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कितना ‘दोषपूर्ण’ अपना लोकतंत्र?

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...ऐसे में ईआईयू जैसी इकाई का लोकतंत्र का सूचकांक एवं श्रेणी तैयार करना एक विडंबना ही है। इसे सहजता से नजरअंदाज कर दिया जाता, अगर इस परिघटना के अन्य पक्ष नहीं होते। लेकिन लोकतंत्र एवं शासन-व्यवस्था से संबंधित मसलों पर ऐसे सूचकांक, श्रेणियां और अनुसंधान रिपोर्ट तैयार करने का सिलसिला इतना व्यापक हो चुका है कि उसे बिना चुनौती दिए नजरअंदाज करना उसमें निहित खतरों से आंख चुराना साबित हो सकता है।..."


क्यामनोगत मानदंडों के आधार पर तैयार सूचकांकों से विभिन्न समाजों एवं उनकी समस्याओं को समझा जा सकता है? मसलन, पारदर्शिता और लोकतंत्र ऐसे प्रश्न हैं जिन पर अनेक, बल्कि परस्पर विरोधी समझ भी हो सकती है। उन्हें संबंधित समाजों के विशेष संदर्भों से अलग करके देखना तार्किक और वांछित नहीं हो सकता। इसलिए ये सवाल अहम है कि क्या ऐसे मुद्दों पर देश और काल से निरपेक्ष सूचकांक (इंडेक्स) बनाए जा सकते हैं? ऐसे  सूचकांकों पर आधारित विभिन्न देशों की सूची को आखिर कितना महत्त्व दिया जाना चाहिए?

  
प्रसांगिक मुद्दा इकॉनोमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (ईआईयू) का लोकतंत्र सूचकांक-2012 है। ईआईयू ने सर्वप्रथम 2006 में इस सूचकांक पर आधारित देशों की सूची जारी की थी। तब भारत उसमें 35वें नंबर पर था। 167 देशों की ताजा लिस्ट में वह गिर कर 38वें नंबर पर पहुंच गया है। इसके पहले की बात आगे बढ़ाएं, ईआईयू के बारे में थोड़ी जानकारी यहां रख लेना उचित होगा। इस इकाई का संबंध ब्रिटिश पत्रिका द इकॉनोमिस्ट से है। उसकी वेबसाइट पर कहा गया है कि उसका काम देशों, उद्योग एवं प्रबंधन के लिए विश्लेषण प्रस्तुत करना है। ये इकाई बड़ी कंपनियों के लिए किसी खास बाजार या कारोबार क्षेत्र का अध्ययन करती और उनकी जरूरत के मुताबिक आंकड़े उपलब्ध कराती है। इकॉनोमिस्ट पत्रिका घोषित रूप से बहुराष्ट्रीय पूंजी की समर्थक है। स्वाभाविक रूप से वह अनियंत्रित बाजार व्यवस्था एवं अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की समर्थक है। ये संस्थान आज दुनिया भर में- खासकर यूरोप में किफायत की नीतियों को थोपने के क्रम में लोकतंत्र को नियंत्रित करने का जरिया बने हुए हैं। ग्रीस, इटली, स्पेन से लेकर साइप्रस आदि इसके उदाहरण हैं, जहां कई बार यह प्रवृत्ति क्रूर रूप में भी दिखी है। बाकी जगहों पर भी लोकतांत्रिक जनभावना के साथ इसका अंतर्विरोध बढ़ता गया है।

ऐसेमें ईआईयू जैसी इकाई का लोकतंत्र का सूचकांक एवं श्रेणी तैयार करना एक विडंबना ही है। इसे सहजता से नजरअंदाज कर दिया जाता, अगर इस परिघटना के अन्य पक्ष नहीं होते। लेकिन लोकतंत्र एवं शासन-व्यवस्था से संबंधित मसलों पर ऐसे सूचकांक, श्रेणियां और अनुसंधान रिपोर्ट तैयार करने का सिलसिला इतना व्यापक हो चुका है कि उसे बिना चुनौती दिए नजरअंदाज करना उसमें निहित खतरों से आंख चुराना साबित हो सकता है। 

मसलन,अपने देश में अक्सर ऐसी रपटें मीडिया में खूब सनसनी पैदा करती हैं कि कितने जन- प्रतिनिधि आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, कितने करोड़पति हैं और राजनीतिक दलों के खातों में पारदर्शिता की कितनी कमी है। मगर इस तरफ शायद ही कभी ध्यान दिया जाता है कि ऐसी रिपोर्टों को तैयार करने वाले संगठनों के वित्तीय स्रोत कहां हैं? नव-उदारवादी विदेशी दाताओं और बड़े देशी पूंजीपतियों के न्यासों से प्राप्त धन से संचालित इन संगठनों की वर्ग दृष्टि और उद्देश्यों पर कभी खुल कर चर्चा नहीं होती। उन संगठनों का मकसद लोकतंत्र को अंतिम व्यक्ति का हथियार बनाना है या समाज के उत्तरोत्तर लोकंत्रीकरण को अवरुद्ध करना- यह प्रश्न अनुत्तिरत रह जाता है। इस बीच वर्ग-विभाजित समाज के यथार्थ से कटा विमर्श लोकतंत्र के विकासक्रम की अवस्थाओं को सामने लाने के बजाय समाज की प्रगतिशील धाराओं को बदनाम करने का माध्यम बन जाता है।         

येकहने का यह कतई मतलब नहीं है कि भारतीय लोकतंत्र में कोई कमी या खामी नहीं है। मगर हर खामी को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए। इस बिंदु पर यह सवाल अहम हो जाता है कि लोकतंत्र कोई स्थूल ढांचा है या एक प्रक्रिया है? क्या यह ऐसा ढांचा है जो हर समाज में समान रूप से लागू हो सकता है? उपनिवेश बने और उपनिवेश बनाने वाले देशों के इतिहास में फर्क को बिना ध्यान में रखे क्या उनकी आंतरिक व्यवस्थाओं के बीच तुलना हो सकती है? चूंकि ईआईयू का डेमोक्रेसी इंडेक्स इन सवालों के जवाब नहीं देता, इसलिए उसका भारत को “दोषपूर्ण लोकतंत्र” बताना आपत्तिजनक है। 

ईआईयूके मुताबिक चुनाव प्रक्रिया एवं बहुलवाद, सरकार के कामकाज के ढर्रे, राजनीतिक व्यवस्था में जन भागीदारी, राजनीतिक संस्कृति, और नागरिक स्वतंत्रताओं की स्थिति को आधार बना कर यह इंडेक्स तैयार किया गया है। विभिन्न देशों को मिले अंकों के आधार पर उनकी चार श्रेणियां बनाई गई हैं। इस तरह पूर्ण लोकतंत्र, दोषपूर्ण लोकतंत्र, संकर लोकतंत्र और तानाशाही व्यवस्था की श्रेणियां सामने आई हैं। चूंकि भारत को पूर्णांक 10 में से 7.52 अंक मिले हैं, इसलिए वह दोषपूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी में आया है। 53 और देश इस श्रेणी में हैं। आठ या उससे ज्यादा अंक पाने वाले 25 देश पूर्ण लोकतंत्र होने का सम्मान पा सके हैं, जिनमें नॉर्वे 9.93 अंकों के साथ अव्वल है।

ईआईयूसे यह विनम्र प्रश्न हो सकता है कि लोकतंत्र सिर्फ एक व्यवस्था है या इसके कुछ उसूल भी हैं? अगर उसूल हैं तो अंतरराष्ट्रीय मामलों में ताकत का जोर चलाने वाले या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अलोकतांत्रिक ढांचे के आधार पर विश्व जनमत के बहुमत की अक्सर अनदेखी करने वाले देशों को पूर्ण लोकतंत्र कैसे कहा जा सकता है? बहरहाल, अगर दूसरे देशों का लोकतंत्र भी दोषपूर्ण हो, तो उससे हमें अपनी व्यवस्था को सही ठहराने का तर्क नहीं मिलता। लेकिन भारत में कभी किसी समझदार व्यक्ति या समूह ने यह दावा नहीं किया कि हमारा लोकतंत्र पूर्ण है। बल्कि इसके मूल स्वरूप और इसकी समस्याओं के प्रति तो सबसे पहले आगाह उसी शख्स ने कर दिया था, जिसकी भारत के आधुनिक धर्मनिरपेक्ष गणराज्यीय संविधान को बनाने में सबसे बड़ी भूमिका थी। 

भारतीय संविधान सभा के समापन सत्र में दिए अपने ऐतिहासिक भाषण में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने कहा था- 26 जनवरी 1950 को हम एक अंतर्विरोधी जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। हमारी राजनीति में समानता होगी और हमारे सामाजिक व आर्थिक जीवन में असमानता। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और हर वोट का समान मूल्य के सिद्धांत पर चल रहे होंगे। परंतु अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में अपने सामाजिक एवं आर्थिक ढांचे के कारण हम हर व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकार रहे होंगे। इस विरोधाभासी जीवन को हम कब तक जीते रहेंगेकब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगेयदि हम इसे नकारना जारी रखते हैं तो हम केवल अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डाल रहे होंगे।

हमआज भी यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि उन अंतर्विरोधों को हमने खत्म कर दिया है, जिनका उल्लेख डॉ. अंबेडकर ने किया था। लेकिन लोकतंत्र की प्रक्रिया ने उन सपनों को जिंदा रखा है। चुनावी राजनीति में बढ़ती जन भागीदारी, सामाजिक रूढि़यों के खिलाफ बढ़ती जन चेतना और नागरिक या संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता के प्रसार ने यह आशा जीवित रखी है कि निरंकुश सामाजिक एवं आर्थिक ढांचे को सामूहिक जन-शक्ति चेतना से नियंत्रित किया जा सकेगा। इतिहास के इस बिंदु पर भारत में लोकतंत्र का यही अर्थ और यही प्रासंगिकता है। यह दोषपूर्ण या अधूरा है, यह कहने में तब तक कोई आपत्ति नहीं हो सकती, जब तक ऐसा आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य के उदय एवं लोकतंत्र के ऐतिहासिक संदर्भों को ध्यान में रखते हुए किया जाए। लेकिन ऐसा जब अभिजात्यवादी दृष्टि से कहा जाता है, तो वैसे विचारों और उनमें अंतर्निहित मंशाओं को चुनौती देना आवश्यक हो जाता है।
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सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

मुलायम का आग से खिलवाड़?

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...सपा के साल भर के शासनकाल में उत्तर प्रदेश में संप्रदायिक दंगों का दौर लौटता दिखा है। आम मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक बेहतरी के कोई कदम उठाए गए, कहना कठिन है। इससे मुसलमानों में नाराजगी के संकेत मिले हैं। तो अब आजम खान की इज्जत को जज्बाती सवाल बना कर सपा की कोशिश मुस्लिम समुदाय के गुस्से को अमेरिका और प्रकारांतर में कांग्रेस की तरफ मोड़ने की है ताकि वो अपना वोट बैंक बचा सके।..."


क्यामुलायम सिंह यादव आग से खेल रहे हैं? उनकी समाजवादी पार्टी हाल में जिस तरह की भड़काऊ राजनीति करती नजर आई है, उससे ये सवाल खड़ा होता है। भावनाओं को भड़काना मुलायम सिंह की कार्यशैली में कोई नई बात नहीं है। ऐसे ही तौर-तरीकों से 1990 के दशक में वे खुद को मुसलमानों के संरक्षक के रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुए थे, हालांकि तब संघ परिवार के उग्र मंदिर आंदोलन ने भी इसमें बड़ा योगदान किया था। बहरहाल, इस बार वे एक साथ प्रतिस्पर्धी जज्बातों को छेड़ते दिख रहे हैं। इसमें वे कामयाब होंगे या नहीं- कहना कठिन है (हालांकि ऐसे जोखिम भरे खेल में अधिक संभावना नाकामी की ही रहती है)। लेकिन खतरा यह है कि इस सियासत की कुछ चिंगारियां उत्तर प्रदेश के सामाजिक ताने-बाने को क्षतिग्रस्त कर सकती हैं।

सपाका ताजा मुद्दा अमेरिका में उत्तर प्रदेश के मंत्री आजम खान का हुआ कथित अपमान है। अगर उचित संदर्भ में देखें तो बोस्टन हवाई अड्डे पर जांच के क्रम में आजम खान को दस मिनट तक ज्यादा रोकना सीमित रूप में आपत्तिजनक हो सकता है, लेकिन सपा ने जैसा ड्रामा खड़ा किया है, उसके लिए सटीक कथानक के तत्व उसमें मौजूद नहीं हैं। आजम खान में वीआईपी होने का गुरुर कूट-कूट कर भरा हैइसका इजहार तो वे अतीत में भी करते रहे हैं। पिछले दिसंबर में उन पर एक रेल कर्मचारी से गाली-गलौच और मारपीट करने का आरोप लगा था। शिकायत यह थी कि पंजाब मेल में दी गई चादर उन्हें साफ-सुथरी नहीं लगी। ऐसे में अमेरिका में बोस्टन हवाई अड्डे पर सुरक्षाकर्मी ने द्वितीयक (सेकंडरी) जांच के क्रम में उनसे दस मिनट अधिक पूछताछ की तो उससे उनका अहं चोटिल हो गया तो यह असमान्य नहीं है। लेकिन इस पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की प्रतिक्रिया जरूर अवांछित है। अखिलेश यादव और आजम खान कुंभ मेले के सफल आयोजन पर हारवर्ड में व्याख्यान देने गए थे। लेकिन हवाई अ्डडे की घटना के बाद उन्होंने वहां जाने से इनकार कर दिया। यहां तक कि विरोध जताने के लिए अखिलेश यादव ने न्यूयॉर्क में भारतीय महावाणिज्य दूत द्वारा दिए गए भोज का भी बहिष्कार कर दिया।    

इधरउत्तर प्रदेश में सपा समर्थक अमेरिका को मुस्लिम विरोधी एवं नस्लवादी बताते हुए सड़कों पर उतर आए हैं। कहा जा सकता है कि आजम खान के अहंकार को मुस्लिम समुदाय के आत्म-सम्मान के साथ जोड़ कर सपा मुस्लिम समुदाय की भावनाओं को भड़काने में जुट गई है। असली कोशिश इस घटना को सियासी मुद्दा बनाकर कांग्रेस नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को घेरने की है। सपा प्रवक्ता ने कहा कि यूपीए सरकार की कमजोरी के कारण भारत एवं भारतीयों की इज्जत पर बट्टा लगा है। सपा के साल भर के शासनकाल में उत्तर प्रदेश में संप्रदायिक दंगों का दौर लौटता दिखा है। आम मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक बेहतरी के कोई कदम उठाए गए, कहना कठिन है। इससे मुसलमानों में नाराजगी के संकेत मिले हैं। तो अब आजम खान की इज्जत को जज्बाती सवाल बना कर सपा की कोशिश मुस्लिम समुदाय के गुस्से को अमेरिका और प्रकारांतर में कांग्रेस की तरफ मोड़ने की है ताकि वो अपना वोट बैंक बचा सके।

मुस्लिमसमाज- बल्कि लगभग तमाम सियासी हलकों में हैरत मुलायम सिंह में कुछ समय पहले अचानक जगे आडवाणी प्रेम से भी हुई है। वरिष्ठ भाजपा नेता की मुक्त कंठ से तारीफ कर उन्होंने जो संकेत दिए उसका एक परिणाम प्रदेश भाजपा की चित्रकूट बैठक में आडवाणी द्वारा डॉ. राम मनोहर लोहिया की उतनी ही रहस्यमय और खुलेआम प्रशंसा के रूप में सामने आया। हालांकि इसके आधार पर किसी उभरते राजनीतिक समीकरण का अनुमान लगाना जल्दबाजी हो सकती है, मगर इससे यह अंदाजा तो जरूर लगा कि मुलायम सिंह सवर्ण एवं भाजपा समर्थक तबकों में अपनी स्वीकार्यता बनाने की कोशिश में हैं। कोई सत्ताधारी पार्टी अपने कार्यों से समाज के विभिन्न- यहां तक कि प्रतिस्पर्धी तबकों में भी सद्भाव पैदा कर सकती है। मगर लगभग तमाम मोर्चों पर नाकाम दिखती एक सरकार के संरक्षक नेता जब प्रतिस्पर्धी सामाजिक समूहों की भावनाओं को उकेरने में जुटें तो उससे कैसी बेतुकी बातें सामने आ सकती हैं, यह गौरतलब है।

सीधेजातियों को गोलबंद करने की रणनीति पर पहले खुलेआम सिर्फ मायावती चलती थीं। लेकिन अब सपा उनका अनुकरण कर रही है। लखनऊ में उसने प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन के नाम ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश की। ब्राह्मणों के प्रशस्ति गान में मुलायम सिंह ये कहने की हद तक चले गए कि मंगल पांडे ने समाजवाद को आगे बढ़ाया! 1857 के इस स्वतंत्रता सेनानी के सम्मान में और उनके ऐतिहासिक योगदान पर लंबी चर्चा हो सकती है। मगर वे समाजवाद की विचारधारा से प्रेरित थे, यह राज़ तो नेताजी के पहले शायद ही किसी को मालूम हुआ हो! 1848 में काल मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिख लिया था, लेकिन उसकी कॉपियां मंगल पांडे तक पहुंच गई थीं- अगर इसकी पुष्टि मुलायम सिंह कर दें तो इतिहास लेखकों की वे बड़ी सेवा करेंगे!       

आजमखान के साथ हुई घटना के क्रम में यह बात महत्त्वपूर्ण है कि सामंती अवशेषों वाले भारतीय समाज में सत्ता और धन के साथ विशेषाधिकार की परंपरा बनी हुई है। उसमें जीने वाले लोग यह मान कर चलते हैं कि हर जगह उनके साथ विशेष व्यवहार किया जाएगा। लेकिन दुनिया में हर जगह यह विशेषाधिकार मिले ये अपेक्षा अवास्तविक है। इसके आधार पर राजनीति चमकाने की कोशिश सामंतवादी मानसिकता को बल प्रदान करती है। आखिर सपा ने कभी अमेरिका जाने वाले आम भारतीयों के साथ होने वाले व्यवहार के आधार पर ऐसा मुद्दा नहीं उठाया। बहरहाल, सपा से ऐसी अपेक्षाएं ऐसे लोग भी बहुत पहले छोड़ चुके हैं जो खुद को लोहियावाद की परंपरा से जोड़ कर देखते हैं। अपने पिछले शासनकाल में पूंजीपतियों और फिल्म सितारों को साथ लेकर क्रोनी कैपिटलिज्म का जो मुजाहिरा सपा ने किया, वह भूला नहीं है। अब वह खुलेआम सामंती और सांप्रदायिक जज्बातों को अपनी प्रशासनिक विफलता को ढकने का जरिया बना रही है तो यह उस रास्ते की एक स्वाभाविक परिणति हो सकती है। लेकिन यह आग से खेलना है, जिसके संभावित परिणाम हमें जरूर परेशान करते हैं।
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सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

ईको-सेंसटिव जोन का जिन्न

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Indresh Maikhuri
इन्द्रेश मैखुरी
- इन्द्रेश मैखुरी

"...हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और उच्चतम न्यायालय के वकील मुख्यमंत्री के राज में यह आलम है कि राज्य से जुड़े एक बेहद संवेदनशील मसले पर भारत सरकार ने राजाज्ञा जारी कर दी,पर मुख्यमंत्री और उनके प्रशासनिक मातहतों को कानों-कान खबर तक नहीं हुई.यह हालत तब है जबकि केंद्र और राज्य दोनों ही जगह कांग्रेस की सरकार है और मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा उत्तराखंड से ज्यादा दिल्ली में केन्द्रीय मंत्रियों को फूलों का गुलदस्ता भेंट करते हुए, फोटो खिंचवाते अक्सरहां देखे जा सकते हैं..."


त्तराखंड में इको-सेंसिटिव जोन का जिन्न फिर बोतल से बाहर आ गया है.इस जिन्न के बोतल से बाहर आने से उत्तराखंड में एक राजनीतिक प्रहसन पैदा हो गया,जिसमें मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और उनका समूचा प्रशासनिक अमला खिसियाहट भरी मुद्रा में नजर आ रहा है.बीते दिनों समाचार पत्रों में खबर आई कि उत्तरकाशी जिले में गंगोत्री से लेकर उत्तरकाशी तक लगभग सौ किलोमीटर का इलाका केंद्र सरकार द्वारा इको सेंसीटिव जोन घोषित कर दिया गया है. मुख्यमंत्री,मुख्य सचिव,वन सचिव सभी ने इस निर्णय पर अनिभिज्ञता जताई. लेकिन अगले ही दिन यह खुलासा हुआ कि गंगोत्री से उत्तरकाशी तक इको सेंसीटिव जोन घोषित करने का फैसला तो केन्द्र सरकार बीते वर्ष ही ले चुकी है और 18 दिसंबर 2012को इसका गजट भी भारत सरकार द्वारा प्रकाशित कर दिया गया है. हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और उच्चतम न्यायालय के वकील मुख्यमंत्री के राज में यह आलम है कि राज्य से जुड़े एक बेहद संवेदनशील मसले पर भारत सरकार ने राजाज्ञा जारी कर दी,पर मुख्यमंत्री और उनके प्रशासनिक मातहतों को कानों-कान खबर तक नहीं हुई.यह हालत तब है जबकि केंद्र और राज्य दोनों ही जगह कांग्रेस की सरकार है और मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा उत्तराखंड से ज्यादा दिल्ली में केन्द्रीय मंत्रियों को फूलों का गुलदस्ता भेंट करते हुए, फोटो खिंचवाते अक्सरहां देखे जा सकते हैं.
उत्तराखंडपर इस इको सेंसिटिव जोन के प्रभाव की बात करने से पहले यह समझ लिया जाए कि यह जिन्न दरअसल आया कहाँ से. 21 जनवरी 2002को भारतीय वन्य जीव बोर्ड की इक्कीसवीं बैठक में “वन्यजीव संरक्षण रणनीति-2002” गृहीत की गयी.इसी दस्तावेज के बिंदु संख्या नौ में राष्ट्रीय पार्क और वन्य जीव अभ्यारण्यों की सीमा से लगे दस किलोमीटर क्षेत्रो को पर्यावरण(संरक्षण) अधिनियम, 1986, के तहत पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र(इको फ्रेजाइल जोन) घोषित करने का प्रस्ताव पास किया गया.यह बैठक तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में हुई.इसलिए जब उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी सदा से इस इको सेंसिटिव जोन का विरोधी होने का दावा करती है तो यह सिर्फ एक  राजनीतिक स्टंट ही है. हिमाचल प्रदेश,गोवा और राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने इस दस किलोमीटर की सीमा पर आपत्ति जताई. राष्ट्रीय वन्यजीव एक्शन प्लान (2002-2016) में भी इको फ्रेजाइल जोन की वकालत की गयी. इको सेंसिटिव ज़ोन घोषित करवाने के लिए गोवा फाउन्डेशन नामक एन.जी.ओ. उच्चतम न्यायलय चला गया. 04 दिसम्बर 2006के अपने फैसले में उच्चतम न्यायलय ने इको सेंसिटिव जोन घोषित किये जाने पर मोहर लगा दी. 2010 में ओखला पक्षी विहार के निकट नॉएडा में बन रहे पार्क के मामले में उच्चतम न्यायालय ने नोट किया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने संरक्षित क्षेत्रों के निकट इको सेंसिटिव जोन नहीं घोषित किये क्यूंकि केंद्र सरकार द्वारा इस सन्दर्भ में दिशा-निर्देश जारी नहीं किये गए थे.तत्पश्चात केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा इको-सेंसिटिव जोन के मानक तय करने के लिए प्रोनब सेन की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गयी.देश भर में बनाये जा रहे इको-सेंसिटिव जोन इसी कमेटी द्वारा तय मानकों के अनुसार बनाये जा रहे हैं.  
पूरेदेश की ही तरह उत्तराखंड में भी पारिस्थितिकी और जैव विविधता को बचाने के नाम पर तमाम राष्ट्रीय पार्कों और वन्यजीव अभ्यारण्यों के दस किलोमीटर के क्षेत्र को पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र यानि इको सेंसीटिव जोन बनाया जाना है. उत्तराखंड में पैंसठ प्रतिशत वन भूमि है और राष्ट्रीय पार्क और वन्यजीव अभ्यारण्यों का जाल भी लगभग पूरे राज्य में फैला हुआ है. इस तरह उत्तराखंड का अधिकाँश हिस्सा इको सेंसिटिव जोन के दायरे में आएगा. इसलिए इको सेंसिटिव ज़ोन घोषित होने की चर्चा होते ही विभिन्न स्थानों पर इसका विरोध शुरू हुआ. लोगों में यह आशंका घर कर गयी कि पहले ही राष्ट्रीय पार्क और वन्यजीव अभ्यारण्य उनका जीना मुश्किल किये हुए हैं और उस पर इको सेंसिटिव ज़ोन तो उनका जीना लगभग नामुमकिन कर देगा.
उत्तराखंडके निवासियों की यह आशंका निर्मूल भी नहीं है. इको-सेंसिटिव जोन के सन्दर्भ में केंद्र सरकार द्वारा घोषित दिशा-निर्देशों को देखें तो समझ में आता है कि इन इको सेंसिटिव ज़ोन के निवासियों का जीवन क्या करें और क्या ना करें की लंबी चौड़ी फेरहिस्त के मकड़  जाल में उलझ कर रह जाने वाला है. इको सेंसिटिव ज़ोन के लिए दो साल के भीतर एक आंचलिक महायोजना तैयार होनी है,जिसमें लगभग सभी सरकारी विभागों को रखा गया है. जनता की हिस्सेदारी का भरोसा दिलाते हुए कहा गया है कि “आंचलिक महायोजना स्थानीय जनता विशेषकर महिलाओं के परामर्श” से बनायी जायेगी. लेकिन अगर हमारी सरकार,गंगोत्री-उत्तरकाशी इको सेंसिटिव जोन घोषित होने के गजट नोटिफिकेशन के मामले में जैसे सोयी रही तो क्या होगा?या फिर इको सेंसिटिव ज़ोन की आंचलिक महायोजना की स्वीकृति पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से जब तक प्राप्त नहीं होगी, तब तक क्या होगा?इसका जवाब गंगोत्री-उत्तरकाशी इको-सेंसिटिव ज़ोन के राजपत्र(गजट) के बिंदु संख्या नौ में है, जो कहता है कि आंचलिक महायोजना ना बनने और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय तक सारे नए निर्माण और विकास कार्यों के प्रस्ताव भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को संदर्भित किये जायेंगे. दो साल महायोजना बनने में लगेंगे और फिर उसके अनुमोदन में कितना समय लगेगा,कहा नहीं जा सकता.तो इस अवधि में आम आदमी को मकान भी बनाना होगा तो पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की कृपा होना जरुरी है. सरकारी दफतरों से जिनका पाला पड़ा है,वे भली जानते हैं कि ऐसी कृपा बरसना कितना दुष्कर कार्य होगा. जैव विवधता और हरियाली बढे ना बढे,आम आदमी के लालफीतों में बंधे रहने का मुकम्मल इंतजाम है,यह.
यदिस्थानीय जनसँख्या बढ़ जाए और उसकी आवासीय जरूरतों को पूरा करना आवश्यक  हो तो,कृषि भूमि के अत्यधिक सीमित परिवर्तन के लिए भी राज्य सरकार का अनुमोदन चाहिए होगा और तत्पश्चात इस अनुमोदन पर केन्द्र की स्वीकृति की मोहर के बाद ही स्थानीय निवसियों की बढ़ी जनसँख्या को छत नसीब हो सकेगी.
पहले ही उत्तराखंड में सड़क निर्माण, वन अधिनियम के चलते केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में बरसों-बरस लटका रहता था,इस इको सेंसिटिव ज़ोन के बाद यह और भी दुष्कर हो जाएगा.
गंगोत्री-उत्तरकाशी इको ज़ोन के गजट को देख कर साफ़ समझ में आता है कि इको सेंसिटिव ज़ोन के क्षेत्र में रहने वाले मनुष्यों से लेकर सड़क,झरने,पहाड़ी ढलान से लेकर पर्यटन तक के लिए नियमों का पुलिंदा तैयार किया जाएगा और सब कुछ किसी ना किसी नियम से बंधा होगा.इससे यह प्रश्न सहज ही दिमाग में उठता है कि जिन इको सेंसिटिव जोनों का घोषित उद्देश्य जैव विविधता और वन्य जीवों के निर्बाध विचरण में आने वाली बाधाओं को दूर करना है,उन इको सेंसिटिव जोनों में जब हर चीज नियमों के मकडजाल में बंधी है तो यह निर्बाधता कैसे कायम हो सकेगी?
उत्तरकाशीके गजट नोटिफिकेशन में तो राष्ट्रीय पार्क या अभयारण्य के दस किलोमीटर के दायरे को इको सेंसिटिव जोन घोषित किये जाने के नियम को ध्यान में ना रखते हुए गंगोत्री से उत्तरकाशी तक,सौ किलोमीटर के क्षेत्र को इको सेंसिटिव जोन घोषित कर दिया गया है.गजट में ऐसा करने के पीछे तर्क दिया गया है कि “भागीरथी नदी प्रवासी प्रजातियों सहित जलीय वनस्पति और जीव जंतुओं से समृद्ध है” तथा जलविद्युत परियोजना निर्माण से उनपर विपरीत प्रभाव पड सकता है.जल विद्युत परियोजनाओं से होने वाले पर्यावरणीय नुक्सान की वाजिब चिंता के बावजूद इको सेंसिटिव जोन बनाने वाले इस तथ्य को नजरअंदाज कर गए कि जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ आम जनता के आक्रोश का कारण तो अपने संसाधनों से महरूम किया जाना था.इस मामले में जलविद्युत परियोजनाएं और इको सेंसिटिव जोन एक ही पाले में खड़े नजर आते हैं.
कुछबड़े अजीबो-गरीब प्रावधान भी इको-सेंसिटिव जोन के लिए जारी केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों और गंगोत्री-उत्तरकाशी इको-सेंसिटिव जोन के गजट में मौजूद है.जैसे गजट के खंड 3 के धारा(ख) में इको सेंसिटिव जोन में विनियमित यानि रेगुलेट किये जाने वाले क्रियाकलापों की सूची में चीड़ के वृक्षों का रोपण भी है.इको सेंसिटिव जोन में चीड़ रोपने पर प्रतिबन्ध लगाने के बजाय उसे विनियमित करने की बात की गयी है,जबकि चीड़ तो स्वयं जैव विविधता का बड़ा दुश्मन है.चीड़ की पत्तियों में पायिनिक एसिड होता है.जब ये नुकीली पत्तियों जमीन पर गिरती हैं तो जमीन भी अम्लीय हो जाती है.चीड अपने आसपास अन्य प्रजाति के वृक्षों को नहीं पनपने देता.जंगल की आग को फ़ैलाने में यह बेहद सहायक होता है.यह मृदा क्षरण को भी बढाता है.तब प्रश्न यह है कि पर्यावरण की बेहतरी के लिए बनने वाले इन इको सेंसिटिव जोन में चीड रोपना जरी रख कर,पर्यावरण का कौन सा हित भारत सरकार करना चाहती है?जाहिर है कि चीड के व्यावसायिक दोहन को बरक़रार रखने के लिए इस खतरनाक पेड के रोपे जाने को जारी रखने का विशेष प्रावधान किया गया है.
एकऔर बात जो इको सेंसिटिव ज़ोन के प्रति संदेह पैदा करती है, वो यह कि जैव विविधता और पर्यावरण के नाम पर आम आदमी के लिए ढेरों बाधाएं खडी करने वाले इको सेंसिटिव जोनो में होटल और रिसोर्ट बनाये जा सकेंगे. बस एक पुछल्ला यह जोड़ा गया है कि ये अनुमोदित महायोजना के अनुसार होने चाहिए और इनके द्वारा वन्य प्राणियों के विचरण में कोई बाधा नहीं पैदा की जानी चाहिए.सरल बुद्धि से भी सोचा जाए तो भी यह समझ में आता है कि होटल या रिजार्ट जैसे व्यावसायिक उपक्रम पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील बताये जा रहे इन क्षेत्रों के लिए शुभकारी तो नहीं होंगे.लेकिन क्या कारण है कि सरकार और इन इको सेंसिटिव जोनो के निर्माण के लिए उतावले पर्यावरणविदों को इन होटल-रिजॉर्टों से,पर्यावरण को कोई नुक्सान नजर नहीं आता है?
दरअसलयही इस सारे मामले को समझने की कुंजी है.जिन जंगलों और उनकी जैव-विवधता को यहाँ के निवासियों ने बिना किसी सरकारी कृपा के सैकड़ों सालों से बचाए रखा,आज एकाएक उन्हें,जंगलों के लिए खतरा करार देकर,उनका जीवन दुष्कर करने की तैयारी है.जबकि पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में होटल-रिजार्ट बेखटके चलने देने में कोई परेशानी नीति -निर्माताओं को नहीं नजर आती.इसका सीधा अर्थ यह है कि लोगों को उनके जल-जंगल-जमीन से महरूम करने और इन क्षेत्रों को पूँजी के बड़े-बड़े पशुओं के बेखटके आखेट के लिए खुला छोड़ने के लिए यह इतना बड़ा अखिल भारतीय आडम्बर रचा जा रहा है,जिसकी मार उत्तराखंड पर बड़े पैमाने पर पड़ने जा रही है.       
नवउदारवादीनीतियों के दौर में सरकारों ने शब्दों के अर्थों को उजले आस्तीन के भीतर छुपा कर रखे गए सांप जैसा बना दिया है. जनहित के नाम पर पेश की जाने वाली नीतियों को,सरकार शब्दों को जितना अधिक चासनी में घोल कर पेश करती है,उनके मायने उतने ही अधिक मारक और विषबुझे होते हैं.जैसे विकास का मतलब है,जमीनों से उजाडा जाना,औद्योगिकीकरण का मतलब है नारकीय कार्य स्थिति में न्यूनतम मजदूरी के साथ अधिकतम काम,उसी तरह इको सेंसिटिव जोन का मतलब है सैकड़ों सालों से वनों में रह कर ,इन्हें बचाने वाले स्थानीय लोगों की जंगलों और इन से जुडी हर चीज से बेदखली.
इन्द्रेश भाकपा (माले) के सक्रिय कार्यकर्ता हैं. 
इनसे इंटरनेट पर indresh.aisa@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 
 
 

बॉम्बे टॉकीज और उठते-गिरते सिनेमा के सौ साल

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अंकित फ्रांसिस
-अंकित फ्रांसिस

"...अनुराग की कहानी ख़त्म होने पर फिल्म भी शायद ख़त्म हो जाती है और बॉलीवुड के सौ साल पर आधारित एक लम्बा, बोझिल और बेसिरपैर का गाना आपको दिखाई पड़ता है. आपको चार कहानियों को देखने के बाद जो अभी तक लग रहा होता है कि इन सौ सालों में बोलीवुड कहीं तो पंहुचा ही है, कुछ तो हासिल ही किया है, वह अचानक आपके भीतर से मिटने लगता है. फिर वही मायालोक और सरसों के खेत में खड़ा ज़रूरत से ज्यादा एक्सप्रेशन देता आशिक आपको ज़ोरदार थप्पड़ मारकर नींद से जगा देता है..." 

भारतीय सिनेमा या कहें तो बोलीवुड के बारे में बात करना, वैसे भी उस दौर में जबकि चारों तरफ उसके सौ साल का होकर वयस्क होने का (हिम्मतवाला बनाते हुए भी) शोर मचा हो..दिल्ली के सीरी फोर्ट में एक आयोजन संपन्न हुआ हो, जिसमें मायालोक और सपनों का संसार करार देकर उसकी हत्या करने की कोशिशें लगातार जारी हों तो ऐसे में मेरे लिए यह दुविधाओं से गुजरने जैसा हो जाता है...आखिरकार क्यूँ लिखा जाये और क्या लिखा जाये..?

क्यामैं लिखूं... कि एक लम्बे अरसे से इस मायालोक की औरत किस पिंजरे में बंद हैं? जहाँ उसका किसी की माँ, बहन, बेटी, बीवी, प्रेमिका, रखैल या पत्नी होना आज भी कितना ज़रूरी बना हुआ है..जहाँ वो इन किरदारों में शामिल नहीं है तो वो बेहया, वैम्प या बुरी औरत है. जहाँ कॉकटेल की दीपिका को आज भी किसी लड़के के प्रेम में साड़ी पहनने या पूजा करने को मजबूर होना ही है. या इसकी कहानियों पर बात की जाये जो दुहरावो की इतनी शिकार हैं की आप ज्यादातर फिल्मों का ट्रेलर देखकर उसकी कहानी का अंदाजा लगा लेते हैं (जावेद अख्तर भी इसे मानते रहे हैं). इसके नायक जो आज भी (कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो) राम और रामायण से आगे बढ़ने के लिए संघर्षरत हैं. यह नायक मानवीय भावनाओं को जीत चूका योगी है जो बस अपने सामंती चरित्र को नहीं त्याग पाया. किन फिल्मों की बात करें जिनमें सांवले या काले रंग की लड़कियों के लिए आज भी कोई ख़ास जगह नहीं है. उन फिल्मों की बात जहाँ आज भी हीरो का नाम किसी ऊंची जाति से ही न जाने क्यूँ ताल्लुक रखता है. यहाँ औरत होना असहाय होना (हाँ, दायरे के भीतर की आजादी है उसके हिस्से). और पुरुष होना कड़क, बहादुर, आशिक और मर्द होना है. वो दुनिया जहाँ मर्द को आज भी दर्द नहीं होता है. इस दुनिया में आज भी बच्चों की दुनिया शामिल ही नहीं है..वे खिलौने हैं..वे परदे पर आते हैं लेकिन किसी लॉन्ग शॉट में मौजूद परछाई की तरह...

चलिएमुद्दे पर आते हैं और बात करते हैं सौ साल के जश्न में आई फिल्म बोम्बे टाकीज पर. जोया अख्तर, दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप और करन जोहर ने इस फिल्म में चार कहानियां सामने रखी हैं (फिल्म के शुरू और अंत में जिस हैरेकी से डाइरेक्टर के नाम सामने आते हैं उसे ध्यान में रख इन्हें जान बूझकर इस तरह से रखा गया है). आपको करन का नाम अटपटा सा लग सकता है लेकिन इस फिल्म में करन का जो हिस्सा है वो मेरी देखी उनकी फिल्म मेकिंग का सबसे बेहतर पीस है. कहानी के इस हिस्से का नाम है ‘अजीब दास्ताँ है ये’. कहानी के पहले शॉट में एक युवक (शाकिब सलीम) धडधडाता हुआ अपने पिता के कमरे में घुसता है और अपने सोते हुए पिता को गिरेबान से पकड़कर उठाता है और कहता है की वह गे है छक्का नहीं है और गे हो या छक्का..कुछ भी होना बुरा नहीं है. करन की फिल्मों के बेटे ने शायद ही उनकी किसी पिछली फिल्म में ऐसा किया हो या आने वाली फिल्मों में ऐसा कर पाए. इसी कहानी में रानी मुखर्जी और रणदीप हुड्डा पति-पत्नी है. रणदीप न्यूज़ एंकर है और रानी एक अखबार के फिल्म सप्लीमेंट पर काम करती हैं. शाकिब रानी के ऑफिस में इंटर्न है और अपने पहले ही परिचय में अपने गे होने की घोषणा गर्व से करता है. कहानी रानी और रणदीप के रिश्ते की की सच्चाई सिर्फ बेड पर सोने और अलार्म बजने वाले सीन से बयां हो जाती है. कहानी के अंत से ज़रा पहले रणदीप के भी गे होने का पता चलता है. लेकिन करन का फिल्माया सबसे अच्छा शॉट रानी को सच्चाई पता चलने पर मेकअप उतारने वाला है. करन की फिल्मों में शायद ही कहीं आपको सच्चाई से रूबरू होने का ऐसा मेटाफर मिल पाए. रानी के एक्सप्रेशन आपका दिल खुश कर देते हैं.

दूसरीकहानी है दिबाकर बनर्जी की ‘स्टार’...कहानी दरअसल सत्यजीत रे की लघुकथा पर आधारित है. कहानी के पहले शॉट को देखकर ही आप दिबाकर को और पहले सीन को देखकर रे को महसूस कर सकते हैं. दिबाकर ने रे को निभाने के लिए जो मेहनत की है वह इस तीस मिनट की कहानी को एक एक्टर (हीरो और स्टारपुत्र नहीं) के लिए सीख और उम्मीद दोनों लेकर सामने आती है. कहानी में नवाज़ुद्दीन के पिता मराठी थियेटर एक्टर थे और वह उनके बीमार होने पर एक नाटक (नटसम्राट) में लीड रोल कर चूका है. उसकी मुंबई में किसी आम एक्टर जैसी ही हालत है. वह अपनी बेटी को फिल्मों की कहानियां सुनाया करता है लेकिन अब वे भी ख़तम हो गयी हैं. एक दिन वह सिक्युरिटी गार्ड का काम खोजने जाता है और उसे एक फिल्म में हीरो से धक्का खाने का एक सीन मिल जाता है. फिल्म में पिता का किरदार सदाशिव अमरापुरकर ने निभाया है. फिल्म का सबसे पॉलिटिकली बेहतर सीन नवाज़ और सदाशिव का ही है. जिसमें एक्टर, एक्टिंग, थियेटर सभी को लेकर दिबाकर की समझ और रे की दृष्टि मौजूद है. इसी सीन के अंत में सदाशिव एक डस्टबिन में खड़े हैं और और नवाज़ को पुकार कर कहते हैं, आजकल मैं यहीं रहता हूँ..अह्हा! थियेटर और खासकर लोककलाओं को साथ लेकर चलने वाले रीजनल थियेटर की मौजूदा हालत पर इससे बेहतर व्यंग्य शायद ही कोई कर पाए. दिबाकर ने फिल्म के आखिरी सीन को एक कविता की तरह रचा है. इसी सीन को देखकर आप नवाज़ुद्दीन को गले लगाकर थोडा रो लेना चाहते हैं. बाकि का काम दिबाकर के खिड़की से शहर में झांकते शॉट और फिल्म का अंतिम शॉट...जिसमें मुंबई की एक चाल में बेटी को कहानी सुनाता पिता, चाल को मुंह चिढाती एक लम्बी इमारत..एक फैक्ट्री की चिमनी..डूबता सा या शायद डूब चूका सूरज, रुका हुआ या शायद रुक रुक कर चलता हुआ समय... इन्हीं के साथ भीतर अटकता हुआ सा कुछ महसूस करते हैं..जीवन को महसूसते हैं.

तीसरीकहानी है जोया अख्तर की ‘शीला की जवानी’...फिल्म में एक बच्चा (नमन जैन) है जिसे आपने जान्घियाँ के रोल में ‘चिल्लर पार्टी’ में खिलखिलाते देखा है. इस कहानी में बारह साल का बच्चा कुछ ‘अलग’ है. उसका इंटरेस्ट फुटबॉल में नहीं डासिंग में है जो की उस के लिए उसके ‘मर्द’ पिता (रणवीर शौरी) की वजह से संभव नहीं है. जोया की कहानियां अपने सिक्वेंस में जीवित रहती और सांस लेती हैं. इसी घर में उसकी एक बड़ी बहन भी है (माफ़ कीजियेगा उसका नाम नहीं खोज पाया) जो उसे समझती है. वो समझती है कि उसके लड़कियों के कपडे पहनकर नाचने में आखिरकार ‘बुरा’ क्या है.. जोया की कहानी का असली प्रश्न रात में उस बच्चे के मुहं से जब फूटता है तो हॉल में बैठे ‘मर्दों’ को बगलें झांकनी पड़ती हैं. हालाँकि कहानी उतनी प्रभावी नहीं है लेकिन फिल्मांकन उसे निभा ले जाता है. कहानी की जान उसका एस्सेंस है जो कि फिल्म के आखिर में थोडा कमज़ोर पड़ने लगता है. अब तक फिल्मों में झगड़ते आये बच्चों के बरक्स ये एक-दुसरे के लिए ‘समझदार झूठ’ बोलते हैं जो की आपको सुहाता है. इस कहानी को देखते हुए आपको तहलका के फिल्म विशेषांक में छपी वह घटना याद आती है जब ‘लक बाई चांस’ की शूटिंग के दौरान शूटिंग टीम का एक ‘मर्द’ सारे शाट्स फरहान से ओके करा रहा था और जोया ने उसे सीधे शब्दों में अपने डायरेक्टर होने की याद दिलाई थी और साथ ही उसकी बहन होने से भी इनकार कर दिया था. जोया ने अपने जीए उसी औरत्व और उसकी गरिमा को इसमें उकेरने की बेहतरीन कोशिश की है.

फिल्मकी अंतिम कहानी है अनुराग कश्यप की ‘मुरब्बा’ कहानी है. इलाहाबाद जैसे शहरों के फिल्म प्रेमी लोगों की...दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन के स्टारडम की. कहानी तो खैर कुछ ख़ास नहीं है लेकिन उसका फिल्मांकन और चरित्र निर्माण इसे ख़ास बना देता है. इलाहबाद में कुम्भ को भी हीरो (विनीत कुमार) का सहज रूप से सिर्फ ‘मेला’ कहकर पुकारना चरित्र की डीटेलइंग को दिखाता है. विनीत का निभाया किरदार और उनकी सहजता ही कहानी में देखने लायक है. शायद अनुराग ने सौ साल वाले हो हल्ले पर कुछ ज्यादा ही ध्यान लगाया जिस वजह से बोलीवुड की हीरोइया भव्यता और उससे जुडी भावनात्मक सहजताओं पर पूरी कहानी खर्च कर दी. हाँ इलाहबाद में पैदाईशी इंटेलेक्चुअल होने और हर बात को उसकी हाईएस्ट फॉर्म में सुनाने के दृश्य अच्छे हैं.

अनुरागकी कहानी ख़त्म होने पर फिल्म भी शायद ख़त्म हो जाती है और बॉलीवुड के सौ साल पर आधारित एक लम्बा, बोझिल और बेसिरपैर का गाना आपको दिखाई पड़ता है. आपको चार कहानियों को देखने के बाद जो अभी तक लग रहा होता है कि इन सौ सालों में बोलीवुड कहीं तो पंहुचा ही है...कुछ तो हासिल ही किया है...वह अचानक आपके भीतर से मिटने लगता है. फिर वही मायालोक और सरसों के खेत में खड़ा ज़रूरत से ज्यादा एक्सप्रेशन देता आशिक आपको ज़ोरदार थप्पड़ मारकर नींद से जगा देता है. यहाँ स्क्रीन पर तैरते वही मर्द हीरो और दुपट्टों में लिपटी असहाय हीरोइनें हैं. इस दुनिया में विलेन का रोल निभाने वाले बेहतरीन एक्टरों की कोई जगह नहीं..यहाँ दादा साहब फाल्के हैं पर दादा साहब कोंडके की कोई जगह नहीं है..यहाँ बलराज साहनी को ‘दो बीघा ज़मीन’ नहीं बल्कि ओ मेरी जोहराज़बीं के लिए याद किया जाता है. आपको वही सिनेमा याद आता है जहाँ दो सौ करोड़ की दौड़ है. सेक्सुअलिटी, धर्म हव्वा है..जातियां तो हैं ही नहीं..इस गाने/दुनिया में खान, कपूर, कुमार हैं पर नवाज़, अभय, नसीर, दीप्ति, नंदिता की आज भी कोई जगह नहीं. 

यहाँयाद आते हैं उदय प्रकाश...वह डर गया है क्यूंकि उसे जहाँ जाना है वहां उसके क़दमों के निशान पहले ही बने हुए हैं...इन्हीं क़दमों के निशानों पर चलते हुए..बार बार उन्हीं पर दौड़ते हुए (विचलन भी हैं) सौ साल में बोलीवुड यहाँ पंहुचा है. जावेद अख्तर के शब्दों में, 'उन्हीं दस कहानियों को दोहराते हुए'. इस फिल्म में दिबाकर और जोया नए क़दमों और निशानों की उम्मीद हैं..एक लॉन्ग शॉट में उगते सूरज को देखने का एहसास..सिनेमा स्क्रीन से बहकर आप तक आती लहरें...जीवन की बूंदों की तरह...यही निशान, एहसास और बूँदें ही मेरे घर के रास्ते में धूप में बैठे बूढ़े मोची, और चाय की दुकान पर प्लेटे उठा रहे छोटू, और बर्तन धोकर स्कूल जा रही नीतू का संघर्ष है...

अंकित युवा पत्रकार हैं। थिएटर में भी दखल। 
अभी एक साप्ताहिक अखबार में काम कर रहे हैं।
इनसे संपर्क का पता francisankit@gmail.com है। 


पाकिस्तान चुनाव : स्पष्ट बहुमत की नाउम्मिदी

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पीयूष पन्त

                                                                                   -पीयूष पन्त 

"...इस नाउम्मीदी के बावजूद ११ मई को पाकिस्तान में होने वाले आम चुनाव को 'ऐतिहासिकबताया जा रहा है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्यूंकि पाकिस्तान के ६५ साल के राजनीतिक सफ़र में यह पहली बार हो रहा है कि लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा कर पायी और उसका स्थान लोकतान्त्रिक तरीके से ही चुनी जाने वाली दूसरी सरकार लेने जा रही है. इसके पहले पाकिस्तान में चुनी गयी सरकारों को सैन्य तख्ता पलट का शिकार होते रहना पड़ा है।..."

कल, ११मई को पाकिस्तान में होने वाले आम चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है.राजनीतिक दलों के अभियान और जन सभाओं को संबोधित करने का सिलसिला चरम परहै, हालांकि तालिबानियों द्वारा जारी की गयी धमकियों और अंजाम दी गयी  हिंसा तथा बम धमांको के चलते चुनावी माहौल अधिक नहीं गरमा पाया। अब तक चुनावके पहले की हिंसा में १०० लोग मारे जा चुके हैं। तालिबानियों की हिंसा सेलगभग सभी दल प्रभावित रहे लेकिन इनकी हिंसा का खामियाजा सबसे ज़्यादापाकिस्तानपीपुल्स पार्टी और सरकार में इसके सहयोगी रहे मुताहिदा कौमी मूवमेंट एवंपश्तून राष्ट्रवादी दल अवामी नेशनल पार्टी को ही उठाना पड़ा। इनमें भी सबसे ज्यादा हिंसा का शिकारअवामी नेशनल पार्टी और मुताहिदा कौमी मूवमेंट रहे। हमलों की वारदातें इतनी तेज हो गयीं थीं की आशंकाएं पनपने लगीं कि पाकिस्तान में आम चुनाव तय तिथि पर हो पायेंगे या नहीं

बहरहाल ११ मई केआम चुनाव के टलने संबंधी कयासों पर सेना अध्यक्ष अशफाक परवेज़ कयानी के इसबयान के बाद विराम लग गया कि पाकिस्तान में चुनाव तय तारीख़ को हीहोंगे क्योंकि देश में वास्तविक लोकतांत्रिक मूल्यों के दौर को आरम्भ करनेका यह सुनहरा मौक़ा है। कयानी ने देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करानेकी सेना की प्रतिबद्धता की बात भी कही। यह आम जानकारी है कि पाकिस्तान में जो कुछ भी घटित होता है वो सेना के इशारे पर ही होता है।

फिलहालतो राजनीतिक दलों और उनके नेताओं द्वारा आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है। चूंकि चुनावी सर्वेक्षणों में नवाज शरीफ की पार्टी को बढ़त मिलते दिखाया जा रहा है इसलिए पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान तहरीके इन्साफ दोनों ने ही नवाज़ शरीफ पर आक्रमण तेज कर दिए हैं। शरीफ के प्रभाव क्षेत्र लाहौर में ६ मई को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान पीपीपी के नेता और आतंरिक मसलों के पूर्व मंत्री रहमान मलिक ने शरीफ बंधुओं पर देश का पैसा विदेशी खातों में जमा कराने के आरोप लगाए और कहा कि उनके पास इस बात के दस्तावेज़ी सबूत हैं।

उधरलाहौर ही में एक आम सभा को संबोधित करते हुए पीटीआई अध्यक्ष इमरान खान ने कहा कि देश का अरबों रूपिया शरीफ परिवार को सुरक्षा मुहय्या कराने में ही खर्च कर दिया गया जबकि लाहौर के पूर्व मुख्यमंत्री शाहबाज़ शरीफ अपने शासन के पांच साल के दौरान केवल सत्ता का सुख भोगते रहे और अपने प्रिय नौकरशाहों को सुरक्षा प्रदान करते रहे।लिहाजा  प्रांत के लोगों के हालात बाद से बदतर हो गए। इमरान खान ने कहा कि हज़ारों लोग मारे जाते रहे और न जाने कितने अगवा कर लिए गए लेकिन पंजाब पुलिस के अधिकारी शरीफ के परिवार की सुरक्षा पर ही बने रहे. पलटवार करते हुए इस्लामाबाद की एक सभा में नवाज़ शरीफ ने इमरान खान की खिंचाई करते हुए कह डाला-" देश जल्दी ही बदलाव नहीं देखेगा बल्कि क्रांति देखेगा।" इन सब लफ्फाजियों को दर किनार करते हुए कनाडा निवासी इस्लामी विद्वान तथा पाकिस्तानी धार्मिक नेता ताहिरुल क़ादरी ने ब्रिटेन के बिर्मिंघम शहर में विदेश में बसे पाकिस्तानियों की एक बड़ी सभा को संबोधित करते हुए तो कह डाला कि ११ मई को पाकिस्तान में होने वाले आम चुनाव कोई बदलाव नहीं लायेंगे, यहाँ तक कि व्यवस्था चलाने वाले चेहरे भी वही रहेंगे। उन्होंने कहा की चुनाव से कोई नयी चीज़ उभर कर आने की उन्हें कोई उम्मीद नहीं दिखाई दे रही है।

इसनाउम्मीदी के बावजूद ११मई को पाकिस्तान में होने वाले आम चुनाव को 'ऐतिहासिक' बताया जा रहा है।ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्यूंकि पाकिस्तान के ६५ साल के राजनीतिक सफ़र मेंयह पहली बार हो रहा है कि लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार अपना पांचसाल का कार्यकाल पूरा कर पायी और उसका स्थान लोकतान्त्रिक तरीके से ही चुनीजाने वाली दूसरी सरकार लेने जा रही है. इसके पहले पाकिस्तान में चुनी गयीसरकारों को सैन्य तख्ता पलट का शिकार होते रहना पड़ा है। सच कहा जाय तोपाकिस्तान को हमेशा ही  सैन्य शासन के अलावा सेना अध्यक्षों, न्यायधीशों और अफसरशाही के प्रभाव के साये में जीने को अभिशप्त रहना पड़ा है। अयूब खानसे लेकर जिया उल हक जैसे सैन्य शासकों ने पकिस्तान में लोकतंत्र का गलाघोंटने में कसर नहीं छोडी। जिया उल हक ने तो बकायदा लोकतंत्र को सीमित करनेवाले ढांचे खड़े किये और संविधान तथा कानून व्यवस्था में इस तरह के बदलावकर डाले जिनसे पार पाना  आज तक संभव नहीं हो पाया है। पाकिस्तान के नेता यहकहते नहीं थकते कि पिछले कई सालों से पाकिस्तान में जो साम्प्रदायिक एवंजातीय हिंसा तथा धार्मिक अतिवाद पनपा है वो जिया द्वारा कानूनों के साथकिये गए शरारत पूर्ण खिलवाड़ के ही नतीजे हैं। ऐसे में पाकिस्तान पीपुल्सपार्टी की सरकार द्वारा पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा कर पाना निश्चितरूप में लोकतंत्र की विजय गाथा के रूप में देखा जाना चहिये। और ११ मई केआम चुनाव को  इस गाथा का अगला अध्याय।
 
निसंदेहपाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की गठबंधन सरकार  ने पांच साल केशासन के दौरान कुछ ऐसे क़दम अवश्य उठाये जो पाकिस्तान में लोकतान्त्रिकसंस्थाओं की मजबूती की दिशा में मील का पत्थर कहे जा सकते हैं। इसमें उसेविपक्ष का भी पूरा सहयोग मिला। दरअसल यह अकेले ज़रदारी सरकार की उपलब्धि नमानकर पूरी विधायिका की ही उपलब्धि मानी  जायेगी। पाकिस्तान के सांसदों ने नकेवल १९७३ के संविधान के संसदीय चरित्र को पुनर्स्थापित करने का काम कियाबल्कि १८ वें संविधान संशोधन से शुरू कर अनेक ऐसे संशोधनों को अंजाम दियाजिसके चलते पंजाबी वर्चस्व के स्थान पर संघीय ढांचे को मजबूती मिली, न्यायपालिका की स्वतन्त्रता  में इजाफा हुआ, एक शक्तिशाली चुनाव आयोग कीस्थापना हुयी और लोकतान्त्रिक तरीके से चुनाव करने की प्रक्रिया की शुरुवातहुयी, एक ऐसी प्रक्रिया जिसके तहत चुनाव अभियान के दौरान एक अंतरिमप्रधानमंत्री को नियुकत करने का प्रावधान रखा गया। संविधान की अवमानना कोद्रोह माना गया। राष्ट्रपति के अधिकारों में कटौती कर उन्हें प्रधानमंत्रीको हस्तांतरित किया गया। प्रान्तों को ताक़तवर बनाने की दिशा में भी अनेकक़दम उठाये गए और साथ ही महिलाओं के सशक्तीकरण के प्रावधान भी किये गए। लेकिन इन कदमों का फायदा पकिस्तान की जनता को नहीं मिल पाया। और मिलता भीकैसे क्योंकि यह एक चाल थी  सभी राजनीतिक दलों की सेना के वर्चस्व औरहस्तक्षेप को कम करने की दिशा में। पहले होता ये था कि राजनीतिक दलों केनेता एक दूसरे  की काट के लिए सेना का सहारा लेते थे लेकिन अब उन्हें महसूसहो चुका  है कि ऐसा करना आत्मघाती होता है।

लोकतंत्रकी सफलता का आभास इसलिए भी होता रहा कि ज़रदारी सरकार पर भ्रष्टाचार केगंभीर आरोप लगने के बावजूद विपक्ष के नेता नवाज़ शरीफ चुप्पी साधे रहे और 'दोस्ताना विपक्ष' की भूमिका में बने रहे। एक अन्य प्रभावी कारण था सरकारद्वारा राष्ट्रीय बजट का एक बड़ा हिस्सा सेना को आबंटित करना और अफ़ग़ानिस्तानव परमाणु कार्यक्रम संबंधी नीतियों में सेना को वर्चस्व प्रदान करना।इसके अलावा ज़रदारी सरकार ने सैन्य अधिकारीयों को अपने धन्धे करने की छूट देरखी थी। खासकर भवन निर्माण के क्षेत्र में सैन्य आधारित धंधे मुनाफा कमानेके ज़रिये हैं, ऐसे में सेना नागरिक सरकारों को सत्ता से बेदखल करने कासंकट क्यों लेगी।

शायदयही कारण है कि पाकिस्तान की अवाम का लोकतंत्र से कभी प्यार और कभी घृणा कारिश्ता रहा है। इस्लामिक दुनिया में पाकिस्तान अकेला ऐसा देश है जहाँतानाशाह कभी भी सत्ता में दस साल से ज्यादा नहीं टिक पाए हैं। नागरिक शासनके अनेक दौर आये हैं,यहाँ तक कि अवाम को संतुष्ट करने के लिए तानाशाहों तकको आंशिक रूप में परिपक्व लोकतान्त्रिक ढांचों को लेकर आना पड़ा है। फिर भीतानाशाही की तरह ही लोकतंत्र भी आम पाकिस्तानी को राहत नहीं पहुंचा पायाहै। हर चुनाव में मतदाताओं का प्रतिशत गिरता ही जा रहा है और युवा पीढी तोचुनावी प्रक्रिया से विरक्त सी ही दिखाई देती है। लेकिन इस बार युवा पीढी, खासकर शहरी, इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-इ-इंसाफ की ओर आकर्षित होतीदिखाई दे रही है। यह आकर्षण कितने फीसदी वोट में तब्दील हो पायेगा यह मतदानवाले दिन ही साफ़ हो पायेगा। फिलहाल तो इमरान खान की सभाओं में भारी भीड़ जुट रही है जिसमें युवाओं की संख्या बहुतायत में रहती है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है किपाकिस्तान को विरासत में एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति मिली है जिसके तहतसामंत,अमीर, उद्योगपती और संसाधन पूर्ण व्यक्ति ही चुनाव लड़ते और जीततेहैं। राजनेताओं ने कभी इस संस्कृति को बदलने का प्रयास भी नहीं कियाक्योंकि यह संस्कृति उनके अपने हित में ही है। जैसा कि कीथ कैलार्ड ने अपनीपुस्तक 'पाकिस्तान, अ पोलिटिकल स्टडी' में लिखा है-"पाकिस्तान में राजनीतिऐसे अनेक अग्रणी लोगों से ही जानी जाती है जो अपने राजनीतिक आश्रितों केचलते सत्ता हासिल करने और उसे बनाये रखने के लिए लचीले समझौते करते हैं।"वो आगे लिखता है कि पाकिस्तानी राजनेताओं को इस बात का बिलकुल भी डर नहींहोता कि अपनी अनियमितताओं, और सहानुभूति तथा दल बदलने की प्रवृति के लिएउन्हें चुनाव में हार का सामना करना पड़ सकता है। जानकारों का कहना है कि इसतरह की राजनितिक संस्कृति के चलते २०१३ के आम चुनाव में बदले हुए चेहरेदेखने की उम्मीद कम ही रखनी चाहिए बशर्ते कोई बड़ा उलटफेर ना हो जाये।

इसपृष्ठभूमि के बाद आइये आमचुनाव के परिणामों की संभावनाओं का भी जायजा लिया जाये। पकिस्तान मेंबहुदलीय प्रणाली है। पडोसी देश भारत की तरह यहाँ भी छोटे-बड़े इतने अधिकराजनितिक दल है कि उनकी गिनती कर पाना मुश्किल है। छोटे दलों को किसी भीचुनाव में ज्यादा सीटें कभी नहीं मिली लेकिन उन्होंने मतदाताओं को विभाजितकर वोट कटुआ का काम ज़रूर किया है। परिणाम यह होता रहा है कि अंत में बड़े दलही सरकार बनाने में सफल हो जाते हैं फिर चाहे वो गठबंधन की सरकार ही क्योंना हो। सन १९८८ से ही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिमलीग(नवाज़} पाकिस्तान के सबसे बड़े और सर्वाधिक लोकप्रिय राजनीतिक दल मानेजाते हैं, खासकर केंद्र में। हाल में भंग की गयी संसद में पीपीपी के ४१सदस्य थे। मार्च २००८ से मार्च २०१३ तक यह सत्ता में काबिज दलों के गठबंधनका नेतृत्त्व कर रहा था। सिंध प्रान्त में इसी दल की सरकार थी और पंजाबप्रान्त में यह मुख्य विपक्ष की भूमिका में था। यहाँ तक कि मुशरफ केशासनकाल में संपन्न हुए २००२ के चुनाव में भी पीपुल्स पार्टी प्रमुख दल केरूप में उभर कर आई लेकिन मुशर्रफ ने चुनाव के परिणाम अस्वीकार कर मुस्लिमलीग (क्यू) गठित कर दोयम दर्जे के राजनीतिक नेतृत्त्व  को सत्ता सौंप दी।नवाज़ शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग ७ सीटो के साथ भंग संसद में दूसरी बड़ीपार्टी थी, पंजाब प्रान्त में इसकी सरकार चल रही थी।

प्रेक्षकों का मानना है किअगर चले आ रहे ढर्रे पर ग़ौर किया जाये तो २०१३ के चुनाव में भी पाकिस्तानपीपुल्स पार्टी  और शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग को ही रेस में माना जायेगा। हालांकि कुछ लोंगों का मानना है कि पाकिस्तान तहरीक-ए-इन्साफ रेसका असली घोडा साबित हो सकता है। जहाँ तक मुस्लिम लीग(शुजात ग्रुप), अवामीनेशनल पार्टी ,जमीयात-आइ-उलेमा इस्लाम(फजलुर रहमान ग्रुप), जमात-ए-इस्लामीऔर मुह्तीदा क्वामी मूवमेंट जैसे दलों का सवाल है तो इनकी भूमिका सहयोगीदलों के रूप में ही सामने आयेगी। इनकी भूमिका प्रांतीय चनावों में मुखर होसकती है लेकिन केंद्र में कुछ सीटों से ही इन्हें तसल्ली करनी होगी।

आमचुनाव के लिए पी पीपी ने पी एम् एल(क्यू) के साथ गठबंधन किया है जबकि नवाज़ की पी एम् एल ने पीएम् एल(ऍफ़) और सुन्नी तहरीक जैसे दलों के साथ गठबंधन किया है। वहीं इमरानखान की पार्टी पीटीआई ने इस्लामिक जमात-ए-इस्लामी और बहावलपुर नेशनल अवामीपार्टी के साथ गठजोड़ किया है। उधर धार्मिक दलों ने मुताहिदा मजलिस-ए-अमलनाम से अपना एक गठबंधन बनाया है। क्षेत्रीय दलों में से जो दल राष्ट्रियविधायिका सेनेट की कुछ सीटें हासिल कर सकते हैं उनमें प्रमुख हैं सिंध कीएम्क्यूएम् और खैबर पख्तुन्ख्वा की अवामी नेशनल पार्टी।

दुबईमें स्वयं हीनिर्वासित जीवन बिता रहे मुशर्रफ पाकिस्तान को दोबारा रस्ते पर लाने कीहुंकार भरते हुए २४ मार्च को पाकिस्तान पहुंचे लेकिन एअरपोर्ट परचंद समर्थकों को देख उनके बडबोलेपन की हवा निकल गयी। रही-सही हवा तब निकलगयी जब उनके द्वारा चार जगहों से भरे गए नामांकनों में से तीन जगह केनामांकन रद्द कर दिए गए।बाद में चौथी जगह से भरे गए नामांकन को भी रद्द कर दिया गया। बाद में पाकिस्तानी कोर्ट ने उनके चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबन्ध लगा दिया।

जहांतक इमरान खान की पीटीआई का सवाल है वो इस चुनाव में बड़े उलट फेर कर सकतीहै। जानकारों का कहना है कि पारंपरिक राजनीतिक दलों से त्रस्त पाकिस्तानीअवाम बदलाव के रूप में इमरान खान की पार्टी को चुन सकती है। हालांकि कहा जारहा है की पीटीआई का प्रभाव ग्रामीण इलाकों में न होकर शहरी युवाओं तक हीसीमित है लेकिन चुनावी सर्वेक्षणों में यह बात सामने आयी है कि इमरान खानका जनाधार सभी वर्गों और क्षेत्रों में फैला है। जनवरी २०१३ में पब्लिकजजमेंट नामक संस्था द्वारा ऑन लाइन मतदान कराया गया जिसके ये परिणाम सामनेआये - पाकिस्तान तहरीक-ए- इन्साफ कुल सीटों में से ६६.१ फीसदी सीटेंजीतेगी जबकी २९.३ फीसदी  सीटें जीत कर श नवाज़ शरीफ की पार्टी दूसरे स्थान पररहेगी। अगर इसे सीटों में तब्दील किया जाय तो मतलब हुआ कि २२५ सीटों केसाथ पीटीआई को संसद में स्पष्ट बहुमत मिल जायेगा।

लेकिनकुछ राजनीतिक विश्लेषक सर्वेक्षण के परिणाम को ज़मीनी हकीकत से कोंसो दूरमानते हैं.उनका कहना है कि इमरान खान की लोकप्रियता लगातार घट रही है।उनका यह भी कहना है कि इमरान की पार्टी का ज़मीनी आधार नहीं है उसकेज्यादातर नेता अन्य दलों को छोड़ कर आये हैं या फिर पुराने अफसरशाह हैं। ठीकहै कि युवाओं का उन्हें समर्थन हासिल है लेकिन ये युवा ज़्यादातर सोशलमीडिया में ही सक्रीय हैं और इनमें से बहुतेरे हैं जिन्होंने कभी अपना मतही नहीं डाला या फिर जिनका नाम मतदाता सूची में है ही नहीं।

लेकिनइमरान खान अपनी पार्टी की जीत के प्रति आशावान हैं। शनिवार ६ अप्रैल कोकराची एयरपोर्ट पर मीडिया को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा -"१९९२ केविश्व कप की तरह ही एक अनजान पार्टी ११ मई के चुनाव में बड़ी जीत हासिलकरेगी और वो पार्टी होगी पाकिस्तान तहरीक -ए - इन्साफ". आगे उन्होंने कहाकी उनकी पार्टी का असली इम्तिहान पंजाब प्रांत में होगा। अगर हम वहां जीतदर्ज कर लेते हैं तो केंद्र में सरकार बनाने से हमें कोइ नहीं रोक सकता।  अपनी पार्टी की नीतियों पर बोलते हुए इमरान ने कहा कि उनकी पार्टी अकेलीऐसी पार्टी है जिसका नेतृत्व युवाओं के हाथों में है। और यह बात २३ मार्चको लाहौर के मीनार -ए - पाकिस्तान मैदान में पीटीआई की सभा से भी साफ़ होगया जिसमें खराब मौसम के बावजूद एक लाख लोग शिरकत करने पहुञ्चे और इनमेयुवाओं की तादाद कहीं ज़्यादा थी।

अबज़रा पारंपरिक रूप से पाकिस्तान में सत्ता में काबिज़ रहने वाले दो बड़े दलोंपाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और नवाज़ शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग का भीजायजा लिया जाए। इन दोनों ही दलों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की लम्बीश्रृंखला व बड़ी फ़ौज है। इनके नेतृत्त्व के सामंती रवैये के बावजूद ज़मीनीस्तर पर इनकी उपस्थिती दर्ज है। पीपुल्स पार्टी की ताक़त सिंध प्रांत मेंदेखी जा सकती है, खासकर ग्रामीण इलाकों में। हाल में यह भी चर्चा रही है किपीपुल्स पार्टी ने पंजाब के दक्षिण जिलों में भी अपना प्रभाव बढ़ाया है, खासकर मुल्तान और भवालपुर इलाकों में। चूँकि पूर्व प्रधानमंत्री युसूफ राजागिलानी भी इसी इलाके से आते हैं इसलिए इस विशवास को बल मिलता है कि इस बारपीपुल्स पार्टी दक्षिण पंजाब में बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। वहीं इस बातपर सवाल उठाये जा रहे हैं कि पीपुल्स पार्टी सिंध के ग्रामीण इलाकों में भीबेहतर प्रदर्शन करेगी। आलोचकों का कहना है कि पार्टी अपने शासन केदौरान सिंधियों के लिए कुछ ख़ास नहीं कर पायी। लेकिन त्रासदी यह है कि एम्क्यू एम् समेत किसी भी अन्य दल की पैठ ग्रामीण सिंध में है ही नहीं। इसलिएमजबूरन लोगों को पीपुल्स पार्टी को वोट देना पडेगा। वैसे सिंध का कराचीजिला एम् क्यू एम् के पक्ष में वोट डालता नज़र आ रहा है। इसकी वज़ह है ठोसमुजाहिर वोट बैंक। बड़ी तादाद में पश्तून जनसंख्या की मौजूदगी के चलते अवामीनेशनल पार्टी ने भी कराची में अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा लिया है। पीपुल्सपार्टी के लिए मुश्किल दो आध्यात्मिक समूहों -हूर जमात और गौसिया जमात नेगठबंधन बना कर खडी कर दी है। ये दोनों समूह अलग-अलग राजनीतिक दलों काप्रतिनिधित्व करते हैं। इन्होने एक-दूसरे के प्रत्याशियों को समर्थन देनेका फैसला लिया है। पीपुल्स पार्टी की मुश्किलें इसलिए भी बढ़ गयी हैं किउसके पास कोई स्टार कैम्पेनर नहीं है। भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते ज़रदारीसे लोग नाराज़ हैं अब तो उनका पुत्र बिलावल भुट्टो भी उनसे नाराज़ है औरचुनाव अभियान में भाग ना लेने की बात तक उसने कह डाली। वो अब सुरक्षा कारणों से पाकिस्तान छोड़ कर चला गया है।

दूसरेबड़े दल पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) द्वारा पंजाब में बेहतर प्रदर्शनकरने की उम्मीद की जा रही है। पिछले पांच सालों के दौरान शरीफ बन्धुराजनीतिक रूप से बहुत सक्रिय रहे हैं और ज़रदारी सरकार के खिलाफ चलाये गएआन्दोलनो तथा प्रदर्शनों का उनहोंने कभी प्रत्यक्ष और कभी परोक्ष रूप मेंसमर्थन ही किया। इसके चलते पूरी उम्मीद है कि पंजाब, खासकर उत्तरी इलाकेनवाज़ शरीफ को ही वोट देंगे। हालांकि पीपुल्स पार्टी और पीएम्एल-क्यूपंजाब के दक्षिणी जिलों में बेहतर प्रदेशन करने की उम्मीद कर रहे हैं लेकिनयहाँ उनके लिए जीत आसन नहीं होगी। नवाज़ की पार्टी अपनी ताक़त बनाए रखेगी।

आजकलकोइ भी चुनावी चर्चा चुनावी सर्वेक्षणों की बात किये बिना अधूरी ही मानीजाती है। हालांकि चुनावी सर्वेक्षणों की विश्वनीयता पर सवाल भी खड़े कियेजाते हैं और कभी-कभी तो एक सिरे से उन्हें खारिज भी कर दिया जाता है फिर भीयह तो माना  ही जाता है कि वे जनता के मूड को भांपने का काम करते हैं।पाकिस्तान में होने वाले आम चुनाव पर अब तक किये गए विभिन्न सर्वेक्षणों परनज़र दौडाएं तो नवाज़ शरीफ की पार्टी बढ़त हासिल करती दिखाई दे रही है। १२ अगस्त २०१२ को नेशन में प्रकाशितत्वरित सर्वेक्षण में कहा गया कि नवाज़ शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग देशकी सबसे अधिक लोकप्रिय पार्टी है और इसका वोट बैंक २० फीसदी से बढ़ कर ३३फीसदी हो गया है वहीं पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की लोकप्रियता १० फीसदी घट गयी है। सर्वेक्षण के अनुसार लोकप्रियता के स्तर पर पीटीआई दूसरे नंबर पर है। २९ सितम्बर २०१२ को द एक्सप्रस ट्रिबुन में प्रकाशित इन्टरनेशनलरिपब्लिक इन्स्त्युत के सर्वेक्षण में २८ फीसदी लोगों ने पीएम्एल-एन कोवोट देने की बात कही। २४ फीसदी पीटीआई के पक्ष में थे और केवल १४ फीसदीपीपीपी के पक्ष में। २८ जनवरी २०१३ को द न्यूज़ में छपे सर्वेक्षण केअनुसार नवाज़ शरीफ की लोकप्रियता २८ फीसदी से बढ़ कर ३२ फीसदी हो गयी वहींइमरान खान की लोकप्रियता २४ फीसदी से घटकर १८ फीसदी हो गयी और ज़रदारी की मात्र १४ फीसदी रह गयी। लेकिन ९ फरवरी २०१३ को डान  में छपे सर्वेक्षण में स्थितीउलटी थी। इस्लामाबाद स्थित सस्टनेबल डेवेलपमेंट पॉलिसी इन्स्तीतूत के साथमिल कर हेराल्ड द्वारा कराये गए सर्वेक्षण में २९ फीसदी लोगों ने पीपीपी कोवोट देने का इरादा व्यक्त किया, २४.७ ने नवाज़ शरीफ की पार्टी को और २०.३ने इमरान खान को। 

पिछलेएक हफ्ते का जायजा लिया जाए तो सबसे अधिक भीड़ इमरान खान की सभाओं में होरही है, उसके बाद नवाज़ शरीफ की सभाओं में। शहरी मतदाताओं के बीच बढ़ती इमरानखान की लोकप्रियता को देख कर नवाज़ शरीफ ने भी अपने भाषणों का रुख बदल दियाहै। वे अब शहरी मतदाताओं को रिझाने के लिए जिताने पर बुलेट ट्रेन, चौड़ीसड़कें, लन्दन माफिक भूमिगत परिवहन सुविधाएँ  और मेट्रो बस सेवाओं जैसे तोहफों की झड़ी लगा रहे हैं। उधरनवाज़ शरीफ पर छींटाकसी करते हुए इमरान खान अपनी सभाओं में लोगों से कह रहेहैं की कोई भी राष्ट्र अपनी सड़कों और विकास के दूसरे कार्यों से नहींपहचाना जाता बल्कि वो अपनी न्यायसंगत ईमानदार व्यवस्था के कारण जाना जाताहै क्योंकि न्याय लोगों को अपनी जान-माल की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त करताहै।

असलमें कौन दल कहाँ खडा दिखाई देता है ये तो चुनाव परिणाम आने पर ही पता लग सकता है। अभी तो बस यही कहा जा सकता है कि किसीभी दल को स्पष्ट बहुमत मिलते नहीं दिख रहा है। एक मिली-जुली सरकार बनने कीसंभावना नज़र आ रही है, बशर्ते चुनाव निष्पक्ष हों और सेना एवम उसकीपिछलग्गू आईएसआई कोइ खेल ना खेलें।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं विदेश मामलों के जानकार हैं
इनसे panditpant@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं)  

सरबजीत और सनाउल्लाह के दौर में मंटो का टोबा टेक सिंह

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सआदत हसन मंटो


जैसा कि आजकल हो ही रहा है, फेसबुक ही बताता है कि आपके किसी करीबी का जन्मदिन है. फेसबुक ने ही बताया की आज सहादत हसन मंटो साहब का जन्मदिन है. नहीं-नहीं ऐसा नहीं है कि वो हमारे फेसबुक फ्रेंड हैं, लेकिन उनके कई फैन हमारे फेसबुक फ्रेंड हैं. उन्हीं के ज़रिये पता चला. मंटो के इस जन्मदिन के दिन हम प्रेक्सिस में उनकी एक कहानी साझा कर रहे हैं. ये कहानी अभी इसलिए भी पढ़ी जानी चाहिए कि सरहद के दोनों तरफ बेजा ही इतनी नफ़रत है कि सरबजीत और सनाउल्लाह मारे जा रहे हैं. और इस उन्मादी दौर में कई 'टोबा टेक सिंह' अब भी 'नो मेंस लेंड' की तलाश में हैं... 

-संपादक


बंटवारे के दो तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख्याल आया कि इखलाकी क़ैदियों की तरह पागलों का तबादला भी होना चाहिए यानी जो मुसल्‌मान पागल, हिंदुस्तान के पागल-ख़ानों में हैं उन्हें पकिस्तान पहुंचा दिया जाए और जो हिंदू और सिख पाकिस्तान के पागल-ख़ानों में हैं उन्हे हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए।मालूम नहीं यह बात माक़ूल थी या ग़ैर-माक़ूल , बहर-हाल दानिश-मन्‌दों के फ़ैस्‌ले के मुताबिक़ इधर उधर ऊंची सतह की कान्फ्रेंसे हुईं , और बाल-आख़िर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुक़र्‌रर हो गया। अच्छी तर्‌ह छान-बीन की गई। वह मुसल्‌मान पागल जिन के लवाहिक़ीन हिंदुस्तान में ही में थे, वहीं रह्‌ने दिए गए थे, जो बाक़ी थे उन को सर्‌हद पर रवाना कर दिया गया।_ यहां पाकिस्‌तान में चूंकि क़रीब क़रीब तमाम हिंदू सिख जा चुके थे, इस लिए किसी को रखने रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिंदू सिख पागल थे, सब के सब पुलिस की हिफ़ाज़त में बॉर्डर पर पहुंचा दिए गए।



उधरका मालूम नहीं, लेकिन इधर लाहोर के पागल-ख़ाने में जब उस तबादले की ख़बर पहुंची तो बड़ी दिल्‌चस्‌प चिह-मी-गूइयां होन लगीं। एक मुसल्‌मान पागल जो बारह बरस से हर रोज़ बा-क़ाइदगी के साथ ” ज़मीन्‌दार ” पढ़्‌ता था उस से जब उस के एक दोस्‌त ने पूछा ” मोल्‌बी साब , यह पाकिस्‌तन क्‌या होता है”,उस ने बड़े ग़ोर-ओ-फ़िक्‌र के बाद जवाब दिया,” हिंदुस्तान में एक ऐसी जगह है जहां उस्तरे बनते हैं।”यह जवाब सुन कर उस का दोस्त मुत्‌मईन हो गया। उसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा “सरदार-जी हमें हिंदुस्तान क्‌यूं भेजा जा रहा है — हमें तो वहां की बोली नहीं आती?”दूसरा मुस्कुराया ” मुझे तो हिंदुस्तोड़ो की बोली आती है — हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़ आकड़ फिर्‌ते हैं।”एक दिन नहाते नहाते एक मुसल्‌मान पागल ने ” पाकिस्तान जिंदाबाद ” का नारा इस ज़ोर से बुलंद किया कि फर्श पर फिसल कर गिरा और बेहोश हो गया।




बाज़पागल ऐसे भी थे जो पागल नहीं थे। उन में अक्सरियत ऐसे क़ातिलों की थी जिन के रिश्तेदारों ने अफ़्‌सरों को दे दिला कर पागल-ख़ाने भिज्‌वा दिया था कि फांसी के फंदे से बच जाएं। यह कुछ-कुछ समझ्‌ते थे कि हिंदुस्तान क्यूं तक़्‌सीम हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है? लेकिन सही वाक़िआत से यह भी बे-ख़बर थे। अख़बारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे। उन की गुफ़्‌तगू से भी वह कोई नतीजा बरामद नहीं कर सकते थे। उन को सिर्फ़ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है जिस को काइदे आजम कह्‌ते हैं। उस ने मुसल्‌मानों के लिए एक `इलाहिदा मुल्क बनाया है जिस का नाम पाकिस्‌तान है। यह कहां है , उसका मह्‌ल्‌ल-ए वुक़ू` क्या है। उस के मुताल्लिक़ वह कुछ नहीं जान्‌ते थे। यही वजह है कि पागल-ख़ाने में वह सब पागल जिन का दिमाग़ पूरी तरह माऊफ़ नहीं हुआ था इस मख़्‌मसे में गिरफ़्तार थे कि वह पाकिस्तान में हैं या हिंदुस्तान में? अगर हिंदुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है? अगर वह पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि वह कुछ अरसा पह्‌ले यहीं रह्‌ते हुए भी हिंदुस्तान में थे।

एकपागल तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान, और हिंदुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़ियादा पागल हो गया। झाड़ू देते देते एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टह्‌नी पर बैठ कर दो घंटे मुसल्सल तक़्‌रीर कर्‌ता रहा जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया। डराया धमकाया गया तो उस ने कहा — ” मैं हिंदुस्तान में रह्‌ना चाहता हूं न पाकिस्तान में — मैं इस दरख़्‌त ही पर रहूंगा।”बड़ी मुश्किलों के बाद जब उस का दौरा सर्द पड़ा तो वह नीचे उतरा और अपने हिन्दू सिख दोस्तों से गले मिल मिल कर रोने लगा, इस ख्याल से उस का दिल भर आया था कि वह उसे छोड़ कर हिंदुस्तान चले जाएंगे।



एकएम एस सी पास रेडियो इन्जीनियर में जो मुसल्मान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग थलग बाग़ की एक ख़ास रविश पर सारा दिन ख़ामोश टहलता रह्‌ता था यह तबदीली नमूदार हुई कि उस ने तमाम कप्‌ड़े उतार कर दफ़`अदार के हवाले कर दिए और नन्‌ग धड़न्‌ग सारे बाग़ में चलना फिरना शुरू` कर दिया।


चन्‌योटके एक मोटे मुसल्मान पागल ने जो मुस्लिम लीग का सर-गर्म कार्कुन रह चुका था और दिन में पन्द्रह सोलह मर्तबा नहाया करता था यक-लख़्‌त यह आदत तर्क कर दी। उस का नाम मुहम्मद अली था। चुनांचे उस ने एक दिन अपने जंगले में एलान कर दिया कि वह काइदे आजम मुहम्मद अली जिन्ना है। उस की देखा देखी एक सिख पागल मास्टर तारा सिंघ बन गया। क़रीब था कि उस जंगले में ख़ून ख़राबा हो जाए मगर दोनों को ख़तर्‌नाक पागल क़रार दे कर अलाहिदा-अलाहिदा बंद कर दिया गया।

लाहोरका एक नौजवान हिंदू वकील था जो मुहब्बत में ना-काम हो कर पागल हो गया था। जब उस ने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। उसी शह्‌र की एक हिन्दू लड़्‌की से उसे मुहब्बत हो गई थी। गो उस ने उस वकील को ठुकरा दिया था मगर दीवानगी की हालत में भी वह उस को नहीं भूला था। चुनांचे उन तमाम हिन्दू और मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था जिन्हों ने मिल मिला कर हिंदुस्तान के दो टुक्‌ड़े कर दिए। — उस की मह्‌बूबा हिंदुस्तानी बन गई और वह पाकिस्तानी।

जब तबादले की बात शुरू` हुई तो वकील को कई पागलों ने समझाया कि वह दिल बुरा न करे। उस को हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा। उस हिंदुस्तान में जहां उस की मह्‌बूबा रह्‌ती है। मगर वह लाहोर छोड़्‌ना नहीं चाह्‌ता था। इस लिए कि उस का ख्याल था कि अमृतसर में उस की प्रेक्टिस नहीं चलेगी।

यूरोपियन वार्ड में दो ऐंग्लो-इन्डियन पागल थे। उन को जब मालूम हुआ कि हिंदुस्तान को आज़ाद कर के अन्ग्रेज़ चले गए हैं तो उन को बहुत सदमा हुआ| वह छुप-छुप कर घंटों आपस में इस अहम मसले पर गुफ़्‌तगू करते रह्‌ते कि पागल-ख़ाने में उन की हैसियत किस क़िस्म की होगी। यूरोपियन वार्ड रहेगा या उड़ा दिया जाएगा। ब्रेकफ़ास्ट मिला करेगा या नहीं। क्या उन्हें डबल रोटी के बजाए ब्लडी इन्डियन चपाटी तो ज़ह्‌र मार नहीं करना पड़ेगी?

एकसिख था जिस को पागल-ख़ाने में दाख़िल हुए पन्द्रह बरस हो चुके थे। हर वक़्त उस की ज़बान से यह `अजीब-ओ-ग़रीब अल्फ़ाज़ सुन्‌ने में आते थे "ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ दी लालटेन।” दिन को सोता था न रात को। पहरेदारों का यह कह्‌ना था कि पन्द्रह बरस के तवील अर्‌से में वह एक लह्‌ज़े के लिए भी नहीं सोया। लेटता भी नहीं था। अलबत्ता कभी-कभी किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था।


हरवक़्‌त खड़े रह्‌ने से उस के पांव सूज गए थे। पिंडलियां भी फूल गई थीं। मगर इस जिस्मानी तकलीफ़ के बावजूद लेटकर आराम नहीं कर्‌ता था। हिंदुस्तान, पाकिस्तान और पागलों के तबादिले के मुत्तालिक जब कभी पागल-ख़ाने में गुफ़्‌तगू होती थी तो वह ग़ोर से सुन्‌ता था। कोई उस से पूछ्‌ता कि उस का क्या ख़ियाल है तो वह बड़ी सन्जीदगी से जवाब देता” ऊपड़ दी गुड़, गुड़ दी एनकस दी बे ध्याना दी मूंग दी दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्न्मन्ट।”
लेकिनबाद में ” आफ़ दी पाकिस्तान गवर्न्मन्ट” की जगह ” आफ़ दी टोबा टेक सिंघ गवर्न्मन्ट” ने ले ली और उस ने दूसरे पागलों से पूछ्‌ना शुरू किया कि टोबा टेक सिंघ कहां है जहां का वह रह्‌ने वाला है। लेकिन किसी को भी मालूम नहीं था कि वह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में। जो बताने की कोशिश करते थे वह खुद इस उलझावों में गिरिफ़्तार हो जाते थे कि सियालकोट पह्‌ले हिंदुस्तान में होता था पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है। क्या पता है कि लाहोर जो अब पाकिस्तान में है कल हिंदुस्तान में चला जाए। या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाए। और यह भी कौन सीने पर हाथ रख कर कह सकता था कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब ही हो जाएं।
इससिख पागल के केस छिदरे हो के बहुत मुख़्तसर रह गए थे| चूंकि बहुत कम नहाता था इस लिए दाढ़ी और सर के बाल आपस में जम गए थे। जिन के बाइस उस की शक्ल बड़ी भयानक हो गई थी। मगर आद्‌मी बे-ज़रर था। पन्द्रह बरसों में उस ने कभी किसी से झगड़ा फ़साद नहीं किया था। पागल-ख़ाने के जो पुराने मुलाज़िम थे वह उस के मुत्तलिक इतना जानते थे कि टोबा टेक सिंह में उस की कई ज़मीनें थीं। अच्छा खाता पीता ज़मीन-दार था कि अचानक दिमाग़ उलट गया। उस के रिश्तेदार लोहे की मोटी-मोटी ज़न्जीरों में उसे बांध कर लाए और पागल-ख़ाने में दाख़िल करा गए।
महीनेमें एक बार मुलाक़ात के लिए यह लोग आते थे और उस की ख़ैर ख़ैरियत दर्याफ़्त कर के चले जाते थे। एक मुद्दत तक यह सिलसिला जारी रहा। पर जब पाकिस्तान , हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उन का आना बन्द हो गया।
उसका नाम बिशन सिंघ था मगर सब उसे टोबा टेक सिंघ कह्‌ते थे। उस को इतना मालूम नहीं था कि दिन कौन सा है, महीना कौन सा है, या कितने साल बीत चुके हैं। लेकिन हर महीने जब उस के अज़ीज़-ओ-अक़ारिब उस से मिलने के लिए आते थे तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वह दफादार से कह्‌ता कि उस की मुलाक़ात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर ख़ूब साबुन घिसता और सर में तेल लगा कर कंघा करता, अपने कपड़े जो वह कभी इसतेमाल नहीं करता था निकलवा के पहनता और यूं सज बन कर मिलने वालों के पास जाता। वह उस से कुछ पूछ्ते तो वह ख़ामोश रह्‌ता या कभी कभार ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनकस दी बे ध्याना दी मूंग दी दाल आफ़ दी लाल्टेन ” कह देता।

उसकी एक लड़्‌की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती-बढ़ती पन्द्रह बरसों में जवान हो गई थी। बिशन सिंघ उस को पहचानता ही नहीं था। वह बच्ची थी जब भी अपने बाप को देख कर रोती थी, जवान हुई तब भी उस की आंखों से आंसू बह्‌ते थे।


पाकिस्तान और हिंदुस्तान का क़िस्सा शुरू` हुआ तो उस ने दूसरे पागलों से पूछ्‌ना शुरू` किया कि टोबा टेक सिंघ कहां है? जब इत्‌मीनान-बख़्‌श जवाब न मिला तो उस की कुरेद दिन-बदिन बढ़्‌ती गई। अब मुलाक़ात भी नहीं आती थी। पह्‌ले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं , पर अब जैसे उस के दिल की आवाज़ भी बन्द हो गई थी जो उसे उन की आमद की ख़बर दे दिया करती थी।
उसकी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वह लोग आएं जो उस से हम-दर्दी का इज़हार करते थे और उस के लिए फल , मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वह अगर उन से पूछ्‌ता कि टोबह टेक सिंघ कहां है तो वह यक़ीनन उसे बता देते कि पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में। क्योंकि उस का ख्याल था कि वह टोबा टेक सिंघ ही से आते हैं जहां उस की ज़मीनें हैं।
पागल-ख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो खुद को ख़ुदा कह्‌ता था। उस से जब एक रोज़ बिशन सिंघ ने पूछा कि टोबा टेक सिंघ पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में , तो उस ने हस्‌ब-ए `आदत क़ह्‌क़हा लगाया और कहा “वह पाकिस्तान में है न हिंदुस्तान में, इस लिए कि हम ने अभी तक हुक्म नहीं दिया। “

बिशनसिंघ ने इस ख़ुदा से कई मरतबा बड़ी मिन्नत समाजत से कहा कि वह हुक्‌म दे दे ताकि झंझट ख़त्म हो मगर वह बहुत मसरूफ़ था इसलिए कि उसे और बे-शुमार हुक्म देने थे। एक दिन तन्ग आ कर वह उस पर बरस पड़ा “ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ वाहे गूरू जी दा ख़ालसा ऐंड वाहे गूरू जी की फ़तह — जो बोले सो निहाल , सत सरी अकाल।”
उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसल्मानों के ख़ुदा हो — सिखों के ख़ुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते ।
तबादलेसे कुछ दिन पहले टोबा टेक सिंघ का एक मुसल्मान जो उस का दोस्त था मुलाक़ात के लिए आया। पह्‌ले वह कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंघ ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया और वापस जाने लगा। मगर सिपाहियों ने उसे रोका ” यह तुम से मिलने आया है — तुम्हारा दोस्त फ़ज़ल दीन है। “
बिशनसिंघ ने फ़ज़ल दीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फ़ज़ल दीन ने आगे बढ़ कर उस के कन्धे पर हाथ रखा”मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुम से मिलूं लेकिन फ़ुरसत ही न मिली, तुम्हारे सब आदमी ख़ैरियत से हिंदुस्तान चले गए थे, मुझ से जितनी मदद हो सकी , मैं ने की, तुम्‌हारी बेटी रूप कौर . . . ."
वहकुछ कह्‌ते कह्‌ते रुक गया। बिशन सिंघ कुछ याद करने लगा ” बेटी रूप कौर ” _

फ़ज़लदीन ने रुक रुक कर कहा ” हां . . . . वह . . . . वह भी ठीक ठाक है — उन के साथ ही चली गई थी। “

बिशनसिंघ ख़ामोश रहा। फ़ज़ल दीन ने कह्‌ना शुरू` किया_ "उन्होंने मुझ से कहा था कि तुम्हारी ख़ैर ख़ैरियत पूछ्ता रहूं — अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहे हो — भाई बल्बेसर सिंघ और भाई वधावा सिंघ से मेरा सलाम कह्‌ना — और बहन अमरित कौर से भी . . . . भाई बल्बेसर से कह्‌ना, फ़ज़ल दीन राज़ी खुशी है — वह भूरी भैंसें जो वह छोड़ गए थे, उन में से एक ने कट्‌टा दिया है — दूस्‌री के कट्‌टी हुई थी पर वह छह दिन की हो के मर गई . . . . और . . . . मेरी लाइक़ जो ख़िद्‌मत हो, कहना, मैं हर वक़्त तैयार हूं . . . . और यह तुम्‌हारे लिए थोड़े से मरूंडे लाया हूं।"


बिशनसिंघ ने मरूंडों की पोटली ले कर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फ़ज़ल दीन से पूछा “टोबा टेक सिंघ कहां है ?”
फ़ज़लदीन ने क़द्रे हैरत से कहा ” कहां है? — वहीं है जहां था “
बिशनसिंघ ने फिर पूछा ” पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में ? “
"हिंदुस्तान में — नहीं नहीं पाकिस्तान में ” फ़ज़ल दीन बोखला सा गया।
बिशनसिंघ बड़्‌बड़ाता हुआ चला गया  "ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्‌स दी बे ध्‌याना दी मुंग दी दाल आफ़ दी आफ़ दी पाकिस्तान ऐंड हिंदुस्तान आफ़ दी दूर फिटे मुंह !"

तबादलेके तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की फ़हरिस्तें पहुंच गई थीं और तबादले का दिन भी मुक़र्रर हो चुका था।


सख़्तसर्दियां थीं जब लाहोर के पागल-ख़ाने से हिन्‌दू सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के मुहाफ़िज़ दस्ते के साथ रवाना हुई मुत्तलिक अफ़सर भी हमराह थे। वाघा के बार्डर पर तरफ़ैन के सुपरिंटेडेंट एक दूसरे से मिले और इब्तिदाई कारवाई ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू` हो गया जो रात भर जारी रहा।
पागलों को लारियों से निकालना और दूसरे अफ़सरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। बाज़ तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रज़ा-मन्द होते थे, उन को संभालना मुश्‌किल हो जाता था, क्योंकि इधर उधर भाग उठते थे , जो नंगे थे उन को कप्‌ड़े पनाए जाते तो वह फाड़ कर अपने तन से जुदा कर देते। कोई गालियां बक रहा है, कोई गा रहा है, _ आपस में लड़ झगड़ रहे हैं, _ रो रहे हैं , बिलख रहे हैं, कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी, पागल औरतों का शोर-ओ-ग़ौग़ा अलग था और सर्दी इतनी कड़ाके की थी कि दांत से दांत बज रहे थे ।

पागलोंकी अकसरियत इस तबादले के हक़ में नहीं थी। इसलिए कि उन की समझ में नहीं आता था कि उंहें अपनी जगह से उखाड़ कर कहां फेंका जा रहा है। वह चन्द जो कुछ सोच समझ सकते थे ” पाकिस्तान जिंदाबाद” और ” पाकिस्तान मुर्दाबाद” के नारे लगा रहे थे। दो तीन मर्तबा फ़साद होते होते बचा , क्योंकि बाज़ मुसल्मानों ओर सिखों को यह नारे सुन कर तेश आ गया था।


बिशन सिंघ की बारी आई और वाघा के उस पार मुत्तलिक अफ़सर उस का नाम रिजिस्टर में दरज करने लगा तो उस ने पूछा ” टोबा टेक सिंघ कहां है? — पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में ? “
मुत्तलिकअफ़सर हंसा ” पाकिस्तान में “
यहसुन कर बिशन सिंघ उछल कर एक तरफ़ हटा और दौड़ कर अपने बाक़ी मांदह साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे , मगर उस ने चलने से इन्कार कर दिया “टोबा टेक सिंघ यहां है — ” और ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगा _ ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ टोबा टेक सिंघ ऐंड पाकिस्तान “

उसे बहुत समझाया गया कि देखो अब टोबा टेक सिंघ हिंदुस्तान में चला गया है,अगर नहीं गया तो उसे फ़ौरन वहां भेज दिया जाएगा। मगर वह न माना। जब उस को ज़बर्दस्ती दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश की गई तो वह दर्मियान में एक जगह इस अन्दाज़ में अपनि सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे कोई ताक़त वहां से नहीं हिला सकेगी।

आदमीचूंकि बे-ज़रर था इस लिए उस से मज़ीद ज़बर्दस्ती न की गई, उस को वहीं खड़ा रह्‌ने दिया गया और तबादले का बाक़ी काम होता रहा।
सूरजनिकलने से पहले साकत-ओ-सामत बिशन सिंघ के हल्क़ से एक फ़लक-शिगाफ़ चीख़ निकली। इधर उधर से कई अफ़सर दौड़े आए और देखा कि वह आद्‌मी जो पन्द्रह बरस तक दिन रात अप्‌नी टांगों पर खड़ा रहा, औंधे मुंह लेटा है। उधर ख़ारदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था, इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान! दर्मियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिस का कोइ नाम नहीं था। टोबह टेक सिंघ पड़ा था।

महिलाओं की अनदेखी करता है आकाशवाणी

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संजय कुमार
-संजय कुमार

"...मीडिया स्टडीज ग्रुप के इस सर्वे में रेडियो के सर्वाधिक प्रसार और सुने जाने वाले चैनल आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र से एक वर्ष के दौरान प्रसारित हुए 527 कार्यक्रम और उनमें विशेषज्ञ के तौर पर बुलाए गए 244 लोगों को विश्लेषण के तौर पर पेश किया गया। सर्वे बताता है कि कैसे आकाशवाणी के कार्यक्रमों से महिलाएं और ग्रामीण महिलाएं गायब होती जा रही है।..."


निजी एफएम चैनलों से होड़ करते हुए आकाशवाणी ने व्यापक बदलाव का मन बना लिया है। आकाशवाणी के इस बदलाव में युवाओं को लुभाना और उन्हें अपनी ओर आकर्षित करना शामिल है। लेकिन आकाशवाणी के इस बदलाव ने अपने कई पारंपरिक श्रोताओं और प्राथमिकताओं को भी बदल दिया है। मसलन आकाशवाणी की ताकत भारत के ग्रामीण समाज और खासकर घरों में रहने वाली महिलाओं से है, लेकिन वह राष्ट्रीय स्तर पर आकाशवाणी के कार्यक्रमों से गायब हो रहा है।
 
अभीहाल ही में मीडिया स्टडीज ग्रुप ने अपने सर्वे में खुलासा किया कि कैसे महिलाएं और खासकर ग्रामीण महिलाएं आकाशवाणी के दायरे से बाहर हो रही हैं। ग्रुप की ओर से विजय प्रताप द्वारा किए गए इस सर्वे को संचार और मीडिया की शोध पत्रिका जन मीडियाने अपने मई, 2013 अंक में प्रकाशित किया है। इस सर्वे के अनुसार एक वर्ष के दौरान आकाशवाणी में राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं पर केंद्रित केवल 1.52 प्रतिशत कार्यक्रम ही पेश किए गए। ये कार्यक्रम भी शहरी पृष्ठभूमि की महिलाओं के इर्द-गिर्द केंद्रित रहे। आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र द्वारा महिलाओं पर केंद्रित कार्यक्रमों का अध्ययन करने के लिए इस समूह ने सूचना का अधिकार (2005) के तहत आवेदन के जरिये सूचनाएं एकत्रित की। मीडिया स्टडीज ग्रुप के इस सर्वे में रेडियो के सर्वाधिक प्रसार और सुने जाने वाले चैनल आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र से एक वर्ष के दौरान प्रसारित हुए 527 कार्यक्रम और उनमें विशेषज्ञ के तौर पर बुलाए गए 244 लोगों को विश्लेषण के तौर पर पेश किया गया। सर्वे बताता है कि कैसे आकाशवाणी के कार्यक्रमों से महिलाएं और ग्रामीण महिलाएं गायब होती जा रही है।

आकाशवाणीका दावा है कि राष्ट्रीय लोक प्रसारक के रूप में वह सभी वर्ग के लोगों को सशक्त बनाने को वचनबध्द है। लेकिन यह तभी मुमकिन है जब सामाजिक दायित्व को ध्यान में रखकर आकाशवाणी पर प्रसारित किए जाने वाले अपने कार्यक्रमोंको तैयार करे। कहा जाता है कि आकाशवाणीबहुजन हिताय, बहुजन सुखायके अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिये कार्यरत है। इसकी पहुंच देश के 92% क्षेत्र और कुल जनसंख्या के 99.18% तक है।

निजी समाचार माध्यम शहरी और बहुसांकृतिक महानगरों (कॉस्मोपॉलिटन) की आबादी को अपना लक्षित समूह निर्धारित कर चुके हैं। इस स्थिति में देश के दूर दराज के इलाकों में रहने वाली आबादी की आकाशवाणी से ज्यादा अपेक्षा रहती है। जिसके जरिए वह अपनी समस्याओं और तकलीफ की वजहों को जानना व उसे साझा करना चाहेंगे। मगर आकाशवाणी में आयोजित कार्यक्रमों के विषय वस्तुओं में महिला, किसान, दलित-आदिवासी और पिछड़े व अल्पसंख्यक समाज के सवालों का अभाव दिखता है। इस अध्ययन के अनुसार यह चिंता ना तो केवल भारत की है और ना ही अभी की है, बल्कि महिलाओं के साथ भेदभाव का यह सिलसिला निरंतर चला आ रहा है। बीजिंग में हुए चौथे वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस ऑफ वुमेन (1995) में मीडिया द्वारा महिलाओं के रुढ़िवादी छवि पेश किए जाने के संबंध में कहा था कि अभी भी कुछ श्रेणियों की महिलाएं मसलन गरीब, असहाय या वृद्ध महिलाएं जो अल्पसंख्य तबकों या जातिय समूहों से ताल्लुक रखती हैं, मीडिया से पूरी तरह गायब हैं। मीडिया में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर भारत में प्रथम प्रेस आयोग (1954) और द्वितिय प्रेस आयोग (1980) ने चिंता जाहिर की थी। दूसरे प्रेस आयोग द्वारा 1980 में कराए गए सर्वे में बताया गया कि दक्षिण भारत में कुल पत्रकारों में केवल 3 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। मीडिया स्टडीज ग्रुप के 2012 में किए गए सर्वे में भी यह बात सामने आई है कि भारतीय समाचार मीडिया में महिलाओं की संख्या केवल 2.7 प्रतिशत है।भारत में महिलाओं की आबादी करीब 49.65 करोड़ है, जिसमें ग्रामीण महिलाओं की हिस्सेदारी करीब 72.7 प्रतिशत और शहरी महिलाओं की 27.3 प्रतिशत है।


श्रम के क्षेत्र में कुल महिलाओं की हिस्सेदारी 25.7 प्रतिशत है, जिसमें ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी 31 और शहरी महिलाओं की करीब 11.6 प्रतिशत है। 85 प्रतिशत कामगार ग्रामीण महिलाएं या तो निरक्षर हैं या प्राथिमक शिक्षा ही ले सकी हैं । ये आंकड़े ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाओं के बारे में एक नजरिया तैयार करने के लिए काफी है। जिससे एक आम धारणा यह भी बनती है कि भारतीय समाज की विकास प्रक्रिया और श्रम में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी महत्वपूर्ण है। जबकि आकाशवाणी जैसे संचार माध्यम में उनकी आवाज अनसुनी कर दी जाती है। सर्वे के अनुसार कभी किसी ग्रामीण महिला को आकाशवाणी के कार्यक्रमों में बातचीत के लिए नहीं बुलाया जाता। यह सर्वे बताता है कि आकाशवाणी से एक वर्ष के दौरान 527 कार्यक्रम प्रसारित किए गए और इनमें महिलाओं पर केवल 8 कार्यक्रम प्रसारित हुए। इस तरह से आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र से वर्षभर के दौरान प्रसारित हुए कुल कार्यक्रमों में महिलाओं की हिस्सेदारी 1.52 प्रतिशत रही। आधी-आबादी को आकाशवाणी के कार्यक्रमों में इतनी कम हिस्सेदारी आम श्रोता या नागरिक के लिए हैरानी वाली बात हो सकती है लेकिन आकाशवाणी की संचालक संस्था प्रसार भारती के लिए यह चौंकाने वाली बात नहीं है। प्रसार भारती की वार्षिक रिपोर्ट देखे तो उसमें भी ये साफ-साफ दर्ज है कि प्राइमरी चैनल और स्थानीय प्रसारण केंद्र से महिलाओं पर केंद्रित केवल क्रमशः 2.1 और 1.2 प्रतिशत कार्यक्रम ही पेश किए गए।

सर्वेके अनुसार आकाशवाणी पर समय-समय पर बातचीत के लिए बुलाए जाने वाले विशेषज्ञों में भी घोर लैंगिक असमानता है। आकाशवाणी के हिंदी एकांश ने वर्ष 2011 के दौरान विभिन्न विषयों पर बातचीत के लिए 244 लोगों को बुलाया जिसमें केवल 27 महिलाएं थीं। बहरहाल आकाशवाणी में थोड़ी बहुत जो महिलाएं दिखती भी हैं तो वह शहरी पृष्ठभूमि की हैं। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर होने वाली बातचीत में ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाओं की सुरक्षा को नजरअंदाज कर शहरी महिलाओं को सुरक्षा की समस्या पर केंद्रित रहा।

आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र के हिंदी एकांश में वर्ष 2011 के दौरान बुलाए गए विशेषज्ञों का ब्यौरा

क्रम
कार्यक्रम में बुलाए गए विशेषज्ञ
संख्या
प्रतिशत
1.
पुरुष
217
88.93
2.
महिला
27
11.06

कुल
244
100
(स्रोत : सूचना के अधिकार के जरिए मिली जानकारी पर आधारित)


विशेषज्ञके तौर पर कार्यक्रमों में बुलाई गई महिलाएं पूरी तरह से शहरी पृष्ठभूमि की पढ़ी-लिखी, नौकरी पेशे से संबंधित थी। जिन 27 महिलाओं को आकाशवाणी ने बुलाया उसमें ग्रामीण पृष्ठभूमि की कोई महिला शामिल नहीं है। (देखें तालिका)

आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र में वर्ष 2011 के दौरान बुलाए गए विशेषज्ञों में शामिल महिलाओं का ब्यौरा
क्रम
महिला विशेषज्ञ
पेशा
1.
डॉ राखी मेहरा
चिकित्सक
2.
अदिति टंडन
पत्रकार
3.
सविता देवी
पत्रकार
4.
डॉ अर्चना सिंह
एकडमिशियन
5.
अन्नपूर्णा झा
वरिष्ठ पत्रकार
6.
नलनी
पर्सनॉल्टी एक्सपर्ट
7.
डॉ लवलीन यडानी
चिकित्सक
8.
रचना पंडित
प्रिंसिपल, डीपीएस
9.
प्रो. सुशीला रामास्वामी
शिक्षक दिल्ली विश्वविद्यालय
10.
सुमन नलवा
डीसीपी दिल्ली पुलिस
11.
शोभना नारायण
नृत्यांगना
12.
विदुषी चतुर्वेदी
महिला कार्यकर्ता, लेखिका
13.
जयती घोष
-
14.
अदिति फडनीस
पत्रकार
15.
मोनिका चंसोरिया
-
16.
उमा शर्मा
-
17.
वर्षा जोशी
जनगणना निदेशक दिल्ली
18.
बरखा सिंह
अध्यक्ष महिला आयोग, दिल्ली
19.
अंजू भल्ला
निदेशक, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय
20.
डॉ. रंजना कुमारी
निदेशक, सेंटर फॉर सोशल रिसर्च
21.
डॉ. ऋतु प्रिया
कम्युनिटी मेडिसीन जेएनयू
22.
प्रो. सविता पांडे
जेएनयू
23.
वीणा सीकरी
पूर्व राजनयिक
24.
अनीता सेतिया
उपनिदेशक, शिक्षा विभाग
25.
अंकिता गांधी
जन संसाधन अनुसंधान संस्थान
26.
सुधा सुंदर रमण
महासचिव, एडवा
27.
गार्गी परसाई
पत्रकार
(स्रोत : सूचना के अधिकार के जरिए मिली जानकारी पर आधारित)

महिलाओंके साथ भेदभाव के साथ ही यह बात भी उठती है कि महिलाओं की सत्ता संस्थानों में हिस्सेदारी कितनी है। आकाशवाणी को प्रसार भारती के मुख्य कार्यकारी अधिकारी दूरदर्शन के मुकाबले बड़ा संगठन मानते हैं, लेकिन वहां क श्रेणी के पदों पर केवल 14 प्रतिशत महिलाएं है, जबकि दूरदर्शन में 25 प्रतिशत है।

मीडियास्टडीज ग्रुप के पूर्व में आकाशवाणी पर ही किए गए सर्वे में दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहार की हकीकत को उजागर किया था।मसलन कि ऑल इंडिया रेडियो ने वर्ष 2011 के दौरान अनुसूचित जाति के मुद्दे पर सिर्फ एक कार्यक्रम सात नवंबर, 2011 को सरकारी नौकरियों में बढ़ती दलित आदिवासी अधिकारियों की संख्याको प्रस्तुत किया गया। हालांकि इसे केवल अनुसूचित जाति का मुद्दा कहना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि इसके साथ आदिवासी शब्द भी जुड़ा हुआ है जिनकी जनसंख्या आठ फीसदी से ऊपर है। जबकि, देश की कुल आबादी में अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी 15 फीसदी से ज्यादा है। इसी तरह आकाशवाणी के कार्यक्रम तैयार करने वालों को आदिवासी सवाल नहीं सुझे या उसे समझा नहीं गया, जबकि यह समाज देश में सबसे संकटग्रस्त समाज है जो अपने अस्तित्व पर चौतरफा हमले का सामना कर रहा है। आकाशवाणी ने आदिवासी समस्या को लेकर कोई कार्यक्रम प्रसारित नहीं किए। वहीं देश में पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की आबादी 27 फीसदी बताई जाती है और उस समाज के लिए भी सालभर में कोई कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं किया गया।

सार्वजनिकक्षेत्र का लोक प्रसारक होने के नाते उसके राष्ट्रीय कार्यक्रमों का स्वरूप लोकतांत्रिक होना चाहिए।लेकिन कार्यक्रमों का विषय चयन और उसके लिए आमंत्रित मेहमानों की सूची लोक प्रसारक के लोकातांत्रिक होने पर सीधा सवाल खड़ा करते हैं, और सर्वे से स्पष्ट होता है कि अपने लोकतांत्रिक होने की घोषणा की आकाशवाणी खुद ही उल्लंघन कर रही है। प्रसार भारती अधिनियम (1990) में आकाशवाणी के उद्देश्यों में महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों और समाज के अन्य निर्बल वर्ग के लोगों के हितों की रक्षा करने के लिए विशेष उपाय संबंधित मामलों में जागरूकता उत्पन्न करनेको खास तौर से जगह दी गई है। लेकिन आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केंद्र से प्रसारित हुए कार्यक्रमों का अध्ययन यह दिखाता है कि हकीकत में महिलाएं और खासकर ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं आकाशवाणी के दायरे से लगभग बाहर हैं और साथ ही दलित, पिछड़े, आदिवासियों को भी पर्याप्त जगह नहीं दी गई।

(मीडिया स्टडीज ग्रुप के सर्वे पर आधारित रिपोर्ट)

संजय कुमार,आईआईएमसी से प्रशिक्षित पत्रकार हैं। 
दैनिक 'सी एक्सप्रेस' में काम करने के बाद 
फिलहाल मीडिया शोध जर्नल जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं। 
संपर्क snjiimc2011@gmail.com

रीमेक फिल्में : गुणवत्ता का गिरता ग्राफ

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उमाशंकर सिंह
-उमाशंकर सिंह

"...असल में कुछ रसोइये किसी भी चीज की चटनी बना सकते हैं और इसे उनका गुण ही माना जाना चाहिए, वैसे ही कुछ फिल्मकार किसी भी चीज की चटनी बना सकते हैं और इसे उनके अवगुण और फिल्मबोध के अभाव के अलावा कुछ नहीं माना जा सकता।..."

हते हैं समय पहली बार अपने आप को हिस्ट्री और दूसरी बार स्वांग के रूप में दोहराता है। यह बात अपने संपूर्ण और नग्न अर्थ में सबसे ज्याद एक दौर की महान और अच्छी फिल्मों और उनके रीमेक फिल्मों पर लागू होती है। पिछले कुछ वर्षों में बनी पुरानी फिल्मों के रीमेक ने हमें यह मानने पर लगभग मजबूर सा कर दिया है। साजिद खान के ‘हिम्मतवाला’ और डेविड धवन के ‘चश्मेबद्दूर’ बना और प्रदर्षित कर लेने के बाद अगर हिंदुस्तान में जागरूक दर्शक समूह और सचेत फिल्म समाज होता तो वह पुराने क्लैसिकल फिल्मों के रीमेक बनाने पर प्रतिबंध की मांग नहीं भी तो, कम से कम रीमेक बनाने के संबंध में कुछ नीति, कुछ निर्देष, कुछ संहिता और कुछ बनाने वाले फिल्मकार से न्यूनतम फिल्मी संवेदनशीलता और अर्हता की मांग जरूर करता। पर कवि शमशेर बहादुर सिंह कह गए हैं 'जो नहीं है उसका क्या गम? जैसे कि समझदारी!' 

रीमेक फिल्में अपनी मूल फिल्मों से साधारण होती हैं। इस बात को नियम की तरह कहा जा सकता है। पर जैसा कि नियम है कि नियम के साथ कुछ अपवाद भी होते हैं, वह यहां भी है। फिल्मों के रीमेक बनाने की शुरुआत भारतीय सिनेमा के जन्म के चंद वर्ष बाद ही हो गई थी, जब दादा साहब फाल्के ने 1913 बनाई गई पहली भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ को सिर्फ चार साल बाद ही फिर से बनाया। 

हिंदी सिनेमा के इतिहास को पलट कर देखने पर एक ही सार्वकालिक निर्विवाद महान रीमेक हमें नजर आती है- ‘मदर इंडिया’।  1957 में महबूब साहब ने 17 साल पहले 1940 में खुद की ही बनाई फिल्म ‘औरत’ को फिर से बनाया। वैसे ही जैसे एक ही कविता को हम अलग-अलग वक्त में लिखते हैं और उसे और संवेदनात्मक गहराई और कलात्मक ऊंचाई देने की कोशिश करते हैं। वैसे ही जैसे विजयदान देथा ने अपनी ही कहानियों को एक लंबे समय अंतराल के बाद फिर-फिर लिखा और समय-साहित्य के सीने पर उसका अमिट निशान बना दिया। 

ऐसी जरूरत लेखकों-कलाकारों को इसलिए आन पड़ती है क्योंकि कलात्मक प्यास कितनी भी अच्छी कृति बना दें, बुझती नहीं है और बुझ गई तो खत्म हो जाती है। महबूब खान की ‘औरत’ औसत फिल्म थी और इसे वे भी स्वीकारते थे। असल में वे इसे जैसा बनाना चाहते थे वह वैसी बन नहीं पाई थी। इस बात की टीस वे महसूस करते थे और अपनी मृत्यु से महज पांच साल पहले उन्होंने अपने सपनों की फिल्म ‘औरत’ को रूपहले पर्दे पर ‘मदर इंडिया’ के नाम से टांक दिया। 

लेकिन इसके बाद जब भी रीमेक फिल्में बनी वह मूल फिल्म से कमतर ही रही, जबकि समय के विकास के हिसाब से उसे आगे की कलाकृति होनी चाहिए थी। केदार शर्मा के साथ महबूब खान वाला मामला नहीं था। भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पर वे इसी नाम से एक अमर फिल्म 1941 में बना चुके थे। यह उन चंद फिल्मों में थी जो किसी साहित्यिक कृति पर बनी हो और उसमें नए आयाम जोड़ती हो। साथ ही एक साथ इसमें उनने बॉक्स ऑफिस और कलात्मकता दोनों को एक साथ सफलतापूर्वक साधा था। इसके 23 साल बाद जब वे कई और सफल फिल्में बना चुके थे वे फिर ‘चित्रलेखा’ पर लौटे। अब तक वे बड़े फिल्मकार बन चुके थे। उन्हें लगता था कि चित्रलेखा में असीम संभावनाएं हैं और जिसका दोहन किया जाना है। साथ ही पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता के द्वंद्व की कहानी कहना एक बार फिर समय की मांग है। सो उन्होंने फिर से चित्रलेखा बनाई। इस बार अशोक कुमार जैसे बड़े नायक के साथ और रंगीन। लेकिन फिल्म अपने संगीत के लिए जितनी याद की जाती है उतना बेहतर  फिल्म के रूप में नहीं की जाती। 
देवदास पर बनी विभिन्न फिल्मों के बारे में बनी एक मोटी और काफी हद तक सही धारणा है कि इस पर बनी तमाम फिल्म क्रमशः थोड़ी-थोड़ी डिग्रेड होती गई। बीसी बरूआ की केएल सहगल अभिनीत देवदास (1936) से लेकर, बिमल रॉय की दिलीप कुमार अभिनीत देवदास (1955), भंसाली की शाहरूख खान अभिनीत (2002) और अनुराग कश्यप की अभय देओल अभिनीत तक देवडी (2009) तक। (इस बारे में विद्वानों में मतभेद हो सकता है। वैसे विद्वानों में किसी भी बात पर मतभेद हो सकता है) 

विधुविनोद चोपड़ा की ‘परिणीता’ अच्छी फिल्म थी पर उसके बारे में भी यही कहा जा सकता है। उसके बाद बनी रीमेक फिल्मों ने मूल फिल्मों के साथ छेड़खानी करने या उसके रद्दी संस्करण होने का ही काम किया। करण जौहर की करण मल्होत्रा निर्देषित ‘अग्निपथ’ ने पैसे भले ही मुकूल आनंद निर्देषित मूल फिल्म से ज्यादा बनाए हों और सौ करोड़ी हो गया हो, पर मूल फिल्म में व्यक्त प्रतिरोध और प्रतिषोध की सघन भावना को वह छू भी नहीं पाया। मुकूल आनंद के विजय (अमिताभ) का 1990 में बोला गया यह डायलॉग कि ‘मैं अपने मौत की तारीख अपनी डायरी में लिख कर चलता हूं’ आज तक लोगों के जेहन में तारी है। 

राम गोपाल वर्मा ने ‘शोले’ की आत्मा जैसे अपनी ‘आग’ में जला डाली थी, डेविड धवन ने ‘चश्मेबद्दूर’ के हास्य को उसी तरह फूहड़ और द्विअर्थी चुटकुलों में रिड्यूस कर दिया। ऐसे चुटकुले हम कॉमेडी सर्कस में देख लेते हैं उसके लिए अलग फिल्म बनाना तच्छ महत्वाकांक्षाओं के लिए अपना और दूसरों का समय, संसाधन और ऊर्जा बर्बाद करना ही है। साजिद खान की ‘हिम्मतवाला’ के बारें में यहां क्या, कहीं भी बात करना वक्त और स्पेश खराब करना की कहा जाएगा, सो उसे छोड़ते हैं। 

असल में कुछ रसोइये किसी भी चीज की चटनी बना सकते हैं और इसे उनका गुण ही माना जाना चाहिए, वैसे ही कुछ फिल्मकार किसी भी चीज की चटनी बना सकते हैं और इसे उनके अवगुण और फिल्मबोध के अभाव के अलावा कुछ नहीं माना जा सकता। बहरहाल गुरुदत्त के ‘साहब, बीवी और गुलाम’ की अनाधिकारिक रीमेक तिंग्मासू धूलिया की ‘साहब बीवी और गैंगेस्टर’ (एक-दो दोनों) जरूर ऐसी रीमेक फिल्मों के बीच उस भरोसे की तरह है जो कहती है नहीं, अच्छी रीमेक फिल्में भी बन सकती हैं बस कोशिश तो समझदारी और न्यनतम फिल्मबोध से करो यारों!   

(फारवर्ड प्रेस पत्रिका के मई अंक से साभार) 

उमाशंकर पत्रकार भी हैं और कहानीकार भी. 

 आज-कल फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिख रहे हैं.

 इनसे uma.change@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं

मुक्तिबोध लोकतंत्र के अंधेरे की शिनाख्त करने वाले कवि हैं

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लोकतंत्र के ‘अंधेरे में’ आधी सदी पर विचारगोष्ठी संपन्न

-सुधीर सुमन

मुक्तिबोध की मशहूर कविता के प्रकाशन के पचास वर्ष के मौके पर जन संस्कृति मंच के कविता समूह की ओर से गांधी शांति प्रतिष्ठान में लोकतंत्र के ‘अंधेरे में’ आधी सदी विषयक विचार-गोष्ठी आयोजित की गई। जसम के पिछले सम्मेलन में कविता, कहानी, जनभाषा, लोककला आदि के क्षेत्र में सृजनात्मकता को आवेग देने के लिए विशेष समूह बनाए गए थे। इस आयोजन से कविता समूह की गतिविधि का सिलसिला शुरू हुआ। 

आयोजनकी शुरुआत रंगकर्मी राजेश चंद्र द्वारा ‘अंधेरे में’ के पाठ से हुई। इस मौके पर चित्रकार अशोक भौमिक द्वारा ‘अंधेरे में’ के अंशों पर बनाए गए पोस्टर को आलोचक अर्चना वर्मा ने तथा मंटो पर केंद्रित ‘समकालीन चुनौती’ के विशेषांक को लेखक प्रेमपाल शर्मा ने लोकार्पित किया। 

विचारगोष्ठीकी शुरुआत करते हुए प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा कि 57 से 63 तक मुक्तिबोध की यह कविता संभावना की कविता थी, पर 2013 में वास्तविकता की कविता है। यह एक 'समग्र' कविता है। मुक्तिबोध की कविताओं में जिस ‘वह’ की तलाश है, दरअसल वह जिंदगी के संघर्षों से अर्जित क्रांति - चेतना  है। लेनिन के मुताबिक़ कई बार 'फैंटेसी' असहनीय यथार्थ के खिलाफ एक बगावत  भी होती है। इस कविता में फैंटेसी  पूंजीवादी सभ्यता की समीक्षा करती है।  यह मध्यवर्ग के आत्मालोचन की कविता भी  है। अंधेरे से लड़ने के लिए अंधेरे को समझना  जरूरी होता है। यह कविता अंधेरे को समझने और समझाने  वाली कविता है। 

आलोचकअर्चना वर्मा ने कहा कि मौजूदा प्रचलित विमर्शों के आधार पर इस कविता को पढ़ा जाए, तो हादसों की बड़ी आशंकाएं हैं। जब यह कविता लिखी गई थी, उससे भी ज्यादा यह आज के समय की जटिलताओं और तकलीफों को प्रतिबिंबित करने वाली कविता है। ऊपर से दिखने वाली फार्मूलेबद्ध सच्चाइयों के सामने सर झुकाने वाली 'आधुनिक 'चेतना के बरक्स मुक्तिबोध तिलस्म और रहस्य के जरिये सतह के नीचे गाड़ दी गयी सच्चाइयों का उत्खनन करते हैं।  यह यह एक आधुनिक कवि की अद्वितीय उपलब्धि है।

वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि सामाजिक बेचैनी की लहरों ने हमें दिल्ली में ला पटका था, हम कैरियर बनाने नहीं आए थे। उस दौर में हमारे लिए ‘अंधेरे में’ कविता बहुत प्रासंगिक हो उठी थी। इस कविता ने हमारी पीढ़ी की संवेदना को बदला और अकविता की खोह में जाने से रोका। हमारे लोकतंत्र का अंधेरा एक जगह कहीं घनीभूत दिखाई पड़ता है तो इस कविता में दिखाई पड़ता है। पिछले पांच दशक की कविता का भी जैसे केंद्रीय रूपक है ‘अंधेरे में’। यह निजी संताप की नहीं, बल्कि सामूहिक यातना और कष्टों की कविता है।

चित्रकारअशोक भौमिक ने मुक्तिबोध की कविता के चित्रात्मक और बिंबात्मक पहलू पर बोलते हुए कहा कि जिस तरह गुएर्निका को समझने के लिए चित्रकला की परंपरागत कसौटियां अक्षम थीं, उसी तरह का मामला ‘अंधेरे में’ कविता के साथ है। उन्होंने कहा कि नक्सलबाड़ी विद्रोह और उसके दमन तथा साम्राज्यवादी हमले के खिलाफ वियतनाम के संघर्ष ने बाद की पीढि़यों को ‘अंधेरे में’ कविता को समझने के सूत्र दिए। ‘अंधेरे में’ ऐसी कविता है, जिसे सामने रखकर राजनीति और कला तथा विभिन्न कलाओं के बीच के अंतर्संबंध को समझा जा सकता है।

समकालीनजनमत के प्रधान संपादक और आलोचक रामजी राय ने कहा कि मुक्तिबोध को पढ़ते हुए हम अंधेरे की नींव को समझ सकते हैं। पहले दिए गए शीर्षक  ‘आशंका के द्वीप अंधेरे में’ में से अपने जीवन के अंतिम समय में आशंका के द्वीप को हटाकर मुक्तिबोध ने 1964 में ही स्पष्ट संकेत दिया था कि लोकतंत्र का अंधेरा गहरा गया है। 'अँधेरे में' अस्मिता या म‍हज क्रांतिचेतना की जगह नए भारत की खोज और उसके लिए संघर्ष की कविता है। मुक्तिबोध क्रांति के नियतिवाद के कवि नहीं हैं, वे वर्तमान में उसकी स्थिति के आकलन के कवि हैं। वे अपनी कविता में विद्रोह की धधकती हुई ज्वालामुखियों की गड़गडाहट दर्ज करते हैं।  इस देश की पुरानी हाय में से कौन आग भड़केगी, जो शोषण और दमन के ढांचे को बदल देगी, वे इस सोच और स्वप्न के कवि हैं। सही मायने में वे कविता के होलटाइमर थे। 

विचारगोष्ठी का संचालन जसम, कविता समूह के संयोजक आशुतोष कुमार ने किया। इस मौके पर कहानीकार अल्पना मिश्र, कवि मदन कश्यप, कथाकार महेश दर्पण, ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक दिनेश मिश्र, कवि रंजीत वर्मा, युवा आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी, वरिष्ठ कवयित्री प्रेमलता वर्मा, शीबा असलम फहमी, दिगंबर आशु, यादव शंभु, अंजू शर्मा, सुदीप्ति, स्वाति भौमिक, वंदना शर्मा, विपिन चौधरी, भाषा सिंह, मुकुल सरल, प्रभात रंजन, गिरिराज किराडू, विभास वर्मा, संजय कुंदन, चंद्रभूषण, इरफान, हिम्मत सिंह, प्रेमशंकर, अवधेश, संजय जोशी, रमेश प्रजापति, विनोद वर्णवाल, कपिल शर्मा, सत्यानंद निरुपम, श्याम सुशील, कृष्ण सिंह, बृजेश, रविप्रकाश, उदयशंकर, संदीप सिंह, रोहित कौशिक, अवधेश कुमार सिंह, ललित शर्मा, आलोक शर्मा, मनीष समेत कई जाने-माने साहित्यकार, बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी और प्रकाशक मौजूद थे। धन्यवाद ज्ञापन आलोचक गोपाल प्रधान ने किया।  इस मौके पर फोनिम, लोकमित्र और द ग्रुप की ओर से किताबों, फिल्मों के सीडी और कविता पोस्टर के स्‍टॉल भी लगाए गए थे।  

लालू का जादू या नीतीश के खिलाफ गुस्सा?

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Kamlesh Verma
कमलेश
-कमलेश

"...हाल के दिनों में नीतीश कुमार के खिलाफ यह चौथी रैली थी। पहली रैली भाकपा ने अपने कांग्रेस के मौके पर की, दूसरी रैली भाकपा माले ने की और तीसरी रैली नीतीश से अलग होने वाले उपेन्द्र कुशवाहा ने की। चौथी परिवर्तन रैली थी। इनमें से उपेन्द्र कुशवाहा की रैली को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी रैलियों में जमकर भीड़ उमड़ी और सब में जदयू-भाजपा की सरकार के खिलाफ गुस्सा दिखाई पड़ा। लालू की परिवर्तन रैली में यह गुस्सा कुछ ज्यादा ही मुखर होकर उभरा। हालांकि इस रैली के साथ ही उनपर परिवारवाद चलाने और धन के बेतहाशा खर्च के आरोप भी लग रहे हैं।..."

पारा 45 डिग्री के आसपास। धूप ऐसी की चमड़ी जला डाले और गर्म हवा ऐसी जो आपके बदन के पानी का एक-एक कतरा सुखा दे। ठीक ऐसे समय में यदि हजारों लोग गांधी मैदान के बीच में घंटों बैठकर किसी के भाषण का इंतजार करते हों तो मतलब साफ है कि भाषण करने वाले का जादू उनके सर पर चढ़कर भले न बोल रहा हो लेकिन जलवा जरूर बरकरार है। 15 मई को लालू प्रसाद  की परिवर्तन रैली में आए लोग बिहार की सत्ता को यह बता रहे थे कि उसके सुशासन का जादू अब ढलान पर लुढ़कने वाला है। हाल के दिनों में नीतीश कुमार के खिलाफ यह चौथी रैली थी। पहली रैली भाकपा ने अपने कांग्रेस के मौके पर की, दूसरी रैली भाकपा माले ने की और तीसरी रैली नीतीश से अलग होने वाले उपेन्द्र कुशवाहा ने की। चौथी परिवर्तन रैली थी। इनमें से उपेन्द्र कुशवाहा की रैली को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी रैलियों में जमकर भीड़ उमड़ी और सब में जदयू-भाजपा की सरकार के खिलाफ गुस्सा दिखाई पड़ा। लालू की परिवर्तन रैली में यह गुस्सा कुछ ज्यादा ही मुखर होकर उभरा। हालांकि इस रैली के साथ ही उनपर परिवारवाद चलाने और धन के बेतहाशा खर्च के आरोप भी लग रहे हैं।

लालूकी रैली एक ऐसे समय में हुई है जब एक तरह से बिहार में राजनीतिक संक्रमण का दौर चल रहा है। एक तरफ जनता दल यू में भाजपा का साथ छोड़कर कांग्रेस के साथ जाने की बेचैनी दिखाई पड़ रही है तो दूसरी तरफ लालू प्रसाद किसी भी कीमत पर कांग्रेस का साथ छोड़ने को तैयार नहीं। अगले दो जून को महाराजगंज लोकसभा क्षेत्र का उपचुनाव होने जा रहा है और इसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए परीक्षा माना जा रहा है। उन्होंने इस चुनाव में अपने खास मंत्री पी.के. शाही को उम्मीदवार बनाया है जबकि यह सीट राष्ट्रीय जनता दल की है। अगले पांच-छह महीने के बाद लोकसभा चुनाव की तैयारियां शुरू होने वाली हैं। मतलब यह कि लालू प्रसाद ने अगर रैली के लिए यह समय चुना तो वह अनायास नहीं था। वह स्पष्ट रूप से आने वाली राजनीतिक घटनाओं की पहलकदमी अपने हाथ में लेना चाहते थे।

अगररैली में उमड़ी भीड़ का आकलन किया जाए तो निश्चित रूप से लालू अपनी योजना में सफल रहे हैं। जिस तरह से 14 मई की रात से ही लोगों का पटना आना शुरू हुआ वह राजनीतिक विश्लेषकों को हैरत में डालने वाला था। 15 मई को सुबह आठ बजे से लोग सड़कों पर उतर आये थे। बारह बजते-बजते राजधानी पटना की सारी ट्रैफिक ठप हो गई थी और एक तरह से इन सड़कों पर दूर-दराज के गांवों से आये लोगों का कब्जा हो चुका था। लालू प्रसाद खुद रैली में तीन बजे पहुंचे लेकिन गांधी मैदान में लोगों का जुटान सुबह से होने लगा था। शायद यही कारण था कि धूप से परेशान लोग लालू प्रसाद के आने के साथ गांधी मैदान से निकलने भी लगे थे। लेकिन लालू प्रसाद को पता था कि उन्हें भाषण मे क्या बोलना है। उन्होंने सबसे पहले दलितों और पिछड़ों के सम्मान का मसला उठाया और लोगों से कहा कि आज जब वे बीडीओ के ऑफिस में जाते हैं तो बीडीओ उनके साथ कैसा व्यवहार करता है? थाने में दारोगा उनके साथ किस भाषा में बात करता है? उन्होंने सवाल किया कि बिहार में किनकी बच्चियों के साथ बलात्कार हो रहा है? दरभंगा, मधुबनी और किशनगंज के मुसलमान नौजवानों को आतंकवादी बताकर क्यों गिरफ्तार किया जा रहा है? इस मसले पर इस सरकार की जुबान बंद क्यों है? उन्होंने कांट्रैक्ट पर काम करने वाले शिक्षकों, डॉक्टरों और इंजीनियरों का मसला उठाया और लोगों को याद दिलाया कि जब वे अपनी मांग को लेकर पटना जाते हैं तो पुलिस किस तरह न केवल उनपर लाठी चलाती है बल्कि उन्हें झूठे मुकदमों में फंसाती भी है। इन सवालों पर भीड़ की प्रतिक्रिया देखने लायक थी।

इसरैली के साथ लालू प्रसाद की शारीरिक भाषा भी बदली है। वे पहले से ज्यादा आत्मविश्वास से भरे दिखाई पड़ रहे हैं। रैली में जिस तरह पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की भागीदारी हुई है उससे उन्हें लगा है उनका टूटा हुआ जनाधार एक बार फिर उनके साथ जुड़ रहा है। इस रैली में वे सवर्ण जातियां भी लालू के साथ खड़ी नजर आई जो नीतीश सरकार से नाराज हैं। जाहिर है कि इस रैली  के साथ उन्होंने कांग्रेस को यह संदेश देने की कोशिश की है अभी भी उसके लिए बिहार में गठबंधन के लिए उनसे मजबूत दूसरा कोई नहीं है।
 
लेकिनदूसरी तरफ इस रैली के साथ लालू प्रसाद पर लगने वाला परिवारवाद का आरोप और भी मजबूत हुआ है। इस रैली में उनके दोनों बेटों तेजप्रताप और तेजस्वी को जिस तरह से आगे किया गया उससे लालू पर हमले भी तेज हुए हैं। लालू के दोनों पुत्रों ने हालांकि रैली में भाषण नहीं दिया लेकिन वे मंच पर जिस तरह से आये उससे कई पुराने नेताओं का रंग फीका हुआ। रैली के प्रचार के दौरान भी दोनों पुत्रों को जिस तरह हीरो बनाया गया उससे कई नेताओं को अपनी उपेक्षा का अहसास हुआ है। बेटी मीसा भारती भी मंच पर दिखीं और पत्नी राबड़ी देवी तो पार्टी की कद्दावर नेता हैं ही। इन सबके बावजूद बिहार में नीतीश से नाराज लोगों को कोइ दूसरा विकल्प अब तक दिखाई नहीं पड़ रहा है। पिछले दिनों वामपंथी दलों ने संयुक्त मोर्चा बनाकर जनता के बीच जाने का ऐलान जरूर किया था लेकिन ऐसी कोई पहल कदमी दिखाई नहीं पड़ रही है।
 
इस रैली में लालू प्रसाद की अमीरी भी दिखाई पड़ी।  रैली में आदमी को लाने के लिए सात ट्रेनें बुक की गई थीं और इसके लिए रेलवे को डेढ़ करोड़ रुपये का भुगतान भी किया गया। इसके अलावा पूरे पटना को होर्डिंग और बैनरों से पाट दिया गया था। राजधानी में बसों की कतार लग गई थी। ऐसी कोई मंहगी गाड़ी नहीं जिस पर राजद के नेता नहीं पहुंचे हों। आयकर विभाग ने भी राष्ट्रीय जनता दल को नोटिस देकर पूछा है कि आखिर इस रैली पर उसने कितना पैसा खर्च किया। उसने पूरा हिसाब-किताब मांगा है।

कमलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं.
अभी एक दैनिक अखबार में नौकरी. 
इनसे  संपर्क का पता kamleshbux@gmail.com है.

Uttarakhand : The new Africa of India Inc.

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-Capt. Mohit Joshi
Capt. Mohit Joshi

For any industry to thrive in a new territory all it requires is ample natural resources, favourable (read gullible) human capital, a couple of cloud representatives and inefficient/gratified /negligent policy makers and certain quarters of blindfolded regulators and 'knowledge sharing consultants' who act as 'Sanjays' (fund-raising agencies and advisors) for 'Dhratrashtras' i.e. the myopic policy makers. This recipe is wonderfully available in all the newly formed states like Uttarakhand.


Notthat, these states were not having these elements when they were part of their parent states, but these elements were out-casted in any role. The centralized authoritarians kept entire moral responsibility of an inclusive growth and development on a back-burner and had to face the wrath of woken-up citizens who carved these respective states. However, the new 'stake-holders' did exactly the opposite of what it was expected out of them. They took the values and faith of the citizens for a ride and continued the same spree with a localized face. The dream of a livable social fabric of inclusive sustainable growth was again missing with the fiefdoms being localized and obliging a handful of 'relationships'.

I would restrict myself to Uttarakhand, since, it would be inept for me, if I present obfuscated observations/feelings and prevalent scenario of a place that I have never personally visited. I still call Uttarakhand a new state, since it takes generations for a new state to come out of the 'turnkey project cycle' and run on its own in any standard and/or adverse conditions like any other 'old/established state', per say, at the national/international standards.

When I was a school boy, during my daily regimen of morning exercises, I used to find heaps of spent chemical and chemically treated process waste thrown around the country-side every night and left for the environment (air, water, soil and humans) to consume it in its natural course of time and process. The situation after 20 years is still the same, but yes the process has taken a dramatic change. India Inc. has become more intellectual, elegant and environmentally cautious, they no more discard it so outrageously, due to a paradigm shift termed as 'technical collaboration' or 'joint venture' to absorb the collateral damage and facilitate mutual 'business oriented issues'.

Basedon the regional resource dynamics of Uttarakhand, manufacturing sector and stone crushing sector has witnessed exponential growth without conceding to and brazenly flouting all the global environmental norms and benchmarks as a result of the coterie formulated due to the relevant aspects that I mentioned in the first Para. Pollution control regulatory bodies have set-up specific and collective guidelines for industrial development which aims at abetting pollution at the onset of the process. Why I am referring Uttarakhand as the new Africa for India Inc., is that despite understanding and following the same guidelines in other parts of the country and globe, India Inc has forgot them in Uttarakhand or has been able to hold on ransom, the state government and authorities on meager development and marginal employment related issues.

Theissue of setting up one and the only ambient air monitoring station in the state, that too at 'Clock Tower' Dehradun a residential/commercial area puts a serious question mark on the 'expert' capabilities of UEPPCB. As per the data on the website of UEPPCB (Uttarakhand Environment Protection and Pollution Control Board) the ambient air quality has gradually been deteriorating in last 5-7 years and still the board doesn't finds it necessary that ambient air monitoring stations be erected across the state in all industrial estates, commercial/residential localities and projected industrial hubs to take control of the situation. The matter of a CHWTSDF (Common Hazardous Waste Treatment Storage and Disposal Facility) that has been planned for just 5 years also needs to be reviewed since the amount of waste generation will increase in times to come and probably one facility for each region, Kumaun and Garhwal, will have to be established. The SPCB (State Pollution Control Board) will have to acquire ample resources, knowledge and expertise of checking the quantum of Hazardous Industrial Waste being generated in the state as well as the stored/dumped waste since ages, which also needs to be shifted to a secured CHWTSDF. At no account we can await a human induced natural tragedy that would be irrevocable. One pertinent observation which also arises is, that why was not a waste management policy adopted and setup prior to the formation of dedicated Industrial Estates/Zones in the state and at what speed is the board and the govt updating itself to give 'Devbhoomi' a clean industrial development. The SPCB will have to come out of its slumber and update itself with the new technologies and processes at an unprecedented speed, since, to my understanding a considerable irreversible damage has already been done to the environment in Uttarakhand.
If a recent article in a national daily (Kumaun edition) is to be accepted, that the excavated grounds by stone crushers (in their facility and around the river-beds) are being filled with the spent chemical and process waste from the local Pulp & Paper Mill, than the process of ground water table contamination has already been accelerated by this 'Joint Venture Collaboration'. There is a need to check it as soon as possible, since the matter is of pertinent importance taking into consideration the natural run-off and flow of ground water table from the high-lands to the foothills and terai region. An immediate investigation and base-line survey needs to be conducted across the foothills and terai region with Ambient Air Monitoring, Ground & Run-off Water and Soil sampling in and around the pockets of these industries. Similar, instance has already occurred in the Nangal area of Punjab wherein ground water table was drastically contaminated by a pharmaceutical company and was forcibly shut down by the government. The case is still subjudice in the High Court of Punjab, wherein the industry has filed insolvency and pleads that it does not have enough resources to resolve the issue and till date abnormal quantities of incinerable and hazardous waste still stands lying in the company premises. It is to be brought to the knowledge that to de-contaminate that one pocket of ground water table money will be spent from the tax-payer's pockets.

Theamount of negligent planning is still on large. Recently, Municipal Corporation of Haldwani (Distt Nainital) has proposed a MSW (Municipal Solid Waste) Project citing 60-70 TPD (Tonnes Per Day) of waste generation. The area earmarked as 'dumping ground' by the planners and 'so called' consultants is near the river-bed of river 'Gaula', a natural rain-fed water-body flowing from North to South with Kathgodam-Haldwani-Lalkuan-Pantnagar on its Western side and Golapar-Chorgalia on its Eastern side.

Thesituation and casual planning procedures are alarming and also put a question-mark on the 'technical knowledge' of the 'SNA' adopted by JNNURM Nodal Office at Dehradun/Delhi. Taking this aspect into consideration it is pathetic to be played down by the entire coterie to plan a 'dumping ground' for serious municipal waste project near a river bed. Leaching of chemical and biological contaminants and gradual percolation would contaminate the ground water table at an alarming pace near the river-bed, than any other place. Even if a SLF  (Sanitary/Secured Landfill) is being planned, how is an area of mere 4 acres going to survive the quantum of waste that will be generated by the gradual influx of population due to industrial development in the general area needs to be seriously debated. At the same time the SLF would be vulnerable near a water body due to any hydrological pressure buildup beneath the landfill/HDPE Liner which may be ruptured/leaked. In any case, no company/consultant till date confirms a non-percolating landfill, it is stated that the process can be delayed 'only' by 'expert and effective operations', which needs to be investigated in detail about the SLFs operating till now in the country. It is surely doomed to be a 'White Elephant' with money being shared across the tables and a lip-service being done to the cause. Worst would be the scenario since the flow of the water is going to contaminate consumable water in the down-stream region i.e. Haldwani to Lalkuan, where, the water would combine with the chemical dumping grounds of the Paper Mill under the stone crushers. Needless to say that the proximity of a stone-crusher to the river is essential to achieve business economics and that it is the sole reason stone crushers are thriving in the proximity of river Gaula, flouting all environmental norms applicable to a critically polluting industrial unit, whether it be proximity to population & reserved forest areas (3-5 kms), controlled excavation, transport of raw & finished material, crushing processes, SPM levels, quality management systems, health hazards, illegal stocking on agricultural land and highways, emergency response planning and proximity to populated/inhabited areas.

Aspart of the Detailed Project Report (DPR), 'Consent to Establish' and 'Consent to Operate' extended by the regulatory body (SPCB) any industrial unit has to comply with Air, Water & Soil Protection Act and Public Liability Insurance Act. One crucial aspect of the industry before establishing and operating is to take care of the 'Carbon Foot-print' and to take ample procedures as per the expected Carbon Foot-print in the years to come, for an effective abettment of pollution. The global policy on the aspect is also the same - 'Polluter Pays'. Today if we go across the Industrial Areas and Stone crushers, the situation is pathetic, there is no or negligible Green-belt developed by the industries, even to the matter that being a government regulatory body SIDCUL has not been able to put up a respectable show that should be an example for the industries and accordingly be regulated on the ground. Green-belt does not, at all mean, a lavish garden with some ornamental greenery inside the factory compound, but a pre-designated percentage of the total land of the factory with a combination of high-rise trees, thick cover, absorbing the fugitive emissions & VOCs, sound and visual pollution; medicinal trees in the free-zone and lastly the ornamental thick shrubs on the inner side. Some 'enterprising' industrial units/brands, though have tried to do a lip-service to the issue but they need to pull-up their socks, since saplings planted on the periphery cannot sustain the weather conditions. A fully grown, matured plant with adequate care over a period of time can only achieve the aim of rendering an effective Carbon Free sustainable environment along-with other efficient energy, water and waste management clean-technologies which reduce the collective Carbon Foot Print of existing and proposed industrial areas in the state.

SIDCULneeds to look into the matter with great responsibility, since matters related to sustainable development and visual appearance of the Industrial Area is its prime responsibility. Present situation of the industrial area does not prove the point that we are a state that boasts of 60% forest cover of the total land area of the state. SIDCUL needs to take control of its civil contractors to adhere to the latest environmental technologies and processes to abet serious health and accident hazards when construction being conducted in the area is devoid of any sense of environmental responsibility, health & safety consciousness. The drastically rising air pollution and SPM level across the 'Tri-city Area' of Haldwani-Rudrapur-Kashipur is alarming. It is not far that we are going to hear cases of severe health ailments which have mired the states like Punjab with un-regulated industrial development. The Air will not be conducive for a healthy living and may lead to serious respiratory problems in infants and younger generation.

Thoughthe situation is critical, but can still be controlled, only if a dedicated, visionary and combined effort is actuated by the Hon'ble High Court (being the appellate body for pollution abetment) and direct SPCB, SIDCUL and MoEF  to take corrective actions at the earliest to 'promise' a clean state to our future generations. Apart from this, Dept. of Industrial Policy & Planning also needs to establish an 'Audit Body' that keeps a check on the defaulting units and take serious policy related actions against the culprit states and its pollution control boards. IIT Delhi on the request of CPCB had conducted an inclusive report (CEPI, Comprehensive Environmental Pollution Index) and indexed the comprehensive environmental pollution in all industrially active states and punitive actions were justified and further developmental aid and projects were discontinued until the states took considerable actions on ground to curb the social menace of polluting the environment. The report may be referred by the appellate body to carve the environmental future of the state. At the other hand, SPCB has to intake more professionals committed to the cause with latest knowledge and skill sets, since the matter cannot be addressed as per global standards with the present manpower and unqualified members on 'ad-hoc' basis to manage the show. The ratio of present, expected and proposed industries vis-a-vis suitable manpower has to be calculated and addressed by the SPCB at the earliest, lest we are ready to create another Punjab out of a beautiful state like Uttarakhand.

Anothervisionary step that the state government needs to initiate is that a thorough industrial planning be conducted in respect to the National Manufacturing Policy which may guide us to a clean and sustainable development of the state. Only Green and Orange category industry may be allowed in the state which does not blatantly mis-utilize natural resources like water in the manufacturing process. As it is, we are not a state that has got ample water resources and if we are to take into consideration the latest global reports and strategic occurrences, then the final war is going to be on Water rather than Oil. Alternately the state within one year may be developed into the next IT, Tourism, Food Processing and related Educational hub if the process is put on full throttle with a 'time-line'. Why I am emphasizing on 'Timeline' is that the issue of govt. projects gets shot down by the ineffective state machinery, which due to its negligent work attitude coupled with the bureaucratic processes, delay the time-line thereby escalating the carbon foot print of a project.

We still have got some time to infuse collective efforts towards a sustainable development by effective inclusion of Alternate Energy Resources and Clean-technologies while setting up the long term goals for the state. This requires an inclusive approach from the regulatory bodies by including professionals and advisors carrying requisite exposure, experience and knowledge base in various clean-tech applications and its integration to create a road-map for futuristic cities in the state. The SPCB unlike any other state regulatory body should be given a target to achieve with clear deadlines along-with 'teeth' to 'bite', rather than produce a meek smile every time in front of any corporate giant and/or a JV nexus.

Therecent environmental clearance for POSCO (to establish steel plant in Odisha) being revoked by the Green Tribual is an example that we need tougher laws for companies to adhere to the environmental responsibilities, lest we intend to leave a doomed planet for our children.  However, the worry is not a POSCO which is yet to establish the factory, but end number of 'Poscos' which already exist and take serious environmental issues for granted. The informed and updated MoEF - Jairam Ramesh had the vision to look ahead in the future and accordingly was devising and implementing essential guidelines to safeguard the environment from further deterioration. To fall in line, the present MoEF - Jayanti Natrajan, has sooner or later understood the gravity of the situation and has pitched for 'harsh penalties' including imprisonment for violations of environmental norms by the India Inc. and closure notices for defaulting units. At the same time, Ms. Natarajan also needs to come out of the grid of being a 'party spokesperson' and 'media representative' and get cracking on ground to her clear and present responsibility, as it has been quite a while that she has taken up the office and now can't offload each crucial issue on her predecessor. Although 'action' requires conviction with a moral courage of steel irrespective to party politics, FDIs and Technological Collaborations.

Whileconcluding, I would again reiterate that, the factor of industrial development and related environmental reforms for Uttarakhand, today stands at a paramount importance due to the geographical, demographical and development needs which are complex and specific to the region and therefore need to be addressed with a specialist method rather than applying a nationwide template of populist decisions and projects that may not be feasible for the state in the long run. Also, the consultancies, processes and technologies that have already lost relevance and/or gone obsolete, and siphoned off taxpayer's money should not be, at all, allowed to be forced upon or circumvented/experimented/introduced in Uttarakhand as a gullible state or an 'Africa' for India Inc. in the garb of development and a marginal employment.

फिर एक कमजोर फिल्म : शूट आउट एट वडाला

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विनय सुल्तान 
-विनय सुल्तान 

"...शूट आउट एट वडाला संजय गुप्ता की हालिया फिल्म है. ये महाशय पहले भी जिंदा, प्लान, कांटे, मुसाफिर जैसी वाहियात फिल्म दे चुके हैं. इनसे इस फिल्म में भी ऐसी ही आशा की गई थी और ये इस पर खरे उतरे हैं..."


विष्णु खरे सिनेमा पर दिए अपने आख्यानो में लोगो से अक्सर डपटते हुए पूछते हैं कि “क्या आपको किसी डाक्टर ने ख़राब सिनेमा देखने की सलाह दी है? आप पालिका बाज़ार की फलां दुकान जाइये वहां पर आपको दुनिया भर का सार्थक सिनेमा मिल जायेगा.” लेकिन दूसरी और जब आप देखते हैं की मुख्य-धारा के सिनेमा में रचनात्मकता सिर्फ दो आयामों, सेक्स और अपराध के बीच ही नाच रही हो तब इन फिल्मों पर सवाल खड़े करने के लिए, इन्हें सिरे से नकार देने के लिए, इनकी बखिया उधेड़ देने के लिए आपको किसी डाक्टर के सलाह की कोई जरूरत नहीं है.

शूटआउट एट वडाला संजय गुप्ता की हालिया फिल्म है.ये महाशय पहले भी जिंदा, प्लान, कांटे, मुसाफिर जैसी वाहियात फिल्म दे चुके हैं. इनसे इस फिल्म में भी ऐसी ही आशा की गई थी और ये इस पर खरे उतरे हैं. फिल्म में सेक्स और अपराध का जोरदार तड़का है जो कि इसकी व्यावसायिक सफलता की गारंटी देता है.

गलती किसकी?

फिल्मकी कहानी मुंबई  में 1982 हुए पहले एनकाउंटर पर आधारित है. इसमें मनोहर सुर्वे उर्फ़ मान्य सुर्वे को पांच  गोली लगी थी और वो मारा गया. यह एक सच्ची घटना है और इसके बाद ही मुंबई पुलिस की कुख्यात “ एनकाउंटर सेल “ की उत्पत्ति हुई थी. प्रदीप शर्मा (104एनकाउंटर) और दया नायक (82एनकाउंटर) जैसे हीरे इसी फैक्ट्री की पैदाइश हैं. अब तक इस सेल द्वारा 622लोगो को मौत के घाट उतरा जा चूका है.

मनोहरसुर्वे रत्नागिरी का रहने वाला था. बाद में वो अपनी माँ के साथ मुंबई में रहने लगा. वो एक होनहार छात्र था जिसने 78फीसदी अंको के साथ अपनी ग्रेजुएसन की. मुंबई पुलिस ने उसे हत्या के एक झूठे मुकदमे में गिरफ्तार किया और उसे आजीवन कारावास की सजा हुई. इसके बाद वो रत्नागिरी जेल से फरार हो गया. वहां से वह मुंबई आया और और अपराध की दुनिया की और मुड गया.

अपराधका अपना समाज-शास्त्र होता है. कोई आदमी शौकिया अपराधी नहीं हो जाता. सामाजिक नियमों और कानून के प्रति इतना खूंखार विद्रोह पैदा होने के लिए शोषण पर आधारित ये व्यवस्था भी उतनी ही अहम् होती है. जो इस व्यवस्था के आखिरी पायदान पर होता है उसके व्यक्तित्वा में विद्रोह  का आना बहुत सहज घटना है. अब इस विद्रोह को स्वर कैसे मिलाता है ये भी सामाजिक परिवेश पर ही निर्भर करता है. जब आप व्यवस्था द्वारा शोषित होते हो तब आपके जीवन में नैतिकता और अनैतिकता की बहस बेईमानी हो जाती है क्यों की शोषण करने वाली व्यवस्था के पास भी शोषण करने का कोई नैतिक आधार नहीं होता है. मैं यहाँ अमानवीय अपराधो को जायज नहीं ठहरा रहा पर क्या किसी अपराधी को पैदा करने में समाज की भूमिका को नाकारा जा सकता है ? आप मान्य सुर्वे का वाकिया ही ले लीजिये एक मेधावी छात्र को बिना किसी कसूर के अगर आजीवन कारावास की सजा मिल जाती है तो क्या इसमे दोष हमारी पुलिस और न्याय-व्यवस्था का नहीं है. अगर वो इतना खूंखार अपराधी बना तो इसमे गलती किसकी थी?

दूसरीबात बतौर फ़िल्मकार क्या संजय गुप्ता की यह जिम्मेदारी नहीं थी की कैद के दौरान इस नौजवान के मन में चल रही कशमकाश को उभारते? उन्होंने उसकी जगह जॉन अब्राहिम की देह की नुमाइश को ज्यदा जरूरी समझा. बैनडीड क्वीन की फूलन जब बेमही गाँव के ठाकुरों पर गोली चलाती है या दो बीघा ज़मीन में जब कन्हैया जेब काटता है तो उसके अपने सामाजिक निहितार्थ होते हैं.

सेन्सलेस सेंसर

विद्या (कंगन रानौत) इस फिल्म में नायिका की भूमिका में है. नायिका किसी भी फिल्म के लिए महत्वपूर्ण होती है. पर जब पूरी फिल्म में नायिका सिर्फ 10से 12 मिनट में लिए परदे पर आये और उसमे भी वो ज्यादातर समय नायक के साथ बिस्तर पर फिल्माई जाये तो नायिका के अस्तित्व का औचित्य समझ से परे है. इसके अलावा फिल्म में तीन आइटम सोंग डाले गए हैं (मुझे शब्द आइटम सोंग से भीषण असहमति है). इसमें से एक सन्नी लियोने पर भी फिल्माया गया है जिनकी पोर्नोग्राफी पर ये समझ है की यह समाज की यौन कुंठाओ को ख़त्म करता है और लैंगिकता के स्तर पर खुलापन लाता है. बाज़ार के द्वारा दिया गया खुलेपन का यह घटिया तर्क स्त्री को उपभोग की वस्तु बनाने के लिए अक्सर इस्तेमाल किया जाता है. 

दूसरागाना "बबली बदमाश है"  को "मुन्नी बदनाम हुई" परिवार का सदस्य माना जा सकता है. ये सिनेमा की फार्मूलेबाज़ फितरत का एक और उदाहरण है. इन तीनो गानों में नृत्यांगना के स्तन, कूल्हों और कमर को विभिन्न कमरा एंगल से दिखा पर पुरुष कुंठाओं को तुष्ट करने की पुरजोर कोशिश की गई है.

पिछलेकई साल भर से जिस तरीके से औरतों की आज़ादी के विषय पर संघर्ष चल रहे हैं और चेतना नयी करवट ले रही है , उसका रत्ती भर प्रभाव सेंसर बोर्ड ने अपने ऊपर नहीं पड़ने दिया है.  सेंसर बोर्ड  इस फिल्म को वयस्क प्रमाण-पत्र दे कर अपनी जवाबदेही ख़त्म नहीं कर सकता.

सितारा रेटिंग का खेल

मुख्यधाराका मीडिया फिल्मों के स्तर को तय करने के लिए सितारा पद्धति का इस्तेमाल करता है. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले रिव्यु को हम पेड न्यूज़ के रूप में भी देख सकते हैं. रेटिंग के इस खेल को समझने के लिए आप इस फिल्म की रेटिंग को देखिये –

टाइम्स ऑफ़ इंडिया:  
बॉलीवुड हंगामा:  4
इंडिया टुडे:   3
  जी न्यूज़:  3.5
  Ibn 7:      2
Ndtv :     2

यहाँकोई भी आदमी ये बता सकता है की ये रेटिंग सिस्टम फिल्म के स्तर को बताने के बजाय इस बात की चुगली कर रहा है कि प्रमोशन पर खर्च किये जाने वाले धन में से किस-किस को पैसा मिला है और कौन-कौन वंचित रह गया. टेलीविज़न पर भी प्रमोशन की ये कवायद बड़े पैमाने पर चलती है. रियल्टी शो फिल्मो को प्रमोशन के लिए मंच मुहैय्या करवाते हैं. इस प्रकार के शो के पीछे विज्ञापन से बड़ा अर्थशास्त्र प्रमोशन का है. फिल्म कलाकारों से होने वाले करार में निर्माता यह बात पहले ही तय कर लेता है की कलाकार फिल्म के प्रमोशन के लिए इतने कार्यक्रमों में जायेगा.

भलेही इस फिल्म ने पैतालीस करोड़ का व्यवसाय कर लिया हो पर इतना यथार्थवादी प्लाट होने के बाद भी इस कहानी को जिस हातिमताई तरीके से कहा गया उसका स्पष्टीकरण व्यावसायिकता के तर्क से भी नहीं दिया जा सकता. यहाँ सिनेमा की बुनियादी समझ में आ चुका विकार उघड़ कर सामने आ जाता है.

विनय  स्वतंत्र पत्रकार हैं. 
इनसे vinaysultan88@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

समाचार, विज्ञापन और चिट-फंड की नैतिकता

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भूपेन सिंह
-भूपेन सिंह

एक गुलाम और नागरिक के बीच का फ़र्क यही है कि गुलाम मालिक के मातहत होता है और नागरिक कानून के. हो सकता है कि मालिक बहुत विनम्र हो और कानून बहुत सख्त, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है. असल बात सनक और नियम के बीच के अंतर की है.

-ग्रेविटी ऐंड ग्रेस में फ्रांसीसी दार्शनिक 

और ऐक्टिविस्ट सिमोन वेल

कार्टून साभार- http://www.thehindu.com


विज्ञापनबनामसूचना

भारतके दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राइ) ने टेलीविजन चैनलों से एक घंटे में बारह मिनट से ज़्यादा विज्ञापन न दिखाने के नियम का पालन करने को कहा तो वे बौखला गए और उन्होंने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यापार करने के अपने संवैधानिक अधिकारों के हनन का मामला बताकर आसमान सर पर उठा लिया. अधिकांश दर्शक ट्राइ की इस पहलकदमी से ख़ुश हैं लेकिन टेलीविजन मालिकों के पक्ष में बोलने वाली संस्थाएं और व्यक्ति इसका विरोध कर रहे हैं. एक साल पहले भी ट्राइ ने इस सिलसिले में एक अधिसूचना जारी की थी लेकिन तब टेलीविजन चैनल इसको लटकाने में कामयाब हो गए थे. इस बार भी अगर चैनल मालिक कामयाब हो गए तो यह बहुसंख्यक दर्शकों के लिए ख़तरनाक होगा. सरकार फिलहाल हवा का रुख भांप रही है.

ट्राईने क़रीब एक साल पहले मार्च दो हज़ार बारह में एक विस्तृत कंसल्टेशन पेपर जारी किया था. उसमें टेलीविजन से जुड़े हर पक्ष के विचारों को आमंत्रित किया गया. दर्शकों से लेकर मालिकों तक का पक्ष सुना गया. सारे सुझाव आने पर दो महीने बाद ट्राइ ने टेलीविजन चैनलों में विज्ञापनों की समय सीमा निर्धारित करने के लिए स्टैंडर्स्ड्स ऑफ़ क्वालिटी ऑफ़ सर्विस (ड्यूरेशन ऑफ एडवर्टीजमेंट इन टेलीविजन चैनल्स) रेग्युलेशन, 2012जारी किया. तब भी टेलीविजन मालिकों ने इसका खुलकर विरोध किया और वे टेलीकॉम से जुड़े विवादों को सुलझाने के लिए बने टेलीकॉम डिस्प्यूट सेटलमेंट एंड अपीलेट ट्राइब्यूनल (टीडीएसएटी)में अपील के लिए चले गए. आख़िरकार टीडीएसएटी ने भी टीवी दर्शकों के हक़ में फैसला दिया और उसके बाद ट्राई ने फिर से अधिसूचना जारी की. इस साल बाईस मार्च को जारी नई अधिसूचना स्टैंडर्स्ड्स ऑफ़ क्वालिटी ऑफ़ सर्विस (ड्यूरेशन ऑफ एडवर्टीजमेंट इन टेलीविजन चैनल्स) (एमेंडमेंट) रेग्युलेशन, 2013 के नाम से है. 

ट्राइ की कोशिश

ट्राईने कहा है कि टेलीविजन चैनल हर तिमाही में अपने टीवी विज्ञापनों का हिसाब उसे दिखाएं. बारह मिनट से ज्यादा विज्ञापन दिखाने पर उन पर कार्रवाई की जा सकती है. ट्राई के फैसले से बौखलाए मालिक सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश में लगे हैं. वे सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी से मिलकर अपना रोना रो चुके हैं. फिलहाल सरकार ने इस पर कोई निर्यण नहीं लिया है लेकिन उसका ढुलमुल रवैया टीवी देखने वाली जनता के लिए निराशा और मालिकों के लिए ख़ुशी का सबब बन सकता है. टेलीविजन मालिकों के इंडियन ब्रॉडकास्टिंग फाउंडेशन और न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) जैसे संस्थान अपने पक्ष में लॉबिंग करने का कोई रास्ता नहीं छोड़ रहे हैं. समाचार माध्यमों से जुड़े होने की वजह से एनबीए मालिकों की अगुवाई कर रहा है. उसने अपने कई पिट्ठू संपादकों और पत्रकारों को भी पर्दे के पीछे से इस काम में लगा रखा है. इसी का नतीजा है कि मध्य अप्रैल के बाद सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने  इस सिलसिले में सार्वजनिक बयान दिया जो इस सिलसिले में सरकार की मंशा पर सवाल उठाता है, उनका कहना है कि क्या आप नियम लागू करने की प्रक्रिया में उसी को ख़त्म कर देना चाहते हैं जिसके लिए नियम बनाने जा रहे हैं(आर यू रियली गोइंग टु किल द गूज इन द प्रोसेस ऑफ़ इम्प्लीमेंटिंग रूल्स?द हिंदू, 18अप्रैल). 

टेलीविजनमालिक मुख्य तौर पर तीन बातों पर ट्राई के नियमन का विरोध कर रहे हैं. उनका कहना है कि ट्राई के नियम संविधान प्रदत्त उनके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यापार करने के अधिकार, 19 (1) (ए) और (जी) का उल्लंघन करते हैं. ऐसा बोलकर वे सफेद झूठ बोल रहे हैं. ट्राई चैनलों के कार्यक्रमों और उनकी विषयवस्तु के नियमन की बात कर ही नहीं रहा है. इस लिहाज़ से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का मामला यहां सिरे से ख़ारिज हो जाता है. ट्राई तो सिर्फ़ उपभोक्ताओं को बेहतर सेवा देने की वकालत कर रहा है. जिससे वे आराम से टीवी के कार्यक्रम देख पाएं, बीच में अनावश्यक तौर पर बड़े-बड़े विज्ञापनों से उन्हें दिक्कत न हो. कुल मिलाकर दर्शकों को एक उपभोक्ता के तौर पर बेहतर सेवा मिले. ट्राई इसमें कुछ नया भी नहीं कह रहा है. इसके लिए उसने सरकार की तरफ़ से उन्नीस सौ चौरानबे से चले आ रहे केबल टेलीविजन नेटवर्क रूलः1994 को आधार बनाया है. जिसमें स्पष्ट तौर पर टेलीविजन उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखते हुए एक घंटे में बारह मिनट के विज्ञापनों की समय सीमा तय की गई है. इन बारह मिनटों में भी दस मिनट विज्ञापनों के लिए और दो मिनट चैनल के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं. इतने साल तक सारे निजी चैनल इस नियम की अवहेलना करते हुए एक तरह से अपराध करते रहे हैं. अब, जब उन्हें इस अपराध की याद दिलाई जा रही है तो इसे स्वीकारने के लिए ही तैयार नहीं. वे उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की तर्ज पर ख़ुद को सही ठहराने की कोशिशों में लगे हैं. यह पूरी तरह हास्यास्पद तर्क है कि ट्राई का नियम मालिकों के व्यापार करने के अधिकारों का उल्लंघन है. क्योंकि मालिक जब सारी सरकारी औपचारिकताओं को पूरा करते हैं तभी उन्हें चैनल चलाने का लाइसेंस मिलता है. इस लिहाज़ से टेलीविजन चैनल का लाइसेंस लेने से पहले केबल टेलीविजन नेटवर्क रूल की शर्तों को मानना मालिकों की बाध्यता रही है लेकिन उन्होंने कभी उन्हें माना नहीं.

चैनलमालिकों को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो नज़र आती है लेकिन एक घंटे में तीस से चालीस मिनट विज्ञापन दिखाकर वे जिस तरह दर्शकों के अधिकारों का हनन करते हैं वह उन्हें दिखाई नहीं देता. अब अपने ऊपर ख़तरा देख टीवी मालिक कहने लगे हैं कि ट्राई के पास इस तरह के नियमन का कोई अधिकार नहीं है. इसमें भी झूठ के अलावा और कुछ नहीं है. सन् दो हजार चार में संचार और सूचना तकनीक मंत्रालय ने अपनी एक अधिसूचना में कहा कि प्रसारण सेवाएं और केबल सेवाएं, दूससंचार सेवाएं होंगी. इस लिहाज़ से टेलीविजन पर दिखाये जाने वाले विज्ञापनों की अवधि दर्शकों के देखने के अनुभव की गुणवत्ता से जुड़ती हैं और यह अनुभव, उन्हें मिलने वाली सेवा की गुणवत्ता से जुड़ा है. जिसका पालन उपभोक्ता को सेवा प्रदान करने वाले प्रसारकों को करना होगा. इससे साफ़ हो जाता है कि ट्राई को विज्ञापनों की अवधि तय करने का पूरा अधिकार है. यही वजह है कि टीडीएसएटी ने भी ट्राई को उपभोक्ताओं के पक्ष में नियमन करने की हरी झंडी दी है. ट्राई की अधिसूचना के ख़िलाफ़ टेलीविजन मालिक एक और तर्क देते हैं कि विज्ञापन से ही उनके व्यापार का मुख्य आधार हैं. विज्ञापन कम होने पर उनके लिए धंधा चलाना मुश्किल हो जाएगा. वे बहाने बनाते हैं कि प्रसारण का पूरी तरह से डिजटलीकरण न होने की वजह से केबल ऑपरेटरों को उन्हें बहुत सारा पैसा चुकाना पड़ता है. पूरा उद्योग मंदी की मार झेल रहा है, वगैरह-बगैरह. कुल मिलाकर वे ऐसा दिखाने की कोशिश करते हैं कि जैसे पूरे भारतीय समाज में उनसे ज़्यादा असहाय और दुखी और कोई नहीं. अपने हितों के लिए इस तरह की चालबाज़ी दिखा रहे इन प्रसारकों के कामों का अगर पंचनामा किया जाया तो पता चलेगा कि किस तरह यह पूरे देश की जनता को बेवकूफ़ बना रहा हैं और सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति पर अमल कर रहे हैं, विज्ञापनों की समय सीमा निर्धारित करने का मामला तो इसका बहुत छोटा उदाहरण है.
यह स्थापित तथ्य है कि मीडिया जनता की राय बनाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में हमारे निजी चैनल क्या दिखाते हैं?ज़रूरत तो इस बात की है कि टेलीविजन समेत पूरे मीडिया में विषयवस्तु से लेकर मालिकाने तक पर ठोस कायदे-क़ानून बनें. लेकिन जब भी नियमन की बात होती है चालाक़ मालिक नियमन का अर्थ बदलकर उसे सरकारी नियंत्रण बना देते हैं और पूरी बहस को सरकारी नियंत्रण बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बदल देते हैं. अगर टेलीविजन चैनलों को अंधविश्वास और साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने, फूहड़ कार्यक्रम दिखाने से रोका जाए तो इसमें क्या गलत हैं?  असली बात तो यह है कि निजीकरण के दौर में सरकारें भी अपने नियमों को कड़ा नहीं करना चाहती. उदारीकरण की अर्थव्यवस्था का मतलब ही यही है कि इसमें उद्योगपतियों के हितों को ध्यान में रखकर कायदे-कानून की बात कम से कम हो.  कुछ नियम हों भी तो वे सिर्फ़ दिखावे के हों और ऐसा लगे कि सरकार और निजी उद्योगपति एक दूसरे से संघर्ष कर रहे हैं. लेकिन यह दोनों के बीच होने वाली नूरा कुश्ती से ज़्यादा कुछ भी नहीं होती. वरना टेलीविजन को लेकर, ऐसा नहीं है कि कोई कायदे-कानून नहीं हैं, केबल टेलीविजन नेटवर्क रूल के मुताबिक़ कोई भी चैनल अपने कार्यक्रमों और विज्ञापनों में अंधविश्वास फैलाने, जाति, धर्म, लिंग और उम्र के आधार पर भेदभाव फैलाने वाली विषयवस्तु नहीं दिखा सकता है. वास्तविकता यह है कि हमारे टेलीविजन चैनलों में जनविरोध पर आधारित इस सब की ही भरमार ज्यादा देखने को मिलती है. हर चैनल नियमों का खुलेआम उल्लंघन करता है, अपराध करता है. उनके कार्यक्रमों में भविष्य बताने वाले पाखंडी जोगियों से लेकर गोरेपन की क्रीम बेचने वाले रंगभेदी विज्ञापन धड़ल्ले से दिखाए जाते हैं और हमारी लोकतांत्रिक सरकार के कानों में इस पर जूं तक नहीं रेंगती है. स्वनियमन की वेशर्म वकालत करने वाले मालिकों की जेबी संस्थाएं भी इस स्थिति से हमेशा आंखें मूंदे रहती हैं. लेकिन जब-जब इन स्थियों में बदलाव की मांग उठने लगती है तो सरकार और उद्योगपतियों की तरफ़ से यही सुनने को मिलता है कि जैसे इन हालात पर उनसे ज़्यादा चिंतित और कोई नहीं.

समाचारमाध्यमों में कितने विज्ञापन होने चाहिए भारत में यह बहस काफ़ी पुरानी है. टीवी के देश में इतना प्रचलित होने से बहुत पहले प्रिंट माध्यम को लेकर भी यह बहस रही है. पचास के दशक की शुरुआत में पहले प्रेस आयोग ने पाठकों के हितों को  ध्यान में रखते हुए अख़बार में कम से कम साठ फीसदी समाचार और ज़्यादा से ज़्यादा चालीस फ़ीसदी से ज़्यादा विज्ञापन छापने की वकालत की थी. इसे ध्यान में रखकर बाद में द न्यूज़पेपर (प्राइस एंड पेज़) ऐक्ट 1956 बनाया गया. मीडिया मालिकों ने तब भी तमाम किस्म की जोड़तोड़ के बाद, यहां तक कि कोर्ट का सहारा लेते हुए भी इसे लागू नहीं होने दिया. यही वजह है कि आज यह बीमारी सारे संचार माध्यमों में फैल चुकी है. जब-जब भी मीडिया के नियमन की बात की जाती है मालिक लोग तुरंत ही अभिव्यक्ति की स्वत्त्रता समेत कई किस्म के विचित्र बहानों को लेकर सामने आ जाते हैं और पैसे के बल पर ख़ुद को सही साबित  करने में कामयाब भी रहते हैं जिससे मीडिया की अराजकता में कोई कमीं नहीं आने पाती. आज जिस तरह से प्रिंट, टीवी, रेडियो और  इंटरनेट का जितना असीम विस्तार हुआ है. इस मीडिया परिदृश्य के लिए कुछ ठोस कायदे कानूनों का  होना ज़रूरी हो गया है लेकिन लेकिन मीडिया को  दुधारू गाय समझने वाले मीडिया मालिक ऐसा किसी हालत में नहीं होने  देना चाहते हैं. आज मीडिया के हर पहलू को ध्यान में रकते हुए उसके सम्पूर्ण नियमन की ज़रूरत है. हाल के दौर में बड़े-बड़े मीडिया संगठन सभी तरह के मीडिया में पैसा लगाकर उस पर कब्ज़ा करने या एकाधिकार जमाने की कोशिश कर रहे हैं. इस साल ट्राइ ने ही मीडिया के मालिकाने के नियमन के लिए दूसरी बार एक और कंसल्टेशन पेपर जारी किया था. इसमें बड़े-बड़े मीडिया कंग्लोमरेट की तरफ़ से क्रॉस मीडिया ऑनरशिप पर कुछ रोक लगाने की वकालत की गई है. मध्य फरवरी में जारी किए गए इस पेपर पर सभी हिस्सेदारों की तरफ़ से जवाब देने की आख़िरी तारीफ़ बाईस को ख़त्म हो गई है. एक बार फिर मीडिया मालिक मालिकाने के नियमन के ख़िलाफ़ एकजुट हैं. इससे पहले भी ट्राइ मई दो हज़ार आठ में एक कंसल्टेशन पेपर जारी कर चुका है और मालिक उसे ग़लत ठहराने की कोशिश करते रहे हैं. अगर जनता का दबाव रहा तो एक न एक दिन सरकार को अपना ढुलमुल रवैया छोड़कर नागरिकों के पक्ष में नियम बनाने के ले बाध्य होना पड़ेगा लेकिन फिलहाल ऐसी कोई सूरत नहीं दिखती है.

उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर कहा जा सकता है कि मीडिया को बाज़ार और मुनाफ़े का पर्याय बनाये जाने की वजह से ही वर्तमान मीडिया परिदृश्य बना है. जिसमें लोगों को एक नागरिक के तो छोड़ दीजिए उपभोक्ता अधिकार पाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रह़ा है.

चिट फंड घोटाला और समाचार

पश्चिम बंगाल में सक्रिय शारदा चिट फंड कंपनी की वजह से राज्य की राजनीति में तूफ़ान मचा हुआ है. कंपनी हज़ारों जमाकर्ताओं के ख़ून पसीने की कमाई डुबा चुकी है. उसके मालिकों पर धोखाधड़ी और बेईमानी का आरोप है. गिरफ़्तारी से बचने के लिए भागकर कश्मीर पहुंचे कंपनी के चेयरमैन सुदीप्तो सेन को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया है. लोग राज्य में ममता बनर्जी सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं. इस मामले में भी राडिया टैप कांड की तरह ही आर्थिक घोटाले, मीडिया और राजनीति का घातक घालमेल सामने आया है. बाज़ार में अपनी छवि बनाए रखने के लिए इस चिट फंड ग्रुप ने निर्माण और टूर्स एंड ट्रेवल्स समेत कई धंधों में पैसा लगा रखा था. अवैध काम आसानी से चलाने के लिए जनता से वसूले गए पैसे का बड़ा हिस्सा इसने समाचार माध्यमों में लगाया था. अंग्रेजी अख़बार बंगाल पोस्ट समेत यह कंपनी, सकालबेला, आज़ाद हिंद, प्रभात वार्ता, सेवन सिस्टर्स पोस्ट, तारा न्यूज़, तारा म्यूज़िक और तारा बंगला जैसे कई अख़बार और टेलीविजन चैनल चलाती थी.

भारतीयप्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने कंपनी के क़रीब चालीस बैंक अकाउंट को फ्रीज कर दिये हैं लेकिन जांच करने पर पता चला कि उनमें कोई पैसा जमा नहीं है. सेबी ने तत्काल कंपनी से सारी स्कीमें बंद करने को कहा है और तीन महीने के भीतर जमाकर्ताओं को उनका पैसा लौटाने का निर्देश दिया है. कंपनी की हालत देखकर जमाकर्ताओं को पैसा वापस मिल पाना असंभव मालूम पड़ता है. कंपनी के मुख्य कर्ता-धर्ता सुदीप्तो सेन के तृणमूल कांग्रेस से गहरे ताल्लुकात रहे हैं और पार्टी का एमपी कुनाल घोष शारदा ग्रुप के मीडिया सेक्शन का प्रभारी था. इसके अलावा खेल मंत्री मदन मित्रा समेत पार्टी के और भी कई नेताओं के नाम शारदा ग्रुप से गहरे संबंधों के लिए जाने जाते हैं. तृणमूल और शारदा के संबंधों को निशाना बनाकर कांग्रेस और सीपीएम उसे कटघरे में खड़ा कर रहे हैं लेकिन तृणमूल बड़ी बेशर्मी से सारे आरोप सीपीएम पर मढ़ रही है. उसका कहना है कि सीपीएम सरकार के वक़्त ही राज्य में चिट फंड कंपनियों की बाढ़ सी आ गई थी. कुल मिलाकर देखा जाए तो पूरे मामले में जो भी पार्टी पार्टी सरकार में रही हो उसने चिट फंड कंपनियों के फ़रेब से निपटने की कोशिश कभी नहीं की. शारदा ग्रुप की गतिविधिय़ों लेकर भी कई बार सरकार को आगाह किया जा चुका था. सेबी, रिजर्ब बैंक और इनकम टैक्स विभाग कई बार शिकायतें करते रहे लेकिन सरकारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी, क्योंकि इस तरह के मामलों में कंपनी के कर्ताधर्ता इस कदर सत्ताधारी नेताओं से साथ घुले-मिले रहते हैं कि उनके ख़िलाफ़ तुरंत कार्रवाई कतई संभव नहीं हो पाती. जब तक पानी सर के ऊपर से नहीं गुजरता चिट फंड कंपनियां सबको मैनेज करते रहती हैं और सरकारें भी मैनेज होती रहती हैं.

कंपनीके अंग्रेजी अख़बार बंगाल पोस्ट के दिल्ली ब्यूरो में काम कर चुकी सीमा गुहा ने दू हूट वेबसाइट में अपने अनुभवों को विस्तार से लिखा है. उनका कहना है कि मालिक सुदीप्तो सेन खुलेआम उनको तृणमूल का पक्षधर होने की अपनी बाध्यता बताता था और तृणमूल एमपी कुनाल घोष के माध्यम से वह मीडिया संस्थान के लिए पैसा जुटाने की कोशिश कर रहा था. अब भले ही कुनाल घोष का कहना हो कि वह  सिर्फ़ कंपनी का पेड कर्मचारी था लेकिन  इस पत्रकार ने अपने अनुभवों से बताया है कि घोष इस ग्रुप के साथ बहुत गहराई से जुड़ा था.

शारदा का तो आख़िरकार भाड़ाफोड़ हो गया है और उसके मालिक अब कानून की गिरफ़्त में हैं. लेकिन एक और चिट फंड कंपनी, सहारा समूह के ख़िलाफ़ भी सेबी लगातार आवाज़ उठा रही है. शारदा की तरह ही छोटे निवेशक सहारा से अपना पैसा वापस मांग रहे हैं. कोर्ट ने भी उसे छोटे जमाकर्ताओं का चौबीस हज़ार करोड़ रुपया लौटाने को कहा है लेकिन सहारा का मालिक अब भी जोड़-तोड़ कर बचने की कोशिश में लगा हुआ है. इस घटना को देखकर साफ़ हो जाता है कि सरकार को ऐसी चिट फंड कंपनोयों की गतिविधियों के बारे में सब मालूम रहता है लेकिन ऐसी फ़र्जी कंपनियों के साथ मिलीभगत की वजह से वह कोई कार्रवाई करने में हिचकती है. शारदा की तरह ही सहारा ने भी विश्वसनीयता हासिल करने के लिए मीडिया में बड़ा निवेश किया है. उसके भी कई चैनल और अख़बार चलते हैं. फिलहाल कानून के साथ उसका चूहे-बिल्ली का खेल चल रहा है. सरकारें सब कुछ जानते हुए भी अनजान बनकर तमाशा देख रही हैं. इससे पहले भी नब्बे के दशक में कुबेर और जेवीजी जैसी चिट फंड कंपनियां जनता की गाड़ी कमाई को लूटकर ग़ायब हो गई थीं. उन्होंने भी मीडिया का इस्तेमाल करने के लिए कुबेर टाइम्स और जेवीजी टाइम्स जैसे अख़बार शुरू किए थे. चिट फंड का साम्राज्य डूबने के साथ ही ये अख़बार भी डूब गए. जिसके बाद बड़ी संख्या में पत्रकार बेरोजगार हो गए थे. उसी तरह अब शारदा ग्रुप में काम करने वाले क़रीब डेढ़ हज़ार पत्रकार बेरोजगार हो चुके हैं.

इसघटना के सामने आने से निजी मीडिया स्वामित्व के नियमन का मुद्दा एक बार फिर महत्पपूर्ण हो जाता है. आख़िर चिट फंड कंपनियों को मीडिया में निवेश करने की इजाज़त क्यों होनी चाहिए या किसी भी दूसरे धंधे में जुटी कंपनी को मीडिया, ख़ास तौर पर समाचार मीडिया में निवेश की इजाज़त क्यों होनी चाहिए?क्या ऐसा होने पर समाचार मीडिया की स्वतंत्रता संभव है?क्या व्यापारी घराने मीडिया का इस्तेमाल निजी स्वार्थों के लिए इस्तेमाल नहीं करेंगे? करते?जैसे, क्या शारदा ग्रुप के पत्रकार अपने मालिक की करतूतों के ख़िलाफ़ अपने मीडिया में रिपोर्ट कर सकते थे? क्या वे मालिक के क़रीबी तृणमूल कांग्रेस की नीतियों का आलोचना कर सकते थे?  इस तरह मीडिया में मालिकाने के नियमन का सवाल राजनीति और आर्थिक कारोबार के कायदों से भी जुड़ा है. इस असलियत की अनदेखी की जाती रही तो वह दिन दूर नहीं होगा जब देश के सबसे बड़े पूंजीपति घरानों का मीडिया पर पूरी तरह कब्ज़ा होगा और उन घरानों और उनके सहयोगी राजनीतिक पार्टियों के ख़िलाफ़ कभी कोई ख़बर नहीं आ पाएगी. इस बात की शुरूआत मुकेश अंबानी ने नेटवर्ट 18 और इनाडु टीवी को हथिया कर और आदित्व बिड़ला ग्रुप ने टीवी टुडे ग्रुप के सत्ताईस फ़ीसदी शेयर ख़रीदकर कर दी है. मुकेश के छोटे भाई अनिल अंबानी का भी कई मीडिया संगठनों में पैसा लगा है. पत्रकारों की एकजुटता बहुत हद तक इस स्थिति से उन्हें और पत्रकारीय नैतिकता को बचा सकती है, उनकी सांगठनिक ताक़त मालिकों के सामने झुकने से मना कर सकती है. लेकिन हाल के दौर में जिस तरह मालिकों ने कुछ पत्रकारों को बड़ी-बड़ी तनख़्वाह देकर ख़रीद लिया है, इस स्थिति ने पत्रकारों के संगठन बनाने की बात को ही हास्यास्पद बना दिया है. यही वजह है कि आज ज़्यादातर मीडिया संस्थानों में पत्रकार संगठन की बात करना पूरी तरह वर्जित है. ठेके पर काम करने की वजह से उन्हें हमेशा नौकरी जाने के डर लगा रहता है और वे न्याय के पक्ष में कोई आवाज़ नहीं उठा पाते. पत्रकारों के अधिकारों की रक्षा करने वाले वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट का नाम भी आज कई पत्रकार नहीं जानते. पत्रकार संगठनों को अवांछित घोषत कर निजी मीडिया संस्थानों और सरकार ने मिलकर एक तरह से पत्रकारों को रीढ़ विहीन बना छोड़ा है.

मीडियाके नियामक (नॉर्मेटिव) सिद्धांतों के मुताबिक़ किसी भी देश का मीडिया उसके आर्थिक और राजनीतिक नीतियों का प्रतिबिंब मात्र होता है. इस बात को ध्यान में रखते हुए मीडिया का स्वामित्व उसके चरित्र निर्धारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. अब अगर भारतीय मीडिया पर नज़र डाली जाए तो ज़्यादतर मीडिया संगठनों का स्वामित्व लगातार निजी हाथों में सीमित  होता जा रहा है. नियमन की कोई ठोस व्यवस्था न होने के कारण तमाम तरह के धंधों में जुटे हुए लोग मीडिया में पैसा लगाते हैं. ख़ास तौर पर समाचार मीडिया में पैसा लगाना धंधेबाज़ों के लिए हर तरह से फ़ायदेमंद हैं. समाज और राजनीति में मीडिया को मिली वैधता का इस्तेमाल करने के लिए ही वे एक रणनीति के तहत इसमें पैसा लगाते हैं. इससे उनके बाक़ी धंधों में जब भी संकट आता है और उन्हें थोड़ी बहुत  हेर-फेर करनी  होती है तो मीडिया संगठन का रुतबा और संपर्क उसमें काम आते हैं. चिट फंड कंपनियों  और उनके मीडिया प्रतिष्ठानों की व्याख्या भी  इन्हीं संदर्भों  में की जा सकती है. कुबेर, जेवीजी टाइम्स और शारदा के बाद अब सहारा का क्या होगा यह सवाल अभी अनुत्तरित है. या फिर ऐसा भी हो सकता है कि कबी चिट फंड कंपनी से शुरू करने वाले इनाडु जैसै मीडिया हाउस की तरह सहारा भी बीच का कोई रास्ता अपने लिए निकाल ले और बड़े पूंजीपति और सरकारें सहारा को भी बचा लें. यदि ऐसा होता है तो इससे सबसे बड़ा नुक़सान पत्रकारिता का ही होगा.

भूपेन पत्रकार और विश्लेषक हैं। कई न्यूज चैनलों में काम। अभी आईआईएमसी में अध्यापन कर रहे हैं। इनसे bhupens@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। 

विवेक पर मीडिया का प्रहार

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...टीवी के एंकर और वहां जुटाए गए कथित विशेषज्ञ इतनी जोर-जोर से चीन या पाकिस्तान की “शैतानियों” की चर्चा करते हैं कि उनके बीच यह कहना भी राष्ट्रद्रोह जैसा लगने लगता है कि दो देशों के बीच युद्ध हमेशा आखिरी विकल्प होता है। चर्चा इतने संकीर्ण दायरे में समेट दी गई है कि दूरदृष्टि भरी बातें और स्थितियों का समग्र आकलन कायरता का पर्याय दिखने लगते हैं।..."

देकी सरहद पर अगर कोई समस्या खड़ी हो, तो उसका समाधान निकालने का क्या तरीका होना चाहिए? मसलन, अगर पाकिस्तान से लगी नियंत्रण रेखा पर दोनों देशों की सेना के बीच गोलीबारी हो या पाकिस्तानी सेना जानबूझ कर या अनजाने में नियंत्रण रेखा पार करे, तो उस पर पहला जवाब क्या होना चाहिए? या चीन से लगी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर लद्दाख के दौलत बेग गोल्डी जैसी घटना हो, तो भारत सरकार को तुरंत क्या करना चाहिए? या सरबजीत सिंह जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना हो जाए तो क्या तात्कालिक प्रतिक्रिया होनी चाहिए? रणनीतिक एवं सामरिक विशेषज्ञों तथा कूटनीतिक दायरे में ये प्रश्न भले गंभीर विचार-विमर्श का विषय हों, लेकिन भारतीय मीडिया- खासकर टीवी चैनलों के मशूहर एंकरों के पास कोई दुविधा नहीं है। उनके पास हर समस्या का सीधा समाधान है- युद्ध। राष्ट्रवाद- बल्कि उग्र राष्ट्रवाद- की उनकी गलाफाड़ प्रतिस्पर्धा ने न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर चर्चा को ऐसे शोर में बदल दिया है, जिसके बीच विवेक या तर्क की बातों की गुंजाइश लगातार खत्म होती जा रही है।

नतीजाहै कि सरकार (आज वो कांग्रेस नेतृत्व वाली है, कल किसी भी पार्टी की हो सकती है) अगर संयम या समझदारी भरा रास्ता चुने, तो वह नपुसंक नजर आने लगती है। टीवी के एंकर और वहां जुटाए गए कथित विशेषज्ञ इतनी जोर-जोर से चीन या पाकिस्तान की “शैतानियों” की चर्चा करते हैं कि उनके बीच यह कहना भी राष्ट्रद्रोह जैसा लगने लगता है कि दो देशों के बीच युद्ध हमेशा आखिरी विकल्प होता है। चर्चा इतने संकीर्ण दायरे में समेट दी गई है कि दूरदृष्टि भरी बातें और स्थितियों का समग्र आकलन कायरता का पर्याय दिखने लगते हैं।

सवालयह है कि किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया की आखिर क्या भूमिका होनी चाहिए? क्या उससे यह अपेक्षा उचित नहीं है कि वह पूरी सूचना दे, विवाद से संबंधित सभी पक्षों की राय पेश करे, संदर्भ से जुड़े तमाम पहलुओं को सामने लाए, उस पर अपनी राय भी पेश करे लेकिन अपनी स्वतंत्र राय बनाने के दर्शकों या पाठकों के अवसरों को संकुचित ना करे? इसी तरह माहौल को उतना दूषित या एकतरफा अभियान से उन्माद भरा न बनाया जाए, जिससे सरकार या नीति निर्माताओं के लिए उपलब्ध सभी विकल्पों को आजमाना कठिन हो जाए?

हालके किसी एक मामले को लें, तो यह स्पष्ट होगा कि मीडिया (खासकर इलेक्ट्रॉनिक) ने इन अपेक्षाओं के विपरीत आचरण किया है। यह मुमकिन है कि ऐसे शोर से अधिक टीआरपी या प्रसार संख्या हासिल करना आसान होता हो। लेकिन उससे सूचित एवं शिक्षित करने के कर्त्तव्य से मीडिया नीचे गिरता है। उससे जनता के दीर्घकालिक हितों को चोट पहुंचती है- इसलिए कि किसी भी समय में समाज का हित अंतिम समय तक युद्ध टालने और विवेकपूर्ण फैसले लेने में निहित होता है। फिर सिक्के के दूसरे पहलू से जनता को अंधेरे में रखना और अज्ञानता आधारित विमर्श को फैला देना आखिर किस रूप में देश या जनता के हित में हो सकता है?

पाकिस्तान की जेल में भारतीय कैदी सरबजीत सिंह पर हमला और उसकी मौत के बाद विवेकहीनता और बेतुकेपन के बनाए गए माहौल ने राजनेताओं के लिए अपनी राय रखने के अवसर किस तरह संकुचित कर दिए, यह इसी की मिसाल है कि प्रधानमंत्री ने सबरजीत को भारत का वीर सपूत करार दिया। क्या यह हकीकत नहीं है कि सरबजीत को पाकिस्तान में आतंकवाद के आरोप में मौत की सजा हुई थी? अगर सरबजीत के परिवार का पक्ष भी मान लें कि वह जासूस नहीं था, बल्कि कबड्डी के मैच में जीतने के बाद शराब के नशे में गलती से सीमा पार कर गया, तब भी वह वीर सपूत कैसे हो सकता है? उसकी मौत दुखद थी। लेकिन दुख की घड़ी में विवेक खो देना किसी आधुनिक समाज का लक्षण नहीं हो सकता। बहरहाल, जिस समय ऐसे राजनेताओं का नितांत अभाव हो जो लोकप्रियता- अलोकप्रियता का ख्याल किए बिना अपना नजरिया रखते हुए देश को उचित नेतृत्व दे सकें, उस समय मीडिया का बनाया माहौल क्या गजब ढा सकता है, सरबजीत का मसला उसकी एक उम्दा मिसाल है, लेकिन यह इसका अकेला उदाहरण नहीं है।

प्रधानमंत्रीमनमोहन सिंह ने अपने नौ साल के शासनकाल में देश की विदेश नीति को सब्र और दूरदृष्टि का परिचय देते हुए तथा राष्ट्र-हित को सर्वोपरि रखते हुए यथासंभव सही दिशा में रखा है। मगर मीडिया के बनाए माहौल का मुकाबला करने में कई बार विफल रहे हैं। कुछ महीने पहले जब नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सैनिक एक भारतीय फौजी का सिर काटकर ले गए, तब हकीकत यह थी कि गोलीबारी में दोनों तरफ के जवान मारे गए थे। मगर भारत में भारतीय सैनिक की मौत की खबर पर भावनाएं ऐसी भड़काई गईं कि डॉ. सिंह भी सब ‘कुछ सामान्य ढंग से नहीं चल सकता’- वाला बयान देने पर विवश हो गए। उस माहौल की समाज में दूसरी प्रतिक्रियाएं क्या हुईं, उनकी चर्चा यहां अप्रासंगिक है। जो बात यहां महत्त्वपूर्ण है, वो यह कि ऐसे माहौल में विदेश नीति संबंधी या प्रकारांतर में किसी भी मामले में नीति संबंधी ऐसे निर्णय लेना किसी भी सरकार के लिए कठिन हो सकता है, जिसके दूरगामी परिणाम होने वाले हों और जिसमें देश को लेन-देन के आधार पर कोई समझौते करने हों।     

राजनीतिया कूटनीति संबंधी किसी मसले को सफेद-स्याह के सरलीकृत नजरिए ना तो समझा जा सकता है, और ना ही उसे उस रूप में देखने की कोशिश होनी चाहिए। उससे जुड़ी बारीकियों और परतों से अगर मीडिया परदे हटा पाए, तो वह वास्तव में लोकतंत्र की अपेक्षाओं के मुताबिक अपनी भूमिका निभाएगा। लेकिन भारत में गंगा उलटी बह रही है।

क्या थी एक डायन?

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-अरविंद शेष
अरविंद शेष


  • पिछले साल मई में सरकार ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया था कि 2008 से 2010 के बीच डायन के संदेह में पांच सौ अट्ठाईस महिलाओं की हत्या कर दी गई। इसमें मारपीट और यातना देने के मामले शामिल नहीं हैं।



त्रासद अंधेरे की आग...

दो साल पहले गांव गया था तो एक दिन पड़ोस में रहने वाली एक तकरीबन सत्तर-बहत्तर साल की वृद्ध महिला घबराई हुई मेरे घर में घुसी और कमरे में रखी चौकी के नीचे बिल्कुल कोने में दुबक गई। इससे पहले उसने मेरे सामने हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाते हुए कहा था कि "बउआ रे बउआ, हम कुछो न कलियइ ह...!" (मैंने कुछ नहीं किया है। मुझे बचा लो।)

मैं कुछ समझ पाता, इससे पहले उस वृद्ध महिला के घर के सामने गली से जोर-जोर से गाली-गलौच की आवाज आने लगी। निकला तो देखा कि लाठियों से लैस दर्जनों लोग मां-बहन की वीभत्स गालियां बकते हुए वृद्धा को घर से निकालने की मांग कर रहे थे। उन सबका कहना था कि वे उस महिला का सिर मूंडेंगे, उसे पाखाना पिलाएंगे, तभी आगे की बात होगी।

वहीं जमी भीड़ में से एक व्यक्ति से मैंने पूछा कि क्या हुआ है तो उसने बताया कि चौक पर वीरेंद्र शर्मा की मिठाई की दुकान है। वहीं चूल्हे पर बड़ी-सी कढाई चढ़ी थी जिसमें तेल था। "भगवानपुर वाली" (वृद्ध महिला) ने हलवाई से कहा कि आज क्या बना रहे हो, कढ़ाई में तेल ज्यादा है। यह कह कर वह वहां से चली गई। इसके बाद कढ़ाई में फटाक-फटाक की आवाज के साथ तेल चारों तरफ उड़ने लगा। दो लोगों के हाथ और गाल पर पड़ गया, जिससे फफोले निकल आए। उसने यह भी बताया कि भगवानपुर वाली "डायन" है और वही कुछ जादू-टोना करके चली आई थी।

लोग बहुत ज्यादा तैश में थे। मैंने उन्हें शांत करने की कोशिश की, लेकिन उनमें से कुछ ने मुझे धमकाना शुरू किया। हार कर मैंने कहा कि ठीक है, मैं पुलिस को फोन करता हूं। इसके बाद अचानक लोग छंटने लगे। तब मैंने जोर से चिल्ला कर धमकी दी कि अगर इस बुजुर्ग महिला को कोई भी नुकसान हुआ तो सबको जेल भिजवा दूंगा। थोड़ी देर में सभी वहां से चले गए। उनमें से कुछ लोग मुझे गालियां भी दे रहे थे।

कितने त्रासद अंधेरे में मरने-सड़ने के लिए छोड़ दिया दिया गया है उन लोगों को जो इतना भी समझ सकने लायक नहीं हैं कि पानी से भीगे ठंडे बर्तन में तेल डाल कर चूल्हे पर चढ़ा देने और बर्तन के गर्म होने पर फटाक-फटाक की आवाज के साथ पानी उड़ेगा ही। उनकी बेअक्ली की सजा एक कमजोर बुजुर्ग महिला को भुगतनी पड़ेगी, जिसे "डायन" मान लिया गया है।

महज संयोग से उस दिन मेरी वजह से भगवानपुर वाली बच गई। लेकिन ऐसी खबरें आम हैं, जिसमें किसी महिला को डायन कह कर सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र कर समूचे गांव में घुमाया गया, जबर्दस्ती पाखाना खिलाया गया, या फिर उसकी हत्या कर दी गई।

मैं अपने में घर लौटा। वह वृद्ध महिला मेरे गले लग कर जोर से रो पड़ी और बार-बार यह कहने लगी कि "बउआ रे बहुआ..., हम कुछो न कलियइ ह...!" वह थर-थर कांप रही थी और मेरी आंखों से आंसू निकल पड़े। गुस्सा इतना ज्यादा था कि लग रहा था कि "डायन" का खयाल पैदा करने या उसे बनाए रखने के जिम्मेदार लोग मिल जाएं तो उन्हें जिंदा जला दूं।

हां, उन धर्माधीशों, पंडों, गुरुओं, महंथों, ओझाओं और तांत्रिकों को, जिन्होंने दिमागी अंधापन फैला कर मर्दवाद और ब्राह्मणवाद की अपनी दुकानदारी बनाए रखने के लिए एक मोहरा "डायन" को भी बनाया था। सदियों पहले अपने जो एजेंट उन्होंने समाज में छोड़े थे, वे आज भी बड़ी शिद्दत से उनके उस अपराध और कुकर्म की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। कोई यह दलील न दे कि "डायन" की धारणा एशिया-अफ्रीका से लेकर यूरोप तक के समाजों में भी पाई जाती है, फिर इसके लिए ब्राह्मणवाद पर सवाल क्यों? सभी समाजों के अपने-अपने ब्राह्मणवाद हैं और अपने मूल व्यवहार में वे वही हैं। बस सबकी शक्ल थोड़ी अलग-अलग होती है। जहां भी पारलौकिक हवाई घोड़े, भगवान या धर्म की व्यवस्था के जरिए समाज के मुट्ठी भर लोगों के शासन, मजे और ऐय्याशी के इंतजाम होंगे, वहां शासितों को काबू में रखने के लिए "डायन" जैसे तमाम अंधविश्वासों के इंतजाम भी होंगे।

अंधविश्वासों के जहरीले दलाल...
बहरहाल, उसी छल आधारित व्यवस्था के बहुत सारे नए और आधुनिक दल्लों में विशाल भारद्वाज और एकता कपूर भी हैं, जिन बेईमान पाखंडियों (संदर्भः विशाल भारद्वाज की "मकड़ी") को "एक थी डायन" फिल्म की दुकानदारी से पहले शायद एक बार भी यह खयाल नहीं आया होगा कि यह एक शब्द "डायन" किसके लिए और कितनी बड़ी त्रासदी रहा है।

हालांकि जब आप किसी को दुकानदार कहते हैं तो यह मान लेना पड़ता है कि मुनाफा कमाना उसका "धर्म" है। लेकिन क्या किसी दुकान से कोई सामान खरीदते हुए कोई व्यक्ति मुफ्त में अपने खाने के लिए जहर भी लेता है? अगर उसे पता हो तो वह कतई ऐसा नहीं करेगा।

तो "एक थी डायन" के जरिए विशाल भारद्वाज और एकता कपूर ने इसके अलावा और क्या किया है कि मनोरंजन के बहाने अंधविश्वासों के जहर के असर को थोड़ा और गहरा किया है। पहले से ही गैरजानकारी या अज्ञानता के अंधेरे में डूबते-उतराते दर्शक वर्ग की चेतना को थोड़ा और कुंद किया, जो आखिरकार यथास्थितिवाद को बनाए रखने का सबसे बड़ा हथियार है।

कोई यह दलील दे सकता है कि एकता कपूर या विशाल भारद्वाज ने कोई पहली बार इस तरह की फिल्म नहीं बनाई है। हो सकता है, यह सही हो। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में जब दुनिया के वैज्ञानिक ब्रह्मांड की गुत्थियों को खोलने के करीब पहुंच चुके हैं, बॉलीवुड ही नहीं, हॉलीवुड में भी धड़ल्ले से भूत-प्रेत या शैतान की कहानियों पर फिल्में बनाई जा रही हैं। मगर रामसे बंधुओं से लेकर आज तक की तमाम हॉरर फिल्मों का हवाला होने के बावजूद विशाल भारद्वाज और एकता कपूर की "एक थी डायन" भारतीय संदर्भों में ज्यादा आपराधिक है, बनिस्बत इसके कि वह कुछ "मनोरंजन" करती है। किसी शातिर चोट्टे ने "काला जादू और डायन" नाम की किताब लिखी और उसके सहारे चलते हुए किस्से में इन दोनों फिल्मकारों ने उन तमाम खामखयालियों की दुकानदारी की, जो "डायन" को लेकर एक अक्ल से हीन समाज में पाई जाती है। "डायन बारह बजे रात से अपनी तंत्र-साधना शुरू करती है; डायन के पांव उल्टे होते हैं; डायन अपने सबसे प्रिय बच्चे की बलि लेकर या उसे "खाकर" ही जिंदा रहती है...!!!" ये सारी बातें गांव से लेकर शहर-महानगर तक अनपढ़ या फिर पढ़े-लिखे चेतनाविहीन अक्ल के दुश्मनों की कल्पना में हर वक्त रहती हैं।


हाईटेक काहिली-जाहिली...
गांव में भगवानपुर वाली को "डायन" कह कर मारपीट पर उतारू वे लोग अनपढ़ और जाहिल थे। मगर इस मामले में शहरों-महानगरों के पढ़े-लिखों की क्या औकात है? कुछ साल पहले दुनिया के एक हाईटेक घोषित शहर गाजियाबाद की एक घटना चर्चा में आई थी। "ऊपरी असर" से परेशान तीन बेटों ने एक तांत्रिक का सहारा लिया, तांत्रिक ने "गहनतम" तंत्र-मंत्र साधना के बाद बेटों की अत्यंत वृद्धा मां को "डायन" घोषित किया और उसकी सलाह से बेटों ने मिल कर अपनी बेहद वृद्ध हो चुकी मां को चप्पलों से तब तक पीटा, जब तक उसकी मौत नहीं हो गई। बर्बरता और मूर्खता का सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। इन तीन बेटों में से एक डॉक्टर और एक इंजीनियर था। यानी विज्ञान की पढ़ाई-लिखाई भी उनकी अक्ल पर पड़े परदों को हटा नहीं सकी।

लेकिन इससे एकता कपूर या विशाल भारद्वाज को क्या फर्क पड़ता है। बल्कि यों कहें कि जिस त्रासदी के कायम रहने से ही एकता कपूरों और विशाल भारद्वाजों की दुकानदारी चमकती है, बल्कि इससे उनके सामाजिक सत्ताधारी वर्ग की सत्ता की कुर्सी के पाए और मजबूत होते हैं, उससे उन्हें क्या फर्क पड़ेगा। अब तो लगता है कि "एक थी डायन" जैसी तमाम फिल्में बनाने वाली एकता कपूरों और विशाल भारद्वाजों का मुख्य मकसद जितना इन फिल्मों से पैसा कमाना होता है, उससे ज्यादा ये उन साजिशों को अमल में लाने का जरिया होते हैं, जिनसे इस समूचे समाज को काहिली-जाहिली के अंधेरे में डुबोए रखा जा सके। "मकड़ी" के जरिए "चुड़ैल" की कल्पना के झूठ को सामने रखने वाले "विशाल" पर पता नहीं क्यों उनका "भारद्वाज" चढ़ बैठा और वे "एक थी डायन" के झूठ को बतौर सच पेश करने में लग गए जो एक मर्दवादी और ब्राह्मणवादी सत्ता और उसके प्रभाव को स्थापित करने और विस्तार देने के लिए रचा गया था।


लाचार मायावी-रूहानी ताकतें...
इस फिल्म में पहली "डायन" का नाम "डायना" रखने से लेकर बच्चे की बलि, चोटी में जान जैसे वे सभी तुक्के आजमाए गए और "डायन" के कुछ "करिश्मे" भी दिखाए गए जो एक पिछड़ी हुई चेतना के आम अंधविश्वासी के भीतर पाई जाती है। दिक्कत यह है कि जब इस तरह के खिलवाड़ को "आधुनिक" ट्रीटमेंट दिया जाता है, तो वह चुपके-से अपनी वास्तविक क्षमता के मुकाबले हजार गुणा ज्यादा घातक असर करता है। "एक थी डायन" में महानगर में रहने वाले एक उच्चवर्गीय परिवार में अपनी "मादकता" के सहारे घुसने वाली वह "डायन" पता नहीं उससे पहले मुंबई के ताज होटल में रहती थी या अमेरिका के ह्वाइट हाउस में...! इससे पहले उसे फिल्म के बच्चा बोबो जैसा "हीरो" मिला था या नहीं, जो चुटिया काट कर उसे खाक कर देता है। वही चुटिया, जिससे वह आखिर में चमत्कारी फंदे का काम लेती है! लेकिन वह चमत्कारी फंदा और तमाम चमत्कारी रूहानी शक्तियां उसकी जान बचाने के काम कहां आती हैं? उसकी तो चुटिया बस एक बच्चा बोबो के हाथों साधारण से चाकू से काट दी जानी है, उस खौफनाक और सबको हवा में नचा-नचा कर मारने वाली "डायन" की सभी रूहानी ताकतों को लाचार मुंह ताकते रह जाना है। ठीक उसी तरह, जैसे शहर से गांव तक में किसी लाचार और निचली कही जाने वाली जाति की महिला को "डायन" कह कर बाल मुंड़ दिए जाते हैं, दांत तोड़ दिए जाते हैं, पाखाना घोल कर पिला दिया जाता है, निर्वस्त्र करके पीटते हुए समूचे गांव या बस्ती में घुमाया जाता है या कभी जिंदा जला दिया जाता है, लेकिन "डायन" की "शैतानी" और "मायावी" शक्तियां उसकी कोई मदद नहीं करतीं!


विज्ञान के दुश्मन...
सवाल है कि इस महान सांस्कृतिक अनुष्ठान को अंजाम देने या इसके प्रति श्रद्धाभाव से भरे अक्ल के हीन लोगों के माइंडसेट में परदे पर आधुनिक स्वरूपा "डायन" और उसकी वही पुरानी "करस्माएं" और कैसा जहर घोलेंगी? यह साधारण-सा सच है कि पोंगापंथी, दिमाग से बंद, कूपमंडूक अंधविश्वासी पुजेड़ी जब यह देखता है कि भारत केअंतरिक्ष प्रक्षेपण अनुसंधान संगठन यानी इसरो का मुखिया विज्ञान पर केंद्रित किसी कार्यक्रम में शिरकत करते हुए या किसी उच्च क्षमता के अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण से पहले घंटों किसी मंदिर में घंटा डोलाता है तो उसे कैसा लगेगा? एक औसत दिमाग का आदमी भी यह समझ सकता है कि इस तरह के उदाहरण एक अंधविश्वासी मन की कुंठाओं, हीनताओं और विकृतियों को "जस्टीफिकेशन" देते हैं। बल्कि मेरा दावा है कि इससे किसी भी पोंगापंथी व्यक्ति के भीतर मौजूद अंधविश्वासी पगलापन एक सबसे मजबूत खुराक पाएगा और वह किसी को भी अंगुली दिखा कर कह सकता है कि जब माधवन नायर या राधाकृष्णन जैसे इसरो अध्यक्ष और विज्ञान के पहरुए मंदिर में घंटा हिला कर अंतरिक्ष यानों का कामयाब प्रक्षेपण सुनिश्चित करते हैं तो हम तो सिर्फ "भगवान" की एक "सामान्य व्यवस्था" को ही निबाहते हैं, "डायन" को निर्वस्त्र करके घुमाते हैं, मैला पिलाते हैं या उसे उसकी "हैसियत" दिखाते हैं!

"एक थी डायन" जैसी फिल्में उसी इसरो अध्यक्षों जैसी भूमिका बनाते हैं, जिनमें विज्ञान और आधुनिक तकनीकी के जरिए उन तमाम खयाली घोड़ों और हवा-हवाई बातों को मूर्त देकर परदे पर पेश किया जाता है और पहले से ही चारों तरफ से अंधे विश्वासों में मरता-जीता उसका एक आम दर्शक "डायन" के झूठ को थोड़ा और साकार रूप देने लगता है। इसकी वजह भी वही "जस्टीफिकेशन" है जो विज्ञान और तकनीकी के जरिए उसके सामने साकार की गई, लेकिन जिसका कोई भी आधार नहीं है। और "डायन" अब तक सिर्फ उसकी धारणा थी। (आखिर एक अंधविश्वासी व्यक्ति भी विज्ञान की ताकत को तो समझता ही है।) उन धारणाओं में जो भी बातें शामिल थीं, एकता कपूर और विशाल भारद्वाज ने उन सबका शोषण किया और परदे पर बेचा। ऐसे व्यापारियों को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि "डायन" की समूची कल्पना किस कदर आज भी महिलाओं और खासतौर पर दलित-जनजातीय या निचली जाति की कितनी महिलाओं के लिए त्रासदी की वजह बन चुकी है, या बन रही है। सामाजिक सत्ताधारी वर्गों के मूल से उपजे इन व्यापारियों को इस बात की फिक्र आखिर हो भी क्यों? जो समस्या अपने या अपने वर्गों के सामने होती है, फिक्र उसी की की जाती है!

इस फिल्म की साजिश सबसे ज्यादा खुल कर तब सामने आती है जब इसमें एक पात्र के रूप में मौजूद मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक को पहले "डायन" को खारिज करते और फिर उसी "डायन" की मायावी ताकत के जरिए बुरी तरह मारे जाते दिखाया जाता है। यानी अंधविश्वासों के खिलाफ लड़ाई के लिए जो सबसे मजबूत तर्क मनोविज्ञान मुहैया कराता है, उसे हारता हुआ, अंधविश्वासों के सामने, उसके हाथों मुंह की खाता हुआ दिखाया जाए। कल्पना करिए कि एक औसत दिमाग और अपने घोर अंधविश्वासों-पूर्वाग्रहों के साथ सिनेमा हॉल में बैठा दर्शक किसी भी इस तरह की कहानी के इस पहलू से किस तरह प्रभावित होगा। यानी, लोग अंधविश्वासों के अंधेरे में डूबते-उतराते रहें, समाज की यथास्थिति बनी रहे, इसके लिए एकता कपूर या विशाल भारद्वाज जैसे धनपशुओं ने एक जड़ व्यवस्था के संचालकों-कर्णधारों की दलाली में निर्लज्जता की सारी सीमाएं तोड़ दीं।

"डायन" वही क्यों...
दरअसल, "एक थी डायन" में एकता कपूर और विशाल भारद्वाज का पूरा "लोकेशन" बिल्कुल साफ है। उनकी फिल्म का पुरुष जादूगर है, जो सिर्फ सबका मनोरंजन करता है, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता। दूसरी ओर, फिल्म में मुख्य रूप से तीन स्त्री पात्र हैं जिनमें दो साफ तौर पर "डायन" हैं, तीसरी "लगभग" "डायन" के रूप में दर्शकों के लिए खुला अंत छोड़ जाती है। फिल्म में "डायन" का स्वरूप वही है, जो गांव-शहर के अंधविश्वासी लोगों के दिमाग में पाया जाता है। यानी वह सिर्फ नुकसान पहुंचा सकती है। यानी जादूगर के रूप में पुरुष मनोरंजन करता है, तांत्रिक के रूप में वह ("डायन" के) "ऊपरी" हमलों से बचाता है। दिलचस्प है, जादू-टोना करने वाली स्त्री बच्चों को "खा" जाने वाली "डायन" हो जाती है और जादू-टोना अगर पुरुष करेगा तो वह तांत्रिक होगा। और तांत्रिक होना बचाने वाले की भूमिका है।

पितृसत्ता, पुरुषवाद और ब्राह्मणवाद के खेल बड़े निराले हैं। इस खेल में यह कोई नहीं पूछता कि इस साजिश का शिकार हमेशा और सौ फीसद स्त्री ही क्यों होती है? और किसी अजूबे अपवाद को दलील के तौर पर पेश न किया जाए तो "डायन" स्त्री हर बार दलित या निचली कही जाने वाली जाति की ही क्यों होती है?

तो...! एक व्यापक की त्रासदी को खत्म या कम करने की औकात विशाल भारद्वाज या एकता कपूर के पास नहीं है, तो उस दुख को मनोरंजन बना कर बेचना और इस तरह "डायन" की झूठी अवधारणा को आधुनिक तकनीकी के जरिए मूर्त बना कर पेश करने का उन्हें क्या हक है? क्या उन्हें यह मामूली बात समझ में नहीं आती कि समाज का माइंडसेट या मानस तैयार करने या उसे बनाए रखने में आज का सिनेमा कितनी अहम भूमिका में आ चुका है? अगर वे सब कुछ जानते-समझते हैं तो क्या वे ऐसा जान-बूझ कर रहे हैं?

व्यवस्था के शातिर और छिपे हुए अपराधियों ने कभी आम जन की मजबूरी और उनके अज्ञान का फायदा उठा कर "डायन" की कल्पना को सामाजिक धारणा के रूप में स्थापित किया होगा। तब किसी अकेली या संपत्ति की वारिस स्त्री पर अत्याचार ढाने या उसे लूट लेने के लिए उस काल्पनिक सामाजिक धारणा में कहानियां गूंथी गई होंगी और फिर जनमानस में उसका प्रचार किया गया होगा। आज के दौर में "एक थी डायन" जैसी तमाम व्यवस्थावादी फिल्में समाज में यही भूमिका निभा रही हैं।

राजनीति का परदा...
अब यह किसी से छिपा नहीं है कि पिछले कुछ सालों में समाज में सोचने या विश्लेषण करने की प्रक्रिया को बाधित करने,  अंधविश्वास फैलाने, स्त्री की स्थिति को हीनतर बनाने, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण या आम लोगों के सांप्रदायीकरण के एजेंडे पर फिल्में बन रही हैं। और अगर इसमें कोई दक्षिणपंथी कट्टर धार्मिक समूह बड़े पैमाने पर पैसा लगा रहा हो तो हैरान होने की बात नहीं होगी। अंधविश्वासों को विस्तार देना या धार्मिक-सामाजिक और लैंगिक पूर्वाग्रहों-विद्रूपों को मजबूत करना यथास्थितिवाद की नियामक ताकतों की असली राजनीति है। और चूंकि एक सबसे ज्यादा असर डालने वाले "मनोरंजन" कला माध्यम के रूप में सिनेमा की आम जनता के बीच व्यापक पहुंच है, इसलिए अथाह पैसा लगा कर इसे नियंत्रित और अपने मुताबिक संचालित करने की कोशिशों की रफ्तार बहुत तेज है। शीतयुद्ध के दौरान और आज भी खासतौर पर अमेरिका ने दुनिया के मानस तैयार करने के लिए फिल्मों का कैसा इस्तेमाल किया है, यह किसी से छिपा नहीं है।

मुश्किल यह है कि अगर कोई व्यक्ति सिनेमा के सामाजिक पहलू या सिनेमा के सामाजिक असर की बात करता है तो व्यवस्थावादियों की ओर से एक झटके में उसे शुद्धतावादी घोषित कर दिया जाता है। दलील दी जाती है कि सिनेमा बदलते सामाजिक ढांचे और भावनाओं को दर्शाता है, और समाज में बदलाव से ही सिनेमा में बदलाव आते हैं। फिलहाल सिर्फ "एक थी डायन" का ही संदर्भ लें तो क्या सच केवल यह है कि समूचा समाज आज भी "डायन" की गिरफ्त में है और उसी की गिरफ्त में रहना चाहता है? क्या "डायन" प्रथा के खिलाफ कहीं भी कोई स्वर नहीं है? क्या अंधविश्वासों के बरक्स विज्ञान और तर्क इस समाज में बिल्कुल अनुपस्थित है? सिनेमा में समाज का यथार्थ परोसने के नाम परोसा गया विभ्रम ऐसे ही विद्रूप रचता है।

दरअसल, सिनेमा के समाज के हिसाब से चलने की बात इतनी चालाक दलील है कि इसके सहारे वे एक जड़ व्यवस्था को बनाए रखने में एक कला-माध्यम के इस्तेमाल करने के अपने तमाम कुकर्मों को ढकना चाहते हैं। क्या किसी समाज का अध्ययन और उसके निष्कर्ष उसे टुकड़ों में बांट कर देखने से सही-सही सामने आएगा? सेलेक्टिव तरीके से एक व्यापक जनसमुदाय के बीच जड़ता को बनाए रखने के इन अपराधियों की इस बेहद उथली साजिश को समझना इतना मुश्किल नहीं है, बस इनकी बोलियों के हर्स्व और दीर्घ मात्राओं पर ध्यान रखिए...!


मधुमाला देवी की अदालत में...
थोड़े समय पहले बिहार से एक खबर आई कि मधेपुरा जिले के एक गांव मिठाही की मुखिया ने यह घोषणा की कि समूचे पंचायत क्षेत्र में अगर किसी ने किसी महिला को "डायन" कहा तो उसे इक्कीस सौ रुपए जुर्माना देना होगा। गांव में रहने वाली, कम पढ़ी-लिखी, कम आधुनिक और कम पैसे वाली मधुमाला देवी संघर्ष के बाद पंचायत की मुखिया के एक छोटे-से पद पर किसी तरह पहुंचते ही इतना बड़ा क्रांतिकारी फैसला लेती है। लेकिन बहुत पढ़ी-लिखी, बेहद धनाढ्य, "अति आधुनिक" एकता कपूर और बौद्धिक परदाधारी विशाल भारद्वाज अक्ल से पैदल या शातिर पंडों-तांत्रिकों की साजिश के नतीजे में उपजी "डायन" के सिर पर एक हथौड़ा और मारते हैं। पद और हैसियत का इस्तेमाल मधुमाला देवी ने भी किया है और एकता कपूर और विशाल भारद्वाज ने भी। मगर मधुमाला देवी के बरक्स एकता कपूर और विशाल भारद्वाज को कैसे देखा जाए? क्या एकता कपूर और विशाल भारद्वाज को मधुमाला देवी की पंचायत-अदालत में खड़ा करके इक्कीस सौ रुपए जुर्माने के अलावा और सख्त सजा देने की जरूरत नहीं है? अगर "एक थी डायन" जैसी फिल्मों के जरिए समाज की मूर्खता और हजारों स्त्रियों की त्रासदी की दुकानदारी करने वाली एकता कपूरों और विशाल भारद्वाजों को जेल में बंद करने के लिए कोई कानून नहीं है तो भारत सरकार से मैं मांग करता हूं कि वह इस मसले पर सख्त से सख्त कानून बनाए और ऐसे तमाम एकता कपूरों और विशाल भारद्वाजों को गिरफ्तार करके जेल में सड़ने के लिए छोड़ दे, क्योंकि "एक थी डायन" के जरिए इन लोगों ने वैसे ठगों, बाबाओं और तांत्रिकों से अलग कोई काम नहीं किया है जो समाज को दिमागी तौर पर अंधा और चेतना से हीन बनाए रखने के अपराधी हैं...!

अरविंद शेष पत्रकार हैं. अभी  जनसत्ता (दिल्ली) में नौकरी. 

इनसे संपर्क का पता- arvindshesh@gmail.co
arvind.shesh@facebook.com

नरेंद्र मोदी : पीआर फर्म के हव्वे में सवार, पीएम उम्मीदवार!

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कृष्ण सिंह

-कृष्ण सिंह

मीडिया का एक प्रभावशाली हिस्साजो कॉरपोरेट घरानों की पूंजी से नियंत्रित और संचालित हो रहा हैइस मॉडल राज्य के मुख्यमंत्री (पढ़ें- सीईओ) नरेंद्र मोदी को भारत के नए विकास पुरुष के रूप में पेश कर रहा है। यही नहीं विविधता वाले और राजनीतिक-सामाजिक रूप से जटिल भारत जैसे विशाल देश में जिस व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे ज्यादा लोकप्रिय कहा जा रहा हो वह अपनी छवि निर्माण के लिए एक विदेशी जनसंपर्क कंपनी का सहारा ले रहा है। लोकतंत्र के साथ इससे बड़ा मजाक और प्रहसन क्या हो सकता है।

क अरब बीस करोड़ आबादी वाली भारतीय ``लोकतांत्रिक व्यवस्था`` में प्रभावशाली वर्गों की समृद्धि और प्रगति के लिए राष्ट्र के तीव्र आर्थिक विकास एवं पूंजी के तेज प्रवाह के नाम पर अवाम के व्यापक हिस्से को अपना सब कुछ दांव पर लगाना एक अहम शर्त है। इसमें भी सबसे अनिवार्य और जरूरी शर्त यह है कि जहां भी प्राकृतिक संसाधन भरपूर मात्रा में हैं वहां वंचितगरीब और पीड़ित लोगों का बड़े पैमाने पर विस्थापन होना लाजिमी है। अगर आप भारतीय लोकतंत्र के इस ``विशिष्ट स्वरूप`` पर सवाल उठाते हैं तो आप राष्ट्र की प्रगति के विरोधी माने जाएंगे। बड़े कॉरपोरेशनों ( जिनके कारोबारी किताब में राष्ट्रहित और राष्ट्रीयता का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए बड़े ही शातिराना तरीके से किया जाता है)उद्योगपतियोंजनमत तैयार करने में माहिर ``विशेषज्ञों``पत्रकारों की एक अच्छी खासी प्रभावशाली फौजशहरी पेशेवरोंग्रामीण क्षेत्रों का अमीर तबकाउच्च और मध्यवर्ग ( जिसमें एक अतिमहत्वाकांक्षी नया मध्यवर्ग भी शामिल हैजिसे अपनी प्रगति के लिए किसी भी तरह के दमन से कोई आपत्ति नहीं है) को अपना एक ऐसा ``नायक`` मिल गया है जो इन वर्गों को यह भरोसा दे रहा है कि उनके रास्ते में आने वाली किसी भी तरह की बाधा को वह सफलतापूर्वक समाप्त कर देगा। 

संदेश साफ है- बड़ी पूंजी के लिए छोटी पूंजी को कुर्बान होना होगा। तीस प्रतिशत लोगों की खातिर सत्तर प्रतिशत आबादी को खामोश रहना होगा। विरोध किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इसके लिए गुजरात को एक ``मॉडल राज्य`` के बतौर पेश किया जा रहा है। मीडिया का प्रभावशाली हिस्साजो कॉरपोरेट घरानों की पूंजी से नियंत्रित और संचालित हो रहा हैइस ``मॉडल राज्य`` के मुख्यमंत्री (पढ़ें- सीईओ) नरेंद्र मोदी को भारत के नए ``विकास पुरुष`` के रूप में पेश कर रहा है। जोसेफ ग्यॉबेल्स की तरह झूठ को इतनी बार सच बनाकर पेश किया जा रहा है कि वह सच से भी ज्यादा सच लगने लगे। जोसेफ ग्यॉबेल्स नाजी जर्मनी का प्रोपेगेंडा मिनिस्टर था और हिटलर का बहुत ही विश्वासपात्र था। उसका पहला काम था किताबों को जलाना। उसने जर्मनी में सूचनाकला और मीडिया पर पूर्ण नियंत्रण के लिए पूरे दमखम के साथ काम किया था।

छवि निर्माण का अमेरिकी फार्मूला

मोदी की छवि के निर्माण के लिए नए-नए मिथक गढ़े जा रहे हैं। स्वयं मोदी अपनी छवि चमकाने के लिए सन् 2007 से एक पब्लिक रिलेशन एजेंसी की सेवाएं ले रहे हैं। मोदी को अपने इस जनसंपर्क अभियान में खासी सफलता मिली है। इस पब्लिक रिलेशन एजेंसी का नाम है एपीसीओ वर्ल्डवाइड। यह अमेरिकी कंपनी है। इसका काम गुजरात को एक निवेश स्थल के रूप में प्रचारित करने के अलावा अंतरराष्ट्रीय और घरेलू मोर्चे पर मोदी की हैसियत को बढ़ाना है। यह कंपनी अमेरिका में तंबाकू और स्वास्थ्य बीमा उद्योगों के पब्लिक रिलेशन का काम करती है। इसके अलावा इजराइल और कजाकस्तान के अलावा संयुक्त राष्ट्रविश्व बैंक और एसोसिएशन ऑफ साउथईस्ट एशियन नेशंस के लिए भी जनसंपर्क का काम करती है। इस कंपनी की सबसे बड़ी ताकत यह है कि यह स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे सार्वजनिक मसलों पर अपने ग्राहकों का एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए फर्जी नागरिक अभियान चलाती है। यह काम कृत्रिम रूप से तैयार किए जाने वाले संगठनों के जरिए करती है। यह अपने काम को विशेषतौर से सोशल मीडिया और मुख्यधारा के मीडिया में जनसंपर्क के तूफानी हमले के जरिए करती है। यह कंपनी कुछ इसी अंदाज में मोदी के लिए पिछले कई वर्षों से काम कर रही है।

विविधता वाले और राजनीतिक-सामाजिक रूप से जटिल भारत जैसे विशाल देश में जिस व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे ज्यादा लोकप्रिय कहा जा रहा हो वह अपनी छवि निर्माण के लिए एक विदेशी जनसंपर्क कंपनी का सहारा ले रहा है। लोकतंत्र के साथ इससे बड़ा मजाक और प्रहसन क्या हो सकता है। मोदी ने प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी के अभियान के लिए कुछ दिन पहले दिल्ली में फिक्की लेडीज ऑर्गेनाइजेशननेटवर्क 18 के थिंक इंडिया (नेटवर्क 18 ग्रुप में मुकेश अंबानी ने भारी निवेश किया हैअंबानी की कंपनी आरआईएल के 27 चैनलों में शेयर हैं) और कलकत्ता चैम्बर ऑफ कॉमर्स के मंचों को चुना। बड़े कॉरपोरेट घरानों का प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे पसंदीदा उम्मीदवार मोदी हैं। इसका कारण है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार अपने नौ साल के शासनकाल में भ्रष्टाचार और बड़े-बड़े घोटालों के कारण इतनी बदनाम हो चुकी है अब उसकी साख बची नहीं है। साथ ही इन नौ सालों में इन भ्रष्टाचार और घोटालों में भारतीय कॉरपोरेट घराने भी पूरी तरह से लिप्त रहे हैं। इसके सनसनीखेज खुलासे सामने आए हैं। इसके बावजूद कॉरपोरेट घरानों के लिए लाभ की स्थिति यह रही है कि मीडिया पर उनका नियंत्रण है इसलिए सारी कालिख नेताओं के सिर पर उड़ेल दी गई। 

इसके अलावा बड़े कॉरपोरेशंस जिस तेजी से अपने पक्ष में फैसले चाह रहे हैं वे उस हद तक हो नहीं पा रहे हैं। हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बड़े कॉरपोरेट घरानों के हित में काम करने में कोई गुरेज नहीं ( जितना हो सकता है बेचारे कर भी रहे हैं) लेकिन सरकार की छवि जिस तरह से गिरी है उससे इसमें बाधा आई है। इसलिए मीडिया और कॉरपोरेट घरानों ने इस सरकार के लिए एक नया शब्द गढ़ा है- पालिसी परैलिसिस। यानी नीतियों (कॉरपोरेट के हित में) के लिहाज से मनमोहन सरकार लकवाग्रस्त हो चुकी है। अब उन्हें ऐसा ``लौह पुरुष`` चाहिए जो उनके रास्ते की बाधाओं को पूरी निर्मतता से हटाए। साथ ही सत्ता में फैसले लेने का केवल एक केंद्र हो। यानी उन्हें कई दरवाजों पर न जाने पड़े। उनके इस खांचे में स्वयंसेवक नरेंद्र मोदी फिट बैठते हैं। 

इस समय भारतीय लोकतंत्र ऐसे मोड़ पर पहुंच गया है जहां भारत के राजनीतिक भविष्य का एजेंडा कॉरपोरेट घराने तय कर रहे हैं और इसमें उनके द्वारा नियंत्रित ताकतवर मीडिया भारतीय जनमानस का दिलो-दिमाग बदलने का काम कर रहा है। देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस इस खेल से बाहर नहीं रहना चाहती। इसलिए पूरे देश में चुनाव को सिर्फ दो लोगों के बीच ध्रुवित करने की कोशिश की जा रही है। नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी। लोकतंत्र को ग्लैडीएटर युद्ध में तब्दील किया जा रहा है। यहां अमेरिकी चुनावी मॉडल को भारत की धरती पर उतारने की कोशिश की जा रही है। जैसा कि सुप्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय ने अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक (22 अप्रैल 2013) को दिए एक साक्षात्कार में कहा, `` इस चुनाव में कॉरपोरेट का उम्मीदवार वह व्यक्ति होगा जिसे इस रूप में देखा जाएगा कि वो `कुछ कर सकता है` (केन डिलिवर)...और इसमें यह भी शामिल होगा कि समय आने पर यदि जरूरत पड़ी तो वह सेना की भी सहायता लेकर झारखंडओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे स्थानों पर देशभर में लोगों के विद्रोह का दमन कर सकता है। जहां कॉरपोरेट की नजर में जंगलों और पहाड़ों में तुरंत उपलब्ध समृद्धि (कोल्डकैश) के अंबार लगे हैं।`` कॉरपोरेट की बढ़ती ताकत के बारे में राजनीतिक विज्ञानी क्रिस्टोफ जैफललॉट का कहना है- अन्य जगहों की तरह ही भारत में निजी क्षेत्र रोल मॉडल बन गया है। मध्यवर्ग के लोग सोचते हैं कि राष्ट्र-राज्य को एक कंपनी की तरह चलाया जाना चाहिए।... मजेदार बात यह है कि यह विमर्श भ्रष्टाचार के मामलों में निजी क्षेत्र की भूमिका को नजरअंदाज कर देता है। (आउटलुक 22 अप्रैल 2013)।

यह मोदी मिथक भविष्य में भारतीय लोकतंत्र को किस तरह के कंसंट्रेशन कैंप (यातना शिविर) की ओर ले जाएगाअभी साफ तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन संकेत खतरनाक जरूर हैं। मोदी सिर्फ व्यक्ति नहीं है बल्कि यह भारतीय राजनीतिसमाज और अर्थव्यवस्था की एक नई प्रवृत्ति है। इसे ग्यॉबेल्सी दुष्प्रचार के भारतीय तरीके से आगे बढ़ाया जा रहा है। गुजरात को इसके केंद्र में रखा गया है। जहां आर्थिक विकास की वास्तविक सच्चाई को ``तेज और चौंकाने वाले आर्थिक विकास`` के दुष्प्रचार से दफन कर दिया गया है।

विकास का सच

गुजरात कोई नरेंद्र मोदी के आने से समृद्ध नहीं हुआ है। गुजरात भारत का अत्यधिक औद्योगीकृत राज्य है और आर्थिक विकास के मामले में सदा से काफी आगे रहा है। आखिर मोदी जो कह रहे हैं उसमें सच्चाई कितनी है इस पर गौर करने की जरूरत है। किसी भी राज्य का विकास और उसके लोगों का जीवन स्तर किस तरह का है इसको मानव विकास सूचकांक के जरिए समझा जा सकता है। भारत के मानव विकास सूचकांक की तालिका में गुजरात 11वें स्थान पर है (वर्ष 2007-8)। सन् 1999-2000 में राज्य इस तालिका में 10वें स्थान पर था। मोदी के शासन वाला गुजरात भारत में तीसरा सबसे ज्यादा ऋणग्रस्त राज्य है। ``निजी पूंजी को दी गई छूट पहले ही राज्य की भंगुर पारिस्थितिकी और उसकी वित्तीय स्थिति को खोखला करने के लिए वापस लौट रही है।`` (सेलिंग मोदीईपीडब्ल्यू20 अप्रैल 2013)। जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार किंगशुक नाग ने अपनी ताजा प्रकाशित पुस्तक `नमो स्टोरी : ए पॉलिटिकल लाइफ` में लिखा है - ``मोदी और उनके आर्थिक कौशल के चारों ओर फैले हुए मिथक का आधार आधा सच और आधा केवल अतिशयोक्ति है। मोदी के बढ़ाचढ़ाकर पेश किए वाइब्रेंट गुजरात प्रदर्शनउदाहरण के लिए ये प्रभाव डालते हैं कि विदेशी निवेश को आकर्षित करने में गुजरात अन्य राज्यों से आगे है। किन्तु सत्य यह है कि पिछले बारह वर्षों में भारत में गुजरात केवल पांच प्रतिशत विदेशी निवेश ही ला पाया है। महाराष्ट्र और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली उससे बहुत आगे हैं।``

पिछले दिनों नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में फिक्की लेडिज ऑर्गेनाइजेशन में महिलाओं की प्रगति और विकास को लेकर बड़ी-बड़ी बातें कीं। इस परिप्रेक्ष्य में उनके गुजरात की वास्तविक तस्वीर क्या है उसको देखना मजेदार है। गुजरात में 0 से 6 साल तक के आयु वर्ग में लिंग अनुपात की स्थिति काफी चिंताजनक है। यहां एक हजार बच्चों के मुकाबले 886 बच्चियों का अनुपात है। यह आंकड़ा 2011 की जनगणना का है। वर्ष 2001 की जनगणना में यह आंकड़ा 883 का था। जबकि बिहारआंध्र प्रदेशकेरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों की स्थिति ज्यादा बेहतर है। पुरुष और महिला लिंग अनुपात में भी स्थिति बदतर है। राज्य में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रोंदोनों को मिलाकर यह अनुपात एक हजार पुरुषों पर 918 महिलाओं का है। जबकि 2001 में यह आकंड़ा 921 था। यानी यहां महिलाओं की संख्या कम हो रही है। 

अहमदाबाद वुमन एक्शन ग्रुप (एडब्ल्यूएजी) की संस्थापक अध्यक्ष डॉ. इला पाठक ने मोदी के संबोधन के बाद फिक्की की मैडमों को एक पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने मोदी के झूठ को उजागर किया है। उन्होंने लिखा कि वर्ष 2011 में यह खबर सुनी गई थी कि सरकार ने 101 सोनोग्राफी क्लिनिक बंद किए हैं। उसके बाद 2012 में कुछ के ही बंद होने की बात सामने आई। वर्ष 2013 में अभी तक पीसीपीएनडीटी कानून के तहत कोई कार्रवाई नहीं की गई है। विवाहित महिलाओं के स्वास्थ्य के मामले में सर्वे के अनुसार 15 से 49 आयु वर्ग की 55.5 प्रतिशत महिलाएं रक्ताल्पता पीड़ित (अनीमिक) हैं। इसी आयु वर्ग की 60.8 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं कुपोषित और अनीमिक हैं। डॉ. इला पाठक ने पत्र में लिखा है कि वर्ष 1998-99 में छह माह से 35 माह आयु वर्ग के 74.5 फीसदी दलित और आदिवासी बच्चे कुपोषित थे। जबकि वर्ष 2005-2006 में यह संख्या बढ़कर 79.8 प्रतिशत हो गई। यही नहीं49.2 प्रतिशत बच्चों का सामान्य कद विकसित नहीं हुआ।

इसके अलावा 41 प्रतिशत बच्चों की वजन उतना नहीं था जितना उनकी आयु वर्ग के बच्चों का होना चाहिए। पिछले चुनाव के दौरान यह मुद्दा उठाया गया था और जिस मंत्री को इस विभाग की जिम्मेदारी थी उन्होंने यह सत्य जानने के लिए बहुत तत्परता दिखाई कि आखिर खाने के तैयार पैकेट गए कहां !  यह है गुजरात की शासन प्रणाली! राज्य में मातृ और शिशु मृत्युदर में कोई गिरावट नहीं आ रही है ;  मांएं और बच्चे गुजरात में लगातार मर रहे हैं या बहुत ही कमजोरी से ग्रस्त अवस्था में जी रहे हैं। हर समय महिलाओं को मां कहकर संबोधित करना मात्र दिखावा है। हमने देखा है कि कैसे कुपोषित युवा मांएं इलाज के अभाव में मृत्यु को प्राप्त होती हैं क्योंकि किसी भी सरकारी डिस्पेंसरीब्लॉक या जिला अस्पताल में कोई स्त्री रोग विशेषज्ञ नियुक्त नहीं किया गया हैयह सुविधा केवल बड़े शहरी अस्पतालों में ही उपलब्ध है।



मोदी ने भले ही फिक्की के मंच से कारोबार जगत की महिलाओं को संबोधित करके अपनी छवि चमकाई होलेकिन इस सवाल का उन्होंने आज तक जवाब नहीं दिया ( न ही फिक्की की ओहदेदार लेडीज उनसे यह पूछने की जुर्रत कर पाईं) कि जशोदाबेन चिमनलाल के साथ अपनी शादी को उन्होंने इतना गुप्त क्यों रखा ? इस विवाह को उन्होंने स्वीकार क्यों नहीं किया? अगर उन्होंने संन्यास लिया है तो फिर अपने परिवार से क्यों संबंध रखा है? अपनी मां के साथ उनके चित्र यदाकदा ही सही प्रकाशित तो होते ही रहते हैं। वह और उनके प्रशंसक भूल जाते हैं कि उन्होंने (मोदी) अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए एक ऐसी स्त्री को छोड़ा है जो अपने संस्कारों और मानसिकता में धर्मसंस्कृति और परंपरा के अनुसार भारतीय नारी रही है। उसने न कोई विवाह किया और न ही उसकी कोई संतान है। क्या किसी पत्नी के साथ इससे बड़ी निर्ममता बरती जा सकती है?  जशोदा बेन के साथ कानूनी तौर पर उनका तलाक भी नहीं हुआ और वह एक प्राथमिक स्कूल में मास्टरी कर अपनी जिंदगी काट रही हैं। तो यह है मोदी का महिलाओं के प्रति सम्मान।



मानव विकास सूचकांक



मानव विकास सूचकांक के आंकड़ों के मुताबिक गुजरात में 65.3 प्रतिशत स्कूलों में ही लड़कियों के लिए शौचालय की सुविधा है। इस मामले में हरियाणाकेरलपंजाबराजस्थान और उत्तर प्रदेश सहित कई राज्य गुजरात से कहीं आगे हैं। शिक्षा को लेकर सार्वजनिक खर्च में भी गुजरात ( 1.7 प्रतिशत) बिहार (4.7 प्रतिशत)केरल(2.6 प्रतिशत)असम (4.1 प्रतिशत) और तमिलनाडु (10.2 प्रतिशत) सहित कई अन्य राज्यों से काफी पीछे है। खर्च का यह आंकड़ा कैग (वर्ष 2009) से लिया गया है। मजेदार बात यह है जिस गुजरात की तरक्की का इतना ढिंढोरा पीटा जा रहा है और मध्यवर्ग मोदी फोबिया से ग्रस्त हैवहां ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल ( जो एक मामले में आज आधुनिकता का पर्याय हो चुका है) के कवरेज के मामले में यह राज्य बिहारझारखंडआंध्र प्रदेशहरियाणाकेरलतमिलनाडु और दिल्ली से बहुत पीछे है। वहीं गुजरात में शहरी क्षेत्रों में महिलाओं की साक्षरता दर 79.5 प्रतिशत है। जबकि गोवा (80 प्रतिशत)असम (90 प्रतिशत)केरल (94 प्रतिशत)हिमाचल (86 प्रतिशत)मेघालय (94 प्रतिशत)मिजोरम (98 प्रतिशत)नगालैंड ( 95 प्रतिशत) और त्रिपुरा (88 प्रतिशत) सहित कई राज्य इस मामले में आगे हैं। ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं की साक्षरता के मामले में गुजरात का रिकॉर्ड 56 प्रतिशत है। वहींगोवा (73 प्रतिशत)दिल्ली (72 प्रतिशत)असम(76 प्रतिशत) केरल (91.1 प्रतिशत)महाराष्ट्र (65.8 प्रतिशत)पंजाब ( 65.5 प्रतिशत) और पश्चिम बंगाल (64.7 फीसदी) के रिकॉर्ड के साथ गुजरात से कहीं आगे हैं। पेयजल और सड़कों के निर्माण के मामले में भी गुजरात देश के बहुत सारे राज्यों से पीछे है।



ये कुछ उदाहरण हैं जो गुजरात के महान विकास की सचाई को सामने लाते हैं। गुजरात का मीडिया आलोचनात्मक सवालों को उठाकर मोदी को नाराज करने का जोखिम मोल नहीं लेना चाहता है। वरिष्ठ पत्रकार निलांजन मुखोपाध्याय ने इसी साल प्रकाशित अपनी पुस्तक ` नरेंद्र मोदी : द मैन, द टाइम्स` में एक रिपोर्टर के हवाले से लिखा है- यदि आप उनके खिलाफ आलोचनात्मक रिपोर्टें लिखते हैं तो मोदी बदला लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। सूचना की पंक्तियों को रोका जाता हैअब चुनाव आपका है कि आप आलोचनात्मक रिपोर्टिंग बंद कर दें या फिर परेशान करने वाले बिंदुओं को इधर-उधर छूते हुए निकल जाएंलेकिन ऐसा कुछ न लिखें जो बहुत अधिक नुकसान पहुंचाता हो।`



मोदी मजमा लगाने वाले सतही वक्ता से ज्यादा कुछ नहीं हैं। यह बात उनके फिक्की के ही नहीं बल्कि दिल्ली के श्रीराम कॉलेज में दिए भाषण से भी सिद्ध होती है। उनमें न तो विचार हैन कोई स्वप्न कि वह भारत को कहां ले जाना चाहते हैं। वह हंसाते हैंगुदगुदाते हैं पर वह आप को वैचारिक स्तर पर आलोड़ित नहीं करते। समृद्धि की हड़बड़ाती उम्मीद में मध्यवर्ग ने जो नेता चुना है वह भी उनके काम नहीं आने वाला है क्योंकि वह खोखला है।  

(नोट – यह लेख 'समयांतर' पत्रिका के मई2013 अंक में भी प्रकाशित हुआ है।)
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 कृष्ण सिंह पत्रकार हैं. लंबे समय तक अखबारों में काम. 
 अभी पत्रकारिता के अध्यापन में.
इनसे संपर्क का पता krishansingh1507@gmail.com है.

Who creates War hysteria?

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Satyendra Ranjan

(This article is based on writings of some serious watchers of Indo-China relationship. It was written in 2010, but  the context in which it was prepared has not changed even today.)

By Satyendra Ranjan

TheSino-Indian relationship came under severe strain in the second half of 2009. There was a very strange aspect in this whole episode. The governments of the both countries were not fueling the tension or were not behind the war hysteria that was seen in Indian mainstream media. It was being fuelled from somewhere else. Apparently it was a war that was being fought by media of both countries. But there was something that may have missed from the eyes of the common people. Before we try to go into the depth of real intentions of war mongers and unearth some of the inherent facts, first we must look into what happened and how the knowledgeable analysts saw those developments.

Mr.B Raman is Additional Secretary (retd), Cabinet Secretariat, Govt. of India, and, presently, Director, Institute for Topical Studies, Chennai. He is also associated with the Chennai Centre for China Studies as well. On September 8, 2009, he wrote for a website, “A dangerous hysteria has taken hold of India-China relations since the anti-Beijing uprising in Lhasa in March last year. This hysteria is not due to any actions or rhetoric by the two Governments, which have been conducting themselves in a balanced and restrained manner. They have been trying to preserve and expand the gains in bilateral relations since the famous visit of Rajiv Gandhi to China in 1988. They have been sincerely trying to adhere to the bilateral agreement on maintaining peace and tranquillity till a final solution is reached to the border dispute between the two countries. This hysteria has been the creation of some sections of the non-governmental strategic communities in the two countries.”

Mr. M. K. Bhadrakumar, a former diplomat, writing in India’s most reliable and prestigious news paper- The Hindu, raised a very important question. He asked- Who stands to gain from war hysteria? And he answered, “What is abundantly clear is that neither India nor China stands to gain from the war hysteria that has been whipped up through the recent months over the relations between the two countries.” He continued, “Yet, on any single day, sections of our corporate media -- print as well as electronic -- are replete with stories that resonate with the sound of distant war drums.

Then, if India and China are not going to gain from the war drums, who was providing forged facts, baseless issues and a sense of hyper patriotism to the journalists? Mr. Bhadrakumar has some clues. Let’s see this- “True, the media cannot be held solely culpable for such irresponsible conduct. In a way, their panache for atavistic themes and Manichean doctrines is quite understandable. Alas, they live in an ephemeral world and their repertoire of survival techniques includes various sorts of gimmickry to attract viewership. However, organisations funded by the government and headed by ex-bureaucrats who held sensitive positions in the government have also joined the fray in building up the present hysteria. One government-owned think-tank even featured in its journal an article recently by Arun Shourie as the lead contributor, who of course duly cast China in an “enemy” image. Again, retired officers of the Indian armed forces who are associated with “think-tanks” funded by the services are visible too in the media enthusiastically piloting the current campaign.”

Though, these experts only indicated towards some vested interests, they refrained from naming someone. But Mr. Prakash Karat, the general secretary of the Communist party of India (Marxist) was more forthcoming. He wrote in the CPI-M’s official organ People's Democracy, that, “"The right-wing circles in the country have been prompt to pick up the theme of a threat from China.  All this is being orchestrated to demand greater defence preparedness against China with the unstated requirement being deeper strategic and military ties with the US."  He said, "The top ranking commanders of the US armed forces who regularly visit India, unfailingly point to the military threat posed by China. Within India, the lobbies that want the strategic alliance with the US to be cemented are precisely those who seek to thwart the potential of India-China cooperation,"

And,it’s not a new development. Way back in 2004, when right-wing National Democratic alliance (NDA) was in power and after initial hiccups, it began to warm towards China, defence minister Mr. George Fernandes had a successful visit to China. It created a flutter among the right wing sections of society. The Asia Times Online columnist Sultan Shahin noted at time, “ India's China policy of growing rapprochement is, however, not without its critics. Much of the criticism comes from a determined pro-US lobby which wants India to remain firmly in the American camp, regardless of how it is treated by the sole superpower. This lobby would want India to be a part of US policy of containing China”.

SultanShahin gave an example of  Mohan Malik,who was professor at the Asia-Pacific Centre for Security Studies in Honolulu at that time. Shahin introduced him as “one of those strategic thinkers who is most comfortable with a US-dominated unipolar world and see the emerging scene in Asia as that of unremitting India-China rivalry.”  And then he quoted from a two-part article of Malik, in published Force, a defence affairs magazine from New Delhi. In this article Mohan Malik wrote, "Notwithstanding India's desire to remain an independent power, which sometimes results in India's taking policy decisions contrary to the US (eg on Iraq), India prefers a US-led unipolar world to a China-dominated Asia - but ultimately seeks a multi-polar world with itself as a constituent pole."

Mohan went on: "India - much like Japan, Vietnam and Australia - is unlikely to accept Chinese hegemony for historical, cultural, civilizational and more importantly, geopolitical and geo-economic reasons. These countries were never part of the Sinic world order and would prefer a US-led Asia-Pacific for the simple geopolitical reality that the United States is a distant superpower while China is right on their doorstep. Security concerns regarding a rising China have already prompted New Delhi to cultivate Washington, seeing the US military presence as a factor of stability in Asia ... in addition to establishing strategic ties with the US, India's evolving Asia policy reflects a desire to build an arc of strategic partnerships with 'China-wary' Asian countries that would neutralize continuing Chinese military assistance and activity around India."

This is not an isolated view. This view has a following base in the country. And it has a background of gaining acceptability. The French newspaper published an article by Frédéric Bobin onJanuary 26, 2008, on the occasion of the Republic Day of India. It titled, ‘India between China and the U.S.’ The article analysised this base and this background.  It said, “At the end of the 1990’s, American strategists recognized the importance of a rapprochement with India.  Beyond its democratic ethos and the lure of its economic potential, India shares with Washington its concerns about Islamist terrorism and the rising power of China.

An indicator of the United States’ good intentions was their less than rigorous condemnation of New Delhi’s series of nuclear tests, which had thrown a pall over its international relations in 1998. Better still, in 2006 the Americans signed a civil nuclear cooperation agreement with India, an exceptional gesture since India is not a signatory of the Nuclear Non-Proliferation treaty (NPT).  Of course, the interests of these two countries are far from converging on all issues.”

Bobin said, “The day after September 11, 2001, Washington was forced to pander to its historical propinquity with Pakistan, defined as the crucial front line in the war against terrorism, which played out in Afghanistan and its environs.
India, for its part, cultivated a very friendly relationship with the generous oil supplier, Iran, a step that drew some disapproving scowls from the White House. All the same, these respective centrifugal forces did not impede the reconciliation that was in progress.”

The article went on, “The pro-American lobby gaining the greater influence in New Delhi largely engineered this denouement.  Free Market economy gave birth to a middle class, which, though nationalist, wanted to divest itself of the old moons of the Nehru-Gandhi era, characterized by the twin markers of support for the Third World and anti-Americanism. The Indian Diaspora in the United States played an active role in promoting the ideological opening up to modernity. India’s trepidations over the Chinese push further consolidated the process. It is not a coincidence that the Hindu nationalists of Bharatiya Janata Party (BJP), in power in 1998, expressly declared China to be among the "threats" which justified their nuclear tests. The mixture of "American temptation" and wariness of Beijing remains acute in India, where the memory of the humiliating defeat of 1962 war is still alive. The disputed border deep in the Himalayas, where the two giants meet, still remains unregulated. Furthermore, India keeps a suspicious eye trained upon China’s diplomatic, military and economic activity in India’s backyard (Pakistan, Burma, Bangladesh, Nepal, Sri-Lanka).”

This sums up the very base vested interests and corporate media tries to exploit. Now we can see how things went to that stage where many people began to think that war was round the corner. All began with a news report that said that China wants to dismember India into many parts, so it never could become a challenge to China. This ‘strategy’ was said to be discussed in a Chinese think tank and its report was published on its website. Indian media presented it as China’s official strategy, though Chinese as well as Indian governments clarified immediately that it was just a private think tank which had propagated that idea. But media was bent upon playing up this so called news.

And after that media kept the war theme alive. As the 60th anniversary of establishment of people’s democratic republic of China was coming nearer, media was busy in searching or fabricating the issues, that could be sold to their clients. As we have seen above boundary dispute is a permanent source of tension between both countries. The anti-China lobbies and corporate media often take advantage of that. One news item that created most sensation was of killing of two Indo-Tibet Border Police (ITBP) soldiers by the Chinese forces. It was told that this happened in Arunachal Pradesh. The newspaper that published it claims to be largest English newspaper of world. But it did not even try to find out the names of the ‘dead’ soldiers. Later on it came to light that the whole news story was untrue. Government of India was obviously very perturbed with these developments and at least in regard of this incident it took a serious step. A case of misinformation was filed against the newspaper and concerned reporters.

In spite of that media has been inventing stories of Chinese incursions into Indian territories.  The moot question is what the intention of media is and who are forces behind this trend? To understand this we again quote Mr B. Raman. He wrote, “The post-March 2008 hysteria in the bilateral relations has not been the creation of the two Governments. It has been the outcome of a new activism with regard to each other in the non-governmental strategic communities of the two countries. Sections of the Indian strategic community saw in the Lhasa uprising an opportunity to change the status quo in Tibet by playing the Tibet card against China through helping the Tibetans in securing their legitimate rights from the Han Chinese. By changing the status quo in Tibet—-not militarily which is out of question, but politically by backing the Tibetan people’s efforts to change the status quo themselves— India might be able to change the status quo in the Western sector and preserve the status quo in  the Eastern sector. So these analysts believed and started advocating vigorously a policy of playing the Tibet card against China.

Mr.Raman said, “The activism in the Chinese non-governmental strategic community is partly the result of what they see as the Indian activism on Tibet and partly the result of the Indian activism in Arunachal Pradesh for consolidating the status quo. They want their Government to be more assertive in playing the Arunachal Pradesh card and to take advantage of the difficulties faced by India in the North-East to counter any attempt by India to play the Tibet card. This hysteria has resulted in a campaign of mutual demonization and mutual sabre-rattling. This sabre-rattling is only at the non-Governmental level. The two Governments have maintained a distance from this hysteria without trying to discourage it.”

For more elaboration we may now turn to M.K. Bhadrakumar. He described it in length. Let us listen through his own words, “Broadly speaking, three categories of Indian opinion-makers are raising the war hysteria over India’s relations with China. First, it isn’t difficult at all to spot old familiar faces in the foreign and security policy circuit who push the case with great sophistication and aplomb that a growing Chinese menace leaves India with no alternative but to calibrate its foreign policy and edge ever closer to the United States. They are intelligent people, suave and articulate, who held important positions in the government in various capacities in India and abroad. Naturally, their assertion that India should play the “Tibet card” against China carries weight. They will insist they are hardened “realists” but it must be extreme naivety on their part -- or plain dissimulation -- to say China can be pressured over Tibet. They are far too experienced to know that if China reciprocates by playing various sundry “cards,” the game can turn quite rowdyish. See the amount of dust created by just one Chinese article recently about “balkanising” India, written in response to dozens penned in the past two-year period since unrest broke out in Tibet by our fundamentalists fancying a break-up of China into nice little pieces.

Second, an easily identifiable ebullient crowd of retired defence officers presents a one-dimensional case that the civilian leadership is underestimating the Chinese threat and the armed forces should be provided far greater financial and material resources to meet the threat. All militaries have corporate interests and a case needs to be built for earmarking 7 per cent of India’s GDP for the defence budget. The tussle for resources between butter and guns is an ancient one. But, on the other hand, the Indian public opinion has never questioned the country’s defence budget as excessive. The only disquieting aspect is the manifest passion on the part of a growing lot within the military to canvass for weaponry sourced from America. But then, American arms manufacturers have a way of charming their potential clients.

Third, of course, there are the ubiquitous right-wing Hindu nationalists, the self-appointed custodians of national security, for whom China is the hurdle to India’s emergence as a superpower. They genuinely lack the intellectual wherewithal to comprehend that the time for “superpower-dom” is gone with the wind in world politics. But their doublespeak puzzles. China concluded a memorandum of understanding with the RSS last year and senior RSS figures were hosted by Beijing. It must, therefore, be concluded that they are grandstanding to score a point or two against the ruling party.

These cliques coordinate in their untiring campaign on China’s evil intentions. Indeed, they would have us believe that a war is round the corner and there isn’t much time for preparing Indian defence capabilities.”

We do not find many sane voices like Mr. Bhadarakumar and Mr. Raman being aired in mainstream Indian media. Why? To understand this we may have to understand the structure and class base of media here. Over the years Indian media has come under tight grip of corporate sector. The capitalist class has its own agenda that it tries to impose upon the people through its control over the media. After liberalization and globalization policy was adopted by the government of India, foreign capital was allowed to invest into media houses to a certain limit. This radically changed the character of the most of newspapers and TV channels as representatives of foreign (read, western) investors began to influence the policies and decisions of media houses. Naturally, foreign capital brought its interests and orientations with itself and it began to be reflected in media’s presentation of events and general news.

However, acceptability and presentation of western interests as our owns is not a totally new phenomenon that came with FDI in mainstream media. Even in earlier days media was more and less pro-capital and against anti-capitalist ideologies. The communism has always been on their target. For this very reason a bias against erstwhile USSR and communist bloc as well as China was always visible.

Another factor that contributed to this trend was aggressive public relation exercise of the U.S. lobbies. It has been a general trend that many journalists of mainstream media are given fellowships or invitations to visit the western countries and there they are provided all types of comforts. Simultaneously they take part in discussions and debate organised by sponsoring organisations. The whole package is designed and meant to brain wash the visiting fellows. And usually it happens. The journalists on their return begin to see the world through western lenses.

Now a days the Indian upper and middle classes have a strange dilemma regarding China. On the one hand they look Chinese progress and development, specially its glittering cities and flyways with astonishment, but they as they see the portraits of Marx, Lenin and Mao with it, their biases and fears come out of them. And these are the people who control and run the media. Therefore, the hysteria we are talking about is the expression of the latent feelings and wishes of the Indian elite classes.

And as we have seen in the writings of Mr. Raman and Mr. Bhadrakumar, there are many easily available security and external affairs ‘experts’ to provide and feed the media with their interpretations and analysis of the events. They have talked about the origin of these experts. But one important actor of this whole drama is still out of our discourse. And this is the NGO sector. But before go into them, we first look into the Tibet question, that has been a permanent source of tension between India and China.

Dr. Subramanian Swamy is an economist, a former Cabinet Minister of India and a long-time China expert. Let’s see how he looks the Tibet issue. He wrote in year 2000, “Thus, the status of Tibet, and India's perception of it, has been one of the destabilising factors in Sino-Indian relations. Publicly, the Indian government regards Tibet as an integral part of China. But in popular parlance and in many of its actions, it does not behave as if Tibet is a part of China. For example, the Indian government raised in the 1980s a highly paid special service unit, a 8,000-strong commando group of Tibetans, who woke up every morning in the special camps with cries of "Long liv e the Dalai Lama. We shall liberate Tibet". This commando group is still under the active supervision of the Research and Analysis Wing (RAW) and the Cabinet Secretariat. If India regards Tibet as part of China, then why is there a need to maintain such a special group? Why not instead a regular Army unit with contingency plans? The government has never answered this query of mine.

Thetreatment extended to the Dalai Lama also reveals this ambivalence in India's attitude towards Tibet. The government says that India has only extended asylum to the Dalai Lama, because his life would be in danger if he returns to Tibet. But the Bureau of the Dalai Lama is quite active in New Delhi propagating the thesis that Tibet is an independent country.” (Frontline issue 2-15, September, 2000.)

Thoughcertain things have changed since then, but many have not. In recent years government of India has tried its best to develop a relationship of friendship and partnership with China. It has re-emphasized many times that Tibet is the integral part of China. But in case of Dalai Lama and his exiled followers it has been vacillating as we saw recently when Dalai Lama was allowed to visit Arunachal Pradesh in spite of strong protest from government of China.

Someanalysts believe that history of Sino-Indian relationship of last 50-60 years, growing close relationship with the U.S., and a strong pressure group of NGOs are some factors those discourage any major revision in the Tibet or Dalai Lama policy of government of India. The NGOs or Non-Governmental Organizations are now one of the most organised and influential group in many countries and India is one among them. As we know there many types of NGOs. Some work in developmental sector and they are mainly dependent on public of government funds. But many NGOs work as advocacy groups and they have political agenda with them. It’s a matter to note that often they don’t set their agenda themselves, but they just work under the overall agenda set by their funding agencies. And developed world has a number of such agencies who fund to the NGOs of the developing world and get their agenda implemented through them.

How?Let us get some idea from the words of a knowledgeable person who has tried to understand the NGO business. Mr. Peter Kuria is a resource ecologist of Kenya. He has worked in many African countries like Zimbabwe, South Africa and, Botswana on the issues of people’s rights over natural resources. He has also experience of working with the indigenous people of Costa-Rica in South America and environment department of U.K. In recent years he has been in Finland and is closely associated with the ongoing discourse on climate change. In August-September 2009 he visited India, before leaving from this country he gave an interview to me. I am quoting relevant parts of that interview here:

  • It seems you have serious objection to NGOisaion of people’s movements. Why you are opposed to NGOs?
-          I am not against NGOs. I am against their operational structures. I am against the way they are designed for. From my personal experience in Kenya I can say they work like politicians and become a dividing force. I have objection to number one, the idea of a NGO being only conditional, and second, not putting money they receive for the set objectives. In Kenya, 80% NGOs are not spending money in proper way. You withdraw that spending from a community and you will find as nothing has happened. The community will not be adversely affected. So, there is no connection between what NGOs are doing and what is happening in a community.
  • One criticism of NGOs comes from left parties that these organizations are part of conspiracy of international capitalism, which saw threat from emerging mass movements and tried to co-opt these movements with pouring of money. They say that NGOs are subverting the people’s struggles and thus serving the capitalism. DO you agree with this logic?
-          I think there is a line of truth in it. If you look at the evolution of NGOs in Africa, you will see this process is linked to capitalistic approach of life. The NGOs were founded in Africa, when the funding agencies found that most of the governments of the continent are corrupt. Then western agencies got NGOs formed to provide resources to the people. So, NGOs not emerged from the bottom, but they came from outside. In Kenya, NGOs were formed by same govt. officials who were corrupt.
Look at the DFID (department for international development of US). Look at USAID and CIA. They work under the same department. The DFID works under the (US) foreign office. USAID and DFID have deep inroads through their projects (in different developing countries) and collecting enough intelligence that is more than that of govt. itself. So, when a communist party speaks about this question, it seems creditable.

TheNGOs, working as advocacy groups generally take issues like Democracy, Human Rights, Rights of the indigenous people, etc. They are funded to raise these issues, so they have to fulfill their assignment. It’s a common knowledge that many NGOs world over are funded to raise the issue of ‘freedom of Tibet’. They have their branches in India too.

Herewe must briefly look into the history of neo-liberal project that was initiated with a design to propagate the ideas of unbridled capitalism and to discredit all alternative ideologies and systems. Around 1950s when communism was on rise and even in western world the concept of welfare state was in vogue, the pro-capital elements tried to resurrect themselves with an ideological war. Under this project a number of so called think tanks in the name of democracy and human rights were established. As neo-liberalism marched ahead these think tanks were flooded with funds and they became vehicle to take these ideas and activities to the developing world. Flush with easy funds the NGOs came into being there and spread with a great speed.

We have already seen the influence and interventions such NGOs in former USSR republics. Some years back, from Georgia to Ukraine and Kazakhstan to Belarus, western masters tried to impose colored revolution using the network of the NGOs funded by them. They succeeded in Georgia and Ukraine, but failed in other two places. But how the network of NGOs can create political instability or even coup in a country became obvious. It showed the strength of NGOs to implement the agenda of their funders.

By understanding this NGO phenomenon, we could easily know why Tibet issue creates such ripples. It’s pertinent to raise these questions that why Tibet issue again became so important just before the Beijing Olympics and why Sino-Indian relations came under the strain just when Peoples Republic China was preparing to celebrate its 60th anniversary of establishment?

Whatwe can conclude from recent experiences is that Sino-Indian relations will continue to be put under strain by the vested interests and their henchmen in the both countries. Such efforts would have to be countered by conscious efforts by both governments and enlightened public opinion. As Mr. Bhadrakumar noted, “What is abundantly clear is that neither India nor China stands to gain from the war hysteria that has been whipped up through the recent months over the relations between the two countries.

Ina famous essay published in the Pravda newspaper in 1913 titled- Who Stands to Gain?, Vladimir Lenin wrote: “When it is not immediately apparent which political or social groups, forces or alignments advocate certain proposals, measures, etc., one should always ask: “Who stands to gain?”? It is not important who directly advocates particular views. What is important is who stands to gain from these views, proposals, measures.”

What is abundantly clear is that neither India nor China stands to gain from the war hysteria and xenophobia that have been whipped up through the recent months over the relations between the two countries. So much is evidently at stake at this historic juncture for the two Asian powers as they pursue their respective trajectories of growth and development in a highly volatile international environment. Neither India nor China can afford to be distracted from its chosen path that places primacy on development in the national policies. A war for either of them is highly detrimental to core interests. Yet, on any single day, sections of our corporate media -- print as well as electronic -- are replete with stories that resonate with the sound of distant war drums.”

Mr B Raman warns of consequences of such war drums, when he says, “the danger of such hysteria is that it could acquire an uncontrollable momentum and take the two countries towards a precipice from where they may not be able to withdraw. Any confrontation as a result of this hysteria would damage the interests of both the countries.”

Apartfrom border dispute and other ‘Chinese designs against India’, Tibet is an issue that has been providing fodder for the anti-China campaigners. However, people of India must now understand that Tibet has been a stick in the hands of western capitalist world to beat the Communist China. Their so called think tanks and institutions have been funding for the farce cause of liberation of Tibet just to fulfill their own interests. Many Indians have aligned themselves willingly or inadvertently to this cause and have played into those hands. Now, the time come to understand this fallacy. As Subramanian Swamy says, “those who advocate the 'independence of Tibet' do not and cannot argue on the basis of history. Their advocacy can only be to further political mischief or to enrich themselves at the nation's cost. Sino-Indian relations, therefore, should not be derailed by our misconceptions and misplaced adventurism on Tibet.”

The recent experience has made it abundantly clear that the Sino-Indian relationships need a careful treatment. Just believing that growing trade ties will make relationship stronger will not lead us to the desired goals. It will need detailed efforts to expose the forces those have vested interests in keeping these two countries apart. We must understand their methodology, style of functioning and their strength to create mischief. Simultaneously we have to erase the smokescreen that been generated by the long mistrust between the peoples of India and China. Commonality of interests of both peoples must be emphasized now. There is need of a movement of good people to match and defeat the intentions of bad vested interests.

Satyendra Ranjan is a Senior Journalist and Columnist .
He can be contacted at satyendra.ranjan@gmail.com 

सपनों के लिए जनयात्रा

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रोहित जोशी

-रोहित जोशी

"...यात्रादल द्वारा रखा गया यह विकल्प असल अर्थों में पहाड़, देश और दुनिया के समूचे विकास मॉडल के लिए चुनौती भरा है। इसके केंद्र में मुनाफे के बजाय असल अर्थों में उस जनता का विकास है जिसके विकास की हर जगह दुहाई दी जा रही है। पर दुनिया भर के विकास के मॉडल को चुनौती देते इस विकल्प के सामने खुद कुछ बड़ी चुनौतियां हैं। जिनसे उबरना अभी बाकी है।..."

त्तराखंडके पहाड़ी भूगोल के इतिहास में रची-बसी दो कहानियां उठाते चलें और फिर एक तीसरी की भी बात करेंगे जो कि अभी लिखी ही जा रही है। पहली मिथकीय है जिसे पूरे देश की एक बड़ी आबादी इतिहास मानती है। दूसरी इतिहास है जिसमें कुछ-कुछ मिथक भी गुथा है और तीसरी कहानी अभी बहुत ताजा है अपने लिखे जाने के ही क्रम में। 
भगीरथ ने युद्ध में परास्त अपने पुरखों के शवों के अंतिम संस्कार के लिए हिमालय में तप कर गंगा को पृथ्वी पर आने को विवश कर दिया। मिथक यही है कि गंगा पृथ्वी पर ऐसे ही आई और इसके लिए भगीरथ ने जो कठोर तप किया वह एक मिसाल बन गया और एक मुहावरा भी, ‘भगीरथ जतन’ या ‘भगीरथ प्रयत्न’। 

दूसरीकहानी माधौ सिंह की है। देवप्रयाग से तकरीबन 30 किमी दूर बसे गांव मलेथा के माधौसिंह की। सत्रहवीं शताब्दी में गढ़वाल रियासत की सेना का सिपाही और फिर अधिकारी रहा माधौसिंह जब अपने गांव मलेथा लौटा उसकी पत्नी उदीना के पास उसे खिलाने/पिलाने के लिए न अनाज था और न पानी। कुछ देर पत्नी पर झल्लाया माधौ जब इसकी वजह समझा तो उसे रात भर नींद नहीं आई। पानी/सिंचाई के अभाव में गांव के बढि़या और विस्तृत खेतों में कुछ नहीं उगता था सिवाय सूखी घास के। गांव और पास बहती चंद्रभागा नदी के बीच में एक बड़ा पहाड़ था। माधौसिंह ने उसे खोद नहर बनाकर चंद्रभागा का पानी गांव में लाने की ठान ली। गांव वालों को इसके लिए उत्साहित कर उसने वाकई पहाड़ खोद डाला। और 5 फीट चैड़ी और 5 फीट गहरी सुरंग बना डाली। इस कहानी में एक छोटे मिथक का पुट यह भी है कि सुरंग तैयार हो जाने के बाद भी चंद्रभागा सुरंग में उतरने को तैयार नहीं हुई। रात में माधौसिंह के सपने में चंद्रभागा आई और उसने उसके इकलौते बेटे की बलि दिए जाने की शर्त पर ही सुरंग में उतरना स्वीकारा। कहते हैं कि माधौसिंह ने गांव के लिए अपने इकलौते बेटे गजै सिंह को कुर्बान कर दिया। संभवतः हुआ यह हो कि सुरंग बनाने के कठोर जतन के बीच युवा गजैसिंह ने दम तोड़ दिया हो और अत्यंत धार्मिक समाज की किंवदंतियों में यह कहानी चंद्रभागा को दी गई बलि के तौर पर प्रचार पाई हो। बहरहाल माधौसिंह के जीवट फैसले और ग्रामीणों के भगीरथ प्रयत्न से चंद्रभागा सुरंग में उतरी और मलेठा के खेतों और ग्रामीणों को यह सुरंग आज भी सिंचित कर रही है। 

खैर!माधौसिंह की सुरंग वाले मलेथा गांव के पास से ही श्रीनगर से घनशाली/फलिंडा की तरफ बढ़ती एक सर्पीली सड़क में लाउड-स्पीकर लगी एक गाड़ी (बुलैरो) धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है। यह, जीवट निर्णय लेने की हमारी उपरोक्त दो कहानियों के बाद तीसरी कहानी का ‘एक अध्याय’ है। यह मिथक और इतिहास की उपरोक्त दो घटनाओं के बाद वर्तमान की कहानी है, जो अभी अपने लिखे जाने के ही क्रम में है। गाड़ी में लाउडस्पीकर से भूपेन हजारिका का गीत ‘‘गंगा बहती हो क्यों’’, गूंज-गूंज कर इनारे-किनारे सुबकती ‘गंगाओं’ से पूछ रहा है कि-  

इतिहास की पुकार/करे हुंकार
ओ गंगा की धार/निर्बल जन को
सबल संग्रामी/समग्रोग्रामी
बनाती नहीं हो क्यों?

इसगाड़ी के चालक लक्ष्मण सिंह पिछले सात दिनों में इसे अल्मोड़ा के जागेश्वर से कुमांऊ और गढ़वाल के प्रतिनिधि शहरों/कस्बों में घुमा लाए हैं। गाड़ी में विभिन्न जनसंगठनों के जो लोग सवार हैं ये उत्तराखंड को लेकर चिंतित हैं, हिमालय/पहाड़ को लेकर चिंतित हैं और यहां बसे लोगों को लेकर चिंतित हैं।  

उपरोक्त दो कहानियों के बाद अब जो ये तीसरी कहानी है इसका प्रण भगीरथ के गंगा को पृथ्वी उतार लाने और माधौसिंह के सुरंग खोदकर चंद्रभागा से नहर निकाल लाने की तरह ही जटिल है। या कहें कि ज्यादा जटिल है। दुनिया भर में मुनाफे की होड़ में मानव और प्राकृतिक संसाधनों की लूट का जो विशाल पहाड़ खड़ा है अबके सुरंग इसे ही खोद कर बनानी है और उम्मीद की गंगा को वहीं बहाना है।

इधरदुनियाभर में विकास का जो मॉडल हमने चुना है इसकी ऊर्जा की हवस अंतहीन है। पृथ्वी के सारे प्राकृतिक संसाधन मिलकर भी इस हवस को नहीं मिटा सकते। भारत की ऊर्जा की मांग पिछले दो दशक में 350 गुना बढ़ी है और यह लगातार बढ़ती जा रही है। आने वाले समय में पूरे हिमालय को डुबो कर भी इस मांग की भरपाई कर पाना संभव नहीं है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना 2012-17 के दौरान भारत ने अपनी ऊर्जा क्षमताओं में 1 लाख मेगावाट का इजाफा करने का लक्ष्य रखा है। अगर इस लक्ष्य को पाना होगा तो उत्तराखंड में प्रस्तावित सभी 558 परियोजनाओं और अन्य हिमालयी राज्यों की प्रस्तावित परियोजनाओं को भारतीय राज्य को बनाना ही होगा। उत्तराखंड समेत पूरे देशभर में गांवों से लोगों को शहरों की तरफ खदेडने की जो नीतियां सरकार ने अपनाई हुई हैं, इन्हें यूं ही तो नहीं स्वीकारा जा सकता। ऐसे में इस अस्थाई विकास के नाम पर अंतहीन ऊर्जा की हवस के लिए सिर्फ 30-35 साल तक ही चलने वाली एक परियोजना के लिए कितने टिहरी और डुबोए जाएंगे और जनता के हक में यह कितना वाजिब होगा यह सवाल चिंतनीय है।

इसी चिंतन से आंदोलित यह यात्रादल कुछ नए विकल्पों के साथ लोगों के पास पहुंचा था। इन विकल्पों में सबसे बड़ा नारा जो यात्रा के पर्चे में भी प्रमुखता से था कि ‘पानी हमारा है, बिजली भी हम बनाएंगे’। राष्ट्र की ऊर्जा जरूरतों की दुहाई देकर जनता/गांव/शहरों को डुबोने वाली सरकार के बरक्स यह यात्रा एक जनपक्षीय विकल्प सामने रख रही है। जिसमें प्रोड्यूसर्स कंपनी एक्ट 2002 के तहत ग्रामीणों की एक प्राड्यूसर्स कंपनी बनाकर 1 मेगावाट की एक परियोजना बनाई जाएगी। इस कंपनी के तकरीबन 100-200 सदस्य होंगे जिनके पास कंपनी का एक-एक शेयर होगा। यह शेयर वे किसी को बेच भी नहीं सकेंगे। वे इस शेयर के स्थाई मालिक रहेंगे। स्थानीय ‘घराट’(पनचक्की) की तकनीक का ही कुछ बड़ा स्वरूप बनाकर इसमें टरबाइन जोड़कर विद्युत प्राप्त की जा सकेगी। ऐसी दो कंपनियां एक कुमाऊं के पनार क्षेत्र की सरयू नदी पर और दूसरी गढ़वाल क्षेत्र के छतियारा में बालगंगा नदी पर परियोजना बनाने के लिए क्रमशः सरयू हाईड्रो इलैक्ट्राॅनिक्स पावर प्रोड्यूसरर्स लिमिटेड और संगमन हाईड्रो इलेक्ट्रोनिक्स पावर प्रोड्यूसरर्स लिमिटेड नाम से रजिस्टर कर दी गई हैं। अब ग्रामीण ही कंपनी के मालिक हैं और कंपनी के मुनाफे में उनका ही हक होगा।

इसपरियोजना के लिए बनाए गए बजट के अनुसार 1 मेगावाट की विद्युत इकाई से यदि र्सिफ 800 किलोवाट विद्युत का उत्पादन भी होता है तो र्वतमान बिजली के रेट 3.90 रूपया प्रति यूनिट के हिसाब से एक घण्टे में 3120.00 रूपये, 24 घण्टे में 74,880.00 रूपये और एक माह में 22,46,400.00 रूपये की इन्कम होगी। इसी तरह यह आंकडा, सालाना 2,69,56,800.00 रूपये हो जाएगा। ढाई करोड़ से ऊपर की इस सालाना कमाई से इन गांवों की आर्थिकी सुदृढ़ हो सकती है। ये गांव स्वावलम्बी बन सकते हैं। बजट के अनुसार लोन की 4 लाख प्रतिमाह की किस्तों को भरने के अलावा, परियोजना के 10 से 15 लोगों के स्टाफ की 3.25 लाख प्रति माह तन्ख्वाह, मेंटेनेंस के 2.50 लाख के साथ ही 200 शेयर धारकों को 5000 से 8000 रूपया प्रतिमाह शुद्ध लाभ भी होगा। एक बार हाइड्रो पावर परियोजनाओं का र्निमाण र्काय पूरा हो जाय तो उसके बाद इसर्से ऊजा प्राप्त कर लेना बेहद सस्ता होता है। नदियों में बहता पानी इसके लिए सहज प्राप्य कच्चा माल होता है। 

यात्रादलद्वारा रखा गया यह विकल्प असल अर्थों में पहाड़, देश और दुनिया के समूचे विकास मॉडल के लिए चुनौती भरा है। इसके केंद्र में मुनाफे के बजाय असल अर्थों में उस जनता का विकास है जिसके विकास की हर जगह दुहाई दी जा रही है। पर दुनिया भर के विकास के मॉडल को चुनौती देते इस विकल्प के सामने खुद कुछ बड़ी चुनौतियां हैं। जिनसे उबरना अभी बाकी है। इस यात्रा के बाद मैं, टिस में माईक्रो हाईडिल के समाजशास्त्र पर अध्ययन कर रहे मेरे मित्र अंकुर, सरयू हाईड्रो इलेक्ट्रोनिक्स पावर प्रोड्यूसरर्स लिमिटेड के युवा अध्यक्ष राम सिंह और अन्य सदस्यों के साथ प्रस्तावित परियोजना वाले गांव रस्यूना भी गया। सिर्फ महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों वाले इस गांव में मुश्किल से दो युवकों से मुलाकात हुई। बाकी सारे युवक रूद्रपुर, देहरादून, दिल्ली आदि शहरों में नौकरी करते हैं। वहीं से वे जो कुछ खर्चा भेजते हैं वही इस गांव को जिलाए हुए है। सामने बहती नदी है। बस यूं ही बह कर चली जाती है। खेत हैं जिनमें कुछ अनाज उगता है। जो साल भर के खुद के लिए ही नहीं हो पाता। पेड़ों में आम और अन्य भतेरे फल लगते हैं। कुछ गांव वाले खाते हैं ज्यादा बरबाद चले जाते हैं। क्योंकि सात किमी पैदल और फिर गाड़ी से शहरों में बेचने जाने का ढुलान ही इतना पड़ता है कि उतना तो फलों को बेचकर मुनाफा भी नहीं हो पाता।  

फलिंडा गाँव में सभा को संबोधित करते डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट
यहीं मैं एक घर के सामने बैठ इस परियोजना के एक सदस्य ग्रामीण से बात कर रहा था। उसे उम्मींद थी कि ये परियोजना जरूर इस गांव का नक्शा बदल देगी। लेकिन उसे एक खतरा सता रहा था। उसने मुझे कहा ‘‘इस परियोजना की लागत 4 करोड़ रूपया है। हम गरीब गांव वाले बैंकों से 10-20 हजार का कर्जा लेने से भी डरते हैं। इस परियोजना के लिए 4 करोड़ का कर्जा हम कैसे जुटाएंगे?‘‘ इस परियोजना का यही यक्ष प्रश्न है। इससे गांव वालों से ज्यादा उन आंदोलनकारियों को निपटना है जो चाहते हैं कि सरयू और बालगंगा नदी पर ये परियोजनाएं समूचे हिमालय के लिए मिशाल बनें। और पूरे हिमालय में जनता की मिल्कियत वाली ऐसी ही छोटी-छोटी कई परियोजनाएं बनें। जब्कि सरकारों का बड़ी परियोजनाओं के प्रति प्रेम बार-बार जाहिर होता जा रहा है। पिछले साल इस ही परियोजना के लिए सर्वे करने आए आजादी बचाओ आंदोलन और उत्तराखंड लोक वाहिनी के दो कार्यकर्ताओं को पुलिस माओवादी बता कर उठा कर 16 घंटों के लिए अंदर कर चुकी है। यूं तो सीधे सादे ग्रामीणों में दहशत फैलाने का यह बेहतरीन तरीका है। लेकिन ग्रामीण अब तक भी टूटे नहीं हैं। उनकी आंखों में परियोजना पूरी होने और बेहतर कल का सपना है। रस्यूना के ठीक सामने सरयू नदी के उस पार एक विशाल पहाड़ है। जैसा कि अभी 'पहाड़' के सामने भी हैं। लेकिन इस पहाड़ में चढ़ती छोटी-छोटी पगडंडियां हैं। ‘चुनौतियों के पहाड़’ से पार पा जाने की उम्मीदों से भरी पगडंडियां। माधौ सिंह की सुरंग जैसी पगडंडियां।

क्राइम हटे तो क्रिकेट बचे!

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...चुनौती साफ है। आईपीएल जिस रूप में अब तक चला है, उस रूप में वह जारी नहीं रह सकता। या कहा जाए कि उस रूप में उसके चलने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। मगर असली सवाल यही है कि ये कैसे होगा?..."

इंडियनप्रीमियर लीग (आईपीएल) को कभी एक अनूठा आविष्कार माना गया था। क्रिकेट की बाइबिल कही जानी पत्रिका विज्डन ने अपने 150 वर्ष पूरे होने पर इस अवधि के उन दस अवसरों का चयन किया जिन्होंने क्रिकेट को पूरी तरह बदल दिया, तो उसमें आईपीएल की शुरुआत को भी शामिल किया गया। लेकिन उसके छठे संस्करण में हुए खुलासों ने अगर आईपीएल के सामने अस्तित्व का प्रश्न खड़ा नहीं किया है, तो कम से कम- अगर बाजार की भाषा में कहें तो- एक हॉट प्रोपर्टी के रूप में उसके भविष्य को अवश्य अनिश्चित बना दिया है। इसकी धूमिल छवि की बेहतर अभिव्यक्ति एक ट्विटर संदेश में हुई, जिसमें कहा गया कि क्या ये उचित नहीं होगा कि अगले सीजन से मीडिया घराने आईपीएल को कवर करने के लिए खेल संवाददाता के बजाय क्राइम रिपोर्टर को भेजें, क्योंकि इस टूर्नामेंट में जो कुछ हो रहा है उसकी खबर देने में क्रिकेट संवाददाता खुद को अक्षम पा सकते हैं!

आईपीएलके इस हाल तक पहुंचने के पीछे घटनाओं का पूरा सिलसिला है। ललिता मोदी प्रकरण में टीमों के गठन से लेकर वेबकास्टिंग अधिकार बेचने में गड़बड़ी और पक्षपात, कोच्चि और पुणे की टीम फ्रेंचाइजी से जुड़े विवाद, चेन्नई की टीम के साथ भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के अध्यक्ष एन श्रीनिवासन के कॉन्फिलिक्ट ऑफ इंटेरेस्ट का मुद्दा, पिछले साल एक टीवी न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपरेशन से खिलाड़ियों के स्पॉट फिक्सिंग के लिए तैयार रहने का खुलासा, इसी स्टिंग ऑपरेशन से इस आरोप का सामने आना कि फ्रेंचाइजी टीमें खिलाड़ियों को तय फीस से ज्यादा रकम का भुगतान काले धन से करती हैं- इस सिलसिले की कड़ियां हैं। इस वर्ष 16 मई को राजस्थान रॉयल्स टीम के तीन खिलाड़ियों- शांताकुमारन श्रीशांत, अजित चंडिला और अंकित चव्हाण- की गिरफ्तारी के साथ फिक्सिंग और टूर्नामेंट पर सट्टेबाजों के दबदबे की गहराती धारणाओं की जैसे पुष्टि हो गई। श्रीनिवासन के दामाद गुरुनाथ मयिप्पन की गिरफ्तारी ने ऐसे आरोपों को आधार दे दिया कि आईपीएल संगठित सट्टेबाजी का अड्डा बन गई है, जिसमें दोषी सिर्फ कुछ खिलाड़ी ही नहीं, बल्कि टीमों के मालिक भी हैं। मयिप्पन चेन्नई सुपरकिंग्स के प्रिंसिपल और सीईओ के रूप में जाने जाते थे, लेकिन उनकी गिरफ्तारी के बाद इस टीम की मालिक कंपनी इंडिया सिमेंट्स ने दावा किया कि वे टीम मैनेजमेंट के सिर्फ एक मानद सदस्य हैं।   

भारतमें क्रिकेट का जो महत्त्व है, उसे देखते हुए इसमें कोई हैरत नहीं है कि इस घटनाक्रम से देश में हलचल मची हुई है। श्रीनिवासन इसे अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए मीडिया की होड़ का परिणाम बता कर सिर्फ खुद को धोखे में रख सकते हैं। रविवार को आईपीएल फाइनल मैच के लिए कोलकाता के इडेन गार्डेन स्टेडियम की सारी टिकटें बिक जाने का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि देश के लोगों ने बीसीसीआई और आईपीएल को कठघरे में खड़ा करने की कोशिशों को स्वीकार नहीं किया है। हालांकि उसके अगले दिन आई इस खबर से उन्हें जरूर निराशा हुई होगी कि स्पॉट फिक्सिंग के खुलासे का आईपीएल मैचों की टीआरपी पर साफ फर्क पड़ा। 18 मई तक के उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक 16 को तीन खिलाड़ियों की गिरफ्तारी के बाद हुए रात वाले चार मैचों का औसत टीवीआर (टेलीविजन रेटिंग) 3.13 रहा, जबकि उसके पहले तमाम मैचों का औसत अखिल भारतीय टीवीआर 3.65 रहा था। इसी तरह हिंदी भाषी बाजार में जहां पहले औसत टीवीआर 3.72 था, रात वाले अगले चार मैचों का टीवीआर 3.2 पर आ गया।

ब्रिटिशपत्रिका द इकॉनोमिस्ट ने अपने ताजा अंक में भारत में क्रिकेट के कुप्रबंधन पर लिखे संपादकीय में ध्यान दिलाया है कि क्रिकेट भारत में एक मजहब की तरह है और इस विशाल एवं विभिन्नतापूर्ण देश को कोई और चीज उस तरह एकजुट नहीं करती, जैसा ये खेल करता है। फिर सट्टेबाजी और फिक्सिंग के आरोपों में हुई गिरफ्तारियों का जिक्र करते हुए पत्रिका ने कहा है- अगर ये (जांचकर्ताओं के आरोप) सही हैंतो उसका मतलब है कि साल 2000 में तिकड़मबाजोंसट्टेबाजों और लालची क्रिकेटरों के आपसी संबंधों का जो खुलासा हुआवह आज भी जारी है। इससे किसी को आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि सरकार और क्रिकेट के संचालकों ने इस गिरोह को खत्म करने के लिए लगभग कुछ नहीं किया है। अंत में अपनी खास शैली सलाह देते हुए संपादकीय में कहा गया है- कानून के शासन की रक्षा और भ्रष्टाचार से संघर्ष की भारत की क्षमता में अंतरराष्ट्रीय भरोसा इस समय इतिहास के सबसे निचले स्तर पर है। देश की प्रतिष्ठा में सुधार के लिए शासकों को शुरुआत को अपने देश के सबसे प्रिय खेल को स्वच्छ बनाते हुए करनी चाहिए।

चुनौती साफ है। आईपीएल जिस रूप में अब तक चला है, उस रूप में वह जारी नहीं रह सकता। या कहा जाए कि उस रूप में उसके चलने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। मगर असली सवाल यही है कि ये कैसे होगा? अभी आईपीएल बीसीसीआई की संपत्ति है। आईपीएल की संचालन परिषद बीसीसीआई को रिपोर्ट करती है। इस परिषद और बीसीसीआई के पदाधिकारियों के अधिकार एवं कार्य क्षेत्र में इतना गड्ड्मड्ड है कि उनके बीच जवाबदेही की सीमारेखा या दायरे को देख या समझ पाना मुश्किल है। खुद बीसीसीआई की कार्यप्रणाली इतनी अपारदर्शी है कि उसका कोई सार्वजनिक उत्तरदायित्व तय करना कठिन है। क्या खेल संस्था की स्वायत्तता के नाम पर किसी ऐसी संस्था को इस तरह नियंत्रणहीन छोड़ा जा सकता है? क्या क्रिकेट में भ्रष्टाचार और आईपीएल में घुस गई आपराधिक गतिविधियां इसी नियंत्रणहीनता का परिणाम नहीं हैं? इस संदर्भ में द इकनोमिस्ट की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है- “(भारतीय) क्रिकेट बोर्ड का अधिक सख्ती से विनियमन होना चाहिए, क्योंकि अब यह एक कारोबारी संस्था हैस्वयंसेवी संस्था नहीं- जैसा वो दावा करता है। उसे ये समझना चाहिए कि भ्रष्टाचार को दूर करने में वह जितनी देर करेगाउस पर उतना सख्त नियंत्रण कसेगा। उसे कथित धोखेबाजों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करते हुए शुरुआत करनी चाहिए- पहले की तरह नहीं जब शोर थम जाने पर धोखाधड़ी करने वालों को बरी कर दिया गया था।

क्या बोर्ड ऐसा करेगा? और क्या सरकार एवं संसद बोर्ड के विनियमन की दिशा में कदम उठाएंगी? अगर भारतीय क्रिकेट और आईपीएल को सचमुच स्वच्छ बनाना है, तो उसका यही एक रास्ता है। यहां ये बात हमें जरूर ध्यान में रखनी चाहिए कि समस्या टी-20 क्रिकेट नहीं है, ना ही अपने-आप में आईपीएल कोई बुरा प्रयोग है। ये दोनों नई सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों के साथ क्रिकेट के विकासक्रम का परिणाम हैं। इसी तरह मुद्दा यह नहीं है कि श्रीनिवासन रहें या जाएं। सवाल यह है कि इस तरह के वैधानिक प्रावधान कैसे किए जाएं जिससे बीसीसीआई का जो भी अध्यक्ष या पदाधिकारी हों उनकी सामाजिक जिम्मेदारी तय हो, बीसीसीआई की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता आए, कॉन्फिलिक्ट ऑफ इंटेरेस्ट की गुंजाइश ना रहे, आईपीएल की टीमों में निवेश का ढांचा सार्वजनिक जानकारी में हो, टीमों की आमदनी और खर्च का ब्योरा सबको पता रहे और एक समयसीमा के बाद इन टीमों को उतना ही खर्च करने की अनुमति हो जितना वे बाजार से कमा सकें। दूसरी प्रमुख चुनौती काले धन के प्रभाव से क्रिकेट को मुक्त करने की है। ऐसा हुआ तो क्रिकेट की भावना को अवश्य बचाया जा सकता है, जो अभी ग्लैमर, स्टेटस सिंबल, धन और पतनशील पार्टी संस्कृति के बोझ तले दब गई है।
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सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

माओवाद का हव्वा बनाती उत्तराखण्ड पुलिस

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-प्रेक्सिस प्रतिनिधि 

वक्ताओं ने कहा कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद एक वैज्ञानिक दर्शन है, एक वैज्ञानिक विचारधारा है जो वर्तमान शोषण व दमन पर टिकी व्यवस्था के बजाय जनवादी व समानता पर आधारित वैज्ञानिक समाजवाद की बात करता है तथा वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था से मुक्ति का रास्ता दिखाता है। चूंकि उक्त छात्र व किसान नेता इस विचारधारा को मानते हैं इसलिए उनको राजद्रोह के मुकदमों में जेल में रखा गया।

हल्द्वानीमें राजनैतिक बंदी रिहाई कमेटी (सी0आर0टी0टी0) व क्रांतिकारी जनवादी मोर्चा (आर0डी0एफ0) उत्तराखण्ड के तत्वाधान में एक प्रेस वार्ता का आयोजन किया गया।

प्रेसवार्ता को सम्बोधित करते हुए वक्ताओं ने कहा कि सितम्बर 2005 में छात्र-किसान नेता व आर0डी0एफ0 के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष जीवन चन्द्र (जे0सी0), छात्र नेता अनिल चैड़ाकोटी, मजदूर नेता नीलू बल्लभ को उत्तराखण्ड की कथित मित्र पुलिस ने राजद्रोह के फर्जी मुकद्में में जेल भेज दिया था। छात्र नेता गोपाल भट्ट, और राजेन्द्र फुलारा को जिन्हें अन्य फर्जी मुकदमों में 2007 व 2008 में गिरफ्तार किया गया उन पर भी 2005 का दिनेशपुर थाने का उक्त मुकदमा लगा दिया। 25 सितम्बर 2005 को जीवन चन्द्र व नीलू बल्लभ को गदरपुर से तथा अनिल चैड़ाकोटी को खटिमा से पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर 3 दिन अवैध हिरासत में रखकर 28 सितम्बर 2005 को 121 ए, 124 बी, 153 बी व 7 क्रिमिनल एमिडमेंट एक्ट की धारायें लगाकर राजद्रोह का फर्जी मुकदमा दिनेशपुर थाने में दर्ज कर जेल भेज दिया गया। तीन-तीन, चार-चार साल जेल में बिताने के बाद ये लोग जमानत पर बाहर आये तो  उत्तराखण्ड की पुलिस द्वारा तरह-तरह से उक्त नेताओं का उत्पीड़न व प्रताड़ना जारी रहा। 28 मई 2013 को उक्त मुकदमें का फैसला सुनाकर ए.डी.जे. रुद्रपुर न्यायालय ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया। उक्त मुकदमें की पैरवी वरिष्ठ  अधिवक्ता ए0डी0 मैसी द्वारा एवं सहयोग एडवोकेट निर्मल मजमूदार द्वारा किया गया। 
न्यायालयके निर्णय से यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तराखण्ड की सरकारें व उत्तराखण्ड की कथित मित्र पुलिस द्वारा प्रदेश के नौजवानों को राजद्रोह के फर्जी मुकदमें में फंसाकर इस व्यवस्था की नाकामी व सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आम जनता का ध्यान भटकाना चाहती है। प्रदेश की सरकारें जनविरोधी नीतियों व प्राकृतिक सम्पदा (जल, जंगल, जमीन व खनिज सम्पदा) की लूट के खिलाफ जनता के विरोध व असहमति के स्वर को बर्दाश्त नहीं करना चाहती। यदि कोई व्यक्ति सरकार की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ व प्राकृति सम्पदा की लूट के खिलाफ विरोध-प्रतिरोध करता है तो वह सरकार की नजर में राजद्रोही हो जाता है। प्रदेश की प्राकृतिक सम्पदा की लूट को रोकने के लिए प्रदेश की संघर्षशील ताकतें, आंदोलनकारी शक्तियां, लगातार प्रतिरोध कर रही हैं। उपरोक्त मुकदमें के सभी आरोपी इस संघर्ष का हिस्सा रहे हैं। पिछले डेढ़-दो दशक से उक्त लोग संघर्षरत हैं। यही बात उत्तराखण्ड की सरकारों व पुलिसिया तंत्रों को पसंद नहीं हैं। जिसके कारण उक्त लोगों पर फर्जी मुकदमा लगाया गया। 

वक्ताओं ने कहा कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद एक वैज्ञानिक दर्शन है, एक वैज्ञानिक विचारधारा है जो वर्तमान शोषण व दमन पर टिकी व्यवस्था के बजाय जनवादी व समानता पर आधारित वैज्ञानिक समाजवाद की बात करता है तथा वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था से मुक्ति का रास्ता दिखाता है। चूंकि उक्त छात्र व किसान नेता इस विचारधारा को मानते हैं इसलिए उनको राजद्रोह के मुकदमों में जेल में रखा गया। क्योंकि हमारी सरकारें व पुलिसिया तंत्र नहीं चाहता की जनता को सही नजरियें से आंदोलन के लिए प्रेरित किया जाय। पूरे उत्तराखण्ड में बड़े बांधों का विरोध, जल-जंगल-जमीन पर हक-हकूक की लडाई सहित तमाम आंदोलनों में नेतृत्वकारी, आंदोलनकारियों पर उत्तारखण्ड की कथित मित्र पुलिस द्वारा सन् 2004 से दर्जनों आंदोलनकारियों पर राजद्रोह के फर्जी मुकद्में लगाये गये हैं। किंतु लगातार न्यायालय के निर्णयों द्वारा यह स्पष्ट होता जा रहा है कि उत्तराखण्ड की पुलिस द्वारा आंदोलनकारियों पर फर्जी मुकदमें लगाये गये थे। सन् 2004 में भी हसपूरखत्ता (ऊधमसिंह नगर) के मुकदमें में 10 लोगों पर राजद्रोह के फर्जी मुकदमें लगाये गये थे। 14 जून 2012 को ए0डी0जे0 रुद्रपुर न्यायालय ने उक्त लोगों को बरी कर दिया गया था। 

प्रेसवार्ता को आर0डी0एफ0 के प्रदेश अध्यक्ष जीवन चन्द्र (जे0सी0), सी0आर0पी0पी0 के संयोजक पान सिंह बोरा, टी0आर0 पाण्डे, सेवानिवृत्त प्रोफेसर प्रभात उप्रेती, छात्र नेता गोपाल भट्ट आदि ने सम्बोधित किया। प्रेस वार्ता में चन्द्रकला तिवारी, पूजा भट्ट, दीप  पाठक, डा0 उमेश चंदोला सहित अनेक लोग उपस्थित थे।

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