनते हो आज हमारी बेटी को सलवा जुडूम वालों ने उठा लिया है और तुम कुछ नहीं कर सकते।’’ सलावा जुडूम के लिए केन्द्र तथा राज्य सरकार ने अर्द्धसैनिक बल उपलब्ध कराया तो इस कैम्प का खर्च टाटा और एस्सार ने उठाया। इससे यह बात साफ हो जाती है कि सलावा जुडूम का मकसद क्या था। इस तरह इस टाइगर और उनके पूर्वजों की अनेकों कहानियां मिल जायेंगी।

25मई, 2013 की घटना के बाद एसौचेम (पूंजीपतियों की संस्था) के अध्यक्ष राजकुमार एन. धूत ने कहा कि ‘‘नक्सल प्रभावित राज्यों में काम करने वाले लोगों के बीच असुरक्षा का जिस तरह का माहौल है उसे लेकर संगठन बेहद चिंतित है ........। इसके लिए आर्थिक या किसी और स्तर पर जिस भी तरह की मदद की दरकार सरकार को होगी उसमें भारतीय औद्योगिक जगत सदैव साथ देगा।’’ एसौचेम की बात से बिल्कुल साफ है कि पूंजीपतियों की लूट को बनाये रखने के लिए सरकार को चाहे जितने भी निर्दोष लोगों की खून बहाना पड़े, जितनी भी मां-बहनों के साथ बलात्कार करना पड़े, करेंगे।

लोकतंत्र पर हमला

भारतकी कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के हमले को भारतीय लोकतंत्र पर हमले की बात शासक वर्ग के मीडिया में जोर-शोर से कही जा रही है। शासक वर्ग द्वारा चलाये गये अभियान सलावा जुडूम, ग्रीन हंट द्वारा अपनी जीविका के साधन, जल-जंगल-जमीन, बचाने के आन्दोलन में मारे गये लोगों के लिए क्या सरकार ने कभी खेद प्रकट किया है और हत्यारों, बलात्कारियों को सजा दी है? क्या एड़समेट्टा और सारकिनगुड़ा के हत्यारे दोषी अधिकारियों, मंत्रियों को सजा दी है या कभी दे पायेगी?  इन निहत्थे आदिवासियों की हत्या और बलात्कार पर भारत का लोकतंत्र शर्मसार क्यों नहीं होता? उड़ीसा से लेकर झारखंड तक पूंजीपतियों की लूट को बनाये रखने के लिए जनता के आन्दोलनों को कुचला जा रहा है, फर्जी केस लगाकर जेलों में डाल दिया जा रहा है, महिलाओं के साथ बलात्कार किया जा रहा है। 

क्याआम जनता के लिए भी कोई लोकतंत्र है? भारत में किसान विरोधी नीतियों के कारण लगभग 5 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। क्या इन हत्यारी नीतियों पर कभी विचार किया गया है? इस देश में मां-बहनों को अपने पेट की भूख मिटाने के लिए अपने ही जिस्म का सौदा करना पड़ता है, अपने बच्चों को चंद रुपये की खातिर बेच दिया जाता है, जिससे कि वे कुछ दिन और जिन्दा रह सकें। जब मजदूर इसी लोकतंत्र द्वारा दिये गये अपने कानूनी अधिकार की मांग करते हैं तो हजारों मजदूरों को एक साथ नौकरी से निकाल कर उनके परिवारों को तिल-तिल मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। उससे भी जब उनके मनोबल को नहीं तोड़ पाते है तो इन मजदूरों को सालों-साल जेल में रखकर उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है- जैसा कि मारूति सुजुकी, ग्रेजियानो, निप्पोन इत्यादि मजदूरों के साथ किया जा रहा है। 19 मई, 2013 को ही जब कैथल में मारूति सुजुकी के मजदूर, उनके परिवार और समर्थक मारूति सुजुकी मजदूरों पर हो रहे अन्याय की मांग को लेकर हरियाणा के उद्योग मंत्री से मिलना चाहते थे तो महिलाओं, बच्चों, बूढ़ों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया, पानी की बौछार की गई तथा चुन-चुन कर नेतृत्वकारी मजदूरों और उनके समर्थकों को पकड़ा गया और फर्जी धाराओं के तहत उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। ये घटनाएं लोकतंत्र का संचालन करने वाली संसद से मात्र कुछ दूरी पर एनसीआर में ही हो रही है, दूर-दराज की बात तो छोड़ ही दीजिये कि वहां जनता पर किस तरह के जुल्मों-सितम ढाये जा रहे हैं। 

इससेसाफ है कि इस लोकतंत्र में से लोक (जनता) गायब है और तंत्र ही बच गया है और जब इस तंत्र पर हमला होता है तो शासक वर्ग तिल मिला उठता है जो आवाज तंत्र के खिलाफ हो उस आवाज को कुचलने के लिए दिन-रात एक कर देता है। रातों रात राहुल गांधी रायपुर पहुंच गये, दूसरे दिन प्रधानमंत्री से लेकर सोनिया गांधी तक छत्तीसगढ़ पहुंच जाते हैं। लेकिन ये लोग चंद दूरी पर मजदूरों पर हो रहे हमले पर जाना या उनके अधिकारों के विषय में बोलना उचित नहीं समझते। जिस देश में ‘लोकतंत्र’ के ढांचे में ही हिंसा है; जहां जाति, धर्म, लिंग के नाम पर लोगों को मार दिया जाता है और ‘लोकतंत्र’ का मुखिया कहता है कि ‘‘बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है’’ तो दूसरी घटना में राजधर्म निभाने की बात कही जाती है तो कभी बेटियों के पिता होने की दुहाई दे कर अपनी जिम्मेदारी से इतिश्री कर ली जाती है।  राष्ट्रपति से प्रधानमंत्री तक सभी एक सुर में कह रहे हैं कि लोकतंत्र में किसी भी प्रकार के हिंसा का स्थान नहीं है। क्या अब तक सलावा जुडूम या जीविका के साधन के लिए आंदोलन कर रहे लोगों पर हो रहे हमले लोकतंत्र का हमला नहीं है? दिल्ली में भी माओवादी हमले कर सकते हैं इस तरह की अफवाह फैला कर, क्या दिल्ली व दिल्ली जैसे शहरों भी जनवाद पंसद लोगों पर दमन चक्र चलाने की साजिश की जा रही है। क्या यहां पर लोकतंत्र बचा है? ‘लोकतंत्र’ पर हमला हो रहा है या ‘लोकतंत्र’ विराधियों पर हमला हो रहा है?

मीडिया का रोल

प्रधानमंत्रीडॉ मनमोहन सिंह द्वारा मुख्यमंत्रियों की बैठक में कहा गया था कि मीडिया को भी को-आपट करना चाहिए। इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया शासक वर्ग की बातों को ही जोर-शोर से प्रचारित कर रही है या उनके सुर में सुर मिलाने वाले लोगों की बातों को ही तवज्जो दे रही है।  ज्यादातर ऐसे लोगों को चर्चा में बुलाया जा रहा है जो कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) यानी शोषित-पीड़ित जनता के आन्दोलन को बर्बर तरीके से कुचलने के पक्ष में है। अगर इस चर्चा में कोई तथ्यों को रखते हुए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) से बिना शर्त बातचीत का सुझाव देता है तो उसे माओवादी का प्रवक्ता का संज्ञा दे दी जाती है। जल-जंगल-जमीन की लूट में से एक हिस्सा इन मीडिया को भी मिलता है विज्ञापन के रूप में, जो कि सरकार व कम्पनियों द्वारा दिया जाता है। बहुत सारे मीडिया घराने अब तो सीधे सीधे जल-जंगल-जमीन के लूट में लगे हुए हैं- जैसे कि दैनिक भास्कर समूह के चेयरमैन रमेश चंद अग्रवाल को रायगढ़ में कोल ब्लॉक का आवंटन किया गया है। इसी तरह नवभारत ग्रुप ने बस्तर में आइरन स्पंज प्रोजेक्ट के लिए 8 सितम्बर, 2003 को 1460 करोड़ रु. का छत्तीसगढ़ सरकार के साथ इकरारनामा (MOU) किया है। 

नक्सलवादने जहां सामंतों की चुलें हिला दी वहीं नक्सलवाद के विकसित रूप माओवाद ने आज समांतो व पूंजीपतियों के मनसूबों पर पानी फेर दिया है। टाटा को बस्तर में  5.5 मिलियन टन का स्टील प्लांट लागने के लिए 2044 हेक्टेअर भूमि चाहिए जिसके लिए 6 जून 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार के साथ इकरारनामा (MOU) हुआ है। लेकिन तीन बार इकरारनामे का नवीनीकरण होने के बाद भी आज तक अपने मकसद में टाटा कमायब नहीं हो पाया। इसी तरह एस्सार कम्पनी के साथ भी जुलाई 2005 में इकरारनामा हुआ है। एस्सार कम्पनी दंतेवाड़ा जिले के भांसी में 3.2 मिलियन टन का प्लांट लगाना चाहती है लेकिन ये कम्पनी भी आज तक कामयाब नहीं हो पाई है (इन दोनों कम्पनियों ने सलवा जुडूम कैम्प का खर्च दिया था)। अनिल अग्रवाल (जो कि वेदांता कम्पनी के भी मालिक हैं और उड़ीसा के नियामगिरी को भी बर्बाद करने पर लगे हुए हैं) बाल्को की क्षमता को 1 लाख टन प्रति वर्ष से बढ़ा कर 7 लाख टन प्रतिवर्ष करना चाहते हैं। छत्तीसगढ़ सरकार 2001 से 2010 तक पूंजीपतियों के साथ 192126.09 करोड़ रु. के 121 इकरारनामा (MOU) किये हैं। 

अपनेजीविका के साधन जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के नेतृत्व में आदिवासियों का जो संघर्ष चल रहा है वह इस इकरारनाम को लागू नही होने दे रहा है। पूंजीपतियों के लूट को बनाये रखने के लिए देश की जनता पर अघोषित युद्ध थोप दिया गया है। इस अघोषित युद्ध को छिपाने के लिए ही प्रचारित किया जा रहा है कि नक्सलवाद अपने वैचारिक संघर्षों से भटक गया है और आतंकवाद व गुंडा गिरोह में तब्दील होकर चंदा उगाही कर रहा है; माओवादी नेताओं और बुद्धिजीवयों में राजनीति करने का धैर्य और विवेक नहीं है। जहां पीढ़ी दर पीढ़ी जनता आज तक अपने को लूटती हुई देखती आई है जहां लोगों को दो जून की रोटी, पीने का स्वच्छ पानी तक नहीं है- शिक्षा और स्वास्थ्य तो दूर की बात है, जो भी उनके पास है उसको भी लूटा जा रहा है और हम उनसे धैर्य की बात कर रहे हैं। 

इस लूट को बनाये रखने के लिए सीआरीपीएफ, कोबरा, बीएसएफ, भारत तिबब्त सीमा पुलिस, ग्रेहाउण्ड, वायु सेना, प्रशिक्षण के नाम पर सेना इसके अलावा सलावा जुडूम, कोया कमांडो, नागरिक सुरक्षा समिति जैसे कई प्राइवेट सेनायें भी बनाई व लगाई गई हैं। अमेरिका और इस्राइल द्वारा तकनीक से लेकर ट्रेनिंग तथा हथियार दिया जा रहा है। सेटेलाइट और यूएवी (मानवरहित एरियल व्हेकल)  के सहारे फोटो लेकर हमले किये जाते रहे हैं। शासक वर्ग सैनिक, अर्द्धसैनिक बलों के बल पर दमन चक्र चला कर लूट को बनाये रखना चाहती है। यह सैनिक, अर्द्धसैनिक बल उसी शोषित-पीडि़त के घर से आते हैं जिसकी राजनीति भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) करती है और जिस दिन वे इन बलों को अपनी राजनीति को समझा दिया उस दिन सब कुछ बदल जायेगा। 

माओवादियों का विदेशी सम्बंध

गृहमंत्रीरहते हुए पी. चिदम्बरम ने संसद में बयान दिया है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को विदेशों से मदद मिलने का कोई प्रमाण नहीं है। लेकिन बार-बार इस बात को उछाला जाता है कि माओवादियों का तार विदेशों से जुड़े हैं, इनको पास काफी संख्या में आधुनिक राइफलें हैं। दरभा घाटी के हमले में माओवादियों ने 1830-1840 दशक के भरमार बंदूकों का इस्तेमाल किया है; इस बात की पुष्टि घायल और अन्य लोगों के शरीर से पुराने हथियारों की गोली मिलने से होती है। रामकृष्ण केयर अस्पताल के संचालक डॉ संदीप दवे के अनुसार 99 प्रतिशत घायलों के शरीर से पहले भी पुराने हथियारों की ही गोलियां निकलती रही हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि आज भी माओवादियों के पास ज्यादातर पुराने हथियार हैं। माओवादियों पर क्रूरतापूर्वक हत्या करने की बात कही जा रही है जब कि ‘परिवर्तन यात्रा’ में शामिल डॉ. शिव नरायण के अनुसार,  ‘‘मेरे पैर से खून बहता देख उनके कमांडर ने कहा कि डाक्टर साहब को इंजेक्शन लगा दो।’’ इस तरह माओवादियों ने कई घायलों का इलाज किया और पानी पिलाया और महेन्द्र कर्मा, नन्द कुमार पटेल और उनके बेटे के अलावा सभी आत्मसमर्पण करने वालों लोगों को छोड़ दिया। हमले के दो घंटे बाद पत्रकार नरेश मिश्रा बाइक से घटना स्थल पर पहुंचे और घायलों को मदद करने लगे; जब वह घायलों के मदद में लगे थे उसी समय कांग्रेसी नेता कवासी लखमा उनकी बाइक लेकर भाग गये, इस कारण उनको पैदल ही वापस आना पड़ा। 

समाधान

भारतका शासक वर्ग इस समस्या का समाधान दमन के रूप में देख रहा है। लेकिन जरूरत है कि अभी तक पूंजीपतियों की लूट के लिए जो भी हमले जनता पर किये गये है उन हमले के जिम्मेदार लोगों को सजा हो। आदिवासी क्षेत्रों में संविधान की अनुच्छेद 5 और 6 को लागू किया जाये और लोगों के सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार दिया जाये। सभी इकरारनामा (MOUs) को रद्द किया जाये। किसी भी प्रकार के इकरारनामा करते समय लोगों की अनुमति ली जाये। आपॅरेशन ग्रीन हंट सहित, सैनिक, अर्द्धसैनिक को वापस बुलाया जाये और माओवादियों से बिना शर्त बात की जाये। जेलों में बंद सभी आन्दोलनकारियों को रिहा किया जाये। अन्यथा शासक वर्ग के दमन से माओवाद समाप्त नहीं होगा। 
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 सुनील कुमारस्वतंत्र टिप्पणीकार हैं. 
इनसे संपर्क का पता sunilkumar102@gmail.com है.

वाम के साथ की मनमोहनी याद

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...वामपंथी दलों से सहयोग का दौर प्रधानमंत्री को शायद इसलिए याद आता होगा क्योंकि इन दलों ने सत्ता के सुख के लिए उनसे सौदेबाजी नहीं की। उनकी कुछ नीतियों में अतिरेक और कई कार्यक्रमों में अव्यावहारिकता हो सकती है, लेकिन उनकी चिंताएं आम जन के हित से जुड़ी हैं, ये बात किसी ईमानदार व्यक्ति के मानस से ओझल नहीं रह सकतीं।..."

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब वामपंथी दलों के साथ भविष्य में सहयोग के दरवाजे खुले रहने के संकेत देते हैं या यूपीए-1 सरकार को उनके समर्थन वाले दौर को याद करते हुए कोई टिप्पणी करते हैं तो वे किस मनःस्थिति में होते हैं, इसका अंदाजा लगाना तो आसान नहीं है, लेकिन इससे ये कयास जरूर शुरू हो जाते हैं कि क्या भविष्य में फिर कांग्रेस और वाम मोर्चे के बीच किसी तरह के संसदीय सहयोग की गुंजाइश है? ऐसी एक टिपप्णी डॉ. सिंह ने हाल की अपनी जापान-थाईलैंड यात्रा से लौटते हुए की। उनसे इस संभावना के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। मध्यमार्गी दलों, जिनके लिए राजनीति महज (सत्ता पाने की) संभावनाओं का खेल है, उनके नेता अक्सर ये जुमला बोलते हैं। बहरहाल, वामपंथी दलों के संदर्भ में ये बात सिर्फ तीन स्थितियों में कही जा सकती है। पहली यह कि बयान देने वाला नेता वामपंथी राजनीति की विशिष्टता या उसके गतिशास्त्र से बिल्कुल अपरिचित हो, या फिर वह अपने दल की नीतियों में ऐसे परिवर्तन के लिए तैयार हो जिसके आधार पर उन पार्टियों के साथ तालमेल की सूरत बने, अथवा वह निकट भविष्य में ऐसी राजनीतिक परिस्थिति पैदा होने की संभावना देखता हो जिसमें अल्पकालिक मुद्दे अप्रसांगिक हो जाएं।


डॉ. सिंह की टिप्पणी के एक दिन बाद ही माकपा महासचिव प्रकाश करात ने इस बारे में अपनी पार्टी की स्थिति स्पष्ट की। उन्होंने कहा कि 2014 के आम चुनाव के बाद उन्हें 2004 जैसी स्थिति बनने की संभावना नजर नहीं आती। करात ने कहा कि फिलहाल वाम मोर्चे का लक्ष्य कांग्रेस और यूपीए को पराजित करना है, जिनकी नीतियों का वह विरोध करता है। फिर ये टिप्पणी की- “माकपा नीतियों और कार्यक्रमों पर गौर करती है। हम दोस्त और दुश्मनों पर ध्यान नहीं देते।”

नीतियों में कांग्रेस और वाम मोर्चा परस्पर विरोधी ध्रुवों पर खड़े हैं, इस बारे में तो मनमोहन सिंह को भी कोई भ्रम नहीं होगा। असल में 2004 में कांग्रेस और वाम मोर्चे में सहयोग की बनी ऐतिहासिक स्थिति 2008 में भंग हो गई, तो उसका कारण नीतियों की चौड़ी होती खाई ही थी, जो अमेरिका के साथ असैनिक परमाणु सहयोग समझौते को लेकर विच्छेद बिंदु पर पहुंच गई। इसके बावजूद सहयोग का वो दौर कई बार प्रधानमंत्री को याद आता है। 2009 में यूपीए के अधिक बड़े बहुमत के साथ चुनाव जीतने के तुरंत बाद जब उनसे फिर वामपंथ से सहयोग की संभावना के बारे में पूछा गया तो उन्होंने अंग्रेजी की एक कहावत से जवाब दिया था, जिसका हिंदी में अर्थ होगा कि अगर इच्छाओं से घोड़े मिल पाते तो भिखारी भी घुड़सवारी कर सकते हैं। जब लोकपाल आंदोलन कांग्रेस के लिए मुसीबत बना हुआ था उस समय वामपंथी दलों का एक प्रतिनिधिमंडल डॉ. सिंह से किसी अन्य संदर्भ में मिलने गया था। बताया जाता है कि तब प्रधानमंत्री ने उनसे कहा था कि उन्हें वो दिन याद आते हैं, जब वामपंथी दलों से उन्हें महत्त्वपूर्ण सलाह मिलती थी।

ये टिप्पणियां इसलिए ध्यान खींचती हैं, क्योंकि 2009 में कांग्रेस और वामपंथी दलों में संबंध विच्छेद के लिए परमाणु समझौते पर डॉ. सिंह के समझौताविहीन रुख को ही जिम्मेदार माना जाता है। उसके बाद कांग्रेस और यूपीए ने जिन आर्थिक नीतियों पर तेजी से चलने की कोशिश की, उससे वामपंथी दलों के साथ उनका विरोध बढ़ता गया। इन नीतियों के सबसे बड़े प्रतीक खुद डॉ. सिंह हैं। काफी समय तक ये भ्रम रहा कि इन नीतियों पर कांग्रेस में मतभेद है। लेकिन पिछले एक साल में हर खास मंच से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने बेलाग ये कहा है कि डॉ. सिंह की नीतियां ही कांग्रेस की नीति हैं। यानी कांग्रेस ने आर्थिक वृद्धि दर केंद्रित नीति को, जिसमें निवेशकों के हित प्राथमिक हैं, खुलेआम स्वीकार कर लिया है।

इसकेबावजूद डॉ. सिंह के बयान का क्या मतलब निकाला जा सकता है? वे वामपंथी राजनीति के चरित्र से अनजान हैं, यह तो कोई नहीं मानेगा। तो फिर क्या 2014 में ऐसी सूरत हो सकती है जब कांग्रेस ऐसे साझा न्यूनतम कार्यक्रम पर राजी हो, जिसमें डॉ. सिंह की आर्थिक नीतियां पर उसे समझौता करना पड़े? या फिर ऐसी राजनीतिक परिस्थिति होने की संभावना गंभीरता से देखी जा रही है, जिसमें आर्थिक नीतियों पर मतभेद प्रमुख मुद्दा ना रह जाए? मसलन, सांप्रदायिकता या बहुसंख्यक वर्चस्व की सियासत इतने खतरनाक रूप में उभर कर सामने आए कि धर्मनिरपेक्ष दलों के बीच सहयोग एक मजबूरी बन जाए। अभी की हालत में पहली स्थिति महज एक कयास प्रतीत होता है, जबकि दूसरी स्थिति- यानी धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का सर्व-प्रमुख मुद्दा बन जाना- एक वास्तविक संभावना लगती है।

यहसंभावना इसलिए वास्तविक है क्योंकि भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता लगातार प्रमुख विभाजन रेखा बनी हुई है। इसकी प्रमुखता का परिणाम यह है कि विशुद्ध जन-पक्षीय मुद्दों के आधार पर प्रभावी राजनीतिक ध्रुवीकरण की संभावना निकट भविष्य में नजर नहीं आती। इसलिए सामाजिक जनतांत्रिक कार्यक्रमों के आधार पर सियासत को मध्य से वाम दिशा में ले जाने का लक्ष्य चाहे जितना आकर्षक हो, लेकिन उस दिशा में वाम शक्तियों की प्रगति का रास्ता अवरुद्ध है। इस दिशा में आगे बढ़ने की एकमात्र हलकी गुंजाइश यही है कि वाम मोर्चे और कांग्रेस के बीच सहयोग की सूरत निकले। कांग्रेस अगर इस तथ्य के प्रति जागरूक होती कि उसका दीर्घकालिक भविष्य मध्य से वाम की तरफ झुकी नीतियों से जुड़ा है, तो संभवतः जिस मुसीबत में आज वो नजर आती है, उसमें नहीं होती। 2004-08 की अवधि उसने इन नीतियों पर अमल कर अपने राजनीतिक आधार का विस्तार किया था। 2009-13 में इन नीतियों से दूर जाकर उसने इस आधार को संकुचित किया है। अगर वह इन नीतियों को आत्मसात कर पाती तो उसे अपनी आम आदमी समर्थक छवि बनाने के लिए अपनी राष्ट्रीय सलाहकार समिति में एनजीओ संस्कृति से कार्यकर्ताओं को लाने की जरूरत नहीं पड़ती। जवाहरलाल नेहरू के युग में- बल्कि इंदिरा गांधी के आरंभिक दौर में भी- प्रगति, विकास और न्याय की राजनीति की पहल कांग्रेस के हाथ में थी, तब उसे बाहरी लोगों की छवि से अपनी सूरत चमकाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। आज क्यों ये पहल उसके हाथ में नहीं है, यह उसके लिए विचारणीय मुद्दा है।

वामपंथीदलों से सहयोग का दौर प्रधानमंत्री को शायद इसलिए याद आता होगा क्योंकि इन दलों ने सत्ता के सुख के लिए उनसे सौदेबाजी नहीं की। उनकी कुछ नीतियों में अतिरेक और कई कार्यक्रमों में अव्यावहारिकता हो सकती है, लेकिन उनकी चिंताएं आम जन के हित से जुड़ी हैं, ये बात किसी ईमानदार व्यक्ति के मानस से ओझल नहीं रह सकतीं। डॉ. सिंह और उनकी पार्टी अगर इस बात को स्वीकार करती हैं तो दुश्मन-दोस्त वाली शब्दावली से हट कर इस बात को उन्हें खुलेआम कहना चाहिए। अगर वामपंथी दल अतिरेक और अव्यावहारिकता को नियंत्रित कर सकें तो उन्हें गठबंधन के न्यूनतम बिंदुओं पर सोचना चाहिए। आज ये बातें कयास या कुछ लोगों की सदिच्छा लग सकती हैं, लेकिन मुमकिन है कि 2014 के मध्य में ये ऐसी संभावना के रूप में सामने आएं, जिनका सामना भारत के दीर्घकालिक हित से सरोकार रखने वाली तमाम राजनीतिक शक्तियों को करना होगा।
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सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 

satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

मारूति मजदूरों के आन्दोलन पर सरकारी दमन

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-सुनील कुमार

"...इस घटना को 300 से अधिक दिन हो गये हैं उस समय से अभी तक 147 मजदूर जेल में अमानवीय जिन्दगी जी रहे हैं उनके परिवार कोर्ट का चक्कर लगा रहे हैं। मजदूरों के अधिकारों का दमन करने के लिए खुले रूप से हरियाणा सरकार केन्द्र सरकार एक साथ मारूति सुजुकी के साथ खड़ी है आज भी मारूति सुजुकी मजदूरों का उत्पीड़न जारी है। हरियाणा की हुडा सरकार ने मजूदरों के आन्दोलन को खत्म करने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद सब कुछ अपना लिया है।..." 

मारूति सुजुकी मजदूरों के आन्दोलन को दो वर्ष होने वाले हैं। यूनियन बनाने का जो संविधान में कानूनी अधिकार दिया गया है मारूति सुजुकी के मजदूर उसके लिए मारूति सुजुकी प्रबंधन और श्रम विभाग से मांग करते आ रहे थे। जब उनकी बात को मारूति सुजुकी प्रबंधन और श्रम अधिकारियों ने अनसुना कर दिया तो मजदूरों ने अपने आखिरी हथियार हड़ताल का सहारा लिया। पहली बार मारूति सुजुकी के मजदूर 4 जून, 2011 को हड़ताल पर गये 13 दिनों के संघर्ष के बाद जब मारूति सुजुकी प्रबंधन और श्रम विभाग उनकी एकजुटता और मनोबल को नहीं तोड़ पाया तो आन्दोलनरत मजदूरों के साथ समझौता किया।

मारूति सुजुकी प्रबंधन और श्रम विभाग द्वारा समझौते के उल्लंघन पर मजदूरों ने दुबारा 28 जुलाई, 2011 से 30 सितम्बर 2011 तक हड़ताल की। इतने लम्बी हड़ताल को तोड़ने के लिये प्रबंधन ने मुकु यूनियन (मारूति सुजुकी के गुड़गांव प्लांट का यूनियन जो मारूति सुजुकी प्रबंधन के इशारे पर चलता है) की मदद ली और मुकु के सहयोग से 30 सितम्बर को मानेसर प्लांट के मजदूरों से आधे अधूरे मन के साथ समझौता करा लिया। दबाव में कराये गये समझौते को भी प्रबंधन द्वारा नहीं माना गया और 3 अक्टूबर को प्रबंधन ने समझौते को तोड़ते हुए मजदूरों पर कार्रवाई की गई। 

मजदूरों ने कम्पनी के अन्दर ही 7 अक्टूबर को शांतिपूर्वक धरने पर बैठ गये, 15 अक्टूबर को भारी पुलिस बल बुलाकार मजदूरों से प्लांट को खाली कराया गया। प्लांट खाली कराने के बाद मजदूर बाहर धरने पर बैठ गये। 19 अक्टूबर को मारूति सुजुकी प्रबंधन, श्रम अधिकारियों द्वारा मजदूरों को गेस्ट हाउस में बुलाकर त्रिपक्षीय समझौते किये गये। मजूदरों के जुझारू तेवरों से घबराकर मारूति सुजुकी प्रबंधन ने 18 जुलाई को षड़यंत्र के तहत एक मजदूर को जाति सुचक गाली देकर निकाल दिया। मजदूरों के विरोध करने पर वार्ता के लिए यूनियन के पदाधिकारियों को बुलाया गया। वार्ता के बीच में ही प्रबंधन ने बाउन्सरों (गुंडों) को मजदूरों की वर्दी में बुला कर मार-पीट करना शुरू कर दिया और आगजनी की कार्रवाई करायी गई जिसमें एक एचआर मैनेजर की मृत्यु हो गई। इस घटना के सबूत को छिपाने के लिए सीसीटीवी के सभी फुटेज को बर्बाद कर दिया गया और मारूति के मजदूरों को झूठे केसों में फंसा कर जेलों में डाल दिया गया।  

18जुलाई, 2012 के षड़यंत्र के बाद 546 स्थायी तथा 1800 ठेका मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया गया। मारूति सुजुकी द्वारा इस तरह के गैर कानूनी/संवैधानिक कारवाईयों (संविधान में पहले से ही मेहनतकश जनता के लिए बहुत कम अधिकार दिये गये हैं और इन संवैधानिक अधिकारों को लागू कराने के लिए भी शासक वर्ग से लड़ना पड़ता है) पर हरियाणा सरकार, केन्द्र सरकार भी मुहर लगा चुकी है। 18 जुलाई की घटना के बाद मारूति सुजुकी के मानेसर प्लांट को एक माह से अधिक समय तक के लिए बंद रखना पड़ा था जिसमें मारूति सुजुकी को 70 करोड़ रु. प्रति दिन का नुकसान होना बताया जा रहा है। 2013, जनवरी-मार्च के तिमाही में मारूति सुजुकी ने रिकॉर्ड मुनाफा 1147.5 करोड़ रु. कमाया। इस मुनाफे की नींव रखने वाले मजदूर जो कि 42 सेकेंड में एक कार तैयार कर देते हैं की हालत दयनीय होती जा रही है। इस घटना को 300 से अधिक दिन हो गये हैं उस समय से अभी तक 147 मजदूर जेल में अमानवीय जिन्दगी जी रहे हैं उनके परिवार कोर्ट का चक्कर लगा रहे हैं। मजदूरों के अधिकारों का दमन करने के लिए खुले रूप से हरियाणा सरकार केन्द्र सरकार एक साथ मारूति सुजुकी के साथ खड़ी है आज भी मारूति सुजुकी मजदूरों का उत्पीड़न जारी है। हरियाणा की हुडा सरकार ने मजूदरों के आन्दोलन को खत्म करने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद सब कुछ अपना लिया है। जब मजदूरों की एकजुटता इससे भी कम नहीं हुई तो मानेसर प्लांट को पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया और मजदूरों को आईपीसी की गंभीर धाराओं के तहत गिरफ्तार किया गया और 300 दिन बाद भी गवाहों की जान का खतरा मानकर जमानत नहीं दी जा रही है। मजदूरों के खिलाफ गवाही देने वालों का नाम और पते गुप्त रखे गये हैं और उनकी पहचान संख्या दी गई है और इसको बेस्ट बेकरी (गुजरात जनसंहार) केस के गवाहों जैसे खतरा माना गया है। 

मारूतिसुजुकी के मजदूरों का आन्दोलन श्रम कानूनों को प्राप्त करने के लिए था, जिसमें वे यूनियन बनाने, ठेकेदार और अस्थायी मजदूरों को स्थायी करने के लिए आन्दोलन कर रहे थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारतीय श्रम सम्मेलन के 45 वें उद्घाटन सत्र को सम्बोधित करते हुए कहा कि ‘‘न्यूनतम वेतन, पेंशन और श्रम कानून जैसे मुद्दों पर सरकार फिक्रमंद है। सेंट्रल ट्रेड यूनियनों की मांगों से सरकार को कोई असहमति नहीं हैं।’’  इन्हीं मुद्दों को लेकर सेंट्रल ट्रेड यूनियन ने फरवरी में दो दिवसीय देशव्यापी हड़ताल की थी। प्रधानमंत्री जिस बात को लेकर अपने को फिक्रमंद बता रहे हैं उसी बात के लिए मारूति सुजुकी के मजदूर लड़ रहे हैं जिसके कारण उनको जेल में डाल दिया गया है। लगभग 2500 मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया गया और केन्द्र तथा हरियाणा सरकार इन सब अत्याचारों में शामिल रही। अगर सरकार फिक्रमंद है तो चुप्पी क्यों? मारूति सुजुकी के मजदूरों का दमन क्यों किया जा रहा है? क्या यह मनमोहन सिंह की दो मुंही बातें है जनता को भ्रमजाल में डालने के लिए? मनमोहन सिंह के नाक के नीचे दिल्ली के श्रमभवन पर मारूति सुजुकी मजदूरों पर हो रहे दमन के खिलाफ दिल्ली में नागरिक संगठनों, मानवाधिकार संगठनों, छात्र संगठनों, ट्रेड यूनियनों, बुद्धिजीवियों द्वारा किये गये प्रदर्शनों पर पार्लियामेंट थाने के एस.एच.ओ. द्वारा प्रदर्शनकारियों के साथ बदसूलकी की गई और धमकाया गया। एक सिपाही द्वारा प्रदर्शनकारियों पर बदसूलकी न करने पर एस.एच.ओ. द्वारा सिपाही को थप्पड़ मारा गया और एस.एच.ओ. पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। क्या भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को यह बात पता नहीं थी? मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के ही गृह राज्य मंत्री द्वारा राज्य सभा में बयान दिया गया कि इन प्रदर्शन में माओवादियों का हाथ है। 

मारूति सुजुकी मजदूरों का आन्दोलन नये चरण में

मारूतिसुजुकी के मजदूरों ने अपनी एक स्वतंत्र यूनियन और स्थायी, अस्थायी, ठेकेदार मजदूर को आपस में जोड़कर जो आन्दोलन शुरू किया था उसको आगे बढ़ाते हुए किसानों को भी अपने साथ जोड़ने का काम किया है। 24 मार्च, 2013 से कैथल में मजदूर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गये जिसको आस-पास के गांव व व्यापारियों का समर्थन मिला। 28 मार्च से 4 मजदूर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठ गये। 3 अप्रैल को मुख्यमंत्री और उद्योग मंत्री ने मारूति सुजुकी मजदूरों को आश्वासन दिया कि मारूति प्रबंधन व श्रम विभाग को समस्या का शीघ्र समापन करने के निर्देश देंगे। इस आश्वासन के बाद मजदूरों ने भूख हड़ताल समाप्त कर दी। जिस तरह मारूति सुजुकी प्रबंधन द्वारा बार-बार मजदूरों से झूठे समझौते किये गये उसी तरह हरियाणा सरकार का आश्वासन भी झूठा रहा। एक भी मजदूर जेल से बाहर नहीं आये और न ही एक भी मजदूर को काम पर वापस बुलाया गया। मजदूरों ने 8 मई को आयुक्त कार्यालय के सामने प्रदर्शन और महापंचायत की जिसमें कई गांव के सरपंचों ने शिरकत की। इस महापंचायत में निर्णय हुआ कि सरकार अगर 10 दिन में मजदूरों की मांगों पर ध्यान नहीं देती तो 19 मई से उद्योगमंत्री के घर का घेराव किया जाएगा।

हरियाणाके हुड्डा साहब जो कि ‘संविधान और जनतंत्र’ (जो कि आम आदमी के लिए कभी लागू नहीं होता) की रक्षा का शपथ लेकर मुख्यमंत्री बने थे अपने शपथ को भूल गये और ओसामू सुजुकी (मारूती सुजुकी के मालिक) को दिये गये वचन को याद रखा कि उनकी कम्पनी को पूरा सुरक्षा दी जायेगी और कम्पनी पर किसी तरह का आंच नहीं आने दिया जायेगा। हुड्डा सरकार ओसामू सुजुकी के वचन को निभाते हुए 18 मई की रात 11.30 बजे सो रहे 100 मजदूरों और उनको समर्थन दे रहे लोगों को पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। 19 मई को जब मजदूर उनके परिवार व मजदूरों को समर्थन दे रहे लोग कैथल पहुंचे तो उन पर लाठी चार्ज, पानी की बौछार और आंसू गैस के गोले दागे गये। महिलाओं, बच्चों बुढ़ों को पुरुष पुलिस कर्मियों द्वारा बुरी तरह से पीटा गया। झूठे केस बनाने के लिए पुलिस कर्मियों द्वारा अग्निशमन के गाडि़यों को तोड़ा गया। हजारों लोगों जिसमें महिलाएं, बच्चे बुढ़ों की संख्या काफी थी को गिरफ्तार कर इस लू भरी गर्मी में रात 9-10 बजे तक बसों में इधर से उधर घुमाते रहे। कैथल में बस स्टाप, सड़कों यहां तक की अस्पताल तक में जाकर लोगों को पकड़ा और पीटा गया, कैथल के सड़कों को पुलिस छावनी में बदल दिया गया था सड़कों पर जो भी मिला उसको पकड़ा गया। राम निवास जो कि मारूति सुजुकी ट्रेड यूनियन के पदाधिकारी हैं उन्हें खोज कर के पकड़ा गया, पकड़ने के बाद इतना पीटा गया कि वे बेहोश हो गये। नीतीश जो कि इस आन्दोलन में भी नहीं था वो अपने रिश्तेदार के घर जा रहा था उसको पकड़कर कर पीटा गया और आईपीसी की संगीन धराएं लगा दी गयी।

जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिये चल रहे संघर्ष में जिस तरह संघर्षरत जनता और उनके समर्थकों को चुन-चुन कर पकड़ा जाता है या मार दिया जाता है उसी तर्ज पर भुपेन्द्र हुड्डा की सरकार शांति पूर्वक धरने पर बैठे मजदूरों को ही नहीं बल्कि उनके परिवार तथा उन्हें समर्थन दे रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को भी चुन-चुन कर गिरफ्तार कर रही है। जैसा कि 18 मई को श्यामवीर और अमित को गिरफ्तार कर कैथल जेल भेज दिया गया अमित जेएनयू के शोधार्थी है। 19 मई को यूनियन के प्रमुख राम निवास, हिन्दुस्तान मोटर्स संग्रामी श्रमिक कर्मचारी यूनियन कोलकता के दीपक बक्शी, मजदूर अखबार श्रमिक शक्ति के संवाददाता सोमनाथ, हिसार के ग्राम पंचायत नेता सुरेश कोथ अपने रिश्तेदार के घर जा रहे नीतिश जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों को गिरफ्तार कर आई पी सी  की धारा 148, 149, 188, 283, 332, 353, 186, 341, 307, आम्र्स एक्ट (25) सम्पति की क्षति (पीडीपीपी ऐक्ट-3) में 11 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।
  
इसदमन के खिलाफ दिल्ली में 19 व 20 मई को सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, मानवाधिकार संगठन, छात्र संगठन, ट्रेड यूनियनों ने मिलकर हरियाणा भवन और हुड्डा के निवास 9 पंत मार्ग पर प्रदर्शन किया। प्रदर्शनकारियों में से 3 लोग जब भुपेन्द्र हुड्डा के आवास पर गये तो भुपेन्द्र हुड्डा का बयान बेहद गैर जिम्मेदराना, असंवेदनशील, सामंतों जैसा था। ‘‘तू कौन है, तू इन्कलाबी संगठन से है तो मैं महाइन्कलाबी हूं, यू गो, मैं तुम से बात नहीं करूंगा मैं मजदूरों का प्रतिनिधि हूं, मैं मारूती मजदूरों से बात करूंगा’’ कह कर चले गये और ज्ञापन की प्राप्ति प्रति (रिसिविंग काॅपी) बार-बार मांगने के बावजूद नहीं दी गयी। यह एक ‘लोकतांत्रिक’ देश के मुख्यमंत्री महोदय बोल रहे थे। यह भाषा जनतंत्र की हो सकती है या गिरोह तंत्र की? जिसे यह भी पता नहीं कि भारतीय संविधान भारत के हर नागरिक को शांति पूर्वक बात रखने का अधिकार देता है। क्या हम इसे लोकतंत्र कह सकते हैं? भूपेन्द्र हुड्डा जो कि हरियाणा सरकार के प्रतिनिधि हैं उन्होंने दिल्ली में आकर लोकतंत्र का मजाक बना दिया। जहां पर दुनिया का सबसे बड़े ‘लोकतंत्र’ के मंदिर (संसद, सुप्रीमकोर्ट, मानवाधिकार आयोग) हैं। हम अनुमान लगा सकते हैं कि वे हरियाणा में किस तरह का राज चलाते होंगे? यहां पर बोलते हैं कि मारूति के मजदूरों से बात करेंगे और जब मारूति मजदूर उनसे मिलने जाते हैं तो उनको भगा दिया जाता है गिरफ्तार कर लिया जाता है। 

भारतका शासक वर्ग संविधान व जनतंत्र का गला घोंट कर, लूट तंत्र में लगे पूंजीतंत्र की रक्षा करने में लगा हुआ है। पूंजीपतियों की ज्यादा से ज्यादा चाकरी करने के लिए शासक वर्ग में होड़ मची हुई है जिससे कि लूट में से कुछ हिस्से उनको भी मिल सके। तथाकथित लोकतंत्र के मुखौट को भी उखाड़ कर फेंक दिया है और आये दिन उड़ीसा, केरल, छत्तिसगढ़, झारखंड और देश के अन्य भागों में फर्जी मुठभेड़ और फर्जी केस लगा कर लोगों के आन्दोलन को क्रूरता पूर्वक दबाया जा रहा है। एनसीआर में ही मजदूरों-किसानों पर रोज आये दिन जुल्म ढाये जा रहे हैं। नोएडा के अन्दर गर्जियानो, निप्पोन तथा फरवरी 2013 में हुए दो दिवसीय हड़ताल के दौरान सैकड़ों मजदूरों को आज भी जेल में रखा गया है उन मजदूरों की नौकरी छिन गई है उनके परिवार भूखों मरने के लिए मजबूर हैं। इसमें भगत सिंह का वो कथन और ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है- ‘‘अगर कोई सरकार जनता को उसके मूलभूत अधिकारों से वंचित रखती है तो जनता का न केवल अधिकार ही नहीं बल्कि आवश्यक कर्तव्य भी बन जाता है कि ऐसी सरकार को तबाह कर दे।’’ हमें भगत सिंह के इन शब्दों को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना होगा। 
                                                                                  
 सुनील कुमारस्वतंत्र टिप्पणीकार हैं. 
इनसे संपर्क का पता sunilkumar102@gmail.com है.

मीडिया नियंत्रण बनाम नियमन की उलटबांसियां

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भूपेन सिंह
-भूपेन सिंह
मीडिया के नियमन के लिए अधिकार संपन्न वैधानिक नियामक का होना ज़रूरी है. इसमें मीडिया मालिकों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए.  
-पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमेटी ऑन इनफॉर्मेशन टैक्नोलजी[i]
नियमन के लिए बनने वाली संस्था से अगर मीडिया को बाहर राखा जाएगा तो पत्रकार उसका विरोध करेंगे
-राजदीप सरदेसाई, प्रधान संपादक और मालिक, सीएनएन-आइबीएन, आइबीएन 7, आइबीएन लोकमत[ii]
स्वनियमन के लिए बनी मीडिया संगठनों की कमेटी को ही वैधानिक अधिकार मिलें
-उदय शंकर, सीईओ, स्टार इंडिया[iii]

रकार पेड न्यूज़ जैसे अपराध से निपटने में पूरी तरह नाकाम रही है, इस बात को अब सूचना तकनीक पर बनी संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने भी मान लिया है. इस कमेटी ने प्रेस परिषद की भूमिका को भी बेमतलब बताया है और सुझाव दिया है कि अब मीडिया नियमन के लिए एक वैधानिक अधिकारों वाली संस्था बनानी ज़रूरी हो गई है जिसमें प्रिंट के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नियमन का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. कमेटी ने इसके लिए एक नई मीडिया काउंसिल बनाने का सुझाव दिया है और किन्हीं वजहों से ऐसा न हो पाने की स्थिति में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए अलग-अलग वैधानिक अधिकार प्राप्त कमेटी बनाने पर ज़ोर दिया है. महत्वपूर्ण बात यह है कि कमेटी ने नियमन के लिए प्रस्तावित किसी भी तरह की संस्था से मीडिया मालिकों को पूरी तरह बाहर रखने को कहा है. कमेटी ने साथ में यह भी जोड़ा है कि पेड न्यूज़ सिर्फ़ चुनावों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसका इस्तेमाल उत्पादों की बिक्री, व्यक्तियों और संस्थाओं को फ़ायदा पहुंचाने के लिए भी हो रहा है.

संसदकी स्टैंडिंग कमेटी भारतीय मीडिया की दशा पर पिछले तीन साल से काम कर रही है. इसका गठन सन दो हज़ार दस में कांग्रेसी सांसद राव इंद्रजीत सिंह की अध्यक्षता में किया गया था जिसमें अलग-अलग पार्टियों के कुल इकतीस सांसद शामिल हैं. कमेटी ने 6 मई को संसद में रिपोर्ट पेश करते हुए कहा कि अब तक नियमन/स्वनियमन के सारे प्रयोग पूरी तरह असफल रहे हैं. उसने माना है कि भारतीय प्रेस परिषद, एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया, न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन और ब्रॉडकास्ट न्यूज़ एडिटर्स जैसी संस्थाएं पेड न्यूज़ को रोकने में पूरी तरह नाकाम साबित हुई हैं. इसलिए अब किसी अधिकारसंपन्न मीडिया नियामक की ज़रूरत से ज़्यादा दिनों तक नहीं बचा जा सकता. वैसे भी अगर  देखा जाए तो उपरोक्त चारों संस्थाएं संरचनात्मक तौर पर मालिकों के ही पक्ष में झुकी हुई हैं. इसलिए इनका असफल होना स्वाभाविक ही है.

स्टैंडिंगकमेटी की इस रिपोर्ट को निजी मीडिया घराने और उनके समर्थक सिरे से ख़ारिज कर रहे हैं, वे दोहरा रहे हैं कि स्व नियमन ही सबसे बेहतर तरीक़ा है और उनकी तरफ़ से बनायी गई स्वनियमन की  संस्थाएं इसको बख़ूबी अंजाम दे रही हैं. स्टैंडिंग कमेटी की सिफ़ारिशों को वे मीडिया की स्वतंत्रता के लिए ख़तरा बता रहे हैं. उन्होंने  एक बार फिर नियमन के विचार को मीडिया नियंत्रण की तरह प्रचारित करना शुरू कर दिया है. मीडिया मालिकों के आगे हमेशा से समर्पण की मुद्रा में खड़ी सरकार भी संसद की स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट को ज़्यादा तवज्जो देने के इरादे में नहीं लग रही हैं. रिपोर्ट के संसद में पेश होने के बाद सूचना और प्रसारण मंत्रालय के सचिव उदय कुमार वर्मा ने कमेटी की इस बात को  ग़लत बताया है कि उनका मंत्रालय मीडिया नियमन के लिए कुछ नहीं कर रहा है. उन्होंने सफ़ाई दी कि पेड न्यूज़ के ख़िलाफ़ तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में एक मंत्रीमंडलीय समूह बनाया गया था लेकिन मुखर्जी के राष्ट्रपति बन जाने के बाद वो समूह काम नहीं कर पाया. जल्द ही नए अध्यक्ष का गठन होने पर यह फिर से काम करना शुरू कर देगा. वर्मा यह भी कहते हैं कि मीडिया के नियमन का मामला काफ़ी जटिल है और स्वनियमन और वैधानिक नियमन को लेकर काफ़ी बहस है, सरकार पर मीडिया को नियंत्रित करने का आरोप लगाया जाता है, इसलिए सभी पक्षों को ध्यान में रखकर ही मंत्रालय कोई फ़ैसला लेगा[iv]. वर्मा के इस बयान से पता चलता है कि स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट को सरकार ज़्यादा गंभीरता से लेने के इरादे में नहीं है.

स्टैंडिंगकमेटी ने पेड न्यूज़ को रोकने के लिए चुनावी नियमों में भी  सुधार और चुनाव आयोग को और ज़्यादा अधिकार देने की बात कही है. कमेटी ने नियमन के लिए ब्रिटेन की लेवसन रिपोर्ट से भी सबक लेने पर ज़ोर दिया है. इसके अलावा इस रिपोर्ट में मीडिया कंपनियों से उनकी वार्षिक आय को सार्वजनिक किए जाने और  पत्रकारों की काम करने की स्थितियों में सुधार किये जाने की भी वकालत की गई है. इन बातों से लगता है कि कमेटी ने चलताऊ रवैया अपनाने के बजाय भारतीय मीडिया की वर्तमान हालत को गंभीरता से समझने की कोशिश की है. इसलिए उसने सिर्फ़ पेड न्यूज़ का ही मुद्दा नही उठाया बल्कि मीडिया नियमन के लिए समग्रता में कुछ करने के रास्ते सुझाए हैं.  कमेटी ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अलावा टेलीकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (ट्राइ) से भी कहा है कि वह मीडिया के मालिकाने को नियमित करने के लिए भी कानून बनाए. इस वजह से कमेटी की रिपोर्ट से सबसे ज़्यादा नाराज़ मीडिया मालिक ही लगते हैं क्योंकि रिपोर्ट इस बात पर चर्चा करती है कि किस तरह मीडिया का मालिकाना उसकी विषयवस्तु को प्रभावित करता है और उसमें अनैतिक कामों को बढ़ावा देता है. यही वजह है कि रिपोर्ट में इस बाबत कानून बनाने के लिए कहा गया है कि कोई पूंजीपति अपने बाक़ी धंधों को चमकाने के लिए मीडिया में पैसा लगाकर उसका इस्तेमाल अपने हित में न कर सके. क्रॉस मीडिया ऑनरशिप की बात पर भी कमेटी ने चिंता दर्शाई है.

ऐसानहीं है कि मीडिया के मालिकाने के नियमन की बात पहली बार उठी हो. इससे पहले भी यूपीए-दो की सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ट्राइ[v]और हैदराबाद के एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ़ कॉलेज ऑफ़ इंडिया[vi]से मीडिया के मालिकाने पर रिपोर्ट तैयार करवा चुका है लेकिन मीडिया मालिकों के दबाव में  उन रिपोर्ट को लागू करने का मामला अधर में लटका हुआ है. संसदीय स्टैंडिंग कमेटी को भी इन दोनों रिपोर्ट की पूरी जानकारी है. वैसे यह मामला  सिर्फ़ हाल फिलहाल का ही नहीं है. पचास के दशक में पहले और अस्सी के दशक में दूसरे प्रेस आयोग ने भी मीडिया स्वामित्व के कुछ ही बड़े पूंजीपति घरानों के  हाथों में केंद्रित हो जाने पर चिंता जताई थी लेकिन नब्बे के बाद मुक्त बाज़ार के चलते मीडिया का जो असीम विकास हुआ है उसने मीडिया मालिकाने की अराजकता को चरम पर पहुंचा दिया है. तमाम रिपोर्ट/अध्ययनों के बाद सरकार इस बात को अच्छी तरह जानती है कि मीडिया के संकेद्रण का ख़तरा कितना गहरा है. उसके पास भारत में मीडिया संकेंद्रण की विभिन्न प्रवृत्तियों के बारे में भी पूरी जानकारी है. वह जानती है कि भारत में मीडिया सकेंद्रित होकर मीडिया एकाधिकार जैसे हालात पैदा  होने जा रहे हैं.

बेनबैगडिकियान जैसे अमेरिकी मीडिया स्कॉलर मीडिया मोनोपॉली के ख़तरों के बारे में काफ़ी पहले से ही आगाह करते रहे हैं[vii].बैगडिकियान मीडिया में एकाधिकार की तरफ़ ले जाने वाले ख़तरे को दो तरह से समझाते हैं. वे मीडिया मालिकाने में उर्ध्वाधर केंद्रीकरण (हॉरीजॉन्टल इंटीग्रेशन) और लंबवत संकेद्रण (वर्टीकल इंटीग्रेशन) की प्रवृत्तियों की चर्चा करते हैं. अगर एक ही मीडिया कंपनी का सभी तरह के मीडिया यानी रेडियो, टीवी, इंटरनेट, सिनेमा आदि में स्वामित्व रखने की इजाज़त जारी रहेगी तो इससे देश के मीडिया के एक ही मालिक के कब्ज़े में आने का ख़तरा बढ़ जाएगा या वह बाक़ी मीडिया समूहों को किनारे लगाकर सबसे बड़ा और प्रभावी मीडिया समूह बन जाएगा (टाइम्स ग्रुप को इस्का एक उदाहरण कहा जा सकता है). इस तरह बहुत सारे माध्यमों को एक ही मालिक या कंपनी के तहत केंद्रित हो जाने को उर्ध्वाधर केंद्रीकरण (हॉरीजॉन्टल इंटीग्रेशन) कहते हैं. इसके अलावा अगर मीडिया कंपनी का उसके वितरण और प्रसारण करने के साधनों पर भी मालिकाना  होता है तो इसे लंबवत संकेद्रण (वर्टीकल इंटीग्रेशन) कहते हैं. ऐसी स्थिति में भी मीडिया कंपनी का मीडिया पर एकाधिकार का ख़तरा बढ़ता जाता है और ये अनैतिक तरीकों को बढ़ाया देता है. उदाहण के लिए ज़ी ग्रुप के चैनलों में हॉरीजॉन्टल और वर्टीकल दोनों तरह का संकेद्रण देखा जा सकता है. एक तरह ज़ी समूह समाचार, मनोरंजन, फिल्म, इंटरनेट, अख़बार जैसे कई माध्यमों में सक्रिय है तो वहीं उसके पास अपने चैनलों को सीधे दर्शकों तक पहुंचाने के लिए डिश टीवी सरीखी डायरेक्ट टू होम सुविधा भी है. इन हालात को देखकर स्टैंडिंग कमेटी की सिफ़ारिशें कई हद तक वक़्त की ज़रूरत लगती हैं. मीडिया संकेंद्रण विचारों की विविधता और लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है क्योंकि मीडिया मालिक अपने हितों के मुताबिक़ मीडिया का इस्तेमाल कर जनमत तैयार करते रहते हैं.

संसदीय कमेटी की रिपोर्ट के सामने आने के बाद पत्रकार से एक बड़ी मीडिया कंपनी के मालिक बन चुके राजदीप सरदेसाई एक बार फिर मालिकों के हितों को बचाने के लिए वही पुराना मालिकों का राग अलाप रहे हैं कि अगर नियमन में मीडिया (मालिकों) को शामिल नहीं किया गया तो पत्रकार उसका विरोध करेंगे. मीडिया मालिक हमेशा पत्रकारों की आड़ लेकर ही मीडिया नियमन का विरोध करते हैं. राजनीतिक वर्ग में रौब डालने में कामयाब हो जाते हैं कि यह मीडिया (पत्रकारों) के हितों के खिलाफ़ है जबकि मीडिया नियमन के अगर कदम उठाए जाते हैं तो उसका सबसे ज़्यादा सकारात्मक असर आम पत्रकारों की स्थिति में पड़ेगा. सही नियमन लागू होने की स्थिति में उन पर मालिकों और प्रबंधन का दबाव कम होगा. काम करने की स्थितियों में सुधार होगा और श्रम का उपयुक्त पैसा और काम की सुरक्षा  रहेगी. लेकिन बड़ी कंपनियों के मालिक के भेस में पत्रकार का चोगा पहनने वाले राजदीप सरदेसाई जैसे लोग और उनके पिछलग्गू पत्रकार यह नहीं चाहते  कि आम पत्रकारों की हालत में कोई सुधार आए और उनके मुनाफ़े पर कोई कमी आए. ठीक यही बात, कभी पत्रकार रहे और अब भारत में स्टार इंडिया (दुनिया के भ्रष्टतम मीडिया मालिक रुपर्ड मुर्डोक की कंपनी) के सर्वेसर्वा बन चुके उदय शंकर के बयानों में भी देखी जा सकती है. वे तो सारी हदें पार पर एक बेशर्म बयान देते हैं कि अगर नियमन के लिए वैधानिक संस्था बनानी ही है तो सरकार मालिकों की तरफ से बनाई  गए न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी (एनबीएसए) जैसी संस्थाओं को ही वैधानिक संस्था की मान्यता दे दे. यह तर्क ठीक इसी तरह है जैसे कोई कहे कि देश में अपराध को अंजाम देने वाले लोग ख़ुद को सुधारने के लिए एक कमेटी बना लें और उसे संवैधानिक मान्यता देने की मांग करने लगें. 

इसबात को नेताओं से बेहतर कौन  समझ सकता है कि चुनावों के वक़्त मीडिया का इस्तेमाल किस-किस तरह  किया जा सकता है इसलिए स्टैंडिंग कमेटी ने सुझाव दिया है कि ख़ास तौर पर पेड न्यूज़ रोकने को लेकर उसने जो सुझाव दिए हैं उन्हें दो हज़ार चौदह में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले पूरा कर लिया जाना चाहिए. यह एक आम तथ्य है कि जब भी किसी राज्य में विधान सभा के चुनाव  होते हैं और देश में आम चुनाव होने होते हैं तो अचानक कई नए अख़बार और टीवी चैनल कुकुरमुत्ते की तरह  उग आते हैं. इन अख़बारों/चैनलों को चलाने वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं कि चुनावों में मीडिया खड़ा करना सबसे फ़ायदे का सौदा है. चुनाव के दौरान नेताओं के अवैध धन का प्रवाह उनकी तरफ़ बड़ी तेज़ी से आता है. ऐसी हालत में कुछ मीडिया संगठन अपने लिए कुछ और वक़्त पर बाज़ार में टिके रहने लायक स्थिति पैदा कर लेते हैं और कुछ वक़्त के साथ दम तोड़ देते हैं. ऐसा नहीं कि सरकारें चुनाव के दौरान खुलने वाले ऐसे मीडिया कंपनियों के धंधों से अनजान रहती हैं वे जानबूझकर उन्हें फलने-फूलने का मौक़ा देती है और जहां तक संभव  हो उन्हें अपने अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश करती हैं. चिट-फंड, ठेकेदार, बिल्डर्स और कई छोटे-बड़े धंधों में जुटे लोग ज़्यादातर इसी दौरान अपने अख़बार और चैनल शुरू करते हैं. इस तरह भारतीय मीडिया के मालिकाने के कई रंग देखने को मिलते हैं जिसका दायरा बड़े-बड़े पूंजीपतियों से लेकर राजनीतिक पार्टियों/नेताओं और छोटे-मोटे धंधेबाज़ों तक फैला है. जब भी जन दबाव में मीडिया के नियमन की बात की जाती है तो ये सभी एकजुट होकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन और मीडिया पर सरकारी नियंत्रण का डर दिखाने लगते हैं.

अबअगर संसद की स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिशों पर गौर किया जाए तो एक लिहाज़ से लगता है कि कमेटी ने सिफ़ारिशें तो बड़ी अच्छी की है. जैसे सरकार या देश की संसद सचमुच में देश की जनता की फिक्र करती है और वह उनके पक्ष में कोई रास्ता निकालने की कोशिश कर रही है लेकिन अगर सत्ताधारी वर्ग की इस भल-मनसाहत पर आसानी से भरोसा कर लिया जाए तो यथास्थिति में कोई बदलाव की संभावना उतनी ही कठिन लगती है. हां, जन जागरूकता ज़रूर सरकारों और सांसदों को कुछ हद तक जनपक्षीय फ़ैसले लेने पर मज़बूर कर सकती है. इसके लिए सत्ताधारी वर्ग की आर्थिक-राजनीतिक नीतियों से लेकर उसके छद्मों को भी अच्छी तरह समझने की ज़रूरत है. आर्थिक उदारीकरण का मतलब  ही नियमन में ढील देना और बाज़ार के तर्कों के सामने समर्पण करना होता है. एक तरफ़ सरकार बाज़ार की अर्थव्यवस्था को लागू कर उसका  गुणगान करते नहीं थकती, ट्रेड यूनियन आंदोलनों को ख़त्म करती है, लोगों के अधिकारों को कुचलकर कॉरपोरेट के पक्ष में नीतियां बनाती है और जब सवाल उठने लगते हैं तो सबकुछ ठीक करने के लिए नियमन की वकालत करने लगती है. सत्ता के भीतर से ही असहमति की आवाज़ें सुनाई देने लगती हैं और असहमति से पैदा होने वाले प्रतिरोध को मैनेज करने की कोशिश की जाती है. वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि कांग्रेस की यूपीए सरकार पेड न्यूज़ केस में फंसे महाराष्ट्र के अपने चहेते पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट मे हलफ़नामा दे रही है कि चुनाव आयोग के पास पेड न्यूज़ छापने पर या चुनावी ख़र्च का ग़लत ब्यौरा दिखाने वाले की सदस्यता को रद्द करने का कोई हक़ नहीं है और वहीं दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के एक नेता की अगुवाई में बनी एक संसदीय कमेटी चुनाव आयोग को और ज़्यादा अधिकार देने और पेड न्यूज़ पर पाबंदी के लिए ठोस क़दम उठाने की वक़ालत करती है. भारतीय मीडिया नियमन की पूरी बहस सत्ता पक्ष की इन्हीं उलटबांसियों में फंसी हुई है.  


नोट्स:


[i] 6 मई 2013 को भारतीय संसद में पेश पार्लियामेंटरी कमेटी ऑन इन्फॉर्मेशन टैक्नोलॉजी की रिपोर्ट
[ii] अंग्रेजी अख़बार द मिंट की वेबसाइट में पार्लियामेंट पैनल कॉल्स फॉर मीडिया वॉचडॉग नाम से सोमवार, 6 मई 2013 को 11.40 मिनट पर अपलोडेड और 21 मई को रिट्रीव्ड. (http://www.livemint.com/Politics/zcygRgFikOFQv89l8T5hOL/Parliamentary-panel-calls-for-media-watchdog.html?facet=print)[iii]9 मई 2013 को गिव स्टचुअरी अथॉरिटी टू सेल्फ़ रेग्युलेटरी बॉडी:उदय शंकर नाम से ऐक्सचेंज फॉर मीडिया नाम की वेबसाइट में उद्धृत और 21 मई को रिट्रीव्ड. (http://www.exchange4media.com/50885_give-statutory-authority-to-self-regulatory-body-uday-shankar.html)
[iv]9 मई 2013 को इट्स इनकरेक्ट टु से एमआइबी इज नॉट डीलिंग विद पेड नेयूज़: उदय वर्मा नाम से ऐक्सचेंच फॉर मीडिया नाम की वेवसाइट में उद्धृत और 21 मई को रिट्रीव्ड. (http://www.exchange4media.com/50886_its-incorrect-to-say-mib-is-not-dealing-with-paid-news-uday-varma.html)
[v]कनसल्टेशन पेपर ऑन इश्यूज रिलेटिंग टु मीडिया ऑनरशिप नाम से जारी ट्राइ (2013) का पेपर (http://www.trai.
gov.in/ConsultationDescription.aspx? CONSULT _ID=675&qid=0).
[vi]स्टडी ऑफ़ क्रॉस मीडिया ऑनरशिप नाम से एडमिनिस्ट्रेटिव कॉलेज ऑफ़ इंडिया ने संसदीय स्टैंडिंग केमेटी के सामने 2 मई 2012 को अपनी रिपोर्ट पेश की थी.

[vii] बेन बैगडिकियान की किताब मीडिया मोनोपॉली विस्तार से एकाधिकार के ख़तरों के बारे में बताती है. पहली बार यह किताब 1983 में अमेरिका में बेकन प्रेस से प्रकाशिति हुई थी.
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भूपेन पत्रकार और विश्लेषक हैं। कई न्यूज चैनलों में काम। 
अभी आईआईएमसी में अध्यापन कर रहे हैं। 
इनसे bhupens@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।  

सौ साला सिनेमा और बांबे टाकीज

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उमाशंकर सिंह
-उमाशंकर सिंह

"...क्या चारों निर्देशकों का चयन निर्माता ने फिल्म निर्देशकों, फिल्म लेखकों या फिल्म के अन्य विभाग से जुड़े पंजीकृत लोगों या फिर दर्शकों के बीच सर्वे कर किया था? या फिर चुनाव का आधार व्यक्तिगत पसंद या निर्देशकों की उपलब्धता थी अगर दूसरा विकल्प सही है तो फिल्म निर्माता का व्यक्तिगत रूप से भारतीय सिनेमा को ट्रिब्यूट है ना कि फिल्म इंडस्ट्री का।..." 


तीनमई 2013 को भारतीय सिनेमा ने अपने शानदार सौ साल पूरे कर लिए। इस दरम्यान सिनेमा ने हमारे समाज में राजनीति, शिक्षा जैसे बदलाव के दूसरे बड़े माध्यमों-कारकों से ज्यादा अहम योगदान दिया। हालांकि सिनेमा देखना बहुत अच्छा काम नहीं माना जाता था और इसके लिए पिटाई से लेकर पॉकेट मनी में कटौती तक आम सजा थी। इसलिए हममें से अधिकंशों ने यह काम शुरूआत में चोरी छिपे घर-स्कूल से भाग कर किए। उन दिनों हम जब स्कूल फीस की रकम सिनेमा हॉलों के काउंटर पर न्योछावर कर दिया करते थे, तब हमें मालूम नहीं था कि असल में एक स्कूल की फीस हम दूसरे स्कूल में ही दे रहे हैं।

इसतरह हमारे समाज के बड़े हिस्से ने वर्जनाओं को तोड़ने की शुरूआत सिनेमा से ही की। हम सब ने सिनेमा से ही बालों-कपड़ों को पहनने का ढब सीखा था और बोलने का सलीका या स्टाइल भी। पर इस स्कूल ने सबसे ज्यादा प्रेम के ढाई आखर का पाठ पढ़ाया था। हिंदुस्तानी समाज में यदि प्रेम आज कुछ हद तक स्वीकार्य है तो इसके लिए हमें सिनेमा का ऋणी होना चाहिए। यह सिनेमा ही था जिसने हमें किस्से-कहानी में हंसते-हंसते यह सिखा दिया था कि अमीर आदमी बुरा होता है और खुद्दार गरीब ज्यादा बेहतर। यह भी कि अमीर बनने के लिए स्मगलिंग या ऐसे ही दबे-छुपे दूसरे बड़े काम करने पड़ते हैं। बहरहाल सिनेमा की सीखों को छोड़ते हुए हम आते हैं इसकी सौवीं सालगिरह पर। इतिहास का यह ऐसा मौका है जिसमें हर कोई व्यक्ति, संस्था या प्रोडक्शन हाउस इसे अपने तई सेलीब्रेट कर सकता है और भारतीय सिनेमा को आदरांजलि दे सकता है। इस तरह देखें तो नेटवर्क 18 और आशी दुआ की ‘बांबे टाकीज’ अच्छा प्रयास लग सकता है लेकिन दिक्कत वहां शुरू हो जाती है जब फिल्म का प्रचार-प्रसार हमारे दौर के चार ‘प्रतिनिधि’ फिल्मकारों की चार शॉट फिल्म के संकलन के रूप में इसे हिंदी फिल्म उद्योग की आधिकारिक ट्रिब्यूट की तरह किया जाए।   

बांबेटाकीज के चारों निर्देशक करण जौहर, जोया अख्तर, दिवाकर बनर्जी और अनुराग कश्यप हमारे वक्त के महत्वपूर्ण फिल्मकार हैं और चारों अपनी-अपनी खास शैली के लिए भी जाने जाते हैं लेकिन चारों ना तो हमारे दौर के प्रतिनिधि फिल्मकार हैं ना ही वर्तमान में जिसे बॉलिवुड कहते हैं उसके स्तंभ। इसमें कोई एतराज की बात नहीं है कोई इन्हें महान मानें या न मानें। लेकिन जब कोई इन्हें या किसी और को हमारे प्रतिनिधि फिल्मकार के रूप में हम पर और जमाने पर इसे थोपे तो यह निश्चित रूप से एतराजजनक है। /क्या चारों निर्देशकों का चयन निर्माता ने फिल्म निर्देशकों, फिल्म लेखकों या फिल्म के अन्य विभाग से जुड़े पंजीकृत लोगों या फिर दर्शकों के बीच सर्वे कर किया था? या फिर चुनाव का आधार व्यक्तिगत पसंद या निर्देशकों की उपलब्धता थी अगर दूसरा विकल्प सही है तो फिल्म निर्माता का व्यक्तिगत रूप से भारतीय सिनेमा को ट्रिब्यूट है ना कि फिल्म इंडस्ट्री का। 

अगरबांबे टाकीज की चारों लघु फिल्मों को देखें तो यह फिल्म कंटेट और फार्म दोनों स्तर पर भारतीय सिनेमा के मिजाज, प्रभाव, उपलब्धियों और मैकनिज्म-मैनिरिज्म को बता पाने में बुरी तरह विफल रहती है। ना ही कोई यह नया प्रयोग है। इस तरह के प्रयोग हिंदी सिनेमा में पिछले एक दशक से हो रहे हैं। बांबे टाकीज की पहली लघु फिल्म करण जौहर की ‘अजीब दास्तां है ये’ उपषीर्षक वाली है जो पुरूष समलैंगिकता पर आधारित है। करण जौहर की तमाम फिल्मों में समलैंगिकता होती है। लेकिन वह पुरूषों की समलैंगिकता ही होती है स्त्रियों की नहीं। पुरूष-स्त्री सभी को अपने निज पसंद और रूझान के हिसाब से जीने की आजादी होनी चाहिए। लेकिन पुरूषों की समलैंगिकता बहुधा भोग के विस्तार के रूप में सामने आती है। चाइल्ड एब्यूज भी इसीका घिनौना विस्तार है। वहीं स्त्री-समलैंगिकता जेंडर हेजिमनी के खिलाफ प्रतिरोध की इबारत लिखती है। दीपा मेहता की ‘फायर’ कलात्मक उत्कर्ष के साथ इसे दिखाती है। यह अनायास नहीं है कि समलैंगिकता पर बनी दीपा मेहता के ‘फायर’ का तो भारतीय समाज विरोध करता है लेकिन करण जौहर की समलैंगिकता पर बनी फिल्मों से उसका कोई विरोध नहीं है। पुरूष-स्त्री समलैंगिकों के अपनी मर्जी से जीवन जीने के अधिकार के पक्ष में खड़े होने के बावजूद हमें यह सोचना चाहिए कि हम जिस समाज में रह रहे हैं उसमें प्रेमी जोड़ों को भी बचा नहीं पा रहे हैं। ऐसे में कुछ फिल्मकारों के पुरूष समलैंगिकता पर अतिरिक्त जोर के मायने समझ सकते हैं। जोया की लघु फिल्म करण की फिल्म का प्रीक्वेल लगती है लेकिन वह आती तीसरे नंबर पर है। फिल्मों से जुड़ा हर कोई व्यक्ति जानता है कि स्टारडम ने भारतीय सिनेमा का कुछ भला नहीं किया है।  नायकों के स्टार बन जाने ने फिल्म को निर्देषक का माध्यम नहीं रहने दिया है। अनुराग की फिल्म अमिताभ के स्टारडम और लोगों में उनके क्रेज की कहानी है। यह अस्वाभाविक तो लगती ही है काफी लंबी खिंची हुई भी लगती है। इसमें अमिताभ बच्चन के क्रेज को बयां करने वाला गाना तो अमिताभ बच्चन का ऐसा महिमामंडन है कि खुद वे भी झेंप जाएं। यह गाना अपने बोल ‘भरे पड़े है ंतमाम हीरो, रिष्ते में तो यह सबका बाप है’ तक पहुंचते-पहुचंते अष्लील हो जाती है। फिल्म के इस खंड का गाना दिवाकर बनर्जी की लघु फिल्म बांबे टाकीज की उपलब्धि कही जा सकती है। इसमें एक निम्नमघ्यवर्गीय अभिनेता अपनी बीमार बच्ची को फिल्मों के किस्से सुनाकर उसका मनोरंजन करता है। पर उसके किस्से बासी हो गए हैं और अब उसकी बेटी को उसमें स्वाद नहीं आता। ऐसे में उसके जीवन के साथ एक वाकया होता है जो अभिनय के द्वंद्व और अभिनेता के संघर्ष को उजागर करता हुआ हमारे सिनेमा को आत्मीय, विनम्र और सच्ची आदरांजलि देता है। इस फिल्म के अंत में अपनी बच्ची को वह आज का किस्सा सुनाकर ऐसी ही खुषी दे रहा है जो सिनेमा हमें सौ सालों से दे रही है।

(यह आलेख फारवर्ड प्रेस पत्रिका के ताज़ा अंक में भी प्रकाशित है) 

उमाशंकर पत्रकार भी हैं और कहानीकार भी। 
 आज-कल फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिख रहे हैं।
इनसे uma.change@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।

उत्तराखंड की भीषण आपदा और बेहद लचर राहत कार्य

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Indresh Maikhuri

इन्द्रेश मैखुरी

-इन्द्रेश मैखुरी

"...गोविन्दघाट पहुँचने पर जब हमने इन सिख तीर्थ यात्रियों से बात करनी शुरू की तो हमें घेर कर ये कहने लगे कि आप पहले सरकारी लोग हैं,जो यहाँ पहुंचे हैं. हमने उन्हें बताया कि हम सरकारी लोग नहीं,आम जनता का हिस्सा हैं. इन सिख तीर्थ यात्रियों की मुसीबत यह है कि ये अपने वाहनों समेत गोविन्दघाट में फंसे हुए हैं. इनमें से बहुतों की आजीविका का आधार इनके वाहन ही हैं, इसलिए वाहनों को लावारिस छोड़ कर,अपने घरों को लौटने के लिए ये तैयार नहीं हैं..."

 
त्तराखंड इस समय भीषण विभीषिका की चपेट में है. विगत तीन दिनों से,जब से भारी बारिश शुरू हुई हम लगातार जोशीमठ में आपदा की जानकारी लेने,सुझाव देने और नागरिकों की ओर से मदद करने तक,स्थानीय प्रशासन से निरन्तर संपर्क बनाए हुए थे.लेकिन प्रशासन की तरफ से आपदा के संदर्भ में जितनी आधी-अधूरी,कच्ची-पक्की जानकारी मिल रही थी,उससे हम संतुष्ट नहीं हो पा रहे थे.

इसलिए कल 19जून 2013 को भाकपा(माले) के गढ़वाल कमेटी के सदस्य कामरेड अतुल सती,मैं और आइसा के साथी महादीप पंवार नजदीक से हालात का जायजा लेने के निकल पड़े.जोशीमठ से गोविन्दघाट बमुश्किल बीस-पचीस किलोमीटर है.लेकिन दस-पन्द्रह किलोमीटर मोटर साईकिल से तय करने के बावजूद हमें गोविन्दघाट पहुँचने में हमें तकरीबन दो घंटे लग गए.दो जगहों पर सड़क का बड़ा हिस्सा बह चुका है और तीखी ढाल पर ऊपर चढ कर ही दूसरी तरफ पहुंचा जा सकता है.पहाड़ के निवासी होने के चलते हमारे लिए तो यह अपेक्षाकृत कम मुश्किल था,लेकिन सेना और आई.टी.बी.पी. के जवानों द्वारा लोगों को चढ़ने-उतरने में मदद किये जाने के बावजूद, बाहरी यात्रियों के लिए,तीखी पहाड़ी ढाल की ऊपर तक चढ कर नीचे उतरना बेहद कष्टकारी और डरावना अनुभव है.

गोविन्दघाट का मंजर बेहद भयानक था.जिस जगह कभी बाजार हुआ करता था,वहाँ तक अलकनंदा नदी अपने तट का विस्तार कर चुकी है और गोविन्दघाट के मुख्य बाज़ार की यह जगह बड़े-छोटे  बोल्डरों से अटी पडी थी.गुरूद्वारे के सभी कक्षों में लगभग चार-पांच फीट ऊँचे रेत की टीले बने हुए हैं.इसके पीछे की दुकाने और खोखे भी रेत से भरे हुए हैं.अब रेत में दबे हुए सामान को दुकानदार निकाल रहे हैं.गुरूद्वारे के परिसर में मौजूद पुलिस चौकी में भी रेत ही रेत है.गुरूद्वारे के कुछ कक्षों में पेड़ों के तने भी घुसे हुए हैं.गुरद्वारे और मुख्य बाजार से बद्रीनाथ मार्ग तक पहुँचने वाली सड़क आधी से ज्यादा गायब हो चुकी है.सपरिवार बद्रीनाथ यात्रा पर निकले और बीते तीन-चार दिनों से गोविन्दघाट में फंसे हुए डी.बी.एस.(पी.जी)कॉलेज,देहरादून में जिओलौजी के असिस्टंट प्रोफ़ेसर,डा.प्रदीप भट्ट तबाही की रात का सिहरा देने वाला वाकया सुनाते हैं.वे बताते हैं कि रात में दो-तीन बजे के आसपास नदी में तेज गड़गाहट सुन वे अपने होटल से पत्नी,बुजुर्ग सास और दो बच्चों को गोद में लेकर ऊपर की तरफ भागे.ऊपर सड़क में पहुँचने के बाद उन्हें ख़याल आया कि उनकी कार तो नीचे पार्किंग में खड़ी है.वे बताते हैं कि जैसे ही वे कार लेकर,ऊपर सड़क में पहुंचे,उनके पीछे की सड़क बह गयी.यानी कुछ पलों की देर होती तो वे भी नदी में समा गए होते.

यहाँ पर होटलों और पार्किंग के साथ सैकड़ों मोटर साईकिल और कारें भी अलकनंदा नदी की प्रचंड लहरों में समा गयी.कारों के बहने के बेहद भयावह अनुभव यहाँ मौजूद लोग सुना रहे हैं.लोग बताते हैं कि जब एक कार बहने लगी तो उसका ड्राइवर(जो संभवत उसका मालिक भी रहा होगा)पीछे-पीछे नदी की उफनती लहरों में,यह कहते हुए कूद गया कि जब दस लाख की गाडी नहीं रही तो मैं जीवित रह कर क्या करूँगा.दो बच्चे,जिनके माँ-बाप हेमकुंड की यात्रा पर गए हैं,उन्हें ड्राइवर ने कार में सुलाया हुआ था,वे भी कार समेत नदी में समा गए.कतिपय कारों  में सोये हुए ड्राईवरों के बह जाने की बात भी लोग कहते हैं.

राहत और बचाव कार्य जोर-शोर से चलाने के दावे समाचार माध्यमों से किये जा रहे हैं.जोशीमठ में बचाव कार्यों में लगे हैलीकाप्टरों की गडगडाहट सुबह 6 बजे से शाम 6 बजे तक सुनाई दे रही है. दूरस्थ इलाकों में फंसे लोगों को जोशीमठ लाने का काम ये हैलीकाप्टर कर रहे हैं. लेकिन 6-सीट वाले दो हैलीकाप्टर दिन में कई चक्कर लगाने पर भी,चौदह हज़ार के करीब फंसे हुए लोगों में से,कितने फंसे हुए लोगों को निकाल पायेंगे,यह समझा जा सकता है. इसलिए गोविन्दघाट में फंसे सिख तीर्थ यात्री बेहद आक्रोशित हैं कि ना तो उन्हें निकालने का कोई बंदोबस्त हो रहा है और ना ही उन तक किसी तरह की कोई राहत ही पहुँच रही है. 

गोविन्दघाट पहुँचने पर जब हमने इन सिख तीर्थ यात्रियों से बात करनी शुरू की तो हमें घेर कर ये कहने लगे कि आप पहले सरकारी लोग हैं,जो यहाँ पहुंचे हैं. हमने उन्हें बताया कि हम सरकारी लोग नहीं,आम जनता का हिस्सा हैं. इन सिख तीर्थ यात्रियों की मुसीबत यह है कि ये अपने वाहनों समेत गोविन्दघाट में फंसे हुए हैं. इनमें से बहुतों की आजीविका का आधार इनके वाहन ही हैं, इसलिए वाहनों को लावारिस छोड़ कर,अपने घरों को लौटने के लिए ये तैयार नहीं हैं. इन सिख तीर्थ यात्रियों ने बताया कि दो दिन से इन्हें कुछ खाने को नहीं मिला. दो दिन के बाद कल इन्होने खुद ही गुरुद्वारे के मलबे में दबे हुए अनाज और अन्य खाद्य सामग्री को निकाला,उसे धोया और फिर उसी को पका कर लंगर में सभी को खिला रहे हैं. कोई मदद ना मिल पाने के लिए ये सिख तीर्थ यात्री उत्तराखंड सरकार से तो खफा हैं ही,पंजाब सरकार और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा भी कोई सुध ना लिए जाने को लेकर भी ये बेहद क्षुब्ध हैं.

सिख तीर्थ यात्रियों में इस बात को लेकर भी बेहद आक्रोश था कि संकट की घडी में भी कुछ लोग लूट मचाने से बाज नहीं आ रहे हैं. मोहाली,चंडीगढ़ के मंजीत सिंह,चरणजीत सिंह और पटियाला के लखबीर सिंह बेहद गुस्साए स्वर में बताते हैं कि बीते दो दिनों में यहाँ एक साबुन की टिकिया चालीस रुपये में बिकी,सौ रुपये में चावल की प्लेट और सौ ही रुपये में दस रुपये में मिलने वाला मैगी का पैकेट बिका.वे तो यह भी आरोप लगाते हैं कि गुरूद्वारे का दान पात्र तोड़ कर रुपये चुराए गए और खडी गाड़ियों के शीशे तोड़ कर भी सामान चुरा लिया गया.एक तरफ खड़ी चढाई पार कर नीचे उतरने वालों को कुछ लोग शरबत पिलाने और खाना खिलाने के लिए खड़े हैं और दूसरी ओर इस संकट की घडी में लूट करने का अवसर भी कुछ लोग नहीं चूकना चाहते.आपदा को अवसर मानने और उस दौरान तिजोरियां भरने की यह दुष्प्रवृत्ति सत्ता के शीर्ष से नीचे तक पहुँच चुकी है.फर्क इतना है कि जब सत्ता ऐसी लूट को अंजाम देती है तो इसे भ्रष्टाचार कहा जाता है और आम आदमी करे तो यह अमानवीयता कहलाती है.

गोविन्दघाट से नदी के पार घंघरिया,हेमकुंड साहिब जाने वाला पुल बह चुका है.अलकनंदा नदी के पार लगभग दो सौ तीर्थ यात्री फंसे हुए हैं,जिनके पास खाने को कुछ नहीं है.कल शाम तक उन्हें नहीं निकाला जा सका था.आई.टी.बी.पी. के जवान रस्सी डाल कर इन्हें निकालने की कोशिश कर रहे थे.लेकिन नदी की उफनती लहरों के बीच यह संभव प्रतीत नहीं हो रहा था.गोविन्दघाट में साफ़-सफाई के अभाव में जिस तरह गन्दगी के ढेर,दुर्गन्ध और मक्खियों का साम्राज्य नजर आ रहा है,अगर जल्द ही इन  हालातों को ठीक ना किया गया तो वहाँ लोग बीमारियों की चपेट में आ जायेंगे.

जोशीमठ में विभिन्न विद्यालयों और नगरपालिका के विश्राम गृह को अस्थायी राहत कैम्पों में तब्दील किया गया है,जहां आपदा प्रभावित तीर्थ यात्रियों और ग्रामीणों को ठहराया गया है.हेमकुंड साहिब जाने के रास्ते में पड़ने वाले भ्यूंडार गाँव के लोग नगरपालिका परिषद जोशीमठ के विश्रामगृह में हैं.इस गांव की बुजुर्ग महिलायें बताती हैं कि आपदा में उनका सब कुछ तबाह हो गया.उनके मकान,खेत,गौशालाएं सब टूट गयी हैं.किसी का दो मंजिला मकान टूटा,किसी का एक मंजिला.इन बुजुर्ग महिलाओं को इस बात का बेहद अफ़सोस है कि वे अपनी जान बचा कर तो जोशीमठ चले आये पर उनके पालतू पशु गांव में ही छूट गए.वे कहती हैं कि उन्होंने अपने पालतू पशुओं को खुला छोड़ दिया है ताकि वे घास चरने और संकट के समय प्राण बचाने के लिए कहीं भी जा सकें.कुछ लोग जिनके पशु हाल ही में गाभिन हुए हैं और दुधारू हैं,वे अभी भी गांव में ही रुके हुए हैं.

तीर्थ यात्रियों और स्थानीय ग्रामीणों के अलावा कुछ और लोग हैं,जो आपदा की चपेट में आने की आशंका हैं.ये स्थानीय लोग हैं,जो हर बार गर्मियों के मौसम में ऊंचे बुग्यालों में कीड़ा जड़ी की तलाश में जाते हैं.कीड़ा जड़ी(cordyceps sinesis)जिसे कुछ क्षेत्रों में यारसा गम्बू भी कहा जाता है,ऊँचे बुग्यालों(Alpine meadows)  में बर्फ पिघलने पर मिलने वाला, कीड़े जैसा दिखने वाला फंगस है,जो औषधि निर्माण में काम आता है.अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इसकी कीमत 5-6 लाख रूपया प्रति किलो है.सरकारी व्यवस्था यह है कि इसके दोहन की इजाजत वन पंचायतें देंगी तथा दोहन करने वाला व्यक्ति इसे वन पंचायत को देगा.वन पंचायती इसे बेचेंगी,पांच प्रतिशत रॉयल्टी स्वयं के लिए रख कर बाकी संग्रहकर्ताओं में संग्रहण के अनुपात में वितरित कर दिया जाएगा.उक्त बातों का अनुपालन सुनिश्चित करवाना जिलों के जिलाधिकारी और प्रभागी वनाधिकारियों(डी.एफ.ओ.) की जिम्मेदारी है.लेकिन यह व्यवस्था जमीन पर कहीं नजर नहीं आती.हर बार हज़ारों लोग बुग्यालों में कीड़ा जड़ी की तलाश में जाते हैं और फिर अवैध रूप से तस्करों को लाखों रुपये में बेच दिया जाता है,जबकि इसकी सरकारी दर पचास हज़ार रुपये प्रति किलो है.इस बार की भारी बारिश में कीड़ा जड़ी के दोहन के लिए ऊँचे बुग्यालों में गए लोगों की चिंता बचाव एवं राहत अभियान चलाने वालों के एजेंडे में नहीं है.जोशीमठ की उर्गम घाटी में कीड़ा जड़ी निकालने गए दस लोगों के भारी बारिश की चपेट में आकर जान से हाथ धो बैठने और कई लोगों के लापता होने की खबर है.

इस भयावह विनाशलीला के बाद कई सवाल हैं,जिनका जवाब राहत की बंदरबांट के बीच से कैसे मिलेगा,समझ नहीं आता.गोविन्दघाट में सौ से अधिक वाहनों के साथ फंसे लोगों को कैसे निकाला जाएगा?पुलिस उद्घोषणा कर रही है कि सड़क बनने में कम से कम पन्द्रह दिन लग जायेंगे,इसलिए लोग अपनी कार इत्यादि को वहीँ छोड़ कर अपने घरों को लौट जाएँ.अपनी गाड़ियों की सुरक्षा को लेकर आशंकित सिख यात्री गाडियां छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हैं.सवाल यह भी है कि जो सैकड़ों छोटे बड़े वाहन बह गए हैं,उनका मुआवजा कौन देगा और कैसे देगा? भ्यूंडार गांव के ग्रामीणों का कहना है कि गांव में सब तबाह होने के बाद वे वहाँ कैसे रहेंगे,लेकिन साथ ही वे इस उहापोह में भी हैं कि जोशीमठ में वे कितने दिन तक रहेंगे.सब कुछ तबाह हो जाने के बाद उनके बच्चों की पढाई-लिखाई का क्या होगा ये सवाल भी उन्हें साल रहा है.

इस विभीषिका के बीच सेना,अर्द्धसैनिक बलों के प्रयास की तारीफ़ लोग करेंगे,वे प्रयास कर भी रहे हैं.लेकिन तीखे पहाड़ी ढाल पर,जहां अपने शरीर का भार संभालना भी मुश्किल है,वहाँ यात्रियों के भारी बैगों,सूटकेसों आदि को पीठ पर लादे हुए नेपाली मजदूर,इस राहत-बचाव अभियान के ऐसे खामोश सिपाही हैं,जिनके श्रम को ना कहीं दर्ज किया जाएगा,ना कोई प्रशंसा वे पायेंगे.लेकिन इनके द्वारा दुष्कर चढाई पर यदि यात्रियों का बोझा ना ढोया जाए तो यात्रियों की बहुतायत के लिए आपदा प्रभावित क्षेत्रों से निकालना लगभग मुमकिन हो जाए.

यह प्राकृतिक आपदा थी,लेकिन इस आपदा की विभीषिका को बढाने में मनुष्य की प्रकृति से छेडछाड की बड़ी भूमिका थी.हमारी सरकारों द्वारा छल-कपट,प्रलोभन और दमन के दम पर लागू किया  जा रहा विकास का आक्रमणकारी मॉडल,जो मुनाफे के अलावा सब कुछ ध्वस्त कर देना चाहता है,उसने प्रकृति के कहर की तीव्रता को कई गुणा बढ़ा दिया.जोशीमठ से ऊपर की ओर जलविद्युत परियोजना निर्माण के लिए किये गए विस्फोटों,सुरंग निर्माण,मलबा नदी में डालना और परियोजनाओं के बैराजों से छोड़े गए पानी और बैराजों के टूटने ने आपदा को और अधिक मारक बना दिया.प्रकृति के कहर का शिकार हुए भ्यूंडार गांव के ग्रामीण बताते हैं कि लगभग पन्द्रह दिन पहले ही वे लक्ष्मणगंगा पर बन रही जलविद्युत परियोजना की निर्माता- सुपर हाइड्रो कंपनी  के पास यह शिकायत लेकर गए थे कि कंपनी द्वारा किये जा रहे विस्फोटों से उनके मकान हिल रहे हैं.सीमा तक सड़क पहुँचाने के लिए उत्तरदायी सीमा सड़क संगठन(बी.आर.ओ.) ने भी विभीषिका को बढाने का इंतजाम पहले ही किया हुआ था.सड़क चौड़ा करने के लिए डाइनामाइट से किये गए विस्फोटों और सडक की खुदाई में निकलने वाले मलबे को नदी में बहाने जैसे बी.आर.ओ. के कारनामों ने कभी तो कहर बरपाना ही था,इस बरसात में एक बार फिर वह कहर दिखा.इसके अलावा अनियंत्रित,अनियोजित तरीके से होता शहरीकरण भी प्रकृति की विनाशलीला को बढाने वाला सिद्ध होता है. गोविन्दघाट में जो मुख्य बाज़ार,होटल,पार्किंग आदि बहे,वे लगभग नदी में घुस कर बनाए गए .गोविन्दघाट का गुरुद्वारा जो आज रेत और पेड़ों के तनों से पटा हुआ है,वह भी एकदम अलकनंदा से सट कर बना हुआ है.नदी के किनारे इस पांच मंजिला इमारत को बनने की इजाजत देने वाले प्रशासन के सुधिजनों को नहीं समझ आया होगा कि नदी में पानी का स्तर बढते ही यह एक आसान शिकार होगा?नदी से एकदम लगी हुई वे पार्किंग,जिनमें कार पार्किंग का 600 रूपया तक लिया जाता था,आज बह गयी हैं.यह धनराशि वाहनों की सुरक्षा के लिए ही ली जाती होगी.असुरक्षित जगह पर वाहनों की सुरक्षा के नाम पर खूब चांदी काटने वाले पार्किंग स्वामी क्या गाड़ियों के बहने की जिम्मेदारी लेंगे,या फिर वे पुलिस या प्रशासन के लोग जिम्मेदारी लेंगे,जिनकी जेबें इन पर्किंगों की कमाई के हिस्से से भरती थी?

                                                            
इन्द्रेश भाकपा (माले) के सक्रिय कार्यकर्ता हैं. 
इनसे इंटरनेट पर indresh.aisa@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

भूमि का जबरन अधिग्रहण और कृषि औजारों की मूर्तियाँ

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-विनय सुल्तान

विनय सुल्तान

"...इसीबीच नरेन्द्र दामोदर मोदी ने 1800 करोड़ के लागत की वल्लभ भाई पटेल की लोहे की मूर्ति बनाने की घोषणा की है. यह मूर्ति दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा होगी. मोदी इस प्रतिमा को गुजरात के किसानों के स्वाभिमान का प्रतीक बता रहा है. लौह पुरुष की इस मूर्ति को “स्टेच्यु ऑफ़ यूनिटी” नाम दिया गया है और दुनिया भर से इसके लिए निविदा मंगाई गई है. इसके लिए बीस राज्यों के किसान अपने कृषि औजारों का लोहा दान करेंगे. गुजरात समेत पूरे देश में किसानों की जमीनें जिस गति से छिनी जा रही हैं, ये औजार उनके किसी काम के रहेंगे ही नहीं। इन्हें उनसे छीने जाने (दान मांग लेने) की भूमिका पहले ही लिखी जा चुकी है।..."

ह फासीवाद और पूंजीवाद की दुराभिसंधि का दौर है. जब हिंदुत्व के टट्टू पर सवार एक तथाकथित “विकास पुरुष” गोएबल्स की एक दर्जन नाजायज संतानों( जन संपर्क एजेंसी) की फौज के साथ तमाम मंच पर स्व-नियुक्त भाट की तरह से खुद के विकास को बिरदाता घूम रहा है. उसी के सूबे गुजरात की राजधानी गांधीनगर में पिछले मंगलवार को ट्रेक्टरो की घरघराहट से शहरी चिल्ल-पों दब गई. अहमदाबाद, सुरेन्द्र नगर और मेहसाना के किसानो ने भूमि अधिग्रहण के खिलाफ 'जाग' के नेत्रत्व में सचिवालय पर चढाई कर दी. 

नरेन्द्रमोदी,सेज (SEZ) की तर्ज पर स्पेशल इन्वेस्टमेंट रीजन यानि SIRके जरिये अपने विकास के माडल को पूंजीपतियों के लिए और अधिक लुभावना बनाना चाहता था. इसके लिए सुरेन्द्र नगर, मेहसाना और अहमदाबाद के आस-पास के गाँव की 51000हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है. भारत में इतने बड़े पैमाने पर अधिग्रण के उदाहरण बहुत कम हैं. इस विशेष निवेश क्षेत्र को ऑटोमोबाइल हब बनाने की योजना है. बिचाराजी-विरमगाँव हायवे पर हंसलपुर में मारुती सुजुकी की एक फैक्ट्री भी प्रस्तावित है जिसके लिए सरकार ने 700एकड़ जमीन पिछले साल ही आवंटित कर दी थी. इससे दो साल पहले किसानों ने निरमा को फैक्ट्री लगाने के लिए जमीन देने से इंकार कर दिया था.

यहप्रदर्शन मुझे बरबस ही सिंगुर की याद दिला देता है. वहां पर महज 4 वर्ग किमी के अधिग्रहण के नतीजे में लगभग 4दशक से सत्ता पर काबिज़ वाम मोर्चे का लोकतान्त्रिक तख्तापलट हो गया था. बुद्धो बाबु 1894के साम्राज्यवादी भूमि अधिग्रहण कानून के जरिये यह करना चाह रहे थे. आज वही मार्क्सवादी भूमि अधिग्रण बिल के संसोधन में “सार्वजनिक उद्देश्य” शब्द जोड़ने की मांग कर रहे हैं.

इसीबीच नरेन्द्र दामोदर मोदी ने 1800 करोड़ के लागत की वल्लभ भाई पटेल की लोहे की मूर्ति बनाने की घोषणा की है. यह मूर्ति दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा होगी. मोदी इस प्रतिमा को गुजरात के किसानों के स्वाभिमान का प्रतीक बता रहा है. लौह पुरुष की इस मूर्ति को “स्टेच्यु ऑफ़ यूनिटी” नाम दिया गया है और दुनिया भर से इसके लिए निविदा मंगाई गई है. इसके लिए बीस राज्यों के किसान अपने कृषि औजारों का लोहा 'दान' करेंगे. गुजरात समेत पूरे देश में किसानों की जमीनें जिस गति से छिनी जा रही हैं, ये औजार उनके किसी काम के रहेंगे ही नहीं। इन्हें उनसे छीने जाने (दान मांग लेने) की भूमिका पहले ही लिखी जा चुकी है। 

दरअसल किसानों के सामने असल सवाल किसी 'लौह पुरुष' के लोहे का बुत बनाए जाने का नहीं है, उनके सवाल जिस जगह जुड़ते हैं वह विकास का वह मॉडल है जो किसानों से उनकी जमीने छीनता है और पूंजीपतियों को कौड़ी के दाम औद्योगिक विकास का हवाला देकर सौंप देता है। मोदी इस मॉडल के पुरोधा पुरुष हैं। पूंजी निवेश के लिए गुजरात में जिस तेजी से अधिग्रहण हुआ है वो काबिल-ए-गौर है। पिछले 10सालों में भाव नगर, मेहसाना, भरूच, कच्छ आदि जिलों में गुजरात औद्योगिक विकास कारपोरेशन ने बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण किया है। इससे 182निजी क्षेत्र की औद्योगिक इकाइयों की स्थापना संभव हो सकी है। 

जमीनकी इस बंदरबांट का एक नमूना कच्छ के रन में विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए दस हजार हेक्टेयर जमीन के अधिग्रहण के लिए मछुवारों के  56 गाँव उजाड़ दिए गए। यहाँ पांच करोड़ वर्ग मीटर जमीन अडानी समूह को 32रुपये प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से दे दी गई। जबकि इसकी कीमत बाज़ार में 1500 रुपये प्रति वर्ग के हिसाब से थी। महुआ, नासिक के बाद सबसे ज्यादा प्याज पैदा करने वाला क्षेत्र है। निरमा को यहाँ 268हेक्टेयर जमीन सीमेंट प्लांट के लिए आवंटित की गई। साथ ही भावनगर जिले के तटीय क्षेत्र में 300 हेक्टेयर जमीन चूना पत्थर की खुदाई के लिए भी आवंटित हुई। इसने 15000लोगो को भूमिहीन और बेरोजगार बना दिया। इसी तरह भावनगर में प्रस्तावित मीठीविर्दी न्यूक्लियर पावर प्रोजेक्ट के लिए 24गावों के 15000लोगो को विस्थापित कर लिया गया।

नरेन्द्रमोदी की सरकार ने पिछले दस सालो में 51विशेष आर्थिक जोन को मंजूरी दी है जिसमे से 13को पिछले 2सालों में पारित किया गया। 51 में से बीस लगभग तैयार हो चुके हैं। इन आर्थिक क्षेत्रों का कुल क्षेत्रफल 20,87हेक्टेयर है। इसके अलावा यदि हम इसमें विशेष निवेश क्षेत्र को जोड़ दे तो यह आंकड़ा कई गुना बढ़ जाता है। क्या इस अधिग्रहण से विस्थापित लोग मोदी के विकास के माडल की भट्टी में नहीं झोक दिए गए हैं? जिन लोगो के पास अपनी जमीन थी, रोजगार था उन्हें अब भूमिहीन और बेरोजगार बनाने वाला विकास आखिर किसके लिए हो रहा है? पंद्रह हजार लोगो को विस्थापित कर के आप चार सौ लोगो को रोजगार दे रहे हैं तो आपके विकास का तर्क हास्यास्पद है।

जिनक्षेत्रों में कृषि जीवन यापन के पर्याप्त संसाधन मुहैय्या न करवाती हो वहां पशुपालन द्वितीयक व्यवसाय के रूप में रोजमर्रा की जिन्दगी बहुत महत्वपूर्ण होता है। गौचर भूमि का इस प्रकार की ग्रामीण अर्थव्यवथा में महत्वपूर्ण स्थान है। यह जमीन समुदाय या गाँव-समाज की होती है और इस पर किसी का व्यक्तिगत हक नहीं होता है। यह जमीन अकाल जैसे कठिन समय में मवेशियों के चारे की समस्या का अनूठा हल है। गुजरात में भूमि अधिग्रहण की चपेट में यह गौचर सबसे पहले आ रहे हैं. “वेस्ट लेंड” के नाम पर बड़े पैमाने पर गौचर भूमि का अधिग्रहण किया गया। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था का संतुलन बुरी तरह से प्रभावित होगा। आप अक्सर मोदी के सायबर बंदरों को “गौ-हत्या” के नाम पर वर्चुअल मिडिया पर सांप्रदायिक उन्माद फैलाते हुए देख सकते हैं। गौचर भूमि का अधिग्रहण कर क्या लाखों मवेशियों जिनमे हजारो “गौ माता” भी होंगी को भूखे मारने का अपराधी नहीं है।

गुजरातमें जिस बर्बर तरीके से लोगों को अपनी जमीनों से खदेड़ा गया और जा रहा है उसे देखने के बाद नरेन्द्र मोदी की विकास की लफ्फाजी तार-तार हो जाती है। विकास के नाम पर बड़े पैमाने पर लोगों को भूमिहीनता और बेरोजगारी की ओर धकेला जा रहा है उसके विरोध में विट्ठलपुर से शुरू हुआ ये विरोध बहुत मौजू है। पूंजीपतियों के दलाल, मोदी ने जिस तेजी से लोगो को उनकी जमीनों से वंचित किया है, गुजरात के कई कोनों के सिंगुर बनने की सम्भावनाये उतनी तेजी से बढ़ रही हैं। किसान के लिए अपने खेत जमीन का टुकड़ा नहीं अस्तित्व का सवाल है।


विनय  स्वतंत्र पत्रकार हैं. 
इनसे vinaysultan88@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

विकास के मॉडल की आपदा

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कृष्ण सिंह

-कृष्ण सिंह

"...उत्तराखंड में विकास का जो मॉडल चल रहा है उसने यहां के पर्यावरण, जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र पर व्यापक प्रतिकूल असर तो डाला ही है, साथ ही पहाड़ की समूची भौगोलिक संरचना के साथ-साथ जल, जंगल, जमीन और स्थानीय आबादी के अस्तित्व को भी खतरे में डाल दिया है। विकासऔर आर्थिक तरक्कीके नाम पर छप्परफाड़ मुनाफा कमाने के लिए लूट मची है।..." 




बारिश, बादल फटने, बाढ़ और भूस्खलन के कारण उत्तराखंड में भारी तबाही मची हुई है। पहाड़ टूट रहे हैं। गांव के गांव मलबे में दफन हो रहे हैं। शहर के शहर तबाह हो रहे हैं। समुद्र तल से 3553 मीटर (11657 फीट) ऊंचाई पर स्थित केदारनाथ धाम तबाह हो गया है। बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई है। भीषण तबाही से उत्तराखंड के लोग दहशत में हैं। लेकिन हर वर्ष की तरह इस बार भी इस भीषण तबाही को प्राकृतिक आपदा कहा जा रहा है। हर बार पहले से ज्यादा विनाशकारी साबित हो रही ये आपदाएं-हादसेक्या सचमुच प्राकृतिक हैं?या फिर विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के असंतुलित, बेरोकटोक और अंधाधुंध दोहन के चलते ऐसा हो रहा है?
उत्तराखंड में विकास का जो मॉडल चल रहा है उसने यहां के पर्यावरण, जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र पर व्यापक प्रतिकूल असर तो डाला ही है, साथ ही पहाड़ की समूची भौगोलिक संरचना के साथ-साथ जल, जंगल, जमीन और स्थानीय आबादी के अस्तित्व को भी खतरे में डाल दिया है। विकासऔर आर्थिक तरक्कीके नाम पर छप्परफाड़ मुनाफा कमाने के लिए लूट मची है। इसका परिणाम है कि यहां अनियंत्रित एवं गैरकानूनी निर्माण कार्यों तथा बिल्डरों की बड़े पैमाने पर अतिसक्रियता ने इस खतरे को काफी खतरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है। दरअसल, पहाड़ी शहरों और कस्बों का विस्तार बहुत ही अनियोजित और अनियंत्रित तरीके से हो रहा है और बड़े पैमाने पर होने वाले निर्माणकार्यों ने इन्हें एक नए तरह के स्लम में बदल दिया है। नदियों के एकदम किनारे तक बड़े पैमाने पर बहुमंजिला इमारतें, होटल, लॉज और रिसोर्ट बनाए गए हैं और बनाए जा रहे हैं। साथ ही, नदियों में बड़े पैमाने पर बालू निकालने के लिए अवैध खनन कार्य अलग से चलता रहता है।  
 पर्यटन विकासके नाम पर पहाड़ों को लगातार खोखला किया जा रहा है। वर्तमान तबाही से इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। मीडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारे बनाई गई तीस सौ से अधिक बहुमंजिला इमारतें, होटल और अन्य व्यापारिक इमारतें बाढ़ में बह गई या क्षतिग्रस्त हो गई हैं। ये इमारतें नदियों के बहुत करीब पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में गैर कानूनी तरीके से बनाई गई थीं। दरअसल, पहाड़ों में जिस हद तक भी संभव हो सकता है बिल्डरों द्वारा बड़े पैमाने पर बहुमंजिला इमारतों का निर्माण किया जा रहा है। रामनगर से आगे जिम कॉर्बेट अभयारण्य के पास मरचूला में रामगंगा नदी के एकदम किनारे पर दो-तीन किलोमीटर के अंदर कई एकड़ में रिसोर्ट बनाए गए हैं। इनमें स्वीमिंग पुल सहित कई अत्याधुनिक ऐशो आराम के इंतजाम हैं। जबकि यह पूरा इलाका पारिस्थितिक के लिहाज से संवेदनशील है। यह छोटा सा उदाहरण भर है। पहाड़ों में यह अब आम हो चुका है।
इसकेअलावा, सबसे खतरनाक पहलू यह है कि बड़ी संख्या में बन रहे हाइड्रो पावर प्रोजेक्टों ने इस खतरे को बहुगुणित कर दिया है। विकास के लिए हाइड्रो पावर प्रोजक्टों को ही एकमात्र अनिवार्य विकल्प मान लिया गया है। उत्तराखंड में साढ़े पांच सौ से छह सौ के करीब बांध बनने हैं। कुछ बन चुके हैं, काफी बन रहे हैं और बहुत सारे प्रस्तावित हैं। इनमें से करीब 1500 किलोमीटर की सुरंगें निकलेंगी। पहाड़ों और उनमें बसे गांवों के नीचे से निकलने वाली ये सुरंगे 27-28 किलोमीटर तक लंबी हैं। इन सुरंगों का आकार दिल्ली के मेट्रो टनलों से भी बड़ा है। कई सुरंगों से काफी समय से पानी रिस रहा है। चमोली जिले के चाई गांव और तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना तथा मनेरी भाली-सेकेंड परियोजना इसका उदाहरण हैं। सुरंगों से पानी रिस कर पहाड़ों के अंदर धीरे-धीरे घुस रहा है और उन्हें अंदर से कच्चा कर रहा है। इसने भूस्खलन और आकस्मिक बाढ़ के खतरे को कई गुना बढ़ा दिया है। पिछले साल उत्तरकाशी में जो हुआ उसे हम देख चुके हैं, जहां अस्सी गंगा घाटी में बिजली कंपनियों ने इलाके में डायनामाइट से विस्फोट किए। बड़े पैमाने पर मलबा पानी में डाला, जिससे नदी का तल ऊंचा उठ गया। बादल फटने के बाद आकस्मिक बाढ़ ने पहले नदी में झील बनाई और फिर झील टूटी तो पानी के वेग ने भारी तबाही मचाई। साथ ही नदी के अतितीव्र वेग ने बांधों के निर्माणस्थल को तोड़ दिया जिससे नुकसान कहीं गुना ज्यादा हुआ। यह सर्वविदित है कि उत्तरकाशी सहित उत्तराखंड का अधिकांश पहाड़ी क्षेत्र भूकंप के लिहाज से अत्यधिक खतरनाक जोन चार और पांच में आता है। वैसे भी हिमालय दुनिया का सबसे नया पहाड़ है और ग्रोइग ऐज में है। फिर भी यहां विशालकाय जल बिजली परियोजनाओं को मंजूरी दी गई। विख्यात भू वैज्ञानिक केएस वल्दिया का कहना है कि आकस्मिक बाढ़ पूरी तरह से मानव निर्मित है।
http://buzztags.in/wp-content/uploads/2013/06/Uttarakhand-Floods.jpgइसपहाड़ी राज्य की सरकार कितनी दूरदर्शी और संवदेनशील है इसकी पोल खुद सीएजी की रिपोर्ट खोल चुकी है। हाइड्रो पावर प्रोजेक्टों के संदर्भ में सीएजी की रिपोर्ट में कहा गया कि उत्तराखंड सरकार ने पर्यावरणीय चिंताओं को पूरी तरह से अनदेखा किया और प्रोजेक्ट डेवलेपर्स ने सिस्टेमेटिक त्रुटियों का इस्तेमाल अपने हित में किया। मंजूरी मिलने के बाद 85 प्रतिशत प्रोजेक्टों में बिजली उत्पादन क्षमता में 25 प्रतिशत से 329 फीसदी तक फेरबदल किया गया। सीएजी ने यूजेवीएन के प्री फिजबिलइटि स्टडी (पूर्व व्यवहार्यता अध्ययन) की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाया। दरअसल, नई पावर पॉलिसी (पीपीपी) में निजी भागीदारी के तहत निजी कंपनियां 85 प्रतिशत बिजली बेच सकती हैं और 12 फीसदी उन्हें राज्य सरकार को देनी होगी। इससे हो यह रहा है निजी कंपनियां बहुत कम समय में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना चाहती हैं और इसके लिए वे नदियों और पहाड़ों का अनाप-शनाप तरीके से दोहन कर ही हैं। असल में, हिलायली क्षेत्र में बांधों के जलाशयों में गाद का भरना एक सामान्य प्रक्रिया है। हिमालयी नदियां अपने चरित्र के मुताबिक अपने साथ भारी मात्रा में गाद लाती हैं जिससे बिजली उत्पादन में कमी आ जाती है और बांध समय से पूर्व अपनी उत्पादकता खो देता है। उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश बनाने की गुलाबी तस्वीर वास्तविक धरातल पर कितनी भयावह है इसका सबसे बड़ा उदाहरण टिहरी बांध है। इससे 2400 मेगावाट बिजली बनने की बात कही गई थी, लेकिन इससे तीन सौ से लेकर चार सौ मेगावाट बिजली का ही उत्पादन हो रहा है।
एकऔर बात, सरकार इन परियोजनाओं को रन ऑफ द रीवर कह रही है। परन्तु विश्व बांध आयोग के मानकों के पैमाने से उत्तराखंड में बन रहे अधिकांश बांध रन ऑफ द रीवर (यानी छोटे बांध) की श्रेणी में नहीं आते। छोटे बांधों की ऊंचाई 15 मीटर से कम होनी चाहिए। उदाहरण के लिए पाला-मनेरी पोजेक्ट को रन ऑफ द रीवर कहा जा रहा है, पर इसकी ऊंचाई 74 मीटर है। ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं। जल धारण क्षमता और डिस्चार्ड के लिहाज से भी यहां के अधिकतर प्रोजेक्ट बड़े बांधों की श्रेणी में ही आते हैं।
हिमालयीक्षेत्र पहले से ही ग्लोबल वार्मिंग, मौसम के बदलते मिजाज और जैव विविधता तथा पारिस्थितक तंत्र पर पड़ रहे प्रतिकूल प्रभाव से जूझ रहा है। ऐसे में प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन ने इस खतरे को किस स्तर तक पहुंचा दिया इसे साल-दर-साल पहले से ज्यादा विनाशकारी साबित हो रहे भूस्खलन और आकस्मिक बाढ़ की घटनाओं के जरिए आसानी से समझा जा सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पहाड़ों के विनाश से सिर्फ उत्तराखंड की आबादी ही इसकी चपेट में नहीं आएगी बल्कि इसके साथ-साथ मैदानी इलाकों की एक बड़ी जनसंख्या बुरी तरह से प्रभावित होगी। विकास हो इससे भला किसे एतराज हो सकता है, लेकिन हिमालयी राज्य होने के कारण इसका विकास का मॉडल कैसा हो, यह असल सवाल है।
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 कृष्ण सिंह पत्रकार हैं. लंबे समय तक अखबारों में काम. 
 अभी पत्रकारिता के अध्यापन में.
इनसे संपर्क का पता krishansingh1507@gmail.com है.

पहले हिमालय का सही मूल्यांकन तो हो

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भास्कर उप्रेती
-भास्कर उप्रेती

"...सरकार के रुख को देखकर तो यही लग रहा है कि केंद्र ने जो १००० करोड़ की आपदा राशि राज्य को दी है, वह इसी तरह मंदिर और सम्बंधित निर्माणों में खर्च कर दी जाएगी. साफ है कि सरकार की प्राथमिकता में वे लोग नहीं हैं जो पहले चारधाम आने वाली भीड़ से आक्रांत थे और अब उनके गांवों को जोड़ने वाले पुल बाढ़ में बह गए हैं. इन गांवों में राशन, दवा और गैस का संकट खड़ा हो गया है. गर्भवती महिलाओं को सड़क तक लाने का विकल्प भी नहीं बचा..." 

http://media2.intoday.in/indiatoday/images/stories/uttarakhand-12_350_062313043237.jpgमानसून के पहले ही प्रहार से खंड-खंड हो चुके उत्तराखंड के लोग सरकार की आपदा से निपटने की तैयारियों को लेकर आशंकित हैं. भाजपा चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केदारनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण की बात क्या कही, कांग्रेस के सुर भी बदल गए.मुख्यमंत्री बहुगुणा ने कहा है कि वे मंदिर के पुनर्निर्माण में सक्षम हैं. आपदा से बचाव के लिए मुख्यमंत्री ने विशाल हवन कराने का भी ऐलान किया है. वहीँ गृह मंत्री शिंदे ने बंद कमरे में शंकराचार्य से भेंट की है. बताया जा रहा है कि यहाँ भी मंदिर और चारधाम यात्रा के बारे में ही बातें हुईं. सरकार के रुख को देखकर तो यही लग रहा है कि केंद्र ने जो १००० करोड़ की आपदा राशि राज्य को दी है, वह इसी तरह मंदिर और सम्बंधित निर्माणों में खर्च कर दी जाएगी. साफ है कि सरकार की प्राथमिकता में वे लोग नहीं हैं जो पहले चारधाम आने वाली भीड़ से आक्रांत थे और अब उनके गांवों को जोड़ने वाले पुल बाढ़ में बह गए हैं. इन गांवों में राशन, दवा और गैस का संकट खड़ा हो गया है. गर्भवती महिलाओं को सड़क तक लाने का विकल्प भी नहीं बचा.

सेनाके प्रयास से कुछ दिन में जीवित श्रधालुओं और मारे गए लोगों को बाहर निकाल लिया जाएगा. और राष्ट्रीय मीडिया के कैमरे किसी और ‘शिकार’ की तलाश में यहाँ से दूसरी ओर घूम जाएंगे. ग्रामीणों को अपने दम पर पुनर्निर्माण के लिए जुटना होगा. यह हालत तब भी थी जब उत्तराखंड यूपी का हिस्सा था. यह हालत राज्य बनने के १३ साल बाद आज भी है. राज्य में हर साल आपदा आती है और हर साल आपदा राशि. कुछ दिन आपदा के ‘रोमांचक विजुअल’ सुर्खियाँ बटोरतेहैं, उसके बाद सन्नाटा पसर जाता है. ठेकेदारों, भ्रष्ट अफसरों और नेताओं की फ़ौज आपदा राशि को ठिकाने लगाने में जुट जाती है. क्योंकि निर्माण इस तरह होते हैं कि वे बचें ही नहीं और अगली आपदा उनको बहाकर साथ ले जाये, सो कोई नहीं पूछ सकता ये सड़क, येगूल, कल्मट और पुल बह कैसे गये. दैवीय आपदा, ‘दैवीय’ होती है, उसपर भला कोई कैसे सवाल उठा सकता है!

यह साबित तो हो चुका ही है कि इस आपदा से हुए में नुकसान में ‘मानवीय हस्तक्षेप’ का बड़ा हाथ है. नुकसान के जो दृश्य सामने आये हैं, वे बताते हैं कि नदियों के करीब के कस्बे ही सबसे पहला शिकार बने. इन कस्बों में बाबाओं के मठ-आश्रम, नेताओं-ठेकदारों के होटल और यात्रिओं की जेब पर डाका डालने के लिए सजाई बद्री-केदार और उत्तरकाशी से लेकर यमुनोत्री-गंगोत्री तक यहआम नज़ारा है. इन्हीं के ट्रक और अवैध जेसीबी रेता-बजरी निकालती हैं. गत दो वर्षों में भटवारी से उत्तरकाशी तक नदी ने ऐसे निर्माणों पर जबरदस्त प्रहार किये हैं. उधरबार १०० साल बाद श्रीनगर में हुई तबाही ने भी कुछ संकेत दिए हैं. रेड्डी बन्धुवों की कम्पनी यहाँ करीब ३०० मेगावाट की विद्युत् परियोजना लगा रही है. नगर के ठीक ऊपर विशाल झील बनायीं गयी है. १४-१५ जून को हुई भारी बारिश के कारण अलकनंदा अपने साथ भारी मात्रा में पानी ले आई. झील पहले से भरी हुई थी, औरअब दोगुना पानी बाहर निकलने लगा. इससे श्रीनगर में पानी २०-२५ मीटर ऊपर तक आ गया. जबकियहाँ नदी के पास पहले से ही विशाल तट मौजूद थे. पता नहीं ‘धारी देवी मंदिर’ अपलिफ्ट करने और‘केदारनाथ’ मंदिर के बच जाने के रहस्य में विश्वास करने वाले लोग स्वस्थ बहस के लिए तैयार होंगे कि नहीं.संवेदनशील पहाड़ोंऔर विस्मित कर देने वाली अलकनंदा से छेड़छाड़ न करने की चेतावनी स्थानीय लोग बार-बार देते रहे हैं. बद्रीनाथ मंदिर की जड़ में परियोजना न लगाने की मांग को लेकर धरना दे रही सुशीला भंडारी को मौजूदा कांग्रेस और पिछली भाजपा सरकार दोनों ने हवालात में डाला. अबये पार्टियाँ जोखिमपूर्ण परियोजनाओं की समीक्षा की बात किसकिस मुंह से कर रही हैं ?

तमामशोध, अनुभवों और सबकों के बावजूद दरअसलनीति-नियंताओं को यह समझाना बेहद दुष्कर है कि नदियाँ हमें पहले से जो दे रही हैं, उसका मूल्य अपरिमित है. उससे अधिक दोहन करने से नदी रूठ जाएगी. केवल उत्तराखंड से निकलने वाली गंगा और यमुना बंगाल तक की करीब ७० करोड़ आबादी के लिए पानी, सिंचाई और उर्वर मिट्टी का प्रबंध करती हैं. इस प्राकृतिक तंत्र से छेड़छाड़ का परिणाम क्या हुआ है ? राज्य में निर्माणाधीन २५० से अधिक छोटी-बड़ी परियोजनाओं से लाखों लोग विस्थापित हुए हैं. खेती के साथ रोजगार पर हमला हुआ है और लोगों के अपनी इच्छा से निवास करने की आज़ादी का हनन हुआ है. टिहरी शहर को डुबो देने वाली परियोजना को कई लोग जीता-जागता एटम बम बता रहे हैं.

प्रबलआशंका है कि सरकार और राजनीतिक दल अंततः अपना ही उल्लू सीधा करने का करतब करें, लेकिन हिमालय और इससे निकलने वाली नदियों के प्रति संवेदनशील, सजग और आंदोलित संगठनों,नागरिकों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं को चाहिए कि इस घटना को बार-बार प्रश्नचिन्ह के रूप में उठायें.जो हुआ है वह आपराधिक श्रेणी का है. यह विकास के मौजूदा मॉडल की विफलता को दर्शाता है. हिमालय के बारे में यह बात अनिवार्य रूप से याद रखने की जरूरत है कि ये दुनिया के सभी पहाड़ों में सबसे कच्चे और नाज़ुक पहाड़ हैं. ये निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं. मानसून और दूसरी तरह की बारिश इनका अभिन्न हिस्सा है.मानसूनी बादलों की जोरदार टक्कर के बाद ही हिमालय परिपक्व होने की ओर बढ़ पाते हैं.

प्रतिवर्षजून से सितम्बर तक दूर समुद्र से अपनी पीठ पर तनाव लेकर आने वाले बादल इन्हीं पहाड़ों से टकराकर मुक्त होते हैं. इस क्रिया में देश के बड़े हिस्से को बारिश की सौगात मिलती है.नदियों में साल भर के लिए पानी आता है.जिस साल मानसून में अच्छी बारिश नहीं आती, उस साल सूखा आता है. हिमालय के शिखरों का योगदान इस रूप में भी है कि वे पश्चिम से आने वाली बर्फीली हवाओं को रोककर देश को असहनीय शीतलहर से बचाते हैं.

मुकाबलाउन भाग्यवादी लोगों से भी करना होगा, जो रहस्यमयी देवताओं की स्तुति के लिए प्रकृति और पहाड़ को कोसने पर तुल जाते हैं. यह सुनिश्चित किया जाना बेहद जरूरी है कि हिमालय का सही मूल्यांकन और सम्मान हो.पहाड़ के सामान्य जन,हिमालय की करवटपढना जानते हैं. यही वजह है कि तमाम विपदाओं के बीच वेसदियों से आज तक अपना वजूदबनाये हुए हैं. विकास की एकतरफा प्रक्रिया में जब तक उनकी राय नहीं शामिल की जाएगी, विनाश के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा.

भास्करस्वतंत्र पत्रकार हैं. 
संपर्क-09760097305, mrityunjay.bhaskar@ymail.com

परिजनों की व्यथा भी कम नहीं है

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सुनीता भास्कर

-सुनीता भास्कर

"...आज सुबह जब उनके तंबू पर पहुंच अलग अलग ग्रुपों में बैठे गुजरात, राजस्थान व हरियाणा के लोगों की सुध लेनी चाही तो उनके भीतर का ज्वालामुखी फूट पड़ा। उनके दिलों की आग उनकी जुबां से निकल रही थी।.." 



पिछले आठ-नौ दिनों से अपने परिजनों की तलाश में राजस्थान, महाराष्ट्, गुजरात, यूपी, हरियाणा, आन्ध्रा समेत अन्य राज्यों से हड़बड़ी व बदहवास स्थिति में पहुंचे परिजन सरकारी बदइंतजामी से हलकान हो गए हैं। परिजनों को ढांढस का एक लफ्ज तक सरकार की जुबां पर नहीं है। भला हो तमाम धार्मिक, सामाजिक संगठन व स्वैच्छिक वालेंटियरों का जिन्होंने एयरपोर्ट , रेल व बस स्टेशन पर रहने व भूख के सारे इंतजामात किए हुए हैं। वरना सरकार के पास दो हजार की राहत राशि देने के सिवा और कोई संवेदनाएं नहीं हैं। नैतिक दायित्व तो छोडिय़े सरकार अपना सरकारी दायित्व भी ठीक से नहीं निभा रही है। 

कुछदिन पूर्व सभी अखबार व चैनलों में राज्य के सूचना विभाग ने मुख्यमंत्री की बड़ी सी तस्वीरों के साथ सभी आपदा प्रभावित जनपदों व हेल्प लाइनों के दूरभाष नंबर दिये जिसमें से अधिकतर गलत पाए गए। बाद में जिसके लिए उन्हें माफी मांगनी पड़ी। देश के कोने कोने से लोग सूचना पाने के लिए तरस पड़े। अब सरकार का दूसरा कारनामा सैकड़ों की संख्यां में पहुंचे परिजनों से मुंह मोड़ लेना है। 

देहरादून, जोलीग्रांट, ऋषिकेश व हरिद्वार में हैलीपेड, एयरपोर्ट, बस स्टैंड व रेलने स्टेशनों में अपनों का इंतजार कर रहे लोगों को रेस्क्यू कर बचाए गए लोगों की सूची तक मुहैय्या नहीं करायी जा रही है। परिजनों के ऋषिकेश, हरिद्वार मार्ग पर हंगामा काटने व जाम लगा देने के बाद सरकार कुछ हरकत में आई और रेसक्यू किए लोगों की जानकारी सरकार की अपनी वेबसाइट में डालना शुरु की। लेकिन एक और आफत अब लोगों के सामने है। एक तो यह कि रोज के रेसक्यू की सूची अपडेट नहीं की जा रही है। दूसरा लोगों के नाम के पीछे ना जाति लिखी है न पिता या पति का नाम है और ना ही गांव या राज्य का नाम। जिससे परिजनों के सामने अपनों को नाम से पहचानने का कोई चांस ही नहीं है। एक ही नाम के कई कई लोग हैं। कईयों के परिजन खुद जान हथेली में रखकर ग्रुप में गुप्तकाशी या गौरीकुंड तक हो आए हैं, लेकिन उन्हें अपने कहीं नजर नहीं आए। 

कईपरिजन चार चार हिस्सों में बंटे हैं। संगठनों द्वारा रात गुजारने के लिए दिए आशियाने से मुंह अंधेरे ही यह लोग उठ जाते हैं और चारों दिशाओं में फैल जाते हैं। एक सहस्त्रधारा हैलीपैड पर तो दूजा जौलीग्रांट एयरपोर्ट के गेट के बाहर अड्डा डालता है। तीसरा ऋषिकेश तो चौथा हरिद्वार में अपनों के इंतजार में खड़ा हो जाता है। उन्हें नहीं मालूम कि बचाव व राहत कार्य के बाद कौन किस रास्ते कब व कहां लाया जाएगा। कुछ लोग सभी अस्पतालों के चक्कर काट रहे हैं तो कोई दिन भर कैफे में सरकारी वेबसाइट खंगालते रहते हैं। आलम यह है कि मुंह अंधेरे की सुबह से शाम की कालिमा छंटने तक कोई भी मंत्री, अधिकारी उनके कांधे पर हाथ रख दिलासा देने वाला नहीं है। इसके उलट यह अधिकारी फोन स्वीच आफ कर वातानुकुलित कमरो में रहकर उनके जले पर नमक ही छिडक़ने का काम कर रहे हैं।

आज सुबह जब उनके तंबू पर पहुंच अलग अलग ग्रुपों में बैठे गुजरात, राजस्थान व हरियाणा के लोगों की सुध लेनी चाही तो उनके भीतर का ज्वालामुखी फूट पड़ा। उनके दिलों की आग उनकी जुबां से निकल रही थी। राजस्थान से आए कई परिजनों ने कहा कि राजस्थान से पांच से छह सौ तक बसें केदारनाथ की यात्रा पर आई थी। केवल दस फीसद ही अभी तक लौटे हैं। नब्बे फीसद का कोई अता पता नहीं है। कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री अशोक कुमार गहलोत आए थे। लेकिन एयरपोर्ट पर उतरकर पत्रकारों को बाइट देकर निकल पड़े। एक बार भी यहां तक आने हम से बात करने की जहमत नहीं उठाई। चार अधिकारियों को यहां नामित कर बैठा गए लेकिन कोई भी हमसे मिलने नहीं आया। सभी राज्यों के राहत कैंप लगे हैं हमारे कैंप का बैनर तक उखड़ कर उजाड़ हो गया है। अधिकारियों को फोन कर रहे हैं. लेकिन या तो वह रिसीव नहीं किए जा रहे या फिर स्वीच ऑफ आ रहे हैं। अधिकारी आपदा के समय में आठ घंटा ड्यूटी कर फोन स्वीच आफ कर दे रहे हैं। कुछ दिन पहले राजस्थान के एक विधायक आए और अपने कुछ रिश्तेदारों को केदारनाथ से निकलावाकर ले गए। यह राजस्थान की जनता के मुंह पर करारा तमाचा है। आज ही यहां राजस्थान के पर्यटन मंत्री राजेन्द्र पारिख पहुंचे हैं लेकिन अभी तक उन्होंने भी कोई सुध नहीं ली है। अपने वहां भी सरकार ने कोई सर्वे नहीं किया कि आखिर राजस्थान से कितने लोग यात्रा पर निकले थे जबकि इसके बनस्पित गुजरात सरकार ने अपने सारे गांव व जिलों में मुनादी कराई कि जो जो भी तीर्थ यात्रा पर गए थे वह जिला प्रशासन के वहां रपट लिखाएं और इस तरह गुजरात के सभी तीर्थयात्रियों की संख्या की जानकारी मिल गई। मंत्री नेता व अधिकारियों की इसी उपेक्षा का परिणाम है कि राजस्थान के लोगों को हालिकप्टर में भी कोई जगह नहीं मिल रही है। पिछले दस दिनों से हम यहां तैनात हैं। सभी राज्यों के लोग रोज हर राउंड में पहुंच रहे हैं लेकिन राजस्थान का कोई वाशिंदा अभी तक हालिकप्टर से नहीं उतरा। हमारे कुछ लोग खुद ही रिस्क लेकर गुप्तकाशी तक हो आए वहां के हालात देख कर वह रुंआसे होकर लौटे हैं। 

इसीतरह महाराष्ट्र वर्धा से आए दर्जनों परिजन या यूं कहें पूरे गांव वाले ही यहां पहुंचे हैं। डबडबायी आंखे, गले तक भरा मन लेकर वह भी जगह जगह हाथ पांव मार रहे हैं। वहीं सोनीपत हरियाणा का राजीव सैनी अपने पिता की तस्वीर हाथ में लेकर जाने कितने अस्पतालों के चक्कर काट चुका है। देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार के अलावा वह पहाड़ चढक़र श्रीनगर तक के अस्पताल में घूम आया लेकिन उसके पिता का कही कोई सुराग नहीं लगा, जबकि कुछ दिन पहले एक चैनल ने हाथ में इंजेक्शन लगे बगल में नर्स के खड़े होने की उसके पिता की तस्वीर दिखाई थी। एक हफ्ता हो गया लेकिन राजीव अपने जिंदा व अस्पताल में एडमिट पिता को नहीं ढूंढ पाया है। इससे बड़ी बदइंतजामी की मिशाल क्या होगी कि चैनल उसके पिता को अस्पताल के बैड पर दिखा रहा है और सरकार का वह अस्पताल जाने किस धरती पर है। लापता लोगों के परिजनों की व्यथाएं इतनी बढ़ी गई है कि केदारनाथ घाटी की आपदा उनके सामने बौनी नजर आ रही।
सुनीता  पत्रकार हैं. 
अभी देहरादून में एक दैनिक अखबार में कार्यरत.
sunita.bhaskar.5@facebook.com पर इनसे संपर्क हो सकता है.

अल्मोड़ा में आयोजित होगा तृतीय हेम चंद्र पांडे स्मृति व्याख्यान

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 तीसरा हेम चंद्र पांडे स्मृति व्याख्यान 
( 3rd Hem Chandra Pandey Memorial Lecture

विषय- कॉरपोरेट लूट, तबाही और पत्रकारिता के उत्तरदायित्व

बीज वक्तव्य- आनंद स्वरूप वर्मा

2 जुलाई 2013
समय- 12बजे अपराह्न
स्थान- सभागार, सेवॉय होटल, 
अल्मोड़ा, उत्तराखंड


“..आइये हेम चंद्र पांडे को याद करें! वे एक्टिविस्ट पत्रकारों की उस परंपरा में शामिल हैं जो जॉन रीड, एडगर स्नो, जैक बाल्डेन, हरीश मुखर्जी, ब्रह्मबांधब उपाध्याय से लेकर सरोज दत्त तक फैली हुई है. इस परंपरा में वे अनगिनत गुमनाम पत्रकार भी शुमार हैं जो निर्भीकता और ईमानदारी के साथ देश के दूरस्थ इलाकों से रिपोर्टिंग करते हैं...”
-सुमंतो बनर्जी

“...हेम चन्द्र पांडे का बलिदान बरबस हमें पहाड़ की पत्रकारिता के पुरोधाओं दिवंगत भैरव दत्त धूलिया, आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की याद दिलाता है और बद्री दत्त पांडे, विक्टर मोहन जोशी जैसों द्वारा स्थापित किये गए जनपक्षीय पत्रकारिता के मापदंडों की परंपरा को आगे बढ़ाता दिखता है. यह सभी महज पत्रकार ही नहीं थे बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में भी बराबरी के साझेदार थे...”
-सुभाष गाताड़े

“...बहुतेरे पत्रकार कभी-कभार जन आंदोलनों की खबरें भी देते हैं और इस तरह वे अपने पेशेगत कौशल को भी मांजते हैं. हेम इन मामलों में अलग थे कि वे इस पेशे को अपने विचारों से एकाकार कर चुके थे। यही चीज उन्हें विलक्षण बनाती है. हेम जन-सरोकारों पर यदा-कदा लिखने वाले अतिथि पत्रकार नहीं थे...”
-गौतम नवलखा

हेम चंद्र पांडे की शहादत को इस बार तीन साल पूरे होने जा रहे हैं. 2 जुलाई 2010 को पुलिस ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के प्रवक्ता आज़ाद के साथ आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद ज़िले में फ़र्जी मुठभेड़ दिखाकर उनकी हत्या कर दी थी. तब हेम की उम्र महज बत्तीस साल थी. इतने कम अरसे में ही उन्होंने परिवर्तनकामी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित होकर आम जनता के पक्ष में अपनी लेखनी चलाई. उनकी हत्या ने इंसाफ़पसंद लोगों को सकते में डाल दिया. यही वजह है कि देश और दुनिया भर के मानवाधिकार और पत्रकार संगठनों ने हत्याकांड की निंदा की.

हेम की की मौत के बाद उनके कुछ पुराने दोस्तों और प्रगतिशील पत्रकारों ने मिलकर हेम चंद्र पांडे मेमोरियल कमेटी बनाई थी. कमेटी ने हेम के लेखों को संकलित कर विचारधारा वाला पत्रकार  हेम चंद्र पांडे नाम से एक किताब प्रकाशित की और उनके शहादत दिवस पर हर साल हेम चंद्र पांडे मेमोरियल लेक्चर करवाने का भी फ़ैसला लिया. पहला हेम स्मृति व्याख्यान मशहूर पत्रकार और इन द वेक ऑफ़ नक्सलबाड़ी जैसी चर्चित किताब के लेखक सुमंतो बनर्जी ने दिया. उन्होंने पत्रकारिता और एक्टिविज्म के रिश्तों के बारे में बात करते हुए ज़ोर दिया कि जन पक्षधरता के लिए पत्रकार का ऐक्टिविस्ट होना भी ज़रूरी है. दूसरे स्मृति व्याख्यान में मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता और डेज एंड नाइट्स इन द हार्टलैंड ऑफ़ रिबेलियन के लेखक गौतम नवलखा ने भारतीय राज्य, जन आंदोलनों और पत्रकारिता के रिश्तों के बारे में बात की थी. ये दोनों स्मृति व्याख्यान दिल्ली में किए गए थे. तीसरा स्मृति व्याख्यान हम हेम के गृह राज्य उत्तराखंड के अल्मोड़ा शहर में करवाने जा रहे हैं.

वरिष्ठ वामपंथी पत्रकार और तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने तीसरा व्याख्यान देने पर अपने सहमति दी है. वे कारपोरेट लूट, तबाही और पत्रकारिता के उत्तरदायित्वों पर बात करेंगे. उत्तराखंड में हालिया हुई तबाही भी इस विषय पर गंभीर विमर्श की मांग करती है. राज्य में पर्यटन और जलविद्युत परियोजनाओं से मुनाफा कमाने के लिए सरकारों ने जिस तरह से लूटतंत्र विकसित किया है, यह तबाही उसी का परिणाम है. अगर प्राकृतिक संसाधनों को लूटने के लिए कॉरपोरेट के साथ मिलकर सरकारें विकास के नाम पर विनाश के ऐसे ही मॉडल को आगे बढ़ाती रहीं तो आने वाले दिनों में इससे भी बद्तर हालात के सामने आऩे का ख़तरा  है.

कॉरपोरेट और सरकारों के स्वार्थी गठजोड़ का शिकार अकेला उत्तराखंड ही नहीं है बल्कि देश के बाक़ी हिस्सों में भी ये जन विरोधी ताक़तें प्राकृतिक संसाधनों की बेतहाशा लूट और जनता के दमन में सक्रिय हैं. ऐसी स्थितियों में हमारे वक़्त की पत्रकारिता कॉरपोरेट साजिशों के बाहर निकल कर नहीं सोच पा रही है. इस बार के व्याख्यान में मुख्य वक्ता आनंद स्वरूप वर्मा इस विषय की गहराई से पड़ताल करेंगे. वे लंबे अरसे से देश में कॉरपोरेट पत्रकारिता का विकल्प खड़ा करने की कोशिशों से जुड़े रहे हैं. उनकी बातों पर विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए उत्तराखंड और देश के बाक़ी हिस्सों से भी पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और कॉरपोरेट लूट के ख़िलाफ़ खड़े लोगों का हम अल्मोड़ा में इंतज़ार करेंगे. आपकी मौज़ूदगी झूठ और फ़रेब के ख़िलाफ़ हमारी आवाज़ को और ज़्यादा ऊंचा स्वर देगी.  



-हेम चंद्र पांडे मेमोरियल कमेटी की ओर से जारी

तबाह गाँवों की तरफ एक यात्रा

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Indresh Maikhuri

इन्द्रेश मैखुरी

-इन्द्रेश मैखुरी

"...इस सब के बीच जो नहीं है तो वो है सरकार और प्रशासन नाम की चीज.मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा सामन्य दिनों की ही तरह दिल्ली में नजर आ रहे हैं.फर्क सिर्फ इतना है कि आपदा के दौर में वे केंद्रीय मंत्रियों को गुलदस्ते भेंट करते नहीं बल्कि टी.वी.स्टूडियो और अखबारों में साक्षात्कारों में ऐसे दावे करते देखे जा रहे हैं,जिनकी सच्चाई के सबूत कम से कम उत्तराखंड में तो ढूँढना मुश्किल है.स्थानीय प्रशासनिक है तो वह सुबह से शाम तक हैलीपैड पर खड़े हैं..."



हाड़ में चालीस किलोमीटर का फासला कितना होता है? इतना कि आदमी अधिकतम दोघंटे में पहुँच जाए.लेकिन 23 जून को यही चालीस किलोमीटर का फासला हमारे लिए इतना हो गया कि सुबह साढ़े सात बजे से रात आठ बजे तक लगातार चलते रहने के बावजूद हम, यह दूरी तय नहीं कर सके.अंततः लगभग बारह घंटे चलने के बाद हम केवल अठाईस किलोमीटर ही पहुँच पाए,जिसमें दस किलोमीटर से अधिक हमने वाहन से तय किया.आपदा के बाद पहाड़ कितना दुर्गम हो गया है,यह उसकी बानगी भर है.


आठ-नौ दिन पहले हुई भारी बरसात के बाद बदरीनाथ का सड़क संपर्क पूरी तरह ध्वस्त हो गया है.बद्रीनाथ और रास्ते में पड़ने वाले अन्य गावों और कस्बों में भारी बरसात के बाद के हालात का जायजा लेने भाकपा(माले)की गढ़वाल कमेटी के सदस्य कामरेड अतुल सती,मैं और देहरादून से आये दो पत्रकार मित्र-अमर उजाला के सुधाकर भट्ट और अभ्युदय कोटनाला निकले.इन पत्रकार मित्रों का जज्बा काबिले तारीफ है क्यूंकि जहां बाकी सारे मीडिया वाले सरकारी हेलिकॉप्टर में उड़ कर,नदियों में आये पानी से ज्यादा एक्सक्लूसिव की बाढ़ लाने पर उतारू हैं,वहीँ इन दो पत्रकार साथियों ने दुर्गम पहाड़ी रास्ते को पैदल तय कर असली तस्वीर को जानने-समझने की कोशिश की.


जोशीमठसे लगभग पच्चीस किलोमीटर पर गोविन्दघाट है,जहां से अलकनंदा नदी पार कर सिखों के प्रसिद्द तीर्थ हेमकुंड को रास्ता जाता है.भारी बरसात के बाद गोविन्दघाट में अधिकाँश दुकाने-होटल तबाह हो चुके हैं.चूँकि गोविन्दघाट से पहले सड़क दो जगह टूटी हुई है,इसलिए दो सौ से अधिक छोटे-बड़े वाहन यहाँ फंसे हुए हैं.वाहनों की सुरक्षा को लेकर चिंतित इन वाहनों के ड्राईवर भी यहीं जमे हुए हैं.हर आने वाले से सड़क कितने दिन में बनेगी,यह वे जरूर पूछते हैं.वे कहते हैं कि यदि पुलिस उनके वाहनों की सुरक्षा की गारंटी ले तो वे वाहनों को छोड़ कर पंजाब लौटने को तैयार
हैं.पर पुलिस का तो यहाँ नामो-निशान् ही नहीं है.पुलिस चौकी में रेत भरी है और पुलिस नदारद है.उनमें से कुछ यह चिंता भी जाहिर करते हैं कि ये वाहन ही उनकी आजीविका का साधन हैं,तो इन्हें यहाँ छोड़ कर,पंजाब जाकर भी वो क्या करेंगे?



गोविन्दघाटसे आगे का नजारा तो और भी भयावह है.जगह-जगह नदी में समा चुकी सड़क एक ऐसे आम दृश्य है जो बदरीनाथ यात्रा के शुरू होने के चंद रोज बाद ही, प्रकृति द्वारा यात्रा सीजन के समापन के घोषणा प्रतीत होती हैं.जोशीमठ से लामबगड तक जहां भी सड़क टूटी है,वहाँ एक खड़ी चढाई,चनौती दे रही है कि मंजिल तक पहुंचना हो तो मुझे पार करके दिखाओ. गोविन्दघाट से थोड़ा ही आगे एक भयानक भूस्खलन हुआ है.नदी में पानी बढ़ा और लगभग आधा पहाड़ सड़क अपने साथ लेकर नदी में समा गया.फिर एक ऊंची और खड़ी चढाई पार करके और बची हुई सुनसान सड़क पर पैदल चल कर हम पान्डुकेश्वर पहुंचे.यात्रा सीजन में यात्रियों की चहल-पहल से गुलजार रहने वाले पान्डुकेश्वर बाज़ार में सन्नाटा पसरा हुआ है.लगभग सौ से अधिक दुकानों में से केवल दो ही दुकाने ही खुली नजर आती हैं.इन्ही में से एक दुकान पर बैठा युवाओं का एक ग्रुप 16 जून और उसके बाद के तमाम वाकयात तफसील से बताता है.वे बताते हैं कि 16 जून की रात को जब नदी में तेज गडगडाहट के साथ पानी बढ़ा तो लोग अपने घरों से भाग कर सुरक्षित स्थानों को चले गए.नदी से सड़क लगभग पांच सौ मीटर की दूरी पर होगी.ये युवा बताते हैं कि उस रात पानी में इतना वेग था कि सड़क भी इस तरह हिल रही थी मानों भूकंप आ रहा हो.पांडुकेश्वर में बीस मकान,होटल,स्कूल,सरकारी अस्पताल,आदि ध्वस्त हो गए.जगदीश लाल का मकान हवा में झूल रहा है तो संदीप मेहता का तीन मंजिला होटल बह गया.अरविन्द शर्मा बताते हैं कि उनका बारह कमरे का होटल,उसी में 6 आवासीय कमरे,पार्किंग बीस नाली भूमि सब बह गया.वे रुवांसे स्वर में कहते थे कि उन्होंने बेहद मेहनत करके इतना सब बनाया था,अब उनके पास एक सुई भी नहीं बची है.


पांडुकेश्वरमें आपदा का खौफ लोगों पर इस कदर है कि वे रात में घरों में नहीं सो रहे हैं.वे कहते हैं कि कुछ तिरपालों का इंतजाम हो जाए तो उनके लिए रात बिताना थोड़ा आसान हो जाएगा.जहां सब जगह से यात्रियों को लूटे जाने की ख़बरें आ रही हैं वहाँ पांडुकेश्वर के लोग इसका अपवाद हैं.हालांकि इस लूट में कुछ भी नया नहीं है,हमारे सभी धार्मिक पर्यटन के स्थानों पर सामान्य समयों में भी पंडों से लेकर व्यवसायियों तक एक लुटेरा गैंग सक्रीय रहता ही है,जो लोगों को मूंडने में कोई कसर नहीं छोडता.आज यह इसलिए अखर रहा है क्यूंकि आपदा के समय भी वे ऐसे कर रहे हैं.लेकिन आपदा के समय जब सरकार-सत्ता के चरित्र में कोई अंतर नहीं है तो इन्ही के चरित्र में चमत्कारिक परिवर्तन की अपेक्षा क्यूँ?बहरहाल पांडुकेश्वर में संकट के समय में भी लोगों ने यात्रियों की मदद की और अपने बचे-खुचे राशन में भी यहाँ पहुंचे यात्रियों को भूखा नहीं रहने दिया.लेकिन अब इनका खाने-पीने का सामान भी खत्म हो रहा है.यहाँ ना बिजली है और ना ही मोमबत्ती.बेहद आक्रोशित स्वर में युवाओं ने बताया कि प्रशासन अब तक उदासीन बना हुआ है.इनका आरोप है कि भारी बरसात के अगले दिन तहसीलदार आयेजरूर,लेकिन खा-पीकर डाक बंगले में सो गए.आपदा के लगभग हफ्ते भर बाद बादकानूनगो आया और प्रभावित परिवारों को 2700 रूपया देकर चला गया.युवाओं का ग्रुप बताता है कि हेलिकॉप्टर से स्थानीय विधायक राजेंद्र भंडारी भी यहाँ पहुंचे थे और सब हो जाएगा का जुमला थमा कर उड़ चले.कैसे होगा पता नहीं,कब
होगा,कौन जाने!



फिर पैदल और खड़ी चढाई का रास्ता तय करके हम जिस ऊँचाई पर पहुँचते हैं,वहाँ खेत हैं.फिर एक बार विनाश का एक नया नजारा हमारे सामने है.जहां पर हम खड़े हैं,उससे कुछ कदम आगे से ही जमीन नीचे की ओर लुढ़क कर नदी में चली गयी है और यह भूस्खलन सड़क के बड़े हिस्से को भी अपने साथ नदी में ले गया है.ऊँचाई से देखने पर दो भूस्खलन और नजर आते हैं.सीमा सड़क संगठन(बी.आर.ओ) के काम करने की जो गति है,उससे तो अगले एक वर्ष से पहलेइस सड़क का बनाना मुमकिन नजर नहीं आता. बड़गासी गांव तो अभी सुरक्षित है,लेकिन उसके नीचे दरार है,जो आने वाले खतरे का संकेत है.लामबगड गांव है और बद्रीनाथ यात्रा मार्ग में पड़ने वाला छोटा सा बाजार भी.सड़क किनारे बाजार था और पहाड़ी पर थोड़ा ऊपर चढ कर गांव.आज के हालात यह हैं कि बाजार पूरी तरह से गायब हो चुका है.गांव में दस मकान बह गए हैं जिसमें से 6 अनुसूचित जाति के लोगों के थे और सवर्णों के.आपदा में अपना घर गवां चुके विक्रम लाल बताते हैं कि भारी बारिश के चलते बेघर हुए लोग सरकारी प्राइमरी स्कूल में शरण लिए हुए हैं.अभी स्कूल की छुट्टियाँ हैं,लेकिन जब छुट्टियाँ खत्म हो जायेगी तो ये लोग कहाँ जायेंगे,ये चिंता उन्हें साल रही है.जिस समय हम इस गांव में पहुंचे लगभग उसी समय हेलिकॉप्टर तिरपाल और कुछ खाद्य सामग्री यहाँ गिरा रहा था.लेकिन जहां यह सामान हेलिकॉप्टर से गिरा वह इतनी दूर था कि बेघर लोगों के लिए इसे असहाय नजरों से देखने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.पूरा गांव ही खतरे की जद में है.इसलिए लोग चाहते हैं कि सब को कम से कम एक तिरपाल तो मिल जाए.लेकिन गांव में परिवार हैं 80 और तिरपाल आये 20. 

हमने कोशिश की कि यहाँ से बदरीनाथ के लिए बढ़ लिया जाए.सो ऊपर गांव से हम नीचे सड़क पर उतरे.सड़क का अधिकाँश हिस्सा गायब हो चुका है.नदी पार करके बदरीनाथ तेरह-चौदह किलोमीटर पैदल टूटे-फूटे रास्तों से जाना ही एकमात्र विकल्प है.बदरीनाथ से सैकड़ों यात्री पैदल चल कर नदी के दूसरे निर्जन छोर पर खड़े हैं.यहाँ से सेना और आई.टी.बी.पी. रस्सों के सहारे लोगों को नदी के इस पार उतार रही है.सेना के लोगों से हमने कहा कि वे हमें दूसरी तरफ यानि उस छोर पर जहां लोग बदरीनाथ से आकर खड़े हैं,उस तरफ उतार दें.थोड़ी ना-नुकुर के बाद वे तैयार तो हुए लेकिन फिर वे दो पेड़ों को जोड़ कर एक बनाये गए लंबे से डंडे से पुल बनाने का पुराना तरीका अजमा रहे हैं.अलकनंदा की तेज धार के आगे फौजी जोर नहीं चला.सब जगह सिर्फ जोर ही जोर से तो काम नहीं बनता.



जो लोग पार हुए उन्हें तो फौजी जे.पी.कंपनी के कैम्प में ले गए,लेकिन नदी के दूसरी तरफ जहां सिर्फ नदी है,पत्थर हैं और जंगल है,वहाँ सैकड़ों लोग इस इन्तजार में खड़े हैं कि रस्सी लगे और वे पार हों.अन्धेरा गहराने से पहले हेलिकॉप्टर इन लोगों के लिए खाने के पैकेट फेंक कर चला जाता है.आपदा के मारे सैकड़ों लोग नदी किनारे और जंगल में रात बिता रहे हैं,सिर्फ इस आस में कि सुबह फिर रस्सी लगे तो वे पार हों. यह उस आपदा प्रबंधन और रेस्क्यू आपरेशन का असली चेहरा है जिसके कसीदे टी.वी.स्टूडियो में बैठे एंकर चीख-चीख कर पढ़ रहे हैं.बद्रीनाथ से लेकर पिनौला(जोशीमठ से दस किलोमीटर पहले जहां से जोशीमठ पहुँचने को वाहन मिल रहे हैं) तक सैकड़ों यात्री हैं, जो जंगलों,दुर्गम पहाड़ी रास्तों पर लगातार दिन-रात,भूख-प्यास की परवाह किये लगातार चल रहे हैं कि आपदा की त्रासदी से वे मुक्ति पा सकें.हर व्यक्ति का अपना दर्द है,हर मिलने वाले की अपनी व्यथा है.

इससब के बीच जो नहीं है तो वो है सरकार और प्रशासन नाम की चीज.मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा सामन्य दिनों की ही तरह दिल्ली में नजर आ रहे हैं.फर्क सिर्फ इतना है कि आपदा के दौर में वे केंद्रीय मंत्रियों को गुलदस्ते भेंट करते नहीं बल्कि टी.वी.स्टूडियो और अखबारों में साक्षात्कारों में ऐसे दावे करते देखे जा रहे हैं,जिनकी सच्चाई के सबूत कम से कम उत्तराखंड में तो ढूँढना मुश्किल है.स्थानीय प्रशासनिक है तो वह सुबह से शाम तक हैलीपैड पर खड़े हैं.सेना और अर्द्ध सैनिक बल जिनपर तारीफों की जमकर पुष्पवर्षा हो रही है,दरअसल आपदा के अनुपात में उनकी रफ़्तार को देखें तो वह नाकाफी है.लेकिन चूँकि बाकी पुलिस-प्रशासन के दर्शन भी आपदाग्रस्त क्षेत्रों में दुर्लभ हैं,इसलिए लगता है कि चलो कम से कम सेना वाले दिख तो रहे हैं,पहाड़ चढ़ने-उतरने में लोगों की मदद तो कर रहे हैं.इतना ही क्या कम है?अन्यथा की स्थिति में देखें तो ना तो कहीं कोई पुल सैन्य बलों ने लगाया है,ना ही कोई रास्ता खोला है. 

लामबगडमें हमारे पत्रकार मित्रों से जे.पी.कंपनी के लोग कहते हैं कि उनका बहुत नुक्सान हो गया है,इसकी भी खबर वे छापें.पिनौला में एन.टी.पी.सी वाले कह रहे हैं कि वे आपदा पीड़ितों को निशुल्क खाना खिला रहे हैं,पानी पिला रहे हैं,यह भी अखबारों में आये.सच है कि जे.पी .कंपनी का नुक्सान हुआ है और सही है कि एन.टी.पी.सी वालों ने लंगर लगाया है.ये आपदा के बाद उनकी भूमिका है,लेकिन आपदा के पहले उनकी भूमिका पर चर्चा क्यूँ ना हो?पांडुकेश्वर में लोग आरोप लगा रहे हैं कि जे.पी.कंपनी के बैराज से आये पानी से ही उनका नुक्सान हुआ है और जे.पी.कंपनी को इस नुक्सान की जिम्मेदारी लेकर भरपाई करनी चाहिए.जे.पी.कम्पनी के इंजीनियर पंकज रावत इस बात से सहमत नहीं होते कि कम्पनी के कारण आपदा की तीव्रता बढ़ गयी. लेकिन पांडुकेश्वर के लोगों का आरोप है कि जे.पी.कम्पनी के बैराज में पहले क्षमता से अधिक जमा हुआ और फिर जब अत्याधिक पानी के दबाव को बैराज सह न सका तो वह टूट गया और यह बैराज का पानी, लामबगड के आगे सारे इलाके को तहस-नहस करता चला गया.यह कोई पहली बार नहीं है कि जे.पी कंपनी पर इस क्षेत्र में तबाही लाने का आरोप लगा है.इससे पहले भी 2004 में भी लामबगड क्षेत्र में बाढ़ जैसे हालात पैदा करने और इस गांव को नुक्सान पहुँचाने के लिए जे.पी.कम्पनी को उत्तरदाई ठहराया गया था.

2007 में जे.पी.कम्पनी की कारस्तानी से जोशीमठ की ठीक सामने की पहाड़ी पर स्थित चांई गांव में जमीन धंसने लगी.लोगों के घर-खेत सब जगह बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी और बिना किसी आपदा के ही यह गांव आपदा ग्रस्त हो गया. चांई गांव की ही तलहटी में ही जे.पी.कम्पनी की विष्णुप्रयाग परियोजना का पावर हॉउस है और लामबगड से बारह किलोमीटर लंबी सुरंग से नदी का पानी यहाँ लाकर विद्युत उत्पादन होता है.आधिकारिक तौर पर 400 मेगावाट की बताये जाने वाली इस परियोजना में नान-मानसून सीजन में मात्र 100-150 मेगावाट ही विद्युत उत्पादन होता है.मानसून सीजन में यह अपने घोषित उत्पादन लक्ष्य के करीब तब पहुँचती है जबकि नदी में सिल्ट ना हो और बरसात में नदी में सिल्ट ना हो यह कैसे संभव है,भला !.इसी तरह इस बरसात में एन.टी.पी.सी द्वारा बनायी जा रही तपोवन-विष्णुगाड परियोजना का बैराज भी बह गया.जम कर खनन भी जे.पी कंपनी ने किया और नदी के एक हिस्से पर अतिक्रमण कर मंदिर भी बनाया जो अब तहस-नहस हो चुका है. बैराज बहने के बाद इस परियोजना में विद्युत उत्पादन ठप्प हो गया है .530 मेगवाट की एन.टी.पी.सी.द्वारा बनायीं जा रही तपोवन-विष्णुगाड परियोजना का काफर डैम पिछली बरसात में भी बहा.सुरंग खोदने के दौरान इस परियोजना की सुरंग में दिसंबर 2009 में अचानक पानी निकालना शुरू हुआ और बीते चार सालों से यह पानी निकल ही रहा है.जोशीमठ क्षेत्र में बनने वाली इन दो परियोजनाओं का क्षेत्र को नुक्सान पहुंचाने का पुराना इतिहास और हाल की बरसात में इनके बैराजों का बहना साफ़ दिखाता है कि आपदा की तीव्रता को बढाने में इन्होने भरपूर योगदान दिया.मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और परियोजनाओं के अंध समर्थकों को यह ना दिखाई दे तो कोई क्या कर सकता है?


इस विभीषिका की मार को बढाने वाले महकमों ने इससे कोई सबक सीखा हो,ऐसा कतई दिखाई नहीं देता. उदाहरण के लिए सीमा सड़क संगठन(बी.आर.ओ) की कार्यप्रणाली को ही देख लीजिए.बी.आर.ओ.की जिम्मेदारी उत्तराखंड में सीमाओं तकजाने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण,रखरखाव और उन्हें चौड़ा करने की है.राष्ट्रीय राजमार्गों को चौड़ा करने का यह काम केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के दौरान शुरू हुआ था.तत्कालीन केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री भुवन चंद्र खंडूडी ने सड़कों के चौड़े करवाने का श्रेय लेते हुए वाहवाही और वोट,दोनों ही खूब बटोरे.केंद्र के सत्ता से भारतीय जनता पार्टी और खंडूडी साहब को रुखसत हुए दस साल होने को हैं.लेकिन जिन सड़कों को चौड़ा करने के नाम पर वोट पाये गए,अव्वल तो वे अभी तक भी पूरी तरह चौड़ी नहीं हो पायी और दूसरा अंधाधुन्द डाइनामाइट के विस्फोटों ने इन सड़कों को स्थायी भूस्खलन स्थलों में तब्दील कर दिया है.बी.आर.ओ. सड़क निर्माण और उसे चौड़ा करने में न केवल बेहिसाब विस्फोटकों का प्रयोग करता है बल्कि मलबा भी नदी में ही डालता है.यह दोनों ही काम आपदा की विभीषिका को बढाने वाले ही सिद्ध होते हैं. लेकिन भारी आपदा के बाद जगह-जगह सड़कों के नदी में समाने के बाद भी बी.आर.ओ.की कार्यप्रणाली जस की तस है.

बदरीनाथराजमार्ग पर, गोविन्दघाट से कुछ ही आगे भयानक भूस्खलन हुआ है.सड़क का काफी हिस्सा नदी में चला गया है और बाकी अंश पर मौजूद दरारें संकेत हैं कि यह हिस्सा भी जल्द ही टूटने वाला है.भूस्खलन की चपेट में आये हिस्से से बड़े-बड़े बोल्डरों को हटाने के लिए बी.आर.ओ. वालों ने हमारे वहाँ पर से गुजरने के दौरान ही तीन बड़े विस्फोट किये और हर विस्फोट से पूरा पहाड़ और आसपास का इलाका थर्राता हुआ महसूस हो रहा था.इन विस्फोटों के बाद भूस्खलन के ही ढाल पर एक पतला सा रास्ता तो बी.आर.ओ. ने बना दिया.लेकिन यहीं पर और बड़े भूस्खलन की पटकथा भी साथ ही लिख दी गयी है.

आपदाके बचाव और राहत कार्यों की जानकारी देने में केंद्र से लेकर राज्य सरकार जितनी तत्परता दिखा रही है,उतनी सतह पर भी दिखाई देती तो शायद अभी भी हज़ारों लोग बद्रीनाथ में नहीं फंसे होते और ना ही भूखे-प्यासे जंगलों,नदी,पहाड़ों में भटक रहे होते.स्लो-मोशन में चल रहे बचाव एवं राहत अभियान में भी शासन-प्रशासन का जोर इस बात पर ही है किसी तरह यात्रियों को यहाँ से रवाना किया जा सके.जो होटल बह गए,उन में काम करने वाले नौकरों का क्या हुआ,वे ज़िंदा हैं या कि होटलों के साथ ही नदी में समा गए,इसकी ना कोई चर्चा है,ना किसी को फ़िक्र.इसी तरह जिन लोगों की आजीविका का साधन घोड़े-खच्चर हैं,उनका क्या होगा है,यह प्रश्न भी अनुत्तरित है.गोविन्दघाट से हेमकुंड को जाने वाला अलकनंदा नदी पर लगा पुल बह गया है.वहाँ फंसे लगभग सभी लोगों को निकाला जा चुका है.घोड़े-खच्चर चलाने वाले भी इस पार आ गये हैं और सामने पहाड़ी ढाल पर खच्चरों के झुण्ड के झुण्ड चरते हुए देखे जा सकते हैं.खच्चरों का पेट तो घास से भर जाएगा पर इनपर अपनी आजीविका के लिए निर्भर लोगों का पेट कैसे भरेगा,यह दीगर सवाल है.

इसपूरे क्षेत्र को देखने पर समझ आता है कि चाहे किसी का आपदा में नुक्सान हुआ हो या ना हुआ हो,लेकिन आपदा की यंत्रणा से पूरा पहाड़ गुजर रहा है. मकान,दूकान,खेती सब आपदा में गंवा चुके लोगों का जीवन फिर पटरी पर कैसे आएगा,यह भी पहाड़ जैसा ही विकट सवाल है.पर हवाई जाहजों और राहत के हवाई दावों पर सवार सत्ताधीशों से इन सवालों पर संवेदनशीलचिंतन की
अपेक्षा करना क्या कुछ ज्यादा नहीं हो जाएगा ?



इन्द्रेश आइसा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हैं और अब भाकपा-माले के नेता हैं. 
इनसे इंटरनेट पर indresh.aisa@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

कॉरपोरेट लूट और सरकारी गठजोड़ ही तबाही का कारण है:आनंद स्वरूप वर्मा

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-प्रैक्सिस प्रतिनिधि

तीसरे हेम चन्द्र पांडे स्मृति व्याख्यान का आयोजन

"...श्री वर्मा ने कहा कि कॉरपोरेटों की इस घुसपैठ और प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ संभावित आंदोलनों के दमन के लिए माहौल बनाने के लिए इसके ठीक बाद देशभर में माओवाद का हल्ला खड़ा किया गया। अचानक से देश के 18 राज्यों को माओवाद प्रभावित घोषित कर दिया गया। इसी कॉरपोरेट लूट के खिलाफ प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न राज्यों के स्थानीय जन को लगातार निशाना बनाया गया और प्राकृतिक संसाधनों की भयंकर लूटपाट मची। उन्होंने कहा कि वर्तमान उत्तराखंड की आपदा भी इसी कॉरपोरेटी लूट का परिणाम रही है। जिसमें उत्तराखंड की नदियों, पहाड़ों को जलविद्युत परियोजनाओं, खनन और संवेदनशील हिमालय में चैड़ी सड़कों के निर्माण आदि के लिए गैरजिम्मेदार कॉरपोरेटों को सौंप दिया गया है।..."

"गंभीरता पूर्वक यह सोचने की जरूरत है कि क्यों आज राज्य वही कर रहा है जो कॉरपोरेट घराने चाह रहे हैं और कॉरपोरेट घराने अपने मुनाफे के लिए सारी प्राकृतिक संपदाओं को बेतहाशा लूट रहे हैं। इस लूट के प्रतिकार के लिए जब स्थानीय समुदाय आंदोलित हो रहा है तो उसके दमन के लिए राज्य का सैन्यीकरण किया जा रहा है। देशभर में जनआंदोलनों के लोगों को माओवादी और आतंकवादी बताकर उन्हें जेलों में ठूसा जा रहा है या फर्जी एनकाउंटरों में मार दिया जा रहा है।" उक्त बातें वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने तीसरे हेम चंद्र पांडे स्मृति व्याख्यान में कॉरपोरेट लूट, तबाही और पत्रकारिता के उत्तरदायित्व विषय पर बोलते हुए कही। उन्होंने कहा कि राज्य 1990 में जारी जोसेफ स्टैग्लिट्ज के डॉक्यूमेंट ‘री डिफाइनिंग दि रोल ऑफ द स्टेट’ के अनुसार अपनी सारी ही लोककल्याणकारी भूमिकाओं को समेटते हुए अपने सारे उपक्रमों को कारपोरेटों को सौंप रहा है।

उन्होंने कहा कि स्टैग्लिट्ज के इस दस्तावेज को लागू करने के लिए बाजपेई सरकार के दौरान अगस्त 1998 में पीएमस् काउंसिल ऑन ट्रेड एण्ड इंडस्ट्री बनाई गई। इसमें देश के सारे बड़े कॉरपोरेट घरानों के मालिकों को शामिल किया गया और मूलतः राज्य के शिक्षा, स्वास्थ, ग्राम विकास आदि उत्तरदायित्वों की अलग-अलग जिम्मेदारियां इन्हें सौंपी गई। मीडिया में इतने महत्वपूर्ण लोगों की यह मीटिंग कहीं रिपोर्ट नहीं की गई। कई सरोकारी जनसंगठनों के दखल से उस बार यह गठजोड़ संभव नहीं हो सका लेकिन वर्तमान मनमोहन सरकार ने फिर इसे चालू कर दिया है। 

श्री वर्मा ने कहा कि कॉरपोरेटों की इस घुसपैठ और प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ संभावित आंदोलनों के दमन के लिए माहौल बनाने के लिए इसके ठीक बाद देशभर में माओवाद का हल्ला खड़ा किया गया। अचानक से देश के 18 राज्यों को माओवाद प्रभावित घोषित कर दिया गया। कईयों की फर्जी गिरफ्तारियां की गई इसी कॉरपोरेट लूट के खिलाफ प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न राज्यों के स्थानीय जन को लगातार निशाना बनाया गया और प्राकृतिक संसाधनों की भयंकर लूटपाट मची। उन्होंने कहा कि वर्तमान उत्तराखंड की आपदा भी इसी कॉरपोरेट लूट का परिणाम रही है। जिसमें उत्तराखंड की नदियों, पहाड़ों को जलविद्युत परियोजनाओं, खनन और संवेदनशील हिमालय में चैड़ी सड़कों के निर्माण आदि के लिए गैरजिम्मेदार कॉरपोरेटों को सौंप दिया गया है। 

उन्होंने आगे बोलते हुए पत्रकारिता के उत्तरदायित्वों पर बात की। उन्होंने कहा कि तकरीबन सारे ही मीडिया में कॉरपोरेट निवेश ने मीडियाकर्मीयों की चुनौतियों को बढ़ा दिया है। सरकार और कॉरपोरेटों का गठजोड़ जनता के बीच में जो गलत सूचनाओं के प्रसार से भ्रामक स्थिति बना रहा है, सरोकारी पत्रकारिता का यह उत्तरदायित्व है कि वह सही सूचनाओं से लोगों को वाकिफ कराने के प्रयत्नों में शामिल रहे।

इससे पहले हेमचंद्र पांडे मेमोरियल कमेटी की ओर से पत्रकार भूपेन सिंह ने हेम पांडे को याद करते हुए कहा कि हेम सतही पत्रकारिता के इतर प्रतिबद्ध पत्रकारों की उस परंपरा से आते थे जो कारपोरेट लूट और तबाही के खिलाफ मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की विचारधारात्मक पत्रकारिता करते हैं। उन्होंने अपनी इसी प्रतिबद्धता के चलते अपनी जान भी कुरबान कर दी। 

कार्यक्रमकी अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार पीसी जोशी ने की। कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार डॉ शमशेर सिंह बिष्ट, राजीव लोचन साह, साहित्यकार बटरोही, कपिलेश भोज, दिवा भट्ट, हयात सिंह रावत, चंद्रशेखर भट्ट, भास्कर उप्रेती, शंभू राणा, जेएस मेहता, कुंडल चैहान, कौशल पंत, दीप पाठक, पान सिंह, रमाशंकर नैलवाल, पूजा भट्ट, कुंदन सिंह आदि मौजूद थे। यह व्याख्यान अल्मोड़ा के सेवॉय होटल के सभागार में आयोजित कराया गया।   


साथ रहेगा मडिबा का साया

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...मडिबा की शख्सियत निसंदेह उनके संघर्ष से बनी। उनके त्याग, समर्पण और नेतृत्व क्षमता ने ही रंगभेद विरोधी हजारों सेनानियों में उन्हें सबसे केंद्रीय स्थान प्रदान किया। मगर बीसवीं सदी के इतिहास पर गौर करें तो उपनिवेशवाद तथा रंगभेद के खिलाफ संघर्षों में इन गुणों का परिचय देने वाले अनेक नेताओं के नाम उभर हमारे सामने आते हैं। इन गुणों के साथ मंडेला भी इतिहास में अवश्य अमर होते, लेकिन उनसे अपनी कोई अलग विरासत वे कायम नहीं कर पाते। जबकि आज उनकी एक विशिष्ट विरासत है।..."

क्षिण अफ्रीका के लोग जब मडिबा (नेल्सन मंडेला को आदर के साथ वहां उनके इसी कुल-नाम से पुकारा जाता है) के बाद के दौर के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं, उनका यह अहसास बार-बार जाहिर होता है कि कबीलाई अस्मिता और नस्लों में बंटे उनके देश में यह नाम एकता का भाव पैदा करता है। यह एकता बोध पिछले एक पखवाड़े से मडिबा के स्वास्थ्य के लिए देश भर में जारी प्रार्थनाओं के सिलसिले में भी देखने को मिला, जिसमें आबादी के हर हिस्से की समान भागीदारी देखी गई। नेल्सन रोलिहलाहला मंडेला का एकता का ऐसा प्रतीक बन जाना सचमुच उल्लेखनीय है। जो व्यक्ति गोरों के रंगभेदी शासन को खत्म करने के लिए हुए ऐतिहासिक संघर्ष का नेता और उसका सबसे बड़ा प्रतीक रहा हो, बाद में उसी के साये को श्वेत समुदाय के लोग अपनी सुरक्षा की गारंटी समझने लगें तो इस महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम का ऐतिहासिक महत्त्व स्वयंसिद्ध हो जाता है। आज जबकि मडिबा अपनी जिंदगी के आखिरी काल में हैं, श्वेत समुदाय की चर्चाओं में यह आशंका अक्सर जाहिर हो रही है कि स्वार्ट गेवार’  (काले समुदाय का खतरा) अब कहीं हकीकत तो नहीं जो बन जाएगा, जो 1990 में मानवीय मूल्यों एवं लोकतंत्र के प्रति मंडेला की निष्ठा के कारण निराधार साबित हुआ था। देश की सवा पांच करोड़ की आबादी में गोरे सिर्फ 9 प्रतिशत हैं। बहरहाल, दक्षिण अफ्रीका के सभी समुदायों में मंडेला की विरासत जितनी जीवंत और उनके प्रति लगाव जितना गहरा है, उसे देखते यह भरोसा रखा जा सकता है कि गोरों का भय एक बार फिर निराधार साबित होगा। लेकिन उनकी सोच दो दशक पहले दक्षिण अफ्रीका जिस मुकाम पर था, उसकी एक झलक हमें जरूर देती है।

मडिबाकी शख्सियत निसंदेह उनके संघर्ष से बनी। उनके त्याग, समर्पण और नेतृत्व क्षमता ने ही रंगभेद विरोधी हजारों सेनानियों में उन्हें सबसे केंद्रीय स्थान प्रदान किया। मगर बीसवीं सदी के इतिहास पर गौर करें तो उपनिवेशवाद तथा रंगभेद के खिलाफ संघर्षों में इन गुणों का परिचय देने वाले अनेक नेताओं के नाम उभर हमारे सामने आते हैं। इन गुणों के साथ मंडेला भी इतिहास में अवश्य अमर होते, लेकिन उनसे अपनी कोई अलग विरासत वे कायम नहीं कर पाते। जबकि आज उनकी एक विशिष्ट विरासत है। इसके बनने की कथा 1990 से शुरू होती है, जब 27 वर्ष लंबे कारावास के बाद वे बाहर आए, अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (एएनसी) की अध्यक्षता संभाली, लगभग चार साल तक निवर्तमान श्वेत राष्ट्रपति एफ डब्लू डी क्लार्क और देश के अन्य नेताओं के साथ मिल कर दक्षिण अफ्रीका के भविष्य को स्वरूप दिया, 10 मई 1994 को देश के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने और उसके बाद पांच साल अपनी देखरेख में एकता, मेलमिलाप और लोकतंत्र के मूल्यों को स्थापित करते हुए देश को नई दिशा दी। यह नए दक्षिण अफ्रीका के निर्माण का दौर था। इस समय दक्षिण अफ्रीका समाज में काले समुदाय और राजनीति में एएनसी और प्रकारांतर में मंडेला का एकाधिकार या वर्चस्व कायम होने की दिशा में भी बढ़ सकता था। मंडेला और एएनसी गोरों के ऐतिहासिक अन्याय के खिलाफ प्रतिशोध की नीति अपना सकते थे, जिसके जरिए जज्बाती आधार पर राजनीतिक बहुमत तैयार करना आसान होता।

लेकिन मडिबा ने दूसरा रास्ता चुना। उनके नेतृत्व में नई सरकार ने सत्य एवं पुनर्मिलाप को अपना आदर्श बनाया। अतीत के अन्याय का बदला लेने के बजाय उन्होंने एक ऐसा अभिनव प्रयोग किया, जो तब से दुनिया भर के लिए अनुकरणीय मॉडल बना हुआ है। ट्रूथ एंड रेकन्सिलीऐशन आयोग की स्थापना कर नए शासन ने अतीत में रंगभेदी अत्याचार या उसके खिलाफ संघर्ष में मानवाधिकार का हनन करने वाले लोगों को मौका दिया कि वे अपनी गलती सार्वजनिक रूप से स्वीकार करें और उसके बाद वो अध्याय हमेशा के लिए बंद हो जाए। आयोग की कार्यवाही में उत्पन्न हुए भावुक दृश्यों और वहां पेश हुए लोगों में पैदा हुए पाश्चाताप एवं प्रायःश्चित के भाव ने तब दिखाया कि कैसे उदार एवं दिव्य दृष्टि के साथ की गई ईमानदार पहल बुराइयों की पृष्ठभूमि के बीच भी सहज मानवीय संवेदना से उदात्त नव-निर्माण की जमीन तैयार कर देती है। यही दृष्टि दक्षिण अफ्रीका के नए संविधान में भी अभिव्यक्त हुई,जिसे सर्वोच्च मानवीय एवं लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित किया गया। यही नेल्सल मंडेला की स्थायी विरासत है। आधुनिक इतिहास में ऐसे विरले नेता हुए हैं, जिन्होंने अपने सुपरिभाषित उद्देश्यों को पूरा करने के बाद स्वेच्छा से सत्ता एवं सार्वजनिक जीवन से विदाई ले ली। 1999 में मंडेला ने जब ऐसा किया, तब तक आधुनिक दक्षिण अफ्रीका स्थिरता प्राप्त कर चुका था, लेकिन उसके संविधान में निहित व्यापक लक्ष्यों को अभी प्राप्त किया जाना बाकी था। मडिबा ने यह जिम्मेदारी अपनी अगली पीढ़ी को सौंप दी।

बुरे लोगों के बजाय बुराई को शत्रु समझना और सत्ता का परित्याग- ये दो ऐसे गुण हैं, जो सहज ही महात्मा गांधी की याद दिला देते हैं। रंगभेद के खात्मे के बाद सामाजिक मेलमिलाप की भावना उस सपने का स्मरण कराती है, जो बीसवीं सदी के मध्य में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने देखा था। यह अस्वाभाविक नहीं है कि नेल्सन मंडेला की विरासत में हम उन दोनों शख्सियतों की भावना तलाश सकते हैं, जिनमें एक उपनिवेशवाद विरोधी और दूसरा रंगभेद विरोधी संघर्ष का स्वाभाविक प्रतीक है। बहरहाल, भारत में गांधीजी आजादी के कुछ ही महीनों बाद सांप्रदायिक नफरत की गोलियों का शिकार हो गए और नए भारत के निर्माण में प्रत्यक्ष योगदान नहीं कर सके। यहां ये जिम्मेदारी अंबेडकर और नेहरू के कंधों पर आ पड़ी। जहां अंबेडकर ने भारत को इनसानी उसूलों पर आधारित संविधान देने में अप्रतिम योगदान किया, उस संविधान की भावनाओं को कार्यरूप देने तथा देश के विकास को दिशा देने में नेहरू की भूमिका असाधरण रही। जबकि दक्षिण अफ्रीका में शोषक व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष और नई उदार व्यवस्था के निर्माण- दोनों ही विशिष्ट परिघटनाओं का नेतृत्व मडिबा ने ही किया।

भारतीयराष्ट्रीय कांग्रेस और अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस में यह अद्भुत समानता है कि इन दोनों को अपनी संघर्ष एवं नव-निर्माण की विरासत से भटकने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। जिस तरह भारत में कांग्रेस सत्ता में रहने के दो दशक के अंदर महज सत्ता पाने की मशीन में तब्दील हो गई, वैसा ही एएनसी के साथ भी हुआ है। जैसे भारत में आजादी के बाद विकास के लक्षण तलाशे जा सकते हैं, लेकिन आम तौर पर व्यवस्था आम जन के हितों से दूर होती चली गई, वैसी ही कथा दक्षिण अफ्रीका में भी दोहराई गई है। गिरावट के ऐसे तमाम संकेतों के बीच मडिबा ही इस देश को अलग सम्मान और स्थान देते रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे अंबेडकर की विरासत भारत में न्याय की उम्मीदों को जिंदा रखे हुए है और गांधी एवं नेहरू का नाम देश को आज भी नैतिक प्रतिष्ठा दिलाता है। जब मडिबा नहीं रहेंगे, तब भी दक्षिण अफ्रीका इसलिए प्रतिष्ठा पाता रहेगा कि वह इस महान व्यक्ति की जन्म, संघर्ष एवं प्रयोग स्थली है। उसी तरह जब यह महामानव अपने भौतिक रूप में मौजूद नहीं रहेगा, तब भी अन्याय से संघर्ष और सत्य एवं पुनर्मिलाप की उच्च भावना पर आधारित पुनर्निर्माण की उसकी विरासत हमारे साथ बनी रहेगी।
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

संथाल परगना में नक्सलियों की दस्तक

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रमेश भगत
-रमेश भगत

  "...अगर सभी खनिज तत्वों का खनन करने का काम शुरू कर दिया गया तो इलाके में व्यापक पैमाने पर विस्थापन होगा जिससे ना सिर्फ सामाजिक असंतुलन बढ़ेगा बल्कि इस इलाके की प्राकृतिक सुंदरता और आदिवासी-गैरआदिवासी के बीच दशकों पुरानी समरसता की भी हत्या हो जाएगी। इस इलाके में मौजूद वर्तमान कोल माइन्स कंपनी से लोगों को जिस तरह का नुकसान उठाना पड़ रहा है। उससे तय है कि यहां के लोग किसी भी हालात में दुसरी कंपनियों को बरदास्त नहीं करेंगे।..."


त्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं को निशाना बनाने के बाद नक्सलियों ने मंगलवार को झारखंड में बड़ी घटना को अंजाम दिया। नक्सलियों ने घात लगाकर पाकुड़ जिला के एसपी अमरजीत बलिहार समेत 5 पुलिसवालों की हत्या कर दी। इस घटना को दुमका जिला के काठीकुंड प्रखंड में अंजाम दिया गया। यह ना सिर्फ संथाल परगना में अब तक की सबसे बड़ी नक्सली घटना है बल्कि झारखंड बनने के बाद यह पहला मौका है जब नक्सलियों ने एसपी को अपना निशाना बनाया है।

इससेपहले इसी इलाके में सिस्टर वाल्सा जॉन की हत्या की गई थी। उस समय भी यह एक बड़ी खबर बनी थी। सिर्फ खबर। उस पर अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। कार्रवाई के नाम पर बस खानापूर्ती हुई है। इस इलाके में नक्सलियों की सुगबुगाहट से लेकर एसपी की मौत तक जो बातें सामने आ रही है वो है कोल माइन्स कंपनियां। पाकुड़ जिला के अमड़ापाड़ा प्रखंड में कम से कम 41 वर्ग किलोमीटर में कोयला है। जिसे सरकार ने अपनी सुविधा के लिए कई ब्लॉक में बांट कर रखा है। इन्हीं में से एक ब्लॉक है पचुवाड़ा सेंट्रल ब्लॉक। 13 वर्ग किलोमीटर में फैले पचुवाड़ा सेंट्रल ब्लॉक से कोयला निकालने का काम पेनम नाम की कंपनी करती है, जो प्राइवेट माइनिंग कंपनी एम्टा और पंजाब सरकार का संयुक्त उपक्रम है। यहां से निकलने वाला कोयला पंजाब भेजा जाता है। पेनम ने इस कोल ब्लॉक से 2005 में कोयला निकालना शुरू किया।

पेनमके खुलने से पहले अमड़ापाड़ा में जमीन अधिग्रहण का व्यापक विरोध हुआ था। पेनम के खिलाफ प्रभावित इलाकों के ग्रामीण एकजुट हो गए, जिसका नेतृत्व सिस्टर वाल्सा जॉन ने किया था। इस एकजुटता को तोड़ने में पेनम को ज्यादा पसीना नहीं बहाना पड़ा। वाल्सा जॉन के नेतृत्व की असफलता से ग्रामीण मजबूर होकर कंपनी के रास्ते से हट गए। हालांकि कंपनी ने विस्थापित लोगों के पुर्नवास की व्यवस्था करने के साथ ही कई अन्य सुविधाएं देने का वादा किया था। लेकिन वादे हैं वादों का क्याकी तर्ज पर वादा, वादा ही रह गया। कंपनी के वादों के बावजूद पचुवाड़ा सेंट्रल ब्लॉक के कुछ गांव वालों ने आगे भी कंपनी के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। इस दौरान संथाल बहुल इस इलाके के ग्रामीणों का विश्वास राजनेताओं ने खो दिया। ग्रामीणों का रोष इतना बढ़ गया कि उन्होंने एक चुनावी सभा में झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन पर तीर से हमला कर दिया। इस घटना के बाद भी राजनेताओं का साथ ग्रामीणों को नहीं मिला। जिससे कोल कंपनी के खिलाफ ग्रामीणों का रोष बरकरार रहा।

ग्रामीणोंका यही रोष नक्सलियों के लिए मददगार साबित हुआ। और काफी शांत माना जाने वाला संथाल परगना हिंसा और प्रतिहिंसा का केंद्र बन गया। दरअसल संथाल परगना में कई कोल ब्लॉक है जिनसे कोयला निकालने के लिए सरकार ने बड़ी-बड़ी कंपनियों से एमओयू साइन किया है। इन कंपनियों में पेनम, जिंदल, मित्तल, अभिजीत जैसी प्राइवेट कंपनी है। झारखंड और बिहार सरकार के संयुक्त उपक्रम झार-बिहार को भी पचुवाड़ा में एक कोल ब्लॉक आवंटित किया गया है। इसके अलावा इन इलाकों में मिथेन गैस भी प्रचुर मात्रा में है। अगर सभी खनिज तत्वों का खनन करने का काम शुरू कर दिया गया तो इलाके में व्यापक पैमाने पर विस्थापन होगा जिससे ना सिर्फ सामाजिक असंतुलन बढ़ेगा बल्कि इस इलाके की प्राकृतिक सुंदरता और आदिवासी-गैरआदिवासी के बीच दशकों पुरानी समरसता की भी हत्या हो जाएगी। इस इलाके में मौजूद वर्तमान कोल माइन्स कंपनी से लोगों को जिस तरह का नुकसान उठाना पड़ रहा है। उससे तय है कि यहां के लोग किसी भी हालात में दुसरी कंपनियों को बरदास्त नहीं करेंगे।

हालांकिकई कंपनियां कोल ब्लॉक खोलने के लिए प्रयासरत है। दुमका जिला के शिकारीपाड़ा प्रखंड में जिंदल कंपनी भी कोल ब्लॉक खोलने का प्रयास कर रही है। लेकिन ग्रामीणों के विरोध के कारण अब तक वह सफल नहीं हो सकी है। दुमका जिला के ही रामगढ़ प्रखंड में भी लोग जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। पचुवाड़ा सेंट्रल ब्लॉक में कोयला खनन कर रही पेनम कंपनी अब अपना विस्तार कर पचुवाड़ा नोर्थ ब्लॉक से भी कोयला खनन शुरू करने वाली है। इससे प्रभावित इलाकों के ग्रामीण काफी गुस्से में हैं। नक्सलियों ने उनके गुस्से को अपने पक्ष में करने के लिए ही कहीं ना कहीं पाकुड़ एसपी को अपना निशाना बनाया है। क्योंकि राजनेताओं और पुलिस-प्रशासन से भरोसा उठने के बाद इन इलाकों के युवा बड़े पैमाने पर नक्सली बन रहे हैं। इन्हें प्रशिक्षण भी इन्ही इलाकों के घने जंगलों में दिया जा रहा है। यह काम पिछले 4-5 सालों से हो रहा है। इस तरह नक्सलियों ने एक मजबूत नेटवर्क तैयार कर लिया है। इस नेटवर्क का पहला टारगेट ही एसपी के काफिले पर हमला रहा। अगर वक्त रहते कोल कंपनियों के मंसूबे को नजरअंदाज करते हुए सरकार सिर्फ खनन को ही विकास मानकर कोल कंपनियों को शह देती रही तो इस इलाके को दूसरा बस्तर बनने से कोई नहीं रोक  सकता है।


 रमेश पत्रकार हैं. अभी ईएमएमसी में कार्यरत. 
rameshbhagat11@gmail.com इनकी ई-मेल आईडी है.

काश बनारस का लौंडा पास हो जाता....

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कृष्ण कुमार
-कृष्ण कुमार

"...बनारस से जब फिल्म निकलती है तो उसकी पृष्ठभूमि में अलीगढ़ से जोया का जेएनयू आना है. जोया जेएनयू यूं ही नहीं आ गई है. इसकी भी एक पृष्ठभूमि है जो फिल्म में नहीं बल्कि यथार्थ में कहीं है. जेएनयू के पास अपना भरपूर इतिहास है जो समाज के गंभीर संघर्षों से नियमित रूप से जुड़ा रहा है. संभवतः स्क्रिप्ट राइटर ने पिछले दिनों दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ हुये व्यापक आंदोलन में जेएनयू का नाम भर सुन लिया हो. और निर्देशक मानो जेएनयू एक बार घूम भर आया हो (क्यूंकि आईसा वगैहरा छात्रसंगठनों के पोस्टर्स फिल्म में दिखाई देते हैं). जैसा फिल्म में जेएनयू को दर्शाया गया है उससे तो यही लगता है. सो बहुत ही सतही दृष्टि के साथ जेएनयू फिल्म में है..."



खालिस देशीपन, गवईंपन , अल्हड़पन महज... विशेषण नहीं बल्कि पहचान है उस अद्भुत शहर की जिसका नाम बनारस है . बनारस के बारे में कहा जाता है आदमी की जेब में 10रूपए न हो पर आदमी का कॉन्फिडेंस 10करोड़ से कम नहीं होता. अब बात राँझना की ...कुंदन शंकर (धनुष ) इस बनारस के 10करोड़ के आदमी पूरी तरह परदे पर दिखता है. जोया हैदर (सोनम कपूर) से खफा होकर उसे गंगा में स्कूटर समेत लेकर ले कूदता है वहीँ उसका नाम पूछने के लिए 16चपेट खाने का माद्दा रखता है. और आत्मबलभी इतना मजबूत कि किसी के ब्लाउज के बटन में उतनी ताकत नहीं उसकी पतलून ढीली कर दे. फिल्म का यह संवाद पड़ते हुए असहज लग सकता है, फिल्म में वस्तुतः यह एक चरित्र को बताता है, जो समाज में मौजूद है. इस संवाद की प्रेरणा संभवतः सामाजिक प्रशिक्षण की गुड़ी-मुड़ी कई परतों के भीतर होती हो लेकिन इसका एक सहज पुट नायिका के इंतज़ार की शिद्दत में भी है. जो उसे अन्दर ही अन्दर ख़ुशी देता है .

बचपन वाला प्यार-

बचपनवाला प्यार, उसमें कोई भारी चाह नहीं होती बस एक ही चाह होती है, उसे एक बार देख भर लेने की... कुंदन कुछ वैसा ही चाहता है, बचपन में उसे पहली बार देखना और मंदिर में आकर भोलेनाथ के सामने डमरू को इस तरह बजाना कि बस अब और कुछ नहीं चाहिए महादेव! जो चाहा वो मिल गया.

हिन्दुस्तानके अस्पतालों के ढेरों अनुभव हैं, प्यार में बौराकर अपनी हाथ की नस काट लाये मरीजों के.... यह कितना जायज है इस पर बहस के क्या माने. हर किसी का अपना सच है. जैसा कुंदन है वो ये कर ही सकता है. बचपन में शिव बने कुंदन को सफ़ेद लिबास में नमाज करती हुयी जोया भा जाती है उसके पीछे पागलों की तरह फिरता कुंदन उसका नाम जानने के लिए 16थप्पड़ खाता है. और प्यार के इजहार और रेस्पोंस जानने के लिए हाथ की नस काट डालता है. सरेराह की इस घटना की परिणति में जोया को अलीगढ़ भेज दिया जाता है. और प्यार की इस जटिल कहानी को 8 साल का ब्रेक लग जाता है.. यहाँ तक भरपूर कसावट की फिल्म की कसावट को भी साथ ही ब्रेक लगता है.

इंतज़ार और बेकार-

कुंदन, जोया के लिए आठ साल तक इंतज़ार करता है. वो वापस आती है पर कुंदन को नहीं पहचानती (यह कैसे संभव है?). अब तक इतनी मजबूती से फिल्माई गई फिल्म आगे अचानक भरभराने लगती है. और यह भरभराना अंत तक नहीं संभलता. लगता है कहानीकार से खुद की कहानी नहीं संभाली. जब तक बनारस था तो निभा लेकिन जब फिल्म दिल्ली जेएनयू पहुँचती है तो इतनी हलकी हो जाती है कि भान पड़ता है कि ना ही स्क्रिप्ट राईटर ने जेएनयू देखा है न ही निर्देशक ने. वरना जेएनयू प्रेसिडेंट केंडिडेट से नक़ल करवाने का ख़याल शायद ही उपजा होता और तल्ख़ अंदाज में नायिका की बांह मरोड़ना इतनी मामूली घटना की तरह नहीं दर्शा दिया जाता. इसी कम समझ की परिणति शायद वह दृश्य भी था जिसमें कुंदन जेएनयू के एक होस्टल में जोया से मिलने एक पाईप पर चढा है. इतने में कुछ “जेएनयू बुद्धिजीवी” उसे घेर लेते है और पूछते हैं – अरे..ये पाइप पर क्यों चढ़ रहे हो?
कुंदन कहता है – चोरी करने के लिए.
बुद्धिजीवी – चोरी क्यों कर रहे हो?
कुंदन- क्योंकि मैं गरीब हूँ.

उसके बाद उसे नीचे उतारकर एक लम्बी बहस शुरू होती है जो सुबह तक चलती है. कुंदन गरीब है इसलिए चोरी कर रहा है, इस बात पर चर्चा रात में शुरू होती और अलसुबह इस बात पर ख़तम होती है की कुंदन गरीब है इसलिए चोरी कर रहा है.... संभवतः यह दृश्य सार्थक हो पाता यदि छद्म बौद्धिकता पर मार करता. मगर यह चिंतनशीलता पर ही व्यंग्य करता एक फूहड़ दृश्य जान पड़ता है.   

बनारससे जब फिल्म निकलती है तो उसकी पृष्ठभूमि में अलीगढ़ से जोया का जेएनयू आना है. जोया जेएनयू यूं ही नहीं आ गई है. इसकी भी एक पृष्ठभूमि है जो फिल्म में नहीं बल्कि यथार्थ में कहीं है. जेएनयू के पास अपना भरपूर इतिहास है जो समाज के गंभीर संघर्षों से नियमित रूप से जुड़ा रहा है. संभवतः स्क्रिप्ट राइटर ने पिछले दिनों दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ हुये व्यापक आंदोलन में जेएनयू का नाम भर सुन लिया हो. और निर्देशक मानो जेएनयू एक बार घूम भर आया हो (क्यूंकि आईसा वगैहरा छात्रसंगठनों के पोस्टर्स फिल्म में दिखाई देते हैं). जैसा फिल्म में जेएनयू को दर्शाया गया है उससे तो यही लगता है. सो बहुत ही सतही दृष्टि के साथ जेएनयू फिल्म में है.   

फिल्म की एक और बुनियाद है. जोया जेएनयू में जसजीत (प्रेसिडेंट जेएनयूएसयू) से प्रेम कर बैठती है. जसजीत सिख है. मुस्लिम से उसकी शादी कैसे हो? जोया उसे ‘अकरम’ बना अपने घर ले चलती है (यूं तो यह भी हास्यास्पद है कि अकरम चला भी जाता है). दीवाना कुंदन उसे मदद करता है अकरम से शादी करवाने में. लेकिन शादी के दिन कुंदन को पता चलता है अकरम तो जसजीत है. यह उससे नहीं सहा जाता. वह बिफर पड़ता है और वहां हंगामा खड़ा कर देता है. जोया के परिवार वालों से जसजीत को बुरी तरह पीटना पड़ता है. कुंदन उसका दोस्त और जसजीत की बहन, जसजीत को अस्पताल लाते हैं. यहाँ होश में आकार जसजीत, कुंदन को जेएनयू की बाकी बची कहानी सुनाता है. फिर पंजाब से आकार जसजीत का परिवार उसे ले जाता है.

यहजसजीत, अभय देवल हैं. अभय देवल की संभवतः इससे कमजोर एक्टिंग आपने न देखी हो. फिल्म में उनकी उपस्थिति यूं भी कम है लेकिन उनकी उपस्थिति का एक भी दृश्य मजबूत/आकर्षक नहीं बन पड़ा है. साफ़ समझ आता है कि अभय से निर्देशक काम ढंग से न ले पाए. जबकि स्कोप बहुत था.

कुंदनजोया को भगाकर पंजाब ले आता है. जसजीत से मिलाने. पर यहाँ जसजीत की मौत हो चुकी है. अब फिल्म कुछ यूं भागती है कि मानो सिर पर गेंद रखे कोई खिलाड़ी आधे रस्ते में ही गेंद का बैलेंस खो चुका हो और तेजी से भागकर गेंद के गिरने से पहले सीमा रेखा को पार कर लेना चाहता हो.

फिल्म फिर वापस दिल्ली लौटती है. जसजीत के बाद जेएनयू में जोया उसकी पार्टी ‘एआईसीपी’ का नेतृत्व संभाल रही है. दिल्ली इलेक्शन की जोरशोर से तैयारी है. कुंदन भी जेएनयू पहुँचता है. वहां चाय की दुकान में काम करने लगता है. धीरे-धीरे ‘एआईसीपी’ के लोगों से उसकी करीबी बढ़ती है. बड़े ही नाटकीय अंदाज में वह उनका लीडर बन जाता है. जोया का उसे लेकर गुस्सा बढ़ता जाता है और वह उसे सत्तारूढ़ सीएम से हाथ मिला मरवा देती है.  

अतिनाटकीयताफिल्म में लगातार बरकरार है. शुरुवाती जगहों में यह निभा ली गई है लेकिन बाद के हिस्से में इसे संभालना न ही स्क्रिप्ट राइटर के बस में रहा है न ही निर्देशक के.       

फिल्ममें एक संवाद है “ये बनारस है ....साला प्यार में लड़का यहाँ फेल हो गया तो फिर पास कहाँ होगा” लेकिन क्लाइमेक्स आते–आते प्यार में बनारस का लौंडा भी फेल ही हो जाता है...

तकनीकी झोल -

फिल्ममें काशी हिन्दू विवि. का सेट उदय प्रताप कॉलेज में लगाया गया है. शॉट में उदय प्रताप कॉलेज का नाम दिखाने में सीन अजीबोगरीब हो गया है... हुआ कुछ ऐसा की काशी विश्वविद्यालय का बैनर दिखाने के साथ ही यूपी कॉलेज का बैनर भी दिखा दिया है.

दूसरासीन तब का जब जोया के माँ बाप को कुंदन से उनके प्यार के बारे में पता चलता है और वे उसे वाराणसी स्टेशन छोड़ने आते हैं. ट्रेन चलती तो वाराणसी से है पर प्लेटफोर्म के आखिरी में “काशी” स्टेशन होता है . हकीकत में फिल्म की शूटिंग काशी स्टेशन पर हुयी है ...

जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी में अकरम / जसजीत (अभय देओल) का रोल बेहद सतही तौर पर दिखाया गया है. फिल्म का पहला हाफ जितनी खूबसूरती के साथ दिखाया गया है जसजीत (JNUpresident)का रोल उतनी जल्दी समेटकर दिखाने की कोशिश की गयी है. उसका एजेंडा क्या है, वह किस विचारधारा से सम्बन्ध रखता है. सब तुरत-फुरत में दिखाया गया है. और कमजोर भी. 

मजबूत हिस्सा-

फिल्ममें बनारस को बेहद संजीदगी के साथ दिखाया गया है. निर्देशक आनंद एल राय ने लोकेशन पर खूब कसरत की है. काशी की पहचान अस्सी घाट, दुर्गाकुंड, रामनगर किला, खुद रामनगर और गंगा के अन्य घाट बेहद ख़ूबसूरती के साथ दिखाए गये हैं. बीच-बीच में काशी के उत्सव भी इसमें नजर आते हैं. वह चाहे रामलीला के लिए चंदा जुटाने का सीन हो या यहाँ की अलमस्त कपड़ाफाड़ होली... राय साहब तनु वेड्स मनु में कानपुर और लखनऊ दिखा चुके हैं. इस बार बारी बनारस और दिल्ली की थी. बनारस तो खूब दिखाया लेकिन दिल्ली (जेएनयू) चूक गए..
 
बावजूदइस सब के यह सोनम कपूर की अब तक की सबसे बेहतर फिल्म कही जा सकती है, वहीँ धनुष पूर्वांचल छोरे के गेटअप में जीवंत लगे हैं. चाहे उनका १६ साल वाला अवतार रहा हो या उसके ८ साल बाद वाला रूप. धनुष फिल्म में कहीं भी यह नहीं लगा की वो बनारसी नहीं हैं. लेकिन कई जगह साउथ इन्डियन वाला अंदाज भी हिलोरे मारता ही है. जिसके जस्टिफिकेशन के लिए उन्हें मूल साउथ का ही दर्शाया गया है.

अंत में-

गजबहै कि पहले हफ्ते में यह फिल्म 20.88 करोड कमा चुकी है. अपने समग्र रूप में सिनेमा शिल्प में कमजोर यह फिल्म बिजनेस के मामले में एक सफल फिल्म है लेकिन असल में इससे बड़ी असफलता बॉलिवुडी सिनेमा के लिए कुछ नहीं है.
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कृष्ण युवा पत्रकार हैं. अभी बनारस में एक दैनिक अखबार में काम. 
इनसे संपर्क का पता है- krishan.iimc@gmail.com  


आपदा के बहुआयाम

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मदन मोहन चमोली
-मदन मोहन चमोली

"...अब तक आपदाओं को लूट के अवसर में बदलती रही सरकारें, इस बार और भी बड़े पैमाने पर सक्रिय हो चुकी हैं. इसलिए उत्तराखंड से लेकर केंद्र सरकार तक केदारनाथ धाम को फिर से पहले जैसे खड़ा करने को जितना कृत संकल्प दिखते हैं, वैसा जनता के सुख-चैन और स्वाभाविक विकास की बहाली के लिए नहीं. केदारनाथ धाम में शमशान की शांति है,लेकिन शंकराचार्य से लेकर रावल-पुजारी,मंदिर समिति ‘पूजा’ फिर से शुरू करने की कवायद में जुटे हैं.पूजा का यह खेल धर्म और सत्ता की तिजारती वह व्यवस्था जो स्वयं आपदा के लिए जिम्मेदार है..."


मंदाकिनी की बाढ़ में बह गए चंद्रपुरी गाँव
की जगह अब बस मलवे का ढेर है
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15, 16और 17  जून को 72घंटों की बारिश ने उत्तराखंड के सीमान्त जिलों-चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ में तबाही का अकल्पनीय मंजर रच डाला.आस्था के चारों केन्द्रों-बदरीनाथ,केदारनाथ,गंगोत्री,यमनोत्री के आधार और अधिरचना पहली बार न केवल भौतिक रूप से बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी विनाश की चपेट में आये. मात्रा,मौतें और मुसीबत के लिहाज से केदारनाथ धाम और समूची केदार घाटी(रुद्रप्रयाग जनपद) महाविनाश का केंद्र बने तो वृत्त का अस्तित्व भी(आस्था,आर्थिकी और पारंपरिक अभियान के अर्थ में) बेरीढ़,दूसरे शब्दों में पंगु होने की स्थिति में आ चुका है.इसे फिर से अपने पैरों पर खड़े होने में वर्षों लगेंगे. 

कश्मीरसे कन्याकुमारी तक और गुजरात से बंगाल तक सम्पूर्ण भारत के लोग पूजा,पर्यटन,पिकनिक या अन्य किसी भाव से पहाड़ के चारों धामों में हजारों-हज़ार की संख्या में मौजूद थे.लेकिन यह भी पहली बार हुआ कि समय से पहले आये मानसूनी विक्षोभ ने महाविनाश की अविश्वसनीय अति बरपा दी. भगवान,नुक्सान और इंसान तीनों राष्ट्रीय मीडिया के ‘फोकस’ में आ गए. केंद्र और राज्य की सरकारें भी यहाँ आपदा की भाषा बोलने लगी. कहा गया कि यह ‘राष्ट्रीय आपदा’ है लेकिन इसे आज तक घोषित नहीं किया गया. ऊपर से देखने पर लगा कि सरकार के सभी अंग महाविनाश से निपटने में युद्धस्तर पर सक्रीय हैं, चारों धामों में फंसे हुए लोगों को सुरक्षित निकालने में यह सक्रियता(सेना की वजह से) दिखी भी. लेकिन स्थिति यहाँ भी भगवान भरोसे की तरह सेना के भरोसे जैसी बनी रही. सरकारों पर भरोसा कायम नहीं हो पाया. 

अगस्तमुनि से केदारनाथ जाती यह सड़क जगह जगह टूटी है.
इसकी जगह मंदाकिनी बह रही है.
टीवी चैनलों ने पूरे दस दिन तक ‘हॉरर’ रिपोर्टिंग करने के साथ-साथ तथ्यों का चीरहरण करने में शेयर मार्केट वाली तेजी दिखाई. धर्म बनाम विज्ञान की बहस को भी जनता को भरमाने का जरिया बनाया गया (खासकर केदारनाथ के प्रसंग में आपदा को पाप से और पाप को आपदा से जोड़ने तथा स्थाने निवासियों के साथ-साथ मजदूरी करने वाली पूरी नेपाली जमात को लूटपाट,मारपीट,बलात्कार जैसे कृत्यों को लोमहर्षक तरीके से गढे गए सत्यों को कतिपय टीवी चैनलों ने सनसनी के साथ परोसा. जैसे कि यही सब देखने के लिए उनमें सबसे पहले वहाँ होने की होड लगी हो. कुल मिलाकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के एक हिस्से ने बड़ी कवरेज के बावजूद बड़ी गैरजिम्मेदारी का भी परिचय दिया. एक उदाहरण से इसको बखूबी जाना जा सकता है.’आज तक’ चैनल में पुण्य प्रसून वाजपेयी ने 16जून को केदारनाथ से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर श्रीनगर(गढ़वाल) में जी.वी.के.कंपनी द्वारा बनायीं जा रही जलविद्युत परियोजना के दायरे में आने वाले धारी देवी मंदिर की मूर्ति को मूल स्थान से हटाये जाने को, 17जून को केदारनाथ में होने वाली विध्वंश लीला से जोड़ते हुए,इस बहस को निष्कर्ष तक पहुंचाने के लिए ज्योतिर्पीठ पर दावा जताने वाले तीन शंकराचार्यों में से एक शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती का सर्टिफिकेट प्राप्त कर लिया. 

लेकिनदूसरा पहलू यह भी है कि मीडिया के जरिये ही सार्थक बहस भी सामने आई और व्यवस्था का चेहरा भी. यह भी कह सकते हैं कि मीडिया में बहस का स्तर रिपोर्टिंग से बढ़िया था.इसको समग्रता में इस तथ्य के साथ देखे जाने की आवश्यकता कि राष्ट्रीय मीडिया तंत्र भी शासक वर्गीय पार्टियों की तरह कारपोरेट का औजार है,जिन्हें मुद्दे से ज्यादा मुनाफे के पक्ष में लोकतंत्र का इस्तेमाल करना है,फिर चाहे जनता आपदाग्रस्त हो अथवा मंगाई-भ्रष्टाचार-लूट-दमन या अन्य संकट में. इसलिए अक्सर बहस तो लोकतंत्र के पक्ष में होती है लेकिन बाकी लूटतंत्र के पक्ष में. संतुलन की इस बाजीगरी में केंद्र और राज्य सरकारें इस महाविनाश लीला के समय और आज तक भी पूरी तरह बेनकाब हो चुकी हैं. जिस गंभीरता,संवेदनशीलता और जिम्मेदारी के साथ इस चुनौती से निपटने की इच्छाशक्ति की जरुरत थी, वह ना सोच में जाहिर हुई, ना कार्यवाही में. लेकिन जब आपदा की भयावहता का अंदाजा हुआ तो सोनिया-मनमोहन-शिंदे से लेकर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा,आपदा प्रबंधन मंत्री यशपाल आर्य,कृषि मंत्री हरक सिंह रावत, सुबोध उनियाल आदि कांग्रेसी नेताओं के लिए आपदा-‘डिजास्टर टूरिज्म’ का नया पैकेज बन गयी. यह भी है कि विभिन्न राज्यों की सरकारों ने अपने लोगों की खातिर हेलिकॉप्टर सेवा के साथ बड़ी आर्थिक मदद की घोषणाएं की.कांग्रेस-भाजपा राहत राजनीति का खेल भी खेलती रही.

पानी से धारदार कोई हथियार नहीं होता
सबसेदर्दनाक दास्तान केदारनाथ धाम और केदार घटी यात्रा मार्ग की है. यहीं सबसे ज्यादा मौतें हुईं और सबसे ज्यादा लोग फंसे,जिन्होंने स्थाने जंगलों,गावों में मौत से बदतर हालातों में जिंदगी गुजारी.दोनों की संख्या हज़ारों के हिसाब से आंकी जा रही है.रुद्रप्रयाग जनपद,इस लिहाज से सर्वाधिक क्षतिग्रस्त जिला बना.

यहतथ्य जाहिर हो चुका है कि केदारनाथ मंदिर के पीछे मंदाकिनी नदी के मुहाने गांधी सरोवर(चौराबाड़ी ताल) के क्षेत्र में भारी बारिश,बादल फटने,ग्लेशियर पिघलने-टूटने के सभी संयोगों की परिणिति के फलस्वरूप ग्यारह हज़ार फीट की ऊँचाई पर स्थित,तीन वर्ग किलोमीटर में फैला केदार (केदार यानि दलदल) क्षेत्र जलप्रलय का प्रारंभिक बिंदु बना, जिसका ट्रेलर 16जून की ही रात को घटित हो चुका था और लगभग केदारनाथ मंदिर के 25मीटर पिछले हिस्से में बने ढांचों को तबाह कर तीस जाने ले चुका था.लगातार मूसलाधार बारिश में यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि प्रलय का प्रचंडतम रूप आना तो बाकी है.फिर भी 17जून की सुबह चार बजे से परम्परागत विधान के अनुसार अभिषेक और आरती का कार्यक्रम निर्बाद्ध आगे बढ़ता रहा.

ठीक6.55  पर गाँधी सरोवर से मंदाकिनी नदी की अकल्पनीय बाढ़ ने केदारनाथ के सर्वस्व को ध्वस्त करते हुए हज़ारों लोगों को अपनी चपेट में लेते हुए आगे बढ़ने के क्रम में क्रमशः रामबाड़ा,गौरीकुंड,सोनप्रयाग को संपूर्ण रूप से जमींदोज करते हुए लगभग अस्सी किलोमीटर की लम्बाई तक भीषण तबाही मचाई. रामबाड़ा और गौरीकुंड में हज़ारों लगों का जमावड़ा था. इसलिए बच कर निकलने वालों की संख्या बहुत कम है और मरने वालों का आंकडा बहुत बड़ा क्यूंकि मंदाकिनी के साथ आये लाखों-लाख टन गाद,पत्थरों,बोल्डरों ने लोगों को अपने नीचे हमेशा के लिए दफ़न कर दिया है.ऐसा स्थानीय  लोग भी कह रहे हैं और सम्बंधित सूत्र भी (लेकिन सरकार अभी तक हज़ार से कम लोगों को ही मृत मान रही है). 

तिलवाड़ा की तबाही
मात्रदो घंटे के अंदर रुद्रप्रयाग जनपद के अंतर्गत आस्था के व्यापार की आर्थिकी तहस-नहस हो गयी. गौरीकुंड से केदारनाथ तक 14किलोमीटर पैदल मार्ग और गौरीकुंड से सोनप्रयाग तक 7किलोमीटर राजमार्ग मात्र  1प्रतिशत ही शेष बचा है.गौरीकुंड में मंदाकिनी का जलस्तर सामान्य दिनों की अपेक्षा 50 मीटर ऊपर तक चढ़ा हुआ था,जिसने अपने किनारे से काफी दूर तक के 50-60छोटे-बड़े भवनों को भी ढहा दिया, रामबाड़ा में इससे अधिक क्यूंकि वहाँ कुछ भी शेष नहीं है.सोनप्रयाग की दशा भी यही है. सोनप्रयाग से आगे मंदाकिनी का जल तो बढते हिसाब में रहा. लेकिन सड़क और आवासीय क्षेत्र तो उच्चावच होने के कारण बच गए.लेकिन हज़ारों हैक्टेयर कृषि भूमि को लीलते हुए- सीतापुर, रामपुर, फाटा, ब्यूंग, गुप्तकाशी, उखीमठ, भीरी, चन्द्रापुरी, अगस्त्यमुनि,सौडी,बनियाडी सिल्ली, तिलवाडा-रामपुर-सुमाडी और रुद्रप्रयाग नगर क्षेत्र तक मंदाकिनी नदी की बाढ़ से क्षत-विक्षत हो गए हैं. 

यात्रा-पर्यटन,व्यापार,रोजगार,सुविधाएँ,साजो-सामान,संपर्क सब कुछ आपदा की भेंट चढ गए.सरकारों का ध्यान प्रमुख तौर पर चारों धामों में फंसे यात्रियों,पर्यटकों को निकलने में रहा और हवाई सेवा भी उन्ही के लिए समर्पित रही. यह एक कटु सत्य है कि स्थानीय जनता 17जून से  27जून गौरीगांव से लेकर जाल-चौमासी, कालीमठ, कोटमा, स्यूंर-कंडारा, जलई, फलासी और सुमाडी सहित दर्जनों गावों में किस हाल में हैं-शासन-प्रशासन को यह जानने में अधिक दिलचस्पी नहीं थी.रुद्रप्रयाग के औसतन प्रत्येक गांव के लोगों का सम्बन्ध केदारनाथ की यात्रा से जुड़ा है. सीतापुर से आगे मंदाकिनी नदी पर बनायीं जा रही जलविद्युत परियोजना,जिस लेंको कम्पनी बना रही है,के सभी ढांचों ने भी टूटकर जलप्रलय को बढाने में सहायक की भूमिका निभाई. ब्यूंग-फाटा जलविद्युत परियोजना के नाम से बनायीं जा रही इस परियोजना का स्थानीय जनता शुरू से विरोध कर रही थी क्यूंकि इसके निर्माण में न सिर्फ बहुत सारी अनियमितताएं बरती जा रही थी बल्कि जल-जंगल-जमीन और जीवन सभी को खतरे में डाल दिया गया था. निर्माण का सारा मलबा मंदाकिनी की गोद में डाले जाने ने, प्रलय की तीव्रता को कई गुणा बढ़ा दिया. आगे तीस किलोमीटर पर फिर एक नयी जलविद्युत परियोजना-सिंगोली-भटवाडी पर ठीक इसी तरह की आपराधिक लापरवाही ने कोढ़ में खाज का काम किया. कुंड नामक स्थान पर जहां सिंगोली-भटवाडी परियोजना की मुख्य साईट है, मन्दाकिनी ने वहाँ भी निर्माण कंपनी एल एंड टी के सभी ढांचों को तहस-नहस कर दिया. कुंड में कंपनी ने सुरंगों का निर्माण करने के अलावा आवासीय और कार्यालय भवनों का भी बड़ी संख्या में निर्माण किया है. यह स्थान बहुत ही तंग घाटी जैसा है,जिसमें दोनों तरफ से भूस्खलन लगातार जारी है.

राहत सामग्री के लिए सिल्ली के पास बंद सड़क
से दूसरी तरफ जाते लोग
 
चाहेसुरंग हो या बाकी निर्माण,कंपनी ने मंदाकिनी को मलबे से पाट दिया था.16 और 17जून की अतिवृष्टि में उपरोक्त दोनों परियोजनाओं की सभी प्रकार के निर्माणों के साथ-साथ निर्माण कार्य हेतु लायी गयी बड़ी-बड़ी मशीनों समेत सब कुछ बह कर नष्ट हो गया और तबाही को बढाते हुए आगे आने वाली बस्तियों भीरी, चन्द्रपुरी, सौडी, अगस्त्यामुनि, सिल्ली,तिलवाडा नामक स्थानों पर राजमार्ग को सपाट बनाते हुए सैकड़ों की तादाद में मकानों, यात्रा आवासों, खेतीबाड़ी, संपर्क पुलों को नेस्तनाबूद कर दिया. विनाशलीला का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि मंदाकिनी नदी अपने सामान्य प्रवाह की अपेक्षा 200 से 500मीटर तक अपने दोनों तरफ की जमीन को काटते हुए सब कुछ लीलती चली गयी. 

संभवतःचन्द्रपुरी और अगस्त्यमुनि जैसे कस्बे बड़ी से बड़ी बरसात में भी कभी मन्दाकिनी का शिकार नहीं हुए थे क्यूंकि ये नदी से पर्याप्त सुरक्षित दूरी पर थे.चन्द्रापुरी कस्बे के स्थानीय  लोगों का कहना है कि उनकी तबाही के लिए नब्बे फ़ीसदी उपरोक्त दोनों जलविद्युत परियोजनाएं जिम्मेदार हैं,जिनकी वजह से मंदाकिनी में बीस मीटर तक गाद भरने से नदी का जलस्तर असीमित रूप से ऊंचा उठा और उसने अतिरिक्त विस्तार के साथ सुरक्षित स्थानों को असुरक्षित कर दिया, ना सिर्फ आज बल्कि भविष्य के लिए भी. कुंड से लेकर तिलवाडा तक (लगभग पच्चीस किलोमीटर) मंदाकिनी नदी ने अपनी बायीं ओर शिफ्ट करना आरम्भ कर दिया है, जिसकी जद में राजमार्ग समेत सभी दस-बारह कस्बे भी होंगे.सभी रेतीली जमीन पर खड़े हैं. आपदाओं के आदि हो चुके केदारघाटी के लोग अपने समूचे अर्थतंत्र के नष्ट हो जाने के साथ आस्था पर खड़ी व्यापारिक बहुलता के विकल्पहीन होने की आशंका से ग्रस्त हैं, जिसके लिए सरकारों का कोई आश्वासन नहीं है,ना उन्हें भगवान पर भरोसा रह गया है.

अबतक आपदाओं को लूट के अवसर में बदलती रही सरकारें, इस बार और भी बड़े पैमाने पर सक्रिय हो चुकी हैं. इसलिए उत्तराखंड से लेकर केंद्र सरकार तक केदारनाथ धाम को फिर से पहले जैसे खड़ा करने को जितना कृत संकल्प दिखते हैं, वैसा जनता के सुख-चैन और स्वाभाविक विकास की बहाली के लिए नहीं. केदारनाथ धाम में शमशान की शांति है,लेकिन शंकराचार्य से लेकर रावल-पुजारी,मंदिर समिति ‘पूजा’ फिर से शुरू करने की कवायद में जुटे हैं.पूजा का यह खेल धर्म और सत्ता की तिजारती वह व्यवस्था जो स्वयं आपदा के लिए जिम्मेदार है.

सड़क का काम जारी है 

दूसरीतरफ राहत का खेल भी बड़े पैमाने पर चल रहा है.लेकिन सरकार की वितरण प्रणाली का अता-पता नहीं है.लगभग भिखारियों की तरह राहत पाने की नियति से लोगों में खासा असंतोष है. उखीमठ, अगस्त्यमुनि और जखोली विकासखंड के सैकड़ों गावों में से चुनिन्दा गावों तक ही पर्याप्त राहत सामग्री पहुँच पा रही है और आपदा के एक पखवाड़े बाद भी सुदूरवर्ती गावों तक राहत पहुंचाने में कोई एजेंसी सक्रीय नहीं दिखती. अब हेलिकॉप्टर सिर्फ केदारनाथ में धार्मिक क्रियाकलापों को अंजाम देने की कवायद में जुटी मशीनरी तक सीमित हो चुके हैं. 

अभीरामबाड़ा, गौरीकुंड, सोनप्रयाग तथा स्वयं केदारनाथ में अनगिनत लाशों के दफ़न होने की स्थिति में महामारी का तांडव भी शुरू हो चुका है. हैजा, डायरिया जैसे बीमारियों ने दस्तक देना शुरू कर दिया है. अभी जबकि इन स्थानों पर मौत का राज है,फिर भी सौदागर हैं कि भविष्य में आपदाओं से निपटने की मानवीय क्षमता,प्रतिभा,प्रयास और संसाधनों को वैज्ञानिक नजरिये से देखने के बजाय मिथ्याचार और भ्रष्टाचार के नव उदारवादी विकास मॉडल के इर्द-गिर्द ही सोच को सीमित करने पर उतारू हैं. जबकि यह समय स्वयं चीख-चीख कर कह रहा है कि हिमालय और पहाड़ों को नयी वैकल्पिक विकास नीति की अपरिहार्य आवश्यकता है, चाहे पर्यटन हो, यात्रा हो, विकास के विभिन्न आयाम हों, वैज्ञानिकों के नजरिये को अहमियत के साथ जमीन पर उतरा जाए, और सारी चीजों पर नियंत्रण के नियमों का ठोस रूप से पालन हो ताकि प्रकृति से तादात्म्य और तालमेल बिठाया जा सके. 

लेकिनइस संभव को ही हमारे शासक वर्गों ने असंभव बनाने की हद तक निरीह बना दिया है,ताकि लोग ‘भगवान भरोसे’ बने रहें.यही लगातार होता रहा है और कम से कम केदारघाटी की जनता तो इसकी सबसे बड़ी गवाह है.यहाँ पिछले 25सालों में आई यह पांचवीं बड़ी आपदा है और हर आपदा के बाद वही सब चीजें शुरू  हो जाती हैं,जिन्हें आपदा के कारणों में गिना जाता है.बस संपत्ति के नुक्सान के साथ जान से हाथ धोने वालों पर मुआवजे और राहत का फौरी छिडकाव कर सारे नागरिक अधिकारों से जुड़े सवालों से कन्नी काट ली जाती है.
उमींद की छतरी  
तस्वीरें- रोहित जोशी

नब्बेके दशक से उत्तराखंड में पुराने राजमार्गों के चौडीकरण और नए राजमार्गों के निर्माण के केंद्र में जनता नहीं,जलविद्युत परियोजनाओं के विशालकाय उपकरण और मशीनें थी, जिन्हें चारों धाम की नदियों के मुहाने तक पहुँचाना था. इस कवायद में उन सभी मानकों को ताक पर रखा जाता रहा है जो खतरों पर नियंत्रण रख पाते. विकास के ऐसे बुलडोजर ने संपन्न शहरी समाज के साथ यहाँ के संपन्न तबके को और अधिक संपत्ति और सुविधाएँ अधिकतर टूरिज्म पैकेज)आलीशान कारें,आलीशान बसें,आलीशान लॉजिंग, आलीशान जीवन स्तर तो प्रदान किया लेकिन आलीशान की सभी अतियों ने पहाड़ों के साथ-साथ यहाँ के भविष्य की नींव को जड़ों तक उखाड दिया है.इसके अलावा यात्रा पर सिर्फ संपन्न और शोषक वर्गों का कब्जा बढ़ा दिया है,जिन्हें शासक वर्गों का संरक्षण प्राप्त है.   
    


मदन मोहन चमोली वरिष्ठ पत्रकार हैं. 
इनसे संपर्क का पता m.m.chamoli@gmail.com है.

'भाग मिल्खा भाग' के बहाने

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अविनाश कुमार चंचल
-अविनाश कुमार चंचल

"...दरअसल बात यह भी है कि हमारे समाज में मिल्खा जैसों के लिए काफी इज्जत, सम्मान तो है लेकिन ये सब सिर्फ एक जीते हुए सफल मिल्खाओं के लिए है- हारे या कोशिश कर रहे मिल्खाओं के हिस्से गुमनामी, संसाधन की कमी का रोना ही बंधा है।..."

रात 'भाग मिल्खा भाग' देख आया। बिहार में अपने एक साली खेल पत्रकारिता के अनुभव से यही जाना है कि इस देश में, देश के गांवों और सुदूर कस्बों-जिलों में न जाने कितने मिल्खा सिंह दौड़ रहे हैं, जिन्हें मंजिल नहीं मिलती।

बिहारके बेगूसराय की वो लड़की जिसे मैं जलपरी कहता हूं- बेबी कुमारी। एक मछुआरे परिवार में जन्मी बेबी तलाबों में तैरने का अभ्यास करके कॉमनवेल्थ गेम्स के क्वालिफाईंग तक पहुंची, सांई सेन्टर में ट्रेनिंग लिया। उसके परिवार वाले मछली पकड़ने जैसे सीमित आय वाले पेशे में हैं। नतीजा, बेबी को पैसे की वजह से अपनी ट्रेनिंग पूरी करने में मुश्किलें आ रही हैं।

बिहारमें ही मोकामा एक जगह है। बिल्कुल पिछड़ा और सुदूर दियारा क्षेत्र। वहां भी एक मुस्लिम परिवार की बच्चियां कबड्डी-हॉकी जैसे खेलों में लगातार राष्ट्रीय प्रतियोगिता जीत रही हैं वो भी बिना किसी ट्रेनिंग के। प्रशिक्षण गांव के मैदानों पर ही पा रही हैं। अब तो उनकी देखा-देखी आस-पास के गैर मुस्लिम परिवार के बच्चे भी उनके पास ट्रेनिंग के लिए आ रहे हैं। मोकामा बिहार की अपराधी छवि का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है और है। एक दम घोर सामंती समाज में कुछ मिल्खा भाग रही हैं लगातार अपनी मंजिल के लिए लेकिन इन मिल्खों को न तो कोई आर्मी मिली है और न ही लोकल मीडिया में कोई खबर ही। और अगर खबर आ भी जाती है तो उनकी मदद के लिए कोई हाथ नहीं उठता दिखता।

दरअसलबात यह भी है कि हमारे समाज में मिल्खा जैसों के लिए काफी इज्जत, सम्मान तो है लेकिन ये सब सिर्फ एक जीते हुए सफल मिल्खाओं के लिए है- हारे या कोशिश कर रहे मिल्खाओं के हिस्से गुमनामी, संसाधन की कमी का रोना ही बंधा है।

पटनामें एक लड़की है अनामिका- बैडमिंटन खिलाड़ी। मां पंचायत शिक्षक जो पांच हजार रुपये में अपना घर चलाती हैं। अनामिका भी कई बार बिहार की तरफ से खेल चुकी है लेकिन सच बात यह है कि उसके पास न तो सही ट्रैक सूट है और न ही ढंग का रैकेट। कई बार पैसे के अभाव में टूर्नामेंट में भाग नहीं ले पाती। तो दूसरी ओर उस शास्त्री नगर गर्ल्स हाईस्कूल की लड़कियां भी हैं जो बिना घास के मैदान पर खेलती हैं और राष्ट्रीय मुकाबलों में टर्फ मैदान होने की वजह से हार जाती हैं।

कमोबेशयही हाल फुटबॉल का भी है। जहां जिलों-कस्बों के मिल्खाओं के पास ढंग के जूते नहीं होते कि वो राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में शामिल हो पाएं।

सरकारी आयोजन रस्म आदयगी भर

बिहारमें एक साल के खेल पत्रकारिता के दौरान देखा कि ज्यादातर सरकारी आयोजन मसलन, प्रमंडल गेम्स, स्टेट गेम्स के नाम पर सिर्फ और सिर्फ पैसे का बंदरबांट होता रहता है। किसी-किसी खेल में तो सभी जिलों से टीमें भी नहीं आ पाती। अगर कोई भूले-भटके आ भी जाता है तो उसे किसी तरह खेल-खिला कर वापिस कर दिया जाता है। ज्यादातर संघों में राज्य स्तरीय टीमों के लिए नाती-पोते-दोस्त-रिश्तेदार जैसे पैरवी ही काम आते हैं। बिहार सरकार ने भागलपुर में एक एकलव्य केन्द्र खोली है- खिलाड़ियों के प्रशिक्षण के लिए। लगभग एक साल तक इसमें ट्रेनिंग दे रहे प्रशिक्षकों को वेतन तक नहीं दिया जा सका था।

असुरक्षा की भावना में कैसे दौड़े मिल्खा

कुछदिन पहले एक राष्ट्रीय स्तर की महिला खिलाड़ी को ट्रेन से धक्का दे दिया गया था। उसकी टांगे कट गई। आज सच्चाई यह है कि वो कहां है, किस हाल में है किसी को कुछ पता नहीं। ऐसे ही मेरे पटना में खेल रिपोर्टिंग के दौरान रोजाना ऐसे लोगों से सामाना होता रहा जिन्होंने अपना सबकुछ दांव पर लगा सिर्फ खेल को खेला। खेल में भागते इन मिल्खाओं में कई चाय की दुकान या फिर साईकिल पंक्चर बनाने की दुकान पर काम करते भी दिखे।

एकतरफ ओलंपिक से लेकर एशियाड तक भारत को पदक न मिलने का रोना आम जनता भी रोती है और मीडिया-सरकारें भी। लेकिन सच्चाई है कि हम अपने मिल्खाओं को अभी तक यह दिलासा दिलाने में सफल न हो पाएं हैं कि- तू सिर्फ भाग मिल्खा..भाग ..बांकि तेरी सारी परेशानियों को हम देख लेंगे..हमारी सराकारें देख लेंगी। शायद इसलिए भी जब फिल्म भाग मिल्खा भाग में खुद भारत के प्रधानमंत्री मिल्खा को प्यार से समझाते और दिलासा देते नजर आते हैं तो मन को अच्छा लगता है- काश, वर्तमान सरकारें भी अपने पूर्व प्रधानमंत्री की परंपरा को निभाते और देश के तमाम मिल्खाओं से कहते- भाग मिल्खा भाग!

अविनाश युवा पत्रकार हैं. पत्रकारिता की पढ़ाई आईआईएमसी से. 
अभी स्वतंत्र लेखन. इनसे संपर्क का पता- avinashk48@gmail.com है.
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